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सिल्वर वैडिंग Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 1
सिल्वर वैडिंग पाठ का सारांश
‘सिल्वर वैडिंग’ मनोहर श्याम जोशी की एक प्रमुख कहानी है। लेखक ने इस कहानी में सेक्शन ऑफिसर वी० डी० (यशोधर) पंत के चरित्र-चित्रण के माध्यम से आधुनिक पारिवारिक परिस्थितियों को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। यशोधर पंत अपने ऑफिस में आखिरी फाइल को लाल फीता बाँधकर अपनी घड़ी के अनुसार जिसमें पाँच बजकर तीस मिनट हो रहे हैं, आज की छुट्टी करते हैं। उनके नीचे काम करने वाले कर्मचारी उनकी वजह से पाँच बजने के बाद भी दफ्तर में बैठने के लिए मजबूर हैं। उनकी यह आदत है कि वे अपने कर्मचारियों की थकान दूर करने के लिए कोई मनोरंजक बात जरूरी करते हैं। यह आदत उन्हें अपने आदर्श कृष्णानंद (किशनदा) पांडे से परंपरा में मिली है।।
यशोधर पंत बहुत ही गंभौर, काम के प्रति ईमानदार और मिलनसार व्यक्ति हैं। कई बार छोटे कर्मचारियों द्वारा की गई ग़लत बात को भी वे हँसी में उड़ा देते हैं। दफ्तर की घड़ी में पाँच बजकर पच्चीस मिनट होते हैं तो वे दफ्तर के अन्य कर्मचारियों की सुस्ती पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि ‘आप लोगों को देखादेखी सेक्शन की घडी भी सुस्त हो गई है। इसी बात को लेकर वे बहस भी करते हैं और हँसते भी हैं। यह उनको ससुराल से शादी में मिली थी। बातों-बातों में यह पता चलता है कि यशोधर पंत की शादी 6 फरवरी, 1947 को हुई थी। सभी कर्मचारी यशोधर को शादी की बधाई देते हैं। एक कर्मचारी चहककर कहता है “मैनी हैप्पी रिटर्नज़ ऑफ़ द डे सर! आज तो आपका ‘सिल्वर वैडिंग’ है। शादी। के पच्चीस साल पूरे हो गए हैं।” सेक्शन के सभी कर्मचारियों की जिद्द पर यशोधर बाबू उन्हें दस-दस के तीन नोट निकालकर देते हैं परंतु इस चाय-पार्टी में स्वयं शामिल नहीं होते। उनका मानना है कि उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प करने में वक्त बर्बाद करना किशनदा की परंपरा के विरुद्ध है।
यशोधर पंत मूलतः अल्मोड़ा के रहने वाले हैं। उन्होंने वहीं के रेम्जे स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। मैट्रिक के पश्चात वे पहाड़ से उतरकर दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में उन्होंने किशनदा के घर पर शरण ली थी। किशनदा कुँवारे थे और पहाड़ से आए हुए कितने ही लड़के ठीक ठिकाना होने से पहले उनके यहाँ रह जाते थे। वहाँ वे सभी मिलकर पकाते और खाते थे। जिस समय यशोधर दिल्ली आये थे उस समय उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। जब तक नौकरी के लिए सही उम्र हो यशोधर किशनदा के यहाँ रसोइया बनकर रहे। बाद में किशनदा ने अपने ही नीचे यशोधर को नौकरी दिलवाई और दफ्तरी कार्य में उनका मार्गदर्शन किया।
