Chapter 4 भारतीय कलाएँ | class11th | revision notes hindi vitan

भारतीय कलाएँ वितान क्लास 11

भारतीय कलाएँ वितान क्लास 11

1. कला और भाषा के अंतसंबंध पर आपकी क्या राय है? लिखकर बताएँ।

उत्तर– कला और भाषा के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है। सृष्टि के प्रारंभ से ही भाषा की अनुपलब्धता के बावजूद मनुष्य, अपने मन में उठने वालेभावों और विचारों को चित्र के रूप में अभिव्यक्त करने लगा। सिंधु घाटी सभ्यता में मिले चित्र और प्रागैतिहासिक काल में मिले प्राचीन चित्रकला के साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं। बुद्धि के विकास यानी ज्ञान का दायरा बढ़ने पर भाषा का जन्म हुआ। अब ताम्र पत्र, अभिलेख और कागजपर चित्रांकन होने लगा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भाषा के उद्भव और विकास में कला का अभिन्न योगदान है। दोनों का परस्पर घनिष्ठ संबंध है।

2. भारतीय कलाओं और भारतीय संस्कृति में आप किस तरह का संबंध पाते हैं?

उत्तर– भारतीय कलाओं और भारतीय संस्कृति में घनिष्ठ संबंध है। विविधता उत्सवधर्मी देश भारत की विशिष्ट पहचान है। भारत के अलग-अलगराज्यों की अपनी-अपनी विशिष्ट कलाएँ हैं। भारतीय कलाओं को भारतीय संस्कृति में मनाए जाने वाले त्योहारों, उत्सवों से अलग नहीं किया जासकता। भारतीय कलाएँ जन्मोत्सव से लेकर शादी-ब्याह, पूजा तथा खेती-बाड़ी से भी जुड़ी हैं। मनुष्य के जीवन से जुड़ी होने के कारण ही भारत की ये विशिष्ट कलाएँ भारतीय संस्कृति के विरासत के प्रति हमें उत्साह और विश्वास से भर देती हैं।

3. शास्त्रीय कलाओं का आधार जनजातीय और लोक कलाएँ हैं- अपनी सहमति और असहमति के पक्ष में तर्क दें।

उत्तर– शास्त्रीय कलाओं का आधार जनजातीय और लोक कलाएँ हैं- मैं इस कथन से पूर्णतया सहमत हूँ जनजातीय और लोककला की कलांतर में जाकर शास्त्रीय कलाओं का आधार बनी। प्रारंभिक दौर में सभी कलाओं का संबंध लोक या समूह से था। आगे जाकर साहित्य, चित्र, संगीत, नृत्य कलाएँ राजाओं और विभिन्न शासकों के संरक्षण में जाकर धीरे-धीरे शास्त्रीय नियमों में बँधी इस प्रकार महलों और मंदिरों से विकसित होती हुई ये कलाएँ शास्त्रीय स्वरूप ग्रहण करती गई कला की दृष्टि से स्वर्ण युग कहे जाने वाले गुप्त साम्राज्य जनजातीय और लोक कलाएँ अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में जनजातीय और लोक कलाओं का शास्त्रीय स्वरूप बना, जो कला की दृष्टि से अब तक का सबसे महत्वपूर्ण शास्त्र है।SHARE THIS:

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Chapter 3 आवारा मसीहा | class 11th | revision notes hindi antral

आवारा मसीहा पाठ का सारांश 

प्रस्तुत पाठ या जीवनी आवारा मसीहा लेखक विष्णु प्रभाकर जी के द्वारा लिखित है | वास्तव में यह महान कथाकार ‘शरतचंद्र’ की जीवनी है, जिसे प्रभाकर जी ने लिखा है | परन्तु, इस पाठ में केवल ‘आवारा मसीहा’ उपन्यास के प्रथम पर्व ‘दिशाहारा’ का अंश ही प्रस्तुत है | उपन्यास के इस अंश में लेखक ने शरदचंद्र के बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक के अलग-अलग पहलुओं को वर्णित करने का प्रयास किया है | जिसमें बचपन की शरारतों में भी शरद के एक अत्यंत संवेदनशील और गंभीर व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। उनके रचना संसार के समस्त पात्र हकीकत में उनके वास्तविक जीवन के ही पात्र हैं | 

वैसे तो अपनी माँ के साथ बालक शरदचंद्र अपने नाना के घर कई बार आ चुका था | लेकिन तीन वर्ष पहले का आना कुछ और ही तरह का था | शरद के पिता मोतीलाल यायावर प्रवृत्ति (घुम्मकड़) के व्यक्ति थे | उन्होंने कभी भी एक जगह बंध कर रहना पसंद नहीं किया | उन्होंने कई नौकरियों का त्याग कर दिया | वे नाटक, कहानी, उपन्यास इत्यादि रचनाएँ लिखना तो प्रारंभ करते, किंतु उनका शिल्पी मन किसी दास्ता को स्वीकार नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप, रचनाएँ अधूरी रह जाती थीं | एक बार बच्चों के लिए उन्होंने भारतवर्ष का एक विशाल मानचित्र तैयार करना आरंभ किया, लेकिन तभी मन में एक प्रश्न जाग आया, क्या इस मानचित्र में हिमाचल की गरिमा का ठीक-ठीक अंकन हो सकेगा ? नहीं हो सकेगा | बस, फिर किसी भी तरह वह काम आगे नहीं बढ़ सका | जब पारिवारिक भरण-पोषण असंभव हो गया तब शरद की माता भुवनमोहिनी ने अपने पिता केदारनाथ से याचना की और एक दिन सबको लेकर अपने पिता के घर भागलपुर चली आईं | 

नाना के घर में शरद का पालन-पोषण अनुशासित रीति और नियमों के अनुसार होने लगा था | भागलपुर विद्यालय में सीता-बनवास, चारु-पीठ, सद्भाव-सद्गुरु तथा ‘प्रकांड व्याकरण’ इत्यादि पढ़ाया जाता था। प्रतिदिन पंडित जी (शरद के नाना) के सामने परीक्षा देनी पड़ती थी और विफल होने पर दंड भोगना पड़ता था। तब लेखक को एहसास होता था कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनुष्य को दुख पहुँचाना ही है। घर में बाल सुलभ शरारत पर भी कठोर दंड दिया जाता था। फेल होने पर पीठ पर चाबुक पड़ते थे, नाना के विचार से बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार है, प्यार और आदर से उनका जीवन नष्ट हो जाता है | वहाँ सृजनात्मकता के कार्य भी लुक-छुप कर करने पड़ते थे। शरद को घर में निषिद्ध कार्यों को करने में बहुत आनंद आता था | निषिद्ध कार्यों को करने में उन्हें स्वतंत्रता का तथा जीवन में तरो-ताजगी का एहसास होता था।

शरद के नाना लोग कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे | मामाओं और मौसियों की संख्या काफ़ी थी | उनमें छोटे नाना अघोरनाथ का बेटा मणींद्र शरद का सहपाठी था | उन दोनों को घर पढ़ाने के लिए नाना ने अक्षय पंडित को नियुक्त कर दिया था | वे मानो यमराज के सहोदर थे | मानते थे कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में है | इसलिए बीच-बीच में सिंह-गर्जना के साथ-साथ रुदन की करुण-ध्वनि भी सुनाई देती रहती थी | शरद को पशु-पक्षी पालना, तितली पकड़ना, उपवन लगाना, नदी या तालाब में मछलियां पकड़ना, नाव लेकर नदी में सैर करना और बाग में फूल चुराना अति प्रिय लगता था | शरद और उनके पिता मोतीलाल दोनों के स्वभाव में काफी समानताएँ देखने को मिलती थीं | दोनों साहित्य प्रेमी, सौंदर्य बोधी, प्रकृति प्रेमी, संवेदनशील तथा कल्पनाशील और यायावर घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे | कभी-कभी शरद किसी को कुछ बताए बिना गायब हो जाता | पूछने पर वह बताता कि तपोवन गया था। वास्तव में तपोवन लताओं से घिरा गंगा नदी के तट पर एक स्थान था, जहां शरद सौंदर्य उपासना किया करता था | 

एक बार गंगा घाट पर जाते हुए शरद ने जब अपने अंधे पति की मृत्यु पर एक गरीब स्त्री के रुदन का करुण स्वर सुना तो शरद ने कहा कि दुखी लोग अमीर आदमियों की तरह दिखावे के लिए जोर-जोर से नहीं रोते, उनका स्वर तो प्राणों तक को भेद जाता है, यह सचमुच का रोना है। छोटे से बालक के मुख से रुदन की अति सूक्ष्म व्याख्या सुनकर अघोरनाथ के एक मित्र ने भविष्यवाणी की थी कि जो बालक अभी से रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानने का एहसास रखता है, वह भविष्य में अपना नाम ऊँचा करेगा | अघोरनाथ के मित्र की भविष्यवाणी बिल्कुल सच साबित हुई | शरद के स्कूल में एक छोटा सा पुस्तकालय था | मजे की बात यह है कि शरद ने पुस्तकालय का सारा साहित्य पढ़ डाला था | व्यक्तियों के मन के भाव को जानने में शरद का महारत हासिल थी, परन्तु, नाना के घर में उसकी प्रतिभा को पहचानने वाला कोई ना था। शरद छोटे नाना की पत्नी कुसुम कुमारी को अपना गुरु मानते रहे। नाना के परिवार की आर्थिक हालत ख़राब होने पर शरद के परिवार को देवानंदपुर लौट कर वापस आना पड़ा। मित्र की बहन धीरू कालांतर में देवदास की पारो, श्रीकांत की राजलक्ष्मी, बड़ी दीदी की माधवी के रूप में उभरी | वास्तव में, शरद में कहानी गढ़कर सुनाने की जन्मजात प्रतिभा थी | शरद को कहानी लिखने की प्रेरणा अपने पिता की अलमारी में रखी हरिदास की गुप्त बातें और भवानी पाठ जैसी पुस्तकों से मिली थी | जब इस अलमारी में शरद अपने पिता की लिखी कुछ अधूरी रचनाओं को देखा, तो उन्हीं रचनाओं के माध्यम से शरद का लेखन मार्ग प्रशस्त हुआ | उसे लिखने की प्रेरणा मिली | बल्कि शरद ने अपनी रचनाओं में अपने जीवन से जुड़ी कई घटनाओं एवं पात्रों का सजीव चित्रण करने का प्रयास किया है | 

