बाजार दर्शन Class 12 Hindi Aroh NCERT Books Solutions
अभ्यास-प्रश्न
प्रश्न 1. बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या क्या असर पड़ता है?
बाजार का जादू चढ़ने पर मनुष्य बाजार की आकर्षक वस्तुओं को खरीदने लगता है। जिनके मन खाली हैं तथा जिनके पास खरीदने की शक्ति अर्थात परचेसिंग पावर है। ऐसे लोग बाजार की चकाचौंध का शिकार हो जाते हैं और बाजार की अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर अपने मन की शांति भंग करते हैं। परंतु जब बाजार का जादू उतर जाता है तो उसे पता चलता है कि जो वस्तु उसने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए खरीदी थी, वह तो उसके आराम में बाधा उत्पन्न कर रही है।
प्रश्न 2. बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौनसा सशक्त पहलू उभर कर आता है? क्या आपकी नजर में उनका आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है?
भगत जी चौक बाजार में चारों और सब कुछ देखते हुए चलते हैं लेकिन वह बाजार की ओर आकृष्ट नहीं होते बल्कि संतुष्ट मन से सब कुछ देखते हुए चलते हैं। उन्हें तो केवल जीरा और काला नमक ही खरीदना होता है। उनके जीवन का यह सशक्त पहलू उभरकर सामने आता है निश्चय से भक्तिन का यह आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है यदि मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं की खरीद करता है तो इससे बाजार में महंगाई भी नहीं बढ़ेगी और लोगों में संतोष की भावना उत्पन्न होगी।
प्रश्न 3. बाज़ारूपन से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाजार की सार्थकता किसमें है?
बाजारूपन का अर्थ है- ओछापन। इसमें दिखावा अधिक होता है और आवश्यकता बहुत कम होती है। जिन लोगों में बाजारूपन होता है, वे बाजार को निरर्थक बना देते हैं; परंतु जो लोग आवश्यकता के अनुसार बाजार से वस्तु खरीदते हैं। वहीं बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं। ऐसे लोगों के कारण ही केवल वही वस्तुएँ बेची जाती हैं जिनकी लोगों को आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में बाजार हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनता है। भगत जी जैसे लोग जानते हैं कि उन्हें बाजार से क्या खरीदना है । अतः ऐसे लोग ही बाजार को सार्थक बनाते हैं।
प्रश्न 4. बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म, क्षेत्र नहीं देखता; बस देखता है सिर्फ उसकी क्रय शक्ति को। और इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
यह कहना सही है कि बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता। बाजार यह नहीं पूछता कि आप किस जाति, धर्म से संबंधित है वह तो केवल ग्राहक को महत्त्व देता है। ग्राहक के पास पैसे होने चाहिए, वह उसका स्वागत करता है। इस दृष्टि में बाजार निश्चय से सामाजिक समता की रचना करता है क्योंकि बाजार के समक्ष चाहे ब्राह्मण हो या निम्न जाति का व्यक्ति; मुसलमान हो या इसाई, सब बराबर है। वे ग्राहक के सिवाय कुछ नहीं है और इस दृष्टि से मैं पूर्णतया सहमत हूँ।
प्रश्न 5. आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें –
क. जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।
जब बड़ा से बड़ा अपराधी अपने पैसे की शक्ति से निर्दोष साबित कर दिया जाता है तब हमें पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत होता है।
ख. जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई।
असाध्य बीमारी के आगे पैसे की शक्ति काम नहीं आती है।
Table of Contents
बाजार दर्शन
अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न
प्रश्न 1:
‘बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर बताइए कि पैसे की पावर का रस किन दो रूपों में प्राप्त किया जाता हैं?
