स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 15 | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Summary | Quick revision Notes ch-15 Kshitij | EduGrown

 

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 15 | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन  Summary | Quick revision Notes ch-15 Kshitij | EduGrown

Stri siksha ke virodh kurtuko ka khandan class 10 summary

लेखक परिचय

महावीर प्रसाद दिवेदी

इनका जन्म सन 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने के कारण स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होने रेलवे में नौकरी कर ली। बाद में नौकरी से इस्तीफा देकर सन 1903 में प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती का संपादन शुरू किया तथा 1920 तक उससे जुड़े रहे। सन 1938 में इनका देहांत हो गया।

महावीर प्रसाद दिवेदी | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 15 | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन  Summary | Quick revision Notes ch-15 Kshitij | EduGrown

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

इस पाठ में लेखक ने स्त्री शिक्षा के महत्व को प्रसारित करते हुए उन विचारों का खंडन किया है। लेखक को इस बात का दुःख है आज भी ऐसे पढ़े-लिखे लोग समाज में हैं जो स्त्रियों का पढ़ना गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। विद्वानों द्वारा दिए गए तर्क इस तरह के होते हैं, संस्कृत के नाटकों में पढ़ी-लिखी या कुलीन स्त्रियों को गँवारों की भाषा का प्रयोग करते दिखाया गया है। शकुंतला का उदहारण एक गँवार के रूप में दिया गया है जिसने दुष्यंत को कठोर शब्द कहे। जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक वो गँवारों की भाषा थी। इन सब बातों का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं की क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नही बोल सकती। बुद्ध से लेकर महावीर तक ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिए हैं तो क्या वो गँवार थे। लेखक कहते हैं की हिंदी, बांग्ला भाषाएँ आजकल की प्राकृत हैं। जिस तरह हम इस ज़माने में हिंदी, बांग्ला भाषाएँ पढ़कर शिक्षित हो सकते हैं उसी तरह उस ज़माने में यह अधिकार प्राकृत को हासिल था। फिर भी प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का सबूत है यह बात नही मानी जा सकती।

जिस समय नाट्य-शास्त्रियों ने नाट्य सम्बन्धी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत नही थी। इसलिए उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और अन्य लोगों और स्त्रियों की भाषा प्राकृत कर दिया। लेखक तर्क देते हुए कहते हैं कि शास्त्रों में बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा मिलती है किन्तु उनके सिखने सम्बन्धी पुस्तक या पांडुलिपि नही मिलतीं उसी प्रकार प्राचीन समय में नारी विद्यालय की जानकारी नही मिलती तो इसका अर्थ यह तो नही लगा सकते की सारी स्त्रियाँ गँवार थीं। लेखक प्राचीन काल की अनेकानेक शिक्षित स्त्रियाँ जैसे शीला, विज्जा के उदारहण देते हुए उनके शिक्षित होने की बात को प्रामणित करते हैं। वे कहते हैं की जब प्राचीन काल में स्त्रियों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने की आजादी थी तब यह मत कैसे दिया जा सकता है की उन्हें शिक्षा नही दी जाती थी। लेखक कहते हैं मान लीजिये प्राचीन समय में एक भी स्त्री शिक्षित नही थीं, सब अनपढ़ थीं उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता ना समझी गयी होगी परन्तु वर्तमान समय को देखते हुए उन्हें अवश्य शिक्षित करना चाहिए।


लेखक पिछड़े विचारधारावाले विद्वानों से कहते हैं की अब उन्हें अपने पुरानी मान्यताओं में बदलाव लाना चाहिए। जो लोग स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए पुराणों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्ध का तिरेपनवां अध्याय पढ़ना चाहिए जिसमे रुक्मिणी हरण की कथा है। उसमे रुक्मिणी ने एक लम्बा -चौड़ा पत्र लिखकर श्रीकृष्ण को भेजा था जो प्राकृत में नहीं था। वे सीता, शकुंतला आदि के प्रसंगो का उदहारण देते हैं जो उन्होंने अपने पतियों से कहे थे। लेखक कहते हैं अनर्थ कभी नही पढ़ना चाहिए। शिक्षा बहुत व्यापक शब्द है, पढ़ना उसी के अंतर्गत आता है। आज की माँग है की हम इन पिछड़े मानसिकता की बातों से निकलकर सबको शिक्षित करने का प्रयास करें। प्राचीन मान्यताओं को आधार बनाकर स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करना अनर्थ है।

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतकों का खंडन’ निबंध के लेखक ‘महावीर प्रसाद दविवेदी’ हैं। लेखक का यह निबंध उन लोगों की चेतना जागृत करने के लिए है जो स्त्री शिक्षा को व्यर्थ मानते थे। उन लोगों के अनुसार शिक्षित स्त्री समाज के विघटन का कारण बनती है। इस निबंध की एक विशेषता यह है कि परंपरा का हिस्सा सड़-गल चुका है, उसे बेकार मानकर छोड़ देने की बात कही गई है।

लेखक के समय में कुछ ऐसे पढ़े-लिखे लोग थे जो स्त्री शिक्षा को घर और समाज दोनों के लिए हानिकारक मानते थे। इन लोगों का काम समाज में बुराइयों और अनीतियों को समाप्त करना था स्त्री शिक्षा के विरोध में ये लोग अपने कुछ तर्क प्रस्तुत करते हैं उनके अनुसार प्राचीन भारत में संस्कृत कवियों के नाटकों में कुलीन स्त्रियां गँंवार भाषा का प्रयोग करती थीं। इसलिए उस समय भी स्त्रियों को पढ़ाने का चलन नहीं था कम पढ़ी-लिखी शकुंतला ने दुष्यंत से ऐसे कटु वचन बोले कि अपना सत्यानाश कर लिया। यह उसके पढ़े-लिखे होने का फल था उस समय स्त्रियों को पढ़ाना समय बर्बाद करना समझा जाता था लेखक ने इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर दिया है। नाटकों में स्त्रियों का संस्कृत न बोलना उनका अनपढ़ होना सिद्ध नहीं करता। वाल्मीकि की रामायण में जब बंदर संस्कृत बोल सकते हैं तो उस समय स्त्रियां संस्कृत क्यों नहीं बोल सकती थीं ऋषि पत्नियों की भाषा गैवारों जैसी नहीं हो सकती। कालिदास और भवभूति के समय तो आम लोग भी संस्कृत भाषा बोलते थे । इस बात का कोई स्पष्ट सबूत नहीं है कि उस समय बोलचाल की भाषा प्राकृत नहीं थी। प्राकृत भाषा में बात करना अनपढ़ होना नहीं था। प्राकृत उस समय की प्रचलित भाषा थी इसका प्रमाण बौद्धों और जैनों के हज़ारों ग्रंथों से मिलता है। भगवान् बुद्ध के सभी उपदेश प्राकृत भाषा में मिलते हैं। बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा ग्रंथ त्रिपिटक प्राकृत भाषा में है। इसलिए प्राकृत बोलना और लिखना अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। गाथा-सप्तशती, सेतुबंध-महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रंथ प्राकृत भाषा में हैं। यदि इनको लिखने वाले अनपढ़ थे तो आज के सभी अखबार संपादक अनपढ़ हैं। वे अपनी-अपनी प्रचलित भाषा में आववार छापते हैं। जिस तरह हम बांग्ला, मराठी, हिंदी बोल, पढ़ और लिखकर स्वयं को विद्वान् समझते हैं उसी तरह उस समय पाली, मगधी, महाराष्ट्री, शोरसैनी आदि भाषाएं पढ़कर वे लोग सभ्य और शिक्षित हो सकते थे। जिस भाषा का चलन होता है वही बोली जाती है और उसी भाषा में साहित्य मिलता है।

उस समय के आचार्यों के नाट्य संबंधी नियमों के आधार पर पढ़े-लिखे होने का ज्ञान नहीं हो सकता जब ये नियम बने थे उस समय संस्कृत सर्वसाधारण की बोलचाल भाषा नहीं थी। इसीलिए उच्च पात्रों से नाटकों में संस्कृत और स्त्रियों एवं अन्य पात्रों से प्राकृत भाषा का प्रयोग करवाया था। उस समय स्त्रियों के लिए विद्यालय थे या नहीं इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है परंतु इसके आधार पर हम स्त्रियों को अनपढ़ और असभ्य नहीं मान सकते। कहा जाता है कि उस समय विमान होते थे जिससे एक द्वीपांतरों से अन्य द्वीपों तक जाया जा सकता था। परंतु हमारे शास्त्रों में इसके बनाने की विधि कहीं नहीं दी गई है। इससे उस समय जहाज़ होने की बात से इन्कार तो नहीं करते अपितु गर्व ही करते हैं। फिर यह कहाँ का न्याय है कि उस समय की स्त्रियों को शास्त्रों के आधार पर मूर्ख, असभ्य और अनपढ़ बता दिया जाए। हिंदू लोग वेदों की रचना को ईश्वरकृत रचना मानते हैं। ईश्वर ने भी मंत्रों की रचना स्त्रियों से कराई है। प्राचीन भारत में ऐसी कई स्त्रियां हुई हैं जिन्होंने बड़े-बड़े पुरुषों से शास्त्रार्थ किया और उनके हाथों सम्मानित हुई हैं। बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक में सैंकड़ों स्त्रियों की पद्य रचना लिखी हुई है। उन स्त्रियों को सभी प्रकार के काम करने की इजाजत थी तो उन्हें पढ़ने-लिखने से क्यों रोका जाता स्त्री शिक्षा विरोधियों की ऐसी बातें समझ में नहीं आतीं।

अत्रि की पत्नी, मंडन मिश्र की पत्नी, गार्गी आदि जैसी विदुषी नारियों ने अपने पांडित्य से उस समय के बड़े बड़े आचार्य को भी मात दे दी थी। तो क्या वे स्त्रियों को कुछ बुरा परिणाम भुगतना पड़ा। यह सब उन लोगों की गढ़ी हुई कहानियाँ हैं जो स्त्रियों को अपने से आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकते। जिनका अहंकार स्त्री को दबाकर रखने से संतुष्ट होता है तो वे स्त्री को अपनी बराबरी का अधिकार कैसे दे सकते हैं। यदि उनकी बात भी ली जाए तो पुराने समय में स्त्रियों को पढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती थी परंतु आज बदलते समय के साथ स्त्री-शिक्षा अनिवार्य है। जब हम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए कई पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ दिया है तो इस पद्धति को हम क्यों नहीं तोड़ सकते ? यदि उन लोगों को पुराने समय में स्त्रियों को पढ़े होने का प्रमाण चाहिए तो श्री श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध में रुक्मिणी के हाथ का लिखा कृष्ण को पत्र बड़ी विद्वता भरा है। यह उसके पढ़े-लिखे होने का प्रमाण नहीं है क्या ? वे लोग भागवत की बात से इन्कार नहीं कर सकते। स्त्री-शिक्षा विरोधियों के अनुसार यदि स्त्रियों को पढ़ाने से कुछ बुरा घटित होता है तो पुरुषों के पढ़ने से तो उससे भी बुरा घटित होता है। समाज में होने वाले सभी बुरे कार्य पढ़े-लिखे पुरुषों की देन हैं तो क्या पाठशालाएँ, कॉलेज आदि बंद कर देने चाहिएं। शकुंतला का दुष्यंत का अपमान करना स्वाभाविक बात थी। एक पुरुष स्त्री से शादी करके उसे भूल जाए और उसका त्याग कर दे तो वह स्त्री चुप नहीं बैठेगी। वह अपने विरुद्ध किए अन्याय का विरोध तो करेगी यह कोई गलत बात नहीं थी। सीता जी तो शकुंतला से अधिक पवित्र मानी जाती हैं। उन्होंने भी अपने परित्याग के समय राम जी पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने सबके सामने अग्नि में कूद कर अपनी पवित्रता का प्रमाण दिया था फिर लोगों की बातें सुनकर उसे क्यों छोड़ दिया। यह राम जी के कुल पर कलंक लगाने वाली बात है। सीता जी तो शास्त्रों का ज्ञान रखने वाली थी फिर उन्होंने अपने विरुद्ध हुए अन्याय का विरोध अनपढ़ों की भांति क्यों दिखाया। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। जब मनुष्य अपने विरुद्ध हुए अन्याय के विरोध में आवाज उठाता है।