तीन वर्ष नाना के घर भागलपुर रहने के बाद शरद को फिर देवानंदपुर लौटना पड़ा | इस परिवर्तन के कारण उसे पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था | आवारगी भी बढ़ती थी | लेकिन साथ ही साथ अनुभव भी बढ़ते थे | भागलपुर में रहते हुए नाना प्रकार की शरारतों के बावजूद शरत् ने सदा एक अच्छा लड़का बनने का प्रयत्न किया था | पढ़ने में भी वह चतुर था | गांगुली परिवार के कठोर अनुशासन के विरुद्ध बार-बार उसके भीतर विद्रोह जागता था | परंतु, यह कामना भी बड़ी प्रबल थी कि मैं किसी से छोटा नहीं बनूँगा | इसलिए उसकी प्रसिद्धि भले लड़के के रूप में होती थी | इन सारी शरारतों के बीच एकान्त में बैठकर आत्मचिंतन करना उसे बराबर प्रिय रहा | वह पंद्रह वर्ष की आयु में, कहानी लेखन कला में पारंगत होकर गांव में प्रसिद्धि पा चुका था | गांव के जमींदार गोपाल दत्त, मुंशी के पुत्र अतुल चंद ने उसे कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया। अतुल चंद्र शरद को थिएटर दिखाने कोलकाता ले जाता और शरद से उसकी कहानी लिखने को कहता। शरद ऐसी कहानियाँ लिखता की अतुल चकित रह जाता था | अतुल के लिए कहानियाँ लिखते-लिखते शरद ने मौलिक कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया | शरद का कुछ समय ‘डेहरी आन सोन’ नामक स्थान पर बीता। शरद ने ‘गृहदाह’ उपन्यास में इस स्थान को अमर कर दिया। श्रीकांत उपन्यास का नायक श्रीकांत स्वयं शरद है,  काशी कहानी का नायक उनका गुरु पुत्र था, जो शरद का घनिष्ठ मित्र था। लंबी यात्रा के दौरान परिचय में आई विधवा स्त्री को लेखक ने चरित्रहीन उपन्यास में जीवंत किया है। विलासी कहानी के सभी पात्र कहीं न कहीं लेखक से जुड़े हैं। ‘शुभदा’ में हारुण बाबू के रूप में अपने पिता मोतीलाल की छवि को उकेरा है | तपोवन की घटना ने शरद को सौंदर्य का उपासक बना दिया।

इसी यातना की नींव में उसकी साहित्य-साधना का बीजारोपण हुआ | यहीं उसने संघर्ष और कल्पना से प्रथम परिचय पाया | इस गाँव के कर्ज़ से वह कभी मुक्त नहीं हो सका…|| 

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विष्णु प्रभाकर का साहित्यिक परिचय 

प्रस्तुत पाठ के लेखक विष्णु प्रभाकर जी हैं | इनका जन्म उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के एक गाँव में हुआ था | इनका बचपन हरियाणा में गुज़रा, जहाँ पर इनकी पढ़ाई भी मुकम्मल हुई और यहीं पर वे नाटक कंपनी में

विष्णु प्रभाकर

अभिनय से लेकर मंत्री तक का काम किए | इन्होंने ‘विष्णु’ और ‘प्रेमबंधु’ के नाम से लेखन की शुरुआत की थी | मौलिक लेखन के अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर जी 60 से अधिक पुस्तकों का संपादन भी कर चुके हैं | प्रभाकर जी कहानी, उपन्यास, जीवनी, रिपोर्ताज, नाटक आदि विधाओं में रचना किए हैं | 

इनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं — आवारा मसीहा (शरतचंद्र की जीवनी) ; प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक (एकांकी संग्रह) ; नव प्रभात, डॉक्टर (नाटक) ; ढलती रात, स्वप्नमयी (उपन्यास) ; जाने-अनजाने (संस्मरण) आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं | 

प्रभाकर जी की रचनाओं में स्वदेश प्रेम, राष्ट्रीय चेतना और समाज सुधार का स्वर व भाव प्रमुख रहा | इन्हें ‘आवारा मसीहा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया…|| 

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Chapter 2 हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी | class 11th | revision notes hindi antral

हुसैन की कहानी अपनी जुबानी  पाठ का सारांश 

प्रस्तुत पाठ या आत्मकथा हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी लेखक व मशहूर चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन जी के द्वारा लिखित है | यह पाठ लेखक के जीवन से संबंधित दो भागों में विभाजित है | पहला बड़ौदा का बोर्डिंग स्कूल व दूसरा रानीपुर बाज़ार है | 

बड़ौदा का बोर्डिंग स्कूल

प्रस्तुत पाठ हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी का प्रथम भाग बड़ौदा का बोर्डिंग स्कूल शीर्षक से उल्लेखित है | इस भाग में लेखक अपने विद्यार्थी जीवन से जुड़ी बात करते हैं | यहीं पर उनकी रचनात्मक प्रतिभा को हौसला मिला और उनकी प्रतिभा निखरकर सामने आई | जब लेखक के दादा चल बसे, तो लेखक दिनभर अपने दादा के कमरे में बंद रहने लगा | घर वालों से उसकी बात-चीत भी लगभग बंद रहने लगी | इसलिए उसके अब्बा ने उसे बड़ौदा के बोर्डिंग स्कूल में इस उम्मीद से दाखिला करवाया दिया कि वहाँ पर लड़कों के साथ पढ़ाई के अलावा मज़हबी तालीम, रोज़ा, नमाज़, अच्छे आचरण के चालीस सबक, पाकीज़गी के बारह तरीके सीख जाएगा | 

मकबूल फिदा हुसैन

जब लेखक को बोर्डिंग स्कूल कैम्पस के हवाले कर दिया जाता है तथा वह बोर्डिंग स्कूल का हिस्सा बन जाता है, तो वहाँ पर उसकी दोस्ती छह लड़कों से होती है, जो एक-दूसरे के करीब हो जाते हैं | बाद में लेखक और उनके दोस्त अलग-अलग दिशाओं में बंट गए | लेखक के पाँच दोस्तों में से एक ‘मोहम्मद इब्राहीम गौहर अली’ डभोई का अत्तर व्यापारी बन गया | दूसरा ‘अरशद’ सियाजी रेडियो की आवाज़ बन गया, जो गाने और खाने का बहुत शौकीन है | तीसरा ‘हामिद कंबर हुसैन’ कुश्ती और दंड-बैठक का शौकीन, खुश-मिजाज, गप्पी और बात में बात मिलाने में उस्ताद | चौथा ‘अब्बास जी अहमद’ | पाँचवाँ ‘अब्बास अली फ़िदा’ | 

स्कूल में मकबूल ने ड्राइंग मास्टर द्वारा ब्लैक बोर्ड पर बनाई चिड़िया या पक्षी को अपने स्लेट पर हू-ब-हू बनाकर तथा दो अक्टूबर को ‘गांधी जयंती’ के मौके पर गांधी जी का पोर्ट्रेट ब्लैक बोर्ड पर बनाकर अपनी जन्मजात व बेहतरीन कला का परिचय दिया और सबका दिल जीत लिया | 

रानीपुर बाज़ार

प्रस्तुत पाठ हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी का दूसरा भाग रानीपुर बाज़ार शीर्षक से उल्लेखित है | इस भाग में लेखक से अपने पारिवारिक या पुश्तैनी व्यवसाय को स्वीकार करने की अपेक्षा की जाती है | किंतु यहाँ भी हुसैन साहब के अंदर का कलाकार उनसे चित्रकारी कराता ही रहता है | 

जब रानीपुर बाजार में चाचा मुराद अली की दुकान पर लेखक को बैठाया जाता है और उससे व्यवसाय के तकनीक सीखने की अपेक्षा की जाती है, तब वह वहाँ भी बैठकर कहीं न कहीं ड्राइंग और पेंटिंग के बारे में सोचता व बनाता रहता है | हुसैन साहब दुकान पर बैठे-बैठे आने-जाने वालों की तस्वीर व चित्र चित्र बनाता रहता | कभी गेहूं की बोरी उठाए मजदूर की पेंचवाली पगड़ी का स्केच बनाता, कभी घुंघट ताने मेहतरानी का, कभी बुर्का पहने औरत और बकरी के बच्चे का स्केच आदि बनाता रहता | 

एक बार की बात है, कोल्हापुर के शांताराम की फ़िल्म ‘सिंघगढ़’ का पोस्टर, रंगीन पतंग के कागज पर छपा, मराठा योद्धा, हाथ में खिंची तलवार और ढाल देखकर हुसैन साहब को भी ऑयल पेंटिंग बनाने का ख़्याल आया | इस पेंटिंग को बनाने के लिए उनके अंदर इतना जुनून समा गया कि उन्होंने अपनी किताबें बेंचकर ऑयल पेंटिंग कलर खरीदा तथा चाचा की दुकान पर बैठकर अपनी पहली पेंटिंग बनाई | चाचा बहुत नाराज हुए | हुसैन के अब्बा से भी शिकायत किए | लेकिन जब अब्बा ने हुसैन की पेंटिंग देखी तो हुसैन का चित्रकारी के प्रति समर्पण को देखकर उसे गले लगा लिया | 

एक दफा की घटना है, जब हुसैन साहब इंदौर सर्राफ़ा बाज़ार के करीब तांबे-पीतल की दुकानों की गली में ‘लैंडस्केप’ बना रहे थे, वहीं पर उनसे ‘बेंद्रे साहब’ भी ऑनस्पॉट पेंटिंग करते दिखे | हुसैन साहब को बेंद्रे साहब की टेकनिक बहुत पसंद आई | इस इत्तेफाकी मुलाक़ात के बाद हुसैन साहब अकसर बेंद्रे के साथ ‘लैंडस्केप’ पेंट करने जाया करते | 

एक रोज मकबूल यानी हुसैन साहब ने बेंद्रे साहब को अपने पिता से मिलवाया | बेंद्रे साहब ने हुसैन साहब के अब्बा से हुसैन के काम के बारे में बात की | परिणामस्वरूप, मकबूल के पिता ने मुंबई से ‘विनसर न्यूटन’ ऑयल ट्यूब और कैनवस मंगवाए | 

हुसैन के अब्बा की रोशनखयाली न जाने कैसे पचास साल की दूरी नज़रअंदाज़ कर गई और बेंद्रे के मशवरे पर उसने अपने बेटे की तमाम रिवायती बंदिशों को तोड़ फेंका और कहा — “बेटा जाओ, और ज़िंदगी को रंगों से भर दो…||” 

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Chapter 1 अंडे के छिलके | class 11th | revision notes hindi antral

Class 11 Hindi Antral Chapter 1 Ande ke chhilke अंडे के छिलके

अंडे के छिलके पाठ का सार सारांश 

प्रस्तुत पाठ अंडे के छिलके लेखक मोहन राकेश जी के द्वारा रचित एक एकांकी नाटक है | इस एकांकी नाटक में विभिन्न उद्देश्य निहित हैं | इसका मुख्य उद्देश्य परंपरावादी और आधुनिकतावादी दृष्टिकोण के मध्य जो द्वंद्व है, उसको उभारना है तथा वर्तमान या आधुनिक समाज के दिखावे की संस्कृति और समाज की विभिन्न विकृतियों को उजागर करना है | साथ ही साथ यह एकांकी नाटक एक परिवार को एकता और आत्मीयता के सूत्र में बंधकर एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करने का सबक देता है | विद्यार्थियों को आडम्बरयुक्त जीवन से परे हटकर यथार्थ में जीने पर बल देता है |साथ में धूम्रपान जैसी बुराइयों के प्रति जागरूक करता है | 