उत्तर –
पैसे की पावर का रस निम्नलिखित रूप में प्राप्त किया जा सकता है-
1, मकान, संपत्ति, कोठी, कार, सामान आदि देखकर।
2. संयमी बनकर पैसे की बचत करके। इससे मनुष्य पैसे के गर्व से फूला रहता है तथा उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं होती।
प्रश्न 2:
कैसे लोग बाजार से न सच्चा लाभ उठा पाते हैं, न उसे सच्चा लाभ दे सकते हैं? वे “बाजारूपन’ को कैसे बढ़ाते है?
उत्तर –
लेखक कहता है कि समाज में कुछ लोग क्रय-शक्ति के बल पर बाजार से वस्तुएँ खरीदते हैं, परंतु उन्हें अपनी जरूरत का पता ही नहीं होता। ऐसे लोग बाजार से न सच्चा लाभ उठा पाते हैं, न उसे सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे धन के बल पर बाजार में कपट को बढ़ावा देते हैं। वे समाज में असंतोष बढ़ाते हैं। वे सामान्य लोगों के सामने अपनी क्रय-शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वे शान के लिए उत्पाद खरीदते हैं। इस प्रकार से वे बाजारूपन को बढ़ाते हैं।
प्रश्न 3:
बाजार का जादू क्या हैं? उसके चढ़ने-उतरने का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता हैं?’बाजार दर्शान’ पाठ के आधार पर उत्तर लिखिए।
उत्तर –
बाजार की तड़क-भड़क और वस्तुओं के रूप-सौंदर्य से जब ग्राहक खरीददारी करने को मजबूर हो जाता है तो उसे बाजार का जादू कहते हैं। बाजार का जादू तब सिर चढ़ता है जब मन खाली हो। मन में निश्चित भाव न होने के कारण ग्राहक हर वस्तु को अच्छा समझता है तथा अधिक आराम व शान के लिए गैर जरूरी चीजें खरीदता है। इस तरह वह जादू की गिरफ्त में आ जाता है। वस्तु खरीदने के बाद उसे पता चलता है कि फ़ैसी चीजें आराम में मदद नहीं करतीं, बल्कि खलल उत्पन्न करती हैं। इससे वह झुंझलाता है, परंतु उसके स्वाभिमान को सेंक मिल जाती है।
प्रश्न 4:
‘बाजार दर्शन पाठ का प्रतिपादय बताइए।
उत्तर –
‘बाजार दर्शन’ निबंध में गहरी वैचारिकता व साहित्य के सुलभ लालित्य का संयोग है। कई दशक पहले लिखा गया यह लेख आज भी उपभोक्तावाद व बाजारवाद को समझाने में बेजोड़ है। लेखक अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाजार की जादुई ताकत मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाजार का उपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत, बाजार की चमक-दमक में फँसने के बाद हम असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल होकर सदा के लिए बेकार हो सकते हैं। लेखक ने कहीं दार्शनिक अंदाज में तो कहीं किस्सागों की तरह अपनी बात समझाने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्होंने बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र बताया है।
प्रश्न 5:
‘बाजार दर्शन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर –
‘बाजार दर्शन’ से अभिप्राय है-बाजार के बारे में बताना। लेखक ने बाजार की प्रवृत्ति, ग्राहक के प्रकार, आधुनिक ग्राहकों की सोच आदि के बारे में पाठकों को बताया है।
प्रश्न 6:
बाजार का जादू किन पर चलता है और क्यों?
उत्तर –
बाजार का जादू उन लोगों पर चलता है जो खाली मन के होते हैं तथा जेब भरी होती है। ऐसे लोगों को अपनी जरूरत का पता ही नहीं होता। वे ‘पर्चेजिंग पावर’ को दिखाने के लिए अनाप-शनाप वस्तुएँ खरीदते हैं ताकि लोग उन्हें बड़ा समझे। ऐसे व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान नहीं करते।
प्रश्न 7:
‘पैसा पावर हैं।-लेखक ने ऐसा क्यों कहा?
