Chapter 16 पानी की कहानी का सार notes class 8th hindi vasant

पानी की कहानी पाठ का सारांश 

 Pani ki Kahani Class 8 Summary 

कहानी की शुरुआत में लेखक ने बताया हैं कि बेर की झाड़ी से मोती-सी चमकती पानी की एक बूँद उनके हाथ में आ गई और उनकी दृष्टि उस बूँद पर पड़ते ही वह रुक गई। लेखक कहते हैं कि थोड़ी देर बाद उनकी हथेली से सितार के तारों की-सी झंकार सुनाई देने लगी । ध्यान से देखने पर मालूम हुआ कि पानी की वह बूँद दो भागों में बँट गई हैं और अब वो दोनों ही हिल – हिलकर यह स्वर उत्पन्न कर रही हैं। लेखक को ऐसा लगा मानो जैसे वो बोल रही हों।

लेखक ने यहां पर पानी की बूंदों का मानवीकरण किया है। उसके बाद लेखक उन बूंदों से बातें करने लगते हैं। ओस की बूँद अपने बारे में बताती है कि वह लेखक की हथेली पर बेर के पेड़ से आई है। वह लेखक को यह भी बताती हैं कि बेर के पेड़ की जड़ों के रोएँ उस जैसी असंख्य छोटी-छोटी बूंदों को धरती से खींच लेते हैं और फिर उनका उपयोग कर उन्हें बाहर फेंक देते हैं।

पानी की बूंद बेर के पेड़ से अत्यधिक नाराज थी। वह कहती हैं कि इस पेड़ को इतना बड़ा करने के लिए मेरी जैसी असंख्य बूंदों ने अपनी कुर्बानी दी हैं। लेखक उसकी बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे ।

उसके बाद बूँद , बेर के पेड़ की जड़ों द्वारा पानी को खींचा जाना और उनका प्रयोग अपना खाना बनाने के लिए करना और अंत में पेड़ के पत्तों के छोटे-छोटे छिद्रों से बाहर निकल आने की अपनी कहानी लेखक को बताती हैं। और साथ में यह भी बताती है कि सूरज के ढल जाने के कारण अब वह भाप बनकर उड़ नहीं सकती। इसीलिए वह सूरज के आने का इंतजार कर रही है। 

लेखक उसे आशवासन देते हैं कि अब वह उनकी हथेली पर बिल्कुल सुरक्षित हैं। इसके बाद पानी की वह छोटी सी बूँद लेखक को अपनी उत्पत्ति की कहानी बताती हैं।

बूँद कहती हैं कि जब हमारे पूरे ब्रह्मांड में उथल-पुथल हो रही थी। अनेक नये ग्रह और उपग्रह बन रहे थे यानि ब्रह्मांड की रचना हो रही थी , तब मेरे दो पूर्वज हद्रजन (हाइट्रोजन और ऑक्सीजन गैस) सूर्यमंडल में आग के रूप में मौजूद थे।और सूर्यमंडल लगातार अपने निश्चित मार्ग पर चक्कर काटता रहता था। 

लेकिन एक दिन अचानक ब्रह्मांड में ही बहुत दूर , सूर्य से लाखों गुना बड़ा एक प्रकाश-पिंड दिखाई पड़ा। यह पिंड बड़ी तेज़ी से सूर्य की ओर बढ़ रहा था। उसकी आकर्षण शक्ति से हमारा सूर्य भी काँप रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह सूर्य से टकरा जाएगा।

मगर वह सूर्य से सहस्रों मील दूर से ही दूसरी दिशा की ओर निकल गया । परंतु उसकी भीषण आकषर्ण-शक्ति के कारण सूर्य का एक भाग टूटकर कई छोटे टुकड़ों में बंट गया। उन्हीं में से एक टुकड़ा हमारी पृथ्वी है। यह प्रारंभ में एक बड़ा आग का गोला थी।

लेखक ने बूँद से प्रश्न किया कि अगर पृथ्वी आग का गोला थी तो , तुम पानी कैसे बनी ? बूँद ने जबाब दिया । अरबों वर्षों में धीरे-धीरे पृथ्वी ठंडी होती चली गई और मेरे पूर्वजों ने आपस में रासायनिक क्रिया कर मुझे पैदा किया।

पैदा होते समय मैं भाप के रूप में पृथ्वी के चारों ओर घूमती थी। फिर धीरे धीरे ठोस ब़र्फ में बदल गई । फिर लाखों वर्षों बाद सूर्य की किरणें पड़ने और गर्म जल धारा से मिलने के कारण मैं पानी में परिवर्तित समुद्र में पहुंच गई।

बूँद कहती हैं कि नमक से भरे समुद्र में बहुत ही अनोखा नजारा था।वहाँ एक से एक अनोखे जीव भरे पड़े थे। जैसे रेंगने वाले घोंघे , जालीदार मछलियाँ , कई-कई मन भारी कछुवे और हाथों वाली मछलियाँ आदि।और समुद्र की अधिक गहराई में जगंल , छोटे ठिंगने व मोटे पत्ते वाले पेड़ भी उगे थे। वहाँ पर पहाडिय़ाँ , गुफायें और घाटियाँ भी थी। जहाँ आलसी और अँधे अनेक जीव रहते थे। 

