Chapter 7 नए की जन्म कुंडली: एक | CLASS 11TH HINDI | REVISION NOTES ANTRA

कक्षा 11 नए की जन्म कुंडली : एक पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ नए की जन्म कुंडली : एक लेखक गजानंद माधव मुक्तिबोध जी के द्वारा लिखित है | लेखक ने प्रस्तुत पाठ में व्यक्ति और समाज के बाहरी तथा आंतरिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त चेतना को नए की सन्दर्भ में देखने का प्रयास किया है। मुक्तिबोध जी का कहना है कि धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परिवर्तन के फलस्वरूप पर्याप्त यथार्थ के वैज्ञानिक चेतना को नया मानना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि संघर्ष और विरोध के परिणाम को व्यवहारिकता में ना जीने के कारण ही हम पुराने को छोड़ देते हैं। लेकिन नए को वास्तविक रूप से अपना नहीं पाते। लेखक के अनुसार नए की पुकार हम लगाते हैं, लेकिन नया क्या है, इस विषय में हमारी जानकारी शून्य के बराबर है। हमने सोचा ही नहीं है कि यह नया मान-मूल्य हो, एक नया मनुष्य हो या क्या हो ? जब हम यह नहीं जान पाए, तो जो स्वरूप उभरा था, वह भी शून्यता के कारण मिट गया। उनको दृढ़ तथा नए जीवन, नए मानसिक सत्ता का रूप धारण करना था | पर वे प्रश्नों के उत्तर न होने के कारण समाप्त हो गए। वे हमारे धर्म और दर्शन का स्थान नहीं ले सके। वे इनका स्थान तभी ले पाते जब हम इन विषयों पर अधिक सोचते। नए को अपना पाते।

इस संसार का नियम है कि जो पुराना हो चुका है, वह वापिस नहीं आता। अर्थात् जो बातें, विचार, परंपराएँ इत्यादि हैं, वे आज भी हमारे परिवार में दिखाई दे जाती हैं। वे मात्र उनके अवशेष के रूप में विद्यमान हैं। समय बदल रहा है और नए विचार, बातें तथा परंपराएँ जन्म ले रही हैं। ये जो भी नया आ रहा है, इसने पुराने का स्थान नहीं लिया है। ये अलग से अपनी जगह बना रहे हैं। परिणाम जो पुराना है, वह अपने अस्तित्व के लिए तड़प रहा है और नए का विरोध करता है। इस कारण दोनों में अंतर्द्वंद्व की स्थिति बन गई है। उदाहरण के लिए धर्म हमारी संस्कृति का आधार है। हम लोगों की इस पर बड़ी आस्था है। आज की पीढ़ी वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए है। उसने धर्म को नकार दिया है। चूंकि धर्म हमारी संस्कृति का आधार है। अतः इसे पूर्णरूप से निकालना संभव नहीं है। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर बात को परखते हैं, लेकिन कई चीज़ें हमारी समझ से परे होती हैं, तो हम उसे धर्म के क्षेत्र में लाकर खड़ा कर देते हैं। हमने धार्मिक भावना को तो छोड़ दिया है लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि का सही से प्रयोग करना नहीं सीखा है। हम इसके लिए न प्रयास करते हैं और न हमें ज़रूरत महसूस होती है। ये दोनों बातें एक दूसरे से टकरा जाती हैं। हमें उत्तर में कुछ नहीं मिलता है। प्रायः यह स्थिति शिक्षित परिवारों में देखने को मिलती हैं | 

गजानन माधव मुक्तिबोध

लेखक के अनुसार आज की युवापीढ़ी के स्वभाव में अंतर हैं। वे घर से बाहर साहित्य और राजनीति की अनेकों बातें करते हैं। उसके बारे में सोचते हैं और करते भी हैं। जब यह बात घर की आती है, तो उनका व्यवहार बदल जाता है। पूंजीपतियों के विरुद्ध विद्रोह, शासन के विरुद्ध विद्रोह आदि विद्रोह सरलता से खड़े हो जाते हैं। जब समाज की बात आती है, तो उनके मुँह में ताले लग जाते हैं। राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं है। राजनीति अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए मनुष्य द्वारा की जाती है। यही कारण है कि राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं है। राजनीति ने समाज को विकास के स्थान पर मतभेद और अशांति इत्यादि ही दी है। आज जाति भेद, आरक्षण आदि बातें राजनीति की देन हैं। यदि राजनीति देश के विकास का कार्य करती, तो भारत की स्थिति ही अलग होती | पिछले बीस वर्षों में भारत जैसे देश में संयुक्त परिवार का ह्रास हुआ है। यह स्वयं में बहुत बड़ी बात है। संयुक्त परिवार आज के समय में मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक है। उसकी सर्वप्रथम शिक्षा, संस्कार, विकास, चरित्र का विकास इत्यादि परिवार के मध्य रहकर ही होता है। आज ऐसा नहीं है। इसके परिणाम हमें अपने आसपास दिखाई दे रहे हैं। इससे मनुष्य को सामाजिक तौर पर ही नहीं अन्य तौर भी पर नुकसान झेलना पड़ रहा है। लेखक कहता है कि साहित्य और राजनीति ऐसा कोई साधन विकसित नहीं कर पाया है, जिससे संयुक्त परिवार के विघटन को रोक पाए। परिणाम आज वे समाप्त होते जा रहे हैं। इससे समाज को ही नहीं देश को भी नुकसान होगा। 

इस पाठ में लेखक व्यक्ति को असामान्य तथा असाधारण मानता था। उसके पीछे कारण था। उसके अनुसार जो व्यक्ति अपने एक विचार या कार्य के लिए स्वयं को और अपनों का त्याग सकता है, वह असामान्य तथा असाधारण व्यक्ति है। वह अपने मन से निकलने वाले उग्र आदेशों को निभाने का मनोबल रखता है। ऐसा प्रायः साधारण लोग कर नहीं पाते हैं। वह सांसारिक समझौते करते हैं और एक ही परिपाटी में जीवन बीता देते हैं। ऐसा व्यक्ति ही असामान्य तथा असाधारण होता है। इसमें लेखक ने दो मित्रों के स्वभाव और उनके समय के साथ बदलने वाले व्यवहार को बताया है जो आज के आधुनिक समय में होता आ रहा है। प्रस्तुत पाठ में मुक्तिबोध जी स्वयं और मित्र के बीच के अंतर को भी बताया है। मित्र सांसारिक खुशियों से दूर हो जाता है हमेशा असफलता मिलने के कारण उसके व्यवहार में निर्दयता और क्रूरता आ जाता है, लेकिन लेखक शान्त और अच्छे आचरण वाला होता है जिसे दूसरों को खुश करना अच्छा लगता है। लेकीन मित्र बिल्कुल अलग होता है। इसमें सामाजिक व्यवस्था और परिवार के महत्व के बारे में बताया गया है…|| 

गजानन माधव मुक्तिबोध का जीवन परिचय 

प्रस्तुत पाठ के लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध जी हैं। इनका जन्म सन् 1917 में श्योपुर कस्बा, ग्वालियर मध्य प्रदेश में हुआ था। मुक्तिबोध जी के पिता जी पुलिस विभाग में सब-इंस्पेक्टर थे उनके पिता जी का बार-बार तबादला होने के कारण इनकी पढ़ाई बीच-बीच में प्रभावित होती थी। इसके बाद में माधव जी ने सन् 1954 में एम.ए. की डिग्री नागपुर विश्वविद्यालय से प्राप्त किया। माधव जी ने ईमानदारी, दृढ़ इच्छाशक्ति एवं न्यायप्रियता के गुण अपने पिता जी के अच्छे आचरण से सीखा था। वे लंबे समय तक नया खून साप्ताहिक का संपादन करते थे। उसके बाद वे दिग्विजय महाविद्यालय मध्य प्रदेश में अध्यापन कार्य में लग गए। मुक्तिबोध जी का पुरा जीवन संघर्ष और विरोध से गुजरा। उनकी कविताओं में उनके जीवन की छवि नजर आती है। पहली बार उनकी कविता तारसप्तक में सन् 1943 में छपी थी। वे कहानी, उपन्यास, आलोचना भी लिखते थे। मुक्तिबोध जी एक समर्थ पत्रकार थे। वे नई कविता के प्रमुख कवि हैं। इनमें गहन विचारधारा और विशिष्ट भाषा शिल्प के कारण इनकी साहित्य में एक अलग पहचान है।  उनके साहित्य में स्वतंत्र भारत के मध्यमवर्गीय ज़िंदगी की विडंबनाओं और विद्रूपताओं के चित्रण के साथ ही एक बेहतर मानवीय समाज-व्यवस्था के निर्माण की आकांक्षा भी की है। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषता आत्म लोचन की प्रवृत्ति है | 

इनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं — चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल, नए साहित्य का सौंदयशास्त्र ,कामायनी, एक पुनर्विचार, एक साहित्यिक की डायरी…|| 

नए की जन्म कुंडली : एक पाठ के प्रश्न उत्तर 

प्रश्न-1 ‘सांसारिक समझौते’ से लेखक का क्या आशय है ? 

उत्तर- 
मुक्तिबोध जी कहते हैं कि सांसारिक समझौते से ज्यादा विनाशक कोई चीज़ नहीं है। खास तौर पर वहाँ, जहाँ किसी अच्छी व महत्वपूर्ण बात के मार्ग में अपने या अपने जैसे लोग या पराए लोग आड़े आते हों। वे कहते हैं, जितनी जबरदस्त उनकी बाधा होगी उतनी ही कड़ी लड़ाई भी होगी अथवा उतना ही निम्नतम समझौता होगा | 

प्रश्न-2 लेखक ने ‘व्यावहारिक सामान्य बुद्धि’ किसे माना है ? 

उत्तर- 
लेखक ने ‘व्यावहारिक सामान्य बुद्धि’ उसे माना है,  जिसमें लेखक यदि कोई काम करता तो इसलिए करता की लोग खुश हों और उनका मित्र काम करता तो इसलिए की कोई काम एक बार हाथ में  ले लेने पर उसे आधिकारिक ढंग से भली-भाँति करना ही है। यह लेखक की अपनी व्यावहारिक सामान्य बुद्धि थी | 

प्रश्न-3 लेखक के मित्र ने यह क्यों कहा की उसकी पूरी जिन्दगी भूल का एक नक्शा है ? 

उत्तर- लेखक कहते हैं कि उसका दोस्त ज़िंदगी में छोटी-छोटी सफलताएँ चाहता था, लेकिन उसे असफलता ही हासिल हुई | उसके दोस्त को संयुक्त परिवार का ह्रास भी था और सांसारिक सफलताओं की चाहत भी, जो पूरी नहीं हो सकी | इसलिए उसने पूरी ज़िंदगी को भूल का नक्शा कहा है | 

प्रश्न-4 व्यक्ति ने तैश में आकर समाज और परिवार के बारे में जो विचार रखे उससे आप कहाँ तक सहमत हैं ? 

उत्तर- व्यक्ति ने तैश में आकर समाज और परिवार के बारे में जो विचार रखे वो बिल्कुल सही है लेखक ने व्यक्ति एवं समाज के बाहरी तथा आंतरिक परिवर्तन के बारे में इस पाठ में बताने का प्रयास किया है। मित्र तैश में कहता है कि समाज में वर्ग है, श्रेणियाँ हैं, श्रेणियों में परिवार है, परिवार समाज की बुनियादी इकाई होती है। समाज की अच्छाई-बुराई परिवार के माध्यम से व्यक्त होती है | मनुष्य के चरित्र का विकास भी परिवार में ही होता है। बच्चे पलते हैं, उनको सांस्कृतिक शिक्षा मिलती है | 

सारे अच्छे-बुरे गुण परिवार से ही सीखते हैं। मित्र की समाज एवं परिवार के बारे में जो विचार है, उससे हम शत प्रतिशत सहमत हैं | 

प्रश्न-5 लेखक ने शैले की ‘ओड टू वैस्ट विंड’ और ‘स्क्वेअर रुट ऑफ माइनस वन’ प्रयोग किस संदर्भ में किया और क्यों ? 

प्रश्न-6 ‘अभिधार्थ एक होते हुए भी ध्वन्यार्थ और व्यंग्यार्थ अलग-अलग हो जाते हैं।’ इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए | 

उत्तर- 
यदि हम अभिधार्थ का अर्थ देखें, तो इसका मतलब सामान्य अर्थ होता है। जब हम किसी शब्द का प्रयोग करते हैं, तो कई बार उस शब्द का अर्थ हमारे काम नहीं आता। उसका अर्थ हमारे लिए उपयोगी नहीं होता। यदि हम ध्वन्यार्थ के बारे में कहे, तो इसका अर्थ होता हैः ध्वनि द्वारा अर्थ का पता चलना और व्यंग्यार्थ का अर्थ होता हैः व्यंजना शक्ति के माध्यम से अर्थ मिलना। इसे हम सांकेतिक अर्थ कहते हैं। पाठ में दूरियों का अभिधार्थ फासले से है |  

प्रश्न-7 लेखक को अपने मित्र की ज़िंदगी के किस बुनियादी तथ्य से सदा बैर रहा और क्यों ? 