उत्तर –
लेखक ने पैसे को पावर कहा है क्योंकि यह क्रय-शक्ति को बढ़ावा देता है। इसके होने पर ही व्यक्ति नई-नई चीजें खरीदता है। दूसरे, यदि व्यक्ति सिर्फ धन ही जोड़ता रहे तो वह इस बैंक बैलेंस को देखकर गर्व से फूला रहता है। पैसे से समाज में व्यक्ति का स्थान निर्धारित होता है। इसी कारण लेखक ने पैसे को पावर कहा है।
प्रश्न 8:
भगत जी बाजार की सार्थक व समाज की शांत केसे कर रहें हैं?’ बाजार दर्शन’ पाठ के आभार पर बताइए?
उत्तर –
भगत जी निम्नलिखित तरीके से बाजार को सार्थक व समाज को शांत कर रहे हैं-
1, वे निश्चित समय पर चूरन बेचने के लिए निकलते हैं।
2. छह आने की कमाई होते ही बचे चूरन को बच्चों में मुफ़्त बाँट देते हैं।
3. बाजार में जीरा व नमक खरीदते हैं।
4. सभी का अभिवादन करते हैं।
5. बाजार के आकर्षण से दूर रहते हैं।
6. अपने चूर्ण का व्यावसायिक तौर पर उत्पादन नहीं करते।
प्रश्न 9:
खाली मन तथा भरी जब से लेखक का क्या आशय है? ये बातें बाजार को कैसे प्रभावित करती हैं?
उत्तर –
‘खाली मन तथा भरी’ जेब से लेखक का आशय है – मन में किसी निश्चित वस्तु को खरीदने की इच्छा न होना या वस्तु की आवश्यकता न होना। परंतु जब जेबें भरी हो तो व्यक्ति आकर्षण के वशीभूत होकर वस्तुएँ खरीदता है। इससे बाजारवाद को बढ़ावा मिलता है।
प्रश्न 10:
‘बाजार दर्शन ‘ पाठ के आधार पर ‘पेस की व्यग्य शक्ति’ कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर = पैसे में व्यंग्य शक्ति होती है। पैदल व्यक्ति के पास से धूल उड़ाती मोटर चली जाए तो व्यक्ति परेशान हो उठता है। वह अपने जन्म तक को कोसता है। परंतु यह व्यंग्य चूरन वाले व्यक्ति पर कोई असर नहीं करता। लेखक ऐसे बल के विषय में कहता है कि यह कुछ अपर जाति को तत्व है। कुछ लोग इसे आत्मिक, धार्मिक व नैतिक कहते हैं।
प्रश्न 11:
‘बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर बाजार का जादू चढ़ने और उतरने का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
‘बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर बाजार का जादू चढ़ने और उतरने का आशय है बाजार की तड़क-भड़क और रूप-सौंदर्य से जब ग्राहक खरीददारी करने को मजबूर हो जाता है तो उसे बाजार का जादू कहते हैं। बाजार का जादू तब सिर चढ़ता है जब मन खाली हो। मन में निश्चित भाव न होने के कारण ग्राहक हर वस्तु को अच्छा समझता है तथा अधिक आराम व शान के लिए गैर-जरूरी चीजें खरीदता है। इस तरह वह जादू की गिरफ्त में आ जाता है। वस्तु खरीदने के बाद उसे पता चलता है कि फैसी चीजें आर&##2366;म में मदद नहीं करतीं, बल्कि खलल उत्पन्न करती हैं।
बाजार दर्शन
पठित गद्यांश
निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्न 1:
उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हैं। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं जीव का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़ें। फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी। पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है. पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखें भी देखते हैं। पैसे की इस पचेंजिग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फ़िल सामान को फ़िजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धमान होते हैं। बुद्ध और संयमपूर्वक वे पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोते जाते हैं। वे पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि इसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के । होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।
प्रश्न:
1, लेखक के अनुसार पत्नी की महिमा का क्या कारण हैं।
2. सामान्य लोग अपनी पावर का प्रदर्शन किस तरह करते हैं?
3. आपके अनुसार स्त्री की आड़ में किस सच को छिपाया जा रहा है?
