Matter in Our Surrounding | Ch-1 Class 9 Chemistry Quick Revision Notes | NCERT CBSE | Edugrown

Matter in Our Surrounding | Ch-1 Class 9 Chemistry Quick Revision Notes

What is Matter?

Air, water, stones, sand, clouds, pencils, books – Everything is made up of matter. Matter is everything in this universe that occupies space and has mass.

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NCERT Solution – Matter in Our Surrounding

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गीत – अगीत का सारांश | Geet Ageet Summary class 9 Chapter-13 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

रामधारी सिंह दिनकर

कवि परिचय

रामधारी सिंह दिनकर
इनका जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में 30 सितम्बर 1908 को हुआ। वे सन 1952 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किये गए। भारत सरकार ने इन्हें ‘ पद्मभूषण ’ अलंकरण से अलंकॄत किया। दिनकर जी को ‘ संस्कृति के चार अध्याय ’ पुस्तक पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।अपनी काव्यकृति ‘ उर्वशी ’ पर ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दिनकर ओज के कवि माने जाते हैं। दिनकर की सबसे बड़ी विशेषता है अपने देश और युग के प्रति सजगता।

गीत – अगीत का सारांश पाठ का सार :Short Summary

‘गीत-अगीत’ कविता में कवि ने प्रकृति के सौंदर्य के अतिरिक्त जीव-जतुंओं के ममत्व, मानवीय राग और प्रेमभाव का भी सजीव चित्रण है। कवि को नदी के प्रवाह में थट के विरह का गीत का सॄजन होता जान पड़ता है। उन्हें शुक-शुकी के क्रिया-कलापों में भी गीत सुनाई देता है। कहीं एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को बुलाने के लिए गीत गा रहा है जिसे सुनकर प्रेमिका आंनदित होती है। कवि का मानना है कि नदी और शुक गीत सृजन या गीत-गान भले ही न कर रहे हों, पर दरअसल वहाँ गीत का सृजन और गान भी हो रहा है। वे यह नही समझ पा रहे हैं कौन ज्यादा सुन्दर है – प्रकृति के द्वारा किए जा रहे क्रियाकलाप या फिर मनुष्य द्वारा गाया जाने वाला गीत।

रामधारी सिंह दिनकर की कविता गीत अगीत का भावार्थ- Geet Ageet Poem Summary in Hindi

रामधारी सिंह दिनकर की कविता गीत अगीत का भावार्थ- Geet Ageet Poem Summary in Hindi

गाकर गीत विरह के तटिनी
वेगवती बहती जाती है,
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता,
“देते स्वर यदि मुझे विधाता,
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता।

गा-गाकर बह रही निर्झरी,
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?


रामधारी सिंह दिनकर की कविता गीत अगीत भावार्थ : 
रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता गीत अगीत की इन पंक्तियों में कवि ने जंगलों एवं पहाड़ों के बीच बहती हुई एक नदी का बड़ा ही आकर्षक वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि विरह अर्थात बिछड़ने का गीत गाती हुई नदी, अपने मार्ग में बड़ी तेजी से बहती जाती है।

अपने दिल से विरह का बोझ हल्का करने के लिए नदी, अपने किनारों पर उगी घास व उपलों से बात करते हुए आगे बढ़ती चली जा रही है। वहीँ दूसरी ओर, नदी के किनारे तट पर उगा हुआ एक गुलाब का फूल यह सोच रहा है कि अगर भगवान उसे भी बोलने की शक्ति देता, तो वह भी गा-गा कर सारे जगत को अपने पतझड़ के सपनों का गीत सुनाता।

तो इस प्रकार, जहाँ एक ओर नदी अपनी विरह के गीत गाते हुए, कल-कल की आवाज़ करते हुए बह रही है, वहीँ दूसरी ओर, गुलाब का पौधा चुपचाप अपने गीत को अपने मन में दबाये किनारे पर खड़ा हुआ नदी को बहते देख रहा है।

बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते को छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु, शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते सनेह में सनकर।

गूँज रहा शुक का स्वर वन में,
फूला मग्न शुकी का पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?


रामधारी सिंह दिनकर की कविता गीत अगीत भावार्थ : 
खेतों में एक घने वृक्ष पर तोता बैठा हुआ है और उसी वृक्ष की छांव में उसका घोंसला है।  जिसमें मैना बड़े प्यार से अपने पंखों को फैलाये अंडे से रही है। ऊपर पेड़ की डाल पर तोता बैठा हुआ है, जिसके ऊपर पेड़ के पत्तों से छनकर सूर्य की किरणें पड़ रही हैं।

वह गाते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो सूर्य की किरणों को शब्द प्रदान कर रहा हो। पूरा का पूरा खेत तोते के स्वर से गूंज उठता है। जिसे सुनकर मैना भी गाने को उमड़ पड़ती है, परन्तु उसके स्वर बाहर नहीं निकल पाते और वह चुप रहकर ही पंख फैलाते हुए अपनी ख़ुशी का इज़हार करती है।

दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहीं खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है,
हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिधना’, यों मन में गुनती है।

वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत कौन सुंदर है?


रामधारी सिंह दिनकर की कविता गीत अगीत भावार्थ : 
रामधारी सिंह दिनकर की कविता गीत-अगीत की इन पंक्तियों में कवि ने दो प्रेमियों का वर्णन किया है। एक प्रेमी जब शाम के समय अपनी प्रेमिका को बुलाने के लिए गीत गाता है, तो वो उसके स्वर को सुनकर खिंची चली आती है और पेड़ों के पीछे छुपकर चुपचाप अपने प्रेमी को गाते हुए सुनती है। वह सोचती है कि मैं इस गाने का हिस्सा क्यों नहीं हूँ। नीम के पेड़ों के नीचे अपने प्रेमी के गीत को सुनकर उसका हृदय फूला नहीं समाता। वह चुपचाप अपने प्रेमी के गीत का आनंद लेती रहती है।

इस प्रकार जहाँ एक ओर प्रेमी गीत गाकर अपनी सुंदरता का बखान कर रहा है, वहीँ दूसरी ओर, चुप रहकर भी प्रेमिका उतने ही प्रभावशाली रूप से अपने प्यार को व्यक्त कर रही है। इसलिए उसका अगीत भी किसी मधुर गीत से कम नहीं है।

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NCERT Solution – गीत – अगीत

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नए इलाके में … खुशबू रचते हैं हाथ का सारांश | Naye ILake Mein Khushboo Rachte Hain Haath Summary class 9 Chapter-15 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

अरुण कमल नए इलाके में ... खुशबू रचते हैं हाथ का सारांश |  Naye ILake Mein Khushboo Rachte Hain Haath Summary class 9 Chapter-15 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

अरुण कमल

इनका जन्म बिहार के रोहतास जिले के नासरीगंज में 15 फ़रवरी 1954 को हुआ। ये पटना विश्वविद्यालय में प्राध्यापक भी रह चुके हैं। इन्हें अपनी कविताओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है।

