कठपुतली पाठ सार
प्रस्तुत कविता ” कठपुतली ” में कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने कठपुतलियों के मन की व्यथा को दर्शाया है। ये सभी कठपुतलियाँ धागों में बंधे – बंधे परेशान हो चुकी हैं और इन्हें दूसरों के इशारों पर नाचने में दुख होता है। इस दुख से बाहर निकलने के लिए एक कठपुतली विद्रोह के शुरुआत करती है , वो सब धागे तोड़कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है। अन्य सभी कठपुतलियां भी उसकी बातों से सहमत हो जाती हैं और स्वतंत्र होने की चाह व्यक्त करती हैं। क्योंकि उनका मन भी स्वतन्त्र हो कर चलना चाहता था। परन्तु जब पहली कठपुतली पर सभी की स्वतंत्रता की ज़िम्मेदारी आती है , तो वो सोच में पड़ जाती है कि क्या वो इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी निभा पाएगी ? इस बात का क्या भरोसा है कि स्वतंत्र होने के बाद वो ख़ुश रह पाएंगी ? क्योंकि कहीं न कहीं कठपुतली को भी पता है कि उसकी यह स्वतन्त्र होने की इच्छा सही नहीं है , वह जानती है कि बिना धागों के उसका अस्तित्व बेजान है। इन बातों की वजह से ही पहली कठपुतली अपने फैसले के बारे में दोबारा सोचने पर मजबूर हो गयी और उसे लगने लगा कि उसके मन की इच्छा सही भी है या नहीं।
कठपुतली पाठ व्याख्या
कठपुतली
गुस्से से उबली
बोली – यह धागे
क्यों हैं मेरे पीछे – आगे ?
इन्हें तोड़ दो ;
मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ दो।
कठिन शब्द
गुस्से से उबलना ( मुहावरा ) – बहुत अधिक गुस्सा आना
पाँव – पैर
व्याख्या – कविता की इन पंक्तियों में कवि भवानी प्रसाद मिश्र जी ने एक कठपुतली के मन के भावों को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में एक कठपुतली बहुत अधिक गुस्सा होते हुए कह उठती है कि उसके आगे – पीछे ये धागे क्यों बांधे गए हैं ? कठपुतली कहती है कि ये सभी धागे तोड़ दो और उसे उसके पैरों पर छोड़ दो। कहने का तात्पर्य यह है कि कठपुतली धागों की सहायता से किसी और के इशारों पर नहीं चलना चाहती। वह इन धागों से मुक्त हो कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है अर्थात वह स्वतन्त्र होना चाहती है।
भावार्थ – कठपुतली दूसरों के हाथों में बंधकर नाचने से परेशान हो गयी है और अब वो सारे धागे तोड़कर स्वतंत्र होना चाहती है। भाव यही है कि किसी को भी पराधीनता या गुलामी पसंद नहीं होती , सभी स्वतंत्रता से रहना पसंद करते हैं।
सुनकर बोलीं और – और
कठपुतलियाँ
कि हाँ ,
बहुत दिन हुए
हमें अपने मन के छंद छुए।
कठिन शब्द
मन के छंद – मन में खुशी
व्याख्या – कविता की इन पंक्तियों में कवि भवानी प्रसाद मिश्र जी ने कठपुतली और उसकी अन्य सभी साथी कठपुतलियों के मन के भाव दर्शाए हैं। पहली कठपुतली के मुँह से स्वतंत्र होने की बात सुनकर अन्य सभी कठपुतलियाँ भी उससे कहती हैं कि हाँ , उन्हें भी स्वतंत्र होना है। कठपुतलियाँ कहती हैं कि इन धागों के बंधन में बंधे हुए बहुत दिन हो गए हैं और उन्होंने इतने दिनों में अपने मन में ख़ुशी का एहसास भी नहीं किया है। अर्थात न जाने कितने दिनों से स्वतन्त्र हो कर उन्होंने ख़ुशी से कोई काम नहीं किया है।
भावार्थ – इन पंक्तियों में एक कठपुतली की बातें सुन कर सभी कठपुतलियों को स्वतन्त्र होने की इच्छा होती है। वे भी स्वतन्त्र हो कर रहना चाहती हैं जिससे उनके मन को ख़ुशी प्राप्त हो।
मगर…
पहली कठपुतली सोचने लगी –
यह कैसी इच्छा
मेरे मन में जगी ?
कठिन शब्द
इच्छा – चाह या भावना
व्याख्या – कविता की इन अंतिम पंक्तियों में कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने पहली कठपुतली के मन के संदेहात्मक स्थिति के भावों को दर्शाया है। कवि कहते हैं कि जब बाकी सभी कठपुतलियाँ पहली कठपुतली की स्वतंत्र हो कर रहने की बात का समर्थन करती हैं और सभी स्वतन्त्र होने की बात करती हैं , तो पहली कठपुतली सोच में पड़ जाती है कि उसके मन में ये कैसी भावना जागृत हुई और क्यों ? कहने का तात्पर्य यह है कि पहली कठपुतली सोच में पड़ गई थी कि क्या वो सही कर रही है ? क्या वो सभी कठपुतलियों की स्वतंत्रता की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले पाएगी ? क्या उसकी स्वतन्त्र होने की इच्छा जायज़ है ?
भावार्थ – अंतिम पंक्तियां कठपुतली के संदेहात्मक स्थिति वाले मनभावों को समर्पित हैं। कठपुतली खुद को तो स्वतन्त्र कराने का आत्मविश्वास रखती है परन्तु जब सभी कठपुतलियाँ उसके साथ स्वतन्त्र होने की बात करती हैं तो पहली कठपुतली का आत्मविश्वास डगमडा जाता है। क्योंकि कहीं न कहीं कठपुतली को भी पता है कि उसकी यह स्वतन्त्र होने की इच्छा सही नहीं है , वह जानती है कि बिना धागों के उसका अस्तित्व बेजान है।
कवि भी हमें यही समझाना चाहता है कि जब तक किसी काम को करने के लिए आपको पूर्ण आत्मविश्वास न हो तब तक किसी भी काम को करने की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए।
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