सवैये का सारांश | Raskhan Ke Savaiye Summary class 9 Chapter-11 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

सवैये  का सारांश | Raskhan Ke Savaiye Summary class 9 Chapter-11 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

रसखान

इनका जन्म सन 1548 में हुआ माना जाता है। इनका मूल नाम सैय्यद इब्राहिम था और दिल्ली के आस-पास के रहने वाले थे। कृष्णभक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया की गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में रहने लगे। सन 1628 के लगभग उनकी मृत्यु हो गयी।

रसखान के सवैये अर्थ सहित – Raskhan Ke Savaiye in Hindi With Meaning Class 9

मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।


रसखान के सवैये भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान के श्री कृष्ण एवं उनके गांव गोकुल-ब्रज के प्रति लगाव का वर्णन हुआ है। रसखान मानते हैं कि ब्रज के कण-कण में श्री कृष्ण बसे हुए हैं। इसी वजह से वे अपने प्रत्येक जन्म में ब्रज की धरती पर जन्म लेना चाहते हैं। अगर उनका जन्म मनुष्य के रूप में हो, तो वो गोकुल के ग्वालों के बीच में जन्म लेना चाहते हैं। पशु के रूप में जन्म लेने पर, वो गोकुल की गायों के साथ घूमना-फिरना चाहते हैं।

अगर वो पत्थर भी बनें, तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनना चाहते हैं, जिसे श्री कृष्ण ने इन्द्र के प्रकोप से गोकुलवासियों को बचाने के लिए अपनी उँगली पर उठाया था। अगर वो पक्षी भी बनें, तो वो यमुना के तट पर कदम्ब के पेड़ों में रहने वाले पक्षियों के साथ रहना चाहते हैं। इस प्रकार कवि चाहे कोई भी जन्म लें, वो रहना ब्रज की भूमि पर ही चाहते हैं।

या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥


रसखान के सवैये भावार्थ :-
 प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान का भगवान श्री कृष्ण एवं उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति बड़ा गहरा लगाव देखने को मिलता है। वे कृष्ण की लाठी और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज-पाठ तक छोड़ने के लिए तैयार हैं। अगर उन्हें नन्द की गायों को चराने का मौका मिले, तो इसके लिए वो आठों सिद्धियों एवं नौ निधियों के सुख को भी त्याग सकते हैं। जब से कवि ने ब्रज के वनों, बगीचों, तालाबों इत्यादि को देखा है, वे इनसे दूर नहीं रह पा रहे हैं। जब से कवि ने करील की झाड़ियों और वन को देखा है, वो इनके ऊपर करोड़ों सोने के महल भी न्योछावर करने के लिए तैयार हैं।

मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥


रसखान के सवैये भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में रसखान ने कृष्ण से अपार प्रेम करने वाली गोपियों के बारे में बताया है, जो एक-दूसरे से बात करते हुए कह रही हैं कि वो कान्हा द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की मदद से कान्हा का रूप धारण कर सकती हैं। मगर, वो कृष्ण की मुरली को धारण नहीं करेंगी। यहाँ गोपियाँ कह रही हैं कि वे अपने सिर पर श्री कृष्ण की तरह मोरपंख से बना मुकुट पहन लेंगी। अपने गले में कुंज की माला भी पहन लेंगी। उनके सामान पीले वस्त्र पहन लेंगी और अपने हाथों में लाठी लेकर वन में ग्वालों के संग गायें चराएंगी।

गोपी कह रही है कि कृष्ण हमारे मन को बहुत भाते हैं, इसलिए मैं तुम्हारे कहने पर ये सब कर लूँगी। मगर, मुझे कृष्ण के होठों पर रखी हुई मुरली अपने होठों से लगाने के लिए मत बोलना, क्योंकि इसी मुरली की वजह से कृष्ण हमसे दूर हुए हैं। गोपियों को लगता है कि श्री कृष्ण मुरली से बहुत प्रेम करते हैं और उसे हमेशा अपने होठों से लगाए रहते हैं, इसीलिए वे मुरली को अपनी सौतन या सौत की तरह देखती हैं।

काननि दै अँगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै॥


रसखान के सवैये भावार्थ :- 
रसखान ने इन पंक्तियों में गोपियों के कृष्ण प्रेम का वर्णन किया है, वो चाहकर भी कृष्ण को अपने दिलो-दिमाग से निकल नहीं सकती हैं। इसीलिए वे कह रही हैं कि जब कृष्ण अपनी मुरली बजाएंगे, तो वो उससे निकलने वाली मधुर ध्वनि को नहीं सुनेंगी। वो सभी अपने कानों पर हाथ रख लेंगी। उनका मानना है कि भले ही, कृष्ण किसी महल पर चढ़ कर, अपनी मुरली की मधुर तान क्यों न बजायें और गीत ही क्यों न गाएं, जब तक वो उसे नहीं सुनेंगी, तब तक उन पर मधुर तानों का कोई असर नहीं होने वाला।

लेकिन अगर गलती से भी मुरली की मधुर ध्वनि उनके कानों में चली गई, तो फिर हम अपने वश में नहीं रह पाएंगी। फिर चाहे हमें कोई कितना भी समझाए, हम कुछ भी समझ नहीं पाएंगी। गोपियों के अनुसार, कृष्ण की मुस्कान इतनी प्यारी लगती है कि उसे देख कर कोई भी उनके वश में आए बिना नहीं रह सकता है। इसी कारणवश, गोपियाँ कह रही हैं कि श्री कृष्ण का मोहक मुख देख कर, उनसे ख़ुद को बिल्कुल भी संभाला नहीं जाएगा। वो सारी लाज-शर्म छोड़कर श्री कृष्ण की ओर खिंची चली जाएँगी।

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वाख का सारांश | Vakh Summary class 9 Chapter-10 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

वाख का सारांश | Vakh Summary class 9 Chapter-9 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय


ललद्यद

कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत – कवियत्री ललद्यद का जन्म सन 1320 के लगभग कश्मीर स्थित पाम्पोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था। उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी मौजूद नही है। इनका देहांत सन 1391 में हुआ। इनकी काव्य शैली को वाख कहा जाता है।

Vakh Summary in Hindi Claas 9 – वाख भावार्थ (ललघद)

(1)रस्सी कच्चे धागे की खींच रही मैं नाव
जाने कब सुन मेरी पुकार,करें देव भवसागर पार,
पानी टपके कच्चे सकोरे ,व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे,
जी में उठती रह-रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे।

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने नाव की तुलना अपने जिंदगी से करते हुए कहा है की वे इसे कच्ची डोरी यानी साँसों द्वारा चला रही हैं। वह इस इंतज़ार में अपनी जिंदगी काट रहीं हैं की कभी प्रभु उनकी पुकार सुन उन्हें इस जिंदगी से पार करेंगे। उन्होंने अपने शरीर की तुलना मिट्टी के कच्चे ढांचे से करते हुए कहा की उसे नित्य पानी टपक रहा है यानी प्रत्येक दिन उनकी उम्र काम होती जा रही है। उनके प्रभु-मिलन के लिए किये गए सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं, उनकी मिलने की व्याकुलता बढ़ती जा रही है। असफलता प्राप्त होने से उनको गिलानी हो रही है, उन्हें प्रभु की शरण में जाने की चाहत घेरे हुई है।


(2)खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी,
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।

व्याख्या – इन पंक्तियों में कवियत्री ने जीवन में संतुलनता की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहा है की केवल भोग-उपभोग में लिप्त रहने से कुछ किसी को कुछ हासिल नही होगा, वह दिन-प्रतिदिन स्वार्थी बनता जाएगा। जिस दिन उसने स्वार्थ का त्याग कर त्यागी बन गया तो वह अहंकारी बन जाएगा जिस कारण उसका विनाश हो जाएगा। अगले पंक्तियों में कवियत्री ने संतुलन पे जोर डालते हुए कहा है की न तो व्यक्ति को ज्यादा भोग करना चाहिए ना ही त्याग, दोनों को बराबर मात्रा में रखना चाहिए जिससे समभाव उत्पन्न होगा। इस कारण हमारे हृदय में उदारता आएगी और हम अपने-पराये से उठकर अपने हृदय का द्वार समस्त संसार के लिए खोलेंगे।