पढ़ने-लिखने से समाज में कोई भी अनर्थ नहीं होता। अनर्थ करने वाले अनपढ़ और पढ़े-लिखे दोनों तरह के हो सकते हैं। अनर्थ का कारण दुराचार और पापाचार है। स्त्रियाँ अच्छे-बुरे का ज्ञान कर सकें उसके लिए स्त्रियों को पढ़ाना आवश्यक है। जो लोग स्त्रियों को पढ़ने-लिखने से रोकते हैं उन्हें दंड दिया जाना चाहिए। स्त्रियों को अनपढ़ रखना समाज की उन्नति में रुकावट डालता है। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत है। उसमें सीखने योग्य सभी कार्य समाहित हैं तो पढ़ना-लिखना भी उसी के अंतर्गत आता है। यदि वर्तमान की शिक्षा-प्रणाली के कारण लड़कियों को पढ़ने-लिखने से रोका जाए तो ठीक नहीं है। इससे तो अच्छा है कि शिक्षा प्रणाली में सुधार लाया जाए। लड़कों की भी शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं है फिर स्कूल-कॉलेज क्यों बंद नहीं किए। दोहरे मापदंडों से समाज का हित नहीं हो सकता। यदि विचार करना है तो स्त्री-शिक्षा के नियमों पर विचार करना चाहिए उन्हें कहाँ पढ़ाना चाहिए, कितनी शिक्षा देनी चाहिए, किससे शिक्षा दिलानी चाहिए। परंतु यह कहना कि स्त्री-शिक्षा में दोष है यह पुरुषों के अहंकार को सिद्ध करता है, अहंकार को बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा लेना उचित नहीं है।

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NCERT Solution –स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

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एक कहानी यह भीका सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 14 | एक कहानी यह भी Summary | Quick revision Notes ch-14 Kshitij | EduGrown

 

एक कहानी यह भीका सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 14 | एक कहानी यह भी  Summary | Quick revision Notes ch-14 Kshitij | EduGrown

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लेखक परिचय

मन्नू भंडारी

इनका जन्म सन 1931 में गाँव भानपुरा, जिला मंदसौर, मध्य प्रदेश में हुआ था। इनकी इंटर तक की शिक्षा  शहर में हुई। बाद में इन्होने हिंदी से एम.ए किया। दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्ति के बाद आजकल दिल्ली में ही रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

एक कहानी यह भी Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी द्वारा आत्मपरक शैली में लिखी हुई आत्मकथ्य है। इस पाठ में यह बात बड़े ही प्रभावशाली ढंग से दर्शाई गई है कि बालिकाओं को किस तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ता है। अपने पिता से लेखिका के वैचारिक मतभेद का भी चित्रण हुआ है।
‘एक कहानी यह भी’ के संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि मन्नू भंडारी ने पारिभाषिक अर्थ में कोई सिलसिलेवार आत्मकथा नहीं लिखी है। अपनी आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में उल्लेख किया है, जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं।


संकलित अंश में मन्नूजी के किशोर जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के व्यक्तित्व विशेषरूप से उभरकर आया है, जो कि आगे चलकर उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लेखिक ने बड़े रोचकिय ढंग से एक साधारण लड़की के असाधारण बनने की प्रारंभिक पड़ावों का वर्णन किया है। सन् ’46-47′ की आज़ादी की आँधी ने मन्नूजी को भी अछूता नहीं छोड़ा। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आज़ादी की लड़ाई में जिस तरह से भागीदारी की, उसमे उसका उत्साह, ओज, संगठन-क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है। इन सब घटनाओं के साथ हो रहे अपने पिताजी के अंतर्विरोधों को भी लेखिका ने बखूबी उजागर किया है।

एक कहानी यह भी Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

एक कहानी यह भी’ एक आत्मकथ्य है। इसकी लेखिका मन्नू भंडारी हैं। इसमें उन्होंने अपने जीवन की उन घटनाओं का वर्णन किया है जो उन्हें लेखिका बनाने में सहायक हुई हैं; इस पाठ में छोटे शहर की युवा होती लड़की की कहानी है जिसका आज़ादी की लड़ाई में उत्साह, संगठन-क्षमता और विरोध करने का स्वरूप देखते ही बनता था।

लेखिका का जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था, परंतु उसका बचपन अजमेर ब्रह्मपुरी मोहल्ले में गुज़रा था। उनका घर दो मंजिला था। नीचे पूरा परिवार रहता था, ऊपर की मंजिल पर पिताजी का साम्राज्य था। अजमेर से पहले वे लोग इंदौर में रहते थे। इंदौर में उनका परिवार प्रतिष्ठित परिवारों में से एक था। वे शिक्षा को केवल उपदेश की तरह नहीं लेते थे। कमशोर छात्रों को पर लाकर भी पढ़ाषा करते थे उनके पढाए छात्र आज ऊैसे ओहदों पर लगे मे। पिता दरियादिल, कोमल स्वभाव, संवेदनशील के साथ-साथ क्रोधी और अहवादी थे। एक बहुत बड़े आर्थिक हुए टके ने उन्हें अंदर तक हिला दिया था। वे इंदौर छोड़ कर अजमेर आ गए थे यहाँ उन्होंने अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोष तैयार किया। यह अपनी तरह का पहला शब्दकोश था, जिसने उन्हें प्रसिद्धि तो बहुत दी, परंतु धन नहीं, कमजोर आर्थिक स्थिति ने उनके सकारात्मक पहलुओं पर अपना घर बना लिया था। वे अपनी गिरती आर्थिक स्थिति में अपने बच्चों को भागीदार बनाना नहीं चाहते थे। आरंभ से अच्छा देखने वाले पिताजी के लिए यह दिन बड़े कष्टदायक थे। इससे उनका स्वभाव क्रोधी हो गया था। उनके क्रोध का भाजन सदैव माँ बनती थी। जय से उन्होंने अपने लोगों से ही धोखा खाया है उनका स्वभाव शक्की हो गया था। वे हर किसी को शक की नजरों से देखते थे।

लेखिका अपने पिता जी को याद करके यह बताना चाहती है उसमें उसके पिता जी के कितने गुण और अवगुण आए है। उनके व्यवहार ने सदैव लेखिका को हीनता का शिकार बनाया है। लेखिका का रंग काला था। शरीर से भी यह दुबली-पतली थी, परंतु उसके पिता जी को गोरा रंग पसंद था। उससे बड़ी बहन सुशीला गोरे रंग की थी, इसलिए वह पिता जी की चहेती थी। पिता जी हर बात पर उसकी तुलना सुशीला से करते थे, जिससे उसमें हीन भावना घर कर गई। वह हीन भावना उसमें से आज तक नहीं निकली थी। आज भी वह किसी के सामने खुलकर अपनी तारीफ़ सुन नहीं पाती। लेखिका को अपने कानों पर यह विश्वास नहीं होता कि उन्होंने लेखिका के रूप में इतनी उपलब्धियां प्राप्त की हैं; लेखिका पर अपने पिता का पूरा प्रभाव था। उसे अपने व्यवहार में कहीं-न-कहीं अपने पिता का व्यवहार दिखाई देता था। दोनों के विचार सदैव आपस में टकराते रहे थे। समय मनुष्य को अवश्य बदलता है, परंतु कुछ जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि वे अपने स्थान से नहीं हिलती। पिता से विपरीत स्वभाव की लेखिका की माँ थी। वे हर समय सब की सेवा में तैयार रहती थी। पिता जी की हर कमजोरी माँ पर निकलती थी। वे हर बात को अपना कर्त्तव्य मानकर पूरा करती थी। लेखिका और उसके दूसरे भाई-बहिनों का माँ से विशेष लगाव था परंतु लेखिका की माँ उसका आदर्श कभी नहीं बन पाई।

लेखिका पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। उसकी बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। लेखिका को उसकी शादी की धुंधली-सी यादें हैं। घर के आंगन में उसको खेल में साथ उसकी बहन सुशीला ने दिया। दोनों बचपन के वे सभी खेल खेलती थीं जो सभी बच्चे खेलते हैं। दोनों अपने भाइयों के साथ लड़कों वाले खेल भी खेलती थीं, परंतु उनके खेल का दायरा घर का आँगन था। लड़के कहीं भी आ-जा सकते थे उस समय घरों का आँगन अपने घर तक सीमित नहीं था। वे पूरे मोहल्ले के घरों के आँगन तक आ-जा सकती थी। उस समय मोहल्ले के सभी घर एक-दूसरे के परिवारों का हिस्सा होते थे। लेखिका को आज की फ्लैट वाली जिंदगी असहाय लगती है। उसे लगता है कि उसकी दर्जनों कहानियों के पात्र उसी मोहल्ले के हैं जहाँ उसने अपना बचपन और यौवन व्यतीत किया था उस मोहल्ले के लोगों की छाप उसके मन पर इतनी गहरी थी कि वह किसी को भी अपनी कहानी या उपन्यास का पात्र बना लेती थी और उसे पता ही नहीं चलता था। उस समय के समाज में लड़की की शादी के लिए योग्य आयु सोलह वर्ष तथा मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्ति समझी जाती थी। उसकी बहन सुशीला की शादी सन् 1944 में हो गई थी। उसके दोनों बड़े भाई पढ़ाई के लिए बाहर चले गए थे। सबके चले जाने के पश्चात् लेखिका को अपने व्यक्तित्व का अहसास हुआ। उसके पिता जी ने भी उसे कभी घर के कार्यों के लिए प्रेरित नहीं किया। उन्होंने सदा उसे राजनीतिक सभाओं में अपने साथ बैठाया। वे चाहते थे कि उसे देश की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। उस समय देश में घट भी बहुत कुछ रहा था। चारों तरफ आजादी की लहर दौड़ रही थी। लेखिका की आयु काफ़ी कम थी, फिर भी उसे क्रांतिकारियों और देशभक्तों, शहीदों की कुर्वानियाँ रोमांचित कर देती थीं।