बूँद लेखक को आगे बताती है कि समुद्र के अन्दर से बाहर आना भी आसान काम नहीं था। उसने समुद्र से बाहर आने के लिए कई कोशिशें की। कभी चट्टानों में घुसकर बाहर निकलने की कोशिश की तो , कभी धरती के अंदर ही अंदर किसी सुरक्षित जगह से बाहर निकलने की कोशिश। ऐसी तमाम कोशिशों के बाद अंततः ज्वालामुखी के निकट पहुंच गई।

ज्वालामुखी की गर्मी के कारण वह फिर से भाप में परिवर्तित हो आसमान में उड़ चली। फिर बादल रूप में परिवर्तित होकर दोबारा बरस कर जमीन में आ गिरी। जमीन में आने के पश्चात नदी के रूप में बहने लगी। तभी एक नगर के पास एक नल द्वारा उसे खींच लिया गया।

महीनों तक नलों में धूमने के बाद एक दिन नल के टूटे हिस्से से बाहर निकल आयी और बेर के पेड़ के पास अटक गयी। अब सुबह होने तक का इंतजार कर रही है ताकि वह दोबारा भाप बन सके। और सूर्योदय होते ही ओस की बूँद धीरे-धीरे घटी और देखते-देखते ही लेखक की हथेली से गायब हो गई।

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Chapter 15 सूर के पद का सार notes class 8th hindi vasant

सूरदास के पद अर्थ सहित – Surdas Ke Pad Class 8 Explanation

(1)
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति बल बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै, नागिनी सू भुइँ लोटी।
काँचौ दूध पियावत पचि पचि, देति न माखन रोटी।
सूरज चिरजीवौ दौ भैया, हरि हलधर की जोटी।
सूरदास के पद अर्थ सहित: कवि सूरदास जी अपने इस पद में कान्हा जी के बचपन की एक लीला का वर्णन किया है। इसके अनुसार, यशोदा माता कान्हा को दूध पिलाने के लिए कहती हैं कि इससे उनकी छोटी-सी चोटी, लंबी और मोटी हो जाएगी। कान्हा इसी विश्वास में काफी दिन दूध पीते रहते हैं। एक दिन उन्हें ध्यान आता है कि उनकी चोटी तो बढ़ ही नहीं रही है।

तब वो यशोदा माँ से कहते हैं, माँ मेरी चोटी कब बढ़ेगी? मुझे दूध पीते हुए इतना समय हो गया है, लेकिन ये तो अब भी छोटी ही है। आपने तो कहा था कि दूध पीने से मेरी चोटी किसी बेल की तरह लंबी और मोटी हो जाएगी। फिर उसे कंघी से काढ़ा जाएगा, गूंथा जाएगा, फिर नहाते समय वो किसी नागिन की तरह लहराएगी। फिर कान्हा अपनी माँ से शिकायत करते हैं कि उन्होंने चोटी का लालच देकर उन्हें कच्चा दूध पिलाया है, जबकि उन्हें तो माखन-रोटी पसंद है। 

अंतिम पंक्ति में कवि सूरदास कान्हा और बलराम की जोड़ी ओर मुग्ध होकर उनकी लंबी उम्र की कामना करते हैं।

(2)
तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ।
दुपहर दिवस जानि घर सूनो ढ़ूँढ़ि ढँढ़ोरि आपही आयौ।
खोलि किवारि, पैठि मंदिर मैं, दूध दही सब सखनि खवायौ।
ऊखल चढ़ि, सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ मैं ढ़रकायौ।
दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढ़ोटा कौनैं ढ़ँग लायौ।
सूर स्याम कौं हटकि न राखै तैं ही पूत अनोखौ जायौ।
सूरदास के पद अर्थ सहित: कवि सूरदास जी ने अपना यह पद कान्हा की माखनचोरी की लीला को समर्पित किया है। गोपियां यशोदा माँ के पास आकर कहती हैं –

‘हे यशोदा! तुम्हारे पुत्र कृष्ण ने हमारा मक्खन चोरी करके खा लिया है। दोपहर में वो घर को सूना देखकर घर में घुस गया और अपने दोस्तों के साथ मिलकर सारा दूध-दही खा गया।’

आगे गोपियाँ कहती हैं,

‘कान्हा ने ओखली पर चढ़कर छींके से मक्खन उतारा और खा-पीकर कुछ मक्खन ज़मीन पर भी फैला दिया। यशोदा, आपने ऐसा उत्पाती लड़का पैदा कर दिया है, जिसकी वजह से हमें हर रोज़ दूध-दही का नुकसान हो रहा है। आप उसे रोकती क्यों नहीं हो, क्या आपने ही एक अनोखे पुत्र को जन्म दिया है?’