(3)आई सीधी राह से ,गई न सीधी राह,
सुषुम सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह।
ज़ेब टटोली कौड़ी ना पाई

माँझी को दूँ क्या उतराई ।


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवियत्री ने अपने पश्चाताप को उजागर किया है। अपने द्वारा पमात्मा से मिलान के लिए सामान्य भक्ति मार्ग को ना अपनाकर  हठयोग का सहारा लिया। अर्थात् उसने भक्ति रुपी सीढ़ी को ना चढ़कर कुण्डलिनी योग को जागृत कर परमात्मा और अपने बीच सीधे तौर पर सेतु बनाना चाहती थी । परन्तु वह अपने इस प्रयास में लगातार असफल होती रही और साथ में आयु भी बढती गयी । जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उसकी जीवन की संध्या नजदीक आ गयी थी अर्थात् उसकी मृत्यु करीब थी । जब उसने अपने जिंदगी का लेख जोखा कि तो पाया कि वह बहुत दरिद्र है और उसने अपने जीवन में कुछ सफलता नहीं पाया या कोई पुण्य कर्म नहीं किया और अब उसके पास कुछ करने का समय भी नहीं है । अब तो उसे परमात्मा से मिलान हेतु भक्ति भवसागर के पार ही जाना होगा । पार पाने के लिए परमात्मा जब उससे पार उतराई के रूप में उसके पुण्य कर्म मांगेगे तो वह ईश्वर को क्या मुँह दिखाएगी और उन्हें क्या देगी क्योंकि उसने तो अपनी पूरी जिंदगी ही हठयोग में बिता दिया । उसने अपनी जिंदगी में ना कोई पुण्य कर्म कमाया  और ना ही कोई उदारता दिखाई । अब कवियित्री अपने इस अवस्था पर पूर्ण पछतावा हो रहा है पर इससे अब कोई मोल नहीं क्योकि जो समय एक बार चला जाता है वो वापिस नहीं आता । अब पछतावा के अलावा वह कुछ नहीं कर सकती।


(4)थल थल में बसता है शिव हीभेद न कर क्या हिन्दू मुसलमाँ,
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
यही है साहिब से पहचान ।

व्याख्या – इन पंक्तियों में कवियत्री ने बताया है की ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, वह सबके हृदय के अंदर मौजूद है। इसलिए हमें किसी व्यक्ति से हिन्दू-मुसलमान जानकार भेदभाव नही करना चाहिए। अगर कोई ज्ञानी तो उसे स्वंय के अंदर झांककर अपने आप को जानना चाहिए, यही ईश्वर से मिलने का एकमात्र साधन है।

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साखियाँ एवं सबद का सारांश | Sakhiyan Avam Sabad Summary class 9 Chapter-9 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

कबीर साखियाँ एवं सबद का सारांश | Sakhiyan Avam Sabad Summary class 9 Chapter-9 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

कबीर

कबीर के जन्म और मृत्यु के बारे में अनेक मत हैं। कहा जाता है उनका जन्म 1398 में काशी में हुआ था। उन्होंने विधिवत शिक्षा नही प्राप्त की थी, परन्तु सत्संग, पर्यटन द्वारा ज्ञान प्राप्त किया था। वे राम और रहीम की एकता में विश्वास रखने वाले संत थे। उनकी मुख्या रचनाएँ कबीर ग्रंथावली में संग्रहित हैं तथा कुछ गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं। उनकी मृत्यु सन 1518 में मगहर में हुआ था।

साखियाँ एवं सबद का सारांश class 9 Kshitiz

साखियाँ

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताफल  मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं।1।

अर्थ – इस पंक्ति में कबीर ने व्यक्तियों की तुलना हंसों से करते हुए कहा है की जिस तरह हंस मानसरोवर में खेलते हैं और मोती चुगते हैं, वे उसे छोड़ कहीं नही जाना चाहते ठीक उसी तरह मनुष्य भी जीवन के मायाजाल में बंध जाता है और इसे ही सच्चाई समझने लगता है।

प्रेमी ढूंढ़ते मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।2।

अर्थ – यहां कबीर यह कहते हैं की प्रेमी यानी ईश्वर को ढूंढना बहुत मुश्किल है। वे उसे ढूंढ़ते फिर रहे हैं परन्तु वह उन्हें मिल नही रहा है। प्रेमी रूपी ईश्वर मिल जाने पर उनका सारा विष यानी कष्ट अमृत यानी सुख में बदल जाएगा।

हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झक मारि।3।

अर्थ – यहां कबीर कहना चाहते हैं की व्यक्ति को ज्ञान रूपी हाथी की सवारी करनी चाहिए और सहज साधना रूपी गलीचा बिछाना चाहिए। संसार की तुलना कुत्तों से की गयी है जो आपके ऊपर भौंकते रहेंगे जिसे अनदेखा कर चलते रहना चाहिए। एक दिन वे स्वयं ही झक मारकर चुप हो जायेंगे।

पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान।
निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान।4।

अर्थ – संत कबीर कहते हैं पक्ष-विपक्ष के कारण सारा संसार आपस में लड़ रहा है और भूल-भुलैया में पड़कर प्रभु को भूल गया है। जो ब्यक्ति इन सब झंझटों में पड़े बिना निष्पक्ष होकर प्रभु भजन में लगा है वही सही अर्थों में मनुष्य है।

हिन्दू मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाई।
कहै कबीर सो जीवता, दुहुँ के निकटि न जाइ।5।

अर्थ – कबीर ने कहा है की हिन्दू राम-राम का भजन और मुसलमान खुदा-खुदा कहते मर जाते हैं, उन्हें कुछ हासिल नही होता। असल में वह व्यक्ति ही जीवित के समान है जो इन दोनों ही बातों से अपने आप को अलग रखता है।

काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।
मोट चुन मैदा भया, बैठी कबीरा जीम।6।

अर्थ – कबीर कहते हैं की आप या तो काबा जाएँ या काशी, राम भंजे या रहीम दोनों का अर्थ समान ही है। जिस प्रकार गेहूं को पीसने से वह आटा बन जाता है तथा बारीक पीसने से मैदा परन्तु दोनों ही खाने के प्रयोग में ही  लाए जाते हैं। इसलिए दोनों ही अर्थों में आप प्रभु के ही दर्शन करेंगें।

उच्चे कुल का जनमिया, जे करनी उच्च न होइ।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोई।7।

अर्थ – इन पंक्तियों में कबीर कहते हैं की केवल उच्च कुल में जन्म लेने कुछ नही हो जाता, उसके कर्म ज्यादा मायने रखते हैं। अगर वह व्यक्ति बुरे कार्य करता है तो उसका कुल अनदेखा कर दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह सोने के कलश में रखी शराब भी शराब ही कहलाती है।

सबद

मोको कहाँ ढूँढ़े बंदे , मैं तो तेरे पास में ।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में ।ना तो कौने क्रिया – कर्म में, नहीं योग वैराग में ।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पलभर की तलास में ।
कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब स्वासों की स्वास में॥

अर्थ – इन पंक्तियों में कबीरदास जी ने बताया है मनुष्य ईश्वर में चहुंओर भटकता रहता है। कभी वह मंदिर जाता है तो कभी मस्जिद, कभी काबा भ्रमण है तो कभी कैलाश। वह इश्वार को पाने के लिए पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र करता है जिसे कबीर ने महज आडम्बर बताया है। इसी प्रकार वह अपने जीवन का सारा समय गुजार देता है जबकि ईश्वर सबकी साँसों में, हृदय में, आत्मा में मौजूद है, वह पलभर में मिल जा सकता है चूँकि वह कण-कण में व्याप्त है।


संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे ।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी ॥
हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिण्डा तूटा ।
त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबुधि का भाण्डा फूटा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी ।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठ , प्रेम हरि जन भींनाँ ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटै, उदित भया तम खीनाँ ॥