दसवीं कक्षा तक तो लेखिका को जो भी साहित्य मिलता उसे पढ़ लेती थी, परंतु जैसे ही दसवीं पास करके कॉलेज में ‘फर्स्ट ईयर’ में गई। वहाँ हिंदी की अध्यापिका शीला अग्रवाल ने उसका वास्तविक रूप में साहित्य से परिचय करवाया। वे स्वयं उसके लिए किताबें चुनती और उसे पढ़ने को देती थी उन विषयों शीला अग्रवाल, लेखिका से लंबी बहस करती थी। इससे उसके साहित्य का दायरा बढ़ा। लेखिका ने उस समय के सभी बड़े-बड़े लेखकों के साहित्यों को पढ़कर समझना आरंभ कर दिया था। अध्यापिका शीला अग्रवाल की संगति ने उसका परिचय मात्र साहित्य से ही नहीं अपितु घर से बाहर की दुनिया से भी करवाया पिता जी के साथ आरंभ से ही राजनीतिक सभाओं में हिस्सा लेती थी, परंतु उन्होंने उसे सक्रिय राजनीति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उस समय सन् 1946-47 में देश का वातावरण इस प्रकार था कि कोई भी व्यक्ति अपने घर में चुप रहकर नहीं बैठ सकता था। अध्यापक शीला अग्रवाल की बातों ने उसकी रगों में जोश भर दिया था। वह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़कों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी, परंतु उसके पिता जी को यह बातें अच्छी नहीं लगती थीं। वे दोहरे व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे आधुनिकता के समर्थक होते हुए भी दकियानूसी विचारों के थे एक ओर तो वे मन्नू को घर में हो रही राजनीतिक सभाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित करते दूसरी ओर उन्हें उसका घर से बाहर की राजनीतिक उथल-पुथल में भाग लेना अच्छा नहीं लगता था। यहीं पर दोनों पिता-बेटी के विचारों में टकराहट होने लगी थी दोनों के मध्य विचारों की टकराहट राजेंद्र से शादी होने तक चलती रही थी।

लेखिका के पिता जी की सबसे बड़ी कमजोरी यश की चाहत थी उनके अनुसार कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि जिससे समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान हो। उनकी इसी चाहत ने लेखिका को उनके क्रोध का भाजन बनने से बचाया था। एक बार कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र पिता जी के नाम आया। उन्होंने उन्हें उसके बारे में बातचीत करने के लिए बुलाया था। पिता जी को बहुत क्रोध आया था, परंतु जब वे कॉलेज से लौटे तो बहुत खुश थे उन्होंने बताया कि ठसका कॉलेज में बहुत दबदबा है, सारा कॉलेज उसके एक इशारे पर खाली हो जाता है। वे तीन लड़कियाँ हैं, जिन्होंने कॉलेज चलाना मुश्किल कर रखा था। पिता जी को प्रिंसिपल की बातें सुनकर गर्व हुआ कि उनके घर भी एक ऐसा नेता है जो सभी को एक आवाज़ में अपने साथ चलने के लिए प्रेरित कर सकता है। पिता जी के मुँह से अपने लिए प्रशंसा सुनकर उसे अपने कानों और आँखों पर विश्वास नहीं हुआ था। ऐसी ही एक घटना और थी। उन दिनों आजाद हिंद फौज का मुकद्दमा चल रहा था। सभी स्कूल, कॉलेजों में हड़ताल चल रही थी। सारा युवा वर्ग अजमेर के मुख्य बाजार के चौराहे पर एकत्रित हुआ। वहाँ सभी ने अपने विचार रखे। लेखिका ने भी अपने विचार उपस्थित भीड़ के सामने रखे। उसके विचार सुनकर उसके पिता जी के मित्र ने आकर पिता जी को उसके बारे में उल्टी-सीधी बातें कह दी जिसे सुनकर पिता जी आग-बबूला हो गए। वे सारा दिन माँ पर कुछ-न-कुछ बोलते रहे। रात के समय जब वह घर लौटी तो उसके पिता के पास उनके एक अभिन्न मित्र अंबा लाल जी बैठे थे डॉ० अंबा लाल जी ने मन्नू को देखते ही उसकी प्रशंसा करनी आरंभ कर दी। वे उसके पिता जी से बोले कि उन्होंने मन्नू का भाषण न सुनकर अच्छा नहीं किया। मन्नू ने बड़ा ही अच्छा और जोरदार भाषण दिया। पिता जी यह सब सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनके चेहरे पर गर्व के भाव थे। बाद में उसे उसकी माँ ने दोपहर में पिता जी के क्रोध वाली बात बताई तो उसकी साँस में साँस आई।

लेखिका आज अपने अतीत में देखती है कि उसे यह समझ नहीं आता कि क्या वास्तव में उसका भाषण जोरदार था या फिर उस समय के समाज में किसी लड़की द्वारा उपस्थित भीड़ के सामने नि:संकोच से धुआँधार बोलना ही सब पर अपना प्रभाव छोड़ गया था। परंतु लेखिका के पिता जी कई प्रकार के अंतर्विरोधों में जी रहे थे। वे आधुनिकता और पुराने विचारों दोनों के समर्थक थे। उनके यही विचार कई प्रकार के विचारों के विरोध का कारण बनते थे मई 1947 में अध्यापक शीला अग्रवाल को कॉलेज से निकाल दिया गया था उन पर यह आरोप था कि वे कॉलेज की लड़कियों में अनुशासनहीनता फैला रही थी। लेखिका के साथ दो और लड़कियों को ‘धर्ड इयर’ में दाखिला नहीं दिया गया। कॉलेज में इस बात को लेकर खूब शोर-शराबा हुआ। जीत लड़कियों की हुई, परंतु इस जीत की खुशी से भी ज्यादा एक और खुशी प्रतीक्षा में थी। वह उस शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उस समय भारत 15 अगस्त, सन् 1947 को आजाद हुआ था।

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NCERT Solution –एक कहानी यह भी

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मानवीय करुणा की दिव्य चमक का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 13 | मानवीय करुणा की दिव्य चमक Summary | Quick revision Notes ch-13 Kshitij | EduGrown

 

manveya karuna ki divyachmak summary

लेखक परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इनक जन्म 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनकी उच्च शिक्षा इलाहबाद विश्वविधयालय से हुई।  अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर, दिनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। ये बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। सन 1983 में इनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मानवीय करुणा की दिव्य चमक का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 13 | मानवीय करुणा की दिव्य चमक  Summary | Quick revision Notes ch-13 Kshitij | EduGrown

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक ‘सर्वेश्वर दयाल सक्सेना’ हैं। यह पाठ एक संस्मरण है। लेखक ने इस पाठ में फ़ादर बुल्के से संबंधित स्मृतियों का वर्णन किया है। फ़ादर बुल्के ने अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल को छोड़कर भारत को अपनी कार्यभूमि बनाया। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष लगाव था।

फ़ादर की मृत्यु जहरबाद से हुई थी। उनके साथ ऐसा होना ईश्वर का अन्याय था। इसका कारण यह था कि वे सारी उम्र दूसरों को अमृत-सी मिठास देते रहे थे। उनका व्यक्तित्व ही नहीं अपितु स्वभाव भी साधुओं जैसा था। लेखक उन्हें पैंतीस सालों से जानता था। वे जहां भी रहे अपने प्रियजनों पर ममता लुटाते रहे थे। फ़ादर को याद करना, देखना और सुनना ये सब कुछ लेखक के मन में अजीब शांत-सी हलचल मचा देते थे। उसे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब वह उनके साथ काम करता था। फ़ादर बड़े भाई की भूमिका में सदैव सहायता के लिए तत्पर रहते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि वह फ़ादर की बात कहां से शुरू करे। फ़ादर जब भी मिलते थे वे जोश में होते थे। उनमें प्यार और ममता कूट-कूट कर भरी हुई थी। किसी ने भी कभी उन्हें क्रोध में नहीं देखा था। फ़ादर बह बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे जब वे संन्यासी होकर भारत आ गए। उनका पूरा परिवार बेल्जियम के रैम्स चैपल में रहता था। भारत में रहते हुए वे अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल और अपनी माँ को प्राय: याद करते थे। वे अपने विषय में बताते थे कि उनकी माँ ने उनके बचपन में ही घोषणा कर दी थी कि यह लड़का हाथ से निकल गया है और उन्होंने अपनी माँ की बात पूरी कर दी। वे संन्यासी बनकर भारत के गिरजाघर में आ गए। आरंभ के दो साल उन्होंने धर्माचार की पढ़ाई की । 9- 10 साल तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। कलकत्ता से उन्होंने बी० ए० की पढ़ाई की। इलाहाबाद से एम०ए० किया था। उन्होंने अपना शोध कार्य प्रयाग विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग से सन् 1950 में पूरा किया था। उनके शोध कार्य का विषय-रामकथा: उत्पत्ति और विकास था। उन्होंने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लूबर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ नाम से रूपांतर किया। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। यहाँ रहकर उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेज़ी हिंदी कोश तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद भी किया। रांची में ही उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था।

फ़ादर बुल्के मन से नहीं अपितु संकल्प से संन्यासी थे। वे जिससे एक बार रिश्ता जोड़ लेते थे उसे कभी नहीं तोड़ते थे। दिल्ली आकर कभी वे बिना मिले नहीं जाते थे। मिलने के लिए सभी प्रकार की तकलीफों को सहन कर लेते थे। ऐसा कोई भी संन्यासी नहीं करता था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। वे हर सभा में हिंदी को सर्वोच्च भाषा बनाने की बात करते थे। वे उन लोगों पर झुंझलाते थे जो हिंदी भाषा वाले होते हुए भी हिंदी की उपेक्षा करते थे। उनका स्वभाव सभी लोगों की दु:ख-तकलीफों में उनका साथ देना था। उनके मुँह से सांत्वना के दो बोल जीवन में रोशनी भर देते थे। लेखक की जब पत्नी और पुत्र की मृत्यु हुई उस समय फ़ादर ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।’ लेखक को उनकी बीमारी का पता नहीं चला था। वह उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली पहुँचा था। वे चिरशांति की अवस्था में लेटे थे। उनकी मृत्यु 18 अगस्त, सन् 1982 को हुई। उन्हें कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके ताबूत के साथ रघुवंश जी, जैनेंद्र कुमार, डॉ० सत्य प्रकाश, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन, विजयेंद्र स्नातक और रघुवंश जी का बेटा आदि लोग थे। साथ में मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण थे। सभी दुःखी और उदास थे। उनका अंतिम संस्कार मसीही विधि से हुआ था। उनकी अंतिम यात्रा में रोने वालों की कमी नहीं थी। इस तरह एक छायादार, फल-फूल गंध से भरा वृक्ष हम सबसे अलग हो गया उनकी स्मृति जीवन भर यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह सबके मन में बनी रहेगी। लेखक उनकी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धा से नतमस्तक है।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

पार्ट-1

‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी हैं। उन्होंने बेल्जियम देश (यूरोप) में जन्मे फादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व और जीवन का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है। फादर बुल्के एक ईसाई संन्यासी थे लेकिन उनका व्यवहार कतई  संन्यासी  जैसा नहीं था। वे संन्यासी होते हुए भी लोगों के साथ मधुर संबंध रखते थे।

          कभी-कभी लेखक को लगता है कि फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। मन से नहीं । क्योंकि वे एक बार जिससे रिश्ता बनाते, तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद भी उनकी गंध महसूस की जा सकती है। वे जब भी दिल्ली आते थे, तो मिलकर ही जाते थे। यह कौन संन्यासी करता है?