उत्तर- लेखक की दृष्टि में उनका मित्र असाधारण और असामान्य था। एक असाधारणता और क्रूरता भी उसमें थी। निर्दयता भी उसमें थी | वह अपनी एक धुन, अपने विचार या एक कार्य पर सबसे पहले खुद को और साथ में लोगों को कुर्बान कर सकता था। इस भीषण त्याग के कारण, उसके अपने आत्मीयों का उसके विरुद्ध युद्ध होता तो वह उसका नुकसान भी बर्दाश्त कर लेता था। उसकी ज़िंदगी की इस बुनियादी तथ्य से लेखक का सदा बैर रहा। क्योंकि इससे उसके मित्र का ही नुकसान था और लेखक इसके ठीक विपरीत स्वभाव का था | 

प्रश्न-8 स्वयं और अपने मित्र के बीच लेखक ‘दो ध्रुवों का भेद’ क्यों मानता है ? 

उत्तर- लेखक स्वयं और अपने मित्र के बीच ‘दो ध्रुवों का भेद’ इसलिए मानता है क्योंकि लेखक यदि कोई काम करता तो इसलिए करता की लोग खुश हों।  और वह काम करता तो इसलिए की कोई काम एक बार हाथ में ले लेने पर उसे आधिकारिक ढंग से भली-भाँति करना ही है। यह लेखक की अपनी व्यावहारिक सामान्य बुद्धि थी। उसकी कार्य-शक्ति, आत्म प्रकटीकरण की एक निर्द्वंद्व शैली के कारण दोनों में दो ध्रुवों का भेद था | 

प्रश्न-9 ”वैज्ञानिक पद्धति का अवलंबन करके उत्तर खोज निकालने की ना जल्दी है ना तबियत है” — यह वाक्य किसके लिए कहा गया है और क्यों ? 

उत्तर- 
‘वैज्ञानिक पद्धति का अवलंबन करके उत्तर खोज निकालने की ना जल्दी है ना तबियत है’ — यह वाक्य मध्यम वर्गीय परिवार के लिए कहा गया है। क्योंकी जो पुराना है वह लौट के नहीं आएगा, लेकिन जो नया है वह पुराने का स्थान नहीं लिया। धर्म-भावना गई, लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि नहीं आई |  धर्म ने हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष को अनुशासित किया था। वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने धर्म का स्थान नहीं लिया, इसलिए केवल हम प्रवृत्तियों के यंत्र में चालित हो उठे। नए की अपेक्षा में मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप धारण ना कर सके | 

प्रश्न-10 निम्नलिखित गद्यांशों की व्याख्या कीजिए — 

(क)- इस भीषण संघर्ष की हृदय भेदक ………….इसलिए वह असामान्य था।

उत्तर- लेखक ने  इसमें व्यक्ति के बारे में बताया है। लेखक  कहते हैं कि व्यक्ति ने बहुत संघर्ष किया है। संघर्ष ने उसके व्यक्तित्व को बहुत अलग बना दिया है। इस संघर्ष से व्यक्ति के ऊपर जो भी गुजरा है वह संघर्ष करना व्यक्ति के लिए कठिन था। लेखक का कहना है कि इतने संघर्षों से गुजरने के बाद प्रायः लोग संभल नहीं पाते हैं। वे स्वयं के व्यक्तित्व को खो देते हैं। लेखक को इस बात से हैरानी होती है कि उस व्यक्ति ने स्वयं को नहीं खोया है। उसने स्वयं के स्वाभिमान को बचाए रखा है। उसने समझौता नहीं किया है। वह लड़ा है और इस लड़ाई में स्वयं को बचाए रखना उसके असामान्य होने का प्रमाण है।

(ख)- लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में …………. धर के बाहर दी गई।

उत्तर- 
लेखक के अनुसार आज की युवापीढ़ी और पुराने लोगों के स्वभाव में अंतर हैं। वे घर से बाहर साहित्य और राजनीति की बहुत सी बातें करते हैं। लेकिन जब यह बात घर आती है, तो उनका व्यवहार बदल जाता है। अन्याय तो कहीं भी हो सकता है घर के बाहर भी और घर के अंदर भी जब अन्याय को चुनौती देने बात जो तो मनुष्य चुप हो जाता है इस कारण घर के लोग उसके अपने होते हैं । अतः लोग चुप्पी साध लेते हैं। घर के बाहर अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती देना सरल होता है। पूंजीपतियों के विरुद्ध विद्रोह, शासन के विरुद्ध विद्रोह आदि विद्रोह सरलता से खड़े हो जाते हैं। जब समाज की बात आती है, तो उनके मुँह में ताले लग जाते हैं | 

(ग)- इसलिए पुराने सामंती अवशेष बड़े मज़े ……… शिक्षित परिवारों की बात कर रहा हूँ।

उत्तर- लेखक कहना चाहता है कि इस संसार का नियम है कि जो पुराना हो चुका है, वह वापिस नहीं आता। अर्थात् जो बातें, विचार, परंपराएँ इत्यादि हैं, वे आज भी हमारे परिवार में दिखाई दे जाती हैं। वे मात्र उनके अवशेष के रूप में विद्यमान हैं। समय बदल रहा है और नए विचार, बातें तथा परम्पराएँ जन्म ले रही हैं। ये जो भी नया आ रहा है, इसने पुराने का स्थान नहीं लिया है। ये अलग से अपनी जगह बना रहे हैं। परिणाम जो पुराना है, वह अपने अस्तित्व के लिए तड़प रहा है और नए का विरोध करता है। इस कारण दोनों में अंतर्द्वंद्व की स्थिति बन गई है। उदाहरण के लिए धर्म हमारी संस्कृति का आधार है। हम लोगों की इस पर बड़ी आस्था है। आज की पीढ़ी वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए है। उसने धर्म को नकार दिया है। चूंकि धर्म हमारी संस्कृति का आधार है। अतः इसे पूर्णरूप से निकालना संभव नहीं है। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर बात को परखते हैं, लेकिन कई चीज़ें हमारी समझ से परे होती हैं, तो हम उसे धर्म के क्षेत्र में लाकर खड़ा कर देते हैं। हमने धार्मिक भावना को तो छोड़ दिया है लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि का सही से प्रयोग करना नहीं सीखा है। हम इसके लिए न प्रयास करते हैं और न हमें ज़रूरत महसूस होती है। ये दोनों बातें एक दूसरे से टकरा जाती हैं। हमें उत्तर में कुछ नहीं मिलता है। प्रायः यह स्थिति शिक्षित परिवारों में देखने को मिलती हैं | 

(घ)- मान-मूल्य, नया इंसान ………… वे धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।

उत्तर- 
लेखक के अनुसार नए की पुकार हम लगाते हैं, लेकिन नया क्या है इस विषय में हमारी जानकारी शून्य के बराबर है। हमने सोचा ही नहीं है कि यह नया मान-मूल्य हो, एक नया मनुष्य हो या क्या हो ? जब हम यह नहीं जान पाए, तो जो स्वरूप उभरा था, वह भी शून्यता के कारण मिट गया। उनको दृढ़ तथा नए जीवन, नए मानसिक सत्ता का रूप धारण करना था, पर वे प्रश्नों के उत्तर न होने के कारण समाप्त हो गए। वे हमारे धर्म और दर्शन का स्थान नहीं ले सके। वे इनका स्थान तभी ले पाते जब हम इन विषयों पर अधिक सोचते | 

प्रश्न-11 निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए — 

(ख)- बुलबुल भी यह चाहती है कि वह उल्लू क्यों न हुई !

उत्तर- इसका अभिप्राय है कि हमें अपने से अधिक दूसरे अच्छे लगते हैं। हम दूसरे से प्रभावित होकर वैसा बनना चाहते हैं। हम स्वयं को नहीं देखते हैं। अपने गुणों पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है | 

(ग)- मैं परिवर्तन के परिणामों को देखने का आदी था, परिवर्तन की प्रक्रिया को नहीं।

उत्तर-
लेखक कहता है कि मेरे सामने बहुत बदलाव हुए। मैंने उन बदलावों से हुए परिणाम देखें। अर्थात् यह देखा कि बदलाव हुआ, तो उसका लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा। इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि जब बदलाव हो रहे तो वह क्यों और कैसे हो रहे थे ? इस प्रक्रिया पर मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया।

(घ)- जो पुराना है, अब वह लौटकर आ नहीं सकता।

उत्तर- 
इससे आशय यह है कि जो समय बीत गया है, उसे हम लौटाकर नहीं ला सकते हैं। जो चला गया, वह चला गया। उसका वर्तमान में कोई अस्तित्व नहीं बचा है | 

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नए की जन्म कुंडली पाठ से संबंधित शब्दार्थ 

• शिकंजा – जकड़
• मस्तिष्क तन्तु – मस्तिष्क की शिराएँ
 रोमैंटिक कल्पना – ऐसी कल्पना जिसमे प्रेम और रोमांच हो
• ‘ओड टू वेस्ट विंड’ – अंग्रेजी कवि शैले की रचना
 ‘स्क्वेअर रुट ऑफ माइनस वन – गणित का एक  सूत्र
• अभिधार्थ – शब्द का सामान्य अर्थ, तीन शब्द  शक्तियों में से  एक का बोध कराने वाली
• ध्वन्यार्थ – वह अर्थ जिसका बोध व्यंजना शब्द शक्ति से होता है
 आच्छन्न – छिपा हुआ ,ढँका हुआ
• हृदयभेदक – हृदय को भीतर तक प्रभावित करने वाली
• निजत्व – अपना पन
• ऐंड़ा-वेंड़ा – टेढ़ा-मेढ़ा
• इंटीग्रल – अभिन्न
• आत्म प्रकटीकरण – मन की बात कहना
• यशस्विता – प्रतिष्ठा, अत्याधिक, यश, प्रसिद्धि
• अप्रत्याशिता – जिसकी आशा ना हो, उम्मीद ना  हो
 खरब – सौ अरब की संख्या
• वस्तुस्थिति – वास्तविक स्तिथि
 सप्रश्ननता – प्रश्न के साथ
• सर्व तोमुखी – सभी ओर से, सभी दिशाओं में  | 

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Chapter 6 खानाबदोश | CLASS 11TH HINDI | REVISION NOTES ANTRA

खानाबदोश – पठन सामग्री और सार NCERT Class 11th Hindi

‘खानाबदोश’ कहानी ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लिखा है| इस कहानी में कहानीकार ने मजदूरी करके किसी तरह गुजर-बसर कर रहे मजदूर वर्ग के शोषण और यातना को चित्रित किया है| साथ ही उच्च जाति और नीच जाति के बीच की गहरी खाई को भी दिखाया है| वाल्मीकि ने इस पाठ में मजदूरों के ऊपर ऊपर हो रहे शोषण को दर्शाया है|

सुकिया और मानो असगर ठेकेदार के साथ तरक्की की आस लेकर गाँव छोड़कर, ईंट के भट्ठे पर काम करने आए थे। भट्टे पर मोरी का काम सबसे खतरनाक था। वहाँ ईंटें पकाने के लिए कोयला, बुरादा, लकड़ी और गन्ने की बाली को मोरियों के अंदर डालना होता था। छोटी-सी असावधानी मौत का कारण बन सकती थी। असगर ठेकेदार ने सुकिया और मानो के एक सप्ताह के काम से खुश होकर उन्हें साँचे पर ईंट पाथने का काम दे दिया था।

भट्ठे पर दिन तो गहमा-गहमी वाला होता था लेकिन रात होते ही भट्ठा अंधेरे की गोद में समा जाता था। मानो भट्टे के माहौल से तालमेल नहीं बिठा पाई थी, इसलिए खाना बनाते समय चूल्हे से आती चिट-पिट की आवाजों में उसे अपने मन की दुश्चिंताओं और आशंकाओं की आवाजें सुनाई देती थी। मानों के मन में शारीरिक शोषण का डर, बात न मानने पर प्रतिकूल व्यवहार की घबराहट थी। यदि तरक्की करनी है तो शहर में रहना ही पड़ेगा। पहले महीने ही सुकिया ने कुछ रुपए बचा लिए थे, जिन्हें देखकर मानो भी खुश थी। उन दोनों ने ज्यादा पैसे कमाने के लिए अधिक काम करना शुरू कर दिया।