अर्थ – इन पंक्तियों में कबीर जी ने ज्ञान की महत्ता को स्पष्ट किया है। उन्होंने ज्ञान की तुलना आंधी से करते हुए कहा है की जिस तरह आंधी चलती है तब कमजोर पड़ती हुई झोपडी की चारों ओर की दीवारे गिर जाती हैं, वह बंधन मुक्त हो जाती है और खम्भे धराशायी हो जाते हैं उसी प्रकार जब व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है तब मन के सारे भ्रम दूर हो जाते हैं, सारे बंधन टूट जाते हैं।
छत को गिरने से रोकने वाला लकड़ी का टुकड़ा जो खम्भे को जोड़ता है वो भी टूट जाता है और छत गिर जाती है और रखा सामान नष्ट हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होने पर व्यक्ति स्वार्थ रहित हो जाता है, उसका मोह भंग हो जाता है जिससे उसके अंदर का लालच मिट जाता है और मन का समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं। परन्तु जिनका घर मजबूत रहता है यानी जिनके मन में कोई कपट नही होती, साधू स्वभाव के होते हैं उन्हें आंधी का कोई प्रभाव नही पड़ता है।
आंधी के बाद वर्षा से सारी चीज़ें धुल जाती हैं उसी तरह ज्ञान प्राप्ति के बाद मन निर्मल हो जाता है। व्यक्ति ईश्वर के भजन में लीन हो जाता है।

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एक कुत्ता और एक मैना पाठ का सारांश | Ek Kutta Aur Ek Maina Summary class 9 Chapter-8 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

हजारीप्रसाद दिवेदी

लेखक परिचय

हजारीप्रसाद दिवेदी
इनका जन्म सन 1907 में गांव आरत दुबे का छपरा, जिला बलिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उन्होंने उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविधालय से प्राप्त की तथा शान्ति निकेतन, काशी हिन्दू विश्वविधालय एवं पंजाब विश्वविधालय में अध्यापन कार्य किया।

एक कुत्ता और एक मैना पाठ का सारांश ( Very Short Summary)

“एक कुत्ता और एक मैना” पाठ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखा गया एक निबंध है। इस निबंध में उन्होंने गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के साथ हुए अपने संस्मरण को प्रस्तुत किया है और उनके साथ हुये वार्तालाप के माध्यम से उन्होंने गुरुदेव रविनाथ टैगोर के व्यक्तित्व को उजागर किया है। पशु पक्षियों के प्रति गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के मन में कितनी संवेदनशीलता थी, इस बात को लेखक ने गहराई से प्रस्तुत किया है। यह पाठ में पशु पक्षियों के प्रति दया और संवेदनशीलता अपनाने की सीख देता है। पाठ का सार कुछ इस प्रकार है ..

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का स्वास्थ्य खराब हो गया तो उन्होंने अपने शांति निकेतन निकेतन आश्रम को छोड़कर कुछ दिन अपने पैतृक मकान में आराम से गुजारने की निर्णय लिया। यहीं पर लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी से उनकी मुलाकात हुई। जब वह जब लेखक से बातें कर रहे थे तभी टैगोर जी का पालतू कुत्ता आकर उनके पास बैठ गया और गुरुदेव ने प्रेम पूर्वक कुत्ते के सिर पर हाथ फेरा और उसी समय कुत्ते पर एक कविता की रचना की। गुरुदेव ने बताया कि यह कुत्ता उनका स्पर्श पाकर आनंद का अनुभव करता है। जब गुरुदेव का देहांत हो गया तो भी वह कुत्ता उनकी चिता तक गया और शांत भाव से मौन होकर बैठा रहा। इसी तरह एक मैना परिवार भी उनके घर में अपना घोंसला बना ही लेता था। उन्होंने कई बार मैना परिवार को हटाने की कोशिश की। लेकिन वो घर को छोड़कर नही जाते थे। इस तरह लेखक ने पाठ में जानवरों के प्रेम और संवेदनशीलता के दर्शन करायें है।

Dएक कुत्ता और एक मैना पाठ का सारांश | Ek Kutta Aur Ek Maina Summary class 9 Chapter-8 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

एक कुत्ता और एक मैना पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

एक कुत्ता और एक मैना पाठ या निबंध लेखक हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी के द्वारा लिखित है | इस निबंध में पशु-पक्षियों और मानव के बीच प्रेम, भक्ति, विनोद और करुणा जैसे मानवीय भावों का प्रस्फुटन हुआ है | प्रस्तुत निबंध में कवि ‘रवीन्द्रनाथ’ की कविताओं और उनसे जुड़ी यादों के माध्यम से उनकी संवेदनशीलता और सहजता का चित्रण किया गया है | लेखक के अनुसार, कई वर्ष पहले गुरुदेव शांतिनिकेतन को छोड़कर कहीं और जाने को इच्छुक थे | उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था | इसलिए वे श्रीनिकेतन के पुराने तिमंज़िले मकान में कुछ दिनों तक रहे | वे सबसे ऊपर के तल्ले में रहने लगे | 
छुट्टियों के दौरान आश्रम के अधिकतर लोग बाहर चले गए थे | एकदिन लेखक अपने परिवार के साथ गुरुदेव रविन्द्रनाथ से मिलने श्रीनिकेतन जा पहुँचे | गुरुदेव वहाँ अकेले रहते थे | शांतिनिकेतन की अपेक्षा श्रीनिकेतन में भीड़-भाड़ कम होती थी | लेखक और उसके परिवार को देखकर गुरुदेव मुस्कुराते हुए उनका हाल पूछे | ठीक उसी समय उनका कुत्ता धीरे-धीरे ऊपर आया और उनके पैरों के समीप खड़ा होकर पूँछ हिलाने लगा | गुरुदेव कुत्ते की पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे खूब स्नेह दिए | तत्पश्चात्, गुरुदेव ने लेखक को संबोधित करते हुए कहा — ” देखा तुमने, यह आ गए | आखिर मालूम चल गया इन्हें कि मैं यहाँ हूँ ! और देखो कितनी परितृप्ति इनके चेहरे पर झलक रही है…|” 
आगे लेखक कहते हैं कि वाकई, गुरुदेव से मिलकर उस कुत्ते को जो आनन्द की अनुभूति हुई थी, वह देखने

लायक थी | किसी ने उस बेज़बान जानवर को रास्ता नहीं दिखाया था और न ही बताया था कि उसके स्नेह-दाता उससे दो मील दूर रहते हैं, फिर भी वह गुरुदेव के पास पहुँच गया था | गुरुदेव ने इसी कुत्ते को लक्ष्य करके उसके प्रति कविता के माध्यम से अपना प्रेम और स्नेह भाव भी जताया था | उस कविता में कवि रवीन्द्रनाथ ने अपनी मर्मभेदी दृष्टि से इस भाषाहीन प्राणी की करूण दृष्टि के भीतर उस विशाल मानव-सत्य को देखा है, जो मनुष्य, मनुष्य के अंदर भी नहीं देख पाता | लेखक के अनुसार, जब गुरुदेव का चिताभस्म आश्रम लाया गया, तब उस समय भी वो कुत्ता आश्रम तक पहुँचा था और गम्भीर अवस्था में चिताभस्म के पास कुछ देर खड़ा रहा |

लेखक गुरुदेव से संबंधित किसी घटना को स्मरण करते हुए कहते हैं कि मैं उन दिनों शांतिनिकेतन में नया ही आया था | गुरुदेव सुबह-सुबह अपने बगीचे में टहलने निकला करते थे | एकदिन मैं भी एक पुराने अध्यापक के साथ सुबह बगीचे में गुरुदेव के साथ टहलने निकल गया | गुरुदेव बगीचे के फूल-पत्तियों को ध्यान से देखते हुए और उक्त अध्यापक से बातें करते हुए टहल रहे थे | मैं चुपचाप उन दोनों की बातें सुनता जा रहा था | गुरुदेव अध्यापक महोदय से पूछ रहे थे कि बहुत दिनों से आश्रम में ‘कौए ‘ दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिसका जवाब वहाँ किसी के पास नहीं था | आगे लेखक कहते हैं कि अचानक मुझे उस दिन पता चला कि अच्छे आदमी भी कभी-कभी प्रवास चले जाने पर मजबूर होते हैं | अंतत: एक सप्ताह के बाद वहाँ बहुत सारे कौए दिखाई दिए | 