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Chapter 14 अकबरी लोटा का सार notes class 8th hindi vasant

Akbari Lota Class 8 Summary

“अकबरी लोटा” कहानी के मुख्य पात्र लाला झाऊलाल का काशी के ठठेरी बाजार में एक मकान था। मकान के नीचे की दुकानों से उन्हें 100/-रुपया मासिक (महीने का) किराया मिलता था जिससे उनका गुजारा अच्छे से हो जाता था। आम तौर पर उनको पैसे की तंगी नही रहती थी।

लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब एक दिन अचानक उनकी पत्नी ने ढाई सौ रुपए (250/-) लालाजी से मांग लिए। मगर लालाजी के पास पत्नी को देने के लिए उस समय पैसे नहीं थे। इसलिए उन्होंने थोड़ा सा मुंह बनाकर पत्नी की तरफ देखा।

इस पर पत्नी ने अपने भाई से ढाई सौ रुपए मांग लेने की बात कही जिस पर लालाजी थोड़ा तिलमिला गए। उनकी इज्जत का भी सवाल था। इसीलिए उन्होंने अपनी पत्नी से एक सप्ताह के अंदर रुपए देने का वादा कर दिया। 

लालाजी ने अपनी पत्नी को पैसे देने का वादा तो कर दिया लेकिन घटना के चार दिन बीत जाने के बाद भी लालाजी पैसों का प्रबंध न कर सके। पांचवें दिन लालाजी ने अपनी इस परेशानी का ज़िक्र अपने मित्र पंड़ित बिलवासी मिश्रजी से किया । पंड़ित बिलवासी मिश्रजी ने लाला जी को आश्वस्त किया कि वह किसी न किसी प्रकार रुपयों का इंतजाम कर उनकी समस्या अवश्य हल कर देंगें ।

लेकिन जब 6 दिन बीत जाने के बाद भी पैसों का इंतजाम ना हो सका तो लालाजी अत्यधिक परेशान हो गए और अपनी छत पर जाकर टहलने लगे। अचानक उन्होंने अपनी पत्नी से पीने के लिए पानी मँगवाया। पत्नी भी एक बेढंगे से लोटे में पानी लेकर आ गई , जो लाला जी को बिल्कुल भी पसंद नहीं था।

खैर उन्होंने पत्नी से लोटा लिया और पानी पीने लगे। चिंता में वह लोटा अचानक उनके हाथ से छूट गया और नीचे गली में खड़े एक अंग्रेज अधिकारी को नहलाता हुआ उसके पैरों पर जोर से जा गिरा जिससे उसके पैर के अंगूठे में चोट आ गई।

अंग्रेज अधिकारी का गुस्सा होना लाजमी था सो वह गुस्से से लाल पीला होकर , गालियां देता हुआ लालाजी के घर में घुस गया। ठीक उसी समय पंड़ित बिलवासी मिश्र जी भी वहां पर प्रकट हो गए। उन्होंने क्रोधित अंग्रेज अधिकारी को आराम से एक कुर्सी में बैठाया और झूठा गुस्सा दिखा कर लालाजी से नाराज होने का नाटक करने लगे।

अंग्रेज अधिकारी से थोड़ी देर बात करने के बाद , वो उस अंग्रेज अधिकारी के सामने उस बेढंगे से लोटे को खरीदने में दिलचस्पी दिखाने लगे और उस अंग्रेज अधिकारी के सामने उस बेढंगे व बदसूरत लोटे को ऐतिहासिक व बादशाह अकबर का लोटा बता कर उसका गुणगान करने लगे। उसे बेशकीमती व मूल्यवान बताने लगे।

लोटे की इतनी प्रशंसा सुनकर अंग्रेज अधिकारी भी लोटे को खरीदने के लिए लालायित हो उठा। बस इसका ही फायदा पंड़ित बिलवासी मिश्रजी ने उठाया और रुपयों की बाजी लगानी शुरू कर दी। दोनों बाजी लगाते गये और अंत में पंड़ित बिलवासी मिश्र ने 250/- रूपये की बाजी लगा दी लेकिन अंग्रेज भी लोटे को लेने के लिए अत्यधिक लालायित था। इसीलिए उसने 500/- रूपये की बाजी लगा दी। 

अब पंड़ितजी ने बड़ी होशियारी से अपनी लाचारी दिखाते हुए अंग्रेज अधिकारी से कहा कि उनके पास तो सिर्फ 250/- रूपये ही हैं। इसीलिए अधिक दाम चुकाने के कारण वो उस लोटे के हकदार हैं । अंग्रेज अधिकारी ने लाला से उस लोटे को खुशी – खुशी खरीद लिया।

अंग्रेज अधिकारी ने पंड़ित बिलवासी मिश्र को बताया कि वह उस अकबरी लोटे को ले जाकर अपने पड़ोसी मेजर डग्लस को दिखाएगा क्योंकि मेजर डग्लस के पास एक “जहाँगीरी अंडा” है जिसकी वह खूब तारीफ करता है।

अंग्रेज के जाने के बाद पंड़ितजी ने लालाजी को पैसे दिए जिससे लालाजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पंड़ितजी को बहुत – बहुत धन्यवाद दिया। जब पंडित जी अपने घर जाने लगे तो लालाजी ने उनसे ढाई सौ रुपयों के बारे में पूछा लिया। मगर पंडित जी “ईश्वर ही जाने” कह कर अपने घर को चल दिए। 