उनके साथ एक छोटी उम्र का लड़का जसदेव भी काम करता था। एक दिन भट्ठे के मालिक मुखतार सिंह की जगह उनका बेटा सूबे सिंह भट्ठे पर आया। सूबे सिंह के भट्ठे पर आने से भट्ठे का माहौल बदल गया। उसके सामने असगर भी भीगी बिल्ली बन जाता था। भट्ठे पर काम करनेवाली किसनी को सूबे सिंह ने अपने जाल में फंसा लिया था। किसनी उसके साथ शहर भी कई-कई दिन के लिए चली जाती थी। उसका पति महेश मन मारकर रह जाता था। असगर ठेकेदार ने उसे शराब की लत लगा दी थी। किसनी के हालात बदल गए थे। अब उसके पास ट्रांजिस्टर तथा अच्छे-अच्छे कपड़े आ गए थे।

भट्टे पर पकती लाल-लाल ईंटों को देखकर मानों खुश थी। वह ज्यादा काम करके, ज्यादा रुपय जोड़कर अपना एक पक्का मकान बनाने का सपना देखने लगी थी। एक दिन किसनी के अस्वस्थ होने पर सूबेसिंह ने ठेकेदार असगर के द्वारा मानों को अपने दफ्तर में बुलवाया। बुलावे की खबर सुनते ही मानों और सुकिया घबरा गए। वे सूबेसिंह की नीयत भाँप गए। मानों इज्जत की जिंदगी जीना चाहती थी। वह किसनी बनना नहीं चाहती थी। उनकी घबराहट देखकर जसदेव मानों के स्थान पर स्वयं सूबेसिंह से मिलने चला गया। सूबेसिंह ने जसदेव को अपशब्द कहे और लात-घूसों से पिटाई कर अधमरा सा कर दिया| उस दिन की घटना से सूबे सिंह से सभी सहम गए थे।

सुकिया और मानों उसे झोपड़ी में ले आए। जसदेव के इस अपनेपन के कारण मानो उसके लिए रोटी बनाकर ले जाती है लेकिन ब्राह्मण होने के कारण उसने मानो की बनाई रोटी नहीं खाई। असगर ठेकेदार जसदेव को सुकिया और मानो के चक्कर में न पड़ने की सलाह देता है। जसदेव का व्यवहार मानों और सुकिया के प्रति बदलता चला जाता है|

सूबे सिंह सुकिया और मानो को तंग करने लगा। उसने सुकिया से साँचा छीनकर जसदेव को दे दिया। सुकिया को मोरी के काम पर लगा दिया था। मानो डरने लगी थी। उनकी मज़दूरी छोटी-छोटी बातों पर कटने लगी थी। जसदेव भी मानो पर हुक्म चलाने लगा था। एक दिन मानो ने पाथी ईंटों को सूखने के लिए आड़ी-तिरछी जालीदार दीवारों के रूप में लगा दिया। वह अगले दिन सुबह जल्दी ही काम पर गई तो वहाँ पहुँचकर देखा कि पहले दिन की ईंटें टूटी पड़ी थीं। वह दहाड़ें मारकर रोने लगी। उसकी आवाज़ सुनकर सभी मजदूर इकट्ठे हो गए| आवाज़ सुनकर सुकिया भी वहाँ आया और टूटी ईंटे देखकर उसे कुछ समझ में नहीं आया| असगर ठेकेदार ने टूटी ईंटों की मजदूरी देने से साफ इन्कार कर दिया।

सुकिया और मानो दोनों बुरी तरह टूट गए थे। दोनों वहाँ से अगले काम के लिए निकल पड़े थे। भट्ठा उन्हें अपनी खानाबदोश जिंदगी का एक पड़ाव लग रहा था। मानो को लग रहा था कि जसदेव उन्हें रोक लेगा। जसदेव के चुप रहने से उसका विश्वास टूट गया। टूटे हुए सपनों के काँच उसकी आँखों में चुभने लगे थे। वे एक दिशाहीन यात्रा के लिए निकल पड़े थे।

कठिन शब्दों के अर्थ-

• ताड़ लेना – अंदाज़ लगाना
• अंतर्मन – हृदय
• मुआयना – निरीक्षण
• कतार – पंक्ति
• प्रतिध्वनियाँ – गूंज
• निगरानी – देख-रेख

• वामन – ब्राह्मण
• थारी – तुम्हारी
• स्याहपन – अँधेरा
• बसंत खिल उठना – सुखद विचार आना
• घियी बँधना – कुछ बोल न पाना

• तरतीब – ढंग
• जिनावर – जानवर
• टीस – कसक
• दुश्चिता – बुरी चिंता
• शिद्दत – तीव्रता
• बवंडर – हलचल
• टेम – समय
• कातरता – अधीरता
• अदम्य – जिसे रोका न जा सके

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Chapter 5 ज्योतिबा फुले | class 11th hindi | revision notes antra

Class-11 पाठ – 5 ज्योतिबा फुले : सारांश

  • पाठ सारांश (मुख्य बिंदू)

लेखिका ‘सुधा अरोड़ा’ द्वारा प्रसिद्ध समाज- सुधारक ‘ज्योतिबा फुले’ और उनकी पत्नी ‘सावित्रीबाई फुले’ के द्वारा शिक्षा एवं सामाजिक क्षेत्र में किए गए कार्यों का वर्णन इस पाठ में किया गया है। लेकिन सामाजिक विकास के आंदोलन के पांच प्रमुख लोगों में उनका नाम नहीं लिया जाता है , क्योंकि सूची को बनाने वाले उच्च वर्ग के प्रतिनिधि थे। ‘ज्योतिबा फुले’ ने पूंजीवादी , पुरोहित वादी मानसिकता पर खुला हमला बोला। वर्ण , जाति और वर्ग व्यवस्था में निहित शोषण प्रक्रिया को एक दूसरे का पूरक बताया। ‘गुलामगिरी’ , ‘शेतकर याचाआसूङ’ में विचारों का संकल्प किया गया है उनके मत में -जिस परिवार में पिता बौद्ध , माता इसाई ,  बेटी मुसलमान और बेटा सत्य धर्मी हो वह परिवार आदर्श परिवार है।

उन्होंने ब्रह्मांड वादी और पूंजीवादी मानसिकता के विरुद्ध आवाज उठाई। उनका मानना था कि शिक्षा अगर उच्च वर्ग के लोगों को ही मिलने लगी तो ऐसी शिक्षा का कोई काम नहीं। शिक्षा पर सभी का अधिकार है। एक शिक्षा ही है जो समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समानता व शोषण से आजादी दिला सकती है। ज्योतिबा फुले तथा उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले जी का मुख्य रूप से इसी बात पर अधिक बल रहा कि शिक्षा सभी की है अकेले उच्च या अमीर वर्गों की ही नहीं। समाज के प्रत्येक महिला और पुरुष दोनों बराबर है तथा शिक्षा पर पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं का भी समान अधिकार होना चाहिए। इसके लिए ज्योतिबा फुले तथा उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले दोनों को समाज का तिरस्कार , अपमान व विद्रोह भी सहना पड़ा।

प्रस्तुत पाठ की लेखिका ‘सुधा अरोड़ा’ द्वारा  ‘ज्योतिबा फूले’ और उनकी पत्नी ‘सावित्रीबाई फुले’ के जीवन चरित्र को दर्शाया गया है। जिसमें यह बताया गया है कि शिक्षा का अधिकार सभी धर्म-जाति , वर्ग , के लोगों को समान है और इसके लिए फूले दंपत्ति ने जो संघर्ष किया है उसे भी बताने का प्रयास सुधा अरोड़ा द्वारा इस पाठ में किया गया है। इन्होंने अछूतों , शोषितो , महिलाओं , विधवाओं आदि के उद्धार का वचन लिया और उसके लिए बहुत संघर्ष भी किया। सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने उस समय मे चालू , सामाजिक असमानताएं तथा रूढ़ीवादी परंपराओं का प्रतिरोध किया और साथ-साथ समाज के निचले वर्ग के अधिकारों के लिए लड़ाई भी लड़ी।

लेखिका ‘सुधा अरोड़ा’ द्वारा इस पाठ में ‘ज्योतिबा फुले’ व उनकी पत्नी ‘सावित्रीबाई फुले’ के इसी संघर्ष , समाज सुधार के मार्ग में आने वाली अनेक समस्याओं और उससे लड़ने की कहानी को बताया है।

स्त्री-शिक्षा के दरवाजे पुरुषों ने इसीलिए बंद कर रखे हैं , ताकि वह पुरुषों के बराबर स्वतंत्रता ना ले सकें। इसलिए महात्मा ज्योतिबा फुले ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए यह वाक्य लिखा।

ज्योतिबा फुले ने स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह- विधि बनाई। उन्होंने अपने इस नए विधवत् तरीके से साधु व ब्राह्मणों की जगह ही हटा दी।

उन्होंने पुरुष को प्रधान और स्त्री को गुलामगिरी सिद्ध करने वाले सारे मंत्र हटा दिए तथा उनके स्थान पर ऐसे मंत्र रखें जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सके तथा उन मंत्रों को अपने जीवन में ढाल सकें।

1888 ज्योतिबा फुले ने महात्मा की उपाधि को लेने के लिए मना कर दिया यह कहकर कि मेरे संघर्ष के कार्य मैं रुकावट आएगी। उनके कहे शब्दों में यह बात उनके व्यवहार में दिखाई दे रही थी।

स्त्री शिक्षा के समर्थन में ज्योतिबा फुले ने सबसे पहले अपने पत्नी को शिक्षा दिलवाई। उन्हें मराठी अंग्रेजी भाषा में परंपरागत किया।

सावित्री बाई फुले को पढ़ने की रुचि बचपन से ही थी। अब इस बात को साबित करने के लिए उनकी एक छोटी सी कहानी है। एक बार बचपन में लाट साहब ने उन्हें एक पुस्तक दी।घर पहुंचने पर पिता ने वह पुस्तक कूड़ेदान में फेक दी। सावित्रीबाई ने उसे छिपा कर रख दिया तथा शादी के बाद शिक्षित होने पर उन्होंने उस पुस्तक को पढ़ा।

भारत के 3000 वर्षों के इतिहास में पहली बार , पहली कन्याशाला की स्थापना पुणे में , 14 जनवरी 1848 को भारत में हुई तथा निम्न वर्ग की लड़कियों के लिए पाठशाला खोलने के लिए ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले को लगातार बहुत अधिक मुश्किलों तथा बहिष्कारो का सामना करना पड़ा।

ज्योतिबा फुले के धर्मभीरू पिता ने बहू – बेटे को घर से निकाल दिया। सावित्री बाई फुले को तरह-तरह से अपमानित किया जाता था लेकिन उन्होंने 1840-1890 तक 50 वर्षों तक एक प्रण होकर अपना मिशन पूरा किया। उन्होंने मिशनरी औरतों की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोपड़ी में जाकर काम किया। वे दलितों और शोषितो के हक में खड़े हो गए महात्मा फुले और सावित्रीबाई का अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन एक मिसाल बन गया।

लिखका ‘सुधा अरोड़ा ’ बताती है कि ज्योतिबा फूले का नाम भारत के प्रमुख पांच समाज-सुधारकों की सूची में शामिल नहीं किया जाता। यह कोई अचानक घटित हुई किसी घटना का परिणाम नहीं है , कि भारत के समाज को प्रगति और परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ाने वाले ज्योतिबा फुले को इस सूची में विलग कर दिया गया। वास्तव में उनके सराहनीय कार्य व महत्वपूर्ण भूमिका को जानबूझकर अनदेखा किया गया क्योंकि सूची को तैयार करने वाले समाज के उच्च वर्ग के लोग थे।

उच्चवर्गीय समाज को प्रतिनिधित्व देने वाले यह लोग निम्नवर्गीय ज्योतिबा फूले को महात्मा अथवा समाज-सुधारक मानने को तैयार नहीं थे ,क्योंकि ज्योतिबा फूले ब्राह्मण के एकाधिकार व ऐसी शिक्षा-पद्धति के विरुद्ध थे जो परंपरागत सामाजिक मूल्यों को ही नहीं रखना चाहती थीं।

इसका कारण यह है कि ,ज्योतिबा फुले ने पूंजीवादी और पुरोहितों वादी मानसिकता पर तीव्र प्रहार किए , उन्होंने निम्न वर्ग को अधिकार दिलाने के लिए ‘सत्यशोधक समाज’ को भी स्थापना किया व ऐसा साहित्य रचा जिसमें उनके क्रांतिकारी विचार सम्मिलित थे। इनके माध्यम से उन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और समाज-सुधारक के अपने प्रयासों का प्रमाण दिया।