लेखक अपना एक और अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि एक रोज सुबह मैं गुरुदेव के पास उपस्थित था | उस समय आस-पास एक लंगड़ी मैना फुदक रही थी | तभी गुरुदेव ने कहा — ” देखते हो, यह यूथभ्रष्ट है | यहाँ आकर रोज फुदकती है | मुझे इसकी चाल में एक करुण भाव दिखाई देता है…|” लेखक कहते हैं कि यदि उस दिन गुरुदेव नहीं कहे होते तो मुझे मैंना का करूण भाव दिखाई ही नहीं दे पाता | जब गुरुदेव की बात पर मैंने ध्यानपूर्वक देखा तो मालूम हुआ कि सचमुच ही उसके मुख पर करूण-भाव झलक रहा है | आगे लेखक मैना के बारे में कहते हैं कि शायद यह विधुर पति था, जो पिछली स्वयंवर-सभा के युद्ध में आहत और परास्त हो गया था | या फिर हो सकता है कि विधवा पत्नी हो, जो पिछले किसी आक्रमण के समय पति को खोकर अकेली रह गई हो | शायद, बाद में इसी मैना को लक्ष्य करके गुरुदेव ने एक मार्मिक कविता लिखी थी | लेखक कहते हैं कि जब मैं उस कविता को पढ़ता हूँ, तो उस मैना की करूणामय तस्वीर मेरे सामने आ जाती है | वे खुद पर अफ़सोस जताते हुए कहते हैं कि कैसे मैंने उसे देखकर भी नहीं देख पाया और कैसे कवि रवीन्द्रनाथ की आँखें उस बिचारी के मर्मस्थल तक पहुँच गई | 
एकदिन वह मैना उड़ गई | जब सांयकाल को कवि ने उसे नहीं देखा, तो उन्हें बहुत अफ़सोस हुआ और कहने लगे “कितना करूण है उसका गायब हो जाना…!! 

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NCERT Solution – एक कुत्ता और एक मैना

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मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश | Mere bachpan ke din Summary class 9 Chapter-7 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

महादेवी वर्मा

लेखिका परिचय


महादेवी वर्मा

इनका जन्म सन  1907 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद सहर में हुआ था। इनकी शिक्षा दीक्षा प्रयाग में हुई। ये एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्य के गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में अद्वितीय सफलता प्राप्त की है। प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्राचर्या पद पर रहते हुए इन्होने लड़कियों की शिक्षा के लिए काफी प्रयत्न कियें। सन  1987 में इनका देहांत हो गया।

मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश ( Very Short Summary)

प्रस्तुत संस्मरण में महादेवी जी ने अपने बचपन के उन दिनों को स्मृति के सहारे लिखा है जब वे विद्यालय में पढ़ रही थीं। इस अंश में लड़कियों के प्रति सामाजिक रवैये, विद्यालय की सहपाठिनों, छात्रावास के जीवन और स्वतंत्रता आंदोलन के प्रसंगों का बहुत ही सजीव वर्णन है। लेखिका अपने बचपन के दिनों को याद कर कहती है कि वे परिवार में पहली लड़की पैदा हुईं थीं। घर में हिन्दी का कोई वातावरण नहीं था लेकिन माँ ने उसे संस्कृत, हिन्दी,अंगेरज़ी आदि की शिक्षा दी।

फिर मिशन स्कूल में जाने पर उनकी मुलाकात सुभद्रा कुमारी चौहान से हुई। उनके छात्रावास में विभिन्न स्थानों से आए बच्चों में एकता एवं सहानुभुति की भावना थी। वे कविता भी लिखती थी। कविता –पाठ में उन्हें हमेशा प्रथम पुरस्कार ही मिलता था। एक बार उन्होंने पुरस्कार में मिले चाँदी के कटोरे को दानस्वरूप गाँधी जी को दे दिया। उनके घर के पास रहने वाले नवाब साहब के परिवार से उनके बड़े अच्छे संबंध थे। नवाब साहब ने ही उनके छोटे भाई का नामकरण किया था। उस समय लोगों में जैसी एकता और भाईचारा दिखता था , आजकल वह सपना –सा लगता हैl

मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश | Mere bachpan ke din Summary class 9 Chapter-7 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

लेखिका के परिवार में पहले लड़कियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। इसीलिए उनके कुल में 200 वर्षों तक कोई लडक़ी नहीं हुई। 200 वर्षों के बाद लेखिका का जन्म हुआ। लेखिका के दादा जी ने दर्गुा.पूजा करके लड़की माँगी थी। इसलिए उन्हकं अपने बचपन में कोई दुख नहीं हुआ। लेखिका को उर्दूए फारसीए अंग्रेजी तथा संस्कृत भाषाओं को पढ़ने की सुविध प्राप्त थी। हिंदी पढ़ने के लिए तो उन्हें उनकी माँ ने ही प्रेरित किया था। लेखिका को हिंदीए संस्कृत पढ़ने में तो बहुत ही आनंद आया किंतु उर्दू8फारसी पढ़ने में उनकी रुचि नहीं जागी। मिशन स्कूल दिनचर्या भी उन्हें अपनी ओर आकषिर्त न कर सकी। इसीलिए उन्हें क्राॅस्थवेट गल्र्स काॅलेज में भर्ती कराया गया था। वहाँ उन्हें हिंदू व ईसाई लड़कियों के साथ रहने का अवसर मिला।

लेखिका जिस छात्रावास में रहती थींए वहाँ हर कमरे में चार-चार छात्राएँ रहती थीं। लेखिका के कमरे में सुभद्रा कुमारी चाहैान भी थीं जो वहाँ की सीनियर छात्रा थीं। वे कविता लिखती थीं। इध्र लेखिका की माँ भी भजन लिखती और गाती थीं। अतः उन्हें भी लिखने की इच्छा हुई। उन्होंने कविता लिखनी प्रारंभ की और लिखती ही चली गईं। एक दिन महादेवी के द्वारा छिप.छिप कर कविता लिखने की भनक सुभद्रा वुफमारी के कानों में पड़ी तो उन्होंने लेखिका की काॅपियों में से कविताएँ ढूँढ़कर उनके विषय में सारे छात्रावास को बता दिया। उस दिन से उन दोनों के बीच मित्राता हो गई। फिर दोनों ही खेल के समय साथ ही बैठकर कविता लिखने लगीं। उनकी तुकबंदी कर लिखी गई कविता ‘स्त्राी दर्पण’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई।

सन 1917 के आस.पास हिंदी के प्रचार का समय था। अतः उन दिनों कवि सम्मेलन खूब होने लगे थे। लेखिका भी कवि सम्मेलनों में जाने लगीं। उनके साथ क्राॅस्थवेट की एक शिक्षिका उनके साथ जाया करती थीं। उन कवि सम्मेलनों के अध्यक्ष प्रायः हरिऔधए श्रीधर पाठक जैसे महान कवि होते थे। अतः लेखिका अपनी बारी का घबराहट के साथ इंतशार करती थीं आरै अपने नाम की उदघोषणां सुनने के लिए बचे नै रहती थीं। किंतु उन्हों हमशा ही प्रथम परु स्कार ही मिलता था।

उन्हीं दिनों गांधी जी आनदं भवन आए। लेिखका भी अन्य छात्राआ के साथ उनसे भेंट करके जेबखर्च से बचाकर कुछ पैसे देने उनके पास गईं। उन्होंने कवि सम्मेलन में पुरस्कार स्वरूप मिला एक चाँदी का कटोरा गांधी जी को दिखाया तथा गांधी जी के माँगने पर देश-हित के लिए उन्हें दे दिया। वे गांधी जी को वह कीमती तथा स्मृति-चिह्न रूपी कटोरा भेंट करके बहुत खुश हुईं।

