शुक्र तारे के समान पाठ का सारांश | Shukra Tare Ke Saman Summary class 9 Chapter-8 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

स्वामी आनंद

इनका जन्म गुजरात के कठियावाड़ जिले के किमड़ी गाँव में सन 1887 को हुआ। इनका मूल नाम हिम्मतलाल था। जब ये दस साल के थे तभी कुछ साधु इन्हें अपने साथ हिमालय की ओर ले गए और इनका नामकरण किया – स्वामी आनंद। १९०७ में स्वामी आनंद स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। 1917 में गाँधे जी के संसर्ग में आने के बाद उन्हीं के निदेशन में ‘ नवजीवन’ और ‘ यंग इंडिया ’ के प्रसार व्यवस्था संभाल ली। इसी बहाने उन्हें गाँधी जी और उनके निजी सहयोगी महादेव भाई देसाई और बाद में प्यारेलाल जी को निकट से जानने का अवसर मिला।

शुक्रतारे के समान पाठ का सारांश : Summary

प्रस्तुत पाठ ‘शुक्र तारे के समान’ में लेखक ने गाँधी जी के निजी सचिव महादेव भाई देसाई की बेजोड़ प्रतिभा और व्यस्ततम दिनचर्या को उकेरा है। उन्होंने महादेव भाई की तुलना शुक्र तारे से की है जो सारे आकाश को जगमगा कर, दुनिया को मुग्ध करके अस्त हो जाता है। सन 1917 में में वे गांधीजी से मिले तब गांधीजी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी का पद सौंप दिया। सन 1919 में जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के दिनों में गांधीजी ने गिरफ्तार होते समय महादेव जी को अपना वारिस कहा था। उन दिनों गांधीजी के सामने अंग्रेज़ों द्वारा अत्याचारों और जुल्मो की जो दल कहानियाँ सुनाने आते थे, महादेव भाई उनकी संक्ष्पित टिप्पणियाँ बनाकर उन्हें रु-बू-रु मिलवाते थे।

‘क्रॉनिकल’ के संपादक हार्नीमैन को देश निकाले की सजा मिलने पर ‘यंग इंडिया’ साप्ताहिक में लेखों की कमी पड़ने लगी चूँकि हार्नीमैन ही मुख्य रूप से लेख लिखते थे। इसीलिए ये जिमेदारी गांधीजी ने ले ली, बाद में उनका काम बढ़ने के कारण इस अखबार को सप्ताह में दो बार निकालना पड़ा। कुछ दिन बाद अखबार की जिमेवारी लेखक के हाथों में आ गयी। महादेव भाई और गांधीजी का सारा समय देश-भम्रण में बीतने लगा, परन्तु महादेव जी जहाँ भी होते समय निकालकर लेख लिखते और भेजते। महादेव भाई गांधीजी के यात्राओं और दिन प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में लिखते, साथ ही देश-विदेश के समाचारों को पढ़कर उसपर टिका-टिप्पणियाँ भी लिखते।अपने तीर्व बुद्धि के कारण देसी-विदेशी समाचार पत्र वालों के ये लाड़ले बन गए। गांधीजी के पास आने से पहले ये सरकार के अनुवाद विभाग में नौकरी करते थे। इन्होने कई साहित्यों का अनुवाद किया था।
गांधीजी के पत्रों में महादेव भाई की लिखावट होती थी। उनकी लिखावट लम्बी सी जेट की गति सी लिखी जाती थी, वे शॉर्टहैंड नही जानते थे, परन्तु उनकी लेखनी में कॉमा मात्र की भी गलती नही होती थी इसलिए गांधीजी भी अपने मिलने वालों से बातचीत को उनकी नोटबुक से मिलान करने को कहते थे। वे अपने बड़े-बड़े झोलों में ताजे समाचार पात्र और पुस्तकें रखा करते जिसे वे  रेलगाड़ी, रैलियों तथा सभाओं में पढ़ते थे या फिर ‘नवजीवन’ या ‘यंग इंडिया’ के लिए लेख लिखते रहते। वे इतने वयस्थ समय में अपने लिए कब वक्त निकालते पता नही चलता, एक घंटे में चार घंटो का काम निपटा देते। महादेव भाई गांधीजी के जीवन में इतने रच-बस-गए थे की उनके बिना महदेव भाई की अकेले कल्पना नही की जा सकती।

उन्होंने गांधीजी की पुस्तक ‘सत्य का प्रयोग’ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया। सन 1934-35 में गांधीजी मगनवाड़ी से चलकर सेगांव चले गए परन्तु महादेव जी मगंवादी में ही रहे। वे रोज वहां से पैदल चलकर सेगांव जाते तथा शाम को काम निपटाकर वापस आते, जो की कुल 11 मिल था। इस कारण उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और वे अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। इनके मृत्यु का दुःख गांधीजी को आजीवन रहा।

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NCERT Solution –Shukra Tare Ke Saman

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वैज्ञानिक चेतना के वाहक पाठ का सारांश | Tum Kab Jaoge Atithi Summary class 9 Chapter-5 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

धीरंजन मालवे

लेखक परिचय

धीरंजन मालवे

इनका जन्म बिहार के नालंदा जिले के डुंवरावाँ गाँव में 9 मार्च 1952 को हुआ। ये एम.एससी (सांख्यिकी), एम. बी.ए और एल.एल.बी हैं। वे आज भी वैज्ञानिक जानकारी को आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने में लगे हुए हैं। मालवे ने कई भरतीय वैज्ञानिकों की संक्षिप्त जीवनियाँ लिखी हैं, जो इनकी पुस्तक ‘विश्व-विख्यात भारतीय वैज्ञानिक’ पुस्तक में समाहित हैं।

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन पाठ का सारांश : Very Short Summary

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन्’ प्रस्तुत पाठ भारत के महान वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकट रामन के जीवन पर आधारित है। इसके लेखक धीरंजन मालवे जी ने भारत की इस महान विभूति को यह पाठ समर्पित किया है। रामन जी गुलाम भारत के सफल और प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। उन्होंने पूरे विश्व में अपनी योग्यता का परचम फहराया। वह पहले ऐसे भारतीय नागरिक थे, जिन्हें अपनी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने पूरे विश्व में यह सिद्ध कर दिया की गुलाम देश के नागरिक में भी कुछ कर दिखाने की योग्यता होती है। रामन एक प्रतिभावान छात्र थे। लेखक ने हमारे देश के इस प्रतिभावान छात्र के संघर्षमय जीवन और उपलब्धियों को हमारे सम्मुख रखा है। उन्होंने इस पाठ में रामन जी के जीवन के हर उस क्षण को दिया है, जो हमें उस प्रतिभावान व्यक्ति से परिचित करवा सके। पाठक को उनके विषय में पूरी और सही जानकारी प्राप्त हो सके। 

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन पाठ का सारांश : Detailed Summary

यह लेख वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकट रामन की संघर्षमय जीवन यात्रा तथा उनकी उपलब्धियों की जानकारी बखूबी कराता है। रामन ग्यारह साल की उम्र में मैट्रिक, विशेष योग्यता की साथ इंटरमीडिएट, भौतिकी और अंग्रेज़ी में स्वर्ण पदक के साथ बी. ए. और प्रथम श्रेणी में एम. ए. करके मात्र अठारह साल की उम्र में कोलकाता में भारत सरकार के फाइंनेस डिपार्टमेंट में सहायक जनरल एकाउटेंट नियुक्त कर लिए गए थे। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे। इस दौरान वे बहूबाज़ार स्थित प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करके शोध कार्य करते थे।

फिर उन्होंने अनेक भारतीय वाद्ययंत्रों का अध्ययन किया और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिम देशों की इस भ्रांति को तोड़ने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं। बाद में वे सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद को स्वीकार किया । यहां वे अपना सारा समय अध्ययन, अध्यापन और शोध में बिताने लगे। सन 1921 में जब रामन समुद्री यात्रा पर थे तो समुद्र के नीले रंग को देखकर उसके वज़ह का सवाल हिलोरें मारने लगा। उन्होंने इस दिशा में आगे प्रयोग किए तथा इसका परिणाम ‘रामन प्रभाव’ की खोज के रूप में सामने लाया। रामन की खोज की वजह से पदार्थों मे अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया।

उन्हें ‘भारत रत्न’ तथा ‘नोबल पुरस्कारों’ सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारतीय संस्कृति से रामन को हमेशा ही लगाव रहा। उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा बनाए रखा। वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे। उन्होंने बैंगलोर में एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान ‘रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। रामन वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमुर्त्ति थे।उन्होंने हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टि से करने का संदेश दिया।

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NCERT Solution -वैज्ञानिक चेतना के वाहक

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तुम कब जाओगे पाठ का सारांश | Tum Kab Jaoge Atithi Summary class 9 Chapter-4 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

तुम कब जाओगे पाठ का सारांश |  Tum Kab Jaoge Atithi Summary class 9 Chapter-4 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