शब्दार्थ :–

  • अप्रत्याशित= जिसकी उम्मीद ना हो
  • शुमार= गिनती, शामिल
  • उच्च वर्गीय= ऊंची जाति के
  • वर्चस्व= दबदबा, प्रधानता
  • कायम= स्थिर
  • पूंजीवादी= पूंजी को सर्वाधिक महत्व प्रदान करने वाली
  • अधिपत्य= प्रभुत्व अधिकार
  • तहत= अधीन
  • खिलाफ= विरुद्ध
  • संग्रहित= एकत्र किया गया
  • अवधारणा= विचार सुविचारित धारणा
  • सर्वांगीण= सभी अंगों में व्याप्त होने वाला
  • असलियत= वास्तविकता
  • पर्दाफाश= उजागर करना , भंडाफोड़
  • गुलामगिरी= लोगों से गुलामी कराना
  • पूर्ण विराम= पूरी तरह समाप्त करना
  • मठाधीश= धर्म तथा वर्ग के नाम पर समूह बनाने और अपना निर्णय थोपने वाले
  • अग्रसर= आगे बढ़ा हुआ
  • ग्रह शक्ति= ग्रहण करने की शक्ति
  • अनीतिपुणे= अनैतिक या अन्यायपूर्ण
  • तकलीफ= कष्ट
  • हक= अधिकार
  • आमादा= तैयार, तत्पर
  • मिसाल= उदाहरण
  • संभ्रांत=  ‌ घबराया हुआ
  • प्रतिस्पर्धा= होड़ प्रतियोगिता
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Chapter 4 गूँगे | class 11th hindi | revision notes antra

गूँगे – पठन सामग्री और सार NCERT Class 11th Hindi

गूँगे खानी रांगेय राघव द्वारा लिखी एक मार्मिक कहानी है जिसमें एक गूँगा और बहरा बालक का एक शोषित रूप को दिखाया गया है| हालाँकि इस पाठ के माध्यम से लेखक उन सभी को गूँगा बताते हैं जो अत्याचार को देखते हुए भी उसके विरुद्ध कदम नहीं उठाते|

एक गूँगा बालक महिलाओं को अपने विषय में बताने की भरसक कोशिश कर रहा है। वह जन्म से बहरा होने के कारण गूंगा है। वह सुख-दुख जो कुछ भी अनुभव करता है, उसे इशारों के माध्यम से प्रकट करता है। वह बहुत प्रयत्न करता है परंतु बोल नहीं पाता। वह इशारों से बताता है कि उसकी माँ घूँघट काढ़ती थी जो उसे छोड़ कर चली गई क्योंकि बाप मर गया। उसका पालन-पोषण किसने किया यह तो किसी की समझ में नहीं आया। लेकिन उसके इशारों से इतना अवश्य स्पष्ट हो गया कि जिन्होंने उसे पाला, वे मारते बहुत थे। वह बोलने की बड़ी कोशिश करता है, लेकिन उसके मुख से कठोर तथा कर्णकटु काँय-काँय की आवाज़ों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं निकलता है। जिसे देखकर उपस्थित महिलाएं उसके प्रति दया से भर उठती हैं।

सुशीला गूंगे को मुँह खोलने के लिए कहती है। गूंगे के मुँह में कुछ नहीं था। किसी ने बचपन में गला साफ़ करने की कोशिश में काट दिया और वह ऐसे बोलता है, जैसे घायल पशु कराह उठता है। खाने-पीने के विषय में पूछने पर बताता है-हलवाई के यहाँ रातभर लड्डू बनाए हैं, कड़ाही माँजी है, नौकरी की है, कपड़े धोए हैं। सीने पर हाथ मारकर इशारा किया कि हाथ फैलाकर उसने कभी नहीं माँगा। वह भीख नहीं लेता। भुजाओं पर हाथ रखकर बताया कि वह मेहनत का खाता है। चमेली के हृदय में अनाथ बच्चों के लिए दया थी। लेकिन वह इस गूंगे को घर में नौकर रखकर क्या करेगी? लेकिन गूंगे ने इशारे से स्पष्ट किया कि वह सब कुछ समझता है। केवल इशारों की ज़रूरत है।

चमेली उसे चार रुपए वेतन और खाना देने का वादा कर घर में नौकर रख लेती है। गूंगा अपने घर वापस नहीं जाना चाहता। उसे बुआ और फूफा ने पाला अवश्य था पर वे मारते बहुत थे। वे चाहते थे कि गूंगा कुछ काम करे और उन्हें कमा कर दे और बदले में बाजरे तथा चने की रोटियों पर निर्वाह करे।

गूँगा चमेली के घर छोटे-मोटे काम करता था। एक दिन गूंगा बिना बताए कहीं चला गया। चमेली ने उसे बहुत ढूँढा पर उसका कुछ भी पता नहीं चला। चमेली के पति ने कहा कि भाग गया होगा। वह सोचती रही कि वह सचमुच भाग हो गया है पर यह नहीं समझ पा रही थी क्यों भाग गया। तब उसने कहा कि गूँगा नाली के कीड़े के समान है, उसे जितना भी बेहतर जीवन दे दो मगर वह गंदगी को ही पसंद करेगा।

घर के सब लोग जब खाना खा चुके तो वह अचानक दरवाज़े पर दिखाई दिया और इशारे से बताया कि वह भूखा है। चमेली ने उसकी तरफ़ रोटियाँ फेंक दी और पूछा कहाँ गया था। गूंगा अपराधी की भाँति खड़ा था। चमेली ने एक चिमटा उसकी पीठ पर जड़ दिया पर गूंगा रोया नहीं। चमेली की आँखों से आँसू गिरने लगे। वह देखकर गूंगा भी रोने लगा।

अब गूँगा कभी भाग जाता और कभी लौटकर फिर आ जाता। जगह-जगह नौकरी करके भाग जाना उसकी आदत बन गई थी।

एक दिन चमेली के बेटे बसंता ने गूंगे को चपत मार दी। गूंगे ने भी उसे मारने के लिए हाथ उठाया पर रुक गया। गूंगा रोने लगा उसका रुदन इतना कर्कश था कि चमेली चूल्हा छोड़कर वहाँ आई। इशारों से  पता चला कि खेलते-खेलते बसंता ने उसे मारा था। बसंता ने शिकायत की कि गूंगा उसे मारना चाहता था। गूंगा चमेली की भावभंगिमा से सब कुछ समझ गया था। उसने चमेली का हाथ पकड़ लिया। एक क्षण के लिए चमेली को लगा जैसे उसके पुत्र ने ही उसका हाथ पकड़ रखा है। एकाएक चमेली ने घृणा का भाव व्यक्त करते हुए अपना हाथ छुड़ा लिया।

अपने बेटे का ध्यान आते ही चमेली के हृदय में गूंगे के प्रति दया का भाव भर आया। वह लौटकर चूल्हे के पास चली गयी| वह गूँगे की स्थिति के बारे में सोचती है। उसका ध्यान चूल्हे की आग पर जाता है। वह सोचती है कि इस आग के कारण ही पेट की भूख मिटाने के लिए खाना बनाया जा रहा है। यही खाना उस आग को समाप्त करता है, जो पेट में भूख के रूप में विद्यमान है। इसी भूख रूपी आग के कारण एक आदमी दूसरे आदमी की गुलामी स्वीकार करता है। यदि यह आग न हो, तो एक आदमी दूसरे आदमी की गुलामी कभी स्वीकार न करे। यही आग एक मनुष्य की कमज़ोरी बन उसे झुका देती है।

चमेली की समझ में आ गया कि गूंगा यह समझता है कि बसंता मालिक का बेटा है, इसलिए उसने बसंता पर हाथ नहीं उठाया। थोड़े दिनों में गूंगे पर चोरी का आरोप लगा। चमेली ने उसे घर से निकाल दिया और चिल्लाकर कहा कि उसे नहीं रखना है| गूंगे ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। चमेली ने उसका हाथ पकड़कर उसे दरवाज़े से बाहर धकेल दिया। गूंगा वहाँ से चला गया। चमेली देखती रही।

लगभग घंटे-भर बाद शकुंतला और बसंता दोनों चिल्ला उठे। चमेली ने नीचे उतर कर देखा गूंगा खून से लथ-पथ था। उसका सिर फट गया था। उसे सड़क के लड़कों ने पीट दिया था क्योंकि गूंगा होने के नाते वह उनसे दबना नहीं चाहता था। दरवाज़े की दहलीज पर सिर रखकर वह कुत्ते को तरह चिल्ला रहा था। चमेली चुपचाप देखती रही|

अपने परिस्थिति को देखकर चमेली सोचती है आज के समय में कौन गूँगा नहीं है| लोग अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ तो उठाना चाहते हैं परन्तु हालत के आगे वे मजबूर हैं यानी एक तरह से गूँगे हैं|

कठिन शब्दों के अर्थ-

• कर्कश – कठोर

• अस्फुट – अस्पष्ट

• वमन – उगलना
• चीत्कार – चीख

• पल्लेदारी – बोझ उठाने का काम
• रोष – क्रोध
• विस्मय – हैरानी
• पक्षपात – भेदभाव
• विक्षुब्ध – दुखी
• मूक – खामोश
• कृत्रिम – बनावटी
• द्वेष – वैर
• परिणत – बदल
• प्रतिच्छाया – प्रतिबिंब
• भाव-भंगिमा – हाव-भाव
• विक्षोभ – दुख
• तिरस्कार – उपेक्षा
• अवसाद – दीनता

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Chapter 3 टार्च बेचनेवाले | class 11th hindi | revision notes antra

पाठ 3 – टार्च बेचनेवाले (Torch Bechnewale) अन्तरा भाग – 1 NCERT Class 11th Hindi Notes

सारांश

प्रस्तुत रचना ‘टार्च बेचनेवाले’ में लेखक हरिशंकर परसाई ने समाज में प्रचलित आस्थाओं के बाजारीकरण और धार्मिक पाखंड पर प्रहार किया है| लेखक की मुलाकात ऐसे व्यक्ति से होती है जो पहले शहर के चौराहे पर टार्च बेचा करता था| उसके हुलिए को देखकर लेखक को लगा कि शायद उसने संन्यास ग्रहण कर लिया हो| पूछने पर उसने बताया कि वह अब टार्च बेचने का काम नहीं करता क्योंकि उसके आत्मा की प्रकाश जल गई है| एक घटना ने उसका जीवन बदल दिया है| उसने बताया कि पाँच साल पहले पैसे कमाने के लिए दोनों दोस्त अलग-अलग चल पड़े थे| वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ‘सूरज छाप’ टार्च बेचने लगा| वह लोगों को रात के अँधेरे का डर दिखाकर शहर के चौराहे पर टार्च बेचा करता था जिससे लोग अधिक टार्च खरीदें| पाँच साल बाद वायदे के मुताबिक़ जब वह अपने दोस्त से मिलने उसी जगह पहुँचा जहाँ से वे अलग हुए थे, लेकिन वह नहीं मिला| शाम को जब वह शहर के सड़क पर चला जा रहा था तो उसने एक भव्य पुरूष को मंच पर प्रवचन देते सुना| मैदान में हजारों लोग श्रद्धा से सिर झुकाए उसकी बातों को सुन रहे थे| वह लोगों को आत्मा के अँधेरे को दूर करने के तरीके समझा रहा था| उस आदमी की वेशभूषा साधुओं की तरह थी जिसके कारण वह उसे पहचान नहीं पाया| वह अपना प्रवचन पूरा कर मंच से उतरकर जैसे ही अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा तो उसने टार्च बेचनेवाले को देखते ही पहचान लिया| दोनों दोस्त पाँच साल बाद मिल रहे थे| पहला दोस्त रात के अँधेरे को दूर करने के लिए टार्च बेचकर और दूसरा दोस्त आत्मा के अँधेरे को दूर करने के लिए उपदेश देने वाला धर्माचार्य बनकर पैसे कमा रहा था| वह दूसरे दोस्त के वैभव और धन-दौलत के चमक को देखकर निश्चय करता है कि ‘सूरज कंपनी’ के टार्च बेचने से अच्छा है कि वह भी धर्माचार्य बनकर लोगों के मन के अँधेरे को दूर कर पैसे कमाए|

इस प्रकार वह लेखक को बताता है कि अब वह टार्च तो बेचेगा लेकिन वह रात के अँधेरे को दूर करने वाला नहीं बल्कि आत्मा के अँधेरे को दूर करने वाला होगा| लेखक ने टार्च बेचने वाले दो दोस्तों के माध्यम से बताया है कि किस प्रकार संतों की वेशभूषा धारण करके आत्मा के अँधेरे को दूर करने वाली टार्च बेचकर समाज में लोग अपनी पैठ जमाए हुए हैं और दूसरे भी इस लाभप्रद धंधे को देखकर यही काम करने के लिए प्रेरित होते हैं|

लेखक परिचय

लेखक हरिशंकर परसाई का जन्म जमानी गाँव, जिला होशंगाबाद मध्य प्रदेश में हुआ था| उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया| कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य करने के बाद सन् 1947 से वे स्वतंत्र लेखन में जुट गए| उन्होंने जबलपुर से वसुधा नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली|