छात्रावास का जीवन जाति-पाँति के भदे-भाव से दूर आपसी प्रेम भरा हुआ एक परिवार जैसा था। अतः जे़बुन नाम की एक मराठी लडक़ीए लेखिका का सारा काम कर देती थी। वह हिंदी तथा मराठी भाषा का मिलाजुला रूप बाेला करती थी। वह अच्छी हिदीं नहीं जानती थी। वहाँ एक बेगम थीं जिनको मराठी बालेने पर चिढ़ हातेी थी। ‘हम मराठी हैं तो मराठी हीे बोलगें। ’ उन दिनाें देश में सर्वत्र पारस्परिक प्रेम एवं सद्भाव का वातावरण था। अतः अवध की छात्राएँ अवधी, बुंदेलखडं की छात्राएँ बुदेंली बोला करती थीं। इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी। मेस में सभी एक साथ खाना खाती थीं तथा एक ही इशवर प्रार्थना एवं भाजे न मंत्रा बाले ती थीं। इसमें र्काइे झगडा़ नहीं होता था।

लेखिका का परिवार जहाँ रहता था वहाँ एक जवारा की बेगम साहिबा का परिवार भी रहता था। उनके परिवारों में बहुत घनिष्ठता थी। उनके बीच कोई जाति एवं र्धम-संबंधी भेदभाव नहीं था। वे एक-दूसरे के जन्मदिन पर परिवार जैसे मिलते-जुलते थे। बेगम के बच्चे लेखिका की माँ को चचीजान तथा लेखिका बेगम साहिबा को ताई कहती थीं। लेखिका राखी के दिन बेगम साहिबा के बच्चों को राखी अवश्य बाँधती थीं तथा मोहर्रम के दिन बेगम साहिबा लेखिका के लिए कपड़े अवश्य बनवाती थीं।

लेखिका के घर जब छोटे भाई का जन्म हुआ तो बेगम साहिबा ने माँगकर नेग लिया था। उसका नाम ‘मनमोहन’ भी उन्हीं ने रखा था।
वही मनमोहन वर्मा पढ़.लिखकर प्रोफेसर बने तथा बाद में जम्मू विश्वविद्यालय तथा गोरखपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने।

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NCERT Solution – मेरे बचपन के दिन

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प्रेमचंद के फटे जूते पाठ का सारांश | Premchand ke Phate Jute Summary class 9 Chapter-6 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

हरिशंकर परसाई प्रेमचंद के फटे जूते पाठ का सारांश | Premchand ke Phate Jute Summary class 9 Chapter-6 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

हरिशंकर परसाई

इनका जन्म सन 1922 में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गाँव में हुआ। नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद कुछ दिनों तक अध्यापन किया। सन 1947 से स्वतंत्र लेखन करने लगे। सन 1995 में इनका निधन हो गया।

प्रेमचंद के फटे जूते पाठ का सारांश ( Very Short Summary)

सिर पर मोटे कपड़े की टोपी , कुर्ता और धोती पहने हुए प्रेमचंद ने अपनी पत्नी के साथ फोटो तो खींचवाई किंतु पावों में जो जो गंदे ढंग से बंधे हुए जूते हैं उनमें से एक फटा हुआ है फोटोग्राफर ने तो क्लिक करके अपना काम पूरा कर लिया , लेकिन प्रेमचंद अपने दर्द की गहराई से निकलकर जिस मुस्कान से होठों तक लाने वाले थे , वह अधूरी ही रह गई लेखक के अनुसार प्रेमचंद के जीवन की है त्रासदी कि कि उनके पास फोटो खिंचवाने के लिए भी दूसरे जूते नहीं थे लोग तो फोटो खिंचवाने के लिए कपड़े तो क्या , बीबी तक किराए पर ले लेते हैं टोपी जूते से सस्ती थी और एक जूते पर बीसीयू टोपिया नौ छावर की जा सकती है जूते और टोपी की इसी अनुपातिक मूल्य का शिकार होकर ही शायद हमारे उपन्यास सम्राट रचनाकर नया जूता ना खरीद सके

लेखक का जूता भी कोई अच्छी दशा में नहीं है परंतु अंगूठे के नीचे का ताला खत्म होने के कारण सब कुछ पर्दे में रहता है प्रेमचंद के जूते के फटने के कारण पर विचार करते हुए लेखक कहते हैं कि यदि बनिया के तगादे से बचने के लिए प्रेमचंद ने अधिक चक्कर लगाए हो तो उसे जूता सिर्फ gishta यह तो निश्चित रूप से किसी टीले जैसी चीज पर बार बार ठोकर मारी गई है जिससे जूता फट गया यदि प्रेमचंद चाहते तो नदी की भांति उस टीले से बचकर रास्ता बदलकर भी निकल सकते थे किंतु शायद मैं समझौता नहीं कर सके प्रेमचंद के फटे जूते से बाहर निकले अंगूठे शायद हम जैसे समझौते करने वालों पर ही व्यंग कर रहे हैं मुस्कान में भी ऐसे ही व्यंग किया है जिसे समझने का दावा लेखक करता है

प्रेमचंद के फटे जूते पाठ का सारांश | Premchand ke Phate Jute Summary class 9 Chapter-6 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

प्रेमचंद के फटे जूते पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

परसाई जी के सामने प्रेमचंद तथा उनकी पत्नी का एक चित्र है। इसमें प्रेमचंद धोती-कुर्ता पहने हैं तथा उनके सिर पर टोपी है। वे बहुत दुबले हैं, चेहरा बैठा हुआ तथा हड्डियाँ उभरी हुई हैं। चित्र को देखने से ही पता चल रहा है कि वे निर्धनता में जी रहे हैं। वे कैनवस के जूते पहने हैं जो बिल्कुल फट चुके हैं, जिसके कारण ढंग से बँध नहीं पा रहे हैं और बाएँ पैर की उँगलियाँ दिख रही हैं। उनकी ऐसी हालत देखकर लेखक को चिंता हो रही हैं कि यदि उनकी (प्रेमचंद) फ़ोटो खिंचाते समय ऐसी हालत है तो वास्तविक जीवन में उनकी क्या हालत रही होगी। फिर उन्होंने सोचा कि प्रेमचंद कहीं दो तरह का जीवन जीने वाले व्यक्ति तो नहीं थे। किंतु उन्हें दिखावा पसंद नहीं था, अतः उनकी घर की तथा बाहर की जिंदगी एक-सी ही रही होगी। फ़ोटो में दिख रही तथा वास्तविक स्थिति में कोई अंतर नहीं रहा होगा। तभी तो निश्चितता तथा लापरवाही से फ़ोटो में बैठे हैं। वे ‘सादा जीवन उच्च विचार’ रखने में विश्वास रखते थे। अतः गरीबी से दुखी नहीं थे। 

          प्रेमचंद जी के चेहरे पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान देखकर लेखक परेशान हैं। वह सोचते हैं कि प्रेमचंद ने फटे जूतों में फ़ोटो खिंचवाने से मना क्यों नहीं किया। फिर लेखक को लगा कि शायद उनकी पत्नी ने जोर दिया होगा, इसलिए उन्होंने फटे जूते में ही फ़ोटो खिंचा लिया होगा। लेखक प्रेमचंद की इस दुर्दशा पर रोना चाहते हैं किंतु उनकी आँखों के दर्द भरे व्यंग्य ने उन्हें रोने से रोक दिया। 

          लेखक कहते हैं कि मेरा भी तो जूता फट गया है किंतु वह ऊपर से तो ठीक है। मैं पर्दे का पूरी तरह से ध्यान रखता हूँ। मैं अपनी उँगली को बाहर नहीं निकलने देता। मैं इस तरह फटा जूता पहनकर फ़ोटो तो कभी नहीं खिंचवा सकता। 

          लेखक प्रेमचंद की व्यंग्य भरी मुस्कान देखकर आश्चर्यचकित हैं। वे सोच रहे हैं कि इस व्यंग्य भरी मुस्कान का आखिर क्या मतलब हो सकता है। क्या उनके साथ कोई हादसा हो गया या होरी का गोदान हो गया? या हल्कू किसान के खेत को नीलगायों ने चर लिया है या माधो ने अपनी पत्नी के कफ़न को बेचकर शराब पी ली है? या महाजन के तगादे से बचने के लिए प्रेमचंद को लंबा चक्कर काटकर घर जाना पड़ा है जिससे उनका जूता घिस गया है? लेखक को याद आता है कि ईश्वर-भक्त संत कवि कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी आने-जाने से घिस गया था।

