पहलवान की ढोलक Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 14
पहलवान की ढोलक पाठ का सारांश
‘पहलवान की ढोलक’ फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित एक श्रेष्ठ कहानी है। फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। प्रस्तुत कहानी उनकी एक आंचलिक कहानी है, जिसमें उन्होंने भारत पर इंडिया के छा जाने की समस्या को प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। यह व्यवस्था बदलने के साथ लोक कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है।
श्यामनगर के समीप का एक गाँव सरदी के मौसम में मलेरिया और हैजे से ग्रस्त था। चारों ओर सन्नाटे से युक्त बाँस-फूस । की झोंपड़ियाँ खड़ी थीं। रात्रि में घना अंधेरा छाया हुआ था। चारों ओर करुण सिसकियों और कराहने की आवाजें गूंज रही थीं।। सियारों और पेचक की भयानक आवाजें इस सन्नाटे को बीच-बीच में अवश्य थोड़ा-सा तोड़ रही थीं। इस भयंकर सन्नाटे में कुत्ते । समूह बाँधकर रो रहे थे। रात्रि भीषणता और सन्नाटे से युक्त थी, लेकिन लुट्टन पहलवान की ढोलक इस भीषणता को तोड़ने का प्रयास कर रही थी। इसी पहलवान की ढोलक की आवाज इस भीषण सन्नाटे से युक्त मृत गाँव में संजीवनी शक्ति भरा करती थी।
लुट्टन सिंह के माता-पिता नौ वर्ष की अवस्था में ही उसे छोड़कर चले गए थे। उसकी बचपन में शादी हो चुकी थी, इसलिए विधवा सास ने ही उसका पालन-पोषण किया। ससुराल में पलते-बढ़ते वह पहलवान बन गया था। एक बार श्यामनगर में एक मेला लगा। मेले के दंगल में लुट्टन सिंह ने एक प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को चुनौती दे डाली, जो शेर के बच्चे के नाम से जाना जाता था। श्यामनगर के राजा ने बहुत कहने के बाद ही लुट्टन सिंह को उस पहलवान के साथ लड़ने की आज्ञा दी, क्योंकि वह एक बहुत प्रसिद्ध पहलवान था।
लुट्टन सिंह ने ढोलक की ‘धिना-धिना, धिकधिना’, आवाज से प्रेरित होकर चाँद सिंह पहलवान को बड़ी मेहनत के बाद चित कर दिया। चाँद सिंह के हारने के बाद लुट्टन सिंह की जय-जयकार होने लगी और वह लुट्टन सिंह पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। राजा ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर उसे अपने दरबार में रख लिया। अब लुट्टन सिंह की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। लुट्टन सिंह पहलवान की पली भी दो पुत्रों को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई थी।
लट्टन सिंह अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बनाना चाहता था,इसलिए वह बचपन से ही उन्हें कसरत आदि करवाने लग गया। उसने बेटों को दंगल की संस्कृति का पूरा ज्ञान दिया। लेकिन दुर्भाग्य से Jएक दिन उसके वयोवृद्ध राजा का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात विलायत से नए महाराज आए। राज्य की गद्दी संभालते ही नए राजा साहब ने अनेक परिवर्तन कर दिए।
दंगल का स्थान घोड़ों की रेस ने ले लिया। बेचारे लुट्टन सिंह पहलवान पर कुठाराघात हुआ। वह हतप्रभ रह गया। राजा के इस रवैये को देखकर लुट्टन सिंह अपनी ढोलक कंधे में लटकाकर बच्चों सहित अपने गाँव वापस लौट आया। वह गाँव के एक किनारे पर झोपड़ी में रहता हुआ नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। गाँव के किसान व खेतिहर मजदूर भला क्या कुश्ती सीखते।
अचानक गाँव में अनावृष्टि अनाज की कमी, मलेरिया, हैजे आदि भयंकर समस्याओं का वज्रपात हुआ। चारों ओर लोग भूख, हैजे और मलेरिये से मरने लगे। सारे गाँव में तबाही मच गई। लोग इस त्रासदी से इतना डर गए कि सूर्यास्त होते ही अपनी-अपनी । झोंपडियों में घस जाते। रात्रि की विभीषिका और सन्नाटे को केवल लट्टन सिंह पहलवान की ढोलक की तान ही ललकारकर चुनौती देती थी। यही तान इस भीषण समय में धैर्य प्रदान करती थी। यही तान शक्तिहीन गाँववालों में संजीवनी शक्ति भरने का कार्य करती थी।
पहलवान के दोनों बेटे भी इसी भीषण विभीषिका के शिकार हुए। प्रातः होते ही पहलवान ने अपने दोनों बेटों को निस्तेज पाया। बाद में वह अशांत मन से दोनों को उठाकर नदी में बहा आया। लोग इस बात को सुनकर दंग रह गए। इस असह्य वेदना और त्रासदी से भी पहलवान नहीं टूटा।
रात्रि में फिर पहले की तरह ढोलक बजाता रहा; इससे लोगों को सहारा मिला, लेकिन चार-पाँच दिन बीतने के पश्चात जब रात्रि में ढोलक की आवाज सुनाई नहीं पड़ी, तो प्रात:काल उसके कुछ शिष्यों ने पहलवान की लाश को सियारों द्वारा खाया हुआ पाया। इस प्रकार प्रस्तुत कहानी के अंत में पहलवान भी भूख-महामारी की शक्ल में आई मौत का शिकार बन गया। यह कहानी हमारे समक्ष व्यवस्था की पोल खोलती है। साथ ही व्यवस्था के कारण लोक कलाओं के लुप्त होने की ओर संकेत भी करती है तथा हमारे सामने ऐसे । अनेक प्रश्न पैदा करती है कि यह सब क्यों हो रहा है?