पार्ट-2           

भारत को वे अपना देश मानते थे। फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था, जो गिरजों, पादरियों, धर्मगुरूओं और संतों की भूमि कही जाती है। लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि भारत को चुना ।

               फ़ादर का बचपन और स्कूल की पढ़ाई रैम्सचैपल में ही हुई थी । उनके पिता एक बिजनेसमैन थे। उनका एक भाई पादरी था और दूसरा भाई माता-पिता के साथ घर में रहकर काम करता था। उनकी एक बहिन भी थी। जब उनसे पूछा जाता था कि तुमको अपने देश की याद आती है? तब वे कहते थे- अब भारत ही मेरा देश है ।


पार्ट-3       

बुल्के ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर संन्यासी बनने का निर्णय लिया था। उन्होंने संन्यासी बनने पर भारत जाने की शर्त रखी थी और उनकी शर्त मान ली गई थी। फादर बुल्के भारत व भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित थे। इसीलिए उन्होंने यह शर्त रखी थी।

          कामिल बुल्के संन्यासी बनने  के बाद भारत आए। फिर यहीं के हो कर रह गए।


पार्ट-4

फादर बुल्के को अपनी मां से बहुत लगाव था । वे अक्सर उनको याद करते थे। उनकी मां उन्हें पत्र लिखती रहती थी, जिसके बारे में वह अपने मित्र  डॉ. रघुवंश को बताते थे।  भारत में आकर उन्होंने ‘जिसेट संघ’ में दो साल तक पादरियों के साथ  रहकर धर्माचार(धर्म  पालन) की पढ़ाई की। फिर 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। उसके बाद उन्होंने कोलकाता से बी.ए और इलाहाबाद से हिंदी में एम.ए की डिग्री प्राप्त की। और इसी के साथ ही उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950 में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ विषय में शोध (पी.एच.-डी) भी किया।


पार्ट-5         

कामिल बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ के नाम से अनुवाद किया। बाद में वे ‘सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची’ में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष बने। यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश’ भी तैयार किया और बाइबिल का भी हिंदी में अनुवाद किया। इन्हीं कारणों से उनका हिंदी के प्रति गहरा प्रेम दिखाई देता है। और वहीं बीमार पड़े, पटना से दिल्ली गए।

               दिल्ली में जहरबाद (एक तरह का फोड़ा) की बीमारी के कारण 73 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। वे भारत में लगभग 47 वर्षों तक जीवित रहे।  इस बीच वो सिर्फ तीन या चार बार ही बेल्जियम गए थे। फादर बुल्के का लेखक से बहुत गहरा संबंध था। फादर बुल्के लेखक के परिवार के सदस्य जैसे थे। लेखक का परिचय फादर बुल्के से इलाहाबाद में हुआ था, जो जीवन पर्यंत रहा। लेखक फादर के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे।


पार्ट-6        

लेखक के अनुसार फादर वात्सल्य (बड़ों का छोटों के प्रति प्रेम) व प्यार की साक्षात मूर्ति थे। वे हमेशा लोगों को अपने आशीष वचनों  से भर देते थे। उनके हृदय में हर किसी के लिए प्रेम, दया व अपनेपन  का भाव था। वह लोगों के दुख में शामिल होते और उन्हें अपने मधुर वचनों से सांत्वना देते थे। फादर की इच्छा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वह अक्सर हिंदी भाषियों की हिंदी के प्रति उपेक्षा देखकर दुखी हो जाते थे।

          फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। लेखक उस वक्त भी दिल्ली में ही रहते थे। लेकिन उनको फादर की बीमारी का पता समय से न चल पाया, जिस कारण वह मृत्यु से पहले फादर बुल्के के दर्शन नहीं कर सके। इस बात का लेखक को गहरा अफ़सोस था ।


पार्ट-7             

वह 18 अगस्त 1982 की सुबह 10 बजे कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी सी नीली गाड़ी में से कुछ पादरियों, रघुवंशीजी के बेटे, राजेश्वर सिंह द्वारा उतारा गया। फिर उस ताबूत को पेड़ों की घनी छाँव वाली सड़क से कब्र तक ले जाया गया। उसके बाद फादर बुल्के के मृत शरीर को धरती की गोद में सुला दिया। रांची के फादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से उनका अंतिम संस्कार किया और  सबने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।

          उनके अंतिम संस्कार के वक्त वहां हजारों लोग इकट्ठे थे, जिन्होंने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि दी। इसके अलावा वहाँ जैनेन्द्र कुमार, विजेंद्र स्नातक, अजीत कुमार, डॉ निर्मला जैन, मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण, डॉक्टर सत्यप्रकाश और डॉक्टर रघुवंश भी उपस्थित थे।


पार्ट-8         

लेखक कहता है, “मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा ।”  लेकिन उस समय रोने वालों की कोई कमी नहीं थी । उस समय नम आँखों को गिनना स्याही फ़ैलाने जैसा है। लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीवन भर दूसरों को वात्सल्य व प्रेम का अमृत पिलाया। और  जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उसकी मृत्यु जहरबाद से हुई। यह फादर के प्रति ऊपर वाले का घोर अन्याय है।

               लेखक ने फादर की तुलना एक ऐसे छायादार वृक्ष से की है जिसके फल फूल सभी मीठी-मीठी सुगंध से भरे रहते हैं और जो अपनी शरण में आने वाले सभी लोगों को अपनी छाया से शीतलता प्रदान करता है।


पार्ट-9        

ठीक उसी तरह फादर बुल्के भी हम सबके साथ रहते हुए, हम जैसे होकर भी, हम सब से बहुत अलग थे। प्राणी मात्र के लिए उनका प्रेम व वात्सल्य उनके व्यक्तित्व को मानवीय करुणा की दिव्य चमक से प्रकाशमान करता था।

               लेखक के लिए उनकी स्मृति किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह है जो आजीवन बनी रहेगी। लेखक का मानना है कि जबतक राम कथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जायेगा और उन्हें हिंदी भाषा का प्रेमी माना जाएगा। आज फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है ।

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NCERT Solution –लखनवी अंदाज

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लखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

Dलखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता  Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

 

lakhnavi andaaz class 10 summary

लेखक परिचय

यशपाल

इनका जन्म सन 1903 में पंजाब के फिरोजपुर छावनी में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा काँगड़ा में ग्रहण करने के बाद लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी.ए. किया। वहाँ इनका परिचय भगत सिंह और सुखदेव से हुआ। स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी धारा से जुड़ाव के कारण ये जेल भी गए। इनकी मृत्यु सन 1976 में हुई।

यशपाल | Dलखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता  Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

 Lakhnavi Andaaz Short Summary : लखनवी अंदाज पाठ सार

लेखक को पास में ही कहीं जाना था। लेखक ने यह सोचकर सेकंड क्लास का टिकट लिया की उसमे भीड़ कम होती है, वे आराम से खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देखते हुए किसी नए कहानी के बारे में सोच सकेंगे। पैसेंजर ट्रेन खुलने को थी। लेखक दौड़कर एक डिब्बे में चढ़े परन्तु अनुमान के विपरीत उन्हें डिब्बा खाली नही मिला। डिब्बे में पहले से ही लखनऊ की नबाबी नस्ल के एक सज्जन पालथी मारे बैठे थे, उनके सामने दो ताजे चिकने खीरे तौलिये पर रखे थे। लेखक का अचानक चढ़ जाना उस सज्जन को अच्छा नही लगा। उन्होंने लेखक से मिलने में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। लेखक को लगा शायद नबाब ने सेकंड क्लास का टिकट इसलिए लिया है ताकि वे अकेले यात्रा कर सकें परन्तु अब उन्हें ये बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था की कोई सफेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफर करता देखे। उन्होंने शायद खीरा भी अकेले सफर में वक़्त काटने के लिए ख़रीदा होगा परन्तु अब किसी सफेदपोश के सामने खीरा कैसे खायें। नबाब साहब खिड़की से बाहर देख रहे थे परन्तु लगातार कनखियों से लेखक की ओर देख रहे थे।

अचानक ही नबाब साहब ने लेखक को सम्बोधित करते हुए खीरे का लुत्फ़ उठाने को कहा परन्तु लेखक ने शुक्रिया करते हुए मना कर दिया। नबाब ने बहुत ढंग से खीरे को धोकर छिले, काटे और उसमे जीरा, नमक-मिर्च बुरककर तौलिये पर सजाते हुए पुनः लेखक से खाने को कहा किन्तु वे एक बार मना कर चुके थे इसलिए आत्मसम्मान बनाये रखने के लिए दूसरी बार पेट ख़राब होने का बहाना बनाया। लेखक ने मन ही मन सोचा कि मियाँ रईस बनते हैं लेकिन लोगों की नजर से बच सकने के ख्याल में अपनी असलियत पर उतर आयें हैं। नबाब साहब खीरे की एक फाँक को उठाकर होठों तक ले गए, उसको सूँघा। खीरे की स्वाद का आनंद में उनकी पलकें मूँद गयीं। मुंह में आये पानी का घूँट गले से उतर गया, तब नबाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। इसी प्रकार एक-एक करके फाँक को उठाकर सूँघते और फेंकते गए। सारे फाँको को फेकने के बाद उन्होंने तौलिये से हाथ और होठों को पोछा। फिर गर्व से लेखक की ओर देखा और इस नायब इस्तेमाल से थककर लेट गए। लेखक ने सोचा की खीरा इस्तेमाल करने से क्या पेट भर सकता है तभी नबाब साहब ने डकार ले ली और बोले खीरा होता है लजीज पर पेट पर बोझ डाल देता है। यह सुनकर लेखक ने सोचा की जब खीरे के गंध से पेट भर जाने की डकार आ जाती है तो बिना विचार, घटना और पात्रों के इच्छा मात्र से नई कहानी बन सकती है।

 Lakhnavi Andaaz Detailed Summary : लखनवी अंदाज पाठ सार

पार्ट-1

    लखनवी अंदाज़ एक व्यंगात्मक कहानी है। इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है- ट्रेन चलने को तैयार थी। लेखक को कहीं दूर जाना नहीं था। इसलिए भीड़ से बचने और एकांत में बैठना चाहते थे। जिससे नई कहानी के बारे में सोच सकें । और  ट्रेन की खिड़की से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों को भी देख सकें । इसिलए  लोकल ट्रेन के सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया था ।


पार्ट-2

      गाड़ी छूट रही थी। इसीलिए लेखक  सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर थोडा दौड़कर चढ़ गए। जिस डिब्बे को वो खाली समझकर चढ़े थे। वहाँ पहले से ही एक लखनवी नवाब(सफ़ेद पोश) बहुत आराम से पालथी मारकर बैठे हुए थे। उनके सामने तौलिए पर दो ताजे खीरे रखे थे। लेखक के आने से उनको अच्छा नहीं लगा था। उनको देख नवाब साहब बिल्कुल भी खुश नहीं हुए क्योंकि उन्हें अपना एकांत भंग होता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने लेखक से बात करने में भी कोई रूचि नहीं दिखाई। लेखक जाकर उनके सामने वाली सीट पर बैठ जाता है।

पार्ट-3

लेखक का खाली बैठकर कल्पना करने की पुरानी आदत थी। इसलिए वो अपने आने से नवाब साहब को होने वाली असुविधा का अनुमान लगाने लगे। वे सोच रहे थे शायद नवाब साहब ने अकेले आराम से यात्रा करने की इच्छा से सेकंड क्लास का टिकट ले लिया होगा ।


पार्ट-4

      नवाब साहब को यह अच्छा नहीं लग रहा था कि कोई व्यक्ति उन्हें सेकंड क्लास में सफर करते देखे। उन्होंने अकेले सफर में समय काटने के लिए दो खीरे ख़रीदे होंगे। लेकिन अब किसी अंजान  व्यक्ति के सामने खीरा कैसे खाएँ ?