आजकल यशोधर दफ्तर पैदल आने-जाने लगे हैं। उनके बच्चे नहीं चाहते थे कि उनके पिता साइकिल पर दफ्तर जाएँ क्योंकि उनके बच्चे अब आधुनिक युवा हो गए हैं। बच्चे चाहते हैं कि पिता जी स्कूटर ले लें। लेकिन पिता जी को स्कूटर निहायत बेहुदा सवारी मालूम होती है और कार वे अभी लेने की स्थिति में नहीं थे। दफ्तर से आते समय यशोधर बाबू प्रतिदिन बिरला मंदिर जाने लगे। वहीं उद्यान में बैठकर कोई प्रवचन सुनते तथा स्वयं भी प्रभु का ध्यान लगाने लगे। बच्चों और पत्नी को यह बात बहुत अखरती थी। सिद्धांत के धनी किशनदा की भाँति यशोधर बाबू भी इस आलोचना को अनसुना कर देते हैं। बिरला मंदिर से पहाड़गंज आते समय वे घर के लिए साग-सब्जी खरीद लाते हैं। किसी से अगर मिलना भी है तो वे इस समय मिलते हैं। घर वे आठ बजे से पहले नहीं पहुँचते। घर लौटते ।
समय उनकी निगाह उस स्थान पर पड़ती है जहाँ कभी किशनदा का तीन बेडरूम वाला क्वार्टर हुआ करता था और जिस पर इन दिनों एक छह मंजिला इमारत बनाई जा रही है। यशोधर बाबू को बहुत बुरा लगता है। यशोधर बाबू के घर देर से लौटने का बड़ा कारण यह है कि पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी और बच्चों से छोटी-छोटी बातों को लेकर अक्सर मतभेद होने लगा है और इसी वजह से वे अब घर जल्दी लौटना पसंद नहीं करते। जब बच्चे छोटे थे, तब वे उनकी पढ़ाई-लिखाई में मदद किया करते थे।
अब बड़ा लड़का भूषण एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी करने लगा है। उसे वहाँ डेढ़ हजार प्रति मासिक वेतन मिलता है जबकि यशोधर बाबू रिटायरमेंट पर पहुँचकर ही इतना वेतन पा सके हैं। दूसरा बेटा दूसरी बार आई०ए०एस० की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। यशोधर बाबू के लिए यह समझ सकना मुश्किल हो रहा है कि जब पिछले वर्ष उसका नाम ‘एलाइड
सर्विसिज’ की सूची में आया था, तब उसने ‘ज्वाइन’ करने से क्यों इंकार कर दिया था ? उनका तीसरा बेटा स्कालरशिप लेकर अमेरिका स चला गया है। उनकी एकमात्र बेटी को कोई भी वर पसंद नहीं आ रहा है तथा वह सभी प्रस्तावित वर अस्वीकार कर चुकी है। यशोधर बाबू अपने बच्चों की तरक्की से खुश तो हैं परंतु कभी-कभी उन्हें ऐसा भी अनुभव होता है कि यह खुशहाली भी किस काम की जो अपनों में भी परायापन पैदा कर देती है।
जब उनके बच्चे गरीब रिश्तेदारों की उपेक्षा करते हैं तो उन्हें बहुत बुरा लगता है। उनकी पत्नी अपने मूल संस्कारों से किसी तरह भी आधुनिक नहीं है फिर भी मातृसुलभ मजबूरी में उन्हें अपने बच्चों की नज़र में आधुनिक बनना पड़ा। पत्नी को यह मलाल है कि संस्कारों को निबाहने के कारण उन्हें परिवार के कार्यों के बोझ तले दबना पड़ा है। उसकी दृष्टि में ये सब पारिवारिक संस्कार अब ढोंग और ढकोसले हो गए हैं। यशोधर बाबू पत्नी की इसी आधुनिकता का कई बार मज़ाक भी उड़ा देते हैं, परंतु असल बात तो यह है कि तमाशा तो स्वयं उनका ही बन रहा है। कई बार यशोधर बाबू को लगता है कि वे भी किशनदा की तरह घर-गृहस्थी का यह सब बवाल छोड़कर जीवन को समाज के लिए समर्पित कर देते तो ज़्यादा अच्छा रहता।
उनको यह भी ध्यान है कि किशनदा का बुढ़ापा ज्यादा सुखी नहीं रहा। कुछ साल वे राजेंद्र नगर में किराए पर रहे और फिर अपने गाँव लौट गए जहाँ साल भर बाद उनकी मौत हो गई। जब यशोधर बाबू ने उनकी मृत्यु का कारण पूछा तो किसी ने यही जवाब दिया, “जो हुआ होगा।” यान पता नहीं क्या हुआ? यशोधर बाबू यह भी स्वीकार करते हैं कि उनके बीवी-बच्चे उनसे अधिक समझदार और सुलझे हुए हैं।