उनके व्यंग्य-लेखों की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वे समाज में फैली विसंगतियों, विडंबनाओं पर करारी चोट करते हुए चिंतन और कर्म की प्रेरणा देते हैं| उनकी रचनाओं में प्रायः बोलचाल के शब्दों का प्रयोग हुआ है|
उन्होंने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की है, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह); रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज (उपन्यास); तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, पगडंडियों का जमाना, सदाचार की तावीज, शिकायत मुझे भी है, और अंत में (निबंध संग्रह); वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएँ, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग्य लेख-संग्रह)|

कठिन शब्दों के अर्थ

• गुरू गंभीर वाणी- विचारों से पुष्ट वाणी

• सर्वग्राही- सबको ग्रहण करनेवाला, सबको समाहित करनेवाला
• स्तब्ध- हैरान
• आह्वान- पुकारना, बुलाना
• शाश्वत- चिरंतन, हमेशा रहनेवाली
• सनातन- सदैव रहनेवाला

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Chapter 2 दोपहर का भोजन | class 11th hindi | revision notes antra

पाठ 2 – दोपहर का भोजन (Dophar ka Bhojan) अन्तरा भाग – 1 NCERT Class 11th Hindi Notes

सारांश

अमरकांत द्वारा रचित ‘दोपहर का भोजन’ कहानी गरीबी से जूझ रहे एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है| इस कहानी में समाज में व्याप्त गरीबी को चिन्हित किया गया है| मुंशीजी के पूरे परिवार का संघर्ष भावी उम्मीदों पर टिका हुआ है| सिद्धेश्वरी गरीबी के एहसास को मुखर नहीं होने देती और उसकी आँच से अपने परिवार को बचाए रखती है|

कहानी की नायिका सिद्धेश्वरी दोपहर का भोजन बनाकर अपने परिवार के सदस्यों की प्रतीक्षा करती है| वह गर्मियों की दोपहर में भूख से व्याकुल बैठी है क्योंकि घर में इतना खाना नहीं है कि दो रोटी खाकर वह अपना पेट भर सके| वह एक लोटा पानी ही पीकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करती है| वहीं सामने उसका छोटा बेटा खाट पर सोया हुआ है जो कुपोषण का शिकार है| दोपहर के बारह बज गए हैं और भोजन का समय हो गया है| तभी बड़ा बेटा रामचंद्र आकर चौकी पर बैठता है, जिसके चेहरे पर निराशा झलक रही है| वह एक दैनिक समाचार-पत्र के दफ्तर में प्रूफ रीडरी का काम सीखता है और अभी तक बेरोजगार है| सिद्धेश्वरी उसके सामने भोजन परोसती है| रामचंद्र के दो रोटी खा लेने के बाद वह उससे और रोटी लेने के लिए आग्रह करती है लेकिन वह भूख न होने का बहाना बनाकर मना कर देता है| वह अपने छोटे भाई मोहन के विषय में पूछता है| सिद्धेश्वरी उससे झूठ बोलती है कि वह अपने मित्र के यहाँ पढ़ने गया है| वह रामचंद्र को खुश करने के लिए यह भी कहती है कि मोहन हर समय उसकी प्रशंसा करता है ताकि वह थोड़ी देर के लिए अपने दुःख को भूल सके|

कुछ देर बाद उसका मँझला बेटा मोहन खाने के लिए आता है| सिद्धेश्वरी खाने में उसे भी दो रोटी, दाल और थोड़ी सब्जी परोसती है| सिद्धेश्वरी उससे भी झूठ बोलती है कि उसका बड़ा भाई रामचंद्र उसकी बहुत प्रशंसा कर रहा था| यह सुनकर मोहन प्रसन्न हो जाता है| सिद्धेश्वरी के कहने पर वह थोड़ी दाल पीकर ही पेट भरने का बहाना करता है और रोटी लेने से मना कर देता है| उसके बाद घर के मुखिया और सिद्धेश्वरी के पति मुंशी चंद्रिका प्रसाद आते हैं और खाना खाने बैठ जाते हैं| दो रोटी खाने के बाद सिद्धेश्वरी उनसे और रोटी लेने का आग्रह करती हैं लेकिन घर की वास्तविकता से परिचित मुंशीजी मना कर देते हैं| उसके सामने भी सिद्धेश्वरी दोनों बेटों की प्रशंसा करती है ताकि उनमें एकजुटता बनी रहे| सबके खाने के बाद सिद्धेश्वरी खाना खाने बैठती है जिसके हिस्से में केवल एक रोटी आती है| तभी उसकी नजर उसके छोटे बेटे प्रमोद पर पड़ती है जो सोया हुआ था| वह उसके लिए आधी रोटी रखकर स्वयं आधी रोटी खाकर पानी पी लेती है| खाना खाते समय उसकी आँखों से बहते आँसू उसकी विवशता को बयान करते हैं| पर्याप्त भोजन न होने के कारण भूख होते हुए भी वह भरपेट खाना नहीं खा पाती|

इस प्रकार ‘दोपहर का भोजन’ एक गरीब परिवार की विवशता को बयान करती कहानी है जिसमें परिवार के सभी लोग अभावग्रस्त तथा संघर्षपूर्ण वातावरण में खुश रहने का प्रयास करते हैं|

कथाकार-परिचय

जन्म एवं शिक्षा- अमरकांत का जन्म सन् 1925 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगरा गाँव में हुआ| उनकी मृत्यु सन् 2014 में हुई| उनका मूल नाम श्रीराम वर्मा है तथा आरंभिक शिक्षा बलिया में हुई| इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी,ए. की डिग्री प्राप्त की|

अमरकांत ने अपनी साहित्यिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से की| वे नयी कहानी आंदोलन के एक प्रमुख कहानीकार हैं| उन्होंने अपनी कहानियों में शहरी और ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रं किया है| वे मुख्यतः मध्यवर्ग के जीवन की वास्तविकता और विसंगतियों को व्यक्त करने वाले कहानीकार हैं| उनकी शैली की सहजता और भाषा की सजीवता पाठकों को आकर्षित करती है| वे जीवन की कथा उसी ढंग से कहते हैं, जिस ढंग से जीवन चलता है|

प्रमुख रचनाएँ- उनकी प्रमुख रचनाएँ जिंदगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र-मिलन, कुहासा (कहानी संग्रह); सूखा पत्ता, ग्राम सेविका, काले उजले दिन, सुखजीवी, बीच की दीवार, इन्हीं हथियारों से (उपन्यास) हैं| अमरकांत ने बाल-साहित्य भी लिखा है| इस पुस्तक के लिए उनकी कहानी ‘दोपहर का भोजन’ ली गई है|

कठिन शब्दों के अर्थ

• व्यग्रता- व्याकुलता, घबराया हुआ
• बर्राक- याद रखना, चमकता हुआ
• पंडूक- कबूतर का तरह का एक प्रसिद्ध पक्षी
• कनखी- आँख के कोने से
• ओसारा- बरामदा
• निर्विकार- जिसमें कोई विकार या परिवर्तन न होता हो
• छिपुली- खाने का छोटा बर्तन
• अलगनी- कपडे टाँगने के लिए बाँधी गई रस्सी
• नाक में दम आना- परेशान होना
• जी में जी आना- चैन आ जाना

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Chapter 1 ईदगाह | class 11th hindi | revision notes antra

पाठ 1 – ईदगाह (Idgaah) अन्तरा भाग – 1 NCERT Class 11th Hindi Notes

सारांश

मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित कहानी ‘ईदगाह’ में ईद जैसे महत्वपूर्ण त्योहार को आधार बनाकर ग्रामीण मुस्लिम जीवन का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया गया है| हामिद का चरित्र हमें बताता है कि अभाव उम्र से पहले बच्चों में कैसे बड़ों जैसी समझदारी पैदा कर देता है| मेले में हामिद अपनी हर इच्छा पर संयम रखने में विजयी होता है| चित्रात्मक भाषा की दृष्टि से भी यह कहानी अनूठी है|

गाँव में पूरे तीस रोजों के रमजान के बाद ईद के त्यौहार की खुशियाँ मनाई जा रही है| सभी अपने कामों को जल्द-से-जल्द निपटाकर ईदगाह जाने के लिए तैयार हो रहे हैं| उनमें सबसे अधिक खुश बच्चे हैं क्योंकि उन्होंने इस दिन का बहुत इंतजार किया है| उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उनके अब्बा चौधरी के घर क्यों दौड़े जा रहे हैं| उन्हें तो बस ईदगाह जाने की जल्दी है क्योंकि वहाँ लगे मेले में घूमना है| हामिद भी चार-पाँच साल का एक दुबला-पतला लड़का है| वह अपनी दादी के साथ अकेले रहता है क्योंकि बचपन में ही उसके माता-पिता गुजर चुके थे| लेकिन उसे लगता है कि उसके अब्बाजान एक दिन जरुर आएँगे और बहुत सारी नई चीजें लाएँगे| उसकी दादी अमीना घर की आर्थिक स्थिति अच्छी तरह जानती है और उसे इस बात की चिंता है कि इतने कम पैसे में ईद का त्यौहार कैसे मनाएगी| वह हामिद को तीन पैसे देकर मेले में भेजती है|

सभी ईदगाह पहुँचते हैं और ईद की नमाज पढ़ने के बाद आपस में गले मिलते हैं| बच्चों की टोली मेले से तरह-तरह के खिलौने और मिठाई खरीदती है| लेकिन हामिद के पास मात्र तीन ही पैसे हैं जिनसे वह अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदता है| इस बात पर उसके सभी दोस्त उसकी हँसी उड़ाते हैं| हामिद उनके खिलौनों की निंदा करता है और अपने चिमटे को उनके खिलौनों से श्रेष्ठ बताता है| घर आने पर जब उसकी दादी अमीना उसके हाथों में चिमटा देखती है तो डाँटना शुरू कर देती है| जब हामिद ने चिमटा लाने का असली कारण तवे पर रोटी सेंकते समय उनकी ऊंगलियों का जलना बताया तो दादी का सारा गुस्सा स्नेह में बदल गया| हामिद का अपने प्रति प्यार और त्याग की भावना देखकर दादी भावुक हो उठीं| उनके आँखों से आँसू गिरने लगे और वह हामिद को हाथ उठाकर दुआएँ देने लगी|

कथाकार-परिचय

मुंशी प्रेमचंद का जन्म सन् 1880 में तथा उनकी मृत्यु 1936 में हुई| उनका जन्म वाराणसी जिले के लमही ग्राम में हुआ था| उनका मूल नाम धनपतराय था| प्रेमचंद की प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी में हुई| मैट्रिक के बाद वे अध्यापन करने लगे| बी.ए. तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूरी तरह लेखन-कार्य के प्रति समर्पित हो गए|

प्रेमचंद के साहित्य में किसानों, दलितों, नारियों की वेदना और वर्ण-व्यवस्था की कुरीतियों का मार्मिक चित्रण किया है| वे साहित्य को स्वांतः सुखाय न मानकर सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम मानते थे| वे एक ऐसे साहित्यकार थे, जो समाज की वास्तविक स्थिति को पैनी दृष्टि से देखने की शक्ति रखते थे| उन्होंने समाज-सुधार और राष्ट्रीय-भावना से ओत-प्रोत अनेक उपन्यासों एवं कहानियों की रचना की| उनकी भाषा बहुत सजीव, मुहावरेदार और बोलचाल के निकट है|

प्रमुख रचनाएँ- उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- मानसरोवर (आठ भाग), गुप्त धन (दो भाग) (कहानी संग्रह); निर्मला, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, गोदान (उपन्यास); कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी (नाटक); विविध प्रसंग (तीन खंडों में, साहित्यिक और राजनीतिक निबंधों का संग्रह); कुछ विचार (साहित्यिक निबंध)| उन्होंने माधुरी, हंस, मर्यादा, जागरण आदि पत्रिकाओं का भी संपादन किया|

कठिन शब्दों के अर्थ

• बला- कष्ट, आपति, बहुत कष्ट देनेवाली वस्तु
• बदहवास- घबराना, होश-हवाश ठीक न होना

• निगोड़ी- अभागी, निराश्रय, जिसका कोई न हो
• चितवन- किसी को और देखने का ढंग, दृष्टि, कटाक्ष
• वजू- नमाज से पहले यथाविधि हाथ-पाँव और मुँह धोना
• सिजदा- माथा टेकना, खुदा के आगे सिर झुकाना
• हिंडोला- झूला, पालना
• मशक- भेड़ या बकरी की खाल को सीकर बनाया हुआ थैला जिससे भिश्ती पानी ढोते हैं
• अचकन- लंबा कलीदार अँगरखा जिसमें पहले गरेबाँ से कमर-पट्टी तक अर्धचंद्राकार बंद लगते थे और अब सीधे बटन टँकते हैं
• नेमत- बहुत बढ़िया
• जब्त- सहन करना
• दामन- पल्लू, आँचल

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Chapter 8 The Tale of Melon City | class11th english snapshot | revision notes summary

The Tale of Melon City Summary In English

Once there was a just and gentle king who ruled over a country. The king announced publicly that a curved structure should be built which should extend across the major public road in a victorious manner to benefit the beholders spiritually.