नए इलाके में, खुशबू रचते हैं हाथ पाठ प्रवेश : Short Summary

(1) नए इलाके में


इस कविता में एक ऐसे दुनिया में प्रवेश का आमंत्रण है, जो एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है। यह इस बात का बोध कराती है कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं होता। इस पल-पल बनती-बिगड़ती दुनिया में स्मृतियों के भरोसे नहीं जिया जा सकता। कवि कहता है कि वह नए बसते इलाकों तथा नए-नए बनते मकानों के कारण रोज अपने घर का रास्ता भूल जाता है। वह अपने घर तक पहुँचने रास्ते में पड़ने वाले निशानों को याद रखता हुआ आगे बढ़ता है लेकिन उसे वे निशान नहीं मिलते। वह हर बार एक या दो घर आगे चला जाता है। इसलिए वह कहता है कि यहाँ स्मॄतियों का कोई भरोसा नहीं । यह दुनिया एक दिन में ही पुरानी पड़ जाती है। अब घर ढूँढने का एक ही रास्ता है कि वह हर एक घर का दरवाजा खटखटाकर पूछे कि क्या उसका घर यही है? पर इसके लिए भी समय बहुत कम है। कहीं इतने समय में ही फिर कोई बदलाव न हो जाए। फिर उसके मन में एक आशा जगती है कि शायद उसका कोई जाना-पहचाना उसे भटकते हुए देखकर ऊपरी मंजिल से उसे पुकार कर कह दे कि वह रहा तुम्हारा घर।

(2) खुशबू  रचते हैं हाथ

प्रस्तुत कविता ‘खुशबू रचते हैं हाथ’ में कवि ने हमारा ध्यान समाज के उपेक्षित वर्ग की ओर खींचने का प्रयास किया है। ये अगरबत्ती बनाने वाले लोग हैं जो की हमारी जिंदगी को खुश्बुदार बनाकर खुद गंदगी में जीवन बसर कर रहे हैं। वे नालियों के बीच, कूड़े-करकट के ढेरों में रहकर अगरबत्ती बनाने का काम अपने हाथों से करते हैं। यहां कवि ने कई प्रकार की हाथों का जिक्र किया है जो की मूलतः बनाने वालों की उम्र को दिखाने के लिए किया गया है। लोगों के जीवन में सुगंध बिखरने वाले हाथ भयावह स्थितियों में अपना जीवन बिताने पर मज़बूर हैं। क्या विडंबना है कि खुशबू रचने वाले ये हाथ दूरदराज़ के सबसे गंदे और बदबूदार इलाकों में जीवन बिता रहे हैं।

नए इलाके में, खुशबू रचते हैं हाथ : Detail Explanation

Naye Ilake Mein Poem Summary in Hindi

इन नए बसते इलाकों में
जहाँ रोज़ बन रहे हैं नए-नए मकान
मैं अकसर रास्ता भूल जाता हूँ


भावार्थ : 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने शहर में हो रहे अंधा-धुंध निर्माण के बारे में बताया है। रोज कुछ न कुछ बदल ही रहा है। आज अगर कुछ टूटा हुआ है, या कहीं कोई खाली मैदान है, तो कल वहाँ बहुत ही बड़ा मकान बन चुका होगा। नए-नए मकान बनने के कारण रोज नए-नए इलाके भी बन जा रहे हैं। जहाँ पहले सुनसान रास्ता हुआ करता था। आज वहाँ काफी लोग रहने लगे हैं और चहल-पहल दिखने लगी है। यही कारण है कि लेखक को रास्ते पहचानने में तकलीफ़ होती है और वह अक्सर रास्ता भूल जाता है।

धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढ़हा हुआ घर
और ज़मीन का खाली टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंगवाले लोहे के फाटक का
घर था एकमंज़िला


भावार्थ : 
इन पंक्तियों में लेखक हमें अपने रास्ते भूल जाने का कारण बताते हैं। लेखक ने जिस घर, जिस मैदान और जिस फाटक को अपने लिए चिन्ह बनाकर रखा था। जिन्हें देख कर उन्हें यह पता चलता था कि वह सही रास्ते पर चल रहे हैं, उन चिन्हों में से अब कोई भी अपनी जगह पर नहीं है। अब लेखक के खोजने के बाद भी उन्हें पुराना पीपल का पेड़ नहीं दिखाई देता है और ना ही अब उन्हें टूटा हुआ घर दिखता है, जिसे देख कर वे रास्ता पहचानते थे। ना ही अब उन्हें वह खाली ज़मीन कहीं दिखाई दे रही है, जहाँ से लेखक को बांये मुड़ना होता था। उसके बाद ही तो उनका जाना-पहचाना एक बिना रंग के लोहे के फाटक वाला एक मंजिला घर था।

और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूँ
या दो घर आगे ठकमकाता


भावार्थ : 
इन्हीं कारणों की वजह से लेखक हमेशा रास्ता भटक जाता है। वह कभी भी सही ठिकाने तक नहीं पहुँच पाता। या तो वह एक-दो घर आगे निकल जाता है या फिर एक-दो घर पहले ही रुक जाता है।

यहाँ रोज़ कुछ बन रहा है
रोज़ कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं


भावार्थ : 
यहाँ रोज कुछ न कुछ बन रहा है। किसी न किसी इमारत का निर्माण हो रहा है। जिसकी वजह से आप अपने रास्ते को पहचानने के लिए किसी इमारत या पेड़ को स्मृति नहीं बना सकते। क्या पता कल उसकी जगह पर कुछ और बन जाए और आप रास्ता भटक जाएं।

एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसंत का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे बैसाख का गया भादों को लौटा हूँ
अब यही है उपाय कि हर दरवाज़ा खटखटाओ
और पूछो – क्या यही है वो घर?


भावार्थ : 
कवि ने शीघ्र होते हुए परिवर्तन के बारे में बताया है। ऐसा नहीं है कि कवि बहुत समय के बाद यहाँ लौटा है, इसलिए उसे सब बदला हुआ प्रतीत हो रहा है। ऐसा नहीं है कि वह वसंत के बाद पतझड़ को लौटा है, ऐसा नहीं है कि वह वैसाख को गया और भादों को लौटा है। वह तो कुछ ही दिनों में वापस आया, लेकिन फिर भी उसे सब बदला हुआ दिख रहा है और वह अपना घर भी नहीं पहचान पा रहा। अब तो एक उपाय यही है कि कवि हर घर में खट-खटाये और पूछे की क्या यही वह घर है?

समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढ़हा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।


भावार्थ : 
भटक जाने के कारण कवि अभी तक घर नहीं ढूंढ पाया है और अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बारिश भी होने वाली है। कवि के पास समय बहुत ही कम है। अब तो कवि इसी आस में बैठा है कि काश कोई जान-पहचान का व्यक्ति उन्हें देखकर पहचान ले।

Khusbu Rachte Hai Haath Poem Summary in Hindi 

कई गलियों के बीच
कई नालों के पार
कूड़े-करकट
के ढ़ेरों के बाद
बदबू से फटते जाते इस
टोले के अंदर
खुशबू रचते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ।


भावार्थ : 
कवि ने अपनी इन पंक्तियों में जीवन के कठोर यर्थाथ को दर्शाया है। जिस प्रकार कमल कीचड़ में ही खिलते हैं, उसी प्रकार कवि ने बताया है कि वातावरण को सुगन्धित कर देने वाली अगरबत्ती गंदी झुग्गी एवं झोपड़ियों में बनायी जाती है। ऐसी बस्तियाँ जहाँ से गंदे नाले निकलते हैं। जहाँ पर कूड़े-करकट का ढेर लगा होता है। बदबू से भरी गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग ही खुशबूदार अगरबत्ती बनाते हैं। इसीलिए कवि ने इस कविता में कहा है “ख़ुशबू रचते हैं हाथ”।

उभरी नसोंवाले हाथ
घिसे नाखूनोंवाले हाथ
पीपल के पत्ते-से नए-नए हाथ
जूही की डाल-से खुशबूदार हाथ
गंदे कटे-पिटे हाथ
ज़ख्म से फटे हुए हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ।


भावार्थ :
 अगरबत्ती बनाते-बनाते अधिकतर कारीगरों के हाथ घायल हो गए हैं। किसी कारीगर के हाथों की नसें उभरी हुई दिख रही हैं, तो किसी के नाख़ून अगरबत्ती बनाते-बनाते घिस गए हैं। वहीं दूसरी ओर नए-नए बच्चे जिन्होंने अभी-अभी अगरबत्ती बनाना शुरू किया है, उनके हाथ पीपल के पत्ते की तरह बहुत ही मुलायम और नाज़ुक प्रतीत होते हैं। उन्हीं बच्चों में से कुछ लड़कियों के हाथ तो जूही की डाल की तरह पतले हैं। बहुत दिनों से काम करते हुए कई कारीगरों के हाथ कट-फट चुके हैं। उनके ज़ख्म भी गंदगी से भरे हुए हैं। ऐसे हाथ ही हमारे घर में खुशबू फ़ैलाने वाली सुगंधित अगरबत्तियों का निर्माण करते हैं।

यहीं इस गली में बनती हैं
मुल्क की मशहूर अगरबत्तियाँ
इन्हीं गंदे मुहल्लों के गंदे लोग
बनाते हैं केवड़ा गुलाब खस और रातरानी
अगरबत्तियाँ
दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हैं हाथ

खुशबू रचते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ।


भावार्थ : 
प्रस्तुतु पंक्तियों में कवि ने हमें यही बताया है कि शहर के बड़े से बड़े घरों में जलने वाली खुशबूदार  अगरबत्तियाँ इन्हीं गंदी बस्तियों की झुग्गियों में बनती हैं। जहाँ पर हमेशा बदबू भरी रहती है। चाहे कोई भी मशहूर अगरबत्ती हो, जैसे केवड़ा, गुलाब या रातरानी सभी यहीं इस गंदी बस्ती में रहने वाले गंदे लोगों के गंदे हाथों से बनाई जाती हैं। ये लोग खुद तो इतनी गंदगी एवं बदबू के बीच में रहते हैं, लेकिन दूसरों के घर को महकाने के लिए खुशबूदार अगरबत्तियों का निर्माण करते हैं। इसीलिए लेखक ने कहा है “सारी गन्दगी के बीच भी खुशबू रचते हैं हाथ”।

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NCERT Solution – नए इलाके में … खुशबू रचते हैं

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अग्नि पथ का सारांश | Agni path class 9 Chapter-14 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

हरिवंश राय बच्चन

कवि परिचय

हरिवंश राय बच्चन
इनका जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में 27 नवंबर 1907 को हुआ। बच्चन कुछ समय तक विश्वविधालय में प्राध्यापक रहने के बाद भारतीय विदेश सेवा में चले गए थे। इस दौरान इन्होने कई देशों का भम्रण किया और मंच पर ओजस्वी वाणी में काव्यपाठ के लिए विख्यात हुए। बच्चन की कविताएँ सहज और संवेदनशील हैं। इनकी रचनाओं में व्यक्ति-वेदना, राष्ट्र-चेतना और जीवन दर्शन के स्वर मिलते हैं।

अग्निपथ कविता का सार- Agneepath Poem Meaning in Hindi

प्रस्तुत कविता में कवि ने संघर्षमय जीवन को ‘अग्नि पथ’ कहते हुए मनुष्य को यह संदेश दिया है कि राह में सुख रूपी छाँह की चाह न कर अपनी मंजिल की ओर कर्मठतापूर्वक बिना थकान महसूस किए बढते ही जाना चाहिए। कवि कहते हैं कि जीवन संघर्षपूर्ण है। जीवन का रास्ता कठिनाइयों से भरा हुआ है। परन्तु हमें अपना रास्ता खुद तय करना है। किसी भी परिस्थिति में हमें दूसरों का सहारा नही लेना है। हमें कष्ट-मुसीबतों पर जीत पाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।

अग्नि पथ कविता का भावार्थ व्याख्या: Detail Explanation

अग्नि पथ कविता का भावार्थ व्याख्या: Detail Explanation

अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!



भावार्थ – 
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘अग्नि पथ’ कविता से उद्धृत हैं, जो कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ जी के द्वारा रचित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि , जीवन संघर्ष से भरा है, रास्तें अंगारों से बना है, लेकिन हमें इस कठिन राह पर निरन्तर आगे बढ़ते रहना है | पेड़ भले ही कितना भी मज़बूत बने खड़े हो, चाहे वह कितना भी घना हो, कितना भी विशाल हो, लेकिन उससे कभी एक पत्ते की भी छाया नहीं माँगना चाहिए। अर्थात्  मनुष्य को अपने कर्म के रास्ते पर किसी का भी सहारा नहीं लेना चाहिए, चाहे रास्ते पर आग ही क्यों न बिछा हो | मनुष्य को अपना मार्ग स्वयं सुनिश्चित कर निरन्तर आगे बढ़ना होगा, यही जीवन का सार है। जीवन के मार्ग बहुत कठिन है | 

(2) तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी! कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!



भावार्थ – 
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘अग्नि पथ’ कविता से उद्धृत हैं, जो कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ जी के द्वारा रचित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि मनुष्य को अपने कर्म के रास्ते पर कभी थकना नहीं चाहिए, चाहे जितनी भी कठिनाई क्यूँ न हो, डर कर कभी बीच में रुकना नहीं चाहिए, और ना ही अपने कर्म के मार्ग से कभी लौटना है, निरन्तर आगे बढ़ना है, यह प्रतिज्ञा कर लेना चाहिए। बेशक, जीवन संघर्ष से भरा हुआ है | जीवन के रास्ते अंगारों से भरें हैं। हमें हरदम निडर होकर जीवन में आगे बढ़ते रहना चाहिए |  

(3) यह महान दृश्य है
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!