बच्चों को पिता जी की इस गलती का अफसोस है कि अब्बा ने डी० डी० ए० फ्लैट के लिए पैसा न भर कर बहुत बड़ी भूल की है परंतु यशोधर बाबू को किशनदा की यह उक्ति अधिक ठीक लगती है कि ‘मूर्ख लोग घर बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं।’ जब तक सरकारी नौकरी तब तक सरकारी क्वार्टर। रिटायर होने पर गाँव का पुश्तैनी घर। परंतु यशोधर बाबू का पुश्तैनी घर टूट-फूट कर खंडहर बन चुका होगा, यह भी वे खूब जानते हैं।
बिरला मंदिर में प्रवचन सुनते समय जब जनार्दन शब्द उनके कानों में पड़ा तो उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद आ गई। आजकल उनकी तबीयत ठीक नहीं है और वे उन्हें मिलने के लिए अहमदाबाद जाना चाहते हैं। जीजा जी का हाल-चाल जानना वे अपना कर्तव्य समझते हैं। बच्चों से भी वे ऐसी अपेक्षा रखते हैं कि वे भी पारिवारिकता के प्रति रुचि लें, परंतु पत्नी और बच्चों को यह बात मूर्खतापूर्ण लगती है। हद तो तब हो गई जब कमाऊ बेटे ने यहाँ कहा कि ‘आपको बुआ के यहाँ भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूंगा।’ जब भी यशोधर बाबू कोई काम करते थे तो किशनदा से सलाह ज़रूर लिया करते थे और वे अपेक्षा अपने बच्चों से भी रखते हैं, परंतु बच्चे कहते हैं “अब्बा, आप तो हद करते हैं, जो बात आप जानते ही नहीं आपसे क्यों पूछे?”
यशोधर बाबू को यह अनुभव होने लगा था कि बच्चे अब उनके अनुकूल नहीं सोचते। इसलिए बच्चों का यह प्रवचन सुनकर के सब्जी मंडी चले जाते हैं। वे सोचते जा रहे थे कि उन्हें भी अच्छा लगता अगर उनके बेटे बड़े होने पर अपनी ओर से यह प्रस्ताव रखते कि दूध लाना, राशन लाना, सी० जी० एच० एस० डिस्पेंसरी से दवा लाना, सदर बाजार जाकर दालें लाना, डिपो से कोयला लाना आदि ये सब काम आप छोड़ दें, अब हम कर दिया करेंगे। एक-दो बार उन्होंने बच्चों से कहा भी तो घर में कुहराम मच गया। बस तब से यशोधर बाबू ने यह सब कहना ही बंद कर दिया। जब से बेटा विज्ञापन कंपनी में लगा है, तब से बच्चे कहने लगे हैं, “बब्बा, हमारी समझ में यह नहीं आता कि इन सब कामों के लिए आप एक नौकर क्यों नहीं रख लेते।” कमाऊ बेटा तो नमक छिड़कते यह भी कहता है, “नौकर की तनख्वाह मैं दे दूंगा।”
यशोधर बाबू को अपने बेटे की यह बात चुभती है कि उसने अपनी नौकरी के रुपये कभी अपने पिता के हाथ पर नहीं रखे बल्कि एकाउंट ट्रांसफर द्वारा सीधा बैंक में चले जाते हैं। वे सोचते हैं कि अगर उसे ऐसा ही करना था तो क्या वह अपने पिता के साथ ज्वाइंट एकाउंट नहीं खोल सकता था। हद तो तब हो गई जब बेटे ने पिता के क्वार्टर को अपना बना लिया है।