शरद जोशी
इनका जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में 21 मई 1931 को हुआ। इनका बचपन कई शहरों में बिता। कुछ समय तक यह सरकारी नौकरी में रहे फिर इन्होने लेखन को ही आजीविका के रूप में अपना लिया। इन्होंने व्यंग्य लेख , व्यंग्य उपन्यास , व्यंग्य कॉलम के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे। सन  1991 में इनका देहांत हो गया।

तुम कब जाओगे अतिथि पाठ का सारांश : Very Short Summary

लेखक के घर पर एक अतिथि चार दिनों से रह रहा है जिसे देखते हुए वे कहते हैं कि हे अतिथि ! तुम्हें देखते ही मेरा बटुआ काँप गया था। फिर भी हमने भरसक मुस्कान के साथ तुम्हारा स्वागत किया था। रात के भोजन को मध्यम- वर्गीय डिनर जैसा भारी-भरकम बना दिया था। सोचा था कि तुम सुबह चले जाओगे। पर ऐसा नहीं हुआ। तुम यहाँ आराम से सिगरेट के छल्ले उड़ा रहे हो। उधर मैं तुम्हारे सामने कैलेण्डर की तारीखें बदल-बदलकर तुम्हें जाने का संकेत दे रहा हूँ। तीसरे दिन तुमने कपड़े धुलवाने की फ़रमाइश की। कपड़े धुलकर आ गए लेकिन तुम नहीं गए। पत्नी ने सुना तो वह भी आँखें तरेरने लगी। चौथे दिन कपड़े धुलकर आ गए , फिर भी तुम डटे हुए हो। बातचीत के सभी विषय समाप्त हो गए हैं। दोनों अपने अपने में मग्न होकर पढ़ रहे हैं, सौहार्द समाप्त हो चला है। भावनाएँ गालियाँ बनती जा रही हैं। सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो चुकी है, अब भोजन में खिचड़ी बनने लगी है। घर को स्वीट होम कहा गया है , पर तुम्हारे होने से घर का स्वीटनेस खत्म हो गया है। अब तुम चले जाओ वर्ना मुझे ‘ गेट आउट ’ कहना पड़ेगा।यदि तुम अपने आप कल सुबह चले न गए तो मेरी सहनशीलता जवाब दे जाएगी। माना तुम देवता हो किंतु मैं तो आदमी हूँ। मनुष्य और देवता ज़्यादा देर साथ नहीं रह सकते। इसलिए अपना देवत्व सुरक्षित रखना चाहते हो तो अपने आप विदा हो जाओ। तुम कब जाओगे , अतिथि ?

तुम कब जाओगे अतिथि पाठ का सारांश : Detailed Summary

प्रस्तुत पाठ तुम कब जाओगे, अतिथि लेखक शरद जोशी जी के द्वारा लिखित है | इस पाठ में लेखक ने ऐसे व्यक्तियों की व्यंग्यात्मक ढंग से ख़बर ली है, जो अपने किसी परिचित या रिश्तेदार के घर बिना कोई पूर्व सूचना दिए चले आते हैं और फिर जाने का नाम ही नहीं लेते | भले ही उनका ज्यादा समय तक टिके रहना मेज़बान के लिए तकलीफ़ देय ही क्यूँ न हो | 

प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक अतिथि सत्कार से ऊबकर उसे अपने मन की भावना से संबोधित करते हुए कहते हैं कि आज तुम्हारे आगमन के चतुर्थ दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में घुमड़ रहा है — तुम कब जाओगे, अतिथि ? तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है, तुम्हारे सतत् आतिथ्य का चौथा भारी दिन ! पर तुम्हारे जाने की कोई सम्भावना प्रतीत नहीं होती | अब तुम लौट जाओ, अतिथि ! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय है | क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वी नहीं पुकारती ? 

आगे प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक कहते हैं कि अतिथि ! तुम्हें देखते ही मेरा बटुआ काँप गया था | फिर भी हमने मुस्कुराहट के साथ तुम्हारा स्वागत किया था | मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते किया था | रात के भोजन को मध्यम-वर्गीय डिनर में बदल दिया था | सोचा था कि तुम दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमाननवाज़ी की छाप अपने हृदय में बसाकर एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाओगे |परन्तु, ऐसा नहीं हुआ | तुम यहाँ आराम से सिगरेट के छल्ले उड़ा रहे | उधर मैं तुम्हारे सामने कैलेण्डर की तारीखें बदल-बदलकर तुम्हें जाने का संकेत दे देता रहा हूँ | 

आगे प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक कहते हैं कि तीसरे दिन तो तुमने कपड़े धुलवाने की फ़रमाइश कर दी | पत्नी ने सुना तो वह भी आँखें तरेरने लगी | जब चौथे दिन कपड़े धुलकर आ गए, तो फिर भी तुम डटे रहे | अतिथि ! तुम्हें देखकर फूट पड़ने वाली मुस्कुराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त होने लगी है | ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब नज़र नहीं आते | बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है — तुम कब जाओगे, अतिथि ? 

आगे प्रस्तुत पाठ के अनुसार, बातचीत के सभी विषय समाप्त हो गए हैं | दोनों खुद में मग्न होकर पढ़ रहे हैं | आपसी सौहार्द समाप्ति के कगार पर है | सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो चुकी है | अब भोजन में खिचड़ी बनने लगी है | लेखक कहते हैं कि घर को स्वीट होम कहा गया है, परन्तु तुम्हारे होने से घर का स्वीटनेस खत्म हो गया है | अब तुम चले जाओ वर्ना मुझे मजबूरन ‘गेट आउट’ कहना पड़ेगा | माना कि तुम देवता हो, किंतु मैं तो आदमी हूँ | मनुष्य और देवता अधिक देर तक साथ नहीं रह सकते | तुम लौट जाओ अतिथि ! इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा | उफ ! तुम कब जाओगे, अतिथि…? 

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एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश | Everest Meri Shikhar Yatra Summary class 9 Chapter-3 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

बचेंद्री पाल

लेखक परिचय

बचेंद्री पाल

इनका जन्म सन 24 मई, 1954 को उत्तरांचल के चमोली जिले के बमपा गाँव में हुआ। पिता पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते थे। अत: बचेंद्री को आठवीं से आगे की पढ़ाई का खर्च सिलाई-कढ़ाई करके जुटाना पड़ा। विषम परिस्थितियों के बावज़ूद बचेंद्री ने संस्कृत में एम.ए. और फिर बी. एड. की शिक्षा हासिल की। बचेंद्री को पहाद़्ओं पर चढ़ने शौक़ बचपन से था। पढ़ाई पूरी करके वह एवरेस्ट अभियान – दल में शामिल हो गईं। कई महीनों के अभ्यास के बाद आखिर वह दिन आ ही गया , जब उन्होंने एवरेस्ट विजय के लिए प्रयाण किया।

Everest Meri Shikhar Yatra Summary | एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश : Short Summary

प्रस्तुत लेख में बचेंद्री पाल ने अपने अभियान का रोमांचकारी वर्णन किया है कि 7 मार्च को एवरेस्ट अभियान दल दिल्ली से काठमांडू के लिए चला। नमचे बाज़ार से लेखिका ने एवरेस्ट को निहारा। लेखिका ने एवरेस्ट पर एक बड़ा भारी बर्फ़ का फूल देखा। यह तेज़ हवा के कारण बनता है। 26 मार्च को अभियान दल पैरिच पहुँचा तो पता चला कि खुंभु हिमपात पर जाने वाले शेरपा कुलियों में से बर्फ़ खिसकने के कारन एक कुली की मॄत्यु हो गई और चार लोग घायल हो गए। बेस कैंप पहुँचकर पता चला कि प्रतिकूल जलवायु के कारण एक रसोई सहायक की मृत्यु हो गई है। फिर दल को ज़रुरी प्रशिक्षण दिया गया। 29 अप्रैल को वे 7900 मीटर ऊँचाई पर स्थित बेस कैंप पहुँचे जहाँ तेनजिंग ने लेखिका का हौसला बढ़ाया। 15-16 मई, 1984 को अचानक रात 12:30 बजे कैंप पर ग्लेशियर टूट पड़ा जिससे कैंप तहस-नहस हो गया , हर व्यक्‍ति चोट-ग्रस्त हुआ। लेखिका बर्फ़ में दब गई थी। उन्हें बर्फ़ से निकाला गया। फिर कुछ दिनों बाद लेखिका साउथकोल कैंप पहुँची। वहाँ उन्होंने पीछे आने वाले साथियों की मदद करके सबको खुश कर दिया। अगले दिन वह प्रात: ही अंगदोरज़ी के साथ शिखर – यात्रा पर निकली। अथक परिश्रम के बाद वे शिखर – कैंप पहुँचे। एक और साथी ल्हाटू के आ जाने से और ऑक्सीजन आपूर्ति बढ़ जाने से चढ़ाई आसान हो गई। 23 मई , 1984 को दोपहर 1:07 बजे लेखिका एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी। वह एवरेस्त पर चढ़ने वाली पहली भारतीय  महिला थी। चोटी पर दो व्यक्तियों के साथ खड़े होने की ज़गह नहीं थी, उन्होंने बर्फ के फावड़े से बर्फ की खुदाई कर अपने आप को सुरक्षित किया। लेखिका ने घुटनों के बल बैठकर ‘सागरमाथे’ के ताज को चूमा। फिर दुर्गा माँ तथा हनुमान चालीसा को कपडे में लपेटकर बर्फ़ में दबा दिया। अंगदोरज़ी ने उन्हें गले से लगकर बधाई दी। कर्नल खुल्लर ने उन्हें बधाई देते हुए कहा – मैं तुम्हरे मात-पिता को बधाई देना चाहूँगा। देश को तुम पर गर्व है। अब तुम जो नीचे आओगी , तो तुम्हें एक नया संसार देखने को मिलेगा।