रात में पंड़ितजी ने अपनी पत्नी के संदूक से अपने मित्र की मदद के लिये निकाले ढाई सौ रुपयों को वापस उसी तरह , उसी संदूक में रख दिया और चैन की नींद सो गए।

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Chapter 13 जहाँ पहिया है का सार notes class 8th Hindi vasant

जहाँ पहिया है पाठ का सार
जहाँ पहिया है पाठ का सारांश
jahan pahiya hai summary

जहां पहिया है पाठ में जमीला बीवी नामक एक युवती, जिसने साइकिल चलाना शुरू किया था, उससे लेखक की बात हुई तो उसने कहा-“यह मेरा अधिकार है, अब हम कहीं भी जा सकती हैं। अब हमें बस का इंतजार नहीं करना पड़ता। मुझे पता है कि जब मैंने साइकिल चलाना शुरू किया तो लोग फ़ब्तियों कसते थे, लेकिन मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया।” फातिमा एक विद्यालय में अध्यापिका है। वह शाम को आधे घंटे के लिए किराए पर साइकिल लेकर चलाती है। इस विषय में फातिमा ने बताया-“साइकिल चलाने में एक खास तरह की आज़ादी हैं। हमें किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। मैं कभी इसे नहीं छोड़ेगी।” इस प्रकार की बातों से स्पष्ट होता है कि पुडुकोट्टई की स्त्रियों में साइकिल के प्रति कितना गहरा प्रेम है और समाज के प्रति कितना रोष।

पुडुकोट्टई जिले में साइकिल की पूरी तरह से धूम मची हुई है अर्थात् जिले में चारो तरफ साइकिल की ही चर्चा हो रही है। अब हर क्षेत्र एवं व्यवसाय से जुड़ी महिलाएँ इसका खूब प्रयोग कर रही हैं; फिर चाहे वे खदानों, स्कूलों, होटलों, आँगनबाड़ी आदि क्षेत्रों में ही क्यों न काम कर रही हों। दोपहर का खाना पहुँचाने वाली औरतें इसका भरपूर प्रयोग कर रही हैं। इसी संदर्भ में साइकिल आंदोलन की एक नेता का कहना है-“मुख्य बात यह है कि इस आंदोलन ने महिलाओं को बहुत आत्मविश्वास प्रदान किया। महत्त्वपूर्ण यह है कि इसने पुरुषों पर उनकी निर्भरता कम कर दी है।” अब साइकिल एक संपूर्ण सवारी बन चुकी है। सड़क पर माँ, उसका बच्चा और पीछे ढेर-सा सामान लादे हुए साइकिल चलाती महिला का दृश्य देखा जा सकता है।

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Chapter 12 सूरदास चरित का सार notes Class 8 Hindi Vasant

Sudama Charit Class 8 Meaning in Hindi – सुदामा चरित कविता का भावार्थ

सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

सुदामा चरित भावार्थ: इस पद में कवि ने सुदामा के श्रीकृष्ण के महल के द्वार पर खड़े होकर अंदर जाने की इजाज़त मांगने का वर्णन किया है।

श्रीकृष्ण का द्वारपाल आकर उन्हें बताता है कि द्वार पर बिना पगड़ी, बिना जूतों के, एक कमज़ोर आदमी फटी सी धोती पहने खड़ा है। वो आश्चर्य से द्वारका को देख रहा है और अपना नाम सुदामा बताते हुए आपका पता पूछ रहा है।

से बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥ 

सुदामा चरित भावार्थ: द्वारपाल के मुँह से सुदामा के आने का ज़िक्र सुनते ही श्रीकृष्ण दौड़कर उन्हें लेने जाते हैं। उनके पैरों के छाले, घाव और उनमें चुभे कांटे देखकर श्रीकृष्ण को कष्ट होता है, वो कहते हैं कि मित्र तुमने बड़े दुखों में जीवन व्यतीत किया है। तुम इतने समय मुझसे मिलने क्यों नहीं आए? सुदामा जी की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण रो पड़ते हैं और पानी की परात को छुए बिना, अपने आंसुओं से सुदामा जी के पैर धो देते हैं।

कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥

आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥

सुदामा चरित भावार्थ: सुदामा जी की अच्छी आवभगत करने के बाद कान्हा उनसे मजाक करने लगते हैं। वो सुदामा जी से कहते हैं कि ज़रूर भाभी ने मेरे लिए कुछ भेजा होगा, तुम उसे मुझे दे क्यों नहीं रहे हो? तुम अभी तक सुधरे नहीं। जैसे, बचपन में जब गुरुमाता ने हमें चने दिए थे, तो तुम तब भी चुपके से मेरे हिस्से के चने खा गए थे। वैसे ही आज तुम मुझे भाभी का दिया उपहार नहीं दे रहे हो।

वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की बात।
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जात॥
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।
कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥

सुदामा चरित भावार्थ: इस पद में सुदामा के वापिस घर की तरफ लौटने का वर्णन है। वो सोचते हैं कि मैं मदद की उम्मीद लेकर श्रीकृष्ण के पास आया, लेकिन श्रीकृष्ण ने तो मेरी कोई मदद ही नहीं की। लौटते समय निराश और खिन्न सुदामा जी के मन में कई विचार घूम रहे थे, वो सोच रहे थे कि कृष्ण को समझना किसी के वश में नहीं है। एक तरफ तो उसने मुझे इतना आदर-सम्मान दिया, वहीं दूसरी तरफ मुझे बिना कुछ दिए लौटा दिया। 

मैं तो यहां आना ही नहीं चाहता है, वो तो मेरी धर्मपत्नी ने मुझे जबरदस्ती द्वारका भेज दिया। ये कृष्ण तो खुद बचपन में ज़रा-से मक्खन के लिए पूरे गाँव के घरों में घूमता था, इससे मदद की आस लगाना ही बेकार था।

वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥

सुदामा चरित भावार्थ: जब सुदामा अपने गाँव पहुंचते हैं, तो उन्हें आसपास सबकुछ बदला-बदला दिखता है। सामने बड़े महल, हाथी-घोड़े, गाजे-बाजे आदि देखकर सुदामा जी सोचते हैं कि कहीं मैं रास्ता भटककर फिर से द्वारका नगरी तो नहीं आ पहुंचा हूँ? मगर, थोड़ा ध्यान से देखने पर वो समझ जाते हैं कि ये उनका अपना गाँव ही है। फिर उन्हें अपनी झोंपड़ी की चिंता सताती है, वो बहुत लोगों से पूछते हैं, मगर अपनी झोंपड़ी को ढूँढ नहीं पाते।

कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥

सुदामा चरित भावार्थ: जब सुदामा जी को श्रीकृष्ण की महिमा समझ आती है, तो वो उनकी महिमा गाने लगते हैं। वो सोचते हैं कि कहाँ तो मेरे सिर पर टूटी झोंपड़ी थी, अब सोने का महल मेरे सामने खड़ा है। कहाँ तो मेरे पास पहनने को जूते नहीं थे, अब मेरे सामने हाथी की सवारी लेकर महावत खड़े हैं। कठोर ज़मीन की जगह मेरे पास नरम बिस्तर हैं। पहले मेरे पास दो वक्त खाने को चावल भी नहीं होते थे, अब मनचाहे पकवान हैं। ये सब प्रभु की कृपा से ही संभव हुआ है, उनकी लीला अपरम्पार है। 

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Chapter 11 जब सिनेमा ने बोलना सीखा का सार Notes class 8th Hindi Vasant

सारांश


लेखक ने इस पाठ में देश की पहली बोलने वाली फिल्म का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब देश की पहली बोलने वाली फिल्म ‘आलम आरा’ प्रदर्शित होने वाली थी तो शहर भर में उसके पोस्टरों में कुछ इस तरह की पंक्तियाँ लिखी हुई थी कि- ‘वे सभी जिन्दा हैं, साँस ले रहे हैं, शत-प्रतिशत बोल रहे हैं, अठहत्तर मुर्दा मानव ज़िंदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।’ इन पंक्तियों का अर्थ था कि फिल्म में जितने भी पात्र हैं वह सब जीवित नजर आ रहे हैं, सभी उनको बोलते, बातें करते देख सकते हैं, इस तरह का विज्ञापन तैयार करके लोगों को फिल्म को देखने के लिए आकर्षित किया गया था और यह ‘आलम आरा’ फिल्म का सबसे पहला पोस्टर था।
14 मार्च 1931 की वह ऐतिहासिक तारीख भारतीय सिनेमा में बड़े बदलाव का दिन था। इसी दिन पहली बार भारत के सिनेमा ने बोलना सीखा था। हालाँकि वह दौर ऐसा था जब मूक सिनेमा लोकप्रियता के शिखर पर था।


आलम आरा’ पहली सवाक फिल्म है। ये फिल्म 14 मार्च 1931 को बनी। भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनाने वाले फिल्मकार ‘अर्देशिर एम. ईरानी’ थे। अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी थी जिससे उन्हें इस तरह की फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली और उनके मन में भी भारतीय सिनेमा में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जागी।


इस फिल्म में पहले पार्श्वगायक बने डब्लू. एम. खान। पहला गाना था ‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे अगर देने की ताकत है’। आलम आरा का संगीत उस समय डिस्क फॉर्म में रिकार्ड नहीं किया जा सका, फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो साउंड के कारण ही इसकी शूटिंग रात में करनी पड़ती थी।


आलम आरा फिल्म ‘अरेबियन नाइट्स’ जैसी फैंटेसी थी। फिल्म ने हिंदी-उर्दू के मेलवाली ‘हिंदुस्तानी’ भाषा को लोकप्रिय बनाया। इसमें गीत, संगीत तथा नृत्य के अनोखे संयोजन थे। फिल्म की नायिका जुबैदा थीं। नायक थे विट्ठल। वे उस दौर के सर्वाधिक पारिश्रमिक पाने वाले स्टार थे।