नवाब साहब ने गाड़ी की खिड़की से बाहर गौर से देखा।  और लेखक कनखियों (तिरछी नजरों से) से नवाब साहब की ओर देख रहे थे।


पार्ट-5

      फिर अचानक नवाब साहब ने लेखक से खीरा खाने के लिए पूछा। लेकिन लेखक ने नवाब साहब को शुक्रिया कहकर मना कर दिया। उसके बाद नवाब साहब ने दोनों खीरों को लिया और सीट के नीचे लोटा निकाला। और खिड़की के बाहर धोकर तौलिए से पोंछ लिया। जेब से चाकू निकालकर उनके सिर काट लेते हैं। फिर छील उनकी फाकें बनाकर तौलिए पर सजा लेते हैं। उसके बाद उनपर पिसा जीरा और लाल मिर्च मिला नमक डालते हैं। नमक पड़ते ही खीरों से पानी निकलने लगता है।


पार्ट-6

उसके बाद नवाब साहब एक बार लेखक से फिर खीरा खाने के लिए पूछते हैं। चूँकि वे पहले ही इनकार कर चुके थे। इसीलिए उन्होंने अपना आत्म सम्मान बचाने के लिए इस बार पेट खराब कहकर खीरा खाने से मना कर दिया। वैसे लेखक का खीरा खाने को मन तो कर रहा था।

उसके बाद नवाब साहब ने खीरे के टुकड़ों को देखा। फिर खिड़की के बाहर देख कर एक गहरी सांस ली। और उन्होंने खीरे की फाँकों (टुकड़े) को बारी -बारी से उठाकर होठों तक लाकर सूंघा। स्वाद के आनंद में नवाब साहब की पलकें मुंद गईं। उसके बाद नवाब साहब ने खीरे के उन टुकड़े को खिड़की से बाहर फेंक दिया।


पार्ट-7

     खीरे के सारे टुकड़ों को सूँघकर बाहर फेंकदिया । उसके  बाद उन्होंने आराम से तौलिए से हाथ और होंठों को पोछा।  बाद में  बड़े गर्व से लेखक की ओर गुलाबी आँखों से देखते हैं। और ऐसा लगता है जैसे लेखक से कहना चाह रहे हों-यह है खानदानी रईसों का तरीका!नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थक कर लेट जाते हैं। लेखक गौर कर रहे थे कि क्या ‘सिर्फ खीरे को सूंघकर ही पेट भरा जा सकता है?’ तभी नवाब साहब एक ऊँची डकार लेते हैं और लेखक से कहते हैं- खीरा लजीज होता है लेकिन पेट पर बोझ डाल देता है।


पार्ट-8

यह सुनकर लेखक के ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। उन्होंने सोचा कि जब खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से ही पेट भर कर डकार आ सकती है, तो बिना विचार, घटना और पात्रों के, लेखक की इच्छा मात्र से ‘नई कहानी‘ क्यों नहीं बन सकती अर्थात् लिखी जा सकती है?

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बालगोबिन भगतकविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 11 | बालगोबिन भगत कविता Summary | Quick revision Notes ch-11 Kshitij | EduGrown

बालगोबिन भगतकविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 11 | बालगोबिन भगत कविता  Summary | Quick revision Notes ch-11 Kshitij | EduGrown

लेखक परिचय

रामवृक्ष बेनीपुरी

इनका जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन 1889 में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण , आरम्भिक वर्ष अभावों-कठिनाइयों और संघर्षों में बीते। दसवीं तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रीय रूप से जुड़ गए। कई बार जेल भी गए।इनकी मृत्यु सन 1968 में हुई।

रामवृक्ष बेनीपुरी  | बालगोबिन भगतकविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 11 | बालगोबिन भगत कविता  Summary | Quick revision Notes ch-11 Kshitij | EduGrown

बालगोबिन भगत Balgobin Summary Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

बालगोबिन भगत मंझोले कद के गोर-चिट्टे आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से उपर थी और बाल पक गए थे। वे लम्बी ढाढ़ी नही रखते थे और कपडे बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों की सी कनफटी टोपी। सर्दियों में ऊपर से कम्बल ओढ़ लेते। वे गृहस्थ होते हुई भी सही मायनों में साधू थे। माथे पर रामानंदी चन्दन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहने रहते। उनका एक बेटा और पतोहू थे। वे कबीर को साहब मानते थे। किसी दूसरे की चीज़ नही छूटे और न बिना वजह झगड़ा करते। उनके पास खेती बाड़ी थी तथा साफ़-सुथरा मकान था। खेत से जो भी उपज होती, उसे पहले सिर पर लादकर कबीरपंथी मठ ले जाते और प्रसाद स्वरुप जो भी मिलता उसी से गुजर बसर करते।


वे कबीर के पद का बहुत मधुर गायन करते। आषाढ़ के दिनों में जब समूचा गाँव खेतों में काम कर रहा होता तब बालगोबिन पूरा शरीर कीचड़ में लपेटे खेत में रोपनी करते हुए अपने मधुर गानों को गाते। भादो की अंधियारी में उनकी खँजरी बजती थी, जब सारा संसार सोया होता तब उनका संगीत जागता था। कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जातीं। वे अहले सुबह नदी-स्नान को जाते और लौटकर पोखर के ऊँचे भिंडे पर अपनी खँजरी लेकर बैठ जाते और अपना गाना शुरू कर देते। गर्मियों में अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। उनकी संगीत साधना का चरमोत्कर्ष तब देखा गया जिस दिन उनका इकलौता बेटा मरा। बड़े शौक से उन्होंने अपने बेटे कि शादी करवाई थी, बहू भी बड़ी सुशील थी। उन्होंने मरे हुए बेटे को आँगन में चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढक रखा था तथा उसपर कुछ फूल बिखरा पड़ा था। सामने बालगोबिन ज़मीन पर आसन जमाये गीत गाये जा रहे थे और बहू को रोने के बजाये उत्सव मनाने को कह रहे थे चूँकि उनके अनुसार आत्मा परमात्मा पास चली गयी है, ये आनंद की बात है। उन्होंने बेटे की चिता को आग भी बहू से दिलवाई। जैसे ही श्राद्ध की अवधि पूरी हुई, बहू के भाई को बुलाकर उसके दूसरा विवाह करने का आदेश दिया। बहू जाना नही चाहती थी, साथ रह उनकी सेवा करना चाहती थी परन्तु बालगोबिन के आगे उनकी एक ना चली उन्होंने दलील अगर वो नही गयी तो वे घर छोड़कर चले जायेंगे।

बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनके अनुरूप ही हुई। वे हर वर्ष गंगा स्नान को जाते। गंगा तीस कोस दूर पड़ती थी फिर भी वे पैदल ही जाते। घर से खाकर निकलते तथा वापस आकर खाते थे, बाकी दिन उपवास पर। किन्तु अब उनका शरीर बूढ़ा हो चूका था। इस बार लौटे तो तबीयत ख़राब हो चुकी थी किन्तु वी नेम-व्रत छोड़ने वाले ना थे, वही पुरानी दिनचर्या शुरू कर दी, लोगों ने मन किया परन्तु वे टस से मस ना हुए। एक दिन अंध्या में गाना गया परन्तु भोर में किसी ने गीत नही सुना, जाकर देखा तो पता चला बालगोबिन भगत नही रहे।

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नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता  Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

लेखक परिचय

स्वंय प्रकाश

इनका जन्म सन 1947 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढाई कर एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वंय प्रकाश का बचपन और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बिता। फिलहाल वे स्वैछिक सेवानिवृत के बाद भोपाल में रहते हैं और वसुधा सम्पादन से जुड़े हैं।

स्वंय प्रकाश नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता  Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

नेताजी का चश्मा Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

एक कंपनी में कार्यरत एक साहब अक्सर अपनी कंपनी के काम से बाहर जाते थे | हालदार साहब एक कस्बे से होकर गुजरते थे | वह क़स्बा बहुत ही छोटा था| कहने भर के लिए बाज़ार और पक्के मकान थे| लड़कों और लड़कियों का अलग अलग स्कूल था | मुख्य बाज़ार के मुख्य चौराहे पर नेताजी की मूर्ति थी | मूर्ति कामचलाऊ थी पर कोशिश सराहनीय थी | संगमरमर की मूर्ति थी पर उसपर चश्मा असली था | चौकोर और चौड़ा सा काला रंग का चश्मा | फिर एक बार गुजरते हुए देखा तो पतले तार का गोल चश्मा था | जब भी हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते तो मुख्य चौराहे पर रूककर पान जरुर खाते और नेताजी की मूर्ति पर बदलते चश्मे को देखते | एक बार पानवाले से पूछा की ऐसा क्यों होता है तो पानवाले ने बताया की ऐसा कैप्टेन चश्मे वाला करता है | जब भी कोई ग्राहक आटा और उसे वही चश्मा चाहिए तो वो मूर्ति से निकलकर बेच देता और उसकी जगह दूसरा फ्रेम लगा देता | पानवाले ने बताया की जुगाड़ पर कस्बे के मास्टर साहब से बनवाया वह मूर्ति, मास्टर साहब चश्मा बनाना भूल गए थे | और पूछने पर पता चला की चश्मे वाले का कोई दूकान नहीं था बल्कि वो बस एक मरियल सा बूढा था जो बांस पर चश्मे की फेरी लगाता था | जिस मजाक से पानवाले ने उसके बारे में बताया हालदार साहब को अच्छा न लगा और उन्होंने फैसला किया दो साल तक साहब वहां से गुजरते रहे और नेताजी के बदलते चश्मे को देखते रहे | कभी काला कभी लाल, कभी गोल कभी चौकोर, कभी धूप वाला कभी कांच वाला | एक बार हालदार साहब ने देखा की नेताजी की मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं है |  पान वाले ने उदास होकर नम आँखों से बताया की कैप्टन मर गया | वो पहले ही समझ चुके थे की वह चश्मे वाला एक फ़ौजी था और नेताजी को उनके चश्मे के बगैर देख कर आहत हो जाता होगा | अपने जी चश्मों में से एक चश्मा उन्हें पहना देता और जब भी कोई ग्राहक उसकी मांग करते तो उन्हें वह नेताजी से माफ़ी मांग कर ले जाता और उसकी जगह दूसरा सबसे बढ़िया चश्मा उन्हें पहना जाता होगा | और  उन्हें याद आया की पानवाले से हस्ते हुए उसे लंगड़ा पागल बताया था | उसके मरने की बात उनके दिल पर चोट कर गयी और उन्होंने फिर कभी वहां से गुजरते वक़्त न रुकने का फैसला किया | पर हर बार नज़र नेताजी की मूर्ति पर जरुर पड़ जाती थी | एक बार वो यह देख कर दंग रह गये की नेताजी की मूर्ति पर चश्मा चढ़ा है | जाकर ध्यान से देखा तो बच्चो द्वारा बनाया एक चश्मा उनकी आँखों पर चढ़ा था | इस कहानी से यह बताने की कोशिश की गयी है की हम देश के लिए कुर्बानी देने वाले जवानों की कोई इज्जत नहीं करते| उनके भावनाओं की खिल्ली उड़ा देते और न ही हमारे स्वतंत्रता के लिए जान लगाने वाले महान लोगों की इज्ज़त करते हैं | पर बच्चों ने कैप्टन की भावनाओं को समझा और नेताजी की आँखों को सुना न होने दिया |