Everest Meri Shikhar Yatra Summary | एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश : Detailed Summary

Everest Meri Shikhar Yatra Summary | एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश : Detailed Summary

लेखिका बचेंद्री पाल एवरेस्ट विजय के जिस अभियान दल में एक सदस्य थीं, लेखिका उस अभियान दल के साथ 7 मार्च, 1984 को दिल्ली से काठमांडू के लिए हवाई जहाज़ से गयी। एक मजबूत अग्रिम दल  हमारे पहुचने से पहले ‘बेस कैम्प’ पहुँच गया जो उस उबड-खाबड़ हिमपात के रास्ते को साफ कर सके,लेखिका एक स्थान का जिक्र किया जिसका नाम नमचे बाज़ार है और वहाँ से एवरेस्ट की प्राकृतिक छटा का बहुत सुंदर निरीक्षण किया जा सकता है। लेखिका ने बहुत भारी बड़ा सा बर्फ का फूल (प्लूम) देखा जो उन्हें आश्चर्य में डाल दिया। लेखिका केअनुसार वह बर्फ़ का फूल 10 कि.मी. तक लंबा हो सकता था।

          इस अभियान दल के सदस्य पैरिच नामक स्थान पर 26 मार्च को पहुँचे, जहाँ से आरोहियों और काफ़िलों के दल पर प्राकृतिक आपदा मँडराने लगी। यह संयोग की बात था कि 26 मार्च को अग्रिम दल में शामिल प्रेमचंद पैरिच लौट आए थे। उनसे खबर मिली कि 6000 मी. की ऊँचाई पर कैंप-1 तक जाने का रास्ता पुरी तरह से साफ़ कर दिया गया है। दूसरे-तीसरे दिन पार कर चौथे दिन दल के सदस्य अंगदोरजी, गगन बिस्सा और लोपसांग साउथ कोल पहुंच गए। 29 अप्रैल को 7900 मीटर की ऊँचाई पर उन लोगों ने कैंप-4 लगाया। लेखिका 15-16 मई, 1984 को बुद्ध पूर्णिमा के दिन ल्होत्से की बर्फीली सीधी ढलान पर लगाए गए सुंदर रंग के नाइलोन के बने टेंट के कैंप-3 में थी। कैंप में 10 और व्यक्ति थे। साउथ कोल कैंप पहुँचने पर लेखिका ने अपनी महत्वपूर्ण चढ़ाई की तैयारी शुरू कर दी। सारी तैयारिओं के बीच अभियान चल रही थी , पर्वतारोही दल आगे बढ़ता रहा और 23 मई, 1984 दोपहर के एक बजकर सात मिनट पर लेखिका एवरेस्ट की चोटी पर पहुँच गई।

        एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी होकर लेखिका ने अद्भुत अनुभव किया। लेखिका ने उन छोटी-छोटी भावों को भी लिपिबद्ध किया, जिन भावों को अभिव्यक्त कर पाना बहुत कठिन है। इस सफलता के बाद लेखिका को बहुत सारी बधाईयाँ मिली। लेखिका ने उस स्थान को फरसे से काटकर चौड़ा किया, जिस पर वह खड़ी हो सके। उन्होंने वहा राष्ट्रध्वज फहराया, और कुछ संक्षिप्त पूजा-अर्चना भी किया । विजय दल का वर्णन किया ,लेखिका ने वर्णनात्मक शैली को एकरूप बनाए रखा कि पाठक को इन घटनाओं का वर्णन आँखों देखा दृश्य जैसा लगने लगा।

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NCERT Solution -एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा

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दुःख का अधिकार पाठ का सारांश | Dukh ka Adhikar Summary class 9 Chapter-2 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

यशपाल

लेखक परिचय

यशपाल
इनका जन्म फ़िरोज़पुर छावनी में सन 1903 में हुआ। इन्होंने आरंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में और उच्च शिक्षा लाहौर में पाई। वे विद्यार्थी काल से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गए थे। अमर शहीद भगत सिंह आदि के साथ मिलकर इन्होंने भारतीय आंदोलन में भाग लिया। सन 1976 में इनका देहांत ही गया।

कक्षा 9 स्पर्श भाग 1 पाठ 1 ”दुःख का अधिकार” : Very Short Summary

लेखक ने कहा है कि मनुष्यों की पोशाकें उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बाँट देती हैं। प्राय: पोशाक की समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्ज़ा निश्चित करती है। हम जब झुककर निचली श्रेणियों की अनुभूति को समझना चाहते हैं तो यह पोशाक ही बंधन और अड़चन बन जाती है। बाज़ार में खरबूजे बेचने आई एक औरत कपड़े में मुँह छिपाए सिर को घुटनों पर रखे फफक-फफककर रो रही थी। पड़ोस के लोग उसे घृणा की नज़रों से देखते हैं और उसे बुरा-भला कहते हैं। पास-पड़ोस की दुकानों से पूछने पर पता चलता है कि उसका तेईस बरस का लड़का परसों सुबह साँप के डसने से मर गया था। जो कुछ घर में था , सब उसे विदा करने में चला गया था। घर में उसकी बहू और पोते भूख से बिल-बिला रहे थे। इसलिए वह बेबस होकर खरबूज़े बेचने आई थी ताकि उन्हें कुछ खिला सके ; परंतु सब उसकी निंदा कर रहे थे , इसलिए वह रो रही थी। लेखक ने उसके दुख की तुलना अपने पड़ोस के एक संभ्रांत महिला के दुख से करने लगता है जिसके दुख से शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र-शोक से द्रवित हो उठे थे। लेखक सोचता चला जा रहा था कि शोक करने, ग़म मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और दु:खी होने का भी एक अधिकार होता है।

कक्षा 9 स्पर्श भाग 1 पाठ 1 ''दुःख का अधिकार” : Detailed Summary

कक्षा 9 स्पर्श भाग 1 पाठ 1 ”दुःख का अधिकार” : Detailed Summary

प्रस्तुत पाठ या कहानी दुःख का अधिकार लेखक यशपाल जी के द्वारा लिखित है | इस कहानी के माध्यम से लेखक देश या समाज में फैले अंधविश्वासों और ऊँच-नीच के भेद भाव को बेनकाब करते हुए यह बताने का प्रयास किए हैं कि दुःख की अनुभूति सभी को समान रूप से होती है | प्रस्तुत कहानी धनी लोगों की अमानवीयता और गरीबों की मजबूरी को भी पूरी गहराई से चित्रण करती है | 

पाठ के अनुसार, लेखक कहते हैं कि मानव की पोशाकें या पहनावा ही उन्हें अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित करती हैं | वास्तव में पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्ज़ा निश्चित करती है | जिस तरह वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिरने देतीं, ठीक उसी प्रकार जब हम झुककर निचली श्रेणियों या तबके की अनुभूति को समझना चाहते हैं तो यह पोशाक ही बंधन और अड़चन बन जाती है | 

पाठ के अनुसार, आगे लेखक कहते हैं कि बाज़ार में खरबूजे बेचने आई एक अधेड़ उम्र की महिला कपड़े में मुँह छिपाए और सिर को घुटनों पर रखे फफक-फफककर रो रही थी | आस-पड़ोस के लोग उसे घृणित नज़रों से देखते हुए बुरा-भला कहते नहीं थक रहे थे | 

लेखक आगे कहते हैं कि आस-पड़ोस की दुकानों से पूछने पर पता चला कि उस महिला का तेईस बरस का लड़का परसों सुबह साँप के डसने के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ था | जो कुछ भी घर में बचा था , वह सब मृत बेटे को विदा करने में चला गया | घर में उसकी बहू और पोते भूख से परेशान थे | 