Obeying the king’s orders, the workmen went there and built the arch. The king rode down the thoroughfare to enlighten the spectators. Since the arch was built too low, the king lost his crown under the arch. The eyebrows of the gentle king were knit in displeasure. He called it a disgrace and declared that the chief of builders would be hanged.

The rope and gallows were arranged and the chief of builders was led out. As he passed the king, he shouted, “O king, it was the workmen’s fault.” The king stopped the proceedings and Ordered that all the workmen be hanged instead. The workmen looked surprised and said to the king that he had not realized that the bricks were made of the wrong size.

The king ordered that the masons be called there. The masons were brought there. They stood trembling with fear. They now blamed the architect. The architect was called. The king ordered that the architect was to be hanged. The architect reminded the king that he had made certain improvements in the plans when he showed them to the king. On hearing this, the king became very angry and was unable to act calmly.

Being a just and gentle king, he observed that it was a very difficult business and he needed some advice. He ordered that the wisest man in the country be brought there. The wisest man was found and brought to the Royal Court. He was so old that he could not walk or see. So he had to be carried there. He said in a trembling voice that the culprit must be punished. It was the arch that had hit the crown off, so it must be hanged. The arch was then taken to the scaffold. Then a councillor observed how they could hang something that had touched the head of the king.

The king thought carefully and said it was true. However, by now the crowd became restless and was muttering aloud. The king noticed their mood and trembled. He asked the people who had assembled there to postpone deliberation over finer points like guilt. Since the nation wants a hanging, someone must be hanged and that too immediately.

The noose was setup somewhat high. Each man was measured by and by. Only one man was tall enough to fit it. That man was the king. So he was hanged by the Royal ordinance. The ministers felt satisfied that they had found someone to be hanged. Otherwise the unruly town might have rebelled against the king. They shouted “Long live the king!”

Since the king was dead, the practical minded ministers sent messengers to declare in the name of His (former) Majesty that the next to pass the City Gate would choose the ruler of their state. It was their custom and it wound be observed with proper respect. An idiot passed by the City Gate. The guards asked him to decide: “Who is to be the King?” The idiot replied “a melon” because it was his standard answer to all questions.

The ministers crowned a melon as their king. Then they led (carried) the Melon to the throne and set it down there with proper respect. When asked how their king happenes to be a melon, the people would reply that it was on account of customary choice. If the king felt happy in being a melon, it was all right for them. They would not question him taking any shape as long as he left them in peace and liberty and allowed them to carry on their private business without government control.

The Tale of Melon City Summary In Hindi

एक समय एक न्यायी तथा नम्र राजा था जो एक देश पर राज्य करता था। राजा ने सार्वजनिक घोषणा की कि मुख्य राजमार्ग के आरपार विजय की घोषणा सहित एक वृत्तखण्ड (मेहराब) बनाई जाए जो दर्शकों को अध्यात्मिक रूप से सुधार सके।

राजा के आदेशों को मानते हुए श्रमिक वहाँ गए तथा उन्होंने मेहराब बना दी। लोगों को सुधारने के लिए राजा घोड़े पर सवार होकर वहाँ पहुँचा। क्योंकि यह मेहराब बहुत नीची बनाई गई थी, राजा अपना मुकुट मेहराब के नीचे गैंवा बैठा। राजा की भृकुटियाँ क्रोध में तन गईं। उसने इसे अपमानजनक कहा तथा घोषणा की कि मुख्य श्रमिक को सूली पर लटका दिया जाए।

रस्सी तथा सूली का प्रबन्ध किया गया तथा श्रमिकों के मुखिया को वहाँ ले जाया गया। राजा के समीप से गुज़रते हुए वह चिल्लाया “राजन! यह तो श्रमिकों का दोष था।” राजा ने कार्रवाही रोक दी तथा आदेश दिया कि उसकी बजाय सभी श्रमिकों को फासी दी जाए। श्रमिक आश्चर्यचकित दिखाई दिए तथा उन्होंने राजा से कहा कि उसने यह महसूस नहीं किया था कि ईंटें गलत आकार की बनी हुई थीं।

राजा ने आदेश दिया कि राज मिस्त्रियों को वहाँ बुलाया जाए। राज मिस्त्री वहाँ लाए गए। वे भय से काँपते हुए वहाँ खड़े रहे। अब उन्होंने शिल्पी पर दोष लगाया। शिल्पकार को बुलाया गया। राजा ने आदेश दिया कि शिल्पी को फैासी देनी थी। शिल्पकार ने राजा को याद दिलाया कि जब उसने योजना राजा को दिखाई थी तो उसने उन में कुछ सुधार किए थे। यह सुनकर राजा आग-बबूला हो गया तथा शान्तिपूर्वक काम करने में असमर्थ हो गया।

न्यायी एवं नम्र राजा होने के कारण उसने कहा कि यह एक कठिन कार्य था तथा उसे कुछ परामर्श की आवश्यकता थी। उसने आदेश दिया कि देश का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति वहाँ लाया जाए। सबसे बुद्धिमान व्यक्ति को ढूंढा गया तथा वहाँ लाया गया। वह इतना बूढ़ा था कि वह न तो चल सकता था और न ही देख सकता था। अतः उसे उठाकर वहाँ ले जाया गया। उसने काँपती आवाज़ में कहा कि दोषी को अवश्य दण्ड मिलना चाहिए। मेहराब ने राजा के मुकुट को गिराया था, अतः इसे फासी पर लटका देना चाहिए। मेहराब को फासी के चबूतरे पर ले जाया गया। फिर एक परामर्शदाता ने कहा कि वे ऐसी किसी वस्तु को कैसे फाँसी दे सकते थे जिसने राजा के सिर को स्पर्श किया हो।।

राजा ने सावधानीपूर्वक विचार किया तथा कहा कि यह सत्य था। किन्तु अब तक भीड़ उत्तेजित हो गई तथा ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ा रही थी। उसने वहाँ उपस्थित लोगों से अपराध जैसे सूक्ष्म बिन्दुओं पर विचार करने को स्थगित करने को कहा। क्योंकि राष्ट्र चाहता था कि फाँसी लगे, अतः किसी को फाँसी देनी थी और वह भी तत्काल। | फाँसी का फन्दा कुछ ऊँचा स्थापित किया गया। प्रत्येक व्यक्ति को बारी-बारी से मापा गया। केवल एक ही व्यक्ति इतना ऊँचा था कि वह इसमें सही समा सके। वह व्यक्ति राजा था। अतः राजसी आदेश के अनुसार उसे फाँसी लगा दी गई। मन्त्रिगण प्रसन्न थे कि उन्होंने फाँसी लगाने के लिए किसी व्यक्ति को ढूंढ लिया था वरना अनियन्त्रित नगरवासियों ने राजा के विरूद्ध विद्रोह कर दिया होता। वे चिल्लाए ‘राजा दीर्घजीवी हों।

क्योंकि राजा की मृत्यु हो गई थी, व्यावहारिक बुद्धिवाले मन्त्रियों ने पूर्ववर्ती राजा के नाम से घोषणा कराने को दूत भेजे कि नगर द्वार से गुजरनेवाला अगला व्यक्ति उनके देश के राजा को चुनेगा। यह उनकी प्रथा थी तथा इसका उचित सम्मान सहित पालन किया जायेगा। एक बुधू (मूर्ख) नगरे द्वार से गुज़रा। रक्षकों ने उसे यह निर्णय करने को कहा कि राजा कौन होगा। बुद्धू ने उत्तर दिया कि ‘खरबूजा’ क्योंकि सभी प्रश्नों का उसका यही एक मात्र नपा-तुला उत्तर था।

मन्त्रियों ने खरबूजे को राजा के रूप में मुकुट पहनाया। फिर वे खरबूजे को राजगद्दी तक ले गए तथा उचित आदर सहित इसे वहाँ विराजमान कर दिया। जब यह पूछा जाता कि उनका राजा खरबूजा कैसे बना, तो लोग उत्तर देते कि यह तो प्रथा के कारण था। यदि राजा को खरबूजा बनने में प्रसन्नता होती हो, तो उनके लिए यह सही (ठीक) था। वे उसके किसी भी आकार धारण करने से आपत्ति नहीं करेंगे जब कि वह उन्हें शान्ति तथा स्वतन्त्रता में रहने दे तथा उनके मुक्त व्यापार में राजकीय हस्तक्षेप न करे।

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Chapter 7 Birth | class11th english snapshot | revision notes summary

Birth Summary In English

It was nearly midnight when Andrew Manson, the young doctor reached Bryngower. He found driller Joe Morgan waiting anxiously for him. Joe told Andrew that his wife, Susan, wanted his help and that too before time. Andrew went into his house, took his bag and left with Joe for number 12 Blaina Terrace.

Joe’s voice showed signs of strain as he told the doctor that he would not go in. He reposed full faith in Andrew. A narrow stair led up to a small bedroom. He found two women beside the patient. One was Mrs Morgan’s mother. She was a tall, grey-haired woman of nearly seventy. The other was a stout, elderly midwife. The old woman offered to make a cup of tea for the doctor. The experienced woman had realized that there must be a period of waiting.

Andrew drank tea in the kitchen downstairs. He knew he could not snatch even an hour’s sleep if he went home. He also knew that the case would demand all his attention. Although he was very worried and upset, he decided to remain there until everything was over. An hour later he went upstairs again. He noted the progress made, came down once more and sat by the kitchen fire. The old woman sat opposite him. His thought were filled with Christine, the girl he loved. He stared broodingly, into the fire and remained like this for quite long. He was startled when the old woman suddenly asked him not to give her daughter the chloroform. She feared that it would harm the baby. The doctor replied that the anaesthetic would not do any harm.

An hour passed. It was now dawn when the child was born, lifeless. As he gazed at the still form, a shiver of horror passed over Andrew. His face, heated with his own exertions, chilled suddenly. He was torn between his desire to attempt to make the child start breathing again, and his obligation towards the mother. She was in a desperate state. The dilemma was quite urgent. Instinctively, he gave the child to the nurse. He turned his attention to Susan Morgan. She lay collapsed on her side, almost pulseless and not let out of the effect of medicine to make her unconscious. Her strength was ebbing. He smashed a glass ampoule and injected the medicine. Then he worked severely to restore the soft and weak woman. After a few minutes of quick efforts, her heart strengthened. He saw that he might safely leave her.

Then he asked the midwife about the child. She made a frightened gesture. She had placed it beneath the bed. Andrew knelt down and pulled out the child. It was a perfectly formed boy. Its limp, warm body was white and soft as tallow. The head lolled on the thin neck. The limbs seemed boneless. The cord, hastily slashed, lay like a broken stem. The whiteness meant only one thing-unconsciousness caused by lack of oxygen.

His mind raced back to a case he had once seen in the Samaritan. He remembered the treatment that had been used. He instantly asked the nurse to get him hot water and cold water and basins. Then he snatched a blanket. He laid the child on it and began the special method of respiration. As soon as the basins arrived, he poured cold water into one basin and hot in the other. Then he hurried the child between the two. Fifteen minutes passed. Sweat ran into Andrew’s eyes. His breath came pantingly, but no breath came from the lax body of the child.

A desperate sense of defeat pressed on him. It was a quickly spreading hopelessness. The midwife and the old woman were watching him. He remembered the old woman’s longing for a grandchild which had been as great as her daughter’s longing for this child. All this seemed broken and useless now. The midwife remarked that it was a stillborn child. Andrew did not pay any attention to her.

He had laboured in vain for half an hour. He still persisted in one last effort. He rubbed the child with a rough towel. He went on crushing and releasing the little chest with both his hands. He was trying to get breath into that limp body. At last, the small chest gave a short, convulsive heave. Then another and another. Andrew redoubled his efforts. The child was gasping now. A bubble of mucus came from one tiny nostril. The limbs were no longer boneless. The pale skin slowly turned pink. Then came the child’s cry.

Andrew handed the child to the nurse. He felt weak and dazed. The room lay in a shuddering litter. He wrung out his sleeve and pulled on his jacket. He went downstairs through the kitchen into the scullery. His lips were dry. He took a long drink of water. Then he reached for his hat and coat. It was now five o’clock. He met Joe and told him that both were all right. Andrew kept thinking that he had done something real at last.