लेखक कहते है कि जब विट्ठल को फिल्म के नायक के रूप में चुना गया तो उनके बारे में एक कहानी बहुत ही मशहूर थी कि विट्ठल को उर्दू बोलने में मुश्किलें आती थीं। पहले तो उनका बतौर नायक चयन किया गया मगर उर्दू न बोल पाने के कारण उन्हें फिल्म में नायक की भूमिका से हटाकर उनकी जगह मेहबूब को नायक बना दिया गया। मेहबूब भी एक बहुत ही प्रसिद्ध और बेहतरीन कलाकार रहे हैं।


विट्ठल नाराज़ हो गए और अपना हक पाने के लिए उन्होंने मुकदमा कर दिया। उस दौर में उनका मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा जो तब के मशहूर वकील हुआ करते थे। विट्ठल मुकदमा जीते और भारत की पहली बोलती फिल्म के नायक बनें।


इसके नायक बिट्ठल तथा नायिका जुबैदा थी। अर्देशिर को इस फिल्म को बनाने के बाद ‘भारतीय सवाक्‌ फिल्म का पिता’ कहा गया। ये फिल्म 8 सप्ताह तक हाउस फुल चली थी।
इस फिल्म में सिर्फ तीन वाद्य यंत्र प्रयोग किये गए थे। आलम आरा फिल्म फैंटेसी फिल्म थी। फिल्म ने हिंदी-उर्दू के तालमेल वाली हिंदुस्तानी भाषा को लोकप्रिय बनाया। यह फिल्म 14 मार्च 1931 को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक ‘हाउसफुल’ चली और भीड़ इतनी उमड़ती थी कि पुलिस के लिए नियंत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था।


इसी फिल्म के उपरान्त ही फिल्मों में कई ‘गायक – अभिनेता’ बड़े परदे पर नज़र आने लगे। आलम आरा भारत के अलावा श्रीलंका, बर्मा और पश्चिम एशिया में पसंद की गई।
इसी सिनेमा से सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया था।

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Chapter 10 कामचोर का सार Notes class 8th Hindi Vasant

इस कहानी की लेखिका इस्मत चुगताई जी हैं। इस्मत चुगताई की कहानी “कामचोर” , लगभग ऐसे हर घर की कहानी है जिसमें दो या दो से ज्यादा बच्चे व भी कामचोर होते हैं। यह कहानी लेखिका व उसके परिवार के अन्य बच्चों की कहानी है जो दिन भर या तो बैठकर आराम फरमाते रहते हैं या फिर मौज मस्ती और शरारत करने में अपना पूरा दिन निकाल देते थे। यहां तक कि वे खुद के कार्य भी अपने आप नहीं करते थे।

ऐसे में घर के बड़ों ने सोचा कि घर के सारे नौकरों को निकाल दिया जाए और इन निकम्मे बच्चों को घर के छोटे-बड़े कामों में हाथ बटाँना सिखाया जाए । सोच को हकीकत का रूप देने से असली कहानी की शुरूवात होती हैं। 

मां-बाप के बातों को सुनकर बच्चों ने सोचा कि हमें भी कुछ काम खुद करने चाहिए। सो बच्चों ने काम की शुरुवात अपने लिए पीने का पानी खुद लाने से की और फिर सभी बच्चे मटके और सुराहियों से पानी लेने दौड़ पड़े।

फिर क्या था पहले पानी लेने के चक्कर में धक्का-मुक्की शुरू हो गई। कोई किसी से डरने वाला नहीं था और कोई किसी की सुनने वाला भी नहीं था। सो वहीं पर फिर से लड़ाई झगड़ा शुरू हो गया। नतीजा सारे मटके , सुराहियों , पतीलियों इधर-उधर बिखर गई और बच्चे बुरी तरह से पानी से भीग गए।

लेखिका की मां ने फरमान सुनाया “जो काम नहीं करेगा। उसे रात का खाना नहीं दिया जाएगा”।  यह सुनते ही सभी बच्चे काम करने के लिए राजी हो गये। लेखिका की मां ने बच्चों को कई सारे काम बताए। जैसे गंदी दरी को साफ करना , आंगन में पड़े कूड़े को साफ करना , पेड़ पौधों में पानी देना आदि। साथ में लेखिका के पिता ने बच्चों को इनाम का लालच भी दिया।

बच्चों ने अपने काम की शुरुआत फर्श पर पड़ी दरी साफ करने से शुरू की। दरी की धूल साफ करने के लिए बच्चों ने उस पर लकड़ी के डंडों से मारना शुरू कर दिया जिसकी वजह से दरी की सारी धूल कमरे में फैल गई और बच्चों के नाक और आंखों में धुस गई जिसकी वजह से बच्चे खाँसते-खाँसते बेदम हो गए।

इसके बाद बच्चों ने दूसरा मोर्चा संभाला आंगन में झाड़ू लगाने का। कुछ बच्चों के दिमाग में यह बात आयी कि झाड़ू लगाने से पहले थोड़ा पानी डाल देना चाहिए। फिर क्या था दरी में डालकर पानी छिड़कने का कार्य शुरू हुआ। काम तो क्या होना था। लेकिन छीना झपटी की वजह से बच्चों ने झाड़ू के तिनके तिनके बिखेर दिए। पानी डालने की वजह से पूरा आंगन व बच्चे कीचड़ से सन गये।