4. सामान्यतः संयमी व्यक्ति क्या करते है ?
उत्तर –
1, आदिकाल से ही स्त्री को महत्वपूर्ण माना गया है। स्त्री (पत्नी) ही महिमा है और इस महिमा का प्रशंसक उसका पति है। वहीं इसकी प्रमुखता को प्रमाणित कर रहा है।
2. सामान्य लोग पैसे को अपनी पावर समझते हैं। वे इस पावर का प्रदर्शन करना ही अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। वे अपने आस-पास माल टाल, कोठी, मकान खड़ा करके इसका प्रदर्शन करते हैं।
3. स्त्री की आड़ में यह सच छिपाया जा रहा है कि इन महाशय के पास भरा हुभा मनीबैग है, पैसे की गर्मी है, ये इस गर्मी से अपनी एनर्जी साबित करने के लिए स्त्री को फ़िजूल खर्च करने देते हैं।
4, संयमी लोग ‘पर्चेजिंग पावर’ के नाम पर अपनी शान नहीं दिखाते। वे धन को जोड़कर बुद्धि और संयम से अपनी पावर बनाते हैं, प्रसन्न रहते हैं, और फ़िजूल खर्च नहीं करते।
प्रश्न 2 :
मैंने मन में कहा, ठीक। बाजार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो । सब भूल जाओ, मुझको देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हर्ज है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है । आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है, ओह! कोई अपने को न जाने तो बाजार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकाल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल करके मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।
प्रश्नः
क) ‘चाह’ का मतलब ‘अभाव’ क्यों कहा गया है?
ख) बाजार, आदमी की सोच को बदल देता हैं- गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए?
ग) बाजार के चौक के बारे में क्या बताया गया हैं?
उत्तर –
क) ‘चाह’ का अर्थ है-इच्छा, जो बाजार के मूक आमंत्रण से हमें अपनी ओर आकर्षित करती है और हम भीतर महसूस करके सोचते हैं कि यहाँ कितना अधिक है और मेरे यहाँ कितना कम है। इसलिए चाह’ का मतलब है’ अभाव’ ।
ख) आदमी जब बाजार में जाता है तो वहाँ की चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। बाजार में अपरिमित वस्तुएँ देखकर वह सोचता है कि उसके पास सीमित वस्तुएँ है। इस प्रकार बाजार आदमी की सोच बदल देता है।
ग) बाजार का चौक हमें विकल व पागल कर सकता है। असन्तोष, चाह और ईष्या के भाव से आहत मनुष्य को सदा के लिए बेकार बना सकता है।
प्रश्न 3:
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है जैसे चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीज़ों का निमन्त्रण उस तक पहुँथ जाएगा। कहीं उस वक्त व भरी हो तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है। मालूम होता है यह भी लें, वह भी लें। सभी सामान ज़रूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है।
प्रश्न
1. बाजार का जादू ‘आँख की राह किस प्रकार काम करता है?
2. क्या आप भी बाज़ार के जादू में फंसे हैं?अपना अनुभव लिखिए जब आप न चाहने पर भी सामान खरीद लेते हैं?
3. बाजार का जादू अपना असर किन स्थितियों में अधिक प्रभावित करता है और क्यों?
