चार्ली चैप्लिन यानी हम सब Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 15
चार्ली चैप्लिन यानी हम सब पाठ का सारांश
‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब लेखक विष्णु खरे द्वारा रचित रचना है। इसमें लेखक ने हास्य फिल्मों के महान अभिनेता और निर्देशक चार्ली चैप्लिन के कला पक्ष की कुछ मूलभूत विशेषताओं को रेखांकित किया है। लेखक की दृष्टि में करुणा और हास्य के तत्वों । का मेल चार्ली की सर्वोत्तम विशेषता रही है। चार्ली चैप्लिन दुनिया के महान हास्य कलाकार थे। 75 वर्षों में उनकी कला दुनिया के सामने है।
उनकी कला दुनिया की पाँच पीड़ियों को मंत्रमुग्ध कर चुकी है। आज चार्ली समय, भूगोल और संस्कृतियों से खिलवाड़ करता हुआ। भारत को भी अपनी कला से हँसा रहा है। पश्चिमी देशों के साथ-साथ विकासशील देशों में भी चाली की प्रसिद्धि दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। चार्ली की फ़िल्में बुद्धि की अपेक्षा भावनाओं पर टिकी हुई हैं। उनकी ‘मेट्रोपोलिस’, ‘दी कैबिनेट ऑफ डॉक्टर कैलिगारी’, ‘द रोवंथ सील’, लास्ट इयर इन मारिएनबाड’, ‘द सैक्रिफाइस’ जैसी फिल्में दर्शकों से एक उच्चतर अहसास की माँग करती हैं। चाली की फ़िल्मों। का एक विशेष गुण यह है कि उनकी फ़िल्मों को पागलखाने के मरीज, विकल मस्तिष्क लोग तथा आइन्सटाइन जैसे महान प्रतिभा वाले लोग एक साथ रसानंद के साथ देख सकते हैं। चार्ली ने फ़िल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया; साथ ही दर्शकों की वर्ण व्यवस्था तथा वर्ग को भी तोड़ा।
चार्ली एक परित्यक्ता तथा दसरे दर्जे की स्टेज अभिनेत्री का बेटा था, जिसे गरीबी, समाज तथा माँ के पागलपन से संघर्ष करना पड़ा। अपनी नानी की तरफ से वे खानाबदोशों से जुड़े हुए थे, जबकि पिता की ओर से वे यहूदी थे। दरअसल सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, बल्कि कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है। चार्ली चैप्लिन की कलाकारी से हँसने वाले लोग मैल ओटिंगर या जेम्स एजी की अत्यंत सारगर्भित समीक्षाओं से सरोकार नहीं रखते।
म चाली की कलाकारी को चाहने वाले लोग उन्हें समय और भूगोल से काटकर देखते हैं, इसलिए उनकी महानता ज्यों-की-त्यों बनी। हुई है। चार्ली ने अपने जीवन में बुद्धि की अपेक्षा भावना को बेहतर माना है। यह बचपन की घटनाओं का प्रभाव था। एक बार जब वे बीमार हुए थे, तब उनकी माँ ने उन्हें बाइबल से ईसा मसीह का जीवन पढ़कर सुनाया था। ईसा के सूली पर चढ़ने के प्रकरण तक: “आते-आते माँ और चाली दोनों रोने लगे।
यही भावनात्मक प्रभाव उनके जीवन पर सदा बना रहा। भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र में अनेक रस हैं। जीवन हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, राग-विराग का सामंजस्य है। ये जीवन में सदा आते-जाते रहते हैं। लेकिन करुणा और हास्य का वह सामंजस्य भारतीय परंपरा के साहित्य में नहीं मिलता, जो चैप्लिन की कलाकारी में दिखाई देता है। किसी भी समाज में अमिताभ बच्चन या दिलीप कुमार जैसे दो-चार लोग ही होते हैं, जिनका नाम लेकर ताना दिया जाता है। लेकिन किसी भी व्यक्ति को परिस्थितियों।
का औचित्य देखते हुए चार्ली या जानी वॉकर कह दिया जाता है। दरअसल मनुष्य स्वयं ईश्वर या नियति का विदूषक, कलाउन जोकर या ‘साइड-किक है। गांधी और नेहरू भी चार्ली से प्रभावित थे। को मोर राजकपूर की ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ फिल्मों से पहले फ़िल्मी नायकों पर हँसने की तथा स्वयं नायकों के अपने पर हँसने की परंपरा नहीं थी। दिलीप कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी आदि महान कलाकार भी किसी-न-किसी रूप में चाली से प्रेरित हैं। – चार्ली की अधिकांश फ़िल्में मानवीय हैं। सवाक पर्दे पर अनेक महान हास्य कलाकार हुए, लेकिन वे चार्ली की सार्वभौमिकता तक नहीं पहुँच सके। जहाँ चार्ली का चिर-युवा होना या बच्चों जैसा दिखना एक विशेषता ही है। उनकी सर्वोत्तम विशेषता है कि वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते।