भावार्थ –
 प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘अग्नि पथ’ कविता से उद्धृत हैं, जो कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ जी के द्वारा रचित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि जब मनुष्य अपने कर्म के रास्ते पर कड़ी मेहनत या परिश्रम करके, बिना रुके, बिना थके आगे बढ़ता है, तो वह दृश्य अद्भुत होता है | वह मनुष्य महान होता है, जब अंगारों के रास्तों पर आँसु, पसीना, और रक्त से भीग कर सदैव मेहनत करके ऊँची शिखर तक पहुँचता है तथा जीवन के संघर्ष में हमेशा जीत हासिल करता है | 

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NCERT Solution – अग्नि पथ

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एक फूल की चाह का सारांश | Ek Phool ki Chah Summary class 9 Chapter-12 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

एक फूल की चाह का सारांश |  Ek Phool ki Chah Summary class 9 Chapter-12 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

सियारामशरण गुप्त
इनका जन्म झांसी के निकट चिरगांव में सन 1895 में हुआ था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इनके बड़े भाई थे तथा पिता भी कविताएं लिखते थे।  ये महत्मा गांधी और विनोबा भावे के अनुयायी थे जिसका संकेत इनकी रचनाओं में मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं का प्रमुख गुण है कथात्मकता। इन्होंने सामाजिक कुरुतियों पर करारी चोट की है। इनके काव्य की पृष्ठभूमि अतीत हो या वर्तमान , उनमें आधुनिक मानवता की करुणा , यातना और द्‍वंद्‍व समन्वित रूप में उभरा है।

एक फूल की चाह पाठ का सार: Short Summary

प्रस्तुत पाठ ‘एक फूल की चाह’ छुआछूत की समस्या से संबंधित कविता है। महामारी के दौरान एक अछूत बालिका उसकी चपेट में आ जाती है। वह अपने जीवन की अंतिम साँसे ले रही है। वह अपने माता- पिता से कहती है कि वे उसे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दें । पिता असमंजस में है कि वह मंदिर में कैसे जाए। मंदिर के पुजारी उसे अछूत समझते हैं और मंदिर में प्रवेश के योग्य नहीं समझते। फिर भी बच्ची का पिता अपनी बच्ची की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर में जाता है। वह दीप और पुष्प अर्पित करता है और फूल लेकर लौटने लगता है। बच्ची के पास जाने की जल्दी में वह पुजारी से प्रसाद लेना भूल जाता है। इससे लोग उसे पहचान जाते हैं। वे उस पर आरोप लगाते हैं कि उसने वर्षों से बनाई हुई मंदिर की पवित्रता नष्ट कर दी। वह कहता है कि उनकी देवी की महिमा के सामने उनका कलुष कुछ भी नहीं है। परंतु मंदिर के पुजारी तथा अन्य लोग उसे थप्पड़-मुक्कों से पीट-पीटकर बाहर कर देते हैं। इसी मार-पीट में देवी का फूल भी उसके हाथों से छूट जाता है। भक्तजन उसे न्यायालय ले जाते हैं। न्यायालय उसे सात दिन की सज़ा सुनाता है। सात दिन के बाद वह बाहर आता है , तब उसे अपनी बेटी की ज़गह उसकी राख मिलती है।

इस प्रकार वह बेचारा अछूत होने के कारण अपनी मरणासन्न बेटी की अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाता। इस मार्मिक प्रसंग को उठाकर कवि पाठकों को यह कहना चाहता है कि छुआछूत की कुप्रथा मानव-जाति पर कलंक है। यह मानवता के प्रति अपराध है।

एक फूल की चाह पाठ का सार: Detailed  Explanation

एक फूल की चाह पाठ का सार: Detailed Explanation

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर-उधर।
क्षीण-कंठ मृतवत्साओं का
करुण रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।


एक फूल की चाह भावार्थ : कवि ने एक फूल की चाह कविता में उस वक्त फैली हुई महामारी के बारे में बताया है। इस महामारी की चपेट में ना जाने कितने मासूम बच्चे आ चुके थे। जिन माताओं ने अपने बच्चों को इस महामारी के कारण खोया था, उनके आँसू रुक ही नहीं रहे थे। रोते-रोते उनकी आवाज़ कमजोर पड़ चुकी थी, पर उस कमजोर पड़ चुके करुणा से भरे स्वर में भी अपार अशांति सुनाई दे रही थी।

बहुत रोकता था सुखिया को,
‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल-भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।


एक फूल की चाह भावार्थ : प्रस्तुत पंक्ति में एक पिता द्वारा अपने पुत्री को इस महामारी से बचाने के लिए किये जा रहे प्रयासों का वर्णन है। पिता अपनी पुत्री को महामारी से बचाने के लिए, हर बार बाहर खेलने जाने से रोकता था। पर पिता के हर बार मना करने पर भी, पुत्री सुखिया बाहर खेलने चली जाती थी। जब भी पिता सुखिया को बाहर खेलते हुए देखता था, तो डर से उसका हृदय कांप उठता था। वह सोचता था कि किसी भी तरह वह इस बार अपनी पुत्री को इस महामारी से बचा ले।

भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।


एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों मर कवि बता रहे हैं कि आखिरकार पिता को जिस बात का डर था वही हुआ। सुखिया एक दिन बुखार से बुरी तरह तड़प रही थी। उसका शरीर आग की तरह जल रहा था। इस बुखार से विचलित होकर सुखिया बोल रही है कि वह किस बात से डरे और किस बात से नहीं, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा। बुखार से तड़पते हुए स्वर में वह अपने पिता से देवी माँ के प्रसाद का एक फूल उसे लाकर देने के लिए बोलती है।

क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
चिंता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,
कब आई संध्या गहरी।


एक फूल की चाह भावार्थ : तेज बुखार के कारण सुखिया का गला सूख गया था। उसमें कुछ बोलने की शक्ति नहीं बची थी। उसके सारे अंग ढीले पड़ चुके थे। वहीँ दूसरी ओर सुखिया के पिता ने तरह-तरह के उपाय करके देख लिए थे, लेकिन कोई भी काम नहीं आया था। इसी वजह से वह गहरी चिंता में मन मार के बैठा था। वह बेचैनी में हर पल यही सोच रहा था कि कहीं से भी ढूंढ के अपनी बेटी का इलाज ले आए। इसी चिंता में कब सुबह से दोपहर हुई, कब दोपहर ख़त्म हुई और निराशाजनक शाम आयी उसे पता ही नहीं चला। 

सभी ओर दिखलाई दी बस,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।


एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि बता रहे हैं कि ऐसे निराशाजनक माहौल में अंधकार भी मानो डसने चला आ रहा है। पिता को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इतनी छोटी-सी बच्ची के लिए पूरा अंधकार ही दैत्य बनकर चला आया है। पिता इस बात से हताश हो चुका है कि वह अपनी बेटी को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर पाया। इसी निराशा में संध्या के समय आकाश में जगमगाते तारे भी पिता को अंगारों की तरह लग रहे हैं। जिससे उनकी आंखे झुलस-सी गई हैं।

देख रहा था-जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण-भर,
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर-
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!


एक फूल की चाह भावार्थ : पिता को यह देखकर बहुत कष्ट हो रहा है कि उसकी बेटी जो एक पल के लिए भी कभी शांति से नहीं बैठती थी और हमेशा उछलकूद मचाती रहती थी, आज चुपचाप बिना किसी हरकत के लेटी हुई है। वो यहाँ से वहां शोर मचाकार मानो पूरे घर में जान फूंक देती थी, लेकिन अब उसके चुपचाप हो जाने से पूरे घर की ऊर्जा समाप्त हो गई है। पिता उसे बार-बार उकसा कर यही सुनना चाह रहा है कि उसे देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहिए।

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
दीप-धूप से आमोदित था
मंदिर का आँगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।


एक फूल की चाह भावार्थ : दूर किसी पहाड़ी की चोटी पर एक भव्य मंदिर था। जिसके आँगन में खिले कमल के फूल सूर्य की किरणों में ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो सोने के कलश हों। मंदिर पूरी तरह से दीपकों से सजा हुआ था और धूप से महक रहा था। मंदिर में चारों ओर मंत्रो एवं घंटियो की आवाज़ गूँज रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो मंदिर में कोई उत्सव चल रहा हो।

भक्त-वृंद मृदु-मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद -मय,-
‘पतित-तारिणी पाप-हारिणी,
माता, तेरी जय-जय-जय!‘
‘पतित-तारिणी, तेरी जय जय’-
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढिकला!