इन्हीं सब कारणों से वह वृद्ध महिला बेबस होकर भगवाना के बटोरे हुए खरबूज़े बेचने बाज़ार चली आई थी, ताकि वह घर के लोगों की मदद कर सके | परन्तु, बाजार में सब मजाक उड़ा रहे थे | इसलिए वह रो रही थी | बीच-बीच में बेहोश भी हो जाती थी | वास्तव में, लेखक उस महिला के दुःख की तुलना अपने पड़ोस के एक संभ्रांत महिला के दुःख से करने लगता है, जिसके दुःख से शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र-शोक से द्रवित हो उठे थे | लेखक अपने मन में यही सोचता चला जा रहा था कि दु:खी होने और शोक करने का भी एक अधिकार होना चाहिए…|| 

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NCERT Solution -दुःख का अधिकार

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धूल पाठ का सारांश | Dhool Summary class 9 Chapter-1 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

धूल पाठ का सारांश |  Dhool Summary class 9 Chapter-1 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

रामविलास शर्मा
इनका जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले में सन 1912 में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा इन्होने गाँव में ही पायी तथा उच्चा शिक्षा के लिए लखनऊ आ गए, वहां से अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद विश्वविधालय में प्राध्यापक और पीएच डी की डिग्री हासिल की। लेखन के क्षेत्र में पहले-पहले कविताएँ लिखकर फिर एक उपन्यास और नाटक लिखने के बाद पूरी तरह से आलोचना कार्य में जुट गए।

धूल पाठ का सारांश : Very Short Summary

धूल’ पाठ में लेखक रामविलास शर्मा ने धूल के महत्व का वर्णन किया है। लेखक स्वयं गाँव से जुड़े हुए व्यक्ति हैं। आज के लोगों द्वारा धूल की अनदेखी उन्हें अच्छी नहीं लगती है। उनके अनुसार गाँव में, पहलवानों के अखाड़े में, किसानों के लिए और बच्चों के लिए गोधूलि बहुत महत्वपूर्ण है। परन्तु विडंबना देखिए कि शहरों में लोग इस धूल को गंदगी मान कर इससे बचने का प्रयास करते हैं। लेखक को यह बात बुरी लगती है। इसलिए इस पाठ में लेखक ने धूल के महत्व, उसकी विशेषता और भारत के गाँवों  में धूल की महिमा का वर्णन किया है। उन्होंने अलग-अलग उदाहरणों द्वारा यह बताने का प्रयास किया है कि धूल कितनी अमूल्य धरोहर है, हम भारतीयों के लिए। उन्होंने पूरे पाठ में हमारे जीवन में धूल की उपस्थिति का वर्णन किया है।

धूल पाठ का सारांश : Detailed Summary

प्रस्तुत पाठ धूल लेखक रामविलास शर्मा जी के द्वारा लिखित है | इस पाठ में लेखक ने धूल की महिमा और महात्म्य, उपयोगिता और उपलब्धता का बखान करते हुए देशज शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों और दूसरे रचनाकारों की रचनाओं के उद्धरणों से ली गई सूक्तियों तथा पंक्तियों का बख़ूबी इस्तेमाल किया है | वास्तव में लेखक अपने किशोरावस्था और युवावस्था में पहलवानी के शौकीन थे, जिस कारण से रामविलास शर्मा जी अपने इस पाठ के माध्यम से पाठकों को अखाड़ों, गाँवों और शहरों के जीवन-जगत की भी सैर कराते हैं | इसके साथ ही लेखक धूल के नन्हें कणों के वर्णन से देश प्रेम तक का भाव पाठकों के हृदय में सृजित करने में सफल हो जाते हैं | 

प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक ने धूल-धूसरित शिशुओं को धूल भरे हीरे कहकर संबोधित किया है | इसी संदर्भ में एक काव्य पंक्ति का उल्लेख करते हुए लेखक कहते हैं कि — ‘जिसके कारण धूलि भरे हीरे कहलाए |’ लेखक के अनुसार, धूल के बिना शिशुओं की कल्पना नहीं की जा सकती है | हमारी सभ्यता धूल के संसर्ग से बचना चाहती है | वह आसमान में अपना घर बनाना चाहती है | 

आगे प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक कहते हैं कि जो बचपन में धूल से खेला है , वह जवानी में अखाड़े की मिट्टी में सनने से वंचित नहीं रह सकता है | यदि रहता भी है तो उसका दुर्भाग्य है और क्या ! आगे लेखक कहते हैं कि शरीर और मिट्टी को लेकर संसार की असारता पर बहुत कुछ कहा जा सकता है, परन्तु यह भी ध्यान देने की बात है कि जितने सारतत्व जीवन के लिए अनिवार्य हैं, वे सब मिट्टी से ही मिलते हैं | लेखक कहते हैं कि माना कि मिट्टी और धूल में अंतर है, लेकिन उतना ही, जितना शब्द और रस में, देह और प्राण में, चाँद और चाँदनी में | मिट्टी की आभा का नाम धूल है और मिट्टी के रंग-रूप की पहचान उसकी धूल से ही होती है | 

प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक का स्पष्ट मत है कि ग्राम भाषाएँ अपने सूक्ष्म बोध से धूल की जगह गर्द का प्रयोग कभी नहीं करतीं | ग्राम भाषाओं में हमने गोधूलि शब्द को अमर कर दिया है | लेखक रामविलास शर्मा जी कहते हैं कि गोधूलि पर कितने कवियों ने अपनी कलम नहीं तोड़ दी, लेकिन यह गोधूलि गाँव की अपनी संपत्ति है , जो शहरों के बाटे नहीं पड़ी | धूल, धूलि, धूली, धूरि आदि की व्यंजनाएँ अलग-अलग हैं | धूल जीवन का यथार्थवादी गद्य, धूलि उसकी कविता है | धूली छायावादी दर्शन है, जिसकी वास्तविकता संदिग्ध है और धूरि लोक-संस्कृति का नवीन जागरण है | इन सबका रंग एक ही है, रूप में भिन्नता जो भी हो | लेखक कहते हैं कि मिट्टी काली, पीली, लाल तरह-तरह की होती है, लेकिन धूल कहते ही शरत् के धुले-उजले बादलों का स्मरण हो आता है | धूल के लिए श्वेत नाम का विशेषण अनावश्यक है, वह उसका सहज रंग है | 

प्रस्तुत पाठ के अनुसार, आगे लेखक कहते हैं कि हमारी देशभक्ति धूल को माथे से न लगाए तो कम-से-कम उस पर पैर तो रखे | लेखक कहते हैं कि ये धूल रूपी हीरे अमर हैं और एकदिन अपनी अमरता का प्रमाण भी देंगे | लेखक ‘रामविलास शर्मा’ जी को पूर्ण विश्वास है कि इस पाठ को पढ़ने के पश्चात् पाठक ‘धूल’ को यूँ ही धूल में न उड़ा सकेगा…|| 

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NCERT Solution -धूल

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बच्चे काम पर जा रहे हैं का भावार्थ | Bachche Kam Par Ja Rahe Hain Summary class 9 Chapter-17 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

राजेश जोशी

कवि परिचय

राजेश जोशी
इनका जन्म सन 1946 में मध्य प्रदेश के नरसिंहगढ़ जिले में हुआ। उन्होंने पत्रकारिता, अध्यापन कार्य भी किया। इन्होने कविताओं के अलावा कहानियाँ, नाटक, लेख, और टिप्पणियाँ भी लिखीं। उनकी कविताएँ गहरे सामाजिक अभिप्राय वाली होती हैं।

बच्चे काम पर जा रहे हैं का सारांश: Short Summary

इस कविता में बच्चों से बचपन छीन लिए जाने की पीड़ा व्यक्त हुई है। कवि ने उस सामाजिक – आर्थिक विडंबना की ओर इशारा किया है जिसमें कुछ बच्चे खेल , शिक्षा और जीवन की उमंग से वंचित हैं। कवि कहता है कि बच्चों का काम पर जाना आज के ज़माने में बड़ी भयानक बात है। यह उनके खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने के दिन हैं। फिर भी वे काम करने को मजबूर हैं। उनके विकास के लिए सभी चीज़ों के रहते हुए भी उनका काम पर जाना कितनी भयानक बात है। अपनी कविता के माध्यम से वह समाज को जागृत करना चाहते हैं ताकि बच्चों के बचपन को काम की भट्टी में झौंकने से रोका जा सके।

Bachche Kam Par Ja Rahe Hain Class 9 Explanation बच्चे काम पर जा रहे हैं का भावार्थ

काव्यांश 1.

कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे ?