इस एकांकी नाटक के माध्यम से लेखक मोहन राकेश जी ने एक संयुक्त परिवार की विभिन्न रुचियों या पहलुओं को बड़ी सूक्ष्म तरीके से उभारने का प्रयास किया है | प्रस्तुत एकांकी के अनुसार, परिवार में श्याम, वीना, राधा, गोपाल, जमुना (अम्मा जी) और माधव छः अलग-अलग रुचियों के पात्र नज़र आते हैं | हर एक पात्र एक-दूसरे से छिपकर या बचकर अपने-अपने शौक पूरे करते नज़र आते हैं, लेकिन साथ में एक-दूसरे की भावनाओं को भी समझते हैं | 

Class 11 Hindi Antral Chapter 1 Ande ke chhilke अंडे के छिलके

एकांकी के आरंभ में जब पर्दा धीरे-धीरे उठता है, तो गैलरी वाला दरवाज़ा खुला दिखाई देता है | श्याम सीटी बजाते हुए प्रवेश करता है, बाहर बारिश हो रही होती है | उसकी बरसाती से पानी की बूँदे टपक रहा होता है | श्याम और वीना आपस में बातें करते हैं | वीना और श्याम एक-दूसरे के भाभी-देवर हैं | श्याम, वीना के कमरे में आते हुए कहता है कि भाई का कमरा अब पराया सा लगता है | पहले इस कमरे में जूते को छोड़कर सभी चीजें चारपाई पर होती थीं | आज कमरे का नक्शा ही बदल-बदला सा हो गया है | तत्पश्चात्, वीना, श्याम को चाय पीने को कहती है | तभी श्याम मौसम का सुहावने मिजाज़ को देखकर चाय के साथ कुछ खाने के लिए भी ले आने को कहता है | इसी बात पर वीना श्याम को संबोधित करते हुए चार-छ: अंडे लाने को कहती है | जैसे ही श्याम अंडे का नाम सुनता है तो नाटकीय अंदाज़ में नाक-भौं सिकोड़ने लगता है | इसी बात पर वीना कहती है कि यहाँ तो रोज अंडे का नाश्ता बनता है | वैसे देखा जाए तो श्याम भी सबसे छुपकर कच्चा अंडा खाता है | इसलिए वीना उसे संबोधित करते हुए कहती है कि अगर कुछ खाना ही है तो इसमें छिपाने की बात कैसी ? इसके पश्चात्, श्याम जैसे ही बाहर जाता है, वीना काम करते हुए पानी लेने के लिए राधा के कमरे में जाती है | तभी वीना को राधा के बिस्तर पर ‘चंद्रकांता’ नामक किताब मिल जाती है | वीना के पूछने पर राधा उससे कहती है कि ऐसी किताब हम अम्मा जी के सामने नहीं पढ़ सकते | 

तत्पश्चात्, वीना चाय बनाना आरम्भ करती है | उसी समय एकांकी नाटक में गोपाल का प्रवेश होता है | वह वीना को चाय बनाते देख प्रसन्न हो जाता है | परन्तु, वीना उससे कहती है कि यह चाय श्याम के लिए है | तभी गोपाल अपनी भाभी राधा की तारीफ़ करने लगता है | वहाँ पर गोपाल सिगरेट पीना चाहता है, लेकिन संकोचवश वह सामने खड़ी वीना को सफाई देते हुए कहता है कि वह भाभी के सामने पी लेता है | यह बात भाभी के सिवा किसी को मालूम नहीं | इतने में श्याम वहाँ अंडे लेकर आ जाता है और उन सबकी पोल खुल जाती है | तत्पश्चात्, वीना अंडे का हलवा बनाती है | इतने में सबको ‘जमुना देवी’ (अम्मा जी) की आवाज़ सुनाई पड़ती है | वहाँ मौजूद सभी सकपका जाते हैं | जल्दबाज़ी में सारी चीजें ढक देते हैं | बंद दरवाजे को ढकेलते हुए, जमुना अंदर आकर सबसे पूछती है कि तुमलोग अंदर से दरवाजा क्यों बंद करके रखे हो ? सब के सब अम्मा जी को देखकर हैरान रह जाते हैं | बातों ही बातों में उनको फुसलाने की कोशिश करते हैं | जमुना (अम्मा जी) वहाँ आकर यह शिकायत करती है कि — 

“आज दो घंटे से मेरे कमरे की छत चू रही है | मैंने कितनी बार कहा था कि लिपाई करा दो, नहीं तो बरसात में तकलीफ़ होगी | मगर मेरी बात तो तुम सब लोग सुनी-अनसुनी कर देते हो | कुछ भी कहूँ, बस हाँ माँ, कल करा देंगे माँ, कहकर टाल देते हो | अब देखो चलकर, कैसे हर चीज़ भीग रही है ! … क्या बात है, सब लोग गुमसुम क्यूँ हो गए हो ? वीना, तू इस वक़्त यह चम्मच लिए क्यूँ खड़ी हो ? और गोपाल तू वहाँ क्या कर रहा है कोने में…?” 

तभी गोपाल बात बनाते हुए जवाब देता है कि वीना का हाथ जल गया है, मैं उसके लिए मरहम ढूंढ रहा हूँ | इतने अम्मा जी फौरन पूछती है कि स्टॉव के ऊपर क्या रखा है ? वह उसे देखने की इच्छा जाहिर करती है | गोपाल अम्मा जी को हाथ लगाने से मना करता है | वह उसमें से करंट मारने का डर दिखाता है | वहाँ पर राधा भी बहाना बनाती है कि श्याम के घुटने में गेंद लग गई है, इसलिए पुल्टिस बांधने के लिए इसे गर्म किया है | तभी जमुना (अम्मा जी) खुद पुल्टिस बांधने की बात कहती है | इतने में गोपाल किसी प्रकार से बहाना बनाकर उन्हें मना कर देता है और उनको उनके कमरे तक छोड़ने चला जाता है | अम्मा जी के वहाँ पर से जाते ही सभी अंडे का हलवा खाने लगते हैं तथा छिलकों को छिपाने का उपाय सोचने लगते हैं | तभी बड़ा भाई माधव वहाँ पर आता है | माधव को आते ही उसे सब कुछ पता चल जाता है | जब गोपाल उससे प्रार्थना करता है कि वो अम्मा को कुछ भी न बताए, तो माधव कहता है कि अम्मा को सब कुछ पता है | अब तुम लोगों को अंडे के छिलके कहीं छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं | 

अत: हम कह सकते हैं कि श्याम, वीना, राधा और गोपाल अम्मा जी से छिपकर अंडे का सेवन करते हैं | गोपाल सिगरेट भी पीता है | यहाँ तक की अम्मा जी उन लोगों के बारे में सब कुछ जानती है, फिर भी जानबूझकर अनदेखा करती है | बेशक, सभी विभिन्न रुचियों के होते हुए भी एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हैं | सभी पात्रों की परस्पर घनिष्ठता तथा आत्मीयता पूरे एकांकी में झलकती है…|| 

मोहन राकेश का जीवन परिचय

प्रस्तुत एकांकी नाटक के रचनाकार मोहन राकेश जी हैं | इनके जीवन का कार्यकाल 8 जनवरी 1925 से 3 जनवरी 1972 तक रहा | मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले मोहन राकेश जी का जीवन बेहद उतार-चढ़ाव और बदलाव से भरा रहा | 

इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम.ए. किया तथा आगे जीविकोपार्जन के लिए अध्यापन का कार्य करते रहे | इन्होंने कुछ वर्षो तक ‘सारिका’ के संपादक की भूमिका का भी निर्वाह किया | लेखक मोहन राकेश जी हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति, नाट्य लेखक और उपन्यासकार भी रहे हैं | इनकी डायरी हिंदी में डायरी लेखन विधा की सबसे खूबसूरत कृतियों में से एक मानी जाती है | 

लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ इत्यादि के रचनाकार मोहन राकेश जी हैं | इन्हें ‘संगीत नाटक अकादमी’ के द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है…|| 

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Chapter 3 आलो आँधारि | class 11th | revision notes hindi vitan

आलो आँधारि Notes Class 11 Hindi Chapter 3 हिन्दी

पाठ का साराशी

आलो-आँधारि-लेखिका की आत्मकथा है-यह उन करोड़ों झुग्गियों की कहानी है जिसमें झाँकना भी भद्रता के तकाजे से बाहर है। यह साहित्य के उन पहरुओं के लिए चुनौती है जो साहित्य को साँचे में देखने के आदी हैं, जो समाज के कोने-अँतरे में पनपते साहित्य को हाशिए पर रखते हैं और भाषा एवं साहित्य को भी एक खास वर्ग की जागीर मानते हैं। यह एक ऐसी आपबीती है जो मूलत: बांग्ला में लिखी गई, लेकिन पहली ऐसी रचना जो छपकर बाज़ार में आने से पहले ही अनूदित रूप में हिंदी में आई। अनुवादक प्रबोध कुमार ने एक जबान को दूसरी जबान दी. पर रूह को छुआ नहीं। एक बोली की भावना दूसरी बोली में बोली, रोई, मुसकराई।

लेखिका अपने पति से अलग किराए के मकान में अपने तीन छोटे बच्चों के साथ रहती थी। उसे हर समय काम की तलाश रहती थी। वह सभी को अपने (लेखिका) लिए काम ढूँढ़ने के लिए कहती थी। शाम को जब वह घर वापिस आती तो पड़ोस की औरतें काम के बारे में पूछतीं। काम न मिलने पर वे उसे सांत्वना देती थीं। लेखिका की पहचान सुनील नामक युवक से थी। एक दिन उसने किसी मकान मालिक से लेखिका को मिलवाया। मकान मालिक ने आठ सौ रुपये महीने पर उसे रख लिया और घर की सफाई व खाना बनाने का काम दिया। उसने पहले काम कर रही महिला को हटा दिया। उस महिला ने लेखिका से भला-बुरा कहा। लेखिका उस घर में रोज सवेरे आती तथा दोपहर तक सारा काम खत्म करके चली जाती। घर जाकर बच्चों को नहलाती व खिलाती। उसे बच्चों के भविष्य की चिंता थी।