एक फूल की चाह भावार्थ : भक्तों का एक बड़ा समूह पूरी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ देवी माँ का जाप कर रहा था। सभी एक साथ एक स्वर में बोल रहे थे ‘पतित तारिणी पाप हारिणी, माता तेरी जय जय जय।’ यह सुनकर ना जाने उस अभागे पिता के अंदर भी कहाँ से ऊर्जा आ गई और उसके मुख से भी निकल पड़ा ‘पतित तारिणी, तेरी जय जय’। वह बिना किसी प्रयास के, अपने-आप ही मंदिर के अंदर चला गया, मानो उसे किसी शक्ति ने मंदिर के अंदर धकेल दिया हो।

मेरे दीप-फूल लेकर वे
अंबा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा, -बेटी को माँ के ये
पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।


एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि बताते हैं कि मंदिर में प्रवेश करने पर पिता पुजारी के पास जाकर अपने हाथों से पुष्प और दीप पुजारी को देता है। पुजारी उसे लेकर देवी माँ के चरणों में अर्पित करता है। पुजारी अपने हाथों में देवी माँ के प्रसाद को लेकर उसे देने के लिए हाथ आगे करता है । पिता इस आनंद में प्रसाद लेना भूल ही जाता है कि अब वह अपनी पुत्री को देवी माँ के प्रसाद का फूल दे पायेगा।

सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों के जैसा!


एक फूल की चाह भावार्थ : सुखिया का पिता अभी आँगन तक भी नहीं पहुँच पाया था कि अचानक पीछे से आवाज़ आयी – ‘अरे यह अछूत मंदिर में कैसे घुस गया। पकड़ो इसे कहीं भाग ना जाए। किस तरह इसने मंदिर में घुसकर चालाकी की है। देखो कैसे साफ़ सुथरे कपड़े पहनकर हमारी नक़ल कर रहा है। पकड़ो इस धूर्त को। कहीं भाग ना जाए।’

पापी ने मंदिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कलुषित कर दी है मंदिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।“
ऐं, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा के भी?


एक फूल की चाह भावार्थ : फिर भीड़ से आवाज़ आयी कि इस पापी ने मंदिर में घुस कर बड़ा अनर्थ किया है। मंदिर की सालों-साल की गरिमा, पवित्रता को इसने नष्ट कर दिया। सब मिलकर चिल्लाने लग जाते हैं कि इस पापी ने मंदिर में घुस कर मंदिर को दूषित कर दिया। तब सुखिया का पिता यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या मेरा अछूतपन देवी माँ की महिमा से भी बड़ा है? क्या मेरे इस अछूतपन में देवी माँ से भी ज्यादा शक्ति है, जिसने देवी माँ के रहते हुए भी इस पूरे मंदिर को अशुद्ध कर दिया?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया;
मार मारकर मुक्के घूँसे
धम्म से नीचे गिरा दिया!


एक फूल की चाह भावार्थ :  सुखिया के पिता ने भीड़ से कहा कि तुम माँ के कैसे भक्त हो, जो खुद माँ के गौरव को मेरी तुलना में छोटा कर दे रहे हो। अरे माँ के सामने तो छूत-अछूत सभी एक-समान हैं। परन्तु, सुखिया के पिता की इन बातों को किसी ने नहीं सुना और भीड़ ने उसे पकड़ कर खूब मारा, फिर मारते हुए उसे जमीन पर गिरा दिया।

मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सबका सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।
न्यायालय ले गए मुझे वे,
सात दिवस का दंड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!


एक फूल की चाह भावार्थ : भीड़ के इस तरह सुखिया के पिता को पकड़ के मारने के कारण, उसके हाथों से प्रसाद भी गिर गया। जिसमें देवी माँ के चरणों में चढ़ा हुआ फूल भी था। सुखिया के पिता मार खाते हुए, दर्द सहते हुए भी सिर्फ यही सोच रहे थे कि अब ये देवी माँ के प्रसाद का फूल उसकी बेटी सुखिया तक कैसे पहुँचेगा। भीड़ उसे पकड़ कर न्यायलय ले गयी। जहाँ पर उसे देवी माँ के अपमान जैसे भीषण अपराध के लिए सात दिन कारावास का दंड दिया गया।

मैंने स्वीकृत किया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता, क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविश्रांत बरसा करके भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।


एक फूल की चाह भावार्थ : सुखिया के पिता ने चुपचाप दंड को स्वीकार कर लिया। उसके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसे पूरे सात दिन जेल में बिताने पड़े, जो उसे सात सदियों के बराबर प्रतीत हो रहे थे। पुत्री के वियोग में सदैव बहते आंसू भी रुक नहीं पा रहे थे। वह हर पल अपनी प्यारी पुत्री को याद करके रोता रहता था।

दंड भोगकर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को;
पीछे ठेल रहा था कोई
भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको
नहीं दौड़कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।


एक फूल की चाह भावार्थ : 
जेल से छूट कर वह भय के कारण घर नहीं जा पा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसके शरीर के अस्थि-पंजर को मानो कोई उसके घर की ओर धकेल रहा हो। जब वह घर पहुंचा, तो पहले की तरह उसकी बेटी दौड़ कर उसे लेने नहीं आयी और ना ही वह खेलती हुई बाहर कहीं दिखाई दी।

उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढ़ेरी!


एक फूल की चाह भावार्थ : जब वह घर पर अपनी बेटी को नहीं देख पाता है, तो वह अपनी बेटी को देखने के लिए श्मशान की ओर दौड़ता है। परन्तु जब वह श्मशान पहुँचता है, तो उसके परिचित बंधु आदि संबंधी पहले ही उसकी पुत्री का अंतिम संस्कार कर चुके होते हैं। अब तो उसकी चिता भी बुझ चुकी थी। यह देख कर सुखिया के पिता की छाती धधक उठती है। उसकी फूलों की तरह कोमल-सी बच्ची आज राख का ढेर बन चुकी थी।

अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा!