          अचानक लेखक को समझ आया कि प्रेमचंद का जूता लंबा चक्कर काटने से नहीं फटा होगा बल्कि वे सारे जीवन किसी कठोर वस्तु को ठोकर मारते रहे होंगे। रास्ते में पड़ने वाले टीले से बचकर निकलने के बजाए वे उसे ठोकरे मारते रहे होंगे। उन्हें समझौता करना पसंद नहीं है। जिस प्रकार होरी अपना नेम-धरम नहीं छोड़ पाए, या फिर नेम-धरम उनके लिए मुक्ति का साधन था। 

          लेखक मानते हैं कि प्रेमचंद की उँगली किसी घृणित वस्तु की ओर संकेत कर रही है, जिसे उन्होंने ठोकरें मार-मारकर अपने जूते फाड़ लिए हैं। वे उन लोगों पर मुस्करा रहे हैं जो अपनी उँगली को ढकने के लिए अपने तलवे घिसते रहते हैं। 

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NCERT Solution – Premchand ke Phate Jute

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नाना साहब की पुत्री देवी मैना को भस्म कर दिया गया पाठ का सारांश | Nana Sahab ki Putri Devi Maina ko Bhasm Kar Diya Gaya Summary class 9 Chapter-5 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

chapla devi नाना साहब की पुत्री देवी मैना को भस्म कर दिया गया पाठ का सारांश | Nana Sahab ki Putri Devi Maina ko Bhasm Kar Diya Gaya Summary class 9 Chapter-5 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

नाना साहब की पुत्री देवी मैना को भस्म कर दिया गयापाठ का सारांश ( Very Short Summary)

1857 ई. के क्रांति के विद्रोह में असफल होने के बाद नाना साहेब कानपुर छोड़ कर भाग गए परन्तु अपनी बेटी मैना को न ले जा सके। कानपूर में भीषण हत्याकांड को अंजाम देने के बाद अँगरेज़ बिठूर में नाना साहेब की महल के ओर कुछ किया और सारा राजमहल लूट लिया। महल लूटने के बाद अंग्रेज़ो ने महल को तोप के गोलों से भस्म करने का निश्चय किया। जब अंग्रेज़ों ने भस्म करने के लिए तोपे लगायीं तभी वहां एक अत्यंत सुन्दर बालिका आ गयी और उसने महल पर गोले बरसाने से मना किया। सेनापति के पूछने पर उसने बताया की वह उनके पुत्री मेरी की सहेली है, वह उसी में प्रार्थना करती है इसलिए उस की रक्षा चाहती है। इससे पता चला की वह नाना साहेब की पुत्री है। सेनापति हे ने कहा की वह सरकारी नौकर होने के कारण आज्ञा को नही टाल सकते पर उसकी रक्षा करने की जरूर कोशिश करेंगे। इसी समय जनरल अउटरम वहां पहुंचे और अब तक महल ना उड़ाए जाने का कारण पूछा। सेनापति हे ने महल और मैना को छोडने की गुज़ारिश की पर अउटरम ने उसे ठुकरा दिया जिससे नाराज होकर हे वहां से चले गए। अउटरम ने महल को घेरकर छानबीन की परन्तु मैना का कहीं पता नहीं चला। उसी दिन शाम को गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग का तार आया जिसमे महल को उड़ाने की बात कही गयी। घंटे भर में तोपे के गोलों से महल को उदा दिया गया।

नाना साहब की पुत्री देवी मैना को भस्म कर दिया गया पाठ का सारांश | Nana Sahab ki Putri Devi Maina ko Bhasm Kar Diya Gaya Summary class 9 Chapter-5 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown


लंदन के सुप्रसिद्ध अखबार ‘टाइम्स’ ने छटी सितम्बर को नाना साहेब जो की अंग्रेज़ों के हत्याकांड का दोषी है, के न पकड़े जाने पर लेख लिखा। उसी दिन पार्लियामेंट हाउस में सेनापति हे के उस रिपोर्ट पर हँसी उड़ाई गई जिसमें उसने नाना के कन्या पर क्षमा-याचना की मांग की थी। अंग्रेज़ों ने नाना साहेब के किसी भी सगे-सम्बन्धी को मार डालने का आदेश दिया।

सितम्बर मास में अर्ध रात्रि के समय सफ़ेद वस्त्र पहनकर मैना नाना साहब के महल के अवशेषों पर रो रही थी। जनरल अउटरम पहुंचते ही उसे पहचान गए और उसे अंग्रेजी आज्ञानुसार कानपूर के किले में कैद कर दिया।
उस समय महराष्ट्रीय इतिहासवेत्ता चिटणवीस के पत्र  ‘बाखर’ में चप्पा कि कानपूर के किले में एकमात्र कन्या ‘मैना’ को धड़कती हुई आग में जलाकर भस्म कर दिया गया।

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NCERT Solution – नाना साहब की पुत्री देवी मैना को भस्म कर दिया गया

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साँवले सपनों की याद पाठ का सारांश | sawle sapno ki yad Summary class 9 Chapter-4 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

जाबिर हुसैन साँवले सपनों की याद पाठ का सारांश | sawle sapno ki yad Summary class 9 Chapter-4 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

जाबिर हुसैन

इनका जन्म सन 1945 में गाँव नौनहीं, राजगीर, जिला नालंदा, बिहार में हुआ। वे अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य के प्राध्यापक रहे। इन्होने सक्रिय राजनीति में भी भाग लिया और विधानसभा के सदस्य, मंत्री और सभापति भी रहे। ये हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू तीनों भाषाओं में समान अधिकार के साथ लेखन करते रहे हैं।

साँवले सपनों की याद पाठ का सारांश ( Very Short Summary)

साँवले सपनों की याद एक व्यक्ति चित्र है । इसमें प्रसिद्ध पक्षी प्रेमी सालिम अली का व्यक्ति चित्र है । सुनहरे पक्षियों के पंख पर सांवले सपनों का एक झुण्ड सवार है । वह मौत की मौन वादियों में जा रहा है । उसमे सबसे आगे सलीम अली है । जी हाँ यह पक्षी प्रेमी मौत की गौद में जा बसे है ।

इस पाठ में सलीम अली के खुले स्वाभाव की बात की गयी है । इस पाठ में बताया गया है की कैसे सलीम अली पक्षी प्रेमी बने । कैसे उन्होंने साइलेंट वैली के पक्षियों को सही सुविधाएं उपलब्ध कराई।

इस पाठ में दूसरे पक्षी प्रेमी डी एच लॉरेंस का भी जिक्र है । तथा लेखक को विश्वास ही नहीं हो रहा है की यह पक्षी प्रेमी सच में इस शरीर की छोड़ जा रहा है ।

साँवले सपनों की याद पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

साँवले सपनों की याद पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

साँवले सपनों की याद’ पाठ में एक व्यक्ति का चित्रा खींचा गया है। अतः यह एक व्यक्ति-चित्रा है। लेखक कहते हैं कि सुनहरे रंग के पक्षियों के पंखों पर साँवले सपनों का एक हुजूम सवार होकर मौत की खामोश वादी की तरफ चला जा रहा है। उस झुंड में सबसे आगे सालिम अली चल रहे हैं। वे सैलानियों की तरह एक अंतहीन यात्रा की ओर चल पड़े हैं। इस बार का सफर उनका आखिरी सफर है। इस बार उन्हें कोई भी वापस नहीं बुला सकता क्योंकि वे अब एक पक्षी की तरह मौत की गोद में जा बसे हैं।

सालिम अली इस बात से दुखी तथा नाराज़ थे कि लोग पक्षियों को आदमी की तरह देखते हैं। लोग पहाड़ों, झरनों तथा जंगलों को भी आदमी की नज़र से देखते हैं। यह गलत है क्योंकि कोई भी आदमी पक्षियों की मधुर आवाज़ सुनकर रोमांचित नहीं हो सकता है।

लेखक कहते हैं कि वृंदावन में भगवान कृष्ण ने पता नहीं कब रासलीला की थी, कब ग्वाल-बालों के साथ खेल खेले थे? कब मक्खन खाया था? कब बाँसुरी बजाई थी? कब वन-विहार किया था?
किंतु आज जब हम यमुना के काले पानी को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि अभी-अभी भगवान श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हुए आ जाएँगे और सारे वातावरण में संगीत का जादू छा जाएगा। वृंदावन से कृष्ण की बाँसुरी का जादू कभी खत्म ही नहीं होता।

