अयोध्या की घटनाओं से वंचित, भरत अपने ननिहाल केकय राज्य में थे। उन्होंने एक विचित्र स्वप्न देखा जो अपने मित्रों को सुना रहे थे। तभी अयोध्या से घुड़सवार वहाँ पहुँचा । भरत को सौ रथों और सेना के साथ अयोध्या भेजा गया। आठ दिन बाद वे अयोध्या पहुँचे। माता कैकई ने भरत को राजा दशरथ की मृत्यु का समाचार दिया । भरत शोक में थे, वे राम से मिलने का आग्रह करने लगे। कैकई ने उन्हें वरदानों और राम के वनवास के बारे में बताया। यह सुनकर भरत क्रोध से चीख पड़े और बोले कि पिता और भाई को खो कर उन्हें ये राज्य नहीं चाहिए। वे राम को लेने जाने का कहते हुए मूर्छित हो गए। होश आने पर कौशल्या के पास जा कर रोए और क्षमा माँगी। कौशल्या ने उन्हें माफ़ कर गले लगा लिया।
अगले दिन भरत सभी के साथ राम को लेने चित्रकूट गए। राम, सीता और लक्ष्मण ने एक पहाड़ी पर पर्णकुटी बनाई थी। सेना की कोलाहल से सारे जंगल में खलबली मच गयी। लक्ष्मण पहरा दे रहे थे, आवाज़ सुन वे पेड़ पर चढ़कर देखने लगे। उन्हें लगा सेना उन्हें मारने आ रही है, राम ने उन्हें समझाया कि भरत हमला नहीं करेंगे। सेना को नीचे रोक भरत और शत्रुघ्न नंगे पाव ऊपर आए और शिला पर बैठे राम के चरणों में गिर गए। उन्होंने बड़े साहस से पिता की मृत्यु के समाचार दिए। राम–लक्ष्मण और सीता पहाड़ी से उतरकर नगरवासियों और गुरुजनों से मिले। अगले दिन भरत ने राम से राजमहल चलने का आग्रह किया परंतु राम ने कहा पिताजी की आज्ञा का पालन अनिवार्य है। निराश होकर भरत ने राम की खड़ाऊ मांगी और उसे माथे से लगा कर कहा 14 वर्ष तक इन पादुकाओं का शासन रहेगा। अयोध्या पहुंचकर भरत ने उनकी पूजा की। भरत अयोध्या नहीं रुके, तपस्वी वस्त्र धारण कर नंदीग्राम चले गए और राम के आने का इंतजार करने लगे।
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