एक फूल की चाह भावार्थ : अंत में सुखिया के पिता के मन में बस यही मलाल शेष बचता है कि वह अपनी पुत्री को अंतिम बार गोद में भी नहीं ले पाया। वह इतना अभागा है कि अपनी बेटी की अंतिम इच्छा के रूप में, माँ के प्रसाद का एक फूल भी उसे लाकर नहीं दे पाया।

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NCERT Solution – एक फूल की चाह

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आदमी नामा का सारांश | AAdmi nam Summary class 9 Chapter-11 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

नजीर अकबराबादी आदमी नामा  का सारांश |  AAdmi nam Summary class 9 Chapter-11 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

नजीर अकबराबादी

इनका जन्म आगरा शहर में सन 1735 में हुआ। इन्होने आगरा के अरबी-फ़ारसी के मशहूर अदीबों से तालीम हासिल की। नजीर हिन्दू त्योहारों में बहुत दिलचस्पी लेते थे और शामिल होकर दिलोजान से लुत्फ़ उठाते थे। नजीर दुनिया के रंग में रंगे हुए महाकवि थे।

आदमी नामा कविता का अर्थ- Aadmi Nama Poem Short Summary : 

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि नज़ीर अकबराबादी ने आदमी के विभन्न रूपों का वर्णन किया है। उनके अनुसार इस संसार में हर तरह के आदमी बसे हुए हैं, फिर चाहे वो अच्छे हों या ख़राब। उनके अनुसार इन्हीं आदमियों में से कोई ऐसा है, जो दूसरों का भला चाहता है, उनकी सहायता करता है, अगर कोई मदद के लिए पुकारे, तो भाग कर जाता है। इसके ठीक विपरीत कुछ आदमी ऐसे भी हैं, जिनके मन में पाप भरा हुआ है, वे दूसरों से नफरत करते हैं।  दूसरों की चीज़ें चुराते हैं। दूसरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करने में उन्हें मज़ा आता है। इस प्रकार उनका यह कथन पूरी तरह से सत्य है कि इस दुनिया में बुरे तथा भले दोनों किस्म के इंसान हैं

Aadmi Nama Class 9 Summary in Hindi – आदमी नामा भावार्थ

दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफ़लिश-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी
ज़रदार बेनवा है सो है वो भी आदमी
निअमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ :  आदमी नामा कविता में कवि नज़ीर अकबराबादी ने मानव के विविध रूपों के बारे में बताया है। उन्होंने आदमी के हर रूप का वर्णन किया है। दुनिया में विभिन्न प्रकार के आदमी होते हैं, जैसे कुछ धनी व्यक्ति होते हैं, तो कुछ गरीब भी होते हैं। कुछ बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं, तो कुछ मुर्ख भी होते हैं। यहां कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाने वाले व्यक्ति हैं, तो झूठे तथा रूखे-सूखे टुकड़ों को खाकर पलने वाले आदमी भी यहीं मौजूद है।

हर आदमी अलग होता है और उसका अपना अलग काम होता है। इसी कारणवश उनकी जीवन-शैली भी अलग होती है। उनके रहने का तरीका, खान-पान सब कुछ अलग होता है। उनकी जिमेदारियां भी अलग-अलग होती हैं।

इसीलिए कवि अपनी इस कविता में कहता है कि चाहे राजा हो या प्रजा, सब आदमी ही हैं। चाहे ताक़तवर हो या कमजोर, सब आदमी ही हैं।

मसज़िद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्वाँ
पढ़ते हैं आदमी ही कुरआन और नमाज यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियाँ
जो उनको ताड़ता है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने आदमी के विभिन्न रूपों का वर्णन करते हुए, उनके कार्यों के बारे में बताया है। उन्होंने यहाँ हमें मस्जिद का उदाहरण देते हुए कहा है कि जिन्होंने मस्जिद का निर्माण किया है, वे भी आदमी हैं। जो मस्जिद के अंदर नमाज़ या कुरान पढ़ाता है, वह भी आदमी है और जो लोग उस नमाज़ या कुरान को पढ़ने जाते हैं, वे भी आदमी हैं।

यहाँ तक कि उनकी चप्पलों को चुराने वाले भी आदमी एवं उनके ऊपर नजर रखकर पहरा देने वाले भी आदमी ही हैं। इस तरह कवि ने यहाँ आदमी के विभिन्न रूपों एवं कार्यो का वर्णन करते हुए, हमें यह बताया है कि दुनिया में पुण्य करने वाले भी आदमी और पाप करने वाले भी आदमी ही हैं।

यां आदमी पै जान को वारे है आदमी
और आदमी पै तेग को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ : अपनी इन पंक्तियों में कवि ने आदमी के प्रकृति के बारे में बताया है। कोई आदमी दूसरे आदमी की जान ले लेता है, तो कोई आदमी उसकी जान बचाता है। कोई आदमी किसी को बेइज्जत करता है, तो कोई आदमी उसकी इज्जत बचाने की कोशिश करता है। मदद मांगने के लिए जो पुकार लगता है, वह भी आदमी है और जो वह पुकार सुनकर मदद करने के लिए दौड़ता है, वह भी आदमी ही है। इस तरह कवि ने हमें यह शिक्षा दी है कि मनुष्य विभिन्न प्रकृति के होते हैं। कोई भला करके खुश होता है, तो कोई बुरा करके।

अशराफ़ और कमीने से ले शाह ता वज़ीर
ये आदमी ही करते हैं सब कारे दिलपज़ीर
यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए नज़ीर
और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ :  इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि शरीफ भी आदमी है और कमीने भी आदमी। जो शाह बनकर गद्दी पे बैठा है, वह भी आदमी और जो उसका वजीर है, वह भी आदमी ही है। किसी को खुश करने के लिए कुछ भी कर देने वाला भी आदमी ही है और उससे खुश होने वाला भी आदमी। किसी को तकलीफ देने वाला भी आदमी और तकलीफ सहने वाला भी आदमी ही है। इस तरह नाजिर अकबराबादी के इस आदमी नामा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि इस संसार में जो अच्छा करता है, वह भी आदमी है और जो बुरा करता है, वह भी आदमी ही है।

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NCERT Solution – आदमी नामा 

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रहीम के दोहे का सारांश | Dohe Summary class 9 Chapter-10 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

रहीम के दोहे का सारांश |  Dohe Summary class 9 Chapter-10 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय


रहीम
इनका जन्म लाहौर में सन 1556 में हुआ। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। रहीम अरबी, फारसी, संस्कृत और अच्छे जानकार थे। अकबर के दरबार में हिंदी कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे।

रहीम के दोहे पाठ का सारांश Summary

प्रस्तुत दोहे के रचयिता कवि रहीम हैं। इसमें रहीम जी के नीति परक दोहे दिए गए हैं। इन दोहों में रहीम जी ने मानव के आस-पास के चीजों को और मानव के आचरण उनके व्यवहार उनके जीवन के बारे में बहुत ही कम शब्दों में अच्छा ज्ञान और शिक्षा दी है। रहीम जी ने अपने दोहों के माध्यम से प्रेम के बंधन, जल का महत्व, छोटे-बड़े का सम्मान, अपना काम निश्चित समय पर और सही तरीके से करने का ज्ञान। रामजी के वनवास के समय उन पर आई विपदा, धन के बिना मनुष्य का महत्व क्या होता है, अपनी बातों को किसी के सामने कैसे बोलना चाहिए, इन सभी बातों को अपने दोहों में बहुत ही सुंदर और सार्थक तरीकों से पाठक को बताने का प्रयास किया है | रहीम जी के दोहे में मानव कल्याण और उनके हित के बातों को बताया गया, इनके दोहे एक बार पढ़ लेने से जीवन भर उसका छाप मन-मस्तिष्क में रह जाता है…|| 