सालिम अली ने बहुत भ्रमण किया था तथा उनकी उम्र सौ वर्ष की हो रही थी। अतः उनका शरीर दुर्बल हो गया था। मुख्यतः वे यात्रा करते-करते थक चुके थे, किंतु इस उम्र में भी उनके अंदर पक्षियों को खोजने का जुनून सवार था। दूरबीन उनकी आँखों पर या गरदन में पड़ी ही रहती थी तथा उनकी नज़र दूर-दूर तक फैले आकाश में पक्षियों को ढूँढ़ती रहती थी। उन्हें प्रकृति में एक हँसता-खेलता सुंदर-सलोना संसार दिखाई देता था।
इस सुंदर रहस्यमयी दुनिया को उन्होंने बड़े परिश्रम से बनाया था। इसके बनाने में उनकी पत्नी तहमीना का भी योगदान था। सालिम अली केरल की साइलेंट वैली को रेगिस्तान के झोंकों से बचाना चाहते थे। इसलिए वे एक बार पूर्व प्रधानमंत्राी चौधरी चरण सिंह से भी मिले थे। चौधरी चरण सिंह गाँव में जन्मे हुए थे और गाँव की मिट्टी से जुड़े हुए थे। अतः वे सालिम अली की पर्यावरण की सुरक्षा संबंधी बातें सुनकर भावुक हो गए थे। आज ये दोनों व्यक्ति नहीं हैं। अब देखते हैं कि हिमालय के घने जंगलोंए बर्फ़ से ढकी चोटियों तथा लेह – लद्दाख की बर्फीली ज़मीनों पर रहने वाले पक्षियों की चिंता कौन करता है ?

सालिम अली ने अपनी आत्मकथा का नाम रखा था ‘फाॅल आॅ.फ ए स्पैरो’। लेखक को याद है कि डी.एच. लाॅरेंस की मृत्यु के बाद जब लोगों ने उनकी पत्नी फ्रीडा लाॅरेंस से अपने पति के बारे में लिखने का अनुरोध् किया तो वे बोली थीं कि मेरे लिए लाॅरेंस के बारे में लिखना असंभव-सा है, मुझसे श्यादा तो उनके बारे में छत पर बैठने वाली गौरैया जानती है।

बचपन में अन्य बच्चों के समान सालिम अली अपनी एयरगन से खेल रहे थे। खेलते समय उनकी एयरगन से एक चिड़िया घायल होकर गिर पड़ी थी। उसी दिन से सालिम अली के हृदय में पक्षियों के प्रति दया का भाव जाग उठा और वे पक्षियों की खोज तथा उनकी रक्षा के उपायों में लग गए। प्राकृतिक रहस्यों को जानने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे। इसके लिए उन्होंने बड़े-से-बड़े तथा कठिन-से-कठिन कार्य किए।

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NCERT Solution – साँवले सपनों की याद

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उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश | Upbhoktavad Ki Sanskriti Summary class 9 Chapter-3 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

शयामचरण दुबे  उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश | Upbhoktavad Ki Sanskriti Summary class 9 Chapter-3 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

शयामचरण दुबे

इनका जन्म सन 1922 में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ। उन्होंने नागपुर विश्वविधालय से से मानव विज्ञान में पीएचडी की। वे भारत के अग्रणी समाज वैज्ञानिक रहे हैं। इनका देहांत सन 1996 में हुआ।

उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश ( Very Short Summary)

लेखक कहते हैं कि उपभोग सुख नहीं है। उनके अनुसार मानसिक, शारीरिक और सूक्ष्म आराम सुख है। लेकिन आजकल केवल उपभोग के साधनों – संसाधनों का अधिक से अधिक भोग ही सुख माना जाता है।

      उपभोक्तावाद संस्कृति ने हमारे दैनिक जीवन को पूर्ण रूप से अपने प्रभाव में ले लिया है। सुबह उठने के समय से लेकर सोने के समय तक ऐसा लगता है कि दुनिया में विज्ञापन के अलावा कोई चीज़ देखने या सुनने लायक नहीं है। परिणाम स्वरूप हम वही खाते-पीते और पहनते-ओढ़ते हैं जो विज्ञापन हमें बताते हैं।

      इस प्रकार उभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम उभोगों के गुलाम बनते जा रहे हैं। हम सिर्फ अपने बारे में सोचने लगे हैं। इससे हमारे सामाजिक संबंध संकुचित हो गए हैं। मर्यादा और नैतिकता समाप्त हो रही है।

      गांधीजी ने उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्प्रभाव को पहले ही समझ लिया था। इसलिए उन्होंने भारतीयों को अपनी बुनियाद और अपनी संस्कृति पर दृढ़ रहने के लिए कहा था।     

उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

लेखक ने इस पाठ में उपभोक्तावाद के बारे में बताया है। उनके अनुसार सबकुछ बदल रहा है। नई जीवनशैली आम व्यक्ति पर हावी होती जा रही है। अब उपभोग-भोग ही सुख बन गया है। बाजार विलासिता की सामग्रियों से भरा पड़ा है।

एक से बढ़कर एक टूथपेस्ट बाजार में उपलब्ध हैं। कोई दाँतो को मोतियों जैसा बनाने वाले, कोई मसूढ़ों को मजबूत रखता है तो कोई वनस्पति और खनिज तत्वों द्वारा निर्मित है। उन्ही के अनुसार रंग और सफाई की क्षमता वाले ब्रश भी बाजार में मौजूद हैं। पल भर में मुह की दुर्गन्ध दूर करने वाले माउथवाश भी उपस्थित है। सौंदर्य-प्रासधन में तो हर माह नए उत्पाद जुड़ जाते हैं। अगर एक साबुन को ही देखे तो ऐसे साबुन उपलब्ध हैं जो तरोताजा कर दे, शुद्ध-गंगाजल से निर्मित और कोई तो सिने-स्टार्स की खूबसूरती का राज भी है। संभ्रांत महिलओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार के आराम से मिल जाती है।

वस्तुओं और परिधानों की दुनिया से शहरों में जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं। अलग-अलग ब्रांडो के नई डिज़ाइन के कपडे आ गए हैं। घड़ियां अब सिर्फ समय देखने के लिए बल्कि प्रतिष्ठा को बढ़ाने के रूप में पहनी जाती हैं। संगीत आये या न पर म्यूजिक सिस्टम बड़ा होना चाहिए भले ही बजाने न आये। कंप्यूटर को दिखावे के लिए ख़रीदा जा रहा है। प्रतिष्ठा के नाम पर शादी-विवाह पांच सितारा होटलों में बुक होते हैं। इलाज करवाने के लिए पांच सितारा हॉस्पिटलों में जाया जाता है। शिक्षा के लिए पांच सितारा स्कूल मौजूद हैं कुछ दिन में कॉलेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाएंगे। अमेरिका और यूरोप में मरने के पहले ही अंतिम संस्कार के बाद का विश्राम का प्रबंध कर लिया जाता है। कब्र पर फूल-फव्वारे, संगीत आदि का इंतज़ाम कर लिया जाता है। यह भारत में तो नही होता पर भविष्य में होने लग जाएगा।


हमारी परम्पराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। हमारी मानसिकता में गिरावट आ रही है। हमारी सिमित संसाधनों का घोर अप्व्यय हो रहा है। आलू चिप्स और पिज़्ज़ा खाकर कोई भला स्वस्थ कैसे रह सकता है? सामाजिक सरोकार में कमी आ रही है। व्यक्तिगत केन्द्रता बढ़ रही है और स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। गांधीजी के अनुसार हमें अपने आदर्शों पर टिके रहते हुए स्वस्थ बदलावों को अपनाना है। उपभोक्ता संस्कृति भविष्य के लिए एक बड़ा खतरा साबित होने वाली है।

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NCERT Solution – उपभोक्तावाद की संस्कृति

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ल्हासा की ओर पाठ का सारांश | Lhasa ki aur Summary class 9 Chapter-2 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