Birth Summary In Hindi

लगभग आधी रात को समय था जब युवा चिकित्सक, एन्ड्रयू मैन्सन बिंगावर पहुँचा। उसने छेद करनेवाले जोअ मॉर्गन को अपने लिये बेचैनी से प्रतीक्षा करते हुए पाया। जोअ ने एन्ड्रयू को बताया कि उसकी पत्नी सूसन को उसकी सहायता की आवश्यकता थी और वह भी समय से पहले। एन्ड्रयू अपने घर में गया, अपना बैग (थैला) लिया तथा जोअ के साथ 12, ब्लैना टेरेसा के लिए चल दिया।

जब जोअ ने चिकित्सक को बताया कि वह भीतर नहीं जायेगा तो उसके स्वर में तनाव के चिहन दिखाई दिए। उसने एन्ड्रयू में पूरा भरोसा रखा। एक तंग सीढी ऊपर एक छोटे से शयनकक्ष को जाती थी। उसने रोगी के पास दो महिलाओं को पाया। एक थी श्रीमती मॉर्गन की माँ। वह लगभग 70 वर्षीया, लम्बी, सफेद बालोंवाली महिला थी। दूसरी एक मोटी, बुजुर्ग दाई थी। बूढी स्त्री ने चिकित्सक के लिए एक कप चाय बनाने की पेशकश की। अनुभवी महिला ने समझ लिया था कि प्रतीक्षा करने की अवधि अवश्य रहेगी।

एन्ड्रयू ने नीचे रसोईघर में चाय पी। वह जानता था कि घर जाने पर भी वह एक घंटे की नींद भी नहीं ले सकता था। वह यह भी जानता था कि यह केस पूरा ध्यान चाहेगा। यद्यपि वह चिन्तित तथा परेशान था, उसने वहाँ तब तक रहने का निश्चय किया जब तक सब कुछ पूरा न हो जाए। एक घन्टे के पश्चात् वह फिर ऊपर गया। उसने प्रगति देखी एक बार फिर नीचे आया तथा रसोईघर में आग के पास बैठ गया। बूढ़ी महिला उसके सामने बैठ गई। उसके विचार उसकी प्रेमिको क्रिस्टीन के विषय में ओत-प्रोत थे। वह सोचता हुआ आग की ओर देखता रहा तथा काफी समय इसी प्रकार रहा। वह तब चौंको जब वृद्धा ने उसे अचानक उसकी बेटी को क्लोरोफार्म न देने को कहा। उसे भय था कि इससे बच्चे को हानि होगी। चिकित्सक ने उत्तर दिया कि बेसुध करने की औषधि से कोई हानि नहीं होगी।

एक घंटा गुज़र गया। भोर हो चुकी थी जब निर्जीव शिशु का जन्म हुआ। जब एन्ड्रयू ने इस निश्चल आकार को देखा तो भय की कंपकपी उस पर दौड़ गई। वह बच्चे को पुनः सांस लेने के लिए प्रयास कराने की अपनी इच्छा तथा उसकी माँ के प्रति अपने उत्तरदायित्व के बीच फैंस गया। वह अत्यन्त निराशाजनक स्थिति में थी। यह दुविधा अत्यन्त ज़रूरी थी। प्रवृत्तिवश, उसने बच्चे को नर्स को दे दिया। उसने अपना ध्यान सूसन मोर्गन पर लगाया। वह एक करवट के बल लेटी हुई थी, नाड़ी विहीन तथा बेहोश करनेवाली औषधि के प्रभाव से अभी मुक्त नहीं थी। उसकी शक्ति क्षीण होती जा रही थी। उसने एक दवा की शीशी तोड़ी तथा उसे सूई लगी दी। फिर उसने इस शिथिल महिला को पुनः स्वस्थ करने की भरसक चेष्टा की। कुछ मिनटों के तेज़ प्रयासों से उसका हृदय मज़बूत हो गया। उसने देखा कि वह उसे सुरक्षित छोड़ सकता था।

फिर उसने दाई से शिशु के विषय में पूछा। उसने भयपूर्ण मुद्रा बनाई। उसने इसे पलंग के नीचे रख दिया था। एन्ड्रयू झुका तथा उसने शिशु को बाहर खींचा। यह सुघड़ बना हुआ लड़का था। इसका ढीला, गर्म शरीर सफेद था तथा चर्बी की भाँति नर्म। सिर पतली गर्दन पर लुढ़का हुआ था। अंग हड्डीविहीन लगते थे। इसकी शीघ्रता से काटी हुई नाल एक टूटे तने की भाँति पड़ी थी। सफेदी का केवल एक ही अर्थ था-ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई बेहोशी।

उसका दिमाग उस विगत प्रसूति के मामले की ओर गया जो उसने समरिटन में देखा था। उसे वह उपचार (इलाज़) याद आया जो प्रयोग किया गया था। उसने तुरन्त नर्स को ठण्डी तथा गर्म पानी तथा बर्तन लाने को कहा। फिर उसने एक कम्बल खींचा। उसने बच्चे को इस पर लिटाया तथा साँस देने का विशेष ढंग आरम्भ कर दिया। ज्योंही बर्तन आ गये, उसने एक बर्तन में ठण्डा पानी डाला तथा दूसरे में गर्म। फिर वह जल्दी-जल्दी इन दोनों में बारी-बारी बच्चे को डालता रहा। पन्द्रह मिनट बीत गये। पसीना बहकर एन्ड्रयू की आँखों में पहुँच गया। वह हाँफते हुए साँस ले रहा था, किन्तु बच्चे के ढीले शरीर से कोई सांस नहीं आई।

उस पर पराजय की एक निराशापूर्ण भावना छा गई। यह तेजी से फैलनेवाली निराशा थी। दाई तथा बूढी स्त्री उसे ध्यान से देख रही थी। उसे वृद्धा की नाती के लिये लालसा याद आई जो उतनी ही तीव्र थी जितनी उसकी बेटी की अपने बच्चे के लिये। अब यह सब व्यर्थ तथा टूटता हुआ लगा। दाई ने कहा कि बच्चा मृत उत्पन्न हुआ था। एन्ड्रयू ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।

उसने आधे घंटे तक व्यर्थ परिश्रम किया था। उसने एक अन्तिम प्रयास जारी रखा। उसने बच्चे को एक खुरदरे तौलिये से रगड़ी। वह दोनों हाथों से उसकी नन्हीं छाती को दबाता तथा छोड़ता गया। वह उसके ढीले ढाले शरीर में सांस लाने का प्रयास कर रहा था। अन्त में इस छोटी सी छाती में एक संक्षिप्त, ऐंठने भरा उभार आया। फिर दूसरा फिर एक और। एन्ड्रयू ने अपने प्रयत्न दोगुने कर दिये। अब बच्चा हाँफ रहा था। उसके छोटे से नथुने से श्लेष्मा का एक बुलबुला आया। उसके अंग अब हड्डी रहित नहीं थे। पीली त्वचा धीरे-धीरे गुलाबी हो गई। फिर बच्चे की रोने की आवाज़ आई।

एन्ड्रयू ने शिशु को दाई को पकड़ा दिया। उसने महसूस किया कि वह कमज़ोर तथा व्यग्र (घबड़ाहट भरा) था। कमरे में सामान बेतहाशा रुप से बिखरा पड़ा था। उसने अपनी बाँह ऐंठ कर निचोड़ी तथा अपनी जैकेट को ऊपर खींच लिया। वह नीचे रसोईघर से होता हुआ बर्तनों के माँजने की कोठरी तक गया। उसके होठ शुष्क (सूखे) थे। उसने काफी देर तक पानी पीया। फिर उसने अपना टोप तथा कोट लिया। अब पाँच बज चुके थे। उसे जोअ मिला जिसको उसने बताया कि दोनों बिल्कुल ठीक थे। एन्ड्रयू यह सोचता रहा कि अन्त में उसके कुछ वास्तविक (असली) बात कर दी थी।

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Chapter 6 The Ghat of the only World | class11th english snapshot | revision notes summary

The Ghat of The Only World Summary in English

On 25 April 2001, for the first time Agha Shahid Ali spoke to Amitav Gosh about his impending death although he had been getting treatment for cancer for about fourteen months. Amitav had telephoned to remind him of a friend’s invitation to lunch. He was to pick Shahid from his apartment. Despite treatment he seemed healthy except for irregular momentary failures of memory. That day, the writer heard him going through his engagement book when suddenly he said that he could not see anything. After a short silence he added that he hoped this was not an indication of his death.

Although they had talked a great deal but Shahid had never before talked of death. At first Amitav Ghosh thought . that he was joking and he tried to tell him that he would be well. But Shahid went on to say that he hoped that Amitav Ghosh would write something about him, after his death.

From the window of his study Amitav Ghosh could see the building in which he had shifted just a few months back. Earlier he had been living a few miles away, in Manhattan, when his malignant brain tumour was detected.

He then decided to move to Brooklyn, to be close to his youngest sister, Sameetah, who taught at the Pratt Institute. Shahid ignored Amitav’s reassurances. It was only when he began to laugh that he realised that Shahid was very serious. He wanted to be remembered through the written word. Shahid knew that for some writers things become real only in the process of writing. With them there is an inherent battle for dealing with loss and grief. He knew that Amitav would look for reasons to avoid writing about his death. Hence he had made sure that he would write about him. Therefore, Amitav noted all he remembered of his conversations with him. It was this that made it possible to write an article on him.

Amitav was influenced by Shahid’s work long before he met him. His voice was incomparable. It was highly lyrical and disciplined. It was engaged and yet deeply inward. His was a voice not ashamed to speak in a poetic style. None other than him could have written a line like: ‘Mad heart, be brave.’

In 1998, Amitav quoted a line from The Country Without a Post Office in an article that had a brief mention about Kashmir. Then all that he knew about Shahid was that he was from Srinagar and had studied in Delhi. The writer had been at Delhi University at about the same time but they had never met. Later, some common friend had got him to meet Shahid. In 1998 and 1999 they talked several time on the phone and even met a few times.

It was only after Shahid shifted to Brooklyn, the next year, that they found that they had a great deal in common. By this time Shahid’s condition was already serious, but their friendship grew. They shared common friends, and passions. Because of Shahid’s illness even the most ordinary talks were sharply perceptive.

One day, the writer Suketu Mehta, who also lives in Brooklyn, joined them for lunch. They decided to meet regularly. Often other writers would also join them. Once when a team arrived with a television camera, Shahid said: ‘I’m so shameless; I just love the camera.’

Shahid had a magical skill to change the ordinary into the enchanting. The writer recalls when on May 21, he accompanied Iqbal and Hena, Shahid’s brother and his sister to get him home from hospital. He was in hospital again, after several unsuccessful operations, for an operation of a tumour, to ease the pressure on his brain. His head was shaved and the tumour was visible with its edges outlined by metal stitches. When he was discharged he said that he was strong enough to walk but he was weak and dizzy and could not take more than a few steps.

Iqbal went to bring the wheelchair while the rest of them held him upright. Even at that moment his spirit had not deserted him. Shahid asked the hospital orderly with the wheelchair where he was from. When the man said ‘Ecuador’, Shahid clapped his hands cheerfully and said that he always wanted to learn Spanish to read the Spanish poet and dramatist Lorca.

A sociable person, Shahid, had a party in his living room everyday. He loved people, food and the spirit of festivity. The journey from the lobby of Shahid’s building to his door was a voyage between continents. The aroma of roganjosh and haale against the background of the songs and voices that were echoed out of his apartment, coupled with his delighted welcome was unforgettable. His apartment was always full of people. He also loved the view of the Brooklyn waterfront slipping, like a ghat, into the East River, under the glittering lights of Manhattan from his seventh floor apartment.

Almost to the very end he was the centre of everlasting celebration—of talk, laughter, food and poetry. Shahid relished his food. Even when his eyesight was failing, he could tell from the smell exactly the stage of the food being cooked and also the taste. Shahid was well known for his ability in the kitchen. He would plan for days planning and preparing for a dinner party.

It was through one such party, in Arizona, that he met James Merrill, the poet who completely changed the direction of his poetry. Shahid then began to try out strict, metrical patterns and verse forms. So great was the influence on Shahid’s poetry that in the poem in which he most clearly anticipated his own death, ‘I Dream I Am At the Ghat of the Only World,’ he honoured the evocative to Merrill: ‘SHAHID, HUSH. THIS IS ME, JAMES. THE LOVED ONE ALWAYS LEAVES.’

Shahid had a special passion for the food of his region, one variant of it in particular: ‘Kashmiri food in the Pandit style’. He said it was very important to him because of a repeated dream, in which all the Pandits had vanished from the valley of Kashmir and their food had become extinct. This was a nightmare that disturbed him and he mentioned it repeatedly both in his conversation and his poetry.

However, he also mentioned his love for Bengali food. He had never been to Calcutta but was introduced to it through his friends. He felt when you ate it you could see that there were so many things that you didn’t know about the country. It was because of various kinds of food, clothes and music we have been able to make a place where we can all come together because of the good things.

To him one of the many ‘good things’ was the music of Begum Akhtar. He had met her as a teenager and she had become a long-lasting presence and influence in his life. He also admired her for her ready wit. He was himself a very witty person. Once at Barcelona airport, he was asked by a security guard what he did. He said he was a poet. The guard woman asked him again what he was doing in Spain. Writing poetry, he replied. Finally, the frustrated woman asked if he was carrying anything that could be dangerous to the other passengers. To this Shahid said: ‘Only my heart.’