रहीम के दोहे कक्षा 9 का अर्थ व्याख्या

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।।

अर्थ –  रहीम के अनुसार प्रेम रूपी धागा अगर एक बार टूट जाता है तो दोबारा नहीं जुड़ता। अगर इसे जबरदस्ती जोड़ भी दिया जाए तो पहले की तरह सामान्य नही रह जाता, इसमें गांठ पड़ जाती है।

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।।


अर्थ – रहीम कहते हैं कि अपने दुःख को मन के भीतर ही रखना चाहिए क्योंकि उस दुःख को कोई बाँटता नही है बल्कि लोग उसका मजाक ही उड़ाते हैं।

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय।।


अर्थ – रहीम के अनुसार अगर हम एक-एक कर कार्यों को पूरा करने का प्रयास करें तो हमारे सारे कार्य पूरे हो जाएंगे, सभी काम एक साथ शुरू कर दियें तो तो कोई भी कार्य पूरा नही हो पायेगा। वैसे ही जैसे सिर्फ जड़ को सींचने से ही पूरा वृक्ष हरा-भरा, फूल-फलों से लदा रहता है।

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस।
जा पर बिपदा परत है, सो आवत यह देश।।


अर्थ – रहीम कहते हैं कि चित्रकूट में अयोध्या के राजा राम आकर रहे थे जब उन्हें 14 वर्षों के वनवास प्राप्त हुआ था। इस स्थान की याद दुःख में ही आती है, जिस पर भी विपत्ति आती है वह शांति पाने के लिए इसी प्रदेश में खिंचा चला आता है।

दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिट कूदि चढिं जाहिं॥

अर्थ – रहीम कहते हैं कि दोहा छंद ऐसा है जिसमें अक्षर थोड़े होते हैं किंतु उनमें बहुत गहरा और दीर्घ अर्थ छिपा रहता है। जिस प्रकार कोई कुशल बाजीगर अपने शरीर को सिकोड़कर तंग मुँह वाली कुंडली के बीच में से कुशलतापूर्वक निकल जाता है उसी प्रकार कुशल दोहाकार दोहे के सीमित शब्दों में बहुत बड़ी और गहरी बातें कह देते हैं ।

धनि रहीम जल पंक को,लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है,जगत पिआसो जाय।।

अर्थ- रहीम कहते हैं कि कीचड़ का जल सागर के जल से महान है क्योंकि कीचड़ के जल से कितने ही लघु जीव प्यास बुझा लेते हैं। सागर का जल अधिक होने पर भी पीने योग्य नहीं है। संसार के लोग उसके किनारे आकर भी प्यासे के प्यासे रह जाते हैं। मतलब यह कि महान वही है जो किसी के काम आए।

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछु न दे।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि संगीत की तान पर रीझकर हिरन शिकार हो जाता है। उसी तरह मनुष्य भी प्रेम के वशीभूत होकर अपना तन, मन और धन न्यौछावर कर देता है लेकिन वह लोग पशु से भी बदतर हैं जो किसी से खुशी तो पाते हैं पर उसे देते कुछ नहीं है।

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि मनुष्य को सोच समझ कर व्यवहार करना चाहिए क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एक बार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथकर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा।

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।।

अर्थ – रहीम के अनुसार हमें बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु अनादर नहीं करना चाहिए, उनकी भी अपना महत्व होता। जैसे छोटी सी सुई का काम बड़ा तलवार नही कर सकता।

रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्‍यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि संकट की स्थिति में मनुष्य की निजी धन-दौलत ही उसकी सहायता करती है।जिस प्रकार पानी का अभाव होने पर सूर्य कमल की कितनी ही रक्षा करने की कोशिश करे, फिर भी उसे बचाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य को बाहरी सहायता कितनी ही क्यों न मिले, किंतु उसकी वास्तविक रक्षक तो निजी संपत्ति ही होती है।

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि पानी का बहुत महत्त्व है। इसे बनाए रखो। यदि पानी समाप्त हो गया तो न तो मोती का कोई महत्त्व है, न मनुष्य का और न आटे का। पानी अर्थात चमक के बिना मोती बेकार है। पानी अर्थात सम्मान के बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है और जल के बिना रोटी नहीं बन सकती, इसलिए आटा बेकार है।

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NCERT Solution – रहीम के दोहे 

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रैदास का सारांश | Rawdas Summary class 9 Chapter-9 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

रैदास रैदास का सारांश |  Rawdas Summary class 9 Chapter-9 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

रैदास

इनका जन्म सन 1388 और देहावसान सन 1518 में बनारस में ही हुआ, ऐसा माना जाता है। मध्ययुगीन साधकों में इनका विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के कवियों में गिने जाते हैं। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का ज़रा भी विश्वास न था। वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे।

Raidas Ke Pad Explanation – रैदास के पद का सार : Short Summary

 संत कवि रैदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग है, जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। उनका सच्चे ज्ञान पर विश्वास था। उन्होंने भक्ति के लिए परम वैराग्य को अनिवार्य माना था। उनके अनुसार ईश्वर एक है और वह जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में मौजूद है।

इसी विचारधारा के अनुसार, उन्होनें अपने प्रथम पद “अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी” में हमें यह शिक्षा दी है कि हमें ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं मिलेंगे या किसी मूर्ति में नहीं मिलेंगे। ईश्वर को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय अपने मन के भीतर झाँकना है। कवि ने यहाँ प्रकृति एवं जीवों के विभिन्न रूपों का उपयोग करके यह कहा है कि भक्त और भगवान एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। उनके अनुसार ईश्वर सर्वश्रेष्ठ हैं और हर जन्म में वे ही सर्वश्रेष्ठ रहेंगे।

अपने दूसरे पद “ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।” में रैदास जी ने ईश्वर की महत्ता का वर्णन किया है। उनके अनुसार ईश्वर धनी-गरीब, छुआ-छूत आदि में विश्वास नहीं करते और वे सभी का उद्धार करते हैं। वे चाहें तो नीच को भी महान बना सकते हैं। ईश्वर ने नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैनु जैसे संतों का उद्धार किया था और वे  हमारा भी उद्धार करेंगे। इस तरह, उन्होंने हमें उस समय के समाज में व्याप्त जात-पाँत, छुआ-छूत जैसे अंधविश्वासों का त्याग करने की सलाह दी है।

रैदास के पद अर्थ सहित – Raidas ke Pad in Hindi with Meaning

(1)
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी , जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा , जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती , जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा , जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा , ऐसी भक्ति करै रैदासा।

प्रभु! हमारे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है, वह कैसे छूट सकती है? अब मै आपका परम भक्त हो गया हूँ। जिस तरह चंदन के संपर्क में रहने से पानी में उसकी सुगंध फैल जाती है, उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो गई है । आप आकाश में छाए काले बादल के समान हो, मैं जंगल में नाचने वाला मोर हूँ। जैसे बरसात में घुमडते बादलों को देखकर मोर खुशी से नाचता है, उसी भाँति मैं आपके दर्शन् को पा कर खुशी से भावमुग्ध हो जाता हूँ। जैसे चकोर पक्षी सदा अपने चंद्रामा की ओर ताकता रहता है उसी भाँति मैं भी सदा आपका प्रेम पाने के लिए तरसता रहता हूँ।
हे प्रभु ! आप दीपक हो और मैं उस दिए की बाती जो सदा आपके प्रेम में जलता है। प्रभु आप मोती के समान उज्ज्वल, पवित्र और सुंदर हो और मैं उसमें पिरोया हुआ धागा हूँ। आपका और मेरा मिलन सोने और सुहागे के मिलन के समान पवित्र है । जैसे सुहागे के संपर्क से सोना खरा हो जाता है, उसी तरह मैं आपके संपर्क से शुद्ध हो जाता हूँ। हे प्रभु! आप स्वामी हो मैं आपका दास हूँ।