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि सुबह-सुबह की कड़ाके की ठंड में , जब पूरी सड़क कोहरे से ढकी है। उस समय बच्चे काम पर जा रहे हैं। मजदूरी करने के लिए या रोजी-रोटी कमाने के लिए घर से निकल कर , वो इस भयानक ठंड में काम पर जा रहे हैं।

कवि आगे कहते हैं कि बच्चे काम पर जा रहे हैं। यह हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है अर्थात जिस उम्र में बच्चों को खेलना-कूदना चाहिए , स्कूल जाना चाहिए , मौज मस्ती करनी चाहिए। उस समय वो इतनी बड़ी जिम्मेदारी भरा काम कर रहे हैं। अपने गरीब मां-बाप की जिम्मेदारियां बांटने के लिए , अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए अपना बचपन कुर्बान कर रहे हैं। और वो ऐसा करने के लिए विवश है , मजबूर हैं। इससे ज्यादा और क्या भयानक होगा।

अगली पंक्तियों में बच्चों को काम पर जाता देखकर कवि का मन बहुत दुखी है , व्यथित हैं। वो कहते हैं कि “बच्चे काम पर क्यों जा रहे हैं ” , इसे एक गंभीर प्रश्न की तरह हमें अपनी जिम्मेदार सरकार से पूछना चाहिए , समाज के तथाकथित ठेकेदारों से पूछना चाहिए।बजाय इसे एक विवरण की तरह लिखने के। यानि कागजों में आंकड़े इकठ्ठे करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। 

हमें यह बात पूछनी चाहिए कि ऐसी क्या स्थितियां बन गई कि छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ने लिखने , खेलने कूदने की उम्र में काम पर जाना पड़ रहा है। अपने घर की जिम्मेदारियों में हाथ बटाँना पड़ा है। स्कूल जाना छोड़ कर , मजदूरी करने जाना पड़ रहा है। आखिर क्यों उनसे उनका बचपन इस बेरहमी से छीना जा रहा है।

काव्यांश 2.

क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया है
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्या काले पहाड़ के निचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें

क्या सारे मैदान , सारे बगीचे और घरों के आँगन
ख़त्म हो गए हैं एकाएक

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि बच्चों को काम पर जाना पड़ा है।यहां पर कवि एक साथ कई सारे सवाल करते हैं। वो कहते हैं कि क्या बच्चों के खेलने वाली सारी गेंदें अंतरिक्ष में गिर गयी हैं या फिर उनकी रंग-बिरंगी कार्टून वाली सारी कहानियां की किताबें दीमकों ने खा ली है।

क्या बच्चों के सारे खिलौने किसी काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं या फिर सारे स्कूलों के भवन किसी भूकंप की वजह से गिर गये हैं। यानी सारे स्कूल खत्म हो चुके हैं।

कवि आगे और सवाल करते हैं कि वो सारे खेल के मैदान , जहां बच्चे दिनभर खूब खेलते हैं। वो सारे बाग-बगीचे जिनमें बच्चे दौड़-दौड़ कर तितलियों पकड़ते हैं या फल-फूल खाने के लिए घूमते फिरते हैं।

और घरों के वो आंगन , जहां बच्चे दिनभर धमाचौकड़ी करते रहते हैं। वो कहाँ गये। क्या वह सब खत्म हो गए हैं ? जिस वजह से इन बच्चों को अब काम पर जाना पड़ रहा है। कवि पूछते हैं कि आखिर क्यों इन बच्चों को काम पर जाना पड़ रहा है।

काव्यांश 3.

तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में ?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज़्यादा यह
कि हैं सारी चींजे हस्बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजरते हुए
बच्चे , बहुत छोटे छोटे बच्चे
काम पर जा रहे हैं।

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि अगर सच में बच्चों की सारी गेंदें अंतरिक्ष में गिर गई हैं। और खेल के सभी मैदान खत्म हो गए हैं या बच्चों की कहानी की किताबें दीमकों ने खा ली हैं।तो फिर दुनिया में बचा ही क्या हैं ?

और अगर यह सब सच होता , तो यह वाकई में बहुत भयानक होता । लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ है।सब पहले जैसा (हस्बमामूल) ही , अपनी जगह यथावत है। और सब पहले जैसा होने के बावजूद भी , बच्चों को काम पर जाना पड़ रहा है। यह उससे भी ज्यादा भयानक है।

कवि आगे कहते हैं कि सब कुछ यथावत होते हुए भी दुनिया की हजारों सड़कों से ,  हर रोज हजारों बच्चे काम करने के लिए जा रहे हैं। बहुत छोटे बच्चे काम करने के लिए जा रहे हैं। अपना बचपन भुलाकर , वो काम करने जा रहे हैं।

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NCERT Solution -Bachche Kam Par Ja Rahe Hain

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यमराज की दिशा का भावार्थ | Yamraj Ki Disha Summary class 9 Chapter-16 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

चंद्रकांत देवताले

कवि परिचय

चंद्रकांत देवताले

इनका जन्म सन 1936 में गाँव जौलखेड़ा, जिला बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ। इनकी उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पीएचडी सागर विश्वविद्यालय, सागर से। देवताले की कविता की जड़ें गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में है।

यमराज की दिशा कविता का सार- Yamraj Ki Disha Poem Short Summary

प्रस्तुत कविता में कवि ने सभ्यता के विकास की खतरनाक दिशा की ओर इशारा करते हुए कहा है कि जीवन-विरोधी ताकतें चारों तरफ़ फैलती जा रही हैं। जीवन के दुख-दर्द के बीच जीती माँ अपशकुन के रूप में जिस भय की चर्चा करती थी, अब वह सिर्फ़ दक्षिण दिशा में ही नहीं हैं, सर्वव्यापक है। सभी तरफ़ फैलते विध्वंस, हिंसा और मृत्यु के चिह्नों की ओर इंगित करके कवि इस चुनौती के सामने खड़ा होने का मौन आह्वान करता है।


कवि कहता है कि उसकी माँ का ईश्वर के प्रति गहरा विश्वास था । वह ईश्वर पर भरोसा करके अपना जीवन किसी तरह बिताती आई थी। वह हमेशा दक्षिण की तरफ़ पैर करके सोने के लिए मना करती थी। अपने बचपन में कवि पूछता था कि यमराज का घर कहाँ है? माँ बताती थी कि वह जहाँ भी है वहाँ से हमेशा दक्षिण की तरफ़। उसके बाद कवि कभी भी दक्षिण की तरफ़ पैर करके नहीं सोया। वह जब भी दक्षिण की ओर जाता , उसे अपनी माँ के याद अवश्य आती। माँ अब नहीं है। पर आज जिधर भी पैर करके सोओ , वही दक्षिण दिशा हो जाती है। आज चारों ओर विध्वंस और हिंसा का साम्राज्य है।

यमराज की दिशा कविता का अर्थ व्याख्या : Detail Explanation

माँ की ईश्वर से मुलाकात हुई या नहींकहना मुश्किल हैपर वह जताती थी जैसेईश्वर से उसकी बातचीत होती रहती हैऔर उससे प्राप्त सलाहों के अनुसारज़िंदगी जीने और दुख बर्दाश्त करने के रास्ते खोज लेती है

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि चंद्रकांत देवताले जी के द्वारा रचित कविता यमराज की दिशा से उद्धृत हैं | इन पंक्तियों में कवि देवताले जी की माँ का ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास का भाव उत्पन्न हुआ है | कवि कहते हैं कि उनकी माँ का ईश्वर से भेंट हुआ है कि नहीं, वह नहीं जानते | परन्तु, उनकी माँ के व्यवहारों से पता चलता था कि वह ईश्वर से बात-चीत करती रहती थी | ईश्वर से जो सलाह मिलता था, उन सलाहों के अनुसार, वह ज़िंदगी जीने और दुःख बर्दाश्त का समाधान तलाश लेती थीं | 


(2)- माँ ने एक बार मुझसे कहा था-दक्षिण की तरफ़ पैर करके मत सोनावह मृत्यु की दिशा हैऔर यमराज को क्रुद्ध करनाबुद्धिमानी की बात नहींतब मैं छोटा थाऔर मैंने यमराज के घर का पता पूछा थाउसने बताया था-तुम जहाँ भी हो वहाँ से हमेशा दक्षिण में

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि चंद्रकांत देवताले जी के द्वारा रचित कविता यमराज की दिशा से उद्धृत हैं | कवि देवताले जी कहते हैं कि जब वे बच्चे थे, तब उनकी माँ ने उनसे कहा था कि दक्षिण की तरफ़ पैर करके कभी मत सोया करना | कवि की माँ का मानना है कि दक्षिण दिशा से यमराज का संबंध है और यमराज को गुस्सा दिलाना बुद्धिमानी की बात नहीं है | आगे कवि कहते हैं कि वे छोटा थे और अपनी माँ से यमराज के घर का पता पूछ लिए थे | तत्पश्चात्, उनकी माँ ने बड़ी कुशलता से जवाब देते हुए कहा था कि तुम जहाँ पर भी रहो, उस स्थान से दक्षिण दिशा की ओर हमेशा यमराज का निवास होगा | कवि देवताले जी ने दक्षिण दिशा से तात्पर्य सिद्ध करते हुए दक्षिणपंथी विचारधारा को यमराज बताया है | क्योंकि कवि के अनुसार, जो भी इसके गिरफ्त में आता है, उसकी सभ्यता और संस्कृति का सर्वनाश होना निश्चित हो जाता है | 