जिस मकान में वह रहती थी, उसका किराया अधिक था। उसने कम सुविधाओं वाला नया मकान ले लिया। यहाँ के लोग उसके अकेले रहने पर तरह-तरह की बातें बनाते थे। घर का खर्च चलाने के लिए वह और काम चाहती थी। वह मकान मालिक से काम की नयी जगह ढूँढ़ने को कहती है। उसे बच्चों की पढ़ाई, घर के किराए व लोगों की बातों की भी चिंता थी। मालिक सज्जन थे। एक दिन उन्होंने लेखिका से पूछा कि वह घर जाकर क्या-क्या करती है। लेखिका की बात सुनकर उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने स्वयं को ‘तातुश’ कहकर पुकारने को कहा। वे उसे बेबी कहते थे तथा अपनी बेटी की तरह मानते थे। उनका सारा परिवार लेखिका का ख्याल रखता था। वह पुस्तकों की अलमारियों की सफाई करते समय पुस्तकों को उत्सुकता से देखने लगती। यह देखकर तातुश ने उसे एक किताब पढ़ने के लिए दी।

तातुश ने उससे लेखकों के बारे में पूछा तो उसने कई बांग्ला लेखकों के नाम बता दिए। एक दिन तातुश ने उसे कॉपी व पेन दिया और कहा कि समय निकालकर वह कुछ जरूर लिखे। काम की अधिकता के कारण लिखना बहुत मुश्किल था, परंतु तातुश के प्रोत्साहन से वह रोज कुछ पृष्ठ लिखने लगी। यह शौक आदत में बदल गया। उसका अकेले रहना समाज में कुछ लोगों को सहन नहीं हो रहा था। वे उसके साथ छेड़खानी करते थे और बेमतलब परेशान करते थे। बाथरूम न होने से भी विशेष दिक्कत थी। मकान मालिक के लड़के के दुव्र्यवहार की वजह से वह नया घर तलाशने की सोचने लगी।

एक दिन लेखिका काम से घर लौटी तो देखा कि मकान टूटा हुआ है तथा उसका सारा सामान खुले में बाहर पड़ा हुआ है। वह रोने लगी। इतनी जल्दी मकान ढूँढ़ने की भी दिक्कत थी। दूसरे घरों के लोग अपना सामान इकट्ठा करके नए घर की तलाश में चले गए। वह सारी रात बच्चों के साथ खुले आसमान के नीचे बैठी रही। उसे दुख था कि दो भाई नजदीक रहने के बावजूद उसकी सहायता नहीं करते। तातुश को बेबी का घर टूटने का पता चला तो उन्होंने अपने घर में कमरा दे दिया। इस प्रकार वह तातुश के घर में रहने लगी। उसके बच्चों को ठीक खाना मिलने लगा। तातुश उसका बहुत ख्याल रखते।

बच्चों के बीमार होने पर वे उनकी दवा का प्रबंध करते। उनके सद्व्यवहार को देखकर बेबी हैरान थी। उसका बड़ा लड़का किसी के घर में काम करता था। वह उदास रहती थी। तातुश ने उसके लड़के को खोजा तथा उसे बेबी से मिलवाया। उस लड़के को दूसरी जगह काम दिलवाया। लेखिका सोचती कि तातुश पिछले जन्म में उसके बाबा रहे होंगे। तातुश उसे लिखने के लिए निरंतर प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने अपने कई मित्रों के पास बेबी के लेखन के कुछ अंश भेज दिए थे। उन्हें यह लेखन पसंद आया और वे भी लेखिका का उत्साह बढ़ाते रहे। तातुश के छोटे लड़के अर्जुन के दो मित्र वहाँ आकर रहने लगे, परंतु उनके अच्छे व्यवहार से लेखिका बढ़े काम को खुशी-खुशी करने लगी। तातुश ने सोचा कि सारा दिन काम करने के बाद बेबी थक जाती होगी। उसने उसे रोजाना शाम के समय पार्क में बच्चों को घुमा लाने के लिए कहा। इससे बच्चों का दिल बहल जाएगा। अब वह पार्क में जाने लगी।

पार्क में नए-नए लोगों से मुलाकात होती। उसकी पहचान बंगाली लड़की से हुई जो जल्दी ही वापिस चली गई। लोगों के दुव्र्यवहार के कारण उसने पार्क में जाना छोड़ दिया। लेखिका को किताब, अखबार पढ़ने व लेखन-कार्य में आनंद आने लगा। तातुश के जोर देने पर वह अपने जीवन की घटनाएँ लिखने लगी। तातुश के दोस्त उसका उत्साह बढ़ाते रहे। एक मित्र ने उसे आशापूर्णा देवी का उदाहरण दिया। इससे लेखिका का हौसला बढ़ा और उसने उन्हें जेलू कहकर संबोधित किया। एक दिन लेखिका के पिता उससे मिलने पहुँचे। उसने उसकी माँ के निधन के बारे में बताया। लेखिका के भाइयों को पता था, परंतु उन्होंने उसे बताया नहीं। लेखिका काफी देर तक माँ की याद करके रोती रही। बाबा ने बच्चों से माँ का ख्याल रखने के लिए समझाया। लेखिका पत्रों के माध्यम से कोलकाता और दिल्ली के मित्रों से संपर्क रखने लगी। उसे हैरानी थी कि लोग उसके लेखन को पसंद करते हैं।

शर्मिला उससे तरह-तरह की बातें करती थी। लेखिका सोचती कि अगर तातुश उससे न मिलते तो यह जीवन कहाँ मिलता। लेखिका का जीवन तातुश के घर में आकर बदल गया। उसका बड़ा लड़का काम पर लगा था। दोनों छोटे बच्चे स्कूल में पढ़ रहे थे। वह स्वयं लेखिका बन गई थी। पहले वह सोचती थी कि अपनों से बिछुड़कर कैसे जी पाएगी, परंतु अब उसने जीना सीख लिया था। वह तातुश से शब्दों के अर्थ पूछने लगी थी। तातुश के जीवन में भी खुशी आ गई थी। अंत में वह दिन भी आ गया जब लेखिका की लेखन-कला को पत्रिका में जगह मिली। पत्रिका में उसकी रचना का शीर्षक था- ‘आलो-आँधारि” बेबी हालदार। लेखिका अत्यंत प्रसन्न थी। तातुश के प्रति उसका मन कृतज्ञता से भर आया। उसने तातुश के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया।

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Chapter 2 राजस्थान की रजत बूँदें | class 11th | revision notes hindi vitan

हिन्दी Notes Class 11 Hindi Chapter 2 राजस्थान की रजत बूंदें

पाठ का सारांश

यह रचना राजस्थान की जल-समस्या का समाधान मात्र नहीं है, बल्कि यह जमीन की अतल गहराइयों में जीवन की पहचान है। यह रचना धीरे-धीरे भाषा की ऐसी दुनिया में ले जाती है जो कविता नहीं है, कहानी नहीं है, पर पानी की हर आहट की कलात्मक अभिव्यक्ति है। लेखक राजस्थान की रेतीली भूमि में पानी के स्रोत कुंई का वर्णन करता है। वह बताता है कि कुंई खोदने के लिए चेलवांजी काम कर रहा है। वह बसौली से खुदाई कर रहा है। अंदर भयंकर गर्मी है।

गर्मी कम करने के लिए बाहर खड़े लोग बीच-बीच में मुट्ठी भर रेत बहुत जोर से नीचे फेंकते हैं। इससे ताजी हवा अंदर आती है और गहराई में जमा दमघोंटू गर्म हवा बाहर निकलती है। चेलवांजी सिर पर काँसे, पीतल या अन्य किसी धातु का बर्तन टोप की तरह पहनते हैं, ताकि चोट न लगे। थोड़ी खुदाई होने पर इकट्ठा हुआ मलवा बाल्टी के जरिए बाहर निकाला जाता है। चेलवांजी कुएँ की खुदाई व चिनाई करने वाले प्रशिक्षित लोग होते हैं। कुंई कुएँ से छोटी होती है, परंतु गहराई कम नहीं होती। कुंई में न सतह पर बहने वाला पानी आता है और न भूजल।

मरुभूमि में रेत अत्यधिक है। यहाँ वर्षा का पनी शीघ्र भूमि में समा जाता है। रेत की सतह से दस पंद्रह हाथ से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की पट्टी चलती है। इस पट्टी से मिट्टी के परिवर्तन का पता चलता है। कुओं का पानी प्रायः खारा होता है। पीने के पानी के लिए कुंइयाँ बनाई जाती हैं। पट्टी का तभी पता चलता है जहाँ बरसात का पानी एकदम नहीं समाता। यह पट्टी वर्षा के पानी व गहरे खारे भूजल को मिलने से रोकती है। अत: बरसात का पानी रेत में नमी की तरह फैल जाता है। रेत के कण अलग होते हैं, वे चिपकते नहीं। पानी गिरने पर कण भारी हो जाते हैं, परंतु अपनी जगह नहीं छोड़ते। इस कारण मरुभूमि में धरती पर दरारें नहीं पड़तीं वर्षा का भीतर समाया जल अंदर ही रहता है। यह नमी बूंद-बूंद करके कुंई में जमा हो जाती है।

राजस्थान में पानी को तीन रूपों में बाँटा है- पालरपानी यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी है। यह धरातल पर बहता है। दूसरा रूप पातालपानी है जो कुंओं में से निकाला जाता है तीसरा रूप है-रेजाणीपानी। यह धरातल से नीचे उतरा, परंतु पाताल में न मिलने वाला पानी रेजाणी है। वर्षा की मात्रा ‘रेजा’ शब्द से मापी जाती है जो धरातल में समाई वर्षा को नापता है। यह रेजाणीपानी खड़िया पट्टी के कारण पाताली पानी से अलग रहता है अन्यथा यह खारा हो जाता है। इस विशिष्ट रेजाणी पानी को समेटती है कुंई। यह चार-पाँच हाथ के व्यास तथा तीस से साठ-पैंसठ हाथ की गहराई की होती है। कुंई का प्राण है-चिनाई। इसमें हुई चूक चेजारो के प्राण ले सकती है।

हर दिन की खुदाई से निकले मलबे को बाहर निकालकर हुए काम की चिनाई कर दी जाती है। कुंई की चिनाई ईट या रस्से से की जाती है। कुंई खोदने के साथ-साथ खींप नामक घास से मोटा रस्सा तैयार किया जाता है, फिर इसे हर रोज कुंई के तल पर दीवार के साथ सटाकर गोला बिछाया जाता है। इस तरह हर घेरे में कुंई बँधती जाती है। लगभग पाँच हाथ के व्यास की कुंई में रस्से की एक कुंडली का सिर्फ एक घेरा बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लंबा रस्सा चाहिए। इस तरह करीब चार हजार हाथ लंबे रस्से की जरूरत पड़ती है।