नेताजी का चश्मा Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

पाठ का सार पार्ट-1 

कहानी कुछ इस प्रकार है कि हालदार साहब हर पन्द्रहवें दिन कंपनी के काम से एक छोटे से कस्बे से निकलते थे। उस कस्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का कारखाना, दो ओपन सिनेमा तथा एक नगरपालिका थी। नगरपालिका थी तो कुछ ना कुछ करती रहती थी, कभी सड़के पक्की करवाने का काम तो कभी शौचालय तो कभी कवि सम्मलेन करवा दिया।


पाठ का सार पार्ट-2

  एक बार नगरपालिका के एक उत्साही अधिकारी ने मुख्य बाजार के चौराहे पर सुभाषचंद्र बोस की संगमरमर की मूर्ति लगवा दी। चूँकि बजट अधिक नहीं था इसलिए मूर्ति बनाने का काम कस्बे के एक ड्राइंग मास्टर को दे दिया जाता है। मूर्ति सुंदर बनी थी। लेकिन उसमें एक कमी थी। नेताजी की आँखों में चश्मा नहीं था। किसी ने मूर्ति को रियल का एक काला चश्मा पहना दिया था। जब हालदार साहब आए तो वे देखकर बोले, वाह भई ! क्या आइडिया है। मूर्ति पत्थर का और चश्मा रियल का। दूसरी बार जब हालदार साहब आए तो उन्होंने मूर्ति पर तार से बना गोल फ्रेम वाला चश्मा लगा देखा।


पाठ का सार पार्ट-3 

          तीसरी बार फिर उन्होंने नया चश्मा देखा। इस बार उन्होंने पानवाले से पूछ लिया कि नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है? उसने बताया- यह काम कैप्टन चाश्मेंवाला करता है। हालदार तुरंत समझ गए कि बिना चश्में वाली मूर्ति कैप्टन को अच्छी नहीं लगती होगी इसलिए वह अपनी ओर से चश्मा लगा देता होगा है। जब कोई ग्राहक वैसे ही फ्रेम वाले चश्में की माँग करता होगा जैसा मूर्ति पर लगा है तो वह मूर्ति से उतारकर दे देता होगा और मूर्ति पर फिर से नया फ्रेमवाला चश्मा लगा देता होगा।


पाठ का सार पार्ट-4 

  हालदार साहब ने पानवाले से यह भी पूछा कि कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है क्या? या आजाद हिन्द फ़ौज का कोई भूतपूर्व सिपाहीपानवाला बोला कि वह लंगड़ा क्या फ़ौज में जाएगावह तो पागल हैपागल! हालदार साहब को एक  देशभक्त का इस तरह से मजाक उड़ाना  अच्छा नहीं लगा। जब उन्होंने कैप्टन को देखा तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि कैप्टन एक बूढ़ामरियल तथा लंगड़ा (दिव्यांग) सा आदमी था। उसके सिर पर गाँधी टोपी और गोला चश्मा था। वह एक हाथ में छोटी – सी संदूकची और दूसरे हाथ में चश्मों वाला बांस लिए था। 


पाठ का सार पार्ट-5 

         दो साल के भीतर हालदार साहब ने नेताजी की मूर्ति पर कई चश्मे बदलते हुए देखे। एक बार जब हालदार साहब पुनः कस्बे से गुजरे तो उनको मूर्ति पर किसी प्रकार का चश्मा नहीं दिखाई दिया। कारण पूछने पर पानवाले ने बताया कि कैप्टन मर चुका है। जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ। पंद्रह दिन बाद जब वे कस्बे से गुजरे तो उन्होंने ड्राइवर से कहा पान कहीं आगे खा लेंगे। मूर्ति की ओर भी नहीं देखेंगे।


पाठ का सार पार्ट-6 

       परन्तु आदत से मजबूर हालदार साहब की नजर चौराहे पर आते ही आँखे मूर्ति की ओर उठ जाती हैं। वे गाड़ी से उतर कर मूर्ति के सामने सावधानी से खड़े हो जाते हैं। मूर्ति पर बच्चों द्वारा बना एक सरकंडे का छोटा-सा चश्मा लगा हुआ था। सरकंडे का चश्मा देखकर उनकी आखें नम हो जाती हैं। वे भावुक हो गए।

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NCERT Solution –नेताजी का चश्मा

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संगतकार कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 9 | संगतकार कविता Summary | Quick revision Notes ch-9 Kshitij | EduGrown

संगतकार Sangatkar summary Class 10 Hindi  कविता का सार

कवि परिचय

मंगलेश डबराल

इनका जन्म सन 1948 में टिहरी गढ़वाल, उत्तरांचल के काफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा देहरादून में। दिल्ली आकर हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद ये पूर्वग्रह सहायक संपादक के रूप में जुड़े। इलाहबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की, बाद में सन 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद संभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादक रहने के बाद आजकल नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं।

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संगतकार Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

‘संगतकार’ कविता गायन के मुख्य गायक का साथ देने वाले संगतकार के महत्त्व और उसकी अनिवार्यता की ओर संकेत करती है। वह मुख्य गायक की सफलता में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। संगतकार केवल गायन के क्षेत्र में ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि नाटक, फिल्म, संगीत, नृत्य आदि के लिए भी उपयोगी है। जब कोई मुख्य गायक अपने भारी स्वर में गाता है तब संगतकार का छोटा भाई या उसका कोई शिष्य अपनी सुंदर कमजोर कांपती आवाज़ से उसे और अधिक सुंदर बना देता है। युगों से संगतकार अपनी आवाज़ को मुख्य गायक के स्वर के साथ मिलाते ही रहे हैं। जब मुख्य गायक अंतरे की जटिल तान में खो चुका होता है या अपने ही सरगम को लांघ जाता है तब संगतकार ही स्थायी को संभाल कर आगे बढ़ाता है। जैसे वह उसे उसका बचपन याद दिला रहा हो। वही मुख्य गायक के गिरते हुए स्वर को ढाढ़स बंधाता है। कभी-कभी वह उसे यह अहसास दिलाता है कि गाने वाला अकेला नहीं है, बल्कि वह उसका साथ देने वाला था जो राग पहले गाया जा चुका है, वह फिर से गाया जा सकता है। वह मुख्य गायक के समान अपने स्वर को उँचा उठाने का प्रयत्न नहीं करता। इसे उसकी विफलता नहीं समझना चाहिए बल्कि उसकी मनुष्यता समझना चाहिए। वह ऐसा करके मुख्य गायक के प्रति अपने हृदय का सम्मान प्रकट करता है।

संगतकार Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

संगतकार कविता का भावार्थ – Sangatkar Class 10 Detailed Summary :

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती

वह आवाज सुंदर कमजोर काँपती हुई थी

वह मुख्य गायक का छोटा भाई है

या उसका शिष्य

या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार

मुख्य गायक की गरज में

वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीने काल से

भावार्थ :- कवि अपने इन पंक्तियों में कहता है की जब मुख्य गायक अपने चट्टान जैसे भारी स्वर में गाता है तब उसका संगतकार हमेशा उसका साथ देता है। वह आवाज मानो ऐसे प्रतीत हो रही है मानो बहुत ही कमजोर, कापंती हुई लेकिन बहुत ही सुन्दर थी जो मुख्य गायक के आवाज के साथ मिलकर उसकी प्रभावशीलता को और बढ़ा देते हैं। कवि को ऐसा लगता है की यह संगतकार गायक का कोई बहुत ही करीब का रिस्तेदार या पहचानने वाला है जो की उससे गायकी सिख रहा शिष्य है। और इस प्रकार वह बिना किसी के नजर में आये निरंतर अपना कार्य करते चला जाता है।

गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में

खो चुका होता है

या अपने ही सरगम को लाँघकर

चला जाता है भटकता हुअ एक अनहद में

तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है

जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान

जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन

जब वह नौसिखिया था।

भावार्थ :-  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने यह बताने का प्रयास किया है की जब कोई महान संगीतकार अपने गाने के लय में डूब जाता है तो उसे गाने के सुर ताल की भनक नहीं पड़ती और वह कभी कभी अपने गाने में भटक सा जाता है उसे आगे सुर कैसे पकड़ना है यह समझ नहीं आता और वह उलझ सा जाता है। तो ऐसे दुविधा के समय में भी उसका जो सहायक या संगतकार होता है वह निरंतर अपने कोमल एवं सुरीली आवाज में संगीत के सुर ताल को पकडे हुआ रहता है और मुख्य गायक को कहीं भटकने नहीं देता और संगीत के सुरताल को वापस पकड़ने में उसकी सहायता करता है। मानो मुख्य गायक अपना सामन पीछे छोड़ते हुए चला जाता है और संगीतकार उसे समेटा हुआ आगे बढ़ता है। और इससे मुख्य लेखक को उसके बचपन की याद आ जाती है जब वह संगीत सीखा करता था और स्वर अक्सर भूल जाया करता था।

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला

प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ

आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ

तभी मुख्य गायक को ढ़ाँढ़स बँधाता

कहीं से चला आता है संगीतकार का स्वर

कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ

यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है

और यह कि फिर से गाया जा सकता है

गाया जा चुका राग

भावार्थ :- इन पंक्तियों में कवि कहता है की जब मुख्य गायक ऊँचे स्वर में गाता-गाता थक जाता है और उसके अंदर गाने की इच्छा एवं ऊर्जा समाप्त हो जाती है और उसके स्वर निचे आने लगते हैं तब उस वक्त मुख्य गायक का हौसला बढ़ाने और और उसके स्वर को फिर से ऊपर उठाने के लिए सहायक का स्वर पीछे से सुनाई देता है। और यह सुनकर मुख्य गायक में फिर से ऊर्जा का संसार हो जाता है और वह अपनी धुन में गाता चला जाता है।

और कभी कभी तो वह सिर्फ इसलिए जाता है की मानो मुख्य गायक को यह अहसास दिला रहा हो की वह अकेला नहीं है और कभी कभी एक राग को दूबारा भी गाया जा सकता है। अगर आप कोई राग बिच में कहीं छूट जाए तो।