राहुल सांकृत्यायन

इनका जन्म सन 1893 में उनके ननिहाल गाँव पन्दाह, जिला आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनका मूल नाम केदार पाण्डेय था। इनकी शिक्षा काशी, आगरा और लाहौर में हुई। सन 1930 में इन्होने श्री लंका जाकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। सन 1963 में इनका देहांत हो गया।

Lhasa ki aur पाठ का सारांश ( Very Short Summary)

नेपाल से तिब्बत आने-जाने का मुख्य मार्ग नेपाल-तिब्बत मार्ग ही है। जब फरी कलिघ्पाघ् का रास्ता नहीं खुला था, तब नेपाल का ही नहीं भारत का भी व्यापार इसी रास्ते से होता था। इसी मार्ग से फौजें भी आया-जाया करती थीं। आज भी इस मार्ग पर अनेक चैकियाँ तथा किले बने हुए हैं। किसी समय चीनी फौज यहाँ रहा करती थी। परंतु ये फौजी मकान आज गिर चुके हैं। दुर्ग का कोई-कोई भाग (जहाँ किसानों ने अपना निवास बना लिया है) आबाद दिखाई देता है।

तिब्बत में जाति-पाँति का भेद-भाव नहीं है। औरतों के लिए परदा प्रथा नहीं है। भिखमंगों को छोड़कर अपरिचित भी घर के अंदर जा सकते हैं। घरों की सास-बहुएँ बिना संकोच के चाय बना लाती हैं। वहाँ चाय, मक्खन और सोडा-नमक मिलाकर तथा चोडगी में कूटकर मिट्टी के दाँतेदार बर्तन में परोसी जाती है। परित्यक्त चीनी किले से चलने पर एक आदमी लेखक से राहदारी माँगने आया। लेखक ने अपनी तथा सुमति की चिटें दिखा दीं। सुमति के परिचय से लेखक को थोडला के आखिरी गाँव में ठहरने के लिए उचित जगह मिल गई थी।

डाँड़ा तिब्बत के खतरनाक घने जंगलों एवं ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से भरे स्थान हैं। यह स्थान सोलह-सत्राह हशार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ दोनों तरफ मीलों तक कोई गाँव भी नहीं है। रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा तथा निर्जन है। यहाँ कोई भी आदमी दिखाई नहीं देता है। यहाँ डाकू निर्भय रहते हैं। यहाँ पुलिस के बंदोबस्त पर सरकार पैसा खर्च नहीं करती। यहाँ डाकू किसी की भी हत्या कर उसे लूट लेते हैं। डाकू यात्राी को पहले मार डालते हैं। यदि डाकू राही को न मारें तो राही उन्हें भी मार सकते हैं|

Lhasa ki aur पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

Lhasa ki aur पाठ का सारांश ( Detailed Summary)

इस पाठ में राहुल सांकृत्यायन जी ने अपनी पहली तिब्बत यात्रा का वर्णन किया है जो उन्होंने सन् 1929-30 में नेपाल के रास्ते की थी। चूंकि उस समय भारतीयो को तिब्बत यात्रा की अनुमति नहीं  थी, इसलिए उन्होंने  यह यात्रा एक भिखमन्गो के छद्म वेश में  की थी। 

          लेखक की यात्रा बहुत वर्ष पहले जब फटी–कलिङ्पोङ् का रास्ता नहीं बना था, तो नेपाल से तिब्बत जाने का एक ही रास्ता था। इस रास्ते पर नेपाल के लोगों के साथ–साथ भारत के लोग भी जाते थे। यह रास्ता व्यापारिक और सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए इसे लेखक ने मुख्य रास्ता बताया है। तिब्बत में जाति–पाति, छुआछूत का सवाल नहीं उठता और वहाँ औरतें परदा नहीं डालती है। चोरी की आशंका के कारण भिखमंगो को कोई घर में घुसने नहीं देता। नहीं तो अपरिचित होने पर भी आप घर के अंदर जा सकते हैं और जरूरत अनुसार अपनी झोली से चाय दे सकते हैं, घर की बहु अथवा सास उसे आपके लिए पका देगी। 

          परित्यक्त चीनी किले से जब वह चले तो एक व्यक्ति को दो चिटें राहदारी देकर थोड़ला के पहले के आखिरी गाँव में पहुँच गए। यहाँ सुमति (मंगोल भिक्ष, राहुल का दोस्त) पहचान तथा भिखारी होने के कारण रहने को अच्छी जगह मिली। पांच साल बाद वे लोग इसी रास्ते से लौटे थे तब उन्हें रहने की जगह नहीं मिली थी और गरीब के झोपड़ी में ठहरना पड़ा था क्योंकि वे भिखारी नहीं बल्कि भद्र यात्री के वेश में थे। 

          अगले दिन राहुल जी एवं सुमति जी को एक विकट डाँडा थोङ्ला पार करना था। डाँडे तिब्बत में सबसे खतरे की जगह थी। सोलह–सत्रह हजार फीट उंची होने के कारण दोनों ओर गाँव का नामोनिशान न था। डाकुओं के छिपने की जगह तथा सरकार की नरमी के कारण यहाँ अक्सर खून हो जाते थे। चूँकि वे लोग भिखारी के वेश में थे इसलिए हत्या की उन्हें परवाह नहीं थी परन्तु उंचाई का डर बना था। दूसरे दिन उन्होंने डाँडे की चढ़ाई घोड़े से की जिसमें उन्हें दक्षिण–पूरब ओर बिना बर्फ और हरियाली के नंगे पहाड़ दिखे तथा उत्तर की ओर पहाड़ों पर कुछ बर्फ दिखी। उतरते समय लेखक का घोडा थोड़ा पीछे चलने लगा और वे बाएं की ओर डेढ़ मील आगे चल दिए। बाद में पूछ कर पता चला लङ्कोर का रास्ता दाहिने के तरफ तथा जिससे लेखक को देर हो गयी तथा सुमति नाराज हो गए परन्तु जल्द ही गुस्सा ठंडा हो गया और वे लङ्कोर में एक अच्छी जगह पर ठहरे। 

         वे अब तिट्टी के मैदान में थे जो की पहाड़ों से घिरा टापूथा सामने एक छोटी सी पहाड़ी दिखाई पड़ती थी जिसका नाम तिट्टी–समाधि–गिटी था। आसपास के गाँवों में सुमति के बहुत परिचित थे वे उनसे जाकर मिलना चाहते थे परन्तु लेखक ने उन्हें मना कर दिया और ल्हासा पहुंचकर पैसे देने का वादा किया। सुमति मान गए और उन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया। उन्होंने सुबह चलना शुरू नहीं किया था इसीलिए उन्हें कड़ी धूप में आगे बढ़ना पड़ रहा था, वे पीठ पे अपनी चीज़े लादे और हाथ में डंडा लिए चल रहे थे। सुमति एक ओर यजमान से मिलना चाहते थे इसलिए उन्होंने बहाना कर टोकर विहार की ओर चलने को कहा। तिब्बत की जमीन छोटे–बड़े जागीरदारों के हाथों में बँटी है। इन जागीरों का बड़ा हिस्सा मठों के हाथ में है।अपनी–अपनी जागीर में हर जागीरदार कुछ खेती खुद भी करता है जिसके लिए मजदुर उन्हें बेगार में मिल जाते हैं।

        लेखक शेकर की खेती के मुखिया भिक्षु न्मसे से मिले। वहां एक अच्छा मंदिर था जिसमें बुद्ध वचन की हस्तलिखित 103 पोथियाँ रखी थीं जिसे लेखक पढ़ने में लग गए इसी दौरान सुमति ने आसपास अपने यजमानों से मिलकर आने के लिए लेखक से पूछा जिसे लेखक ने मान लिया, दोपहर तक सुमति वापस आ गए। चूँकि तिट्टी वहां से ज्यादा दूर नहीं था इसीलिए उन्होंने अपना सामान पीठ पर उठाया और न्मसे से विदा लेकर चल दिए। 

          सुमित का परिचय– वह लेखक को यात्रा के दौरान मिला जो एक मंगोल भिक्षु था। उनका नाम लोब्ज़टोख था। इसका अर्थ हैं सुमति प्रज. अतः सुविधा के लिए लेखक ने उसे सुमति नाम से पुकारा हैं। 

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NCERT Solution – Lhasa ki aur

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