पत्थर या खींप न मिलने पर चिनाई का कार्य लकड़ी के लंबे लट्ठों से किया जाता है। ये लट्ठे, अरणी, बण, बावल या कुंबट के पेड़ों की मोटी टहनियों से बनाए जाते हैं। ये नीचे से ऊपर की ओर एक-दूसरे में फँसाकर सीधे खड़े किए जते हैं तथा फिर इन्हें खींप की रस्सी से बाँधा जाता है। खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही काम समाप्त हो जाता है और कुंई की सफलता उत्सव का अवसर बनती है। पहले काम पूरा होने पर विशेष भोज भी होता था। चेजारो की तरह-तरह की भेंट, वर्ष-भर के तीज-त्योहारों पर भेंट, फसल में हिस्सा आदि दिया जाता था, परंतु अब सिर्फ मजदूरी दी जाती है।

जैसलमेर में पालीवाल ब्राह्मण व मेघवाल गृहस्थी स्वयं कुंइयाँ खोदते थे। कुंई का मुँह छोटा रखा जाता है। इसके तीन कारण हैं। पहला रेत में जमा पानी से बूंदें धीरे-धीरे रिसती हैं। मुँह बड़ा होने पर कम पानी अधिक फैल जाता है, अत: उसे निकाला नहीं जा सकता। छोटे व्यास की कुंई में पानी दो-चार हाथ की ऊँचाई ले लेता है। पानी निकालने के लिए छोटी चड़स का उपयोग किया जाता है। दूसरे, छोटे मुँह को ढकना सरल है। तीसरे, बड़े मुँह से पानी के भाप बनकर उड़ने की संभावना अधिक होती है। कुंइयों के ढक्कनों पर ताले भी लगने लगे हैं। यदि कुंई गहरी हो तो पानी खींचने की सुविधा के लिए उसके ऊपर घिरनी या चकरी भी लगाई जाती है। यह गरेड़ी, चरखी या फरेड़ी भी कहलाती है।

खड़िया पत्थर की पट्टी एक बड़े क्षेत्र में से गुजरती है। इस कारण कुंई लगभग हर घर में मिल जाती है। सबकी निजी संपत्ति होते हुए भी यह सार्वजनिक संपत्ति मानी जाती है। इन पर ग्राम पंचायतों का नियंत्रण रहता है। किसी नई कुंई के लिए स्वीकृति कम ही दी जाती है, क्योंकि इससे भूमि के नीचे की नमी का अधिक विभाजन होता है। राजस्थान में हर जगह रेत के नीचे खड़िया पत्थर नहीं है। यह पट्टी चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर आदि क्षेत्रों में है। यही कारण है कि इस क्षेत्र के गाँवों में लगभग हर घर में एक कुंई है।

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Chapter 1 भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ – लता मंगेशकर | class 11th | revision notes hindi vitan

पाठ 1 – भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ -लता मंगेशकर (Bhartiy gayikaon me Bejod – Lata Mangeshkar) वितान भाग – 1 NCERT Class 11th Hindi Notes

सारांश

प्रस्तुत पाठ में लेखक कुमार गंधर्व ने सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के अद्भुत गायकी पर प्रकाश डाला है| उन्होंने लता मंगेशकर के गायन के विशेषताओं को उजागर किया है| उनके अनुसार चित्रपट संगीत में लता जैसी अन्य गायिका नहीं हुई| उनसे पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना जमाना था| लेकिन लता मंगेशकर उनसे भी आगे निकल गई| उन्होंने चित्रपट संगीत अत्यधिक लोकप्रिय बनाया| चित्रपट संगीत के कारण लोगों को स्वर के सुरीलेपन की समझ हो रही है| लता मंगेशकर का सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में बहुत बड़ा योगदान है|

एक सामान्य श्रोता शास्त्रीय गान और लता के गान में से लता का गान ही पसंद करते हैं| इसका कारण है लता के गानों में गानपन का होना| गानपन का आशय है गाने की वह मिठास, जिसे सुनकर श्रोता मस्त हो जाए| लेखक के अनुसार उनके स्वर में निर्मलता उनके गानों की विशेषता है| जहाँ प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ के गाने में एक मादक उत्तान दीखता था, वहीँ लता मंगेशकर के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है| उनके गानों की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार| उनके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है| लेखक के अनुसार लता मंगेशकर ने करूण रस के गाने इतनी अच्छी तरह नहीं गाए हैं| उन्होंने मुग्ध श्रृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय के गाने बड़ी उत्कटता से गाए हैं| लता का ऊँचे स्वर में गाना भी लेखक को उनके गायन की कमी लगती है| इसका दोष वह संगीत दिग्दर्शक को देते हैं जिन्होंने उनसे ऊँची पट्टी के गाने गवाए हैं|

चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और यह लता मंगेशकर के पास निःसंशय है| शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत की तुलना नहीं की जा सकती है| शास्त्रीय संगीत की विशेषता उसकी गंभीरता है तथा चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है| चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है| चित्रपट संगीत की विशेषता उसकी सुलभता और लोचता है| लता मंगेशकर का एक-एक गाना संपूर्ण कलाकृति होता है| उनके गानों में स्वर, लय और शब्दार्थ का त्रिवेणी संगम होता है| चाहे वह चित्रपट संगीत हो या शास्त्रीय संगीत, अंत में उसी का अधिक महत्त्व है जिसमें रसिक को आनंद देने का सामर्थ्य अधिक है| गाने की सारी ताकत उसकी रंजकता पर मुख्यतः अवलंबित रहती है|

संगीत के क्षेत्र में लता मंगेशकर का स्थान अव्वल दर्जे के खानदानी गायक के समान है| खानदानी गवैयों का दावा है कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान बिगाड़ दिए हैं| लेकिन लेखक का मानना है कि चित्रपट संगीत के कारण लोगों को संगीत की अधिक समझ हो गई है| लेखक के अनुसार शास्त्रीय गायकों ने संगीत के क्षेत्र में अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है| उन्होंने शास्त्र-शुद्धता के कर्मकांड को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दे रखा है| आज लोगों को शास्त्र-शुद्ध और नीरस गाना नहीं, बल्कि सुरीला और भावपूर्ण गाना चाहिए| चित्रपट संगीत के कारण यह संभव हो पाया है| इसमें नवनिर्मिति की बहुत गुंजाइश है| बड़े-बड़े संगीतकार लोकगीत, पहाड़ी गीत तथा खेती के विविध कामों का हिसाब लेने वाले कृषिगीतों का भी अच्छा प्रयोग कर रहे हैं| इस प्रकार चित्रपट संगीत दिनोंदिन अधिकाधिक विकसित होता जा रहा है और इस संगीत की अनभिषिक्त साम्राज्ञी लता मंगेशकर हैं|

कठिन शब्दों के अर्थ-

• मालिकाएँ – स्वरों के क्रमबद्ध समूह
• ध्वनिमुद्रिका – स्वरलिपि
• शास्त्रीय गायकी – जिसमें गायन को निर्धारित नियमों के अंदर गाया-बजाया जाता है|
• मालकोस – भैरवी थाट का राग
• त्रिताल – यह सोलह मात्राओं का ताल है|
• द्रुतलय – तेज लय
• ऊँची पट्टी – ऊँचे स्वरों का प्रयोग
• जलदलय – द्रुतलय
• लोच – स्वरों का बारीक मनोरंजन प्रयोग

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Chapter 20 आओ, मिलकर बचाएँ : निर्मला पुतुल | class 11th | revision notes hindi Aroh

हिन्दी Notes Class 11 Chapter 20 Hindi आओ, मिलकर बचाएँ

कविता का सारांश

इस कविता में दोनों पक्षों का यथार्थ चित्रण हुआ है। बृहतर संदर्भ में यह कविता समाज में उन चीजों को बचाने की बात करती है जिनका होना स्वस्थ सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश के लिए जरूरी है। प्रकृति के विनाश और विस्थापन के कारण आज आदिवासी समाज संकट में है, जो कविता का मूल स्वरूप है। कवयित्री को लगता है कि हम अपनी पारंपरिक भाषा, भावुकता, भोलेपन, ग्रामीण संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। प्राकृतिक नदियाँ, पहाड़, मैदान, मिट्टी, फसल, हवाएँ-ये सब आधुनिकता के शिकार हो रहे हैं। आज के परिवेश, में विकार बढ़ रहे हैं, जिन्हें हमें मिटाना है। हमें प्राचीन संस्कारों और प्राकृतिक उपादानों को बचाना है। कवयित्री कहती है कि निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अभी भी बचाने के लिए बहुत कुछ शेष है।

व्याख्या एवं अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. अपनी बस्तियों की
नगी होने से
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे
अपने चहरे पर
सथिल परगान की माटी का रंग

बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हड़िया में
भाषा में झारखडीपन

शब्दार्थ

नंगी होना-मर्यादाहीन होना। आबो-हवा-वातावरण। हड़िया-हड्डयों का भंडार। माटी-मिट्टी। झारखंडीपन-झारखंड का पुट।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री लोगों को आहवान करती है कि हम सब मिलकर अपनी बस्तियों को शहरी जिंदगी के प्रभाव से अमर्यादित होने से बचाएँ। शहरी सभ्यता ने हमारी बस्तियों का पर्यावरणीय व मानवीय शोषण किया है। हमें अपनी बस्ती को शोषण से बचाना है नहीं तो पूरी बस्ती हड्डयों के ढेर में दब जाएगी। कवयित्री कहती है कि हमें अपनी संस्कृति को बचाना है। हमारे चेहरे पर संथाल परगने की मिट्टी का रंग झलकना चाहिए। भाषा में बनावटीपन न होकर झारखंड का प्रभाव होना चाहिए।

विशेष-
1. कवयित्री में परिवेश को बचाने की तड़प मिलती है।
2. ‘शहरी आबो-हवा’ अपसंस्कृति का प्रतीक है।
3. ‘नंगी होना’ के अनेक अर्थ हैं।
4. प्रतीकात्मकता है।
5. भाषा प्रवाहमयी है।
5. उर्दू मिश्रित खड़ी बोली है।
6. काव्यांश मुक्त छद तथा तुकांतरहित है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवयित्री वक्या बचाने का आहवान करती है?
2. संथाल परगना की क्या समस्या है?
3. झारखंडीपन से क्या आशय है?
4. काव्यांश में निहित संदेश स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –
1. कवयित्री आदिवासी संथाल बस्ती को शहरी अपसंस्कृति से बचाने का आहवान करती है।
2. संथाल परगना की समस्या है कि यहाँ कि भौतिक संपदा का बेदर्दी से शोषण किया गया है, बदले में यहाँ लोगों को कुछ नहीं मिलता। बाहरी जीवन के प्रभाव से संथाल की अपनी संस्कृति नष्ट होती जा रही है।
3. इसका अर्थ है कि झारखंड के जीवन के भोलेपन, सरलता, सरसता, अक्खड़पन, जुझारूपन, गर्मजोशी के गुणों को बचाना।
4. काव्यांश में निहित संदेश यह है कि हम अपनी प्राकृतिक धरोहर नदी, पर्वत, पेड़, पौधे, मैदान, हवाएँ आदि को प्रदूषित होने से बचाएँ। हमें इन्हें समृद्ध करने का प्रयास करना चाहिए।

2. ठडी होती दिनचय में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन

भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

शब्दार्थ
ठंडी होती-धीमी पड़ती। दिनचर्या-दैनिक कार्य। गर्माहट-नया उत्साह। मन का हरापन-मन की खुशियाँ। अक्खड़पन-रुखाई, कठोर होना। जुझारूपन-संघर्ष करने की प्रवृत्ति।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि शहरी संस्कृति से इस क्षेत्र के लोगों की दिनचर्या धीमी पड़ती जा रही है। उनके जीवन का उत्साह समाप्त हो रहा है। उनके मन में जो खुशियाँ थीं, वे समाप्त हो रही हैं। कवयित्री चाहती है कि उन्हें प्रयास करना चाहिए ताकि लोगों के मन उत्साह, दिल का भोलापन, अक्खड़पन व संघर्ष करने की क्षमता वापिस लौट आए।

विशेष
1. कवयित्री का संस्कृति प्रेम मुखर हुआ है।
2. प्रतीकात्मकता है।
3. भाषा प्रवाहमयी है।
4. काव्यांश मुक्त छंद तथा तुकांतरहित है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. आम व्यक्ति की दिनचर्या पर क्या प्रभाव पड़ा है?
2. जीवन की गर्माहट से क्या आशय है?
3. कवयित्री आदिवासियों की किस प्रवृत्ति को बचाना चाहती है?
4. मन का हरापन से क्या तात्पर्य है?