और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है

या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है

उसे विफलता नहीं

उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

भावार्थ : – इस पंक्ति में कवि ने एक सहायक के त्याग को दिखाया है जो खुद की प्रशिद्धि एवं मान सम्मान की परवाह किये बिना मुख्य गायक के साथ गाता चला जाता है। उसे तो इस बात की चिंता भी रहती है की कहीं वह मुख्य गायक से ज्यादा अच्छे स्वर में ना गा दे और इसी कारण वश उसके आवाज में हिचक साफ़ सुनाई देती है। और वह हमेशा यही कोशिश करता हैं एवं अपने आवाज को मुख्य गायक के आवाज से ज्यादा उठने नहीं देता यह उसकी विफलता नहीं बल्कि उसका बड्डपन एवं उसकी मनुष्यतता समझा जाना चाहिए।

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NCERT Solution –संगतकार

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कन्यादान कविता कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 8 | कन्यादान कविता Summary | Quick revision Notes ch-8 Kshitij | EduGrown

कन्यादान कविता   कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 8 | कन्यादान कविता  Summary | Quick revision Notes ch-8 Kshitij | EduGrown

कन्यादान Kanyadal Summary Class 10 Kshitij

कवि परिचय

ऋतुराज

इनका जन्म सन 1940 में भरतपुर में हुआ। राजस्थान विश्वविधालय, जयपुर से उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए किया। चालीस वर्षो तक अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन के बाद अब वे सेवानिवृत्ति लेकर जयपुर में रहते हैं। उनकी कविताओं में दैनिक जीवन के अनुभव का यथार्थ है और वे अपने आसपास रोजमर्रा में घटित होने वाले सामाजिक शोषण और विडंबनाओं पर निग़ाह डालते हैं, इसलिए उनकी भाषा अपने परिवेश और लोक जीवन से जुडी हुई है।

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कन्यादान Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

कवि ने ‘कन्यादान’ में माँ-बेटी के आपसी संबंधों की घनिष्ठता को प्रतिपादित करते हुए नए सामाजिक मूल्यों की परिभाषा देने का प्रयत्न किया है। माँ अपनी युवा होती बेटी के लिए पहले कुछ और सोचती थी पर सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन के कारण अब कुछ और सोचती है। पहले उसके प्रति कुछ अलग तरह के डर के भाव छिपे हुए थे पर अब उसकी दिशा और मात्रा बदल गई है इसीलिए वह अपनी बेटी को परंपरागत उपदेश नहीं देना चाहती। उसके आदर्शों में भी परिवर्तन आ गया है। बेटी ही तो माँ की अंतिम पूंजी होती है क्योंकि वह उसके दुःख-सुख की पूंजी होती है। बेटी अभी पूरी तरह से बड़ी नहीं हुई। वह भोली-भाली और सरल थी। उसे सुखों का आभास तो होता था पर उसे जीवन के दुःखों की ठीक से पहचान नहीं थी। वह तो धुंधले प्रकाश में कुछ तुक और लयबद्ध पंक्तियों को पढ़ने का प्रयास मात्र करती है। माँ ने उसे समझाते हुए कहा कि उसे जीवन में संभल कर रहना पड़ेगा। पानी में झांककर अपने ही चेहरे पर न रीझने और आग से बच कर रहने की सलाह उसने अपनी बेटी को दी। आग रोटियां सेंकने के लिए होती हैं, न कि जलने के लिए। वस्त्रों और आभूषणों का लालच तो उसे जीवन के बंधन में डालने का कार्य करता है, माँ ने कहा कि उसे लड़की की तरह दिखाई नहीं देना चाहिए। उसे सजग, सचेत और दृढ़ होना चाहिए। जीवन की हर स्थिति का निर्भयतापूर्वक डट कर सामना करना आना चाहिए।

कन्यादान Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

1. कितना प्रामाणिक था उसका दुखलड़की को दान में देते वक़्तजैसे वही उसकी अंतिम पूंजी होलड़की अभी सयानी नहीं थीअभी इतनी भोली सरल थीकि उसे सुख का आभास होता थालेकिन दुख बाँचना नहीं आता थापाठिका थी वह धुंधले प्रकाश कीकुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की


व्याख्या – प्रस्तुत कविता में कवि कहते हैं कि कन्यादान के समय माँ का दुःख बहुत ही प्रामाणिक था।कन्यादान की रस्म में माँ विवाह के समय अपनी बेटी को किसी पराए को दान दे रही हैं।माँ के जीवन भर का लाड प्यार दुलार द्वारा सँवारी बेटी – उसकी अंतिम पूँजी थी।बेटी की उम्र ज्यादा नहीं है।उसे दुनियावी ज्ञान नहीं है।  वह बहुत ही सरल और सहृदय है। संसार में उसे केवल सुख का ही आभास था ,लेकिन ससुराल में जाने के बाद पुरुष प्रधान समाज द्वारा वैवाहिक जीवन कैसा होगा – इसी चिंताओं में माँ दुःख हैं।बेटी को केवल विवाह के सुरीले और मोहक पक्ष का ज्ञान था ,लेकिन कल्पना से इतर दुःख भी मिल सकता है। इस बात को लेकर माँ चिंतित है।

2. माँ ने कहा पानी में झाँककरअपने चेहरे में मत रीझानाआग रोटियाँ सेंकने के लिए हैजलने के लिए नहींवस्त्र और आभूषण शब्दिक भ्रमों की तरहबंधन हैं स्त्री-जीवन केमाँ ने कहा लड़की होनापर लड़की जैसी मत दिखाई देना।


व्याख्या –  माँ ,अपनी बेटी को सीख देते हुए कहती है कि बेटी तुम ससुराल में जाकर अपने सौंदर्य पर रीझ कर मत रह जाना। आग से सावधान रहना। आग का प्रयोग भोजन पकाने के लिए करना।  न की जलने के लिए।  तू सावधानी से रहना। पर अपने ऊपर अत्याचार न सहना। स्त्री जीवन में आभूषणों के मोह में न रहना। क्योंकि यह केवल एक बंधन है और स्त्री को मोह में फँसाती है।  माँ कहती है कि तू हमेशा की तरह निश्चल ,सरल रहना।  लेकिन लोक व्यवहार के प्रति सजग रहना ,जिससे तेरा कोई गलत लाभ न उठा सके। अन्यथा दुनिया के लोग तुझे मुर्ख बनाकर तेरा शोषण करेंगे। अतः बेटी तू सावधान रहना।

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NCERT Solution –कन्यादान

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छाया मत छूना कविता कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 7 | छाया मत छूना कविता Summary | Quick revision Notes ch-7 Kshitij | EduGrown

छाया मत छूना कविता   कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 7 | छाया मत छूना कविता  Summary | Quick revision Notes ch-7 Kshitij | EduGrown

कवि परिचय

गिरिजाकुमार माथुर

इनका जन्म सन 1918 में गुना, मध्य प्रदेश में हुआ था। इन्होने प्रारंभिक शिक्षा झांसी, उत्तर प्रदेश में ग्रहण करने के बाद एम.ए अंग्रेजी व एल.एल.बी की उपाधि लखनऊ से अर्जित की। शुरू में कुछ समय वकालत किया तथा बाद में दूरदर्शन और आकाशवाणी में कार्यरत हुए। इनकी मृत्यु 1994 में हुई।

गिरिजाकुमार माथुर | छाया मत छूना कविता   कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 7 | छाया मत छूना कविता  Summary | Quick revision Notes ch-7 Kshitij | EduGrown

छाया मत छूना Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

छाया मत छूना कविता मानव जीवन के संदर्भों से जुड़ी हुई है। हमारे जीवन में सुख आते हैं तो दुःख भी अपने रंग दिखाते हैं। मनुष्य को सुख अच्छे लगते हैं तो दु:ख परेशान करने वाले। व्यक्ति पुराने सुखों को याद करके वर्तमान के दुःखों को और अधिक बढ़ा लेते हैं। कवि की दृष्टि में ऐसा करना उचित नहीं है। इससे दुःखों की मात्रा बढ़ जाती है। सुख तो हमें सदा ही अच्छे लगते हैं। उनके द्वारा दी गई प्रसन्नताएँ मन पर देर तक छायी रहती हैं। प्रेम भरे क्षण भुलाने की कोशिश करने पर भी भूलते नहीं हैं। मनुष्य सुखों के पीछे जितना अधिक भागता है उतना ही अधिक भ्रम के जाल में उलझता जाता है। हर सुख के बाद दुःख अवश्य आता है। हर चांदनी के बाद अमावस्या भी तो छिपी रहती है। मनुष्य को जीवन की वास्तविकता को समझना चाहिए; उसे स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य के मन में छिपा साहस का भाव जब छिप जाता है तो उसे जीवन की राह दिखाई नहीं देती। मानव मन में छिपे दुःखों की सीमा का तो पता ही नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में सब कुछ नहीं मिलता। जो हमें वर्तमान में प्राप्त हो गया है हमें उसी को प्राप्त कर संतुष्ट होना चाहिए। जो अभी प्राप्त नहीं हुआ उसे भविष्य में प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए लेकिन पुरानी यादों से स्वयं को चिपकाए रखने का कोई लाभ नहीं है। उनसे तो दुःख बढ़ते हैं, घटते नहीं।

छाया मत छूना Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

छाया मत छूना कविता का भावार्थ- Chaya Mat Chuna Summary

छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
भूली सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।


छाया मत छूना कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि छाया मत छूना अर्थात अतीत की पुरानी यादों में जीने के लिए मना कर रहा है। कवि के अनुसार, जब हम अपने अतीत के बीते हुए सुनहरे पलों को याद करते हैं, तो वे हमें बहुत प्यारे लगते हैं, परन्तु जैसे ही हम यादों को भूलकर वर्तमान में वापस आते हैं, तो हमें उनके अभाव का ज्ञान होता है। इस तरह हृदय में छुपे हुए घाव फिर से हरे हो जाते हैं और हमारा दुःख बढ़ जाता है।

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुराने मीठे पलों को याद कर रहा है। ये सारी यादें उनके सामने रंग-बिरंगी छवियों की तरह प्रकट हो रही हैं, जिनके साथ उनकी सुगंध भी है। कवि को अपने प्रिय के तन की सुगंध भी महसूस होती है। यह चांदनी रात का चंद्रमा कवि को अपने प्रिय के बालों में लगे फूल की याद दिला रहा है। इस प्रकार हर जीवित क्षण जो हम जी रहे हैं, वह पुरानी यादों रूपी छवि में बदलता जाता है। जिसे याद करके हमें केवल दुःख ही प्राप्त हो सकता है, इसलिए कवि कहते हैं छाया मत छूना, होगा दुःख दूना।

यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन
छाया मत छूनामन, होगा दुख दूना।


छाया मत छूना कविता का भावार्थ :-  
इन पंक्तियों में कवि हमें यह सन्देश देना चाहते हैं कि इस संसार में धन, ख्याति, मान, सम्मान इत्यादि के पीछे भागना व्यर्थ है। यह सब एक भ्रम की तरह हैं।