खैर अगला काम था पेड़ – पौधों में पानी देना। सारे बच्चे घर की सारी बाल्टियों , लोटे , भगौने आदि लेकर पौधों में पानी डालने निकल पड़े। अब पानी भरने के लिए भी लड़ाई झगड़ा , धक्का-मुक्की शुरू हो गई। नतीजा सारे बच्चे कीचड़ से सन गये। बच्चों को काबू करने के लिए सभी बड़ों को ( भाइयों , मामा-मामी , मौसी आदि ) को बुला लिया गया। फिर पड़ोस के बंगलों से नौकर बुला कर चार आना प्रति बच्चे के हिसाब से , हर बच्चे को नहलाया गया।

बच्चे यह मान चुके थे कि उनसे सफाई और पौधों में पानी देने का काम नहीं हो सकता है। इसलिए अब वो मुर्गियों को उनके दबड़े (मुर्गी घर) में बंद करने का कार्य करेंगे। फिर क्या था सभी बच्चे मुर्गियों को पकड़ने लगे जिस वजह से मुर्गियों डर के मारे इधर उधर भागने लगी। डर से भागती  मुर्गियों ने घर की रसोई से लेकर पूरे आंगन में खूब उत्पात मचाया। लेकिन उन बच्चों से एक भी मुर्गी दबड़े में नहीं गई।

अचानक कुछ बच्चों का ध्यान घर आती हुई भेड़ों के ऊपर चला गया। उन्होंने सोचा कि क्यों न भेड़ों को ही खाना खिला दिया जाए। जैसे ही उन्होंने अनाज के दाने भेड़ों के आगे रखे तो , सारी भूखी भेड़ें अनाज पर टूट पड़ी और कुछ भेड़ों ने रसोई में रखी सब्जियों , मटर और अन्य चीजों को भी खाना शुरु कर दिया जिस वजह से पूरे घर में अफरा-तफरी का माहौल हो गया। बड़ी मुश्किल से भेड़ों पर काबू पाया गया। 

इतना सब काम करने के बाद भी बच्चे कहां मानने वाले थे। उन्होंने फिर से काम करने की सोची और भैसों का दूध दोहने में जुट गए। भैंस इतने सारे बच्चों को वहां देख कर डर गई और उसने चारों पैरों में उछलकर दूसरी तरफ छलांग लगा दी।

बच्चों ने सोचा कि क्यों न भैंस के पैर बाँधकर दूध निकाला जाय और बच्चों ने भैंस के अगले दो पैर चाचाजी की चारपाई से बांध दिए। भैंस डर के मारे इधर-उधर भागने लगी और साथ में चाचा जी की चारपाई भी धसीट कर अपने साथ ले गई।

अब भैंस जहां-जहां जाती। चाचाजी भी चारपाई सहित वहाँ वहाँ जाते। इतने में कुछ बच्चों ने भैंस का बछड़ा भी खोल दिया । बछड़े के चिल्लाने से भैंस रुक गई और बछड़ा तत्काल दूध पीने में लग गया।

इतना सब होने के बाद लेखिका की माँ इतना परेशान हो गई कि उन्होंने मायके जाने की धमकी दे डाली। तब पिताजी ने सबको बुलाया और आदेश दिया कि अब से कोई किसी भी काम पर हाथ नहीं लगाएगा।

अगर कोई किसी काम पर हाथ लगायेगा , तो उसे रात का खाना नहीं दिया जाएगा। यानि कहानी जहां से शुरू हुई थी वहीं पर आकर खत्म हो गई। निकम्मे बच्चे जो पहले भी कोई काम नहीं करते थे। आज के बाद भी नहीं करेंगे। 

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Chapter 8 यह सबसे कठिन समय नहीं का सार Notes class 8th Hindi Vasant

यह सबसे कठिन समय नहीं भावार्थ – Yeh Sabse Kathin Samay Nahi Class 8 Summary

नहीं, यह सबसे कठिन समय नहीं!
अभी भी दबा है चिड़ियाँ की
चोंच में तिनका
और वह उड़ने की तैयारी में है!
अभी भी झरती हुई पत्ती
थामने को बैठा है हाथ एक
अभी भी भीड़ है स्टेशन पर
अभी भी एक रेलगाड़ी जाती है
गंतव्य तक
यह सबसे कठिन समय नहीं भावार्थ: कवयित्री के अनुसार, भले ही हर तरफ अविश्वास का अंधकार छाया है, लेकिन अभी भी उनके मन में आशा की किरणें चमक रही हैं, वो कहती हैं – ये सबसे बुरा वक्त नहीं है। 

अभी चिड़िया अपना घोंसला बुनने के लिए तिनके जमा कर रही है। वृक्ष से गिरती पत्ती को थामने के लिए कोई हाथ अभी मौजूद है। अभी भी अपनी मंज़िल तक पहुंचने का इंतज़ार कर रहे यात्रियों को उनकी मंज़िल तक ले जाने वाली गाड़ी आती है। 