उत्तर –
1. शहरी प्रभाव से आम व्यक्ति की दिनचर्या ठहर-सी गई है। उनमें उदासीनता बढ़ती जा रही है।
2. ‘जीवन की गरमाहट’ का आशय है-कार्य करने के प्रति उत्साह, गतिशीलता।
3. कवयित्री आदिवासियों के भोलेपन, अक्खड़पन व संघर्ष करने की प्रवृत्ति को बचाना चाहती है।
4. ‘मन का हरापन’ से तात्पर्य है-मन की मधुरता, सरसता व उमंग।

3. भीतर की आग
धनुष की डोरी
तीर का नुकीलापन
कुल्हाड़ी की धार
जगंल की ताज हवा

नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सोंधाप
फसलों की लहलहाहट

शब्दार्थ
आग-गर्मी। निर्मलता-पवित्रता। मौन-चुप्पी। सोंधापन-खुशबू। लहलहाहट-लहराना।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि उन्हें संघर्ष करने की प्रवृत्ति, परिश्रम करने की आदत के साथ अपने पारंपरिक हथियार धनुष व उसकी डोरी, तीरों के नुकीलेपन तथा कुल्हाड़ी की धार को बचाना चाहिए। वह समाज से कहती है कि हम अपने जंगलों को कटने से बचाएँ ताकि ताजा हवा मिलती रहे। नदियों को दूषित न करके उनकी स्वच्छता को बनाए रखें। पहाड़ों पर शोर को रोककर शांति बनाए रखनी चाहिए। हमें अपने गीतों की धुन को बचाना है, क्योंकि यह हमारी संस्कृति की पहचान हैं। हमें मिट्टी की सुगंध तथा लहलहाती फसलों को बचाना है। ये हमारी संस्कृति के परिचायक हैं।

विशेष-
1.कवयित्री लोक जीवन की सहजता को बनाए रखना
2.प्रतीकात्मकता है। चाहती है।
3.भाषा आडंबरहीन है।
4.छोटे-छोटे वाक्य प्राकृतिक बिंब को दर्शाते हैं।
5.छदमुक्त एवं अतुकांत कविता है।
6.मिश्रित शब्दावली में सहज अभिव्यक्ति है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. आदिवासी जीवन के विषय में बताइए।
2. आदिवासियों की दिनचर्या का अंग कौन-सी चीजें हैं?
3. कवयित्री किस-किस चीज को बचाने का आहवान करती है?
4. ‘भीतर की आग’ से क्या तात्पर्य है?

उत्तर –
1.आदिवासी जीवन में तीर, धनुष, कुल्हाड़ी का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी जंगल, नदी, पर्वत जैसे प्राकृतिक चीजों से सीधे तौर पर जुड़े हैं। उनके गीत विशिष्टता लिए हुए हैं।
2. आदिवासियों की दिनचर्या का अंग धनुष, तीर, व कुल्हाड़ियाँ होती हैं।
3. कवयित्री जंगलों की ताजा हवा, नदियों की पवित्रता, पहाड़ों के मौन, मिट्टी की खुशबू, स्थानीय गीतों व फसलों की लहलहाहट को बचाना चाहती है।
4. इसका तात्पर्य है-आतरिक जोश व संघर्ष करने की क्षमता।

4. नाचने के लिए खुला आँगन
गाने के लिए गीत
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
रोने के लिए मुट्ठी भर एकात

बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति

शब्दार्थ

खिलखिलाहट-खुलकर हँसना। मुट्ठी भर-थोड़ा-सा। एकांत-अकेलापन।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि आबादी व विकास के कारण घर छोटे होते जा रहे हैं। यदि नाचने के लिए खुला आँगन चाहिए तो आबादी पर नियंत्रण करना होगा। फिल्मी प्रभाव से मुक्त होने के लिए अपने गीत होने चाहिए। व्यर्थ के तनाव को दूर करने के लिए थोड़ी हँसी बचाकर रखनी चाहिए ताकि खिलखिला कर हँसा जा सके। अपनी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए थोड़ा-सा एकांत भी चाहिए। बच्चों को खेलने के लिए मैदान, पशुओं के चरने के लिए हरी-हरी घास तथा बूढ़ों के लिए पहाड़ी प्रदेश का शांत वातावरण चाहिए। इन सबके लिए हमें सामूहिक प्रयास करने होंगे।

विशेष-
1. आदिवासियों की जरूरत के विषय में बताया गया है।
2. भाषा सहज व सरल है।
3. ‘हरी-हरी’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
4. ‘मुट्ठी भर एकांत’ थोड़े से एकांत के लिए प्रयुक्त हुआ है।
5. काव्यांश छदमुक्त तथा अतुकांत है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. हँसने और गाने के बारे में कवयित्री क्या कहना चाहती है?
2. कवयित्री एकांत की इच्छा क्यों रखती है।
3. बच्चों, पशुओं व बूढ़ों को किनकी आवश्यकता है?
4. कवयित्री शहरी प्रभाव पर क्या व्यंग्य करती है?

उत्तर –
1. कवयित्री कहती है कि झारखंड के क्षेत्र में स्वाभाविक हँसी व गाने अभी भी बचे हुए हैं। यहाँ संवेदना अभी पूर्णत: मृत नहीं हुई है। लोगों में जीवन के प्रति प्रेम है।
2. कवयित्री एकांत की इच्छा इसलिए करती है ताकि एकांत में रोकर मन की पीड़ा, वेदना को कम कर सके।
3. बच्चों को खेलने के लिए मैदान, पशुओं के लिए हरी-हरी घास तथा बूढ़ों को पहाड़ों का शांत वातावरण चाहिए।
4. कवयित्री व्यंग्य करती है कि शहरीकरण के कारण अब नाचने-गाने के लिए स्थान नहीं है, लोगों की हँसी गायब होती जा रही है, जीवन की स्वाभाविकता समाप्त हो रही है। यहाँ तक कि रोने के लिए भी एकांत नहीं बचा है।

5. और इस अविश्वास-भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोडे-से सपने

आओ, मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा हैं
अब भी हमारे पास!

शब्दार्थ-
अविश्वास-दूसरों पर विश्वास न करना। दौर-समय। सपने-इच्छाएँ।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि आज चारों तरफ अविश्वास का माहौल है। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता। अत: ऐसे माहौल में हमें थोड़ा-सा विश्वास बचाए रखना चाहिए। हमें अच्छे कार्य होने के लिए थोड़ी-सी उम्मीदें भी बचानी चाहिए। हमें थोड़े-से सपने भी बचाने चाहिए ताकि हम अपनी कल्पना के अनुसार कार्य कर सकें। अंत में कवयित्री कहती है कि हम सबको मिलकर इन सभी चीजों को बचाने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि आज आपाधापी के इस दौर में अभी भी हमारे पास बहुत कुछ बचाने के लिए बचा है। हमारी सभ्यता व संस्कृति की अनेक चीजें अभी शेष हैं।

विशेष
1. कवयित्री का जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण है।
2. ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ में खुला आहवान है।
3. ‘थोड़ा-सा’ की आवृत्ति से भाव-गांभीर्य आया है।
4. मिश्रित शब्दावली है।
5. भाषा में प्रवाह है।
6. काव्यांश छंदमुक्त एवं तुकांतरहित है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवयित्री ने आज के युग को कैसा बताया है?
2. कवयित्री क्या-क्या बचाना चाहती है?
3. कवयित्री ने ऐसा क्यों कहा कि बहुत कुछ बचा है, अब भी हमारे पास!
4. कवयित्री का स्वर आशावादी है या निराशावादी?

उत्तर –
1. कवयित्री ने आज के युग को अविश्वास से युक्त बताया है। आज कोई एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करता।

2. कवयित्री थोड़ा-सा विश्वास, उम्मीद व सपने बचाना चाहती है।

3. कवयित्री कहती है कि हमारे देश की संस्कृति व सभ्यता के सभी तत्वों का पूर्णत: विनाश नहीं हुआ है। अभी भी हमारे पास अनेक तत्व मौजूद हैं जो हमारी पहचान के परिचायक हैं।

4. कवयित्री का स्वर आशावादी है। वह जानती है कि आज घोर अविश्वास का युग है, फिर भी वह आस्था व सपनों के जीवित रखने की आशा रखे हुए है।

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न

1. अपनी बस्तियों को
नंगी होने सं
शहर को आबो-हवा से बचाएँ उसे
बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती की

हड़िया में
अपने चहरे पर
संथाल परगना की माटी का रंग
भाषा में झारखंडीपन

प्रश्न
1.भाव-सौंदर्य स्पष्ट करें।
2.शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट करें।

उत्तर –
1.इस काव्यांश में कवयित्री स्थानीय परिवेश को बाहय प्रभाव से बचाना चाहती है। बाहरी लोगों ने इस क्षेत्र के प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों को बुरी तरह से दोहन किया है। वह अपने संथाली लोक-स्वभाव पर गर्व करती है।
2.प्रस्तुत काव्यांश में प्रतीकात्मकता है।
‘माटी का रंग’ लाक्षणिक प्रयोग है। यह सांस्कृतिक विशेषता का परिचायक है।
‘नंगी होना’ के कई अर्थ है-
मर्यादा छोड़ना।
कपड़े कम पहनना।
वनस्पतिहीन भूमि।
उर्दू व लोक प्रचलित शब्दों का प्रयोग है।
छदमुक्त कविता है।
खड़ी बोली में सहज अभिव्यक्ति है।

2. ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन

भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

प्रश्न
1. भाव-सौंदर्य स्पष्ट करें।
2. शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट करें।

उत्तर –
1. इस काव्यांश में कवयित्री ने झारखंड प्रदेश की पहचान व प्राकृतिक परिवेश के विषय में बताया है। वह लोकजीवन की सहजता को बनाए रखना चाहती है। वह पर्यावरण की स्वच्छता व निदषता को बचाने के लिए प्रयासरत है।
2. ‘भीतर की आग” मन की इच्छा व उत्साह का परिचायक है।
भाषा सहज व सरल है।
छोटे-छोटे वाक्यांश पूरे बिंब को समेटे हुए हैं।
खड़ी बोली है।
अतुकांत शैली है।

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Chapter 19 सबसे खतरनाक : पाश | class 11th | revision notes hindi Aroh

हिन्दी Notes Class 11 Chapter 19 Hindi सबसे खतरनाक

व्याख्या एवं अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़ जाना-बुरा तो हैं
सहमी-सी चुप में जकड़ जाना-बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता

कपट के शर में
सही होते हुए भी दब जाना-बुरा तो है
किसी जुगनू की ली में पढ़ना-बुरा तो है
मुट्टियाँ भींचकर बस वक्त निकाल लेना-बुरा तो हैं
सबसे खतरनाक नहीं होता

शब्दार्थ
गद्दारी-देश के शासन के विरुद्ध होकर उसे हानि पहुँचाने का भाव। लोभ-लालच। सहमी-डरी। जकड़े जाना-पकड़े जाना। कपट-छल। लौ-रोशनी। मुट्टियाँ भींचकर-गुस्से को दबाकर। वक्त-समय।

प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘सबसे खतरनाक’ से उद्धृत है। इसके रचयिता पंजाबी कवि पाश हैं। पंजाबी भाषा से अनूदित इस कविता में, कवि ने दिनोंदिन अधिकाधिक नृशंस और क्रूर होती जा रही स्थितियों को उसकी विदूपताओं के साथ चित्रित किया है। इस अंश में कवि कुछ खतरनाक स्थितियों के विषय में बता रहा है।

व्याख्या-कवि यहाँ उन स्थितियों का वर्णन करता है जो मानव को दुख तो देती हैं, परंतु सबसे खतरनाक नहीं होतीं। वह बताता है कि किसी की मेहनत की कमाई को लूटने की स्थिति सबसे खतरनाक नहीं है, क्योंकि उसे फिर पाया जा सकता है। पुलिस की मार पड़ना भी इतनी खतरनाक नहीं है। किसी के साथ गद्दारी करना अथवा लोभवश रिश्वत देना भी खतरनाक है, परंतु अन्य बातों जितना नहीं। वह कहता है कि किसी दोष के बिना पुलिस द्वारा पकड़े जाने से बुरा लगता है तथा अन्याय को डरकर चुपचाप सहन करना भी बुरी बात है, परंतु यह सबसे खतरनाक स्थिति नहीं है। छल-कपट के महौल में सच्ची बातें छिप जाती हैं, कोई जुगनू की लौ में पढ़ता है अर्थात् साधनहीनता में गुजारा करता है, विवशतावश अन्याय को सहन कर समय गुजार देना आदि बुरी तो है, परंतु सबसे खतरनाक नहीं है। कई बातें ऐसी हैं जो बहुत खतरनाक हैं और उनके परिणाम दूरगामी होते हैं।

विशेष-
1. ‘सबसे खतरनाक नहीं होती’ तथा ‘बुरा तो है’ की आवृत्ति से परिस्थितियों की भयावहता का पता चलता है।
2. ‘सहमी-सी चुप’ में उपमा अलंकार है।
3. ‘बैठे-बिठाए’ में अनुप्रास अलंकार है।
4. साधनहीनता के लिए ‘जुगनू की लौ’ नया प्रयोग है।
5. ‘गद्दारी लोभ की मुट्ठी’ भी नया प्रयोग है।
6. कथन में जोश, आवेश व मौलिकता है।
7. ‘मुट्ठयाँ भींचकर बस वक्त निकाल लेने’ का बिंब प्रभावशाली है।
8. सहज सरल खड़ी बोली है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. ‘सबसे खतरनाक नहीं होती’-वाक्यांश की आवृत्ति से कवि क्या कहना चाहता है?
2. कवि ने किन-किन खतरनाक स्थितियों का उल्लेख किया है?
3. ‘किसी जुगनू की लौ में पढ़ना’-आशय स्पष्ट कीजिए।
4. मुदठियाँ भींचकर वक्त निकालने को बुरा क्यों कहा गया है?

उत्तर –
1. इस वाक्यांश की आवृत्ति से कवि कहना चाहता है कि समाज में अनेक स्थितियाँ खतरनाक हैं, परंतु इनसे भी खतरनाक स्थिति जड़ता, प्रतिक्रियाहीनता की है।
2. कवि ने निम्नलिखित खतरनाक स्थितियों के बारे में बताया है-
मेहनत की कमाई लूटना, पुलिस की मार, शासन के प्रति गद्दारी, लोभ करना।
3. इसका अर्थ है कि साधनहीनता की स्थिति में गुजारा चलाना बहुत बुरा है किंतु खतरनाक नहीं है।
4. कवि ने अपने आक्रोश को दबाकर टालते रहने की प्रवृत्ति को बुरा बताया है इससे मनुष्य अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कर सकता।

2.सबसे खतरनाक होता है ।
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना

सबसे खतरनाक होता हैं
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक वह घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी निगाह में रुकी होती हैं

शब्दार्थ
मुर्दा शांति-निष्क्रियता, प्रतिरोध विहीनता की स्थिति। तड़प-बेचैनी। सपनों का मरना-इच्छाओं का नष्ट होना। घड़ी-समय बताने का यंत्र, वक्त। निगाह-दृष्टि।

प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘सबसे खतरनाक’ से उद्धृत है। इसके रचयिता पंजाबी कवि पाश हैं। पंजाबी भाषा से अनूदित इस कविता में, कवि ने दिनोंदिन अधिकाधिक नृशंस और क्रूर होती जा रही स्थितियों को उसकी विदूपताओं के साथ चित्रित किया है।

व्याख्या-कवि कहता है कि सबसे खतरनाक स्थिति वह है जब व्यक्ति जीवन के उल्लास व उमंग से मुँह मोड़कर निराशा व अवसाद से घिरकर सन्नाटे में जीने का अभ्यस्त हो जाता है। उसके अंदर कभी न समाप्त होने वाली शांति छा जाती है। वह मूक दर्शक बनकर सब कुछ चुपचाप सहन करता जाता है, ढरें पर आधारित जीवन जीने लगता है। वह घर से काम पर चला जाता है और काम समाप्त करके घर लौट आता है। उसके जीवन का मशीनीकरण हो जाता है। उसके सभी सपने मर जाते हैं और जीवन में कोई नयापन नहीं रह जाता है। उसकी सारी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं। ये परिस्थितियाँ अत्यंत खतरनाक होती हैं। कवि कहता है कि सबसे खतरनाक दृष्टि वह है जो अपनी कलाई पर बँधी घड़ी को सामने चलता देख कर सोचे कि जीवन स्थिर है; दूसरे शब्दों में, मनुष्य नित्य हो रहे परिवर्तनों के अनुसार स्वयं को नहीं बदलता और न ही स्वयं को बदलना चाहता है।

विशेष-
1. कवि जीवन में आशा व समयानुसार परिवर्तन की माँग करता है।
2. ‘घड़ी’ में श्लेष अलंकार है।
3. ‘सपनों का मर जाना’ में लाक्षणिकता है।
4. ‘मुर्दा शांति’ से भाव स्पष्ट हो गया है।
5. भाषा व्यंजना प्रधान है।
6. खड़ी बोली है।
7. अनुप्रास अलंकार है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवि के अनुसार सबसे खतरनाक क्या होता है?
2. ‘मुद शांति’ से क्या अभिप्राय है?
3. सपनों के मर जाने से क्या होता है?
4. घड़ी के माध्यम से कवि क्या कहता है?

उत्तर –
1. कवि के अनुसार, सबसे खतरनाक वह स्थिति है जब मनुष्य प्रतिक्रिया नहीं जताता, वह उत्साहहीन हो जाता है।
2. ‘मुर्दा शांति’ से अभिप्राय है, मानय जीवन में जड़ता और निष्क्रियता का भाव होना अर्थात् अत्याचारों को मूक बनकर सहते जाना और कोई प्रतिक्रिया न व्यक्त करना।
3. सपनों के मरने से मनुष्य की कामनाएँ, इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं। वह वर्तमान से संतुष्ट रहता है। इस प्रवृति से समाज में नए विचार व आविष्कार नहीं हो पाते।
4. घड़ी समय को बताती है। वह समय की गतिशीलता दर्शाती है तथा मनुष्य को समय के अनुसार बदलने की प्रेरणा देती है। मनुष्य द्वारा स्वयं को न बदल पाने की स्थिति खतरनाक होती है।

3. सबसे खतरनाक वह आँख होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है
जिसकी नजर दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है

जो चीजों से उठती अधेपन की भाप पर दुलक जाती है
जो रोजमर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है

शब्दार्थ
जमी बर्फ-संवेदनशून्यता। दुनिया-संसार। मुहब्बत-प्रेम। रोजमर्रा-दैनिक कार्य। उलटफेर-चक्कर। दुहराव-दोहराना।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘सबसे खतरनाक’ से उद्धृत है। इसके रचयिता पंजाबी कवि पाश हैं। पंजाबी भाषा से अनूदित इस कविता में, कवि ने दिनोंदिन अधिकाधिक नृशंस और होती जा रही स्थितियों को उसकी विदूपताओं के साथ चित्रित किया है।

व्याख्या-कवि सामाजिक विदूपताओं का विरोध न करने को खतरनाक मानता है। वह कहता है कि वह आँख बहुत खतरनाक होती है जो अपने सामने हो रहे अन्याय को संवेदनशून्य होकर वैसे देखती रहती है जैसे वह जमी बर्फ हो। जिसकी नजर इस संसार को प्यार से चूमना भूल जाती है अर्थात् जिस नजर से प्रेम व सौंदर्य की भावना समाप्त हो जाती है और हर वस्तु को घृणा से देखती है, वह नजर खतरनाक हो जाती है। ऐसी नजर वस्तु के स्वार्थ के लोभ में अंधी हो जाती है तथा उसे पाने के लिए लालयित हो उठती है, वह खतरनाक होती है। वह जिंदगी जो दैनिक क्रियाकलापों में संवेदनहीनता के साथ भटकती रहती है। जिसका कोई लक्ष्य नहीं है, जो लक्ष्यहीन होकर अपनी दिनचर्या को पूरा करती है, खतरनाक होती है।

विशेष-
1. कवि संवेदनशून्यता पर गहरा व्यंग्य करता है।
2. ‘जमी बर्फ’, ‘मुहब्बत से चूमना’, ‘अंधेपन की भाप’, ‘रोजमर्रा के क्रम को पीती’ आदि नए भाषिक प्रयोग हैं।
3. ‘जमी बर्फ’ संवेदनशून्यता का परिचायक है।
4. भाषा व्यंजना प्रधान है।
5. ‘अंधेपन की भाप’ में रूपक अलंकार है।
6. खड़ी बोली है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवि कैसी आँख को खतरनाक मानता है?
2. दुनिया को मुहब्बत की नजर से न चूमने वाली आँख को कवि खतरनाक क्यों मानता है?
3. ‘जो रोजमर्रा के क्रम को पीती हुड़ी पंक्ति का आशय बताइए।
4. आँख का अंधेपन की भाप पर दुलकना क्या कटाक्ष करता है?