(3)- माँ की समझाइश के बाददक्षिण दिशा में पैर करके मैं कभी नहीं सोयाऔर इससे इतना फायदा जरूर हुआदक्षिण दिशा पहचानने मेंमुझे कभी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ामैं दक्षिण में दूर-दूर तक गयाऔर मुझे हमेशा माँ याद आईदक्षिण को लाँघ लेना संभव नहीं थाहोता छोर तक पहुँच पानातो यमराज का घर देख लेता

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि चंद्रकांत देवताले जी के द्वारा रचित कविता यमराज की दिशा से उद्धृत हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि माँ के द्वारा समझाने पर वे कभी दक्षिण दिशा की ओर पैर करके नहीं सोए | इससे कवि को एक फायदा हुआ कि दक्षिण दिशा को पहचानने में उन्हें कभी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा | अर्थात्, जब बड़े होने पर कवि को माँ की बातों का तात्पर्य समझ में आ गया, तब से कवि ने अपनी माँ की समझाइस और दिखाए रास्ते पर चलते हुए कभी भी दक्षिणपंथी विचारधारा को स्वीकार नहीं किया | आगे कवि कहते हैं कि उन्होंने दक्षिण दिशा में दूर-दूर तक सफर तय किया है और यात्रा के दौरान उन्हें हमेशा उनकी माँ याद आती रही | अर्थात् उन्हें माँ की बातें याद आती रही | कवि कहते हैं कि उनके लिए दक्षिण को लांघ पाना सम्भव नहीं था, अर्थात् दक्षिणपंथी विचारधारा को अपनाकर असत्य मार्ग पर चलना उनके सभ्यता और संस्कृति के विरुद्ध था | इसलिए वे कभी वे उस दिशा की ओर कदम नहीं बढ़ाए | फलस्वरूप, कवि कभी यमराज का घर नहीं देख पाए | 


(4)- पर आज जिधर भी पैर करके सोओवही दक्षिण दिशा हो जाती है सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैंऔर वे सभी में एक साथअपनी दहकती आँखों सहित विराजते हैंमाँ अब नहीं हैंऔर यमराज की दिशा भी अब वह नहीं रहीजो माँ जानती थी


भावार्थ –
 प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि चंद्रकांत देवताले जी के द्वारा रचित कविता यमराज की दिशा से उद्धृत हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि जब उनकी माँ ने कहा था कि यमराज का निवास स्थान दक्षिण दिशा में है, तब सचमुच यमराज केवल दक्षिण दिशा तक ही सीमित था | परन्तु, वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि चारों तरफ आपको यमराज का वास स्थान मिल जाएगा | इसलिए कवि कहते हैं कि जिधर भी पैर करके सोओ, वही दक्षिण बन जाता है | कवि कहते हैं कि आज हर तरफ यमराज का अस्तित्व हो गया है | ऐसा कोई भी स्थान शेष नहीं, जहाँ पर यमराज के आलीशान महल न खड़े हों | उन सभी महलों में यमराज अपनी डरावनी दहकती हुई आँखों के साथ विराजते हैं | आज अधिकांश लोग दक्षिण विचारधारा से ग्रसित हैं |  इसलिए हमारी सुरक्षा पर अभी सवालिया निशान लगा हुआ है | कवि आगे अपनी माँ को याद करते हुए कहते हैं कि अब माँ भी हमारे बीच नहीं रही | माँ के स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् अब यमराज की वो दिशा भी नहीं रही, जो माँ जानती थी | कवि को हर तरफ आलीशान महल नजर आता है, जहाँ यमराज की दहकती हुई आँखें दिखाई देती हैं | अर्थात् कवि को अब चारों ओर पूँजीपतियों का वास दिखाई देता है, जो निरन्तर साधारण या आम जनता का शोषण करने में जुटे हुए हैं | 

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मेघ आए का भावार्थ | Megh Aaye Summary class 9 Chapter-15 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

कवि परिचय


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में सन 1927 में हुआ। उन्होंने इलाहाबाद विष्वविधालय से उच्च शिक्षा ग्रहण की। शुरुआत में उन्हें आजीविका के लिए संघर्ष करना पड़ा परन्तु बाद में उन्होंने कई पत्रिकाओं का सम्पादन किया। सन 1983 में इनका आकस्मिक देहांत हो गया।

मेघ आए कविता का प्रतिपाद्य: short summary

मेघ आए कविता का प्रतिपाद्य: short summary

‘मेघ आए’ कविता में कवि श्री सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने प्रकृति का अद्भुत वर्णन किया है। मानवीकरण के माध्यम से कवि ने कविता को चत्ताकर्षक बना दिया है। कवि ने बादलों को मेहमान के समान बताया है। पूरे साल भर के इंतशार के बाद जब बादल आएए ग्रामीण लोग बादलों का स्वागत उसी प्रकार करने लगे जिस प्रकार कोई अपने (दामाद) का स्वागत करता है। किसी ने स्वागत किया तो किसी ने उलाहना भी दिया। बादलों के स्वागत में सारी प्रकृति ही उपस्थित हो गई। बादल मेहमान अर्थात दामाद की तरह बन-ठन कर तथा सज-ध्जकर आए हैं। हवा भी चंचल बालिका की तरह नाच-गाकर उनका स्वागत कर रही है। मेघों को देखने के लिए हर आदमी उतावला हो रहा है।

इसीलिए सबने अपने.अपने घरों के दरवाजे तथा खिड़कियाँ खोल दिए हैं और बादलों को देख रहे हैं। आँधी चली और धूल इधर-उधर भागने लगी। धूल का भागना ऐसा लगाए मानो कोई गाँव की लड़की अपना घाघरा उठाकर घर की तरपफ भाग चली। गाँव की नदी भी एक प्रेमिका की तरह अपने मेहमान मेघों को देखकर ठिठक गई तथा उन्हें तिरछी नजर से देखने लगी। गाँव की सुंदरियों ने अपना घूँघट उठाकर बने-ठने? सजे.सँवरे मेहमानों के समान बादलों को देखा। बादल रूपी मेहमानों के आने पर पीपल ने गाँव के एक बड़े-बूढ़े बुजुर्ग की तरह झुककर उनका स्वागत किया। साल भर की गर्मी सहकर मुरझाई लताएँ ऐसे दरवाजे के पीछे चिपकी खड़ी थीं जैसे कोई नायिका दरवाशे के पीछे खड़े होकर आने वाले को उलाहना दे रही हो कि पूरा साल बिताकर अब आए हो। अभी तक याद नहीं आई कि मैं मरी या जी। तालाब भी पानी से लबालब भरा हुआ ऐसे लहरा रहा था कि मानो वह बादलों के स्वागत के लिए परात में पानी भर कर लाया हो। चारों ओर बादल गरजने लगेए बिजली चमकने लगी और झरझर पानी बरसने लगा। कोई कहने लगा कि मुझे क्षमा कर दोए ‘वर्षा होगी कि नहीं’ यह मेरा भ्रम टूट गया है। अब मुझे विश्वास हो गया है कि वर्षा अवश्य होगी। मेघ रूपी मेहमान को लता रूपी अपनी प्रिया से मिलते देखकर सारी प्रकृति खुश हो गई। सभी खुश हुए। वर्षा रूपी खुशी के आँसू बहने लगे।

मेघ आए Megh Aye Line by Line Explanation

काव्यांश 1. 

मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली ,
दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली ,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के संवर के।

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जिस प्रकार लंबे समय बाद जब एक दामाद अपने ससुराल  सज धज कर आता है। तो गांव की नवयुवतियों (किशोर लड़कियों) उसके आने की खबर पूरे गांव वालों को उसके गांव पहुंचने से पहले ही दे देती हैं। और सभी लोग अपने घरों की खिड़कियों और दरवाजे गली की तरफ खोल कर शहर से आए अपने उस दामाद को देखने लगते हैं। 

ठीक उसी प्रकार जब भीषण गर्मी के बाद वर्षा ऋतु का आगमन होता है।और काले-काले धने , पानी से भरे हुए बादल आकाश में छाने लगते हैं। उन बादलों के आकाश में छाने से पहले तेज हवायें चलने लगती हैं। जो काले धने बादलों के आकाश में छाने का संकेत देती है। 

कवि आगे कहते हैं कि तेज हवाओं के कारण घर के दरवाजे व खिड़की खुलने लगती हैं। लोग अपने घरों से बाहर निकल कर उत्सुकुतावश आकाश की तरफ देखने लगते हैं। और आकाश में काले-काले धने बादलों को देखकर सबके मन उल्लास व प्रसन्नता से भर जाते हैं।

उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो शहर से रहने वाला बादल रूपी दामाद बड़े बड़े लंबे समय बाद बन सँवर कर गांव लौटा हो। “पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के” में उत्प्रेक्षा अलंकार हैं। गली-गली में पुनरुक्ति अलंकार हैं। 

काव्यांश 2.

