पाठ 3 – टार्च बेचनेवाले (Torch Bechnewale) अन्तरा भाग – 1 NCERT Class 11th Hindi Notes
सारांश
प्रस्तुत रचना ‘टार्च बेचनेवाले’ में लेखक हरिशंकर परसाई ने समाज में प्रचलित आस्थाओं के बाजारीकरण और धार्मिक पाखंड पर प्रहार किया है| लेखक की मुलाकात ऐसे व्यक्ति से होती है जो पहले शहर के चौराहे पर टार्च बेचा करता था| उसके हुलिए को देखकर लेखक को लगा कि शायद उसने संन्यास ग्रहण कर लिया हो| पूछने पर उसने बताया कि वह अब टार्च बेचने का काम नहीं करता क्योंकि उसके आत्मा की प्रकाश जल गई है| एक घटना ने उसका जीवन बदल दिया है| उसने बताया कि पाँच साल पहले पैसे कमाने के लिए दोनों दोस्त अलग-अलग चल पड़े थे| वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ‘सूरज छाप’ टार्च बेचने लगा| वह लोगों को रात के अँधेरे का डर दिखाकर शहर के चौराहे पर टार्च बेचा करता था जिससे लोग अधिक टार्च खरीदें| पाँच साल बाद वायदे के मुताबिक़ जब वह अपने दोस्त से मिलने उसी जगह पहुँचा जहाँ से वे अलग हुए थे, लेकिन वह नहीं मिला| शाम को जब वह शहर के सड़क पर चला जा रहा था तो उसने एक भव्य पुरूष को मंच पर प्रवचन देते सुना| मैदान में हजारों लोग श्रद्धा से सिर झुकाए उसकी बातों को सुन रहे थे| वह लोगों को आत्मा के अँधेरे को दूर करने के तरीके समझा रहा था| उस आदमी की वेशभूषा साधुओं की तरह थी जिसके कारण वह उसे पहचान नहीं पाया| वह अपना प्रवचन पूरा कर मंच से उतरकर जैसे ही अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा तो उसने टार्च बेचनेवाले को देखते ही पहचान लिया| दोनों दोस्त पाँच साल बाद मिल रहे थे| पहला दोस्त रात के अँधेरे को दूर करने के लिए टार्च बेचकर और दूसरा दोस्त आत्मा के अँधेरे को दूर करने के लिए उपदेश देने वाला धर्माचार्य बनकर पैसे कमा रहा था| वह दूसरे दोस्त के वैभव और धन-दौलत के चमक को देखकर निश्चय करता है कि ‘सूरज कंपनी’ के टार्च बेचने से अच्छा है कि वह भी धर्माचार्य बनकर लोगों के मन के अँधेरे को दूर कर पैसे कमाए|
इस प्रकार वह लेखक को बताता है कि अब वह टार्च तो बेचेगा लेकिन वह रात के अँधेरे को दूर करने वाला नहीं बल्कि आत्मा के अँधेरे को दूर करने वाला होगा| लेखक ने टार्च बेचने वाले दो दोस्तों के माध्यम से बताया है कि किस प्रकार संतों की वेशभूषा धारण करके आत्मा के अँधेरे को दूर करने वाली टार्च बेचकर समाज में लोग अपनी पैठ जमाए हुए हैं और दूसरे भी इस लाभप्रद धंधे को देखकर यही काम करने के लिए प्रेरित होते हैं|
लेखक परिचय
लेखक हरिशंकर परसाई का जन्म जमानी गाँव, जिला होशंगाबाद मध्य प्रदेश में हुआ था| उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया| कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य करने के बाद सन् 1947 से वे स्वतंत्र लेखन में जुट गए| उन्होंने जबलपुर से वसुधा नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली|
उनके व्यंग्य-लेखों की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वे समाज में फैली विसंगतियों, विडंबनाओं पर करारी चोट करते हुए चिंतन और कर्म की प्रेरणा देते हैं| उनकी रचनाओं में प्रायः बोलचाल के शब्दों का प्रयोग हुआ है|
उन्होंने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की है, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह); रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज (उपन्यास); तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, पगडंडियों का जमाना, सदाचार की तावीज, शिकायत मुझे भी है, और अंत में (निबंध संग्रह); वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएँ, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग्य लेख-संग्रह)|
कठिन शब्दों के अर्थ
• गुरू गंभीर वाणी- विचारों से पुष्ट वाणी
• सर्वग्राही- सबको ग्रहण करनेवाला, सबको समाहित करनेवाला
• स्तब्ध- हैरान
• आह्वान- पुकारना, बुलाना
• शाश्वत- चिरंतन, हमेशा रहनेवाली
• सनातन- सदैव रहनेवाला
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