पहलवान की ढोलक लेखक परिचय
जीवन-परिचय-फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी-साहित्य के प्रमुख आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। इनका जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार प्रांत के पूर्णिया वर्तमान में (अररिया) जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। वर्ष 1942 के भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में इन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। वर्ष 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने हेतु इन्होंने भरपूर योगदान दिया। वर्ष 1952-53 में ये बीमार हो गए। इनकी साहित्य साधना तथा राष्ट्रीय भावना देखकर सरकार ने इन्हें पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया।
11 अप्रैल, सन् 1977 को पटना में इनका देहावसान हुआ। रचनाएँ-हिंदी कथा साहित्य में फणीश्वर नाथ रेणु का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंउपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे आदि। कहानी-तीसरी कसम, उफ मारे गए गुलफाम, पहलवान की ढोलक आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-आंचलिक कथा साहित्य में रेणु जी का महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने इस साहित्य में क्रांति उपस्थित की है। फणीश्वर ने साहित्य के अलावा राजनैतिक एवं सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय योगदान दिया। उनका ‘मैला आँचल’ गोदान के बाद दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास ने हिंदी जगत को एक नई दिशा प्रदान की। इसके पश्चात गाँव की भाषण-संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को उपन्यासों और कथा साहित्य के केंद्र में ला खड़ा किया।
लोकगीत, लोकोक्ति, लोकसंस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने परंपरा को तोड़कर अंचल को ही नायक बना डाला। इनके साहित्य में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जब संपूर्ण विकास शहर की ओर केंद्रित होता जा रहा था, तब ऐसे एकपक्षीय वातावरण में रेणु ने अपने साहित्य से आंचलिक समस्याओं और जीवन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। फणीश्वर के साहित्य में अंचल-विशेष की सामान्य समस्याओं, कुरीतियों व विषमताओं का सजीव अंकन हुआ है। इन्होंने गाँव का इतिहास, भूगोल, सामाजिक और राजनीतिक चक्र सभी की अभिव्यक्ति की है।
इन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से गाँव की आंतरिक वास्तविकताओं को प्रयत्न करने का सफल प्रयास किया है। इनके साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि रचनाकार एक गाँव-विशेष के माध्यम से पूरे देश की कहानी का चित्रण कर देता है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने व्यवस्था को बदलने के साथ-साथ लोककला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी का सजीव चित्रण किया है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने पुरानी व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था के आरोपित हो जाने का चित्रांकन किया है। फणीश्वर की लेखनी में गाँव की संस्कृति को सजीव बनाने की अद्भुत क्षमता है।
इनकी सजीवता को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो प्रत्येक पात्र वास्तविक जीवन जी रहा हो। पात्रों एवं परिवेश का इतना वास्तविक अत्यंत दुर्लभ है। रेणु जी हिंदी साहित्य में वे महान कथाकार हैं, जिन्होंने गद्य में भी संगीत पैदा कर दिया है। इन्होंने परिवेश का मानवीकरण करके उसे सजीव बना दिया है। भाषा-शैली-फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार हैं, अत: इन्होंने भाषा भी अंचल विशेष की अपनाई है। इन्होंने सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है।
इनकी भाषा सरल-स्वाभाविक बोलचाल की भाषा है। कहीं-कहीं अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा के भी दर्शन होते हैं। इनकी भाषा में अत्यंत गंभीरता है। अनेक स्थलों पर ग्रामीण एवं नगरीय भाषा का मिश्रण रूप भी दृष्टिगोचर होता है। प्रस्तुत कहानी की भाषा सरल, सरस व स्वाभाविक बोलचाल की है। इसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से इनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। पहलवान की ढोलक कहानी भाषा-शैली की दृष्टि से एक श्रेष्ठ कहानी है।
Discover more from EduGrown School
Subscribe to get the latest posts sent to your email.