वह अपना वेतन अपने ढंग से अपने घर पर खर्च करता है। कभी कारपेट, कभी पर्दे, कभी सोफासेट, कभी डनलप वाला डबल बेड और कभी सिंगार मेज़ घर में लाए जा रहे हैं। यह भी बेटे ने कभी नहीं कहा, “लीजिए पिता जी यह टी० वी० आपके लिए।” बल्कि यह कहता है कि ‘मेरा टी० वी० है समझे, इसे कोई छुआ न करे। घर में एक नौकर रखने की बात भी चल रही है। नौकर होगा तो इनका ही होगा और पत्नी सुनती है मगर नहीं सुनती। यही सब सोचते हुए वे खुदी हुई सड़कों और टूटे हुए क्वार्टरों के मलबे से पटे हुए रास्तों को पार करके उस क्वार्टर में पहुंचते हैं। बाहर बदरंग तख्ती में उसका नाम लिखा है-वाई० डी० पंत।
घर पहुँचते ही यशोधर बाबू को एक बार तो लगा कि वह किसी ग़लत जगह पर पहुंच गए हैं। घर के बाहर एक कार और कुछ स्कूटर, मोटर-साइकिलें खड़ी हैं। कुछ लोग विदा ले रहे हैं। बाहर बरामदे में काग़ज़ की झालरें और गुब्बारे लटक रहे थे। रंग-बिरंगी रोशनियाँ जल रही थी। फिर उन्हें अपना बेटा भूषण पहचान में आया जो अपने बॉस को विदा कर रहा था। उसकी पत्नी और बेटी भी कुछ मेमसाबों को विदा कर रही है। बेटी ने जीन और बिना बाजू का टॉप पहन रखा है। यशोधर बाबू ने उसे ऐसे कपड़ों से कई बार मना किया है, लेकिन वह इतनी जिद्दी है कि ऐसी ही वेश-भूषा को पहनती है और माँ भी उसी का ही साथ देती है।
जब कार वाले विदा हो गए तो यशोधर बाबू घर पहुंचे तो बड़े बेटे ने झिड़की-सी सुनाई-“बब्बा आप भी हद करते हैं, सिल्वर वैडिंग के दिन साढ़े आठ बजे घर पहुँचे। अभी तक मेरे बॉस आपकी राह देख रहे थे।” शर्मिली हँसी के साथ यशोधर बाबू बोले, “हम लोगों के यहाँ सिल्वर वैडिंग कब से होने लगी है।” “जब से तुम्हारा बेटा कमाने लगा है।” किसी रिश्तेदार ने कहा। यशोधर बाबू इस बात से भी खफा हैं कि घर में भूषण रिश्तेदारों के लिए व्हिस्की लाया है। जब भूषण अपने मित्रों को यशोधर बाबू का परिचय करवाता है है तो वे सभी उसे ‘मैनी हैप्पी रिटर्नज ऑफ द डे’ कहते हैं तो जवाब में यशोधर बाबू ‘बैंक्यू’ बोलते हैं। अब बच्चों ने विलायती परंपरा “केक काटने के लिए कहा। यशोधर बाबू को केक काटना बचकानी बात मालूम हुई। उन्होंने संध्या से पहले केक काटने से मना कर दिया।
और अपने कमरे में चले गए। शाम को पंद्रह मिनट वे संध्या करने में लगाते थे, परंतु आज पच्चीस मिनट लगा दिए। संध्या में बैठे-बैठे वे किशनदा के संस्कारों के बारे में सोचने लगा। पीछे आकर पत्नी झिड़कते हुए बोली, “क्या आज पूजा में ही बैठे रहोगे ?” यशोधर बाबू लाल गमछे में ही बैठक में चले गए। यह लाल गमछा पहनकर बैठक में आना बच्चों को असहज लग रहा था। खैर, बात उपहारों के पैकिट खोलने की चली तो भूषण सबसे बड़ा पैकिट खोलते हुए बोला, “इसे ले लीजिए। यह मैं आपके लिए लाया हूँ। ऊनी ड्रैसिंग गाउन है। आप सवेरे जब दूध लेने जाते हैं अब्बा, फटा फुलोवर पहन कर जाते हैं, जो बहुत बुरा लगता है।
आप इसे पहनकर ही जाया कीजिए।” थोड़ा न-नुकर करने के बाद यशोधर बाबू ने पहनते हुए कहा, “अच्छा तो यह ठहरा ड्रैसिंग गाउन।” उनकी आँखों में चमक सी आ गई। परंतु उन्हें यह बात चुभ गई कि उनका यह बेटा जो यह कह रहा है कि आप सवेरे दूध लाते समय इसे पहन लिया करें, वह यह नहीं कहता कि दूध मैं ला दिया करूँगा। इस ड्रेसिंग गाउन में यशोधर बाबू के अंगों में किशनदा उतर आए थे जिनकी मौत ‘जो हुआ होगा’ से हो गई थी।
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