4. क्या आप इस बात से सहमत है कि कमजोर इच्छा-शक्ति वाले लोग बाजार के जादू से मुक्त नहीं हो सकते? तक़ सहित लिखिए।
उत्तर –
1. बाजार का जादू हमेशा ‘भौंख की राह से इस तरह काम करता है कि बाजार में सजी सुंदर वस्तुओं को हम आँखों से देखते है और उनकी सुंरताप आकृष्ट होकर आवश्यकता न होने पर भी उन्हें खरीदने के लिए ललानित हो उठते है।
2. हाँ, में भी बाजार के जादू’ में पैसा हैं। एक बार एक बड़े मॉल में प्रदर्शित मोबाइल फोनों को देखकर मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। यद्यपि मेरे पास ठीक-ठाक फोन था, फिर भी मैंने 2400 रुपये का फोन किश्तों पर खरीद लिया।
३, बाजार के जादू की मर्यादा यह है कि वह तब ज्यादा आसार करता है जब जेब भरी और मन खाली हो। जेब के खाली रहने और मन भरा रहने पर यह असर नहीं कर पाता।
4. जिन लोगों को इछा शक्ति कमजोर होती है, वे बाजार के जादू से मुक्त नहीं हो सकते। ऐसे लोग अपने मन पर नियंत्रण न रख पाने और कमजोर इच्छा-शक्ति के कारण बाजार के जादू का सरलता से शिकार बन जाते हैं।
प्रश्न 4:
पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो मन खाली न हो। मन खाली हो, तब बाजार में जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लूका लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाणार भी फैला-का-फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाजार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाजार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम अनि।
प्रश्न:
1. बाजार के जादू की पकड़ से बचने का सीधा-सा उपाय क्या हैं?
2. मनुष्य को बाजार कब नहीं जाना चाहिए और क्यों?
३. बाजार की सार्थकता किसमें है?
4. बाजार से कब आनद मिलता हैं?
उत्तर –
1, बाजार के जादू की पकड़ से बचने का सीधा-सा उपाय यह है कि जब ग्राहक बाजार में जाए तो उसके मन में भटकाव नहीं होना चाहिए। उसे अपनी जरूरत के बारे में स्पष्ट पता होना चाहिए।
2. पूयक बार ताब हाँजना बाहरजबाञ्चसाकम यल हो ऐसा स्तमें बाजरके सापक गटू उसे पकड़ लेता है।
3. बाजार की सार्थकता लोगों की भावश्यकता पूरी करने में है। ग्राहक को अपनी आवश्यकता का सामान मिल जाता है तो बाजार सार्थक हो जाता है।
4, बाजार से उस समय आनंद मिलता है जब ग्राहक के मन में अपनी खरीद का लक्ष्य निश्चित होता है। वह भटकता नहीं।
प्रश्न : 5.
यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत जरूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो रानतिन भाव से संपूर्ण है। शेष राब अपूर्ण है। इसरो मन बंद नहीं रह सकता। सत्य इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ‘इच्छानिरोधस्तपः’ का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो यह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है।
प्रश्न:
1. ‘मन खाली होने तथा ‘मन बंद होने में क्या अंतर हैं?
2. मन बद होने से क्या होगा?
3. परमात्मा व मनुष्य की प्रकृति में क्या अंतर है?
4. लेखक किसे झूठ बताता हैं?
उत्तर –
1. ‘मन खाली होने का अर्थ है-निश्चित लक्ष्य न होना। ‘मन बंद होने का अर्थ है-इच्छाओं का समाप्त हो जाना।
2. मन बंद होने से मनुष्य की इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी। वह शून्य हो जाएगा और शून्य होने का अधिकार परमात्मा का है। वह सनातन भाव से संपूर्ण है, शेष सब अपूर्ण है।
3. परमात्मा संपूर्ण है। वह शून्य होने का अधिकार रखता है, परंतु मनुष्य अपूर्ण है। उसमें इच्छा बनी रहती है।
4. मनुष्य द्वारा अपनी सभी इच्छाओं का निरोध कर लेने की बात को लेखक झूठ बताता है। कुछ लोग इच्छ-निरोध को तप मानते हैं। किंतु इस तप को लेखक झूठ मानता है।
प्रश्न 6:
लोभ का यह जीतना नहीं कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। अखि अपनी फोः काली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर ५५ दिए। बंद हो जाएगा? क्या भौंख बंद करके ही हम सपने नहीं लेते हैं और वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं। इससे मन को बंद कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ हैं यह तो हठ वाला योग हैं। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले ही हो जाए और पीला और अशक्त; जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह शुद्ध होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूंदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए।
प्रश्नः
1. लेखक के अनुसार लोभ की जीत क्या हैं तथा आदमी की हार क्या हैं?