These moments were precious to Shahid. He longed for people to give him an opportunity to answer questions.

He was a brilliant teacher. On May 7, the writer attended Shahid’s class when he was teaching at Manhattan’s Baruch College in 2000. Unfortunately, this was his last class that he ever taught. The class was to be a brief one for he had an appointment at the hospital immediately afterwards. It was apparent from the moment they walked

in that the students adored him. They had printed a magazine and dedicated the issue to him. But Shahid was not in the least downcast by the sadness of the occasion. He was sparkling with life and brimming with joy. When an Indian student walked in late he greeted her saying that his Tittle sub-continental’ had arrived. He pretended to faint with pleasure. He felt meeting another South Asian evoked in him patriotic feelings.

He felt that the time he spent at Penn State was sheer pleasure as there he grew as a reader, as a poet, and as a lover. He became close to a lively group of graduate students, many of whom were Indian. Later he shifted to Arizona for a degree in creative writing. After this he worked in various colleges and universities. After 1975, Shahid lived mainly in America. His brother was already there and their two sisters later joined them. However, Shahid’s parents continued to live in Srinagar where he spent the summer months every year. He was pained to see the increasing violence in Kashmir from the late 1980s onwards. This had such an impact on him that it became one of the fundamental subjects of his work. It was in his writing of Kashmir that he produced his finest work. Ironically Shahid was not a political poet by choice.

The suffering in Kashmir tormented him but he was determined not to accept the role of victim. If he had he done so, he would have benefited by becoming a regular feature on talk shows and news programmes. But he never failed in his sense of duty. He respected religion but advocated the separation of politics and religious practice. He did not seek political answers in terms of policy and solutions. On the contrary he was all for the all-encompassing and universal betterment. This secular attitude could be attributed to his upbringing. In his childhood when he wanted to create a small Hindu temple in his room in Srinagar, his parents showed equal enthusiasm. His mother bought him murtis (idols) and other things to help him make a temple in his room.

He wanted to be remembered as a national poet but not a nationalist poet. In the title poem of The Country Without a Post Office, a poet returns to Kashmir to find the keeper of a fallen minaret. In this representation of his homeland, he himself became one of the images that were revolving around the dark point of stillness. He saw himself both as the witness and the martyr with his destiny tied with Kashmir’s.

On May 5, he had a telephonic conversation with the writer. This was a day before an important test (a scan) that would reveal the course of treatment. The scan was scheduled for 2.30 in the afternoon. The writer could get in touch with him only the next morning. Shahid told him clearly that his end was near and he would like to go back to Kashmir to die. His voice was calm and peaceful. He had planned everything. He said he would get his passport; settle his will as he didn’t want his family to go through any trouble after his death. And after settling his affairs he would go to Kashmir. He wanted to go back as because of the feudal system in Kashmir there would be so much support. Moreover his father was there. He did not want his family to have to make the journey after his death, like they had to with his mother.

However later, because of logistical and other reasons, he changed his mind about returning to Kashmir. He was content to be buried in Northampton. But his poetry underlined his desire to die and be buried in Kashmir.

The last time the writer saw Shahid was on 27 October, at his brother’s house in Amherst. He could talk erratically. He had come to terms with his approaching end. There were no signs of suffering or conflict. He was surrounded by the love of his family and friends and was calm, satisfied and at peace. He had once expressed his desire to meet his mother in the afterlife, if there was one. This was his supreme comfort. He died peacefully, in his sleep, at 2 a.m. on December 8.

Although his friendship with the writer spanned over a short duration, it left in him a huge void. He recalls his presence in his living room particularly when he read to them his farewell to the world: ‘I Dream I Am At the Ghat of the Only World…’

summary in hindi

  • 25 अप्रैल 2001 को, पहली बार आगा शाहिद अली ने अमिताव घोष से अपनी आसन्न मृत्यु के बारे में बात की, हालाँकि वह लगभग चौदह महीने से कैंसर का इलाज करवा रहे थे। अमिताव ने फोन करके उन्हें एक दोस्त के लंच पर बुलाए जाने की याद दिलाई थी। उन्हें शाहिद को उनके अपार्टमेंट से लेने जाना था। इलाज के बावजूद याददाश्त की अनियमित क्षणिक विफलताओं को छोड़कर वह स्वस्थ लग रहा था। उस दिन लेखक ने उसे अपनी सगाई की किताब पढ़ते हुए सुना तो अचानक उसने कहा कि उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा कि उन्हें आशा है कि यह उनकी मृत्यु का संकेत नहीं था। हालाँकि उन्होंने बहुत बात की थी लेकिन शाहिद ने पहले कभी मौत की बात नहीं की थी। पहले तो अमिताव घोष ने सोचा। वह मजाक कर रहा था और उसने उसे यह बताने की कोशिश की कि वह ठीक हो जाएगा। लेकिन शाहिद ने आगे कहा कि उन्हें उम्मीद थी कि अमिताभ घोष उनकी मृत्यु के बाद उनके बारे में कुछ लिखेंगे। अपने अध्ययन कक्ष की खिड़की से अमिताव घोष उस इमारत को देख सकते थे जिसमें वे अभी कुछ महीने पहले ही शिफ्ट हुए थे। इससे पहले वह कुछ मील दूर मैनहट्टन में रह रहे थे, जब उनके घातक ब्रेन ट्यूमर का पता चला था। इसके बाद उन्होंने अपनी सबसे छोटी बहन समीता के करीब होने के लिए ब्रुकलिन जाने का फैसला किया, जो प्रैट इंस्टीट्यूट में पढ़ाती थी। शाहिद ने अमिताव के आश्वासन को नजरअंदाज कर दिया। जब वह हंसने लगे तब उन्हें पता चला कि शाहिद बहुत गंभीर हैं। वह लिखित शब्द के माध्यम से याद किया जाना चाहता था। शाहिद जानते थे कि कुछ लेखकों के लिए चीजें लिखने की प्रक्रिया में ही वास्तविक हो जाती हैं। उनके साथ नुकसान और दु: ख से निपटने के लिए एक अंतर्निहित लड़ाई होती है। वे जानते थे कि अमिताभ अपनी मृत्यु के बारे में लिखने से बचने के लिए कारण खोजेंगे। इसलिए उन्होंने यह सुनिश्चित कर लिया था कि वह उनके बारे में लिखेंगे। इसलिए, अमिताभ ने उनके साथ हुई अपनी बातचीत के बारे में जो कुछ भी याद किया, उसे नोट कर लिया। यह वह था जिसने उन पर एक लेख लिखना संभव बनाया। अमिताभ शाहिद से मिलने से बहुत पहले उनके काम से प्रभावित थे। उनकी आवाज अतुलनीय थी। यह अत्यधिक गेय और अनुशासित था। यह व्यस्त था और फिर भी गहराई से अंदर था। उनकी आवाज में काव्यात्मक शैली में बोलने में शर्म नहीं आती थी। ‘पागल दिल, बहादुर बनो’ जैसी पंक्ति उनके अलावा और कोई नहीं लिख सकता था। 1998 में, अमिताव ने एक लेख में द कंट्री विदाउट ए पोस्ट ऑफिस की एक पंक्ति उद्धृत की जिसमें कश्मीर के बारे में एक संक्षिप्त उल्लेख था। तब उन्हें शाहिद के बारे में सिर्फ इतना पता था कि वह श्रीनगर से हैं और दिल्ली में पढ़े हैं। लेखक लगभग उसी समय दिल्ली विश्वविद्यालय में थे लेकिन वे कभी मिले नहीं थे। बाद में किसी कॉमन फ्रेंड ने उन्हें शाहिद से मिलवाया था। 1998 और 1999 में उन्होंने कई बार फोन पर बात की और कुछ बार मुलाकात भी हुई। अगले साल शाहिद के ब्रुकलिन में शिफ्ट होने के बाद ही उन्हें पता चला कि उनमें काफी समानताएं हैं। इस समय तक शाहिद की हालत पहले से ही गंभीर थी, लेकिन उनकी दोस्ती बढ़ती गई। उन्होंने साझा मित्र, और जुनून साझा किए। शाहिद की बीमारी के कारण साधारण से साधारण बातचीत भी तीव्र रूप से ग्रहणशील थी। एक दिन ब्रुकलिन में रहने वाले लेखक सुकेतु मेहता उनके साथ दोपहर के भोजन में शामिल हुए। उन्होंने नियमित रूप से मिलने का फैसला किया। अक्सर दूसरे लेखक भी उनके साथ जुड़ जाते थे। एक बार जब एक टीम टेलीविजन कैमरा लेकर पहुंची, तो शाहिद ने कहा: ‘मैं बहुत बेशर्म हूं; मुझे बस कैमरे से प्यार है।’ शाहिद के पास साधारण को आकर्षक बनाने का जादुई हुनर ​​था। लेखक याद करते हैं जब 21 मई को, वह इकबाल और हिना, शाहिद के भाई और उनकी बहन के साथ उन्हें अस्पताल से घर लाने के लिए गए थे। कई असफल ऑपरेशन के बाद, ट्यूमर के ऑपरेशन के लिए, अपने मस्तिष्क पर दबाव कम करने के लिए, उन्हें फिर से अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उसका सिर मुंडा हुआ था और धातु के टांके द्वारा रेखांकित किनारों के साथ ट्यूमर दिखाई दे रहा था। जब उसे डिस्चार्ज किया गया तो उसने कहा कि वह चलने के लिए काफी मजबूत है लेकिन वह कमजोर और चक्कर आ रहा है और कुछ कदम से ज्यादा नहीं चल सकता है। एरिजोना में ऐसी ही एक पार्टी के जरिए उनकी मुलाकात कवि जेम्स मेरिल से हुई जिन्होंने अपनी कविता की दिशा पूरी तरह से बदल दी। शाहिद ने फिर सख्त, छंदबद्ध पैटर्न और पद्य रूपों को आजमाना शुरू किया। शाहिद की शायरी पर इतना गहरा प्रभाव था कि जिस कविता में उन्होंने सबसे स्पष्ट रूप से अपनी मौत का अनुमान लगाया था, ‘आई ड्रीम आई एम एट द घाट ऑफ द ओनली वर्ल्ड’ में उन्होंने मेरिल के विचारोत्तेजक शब्द ‘शाहिद, हश’ को सम्मानित किया। यह मैं हूँ, जेम्स। प्यारा हमेशा छोड़ देता है। शाहिद को अपने क्षेत्र के भोजन के प्रति विशेष लगाव था, उसका एक प्रकार विशेष: ‘पंडित शैली में कश्मीरी भोजन’। उन्होंने कहा कि यह उनके लिए एक बार-बार के सपने के कारण बहुत महत्वपूर्ण था, जिसमें सभी पंडित कश्मीर की घाटी से गायब हो गए थे और उनका भोजन विलुप्त हो गया था। यह एक दुःस्वप्न था जिसने उन्हें परेशान कर दिया और उन्होंने अपनी बातचीत और अपनी कविता दोनों में बार-बार इसका उल्लेख किया। हालांकि, उन्होंने बंगाली खाने के प्रति अपने प्यार का भी जिक्र किया। वह कभी कलकत्ता नहीं गया था, लेकिन अपने दोस्तों के माध्यम से उसका परिचय हुआ। उन्होंने महसूस किया कि जब आप इसे खाते हैं तो आप देख सकते हैं कि देश के बारे में ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो आप नहीं जानते हैं। यह विभिन्न प्रकार के भोजन, कपड़े और संगीत के कारण ही हम एक ऐसी जगह बना पाए हैं जहाँ हम सभी अच्छी चीजों के कारण एक साथ आ सकते हैं। उनके लिए कई ‘अच्छी चीजों’ में से एक बेगम अख्तर का संगीत था। वह उससे एक किशोरी के रूप में मिला था और वह उसके जीवन में एक लंबे समय तक चलने वाली उपस्थिति और प्रभाव बन गई थी। उन्होंने उसकी तैयार बुद्धि के लिए उसकी प्रशंसा भी की। वे स्वयं बहुत ही चतुर व्यक्ति थे। एक बार बार्सिलोना हवाई अड्डे पर, एक सुरक्षा गार्ड ने उनसे पूछा कि उन्होंने क्या किया। उन्होंने कहा कि वह कवि हैं। गार्ड महिला ने उससे फिर पूछा कि वह स्पेन में क्या कर रहा था। कविता लिखते हुए उन्होंने जवाब दिया। अंत में, निराश महिला ने पूछा कि क्या वह कुछ भी ले जा रहा है जो अन्य यात्रियों के लिए खतरनाक हो सकता है। इस पर शाहिद ने कहा, ‘ओनली माय हार्ट।’
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