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आंधी चली, धूल भागी घाघरा उठाये,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूंघट सरके।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

भावार्थ –

जब तेज हवाएं बहने लगती है तो पेड़ कभी नीचे की तरफ झुक जाते हैं तो कभी ऊपर की तरफ उठ जाते हैं। उन पेड़ों को देखकर ऐसा लगता हैं जैसे गांव के लोग (यहां पर पेड़ों की तुलना गांव के लोग से की हैं) अपने उस मेहमान को गरदन उचका-उचका कर देख रहे हैं ।यानि गांव के सभी लोग शहर से आये अपने उस मेहमान को एक नजर भर देख लेना चाहती हो।

तेज आंधी के आने से धूल एक जगह से उड़ कर तेजी से दूसरी जगह पहुंच जाती है। कवि ने उस धूल की तुलना गांव की उस किशोरी से की हैं जो मेहमान के आने की खबर गांव के लोगों को देने के लिए अपना घागरा उठा कर तेजी से भागती हैं। कवि को ऐसा लगता है कि जैसे गांव की किशोरी मेहमान आने की खबर गांव वालों को देने के लिए अपना घागरा उठाए दौड़ रही है। 

 अगली पंक्तियों में कवि नदी को गांव की एक बहू के रूप में देखते हैं। जो गांव में दामाद के आने की खबर सुनकर , थोड़ा रुक कर और अपने घुंघट को थोड़ा सरका कर , तिरछी निगाहों से  , उस दामाद की झलक पाना चाहती है।  यानि आकाश में बादलों के आने से नदी में भी हलचल शुरू हो जाती हैं। क्योंकि बादल रूपी दामाद बड़े बन सँवर कर लौटे हैं। 

काव्यांश 3.

बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की,
‘बरस बाद सुधि लीन्हीं’ –
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

भावार्थ –

तेज हवाओं के चलने के कारण बूढा पीपल का पेड़ कभी झुक जाता है तो कभी ऊपर उठ जाता हैं। पीपल के पेड़ की बहुत लंबी उम्र होती है। इसीलिए यहां पर उसे बूढा कहा गया है । 

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जैसे गांव में कोई मेहमान आता हैं तो गांव के बड़े -बुजुर्ग आगे बढ़ कर उसका स्वागत करते हैं। उसको प्रणाम करते हैं। ठीक उसी प्रकार बादलों के आने पर बूढ़े पीपल के पेड़ ने झुक कर उसका स्वागत किया। और उसको प्रणाम किया। 

कवि आगे कहते हैं कि उस बूढ़े पीपल के पेड़ से लिपटी लता (बेल) भी थोड़ी हरकत में आ गई। कवि ने यहां पीपल से लिपटी हुई लता को उस घर की बेटी के रूप में माना है जो घर आये उस मेहमान को किवाड़ की ओट से देख रही है। यानि भीषण गर्मी में प्यासी लता बादलों के आने से बेहद खुश हैं।

साथ ही साथ वह (लता) मेहमान (बादल) से शिकायत भी कर रही है कि पूरे एक साल के बाद तुमने मेरी खबर ली। क्योंकि बरसात का मौसम साल भर के बाद आता है। 

जैसे पुराने समय में दामाद के आने पर परात में उसके पैर रखकर , घर के किसी सदस्य द्वारा पानी से उसके पैर धोये जाते थे। यहां पर तालाब को उसी सदस्य के रूप में माना गया है। कवि कहते हैं कि तालब खुश होकर परात के पानी से उस मेहमान के पैर धोता है। तालाब इसलिये खुश हैं क्योंकि बरसात में पानी से वह फिर से भर जायेगा।  

काव्यांश 4.

क्षितिज अटारी गहराई दामिनी दमकी,
‘क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की’,
बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जिस प्रकार अटारी (ऊंची जगह ) पर पहुंचे अपने पति को देखकर पत्नी का तन-मन खुशी से भर जाता है। उसके मन में जो संदेह था कि उसका पति नहीं लौटेगा। अब वह भी दूर हो चुका हैं क्योंकि अब उसका पति लौट चुका है। वह मन ही मन उससे माफी मांगती है और दोनों के मिलन से खुशी के आंसू छलक पड़ते हैं। 

ठीक उसी प्रकार बादल (पति)  क्षितिज ( जहाँ धरती आसमान मिलते हुए प्रतीत होते हैं ) में छा चुके हैं। और बिजली जोर जोर से चमकती हैं। क्षितिज पर छाये बादलों को देखकर धरती (पत्नी)  बेहद प्रसन्न हैं। उसका यह संदेह भी समाप्त हो जाता कि वर्षा नहीं होगी। यानि अब धरती को पक्का विश्वास हो जाता हैं कि बादल बरसेंगे। और फिर बादल और बिजली के मिलने से झर-झर कर पानी बरसने लगता हैं। और धरती का आँचल भीग जाता हैं। 

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NCERT Solution -Megh Aaye

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 चंद्र गहना से लौटती बेर का भावार्थ | Chandra Gahna Se Lautati BerSummary class 9 Chapter-14 | Kshitiz Hindi class 9 | EduGrown

केदारनाथ अग्रवाल

कवि परिचय

केदारनाथ अग्रवाल

इनका जन्म सन 1911 में उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के कमासिन गाँव में हुआ। उनकी शिक्षा इलाहबाद और आगरा विश्वविद्यालय में हुई। ये पेशे से वकील थे। प्रगति वादी विचारधारा के प्रमुख कवि माने जाते हैं। जनसामान्य का संघर्ष और प्रकृति सौंदर्य इनकी कविताओं का मुख्य प्रतिपाद्य है। सन 2000 में इनका देहांत हो गया।

चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का सारांश : Short Summary

चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का सारांश : Short Summary

इस कविता में कवि का प्रकॄति के प्रति गहरा अनुराग व्यक्त हुआ है। वह चंद्र गहना नामक स्थान से लौट रहा है। लौटते हुए उसके किसान मन को खेत-खलिहान एवं उनका प्राकृतिक परिवेश सहज आकर्षित कर लेता है। उसे एक ठिगना चने का पौधा दिखता है, जिसके सर पर गुलाबी फूल पगड़ी के समान लगता है। वह उसे दुल्हे के समान प्रतीत होता है। वहीं पास में अलसी का पौधा है, जो सुन्दर युवती की भांति लगता है। खेत में सरसों का पौधा विवाह योग्य लड़की के समान लगता है। खेतों के समीप से रेल भी होकर गुजरती है। पास में तालाब की शोभा देखने लायक है। तालाब के किनारे पर पत्थर पड़े हुए हैं, मछली की ताक में बगुला चुपचाप खड़ा है। दूर सारस के जोड़े का स्वर सुनाई दे रहा है। यह सब कवि का मन मोह लेते हैं। इस कविता में कवि की उस सृजनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति है जो साधारण चीज़ों में भी असाधारण सौंदर्य देखती है और उस सौंदर्य को शहरी विकास की तीव्र गति के बीच भी अपनी संवेदना में सुरक्षित रखना चाहती है। यहाँ प्रकृति और संस्कृति की एकता व्यक्त हुई है।

चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ अर्थ: Detailed Explanation

चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ अर्थ: Detailed Explanation

देख आया चंद्र गहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सजकर खड़ा है।


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- चंद्र गहना से लौटती बेर कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी ने गांव की सुंदरता का बड़ा ही मनोहर उल्लेख किया है। वे चंद्र गहना नामक गांव घूमने गए हुए थे और जब वे वापस आ रहे थे, तो उन्हें रास्ते में एक खेत दिखाई देता है। अभी उनकी ट्रेन को आने में भी बहुत वक्त था, इसी कारण वो खेत की प्राकृतिक सुंदरता को निहारने के लिए एक मेड़ (दो खेतों के बीच मिट्टी का बना हुआ रास्ता) पर बैठ जाते हैं और खेतों में उगी फ़सलों तथा पेड़-पौधों को देखने लगते हैं। आगे कवि कहते हैं कि मैंने चंद्र गहना नामक गांव देख लिया है, अब मैं इस खेत की मेड़ पर बैठकर खेत की प्राकृतिक सुंदरता का लाभ उठा रहा हूँ।

आगे चने के पौधे का बड़ा ही सजीला मानवीकरण करते हुए, कवि कहते हैं कि एक बीते (एक पंजे की लम्बाई के बराबर, ज्यादा से ज्यादा 1 फुट) की लम्बाई वाला यह हरा चने का पौधा खेतों के बीच लहलहा रहा है।  चने के पौधों पर गुलाबी रंग के फूल खिले हुए हैं और उन्हें देखने से ऐसा लग रहा है, मानो कोई दूल्हा पगड़ी पहनकर सज धज कर शादी के लिए तैयार हो रहा हो।


पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सर पर चढ़ा कर
कह रही, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी ने अलसी के पौधों का मानवीकरण किया है। अलसी का पौधा बहुत ही पतला होता है और थोड़ी-सी हवा के कारण भी हिलने लगता है और झुक कर फिर खड़ा हो जाता है। इसलिए कवि ने उसे यहाँ देह की पतली और कमर की लचीली कहा है। उन्होंने चने के पौधों के पास में ही उगे हुए, अलसी के पौधों को नायिका के रूप में दिखाया है।

उनके अनुसार यह नायिका बहुत ही जिद्दी है और इसीलिए हठपूर्वक इसने चने के पौधों के मध्य अपना स्थान बना लिया है। इन पौधों में नीले रंग के फूल खिले हुए हैं, जो ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो नायिका अपने हाथों में फूल पकड़ कर अपने प्रेम का इज़हार कर रही हो। जो उसके इस प्रेम को स्वीकार करेगा, वो उस पर अपना प्रेम लुटाने के लिए तैयार खड़ी है।

और सरसों की न पूछो-
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह-मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि ने खेतों के प्राकृतिक सौंदर्य की तुलना विवाह के मंडप से की है। खेतों में चने और अलसी के पौधे अपने सौंदर्य का प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीँ इन सब के बीच, सरसों की तो बात ही निराली है। सरसों के पौधे पूरी तरह बढ़ चुके हैं और उन पर पीले रंग के फूल भी खिल चुके हैं। ये पीले पुष्प सूर्य की रौशनी में किसी नयी दुल्हन के हाथों की तरह चमक रहे हैं। सरसों की फसल पक चुकी है, इसीलिए कवि कहते हैं कि कन्या शादी के लायक हो चुकी है और अपने हाथ पीले करके इस खेत-रूपी ब्याह मंडप पधारी है। ऐसा लग रहा है, जैसे फागुन का महीना स्वयं फाग (होली के समय गाया जाने वाला गीत) गा रहा है।

देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
इस विजन में,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि ने गांव की प्राकृतिक सुंदरता एवं शहर की तुलना की है। उनके अनुसार, शहर में रह रहे लोगों के पास इतना वक्त भी नहीं होता कि वो इस प्राकृतिक सौंदर्य का लाभ उठा पाएं। निरंतर होते निर्माण के कारण शहर में हर जगह सिर्फ कंक्रीट की इमारतें ही दिखाई देती हैं। इसलिए उनके मन का प्रेम-भाव बाहर नहीं आ पाता और शहरी लोग स्वार्थी हो जाते हैं, जबकि दूसरी ओर कवि को गांव के प्राकृतिक वातावरण में अनुपम शांति मिल रही है।

कवि कहते हैं कि चारों तरफ सुनसान स्थान होने के बावजूद भी खेतों में इतना प्राकृतिक सौंदर्य भरा है, कि ऐसा लग हो रहा है मानो यहाँ कोई स्वयंवर चल रहा हो। सभी सज-धज के खड़े हैं और मंडप भी सजा हुआ है। कन्याएँ सज कर अपने हाथ में फूलों की माला लेकर दूल्हे का चुनाव कर रही हैं। यहाँ लड़की से सरसों एवं अलसी के पौधों को संबोधित किया गया है, जबकि दूल्हे से चने के पौधे को संबोधित किया गया है। ऐसा दृश्य देखकर कवि के अंदर भी प्रेम-भावना जागने लगती है। इसीलिए कवि ने कहा है, व्यापारिक नगर से दूर प्रेम की यह प्रिय भूमि अधिक उपजाऊ है।

और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वो भी लहरियाँ।
एक चांदी का बड़ा-सा गोल खम्भा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुप चाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- चंद्र गहना से लौटती बेर कविता की इन पंक्तियों में कवि ने खेत के किनारे तालाब एवं उसमें पड़ने वाली सूर्य की रौशनी का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। वे मेड़ पर जहाँ बैठे हुए हैं, उसके दूसरी ओर स्थित तालाब के जल में हवा के साथ लहरें उठ रही हैं। उसके साथ ही, बगल में उगी भूरी घास भी यूँ हिलने लगती है, मानो आकाश में पतंगें उड़ रही हों। जब तालाब के जल में सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तो उसका प्रतिबिम्ब जल पे एक चांदी के खम्बे की तरह दिखाई देता है, जो कवि की आँखों में निरंतर चमक रहा है और लेखक को उसकी ओर देखने में मुश्किल हो रही है।

दूसरी तरफ, तालाब के किनारे कई पत्थर पड़े हुए हैं, जब-जब तालाब में लहरें उठ रही हैं, तब तब तालाब का जल जाकर पत्थर को भिगो रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो पत्थर चुपचाप पानी पीते जा रहे हैं, परन्तु अभी तक उनकी प्यास नहीं बुझी और पता नहीं कब उनकी प्यास बुझेगी। इस तरह कवि ने अपनी इन पंक्तियों में प्रकृति का बड़ा ही सुन्दर मानवीकरण किया है।

चुप खड़ा बगुला डुबाये टांग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान-निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले को डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- कवि देखते हैं कि तालाब के किनारे उथले जल में कुछ बगुले ऐसे खड़े हैं, मानो वो जल में पैर डुबाये खड़े-खड़े सो रहे हों। लेकिन, जैसे ही उन्हें जल के अंदर कोई मछली हिलती-डुलती महसूस होती है या दिखाई देती है, तो वो अपनी चोंच तेजी से जल के अंदर डाल कर उस मछली को पकड़ कर निगल जाता है। वहीँ दूसरी तरफ, जल के ऊपर एक काले रंग के सिर वाली चिड़िया उड़कर चक्कर लगाते हुए तालाब के जल में नजर रख रही है। जैसे ही उसे जल के अंदर मछली नजर आती है, वह बिजली की तेजी से अपने सफ़ेद पंखो के सहारे जल को चीरती हुई गोता लगाकर अंदर चली जाती है और उस मछली पर टूट पड़ती है। उस चमकती हुई मछली को वह काले माथे वाली चिड़िया अपनी पीली चोंच में दबाकर ऊपर आकाश में दूर उड़ जाती है।

औ’ यहीं से-
भूमि ऊंची है जहाँ से-
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ,
जाना नहीं है।


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- कवि जहाँ बैठकर गांव के प्राकृतिक सौंदर्य का लुत्फ़ उठा रहे हैं, वहीं से कुछ दूर जाकर भूमि ऊँची हो गई है, जिसके पार देखा नहीं जा सकता। उस ऊँची उठी भूमि के दूसरी तरफ ही रेल की पटरी बिछी हुई है। वहीं कहीं रेलवे स्टेशन है, जहाँ से कवि वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने वाले हैं। परन्तु अभी ट्रेन को आने में बहुत समय बाकी है, इसलिए लेखक पूरी स्वतंत्रता के साथ खेतों के मध्य बैठकर सभी जगह ताक-ताक कर प्राकृतिक सौंदर्य का मजा ले रहे हैं। ये सब उन्हें बहुत ही आनंददायी लग रहा है, क्योंकि शहर में उन्हें रोज-रोज ऐसे सौंदर्य को देखने का मौका नहीं मिलता।

चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर उधर रीवां के पेड़
कांटेदार कुरूप खड़े हैं।


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- कवि की नजर खेतों से उठ कर दूर जाती है, तो उन्हें चित्रकूट की असमान रूप से फैली ऊँची-नीची पहाड़ियां नजर आती हैं, जो ज्यादा ऊँची नहीं हैं, लेकिन बहुत दूर तक फ़ैली हुई हैं। इसलिए कवि ने कहा है कि ये दूर दिशाओं तक फ़ैली हुई हैं। कवि को ये पहड़ियाँ उपजाऊ भी नजर नहीं आ रही हैं, क्योंकि उन पर रीवां नामक कांटेदार वृक्षों के अलावा और कोई हरियाली नहीं है।

सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें;
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों;
मन होता है-
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में,
सच्ची-प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।


चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- चंद्र गहना से लौटती बेर कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि ने वनस्थली में गूंजती तोते और सारसों की मधुर आवाज़ों वर्णन किया है। कवि को बीच-बीच में तोते की टें-टें की ध्वनि सुनाई देती है, जो इस शांत वातावरण में वन के अंदर से आ रही है। इस मधुर ध्वनि को सुनकर कवि का मन आनंद से भर उठता है और उनका मन भी तोते की इस मधुर ध्वनि की ताल से ताल मिलाने को करता है।

इसी बीच, कवि को सारस की जंगल को भेद देने वाली ध्वनि सुनाई पड़ती है, जो कभी घटती है, तो कभी बढ़ती है। वास्तव में यह सारस के जोड़े के आपसी प्रेम का संगीत है, जिसे सुनकर कवि यह कल्पना करता है कि वह भी अपने पंख फैलाए सारस के संग उड़ कर हरे खेतों के बीच चला जाए। फिर छुप कर सारसों के सच्चे प्रेम की कहानी सुने, ताकि उन्हें कवि द्वारा कोई तकलीफ़ न हो और वे उड़ ना जाएं।

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NCERT Solution -Chandra Gahna Se Lautati Ber

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