जहाँ कोई कर रहा होगा प्रतीक्षा
अभी भी कहता है कोई किसी को
जल्दी आ जाओ कि अब
सूरज डूबने का वक्त हो गया
अभी कहा जाता है
उस कथा का आखिरी हिस्सा
जो बूढ़ी नानी सुना रही सदियों से
दुनिया के तमाम बच्चों को
अभी आती है एक बस
अंतरिक्ष के पार की दुनिया से
लाएगी बचे हुए लोगों की खबर!
नहीं, यह सबसे कठिन समय नहीं।
यह सबसे कठिन समय नहीं भावार्थ: कवयित्री ने निराशा से भरे इस संसार में भी आशा का दामन थाम रखा है। तभी वो इन पंक्तियों में कहती हैं कि यह सबसे बुरा समय नहीं है। आज भी कोई घर पर किसी का इंतज़ार करता है और सूरज डूबने से पहले उसे घर बुलाता है। जब तक इस दुनिया में दादी-नानी की सुनाई दिलचस्प कहानियां गूँजती रहेंगी, तब तक ये दुनिया बसी रहेगी और सबसे बुरा वक्त नहीं आएगा।

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Chapter 7 क्या निराश हुआ जाए का सार Notes class 8th Hindi Vasant

क्या निराश हुआ जाए पाठ का सार

Kya Nirash Hua Jaye saransh

लेखक आज के समय में फैले हुए डकैती ,चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार से बहुत दुखी है। आजकल का समाचार पत्र आदमी को आदमी पर विश्वास करने से रोकता है। लेखक के अनुसार जिस स्वतंत्र भारत का स्वप्न गांधी, तिलक, टैगोर ने देखा था यह भारत अब उनके स्वप्नों का भारत नहीं रहा। आज के समय में ईमानदारी से कमाने वाले भूखे रह रहे हैं और धोखा धड़ी करने वाले राज कर रहे हैं।


लेखक के अनुसार भारतीय हमेशा ही संतोषी प्रवृति के रहे हैं। वे कहते हैं आम आदमी की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कानून बनाए गए हैं किन्तु आज लोग ईमानदार नहीं रहे। भारत में धर्म को कानून से बढ़कर माना गया है,  शायद इसलिए  आज भी लोगों में ईमानदारी, सच्चाई है। लेखक को यह सोचकर अच्छा लगता है कि अभी भी लोगों में इंसानियत बाकी है उदहारण के लिए वेबस और रेलवे स्टेशन पर हुई घटना की बात बताते हैं।


इन उदाहरणो से लेखक के मन में आशा की किरण जागती है और वे कहते हैं कि अभी निराश नहीं हुआ जा सकता। लेखक ने टैगोर के एक प्रार्थना गीत का उदाहरण देकर कहा है कि जिस प्रकार उन्होंने भगवान से प्रार्थना की थी कि चाहे जितनी विपत्ति आए  वे भगवान में ध्यान लगाए रखें। लेखक को विश्वास है की एक दिन भारत इन्ही गुणों के बल पर वैसा ही भारत बन जायेगा जैसा वह चाहता है। अतः अभी निराश न हुआ जाए ।

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Chapter 6 भगवान के डाकिए का सार Notes class 8th Hindi Vasant

भगवान के डाकिए कविता का सारांश – Bhagwan Ke Dakiye Poem Meaning in Hindi : भगवान के डाकिए कविता में कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने पक्षी और बादलों को भगवान के डाकिए कहा है। उनके अनुसार ये एक देश के संदेशों को दूसरे देश तक पहुंचाते हैं। भले ही हम उनके पत्रों को ना समझ पाएं, लेकिन पर्वत, पेड़-पौधे और पानी आदि इनकी चिट्ठियां आसानी से पढ़ लेते हैं। कवि के अनुसार, हवाओं में तैरते बादल और बादलों पर उड़ते पक्षी एक देश की खुशबू और भाप को दूसरे देश तक ले जाते हैं। 

भगवान के डाकिए का भावार्थ – Bhagwan Ke Dakiye Class 8 Summary

पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड
बाँचते हैं।

भगवान के डाकिए भावार्थ: भगवान के डाकिए कविता की इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि आसमान में तैरते बादल और पक्षी भगवान के डाकिए हैं। ये एक देश से उड़कर दूसरे देश तक जाते हैं और ख़ास संदेशों का आदान-प्रदान करते हैं। ये संदेश हम समझ नहीं पाते, लेकिन भगवान के संदेश को पर्वत, जल, पेड़-पौधे आदि बख़ूबी समझ लेते हैं।

हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरते हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में पानी
बनकर गिरता है।

भगवान के डाकिए भावार्थ: रामधारी सिंह दिनकर जी ने यहां हमें प्रकृति की महानता के बारे में बताया है। हम तो धरती को सीमाओं में बांट लेते हैं, लेकिन प्रकृति के लिए सब एक-समान हैं। इसीलिए एक देश की धरती अपनी सुगंध दूसरे देश को भेजती है। ये सुगंध पक्षियों के पंखों पर बैठकर यहां-वहां फैलती है और एक देश की भाप, दूसरे देश में पानी बनकर बरस जाती है।

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