2, आँख फोड़ डालने का क्या अर्थ है? उससे मनुष्य पर क्या असर पड़ेगा ?
3. हठयोग के बारे में लेखक क्या कहता है ?
4. हठयोग का क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर –
1, लोभ को नकारना लोभ की ही जीत है क्योंकि लोभ को नकारने के लिए लोग मन को मारते हैं। इनका यह नकारना वैदिक नहीं होता। इसके लिए वे योग का नहीं, हठयोग का सहारा लेते हैं। इस तरह यह लोभ की ही जीत होती है।
2. आँखें फोड़ने का दृष्टांत इसलिए दिया गया है क्योंकि लोग अपने लोभ के प्रति संयम नहीं रख पाते। वे अपनी 31श पर बाह्य रूपा दिखताब होजने की बात सच हैंप आँखें बंदक के भी इसरू की अनुप्त की जाती हैं।
3. ‘शायद हठ ही है, योग नहीं का आशय यह है कि लोभ को रोकने के लिए लोग शारीरिक कष्टों का सहारा लेते हैं। वे हठपूर्वक इसे रोकना चाहते हैं पर यह योग जैसा सरल, स्वाभाविक और शरीर के लिए उपयुक्त तरीका नहीं है।
4, मुक्त होने के लिए लेखक ने आवश्यक शर्त यह बताई हैं कि हठयोग से मन कमजोर, पीला और अशक्त हो जाता है। इससे मन| संकीर्ण हो जाता है। इसलिए मन का रोम-रोम बंद करके मन को रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
प्रश्न 7:
हम में पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हग गहाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। राध्या ज्ञान रादा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सजा क सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः उपाय कोई नहीं हो सकता है जो बलात मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुनें क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अखिल का अंग है, खुद कुल नहीं है।
प्रश्न:
1. सच्चे ज्ञान क्या है?
2. मनुष्य में पूर्णत होती तो क्या होता?
3. मनमनैपर की छिट मन को क्यों नहीं होनी चाहिए?
4. लेखक किस उपाय के बारे में बताता है।
उत्तर –
1. सच्चा ज्ञान वह है जो मनुष्य में अपूर्णता का बोध गहरा करता है। वह उसे पूर्ण होने की प्रेरणा देता है।
2. यदि मनुष्य में पूर्णता होती तो वह परमात्मा से अभिन्न महाशून्य होता।
3. मनमानेपन की छूट मन को नहीं होनी चाहिए क्योंकि वह अखिल का अंग है। वह स्वयं पूर्ण नहीं है, भपूर्ण है।
4. लेखक उपाय के बारे में कहता है कि कोई वहीं हो सकता है जो बलात मन को रोकने को न कहे तथा मन की भी सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में अभी प्राप्त नहीं हुआ है।
प्रश्न : 8
तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य की क्रूरता को ही पिघला देता है? उस पल को नाग जो दो; पर वह निश्चय उस जल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं, आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखें और प्रतिपादन करूं। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर भटके। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती हैं। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय हैं।
प्रश्न:
1. उस बल’ से क्या तात्पर्य हैं? उसे किस जाति का तत्व बताया हैं तथा क्यों?
?, लेखक किन शब्दों के सूक्ष्म अतर में नहीं पड़ना चाहता
3. व्यक्ति की निर्बलता किससे प्रमाणित होती है और क्यों ?
4. मनुष्य पर धन की विजय चेतन पर जड़ की विजय कैसे है?