चाली की महानता केवल पश्चिम में ही नहीं है, बल्कि भारत में भी उनका महत्त्व है। चैप्लिन का भारत में महत्व यह है कि वह ‘अंग्रेजों जैसे’ व्यक्तियों पर हँसने का अवसर देते हैं। चार्ली स्वयं पर सबसे अधिक तब हँसता है, जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्म-विश्वास से लबरेज, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ, अपने ‘वज्रादपि कठोराणि’ अथवा ‘मृदुनि कुसुमादपि’ क्षण में दिखलाता है। भारतीय लोगों के जीवन के अधिकांश हिस्सों में वे चाली के ही टिली होते हैं, जिसके रोमांस हमेशा पंक्चर होते हैं, मूलतः हम सब । चाली है, क्योंकि हम सुपरमैन नहीं बन सकते। सत्ता, शक्ति, बुद्धिमत्ता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्ष में जब हम आईना देखते हैं तो चेहरा चार्ली-चाली हो जाता है।
चार्ली चैप्लिन यानी हम सब लेखक परिचय
लेखक-परिचय जीवन-परिचय-आधुनिक हिंदी-साहित्य की समकालीन कविता और आलोचना में विष्णु खरे एक विशिष्ट लेखक हैं। इनका जन्म सन् 1940 ई० में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा नामक स्थान पर हुआ था। प्रतिभा के आधार पर ही इन्हें रघुवीर सहाय सम्मान से पुरस्कृत किया गया। इसके अतिरिक्त इन्हें दिल्ली के हिंदी अकादमी पुरस्कार, शिखर सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, फिनलैंड के राष्ट्रीय सम्मान नाइट ऑफ़ दि ऑर्डर ऑफ़ दि व्हाइट रोज़ से सुशोभित किया जा चुका है। यह महान साहित्यकार अपनी कुशलता के बल पर निरंतर हिंदी साहित्य रूपी वृक्ष को अभिसिंचित कर रहा है।
रचनाएँ-विष्णु खरे बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं। इन्होंने अनेक विधाओं में लेखन किया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
कविता संग्रह-खुद अपनी आँख से, एक गैर रूमानी समय में, सबकी आवाज़ के पर्दे में, पिछला बाकी आदि।
आलोचना-आलोचना की पहली किताब।
सिने आलोचना-सिनेमा पढ़ने के तरीके।
अनुवाद-मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ (टी०एस० इलियट), यह चाक समय (अॅतिला-योझेफ), कालेवाला (फिनलैंड का राष्ट्रकाव्य)।साहित्यिक विशेषताएँ -.विष्णु खरे हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार हैं। इन्होंने हिंदी जगत को अत्यंत गहन विचारपरक काव्य प्रदान किया है।
इसके साथ-साथ इन्होंने अनेक आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। इन्होंने विश्व साहित्य का गहन अध्ययन किया है, जो इनके रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में विशेष रूप से दिखाई देता है। ये सिनेमा जगत के गहन जानकार हैं और वे सतत सिनेमा की विधा पर गंभीर लेखन कर रहे हैं। 1971-73 के विदेश प्रवास के दौरान इन्होंने तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग के प्रतिष्ठित फ़िल्म क्लब की सदस्यता प्राप्त करके संसार की सैकड़ों श्रेष्ठ फ़िल्में देखीं। ये साहित्य जगत के एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने फ़िल्मों । को समय, समाज और विचारधारा के आलोक में देखा तथा इतिहास, संगीत, अभिनय, निर्देशन की बारीकियों के सिलसिले में उनका ।
विश्लेषण किया। इन्होंने सिनेमा लेखन को वैचारिक गरिमा और गंभीरता देने का सफ़र शुरू किया है। अपने लेखन के माध्यम से इन्होंने हिंदी के उस अभाव को थोड़ा भरने में सफलता पाई है, जिसके बारे में उन्होंने अपनी एक किताब की भूमिका में लिखा है-“यह ठीक है कि अब भारत में भी सिनेमा के महत्व और शास्त्रीयता को पहचान लिया गया है और उसके सिद्धांतकार भी उभर आए हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश जितना गंभीर काम हमारे सिनेमा पर यूरोप और अमेरिका में हो रहा है, शायद उसका शतांश भी हमारे यहाँ नहीं है। हिंदी में सिनेमा के सिद्धांतों पर शायद ही कोई अच्छी मूल पुस्तक हो।
हमारा लगभग पूरा समाज अभी भी सिनेमा जाने या देखने को एक हल्के अपराध की तरह देखता है।” भाषा-शैली-विष्णु खरे ने अपने साहित्य लेखन के लिए शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली को अपनाया है। इनकी भाषा भावानुकूल और सरल-सरस है। तत्सम शब्दावली का प्रचुर प्रयोग है। इसके साथ-साथ तद्भव, उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी तथा साधारण बोलचाल की भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इन्होंने विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया है, जिसमें वर्णनात्मक, विवरणात्मक व चित्रात्मक शैलियाँ प्रमुख हैं। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग के कारण इनकी भाषा में विशेष निखार आ गया है।
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