आत्म-परिचय, एक गीत NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 1
आत्म-परिचय, एक गीत Questions and Answers Class 12 Hindi Aroh Chapter 1
कविता के साथ
प्रश्न 1.
कविता एक ओर जग-जीवन का भार लिए घूमने की बात करती है और दूसरी ओर “मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ–” विपरीत से लगते इन कथनों का क्या आशय है?
उत्तर :
कवि ने इस ‘कविता में एक ओर जग-जीवन का भार लिए घूमने की बात करता है तो दूसरी ओर कभी न जग का ध्यान करने की बात
करता है। दोनों ही विपरीत कथन प्रतीत होते हैं। इन कथनों से यह आशय है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से मनुष्य का नाता खट्टा-मीठा होता है। उसके जीवन में दुख-सुख दोनों ही आते हैं।
दुनिया अपने व्यंग्य-बाण और शासन-प्रशासन से मनुष्य को अनेक कष्टों के रूप में जीवन-भार प्रदान करती है। चाहकर भी मनुष्य इस जीवन-भार से अलग नहीं हो सकता। इस जीवन-भार को उसे आजीवन ढोना ही पड़ता है। लेकिन दूसरी ओर कवि का यह कहना है कि मैं जीवन इस जग को देकर नहीं जीता, क्योंकि वह इसे हृदयहीन और स्वार्थी मानता है। वह तो केवल संसार के वैभव से अलग अपनी मस्ती में मस्त होकर जीवन जीना चाहता है। इसलिए वह कहता है कि मैं कभी भी जग का ध्यान नहीं करता।
प्रश्न 2.
जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं-ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तर :
‘जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं पर नादान भी होते हैं।’ इसका आशय है कि जहाँ अक्लमंद या समझदार रहते हैं, वहीं पर नासमझ या
मूर्ख भी होते हैं। ऐसा इसलिए कहा गया होगा कि यह नश्वर संसार रंगीन है जिसमें भाँति-भाँति के जीव-जंतु और पदार्थ हैं। इस सृष्टि में अनेक तत्वों का समावेश है। प्रकृति के भी विभिन्न रूप हैं।
इस जहाँ से सुख-दुख, नर-नारी, स्थूल-सूक्ष्म, अच्छा-बुरा, मूर्ख-विद्वान आदि सभी का अनूठा संगम है। यहाँ सुख हैं तो दुख भी हैं, नर है तो नारी भी, अच्छाई है तो बुराई भी। इस प्रकार एक अच्छे व बुरे का या एक के विपरीत दूसरे का अटूट संबंध है। इसीलिए कहा गया है कि जहाँ पर बुद्धिमान रहते हैं, वहीं पर नादान भी होते हैं।
प्रश्न 3.
‘मैं और, और जग और, कहाँ का नाता’ पंक्ति में ‘और’ शब्द की विशेषता बताइए।
उत्तर :
‘मैं और, और जग और, कहाँ का नाता’ पंक्ति में ‘और’ शब्द कवि और संसार के संबंधों के अलगाव का चित्रण करता है। यह कवि की प्रकृति और प्रवृत्ति तथा संसार की प्रकृति और प्रवृत्ति के भेद का ज्ञान कराता है तथा संसार की संवेदनहीनता का चित्रण भी करता है।
प्रश्न 4.
शीतल वाणी में आग के होने का क्या अभिप्राय है? (C.B.S.E. 2011, Set-I)
उत्तर :
शीतल वाणी में आग के होने का अभिप्राय यह है कि कवि अपनी वाणी की शीतलता में वियोग की आग लिए जीवन जी रहा है। यहाँ आग से अभिप्राय कवि की आंतरिक पीड़ा से है। कवि प्रिया से वियोग होने पर उस विरह-वेदना को अपने हृदय में दबाए फिर रहा है। अतः जहाँ उनकी संवेदनाओं में शीतलता का भाव है तो वहीं विराग और क्रोध का भाव भी निहित है। यही वियोग उसके हृदय को निरंतर जलाता रहता है जिससे उनके हृदय में आग पैदा होती है।
प्रश्न 5.
बच्चे किस बात की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे? )
उत्तर :
बच्चे अपने माता-पिता की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे। माँ-बाप से बिछुड़कर बच्चे अपने-अपने घोंसलों में यही आशा मन में लिए
रहते होंगे कि उनके माता-पिता लौटकर कब आएँगे? कब उनकी माँ उनको लाड़-प्यार करेगी? कब उनको भोजन कराकर उनकी भूख शांत करेगी। इस प्रकार बच्चे अपने नीड़ों से ऐसी आशाएँ लेकर झाँक रहे होंगे।
प्रश्न 6.
‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ की आवृत्ति से कविता की किस विशेषता का पता चलता है?
उत्तर :
‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ की आवृत्ति से कविता की विशेषता का पता चलता है कि समय परिवर्तनशील है, जो सतत चलायमान है। यह कभी भी नहीं रुकता, न ही यह किसी की प्रतीक्षा करता है। जीवन क्षणभंगुर है, अत: कब जीवन समाप्त हो जाए किसी, – को नहीं पता। इसलिए मनुष्य को अपने लक्ष्य को अतिशीघ्रता से प्राप्त कर लेना चाहिए। मनुष्य में वह विश्वास होना चाहिए कि वह कम-से-कम समय में अपनी मंजिल को प्राप्त कर लेगा।
कविता के आस-पास
प्रश्न 1.
संसार में कष्टों को सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल कैसे पैदा किया जा सकता है?
उत्तर
कष्ट तो हर व्यक्ति के जीवन में आने वाला अनिवार्य भाग है। लोग कष्टों के आने पर सदा ही घबरा जाते हैं, पर इन्हें सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल पैदा किया जा सकता है। साहसपूर्वक काम करते हुए, समाज के प्रति निष्ठावान बनकर और ईश्वर के प्रति विश्वास रखकर खुशी और मस्ती का माहौल पैदा किया जा सकता है।
आपसदारी
जयशंकर प्रसाद की आत्मकथा कविता की कुछ पंक्तियाँ दी जा रही हैं। क्या पाठ में दी गई आत्म-परिचय कविता से इस कविता का आपको कोई संबंध दिखाई देता है ? चर्चा करें।
आत्मकथ्य
मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा। – जयशंकर प्रसाद
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