उत्तर –
1. ‘उस बल’ से तात्पर्य है बाजार में वस्तु खरीदने के निश्चय का निर्णय। लेखक ने इस बल को अपर जाति का बताया है क्योंकि अग व्यक्ति भाकर्षण के कारण ही निरर्थक वस्तुएँ खरीदता है।
2. लेलक स्पिरिचुअल, आत्मिक, धार्मिक व नैतिक शब्दों के बारे में बताता है। वह इन शब्दों के सूक्ष्म अतर के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। ये सभी गुण आंतरिक हैं।
3. तिकबिलता संक्यका तृण औ वैभावकचहसे प्रमाण होता है क्योंकि नलव्यिक्ताह धमाके आकण में बँधता है।
4, मनुष्य चेतन है तथा धन गई। मनुष्य धन की चाह में उसके वश में हो जाता है। इसी कारण जड़ की चेतन पर विजय हो जाती है।
प्रश्न : 9
हाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति-ही बाजार को देते हैं। न तो वे बाजार से लाभ उठा सकते हैं न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी।
प्रश्न
1. बाज़ार को सार्थकता कौन देते है और कैसे ?
2. ‘पर्चेजिंग पावर’ का क्या ताप्तर्य है ? बाज़ार को पर्थेजिंग पावर वाले लोगों की क्या देन हैं?
3, आशय स्पष्ट कीजिए-में लोग बाज़ार का बाजारूपन बढ़ाते हैं?
4. बाजारवाद परस्पर सद्भाव में ह्रास कैसे लाता हैं।
उत्तर –
1. बाजार को सार्थकता वे व्यक्ति देते हैं जो अपनी आवश्यकता को जानते हैं। वे बाजार से जरूरत की चीजें खरीदते हैं जो बाजार का दायित्व है।
2. ‘पर्चेजिंग पावर’ का अर्थ है-खरीदने की शक्ति। पर्चेजिंग पावर वाले लोग बाजार को विनाशक शक्ति प्रदान करते हैं। वे निरर्थक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देते हैं।
3. लेखक कहना चाहता है कि क्रयशक्ति से संपन्न लोग चमक-दमक व दिखावे के लिए व्यर्थ की चीजें खरीदते हैं। इससे उनकी अमीरी का पता चलता है।
4. बाजारवाद परस्पर सद्भाव में उस समय कमी लाता है जब व्यापार में कपट आ जाता है। कपट तब आता है जब दिखावे के लिए निरर्थक वस्तुएँ खरीदी जाती हैं।
प्रश्न 10:
इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचककी तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दिखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का, सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता, बल्कि शोषण होने लगता है, तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीति शास्त्र है।
प्रश्न:
1. किस सद्भाव के हास की बात की जा रहा है उसका क्या परिणाम दिखाई पड़ता है ?
2. ऐसे बाज़ार प्रयोग का सांकेतिक अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
3. लेखक ने संकेत किया हैं कि कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती हैं। इस विचार के पक्ष या विपक्ष में दो तर्क दीजिए ?
4. अर्थशास्त्र के लिए प्रयुक्त दो विशेषणों का ऑचित्य बताइए?
उत्तर –
1. लेखक ग्राहक व दुकानदार के सद्भाव के हारा की बात कर रहा है। ग्राहक परी की ताकत दिखाने हेतु खरीददारी करता है तथा दुकानदार कपट से निरर्थक वस्तुएँ ग्राहक को बेचता है।
2. ‘ऐसे बाजार से तात्पर्य है कपट का बाजार। ऐसे बाजारों में लोभ, ईष्या, अहंकार व तृष्णा का व्यापार होता है।
3. लेखक ने ठीक कहा है कि बाजार आवश्यकता को शोषण का रूप बना लेता है। व्यापारी सिर्फ़ लाभ पर ध्यान केंद्रित रखते हैं तथा लूटने की फ़िराक में रहते हैं। वे छल कपट के जरिये ग्राहक को बेवकूफ़ बनाते हैं।
4 अर्थशास्त्र के निम्नलिखित दो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं –
क) मायावी – यह विशेषण बाजार के छल-कपट, आकर्षक रूप के लिए प्रयुक्त हुआ है।
ख) सरासर औधा – इसका अर्थ है विपरीत होना। बाजार का उद्देश्य मनुष्य की जरूरतों को पूरा करना है, परंतु वह जरूरतों को ही शोषण का रूप बना लेता है।
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