(2)
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै॥
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥


हे प्रभु ! आपके बिना कौन कृपालु है। आप गरीब तथा दिन – दुखियों पर दया करने वाले हैं। आप ही ऐसे कृपालु स्वामी हैं जो मुझ जैसे अछूत और नीच के माथे पर राजाओं जैसा छत्र रख दिया। आपने मुझे राजाओं जैसा सम्मान प्रदान किया। मैं अभागा हूँ। मुझ पर आपकी असीम कृपा  है। आप मुझ पर द्रवित हो गए । हे स्वामी आपने मुझ जैसे नीच प्राणी को इतना उच्च सम्मान प्रदान किया। आपकी दया से नामदेव , कबीर जैसे जुलाहे , त्रिलोचन जैसे सामान्य , सधना जैसे कसाई और सैन जैसे नाई संसार से तर गए। उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। अंतिम पंक्ति में रैदास कहते हैं – हे संतों, सुनो ! हरि जी सब कुछ करने में समर्थ हैं। वे कुछ भी करने में सक्षम हैं।

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NCERT Solution – रैदास

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धर्म की आड़ पाठ का सारांश | Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-7 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

धर्म की आड़ पाठ का सारांश |  Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-7 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

गणेशशंकर विद्यार्थी

इनका जन्म सन 1891 में मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था। एंट्रेंस पास करने के बाद कानपूर दफ्तर में मुलाजिम हो गए। फिर 1921 में ‘प्रताप’ साप्ताहिक अखबार निकालना शुरू किया। ये आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी को साहित्यिक गुरु मानते थे। इनका ज्यादा समय जेल में बिता। कानपुर में 1931 में मचे सांप्रदायिक दंगों को शांत करवाने के प्रयास में इनकी मृत्यु हो गयी।

धर्म की आड़ पाठ का सार: Summary

प्रस्तुत पाठ ‘धर्म की आड़’ में विद्‍यार्थी जी ने उन लोगों के इरादों और कुटिल चालों को बेनकाब किया है जो धर्म की आड़ लेकर जनसामान्य को आपस में लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्‍ध करने की फ़िराक में रहते हैं। उन्होंने बताया है की कुछ चालाक व्यक्ति साधारण आदमी को अपने स्वार्थ हेतु धर्म के नाम पर लड़ते रहते हैं। साधारण आदमी हमेशा ये सोचता है की धर्म के नाम पर जान तक दे देना वाजिब है।

पाश्चत्य देशों में धन के द्वारा लोगों को वश में किया जाता है, मनमुताबिक काम करवाया जाता है। हमारे देश में बुद्धि पर परदा डालकर कुटिल लोग ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए ले लेते हैं और फिर धर्म, ईमान के नाम पर लोगों को आपस में भिड़ाते रहते हैं और अपना व्यापार चलते रहते हैं। इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए हमें साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग करना चाहिए। यदि किसी धर्म के मनाने वाले जबरदस्ती किसी के धर्म में टांग अड़ाते हैं तो यह कार्य स्वाधीनता के विरुद्ध समझा जाए।
देश की स्वाधीनता आंदोलन में जिस दिन खिलाफत, मुल्ला तथा धर्माचार्यों को स्थान दिया गया वह दिन सबसे बुरा था जिसके पाप का फल हमे आज भी भोगना पड़ रहा है। लेखक के अनुसार शंख बजाना, नाक दबाना और नमाज पढ़ना धर्म नही है। शुद्धाचरण और सदाचरण धर्म के चिन्ह हैं। आप ईश्वर को रिश्वत दे देने के बाद दिन भर बेईमानी करने के लिए स्वतंत्र नही हैं। ऐसे धर्म को कभी माफ़ नही किया जा सकता। इनसे अच्छे वे लोग हैं जो नास्तिक हैं।

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NCERT Solution – धर्म की आड़

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कीचड़ का काव्य पाठ का सारांश | Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-6 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कीचड़ का काव्य पाठ का सारांश |  Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-6 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय


काका कालेलकर

इनका जन्म महराष्ट्र के सतारा नगर में सन 1885 में हुआ। काका की मातृभाषा मराठी थी, उन्हें गुजराती, हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। गांधीजी के साथ राष्ट्रभाषा प्रचार में जुड़ने के बाद काका हिंदी में लेखन करने लगे। आजादी के बाद काका जिंदगी भर गांधीजी के विचार और साहित्य के प्रचार-प्रसार में जुटे रहे।

कीचड़ का काव्य पाठ का सार : Summary

प्रस्तुत लेख ‘कीचड़ का काव्य’ में लेखक ने कीचड़ का महिमामंडन किया है। उन्होंने बताया है की कोई भी कवि या लेखक अपने कृतियों में कीचड़ का वर्णन नही करते हैं, जबकि लेखक को कीचड़ में कम सौंदर्य नजर नही आता। कीचड़ का रंग बहुत व्यक्तियों को पसंद आता है जैसे पुस्तक के गत्तों पर, घरों की दीवालों पर, मिटटी के बर्तनो के लिए तथा फोटो लेते समय।

कीचड के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लेखक ने कहा है की जब ये नदी के किनारे सुख कर टूट जाते हैं, उनमे दरारे पड़ जाती हैं तब वे सुखाये खोपड़े जैसे दिखाई पड़ते हैं। जब उसपर छोटे-बड़े पक्षी के पदचिन्ह अंकित हो जाते हैं तो हमें उस रास्ते कारवां ले जाने की इच्छा होती है। फिर जब कीचड़ ज्यादा सुखकर जमीन ठोस हो जाती है तथा गाय, भैंस, बैल, बकरे आदि के पदचिन्ह अंकित हो जाते हैं है जिसकी शोभा कुछ और ही है। जब दो पांडे अपने सींगो द्वारा कीचड़ को रौंदकर आपस में लड़ते हैं तो उनके अंकित चिन्ह महिषकुल के युद्ध का वर्णन करते हैं।

अगर हमें कीचड़ के विशाल रूप को देखना है तो गंगा किनारे या सिंधु के किनारे जाना चाहये या फिर सीधे खम्भात पहुंचना चाहिए जहाँ हमारी नजर जहाँ तक जायेगी वहां सर्वत्र कीचड़ ही मिलेगा। लेखक के अनुसार अगर मनुष्य को ये याद रहे की उनका अन्न कीचड़ की ही दें है तो वह इसका तिरस्कार न करे। हमारे कवि मल के द्वारा उत्पन्न शब्द का उपयोग शान से करते हैं परन्तु मल को स्थान नही देते। इस विषय पर चर्चा कवियों से चर्चा न करना ही उत्तम है।

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NCERT Solution –कीचड़ का काव्य

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