कवि का मानना यह है कि हम अपने जीवन-काल में धन, यश, ख्याति इन सब के पीछे भागते रहते हैं और खुद को बड़ा और मशहूर समझते हैं। लेकिन जैसे हर चांदनी रात के बाद एक काली रात आती है, उसी तरह सुख के बाद दुःख भी आता है। कवि ने इन सारी भावनाओं को छाया बताया है। हमें यह संदेश दिया है कि इन छायाओं के पीछे भागने में अपना समय व्यर्थ करने से अच्छा है, हम वास्तविक जीवन की कठोर सच्चाइयों का सामना डट कर करें। यदि हम वास्तविक जीवन की कठिनाइयों से रूबरू होकर चलेंगे, तो हमें इन छायाओं के दूर चले जाने से दुःख का सामना नहीं करना पड़ेगा। अगर हम धन, वैभव, सुख-समृद्धि इत्यादि के पीछे भागते रहेंगे, तो इनके चले जाने से हमारा दुःख और बढ़ जाएगा।

दुविधा हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं,
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।


छाया मत छूना कविता का भावार्थ :- 
 कवि कहता है कि आज के इस युग में मनुष्य अपने कर्म पथ पर चलते-चलते जब रास्ता भटक जाता है और उसे जब आगे का रास्ता दिखाई नहीं देता, तो वह अपना साहस खो बैठता है। कवि का मानना है कि इंसान को कितनी भी सुख-सुविधाएं मिल जाएं वह कभी खुश नहीं रह सकता, अर्थात वह बाहर से तो सुखी दिखता है, पर उसका मन किसी ना किसी कारण से दुखी हो जाता है। कवि के अनुसार, हमारा शरीर कितना भी सुखी हो, परन्तु हमारी आत्मा के दुखों की कोई सीमा नहीं है। हम तो किसी भी छोटी-सी बात पर खुद को दुखी कर के बैठ जाते हैं। फिर चाहे वो शरद ऋतू के आने पर चाँद का ना खिलना हो या फिर वसंत ऋतू के चले जाने पर फूलों का खिलना हो। हम इन सब चीजों के विलाप में खुद को दुखी कर बैठते हैं।

इसलिए कवि ने हमें यह संदेश दिया है कि जो चीज़ हमें ना मिले या फिर जो चीज़ हमारे बस में न हो, उसके लिए खुद को दुखी करके चुपचाप बैठे रहना, कोई समाधान नहीं हैं, बल्कि हमें यथार्थ की कठिन परिस्थितियों का डट कर सामना करना चाहिए एवं एक उज्जवल भविष्य की कल्पना करनी चाहिए।

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NCERT Solution – छाया मत छूना कविता

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यह दंतुरित मुसकान, फसल कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 6 | यह दंतुरित मुसकान, फसल कविता का सार Summary | Quick revision Notes ch-6 Kshitij | EduGrown

यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 6 | यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार  Summary | Quick revision Notes ch-6 Kshitij | EduGrown

कवि परिचय

नागार्जुन

इनका जन्म बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में सन  1911 को हुआ था। इनकी आरंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में हुई, बाद में अध्यन के लिए बनारस और कलकत्ता गए। 1936 में वे श्रीलंका गए और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। दो साल प्रवास के बाद 1938 में स्वदेस लौट आये। घुमक्कड़ी और अक्खड़ स्वभाव के धनी स्वभाव के धनी नागार्जुन ने अनेक बार सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। सन 1998 में इनकी मृत्यु हो गयी।

यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 6 | यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार  Summary | Quick revision Notes ch-6 Kshitij | EduGrown

यह दंतुरित मुसकान, फसल Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

1. यह दंतुरित मुसकान
कवि अपने छोटे बच्चे की उस मुसकान को देख कर अपार प्रसन्न हैं जिसके मुँह में अभी छोटे-छोटे दाँत निकले हैं। कवि को उस की मुसकान जीवन का संदेश प्रतीत होती है। उस मुसकान के सामने कठोर से कठोर मन भी पिघल सकता है। उस की मुसकान तो किसी मृतक में भी नई जान फूंक सकती है। धूल-मिट्टी से सना हुआ नन्हा- सा बच्चा तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कमल का सुंदर-कोमल फूल तालाब छोड़ कर उसकी झोंपड़ी में खिल उठा हो। उसे छू कर तो पत्थर भी जल बन जाता है। उसे छू कर ही शेफालिका के फूल झड़ने लगते हैं। नन्हा-सा बच्चा कवि को नहीं पहचान पाया इसलिए एक टक उसकी तरफ देखता रहा। कवि मानता है कि उस बच्चे की मोहिनी छवि और उसके सुंदर दाँतों को वह उसकी माँ के कारण देख पाया था। वह माँ धन्य है और बच्चे की मुसकान भी धन्य है। वह स्वयं तो इधर-उधर जाने वाला प्रवासी था इसलिए उसकी पहचान नन्हे बच्चे के साथ नहीं हो सकी थी। जब उसकी माँ कहती तब वह कनखियों से कवि की ओर देखता और उसकी छोटे-छोटे दाँतों से सजी मुस्कान कवि के मन को मोह लेती थी।

2. फसल
फसलें हमारे जीवन की आधार हैं। ‘फरल’ शब्द सुनते ही हमारी आँखों के सामने खेतों में लहलहाती फसलें आ जाती हैं। फसल को पैदा करने के लिए न जाने कितने तत्त्व और कितने हाथों का परिश्रम लगता है। फसल प्रकृति और मनुष्य के आपसी सहयोग से ही संभव होती है। न जाने कितनी नदियों का पानी और लाखों-करोड़ों हाथों का परिश्रम इसे उत्पन्न करता है। खेतों की उपजाऊ मिट्टी इसे शक्ति देती है। सूर्य की किरणें इसे जीवन देती हैं और हवा इसे थिरकना सिखाती है। फसल अनेक दृश्य- अदृश्य शक्तियों के मिले-जुले बल के कारण उत्पन्न होती है।

यह दंतुरित मुसकान, फसल Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

यह दंतुरित मुसकान- (Nagarjun Ki Kavita Yah Danturit Muskan)

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात….
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण, पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने एक दांत निकलते बच्चे की मधुर मुस्कान का मन मोह लेने वाला वर्णन किया है। कवि के अनुसार एक बच्चे की मुस्कान मृत आदमी को भी ज़िन्दा कर सकती है। अर्थात कोई उदास एवं निराश आदमी भी अपना गम भूलकर मुस्कुराने लगे। बच्चे घर के आँगन में खेलते वक्त खुद को गन्दा कर लेते हैं, धूल से सन जाते हैं, उनके गालों पर भी धूल लग जाती है।

कवि को यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो किसी तालाब से चलकर कमल का फूल उनकी झोंपड़ी में खिला हुआ है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर यह बालक किसी पत्थर को छू ले, तो वह भी पिघलकर जल बन जाए और बहने लगे। अगर वो किसी पेड़ को छू ले, फिर चाहे वो बांस हो या फिर बबूल, उससे शेफालिका के फूल ही झरेंगे।

अर्थात बच्चे के समक्ष कोई कोमल हृदय वाला इंसान हो, या फिर पत्थरदिल लोग। सभी अपने आप को बच्चे को सौंप देते हैं और वह जो करवाना चाहता है, वो करते हैं एवं उसके साथ खेलते हैं।

तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :-  
शिशु जब पहली बार कवि को देखता है, तो वह उसे पहचान नहीं पाता और कवि को एकटक बिना पलक झपकाए देखने लगता है। कुछ समय तक देखने के पश्चात् कवि कहता है – क्या तुम मुझे पहचान नहीं पाए हो? कितने देर तुम इस प्रकार बिना पलक झपकाए एकटक मुझे देखते रहोगे? कहीं तुम थक तो नहीं गए मुझे इस तरह देखते देखते? अगर तुम थक गए हो, तो मैं अपनी आँख फेर लेता हूँ, फिर तुम आराम कर सकते हो।

अगर हम इस मुलाकात में एक-दूसरे को पहचान नहीं पाए तो कोई बात नहीं। तुम्हारी माँ हमें मिला देगी और फिर मैं तुम्हें जी भर देख सकता हूँ। तुम्हारे मुख मंडल को निहार सकता हूँ। तुम्हारी इस दंतुरित मुस्कान का आनंद ले सकता हूँ।

धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुत्र के बारे में बताता है कि उसके नए-नए दांत निकलना शुरु हुए हैं। कवि बहुत दिनों बाद अपने घर वापस लौटा है, इसलिए उसका पुत्र उसे पहचान नहीं पा रहा। आगे कवि लिखते हैं कि बालक तो अपनी मनमोहक छवि कारण धन्य है ही और उसके साथ उसकी माँ भी धन्य है, जिसने उसे जन्म दिया।

आगे कवि कहते हैं कि तुम्हारी माँ रोज तुम्हारे दर्शन का लाभ उठा रही है। एक तरफ मैं दूर रहने के कारण तुम्हारे दर्शन भी नहीं कर पाता और अब तुम्हें पराया भी लग रहा हूँ। एक तरह से यह ठीक भी है, क्योंकि मुझसे तुम्हारा संपर्क ही कितना है। यह तो तुम्हारी माँ की उँगलियाँ ही हैं, जो तुम्हें रोज मधुर-स्वादिष्ट भोजन कराती है। इस तरह तिरछी नज़रों से देखते-देखते जब हमारी आँख एक-दूसरे से मिलती है, मेरी आँखों में स्नेह देखकर तुम मुस्कुराने लगते हो।  यह मेरे मन को मोह लेता है।

फसलNagarjun Ki Kavita Phasal

एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढ़ेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल किसी एक व्यक्ति के परिश्रम या फिर केवल जल या मिट्टी से नहीं उगती है। इसके लिए बहुत अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है।  इसी के बारे में आगे लिखते हुए कवि ने कहा है कि एक नहीं दो नहीं, लाखों-लाखों नदी के पानी के मिलने से यह फसल पैदा होती है।

किसी एक नदी में केवल एक ही प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन जब कई तरह की नदियां आपस में मिलती हैं, तो उनमें सारे गुण आ जाते हैं, जो बीजों को अंकुरित होने में सहायता करते हैं और फसल खिल उठती है। ठीक इसी प्रकार, केवल एक या दो नहीं, बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों की मेहनत और पसीने से यह धरती उपजाऊ बनती है और उसमे बोए गए बीज अंकुरित होते हैं। खेतों में केवल एक खेत की मिट्टी नहीं बल्कि कई खेतों की मिट्टी मिलती है, तब जाकर वह उपजाऊ बनते हैं।

फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हमसे यह प्रश्न करता है कि यह फसल क्या है? अर्थात यह कहाँ से और कैसे पैदा होता है? इसके बाद कवि खुद इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि फसल और कुछ नहीं बल्कि नदियों के पानी का जादू है। किसानों के हाथों के स्पर्श की महिमा है। यह मिट्टियों का ऐसा गुण है, जो उसे सोने से भी ज्यादा मूल्यवान बना देती है। यह सूरज की किरणों एवं हवा का उपकार है। जिनके कारण यह फसल पैदा होती है।

अपनी इन पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल कैसे पैदा होती है? हम इसी अनाज के कारण ज़िन्दा हैं, तो हमें यह ज़रूर पता होना चाहिए कि आखिर इन फ़सलों को पैदा करने में नदी, आकाश, हवा, पानी, मिट्टी एवं किसान के परिश्रम की जरूरत पड़ती है। जिससे हमें उनके महत्व का ज्ञान हो।

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NCERT Solution – यह दंतुरित मुसकान, फसल

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