उत्तर –
1. कवि उस आँख को खतरनाक मानता है जो अन्याय को देखकर भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती। इस तरह से कवि मनुष्य की संवेदनशून्यता पर चोट कर रहा है।
2. दुनिया को मुहब्बत की नजर से न चूमने वाली आँख को कवि इसलिए खतरनाक मानता है; क्योंकि ऐसी नजर से प्रेम एवं सौंदर्य की भावना समाप्त हो जाती है। ऐसी आँख हर वस्तु को घृणा की दृष्टि से देखती है।
3. इसका अर्थ है-वह जिदगी जो दैनिक क्रियाकलापों में संवेदनहीनता के साथ भटकती रहती है।
4. इसमें कवि कहता है कि मनुष्य वस्तुओं की चाह में गलत-सही कार्य करता है। वह उनकी पूर्ति की चाह में हर मूल्य को दाँव पर लगा देता है।

4. सबसे खतरनाक वह चाँद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद

वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
पर आपकी आँखों की मिचों की तरह नहीं गड़ता है।

शब्दार्थ
हत्याकांड-हत्या की घटना। वीरान-सुनसान। गड़ता-चुभना।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘सबसे खतरनाक’ से उद्धृत है। इसके रचयिता पंजाबी कवि पाश हैं। पंजाबी भाषा से अनूदित इस कविता में, कवि ने दिनोंदिन अधिकाधिक नृशंस और क्रूर होती जा रही स्थितियों को उसकी विदूपताओं के साथ चित्रित किया है।

व्याख्या-कवि अपराधीकरण के बारे में बताता है कि वह चाँद सबसे खतरनाक है जो हत्याकांड के बाद उन आँगनों में चढ़ता है जो वीरान हो गए हैं। चाँद सौंदर्य और शांति का परिचायक है, परंतु हत्याकांडों का चश्मदीद गवाह भी है। ऐसे चाँद की चाँदनी लोगों की आँखों में मिर्च की तरह नहीं गड़ती। इसके विपरीत लोग शांति महसूस करते हैं।

विशेष–

1. ‘चाँद’ आस्था व शांति का प्रतीक है।
2. ‘मिर्च की तरह गड़ना’ सशक्त प्रयोग है।
3. अनुप्रास अलंकार है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. ‘चाँद’ किसका प्रतीक है? कवि उसे खतरनाक क्यों मानता है?
2. घर-आँगन के वीरान होने का क्या कारण है?
3. अंतिम पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –
1. ‘चाँद’ आस्था व शांति का प्रतीक है। कवि उसे खतरनाक मानता है, क्योंकि वह लोगों में प्रतिकार की भावना को दबा देता है।
2. इस आँगन के वीरान होने के कारण हत्याकांड हैं जो आतंक के कारण हो रहे हैं।
3. इस पंक्ति का अर्थ है कि लोग हत्याकांड पर भी शांत रहते हैं तथा अपनी खुशियों में मग्न रहते हैं, जबकि उन्हें ऐसे हमलों का प्रतिकार करना चाहिए।

5. सबसे खतरनाक वह गीत होता है
आपके कानों तक पहुँचने के लिए
जो मरसिए पढ़ता है
जो जिंदा रूह के आसमानों पर ढलती हैं
जिसमें सिर्फ़ उल्लू बोलते और हुआँ हुआँ करते गीदड़

आतांकित लोगों के दरवाज़ों पर
जो गुंडे की तरह अकड़ता है
सबसे खतरनाक वह रात होती है
हमेशा के औधरे बद दरवाज-चौगाठों पर चिपक जाते हैं

शब्दार्थ
मरसिए-मृत्यु पर गाए जाने वाले करुण गीत। आतंकित-डरे हुए। जिंदा रूह-जीवित आत्मा। चौगाठों-चौखटें।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘सबसे खतरनाक’ से उद्धृत है। इसके रचयिता पंजाबी कवि पाश हैं। पंजाबी भाषा से अनूदित इस कविता में, कवि ने दिनोंदिन अधिकाधिक नृशंस और क्रूर होती जा रही स्थितियों को उसकी विदूपताओं के साथ चित्रित किया है।

व्याख्या-कवि कहता है कि वे गीत सबसे खतरनाक हैं जो मनुष्य के हृदय में शोक की लहर दौड़ाते हैं। वस्तुत: ये गीत मृत्यु पर गाए जाते हैं तथा भयभीत लोगों को और डराते हैं, उन्हें गुंडों की तरह धमकाते हैं तथा अकड़ते हैं। कवि ऐसे गीतों को निरर्थक मानता है, क्योंकि ये प्रतिरोध के भाव को नहीं जगाते। वह कहता है कि जब किसी जीवित आत्मा के आसमान पर निराशा रूपी रात्रि का घना औधेरा छा जाता है और उसमें कोई उत्साह नहीं रह जाता, ऐसी रात बहुत खतरनाक होती है। उसके हर कोने-चौखट पर उल्लू व गीदड़ों की तरह शोक व भय चिपक जाते हैं जो कभी निराशा से उबरने नहीं देते।

विशेष-
1. कवि ने संवेदनहीनता व निराशा को खतरनाक बताया है।
2. प्रतीकात्मकता है।
3. ‘गुंडे की तरह अकड़ता है’, उल्लू बोलते और हुआँ हुआँ’ बिंब सार्थक व सजीव है।
4. गीत का मानवीकरण किया गया है।
5. ‘मिचों की तरह’, ‘गुंडों की तरह’ में उपमा अलंकार है।
6. खड़ी बोली है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवि कैसे गीत को खतरनाक मानता है तथा क्यों?
2. कवि लोगों की किस आदत को खतरनाक मानता है?
3. कवि ने किस रात को खतरनाक माना है?
4. ‘जिदा रूह के आसमानों’ द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?

उत्तर –
1. कवि उन गीतों को खतरनाक मानता है जो शोक गीत गाकर लोगों के मन में प्रतिकार के भाव को समाप्त करके उन्हें और अधिक डराता है।
2. कवि लोगों का आतंक सहने तथा उसका विरोध न करने की आदत को खतरनाक मानता है।
3. कवि उस रात को खतरनाक मानता है जो जीवित लोगों की आत्मा रूपी आसमान पर अंधकार के समान छा जाती है
4. इसका अर्थ है-सजग लोग। वह कहना चाहता है कि सजग लोगों को अंधविश्वासों व रूढ़ियों से बचना चाहिए।

6. सबसे खतरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुद धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती।

शब्दार्थ
मुर्दा-मृत। जिस्म-शरीर। पूरब-पूर्व दिशा।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘सबसे खतरनाक’ से उद्धृत है। इसके रचयिता पंजाबी कवि पाश हैं। पंजाबी भाषा से अनूदित इस कविता में, कवि ने दिनोंदिन अधिकाधिक नृशंस और क्रूर होती जा रही स्थितियों को उसकी विदूपताओं के साथ चित्रित किया है।

व्याख्या-कवि कहता है कि सबसे खतरनाक दिशा वह है जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने अंदर की आवाज को नहीं सुनता। उसकी मुर्दा जैसी स्थिति हमें कहीं कोई प्रभाव छोड़ जाए तो यह स्थिति भी खतरनाक होती है। ऐसे लोगों में धूप की किरणों से आशा उत्पन्न भी हो तो मृतप्राय ही होती है। जो अपने ही शरीर रूपी पूर्व दिशा में चुभकर उसे लहूलुहान करती है। कवि कहना चाहता है कि अन्याय को सहना ही लोगों ने अपनी नियति मान लिया है।
कवि कहता है कि किसी की मेहनत की कमाई लुट जाए तो वह खतरनाक नहीं होती। पुलिस की मार या गद्दारी आदि भी इतने खतरनाक नहीं होते। खतरनाक स्थिति वह है जब व्यक्ति में संघर्ष करने की क्षमता ही खत्म हो जाए।

विशेष-
1. कवि व्यक्ति की संवेदनहीनता को खतरनाक स्थिति बताता है।
2. ‘आत्मा का सूरज’ और ‘जिस्म के पूरब’ में रूपक अलंकार है।
3. खड़ी बोली है।
4. सांकेतिक भाषा है।
5. काव्य रचना मुक्त छंद है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवि ने आत्मा को क्या माना है?
2. कवि किस दिशा को खतरनाक मानता है?
3. ‘आत्मा का सूरज डूबने जाए’ का अर्थ बताइए।
4. मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा का व्यंग्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –
1. कवि ने आत्मा को मृत के समान तटस्थ माना है।
2. कवि उस दिशा को खतरनाक मानता है जिस पर चलकर मनुष्य अपनी आत्मा की बात अनसुनी कर देता है।
3. इसका अर्थ है-अंतरात्मा की आवाज का क्षीण पड़ना।
4. कवि कहना चाहता है कि आदर्शपरक अच्छी बातें ; जैसे-त्याग, अहिंसा, बलिदान आदि मनुष्य को प्रतिक्रियाहीन व जड़ बना देती हैं।

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न

1. कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना-बुरा तो हैं
किसी जुगनू की लों में पढ़ना-बुरा तो हैं

मुट्टियाँ भींचकर बस वक्त निकाल लेना-बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता

प्रश्न
1. भाव-सौंदर्य स्पष्ट करें।
2. शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट करें।

उत्तर –
1. इस काव्यांश में कवि ने कुछ स्थितियों का वर्णन किया है जो बुरी तो हैं, परंतु सबसे खतरनाक नहीं हैं। सही बातों का कपट के कारण दब जाना, अभाव में रहना, क्रोध को व्यक्त करना आदि बुरी स्थितियाँ तो हैं; परंतु सबसे खतरनाक नहीं हैं।
2. ‘बुरा तो है’ पद की आवृत्ति प्रभावी है।
‘जुगनू की लौ’ से साधनहीनता प्रकट होती है।
‘कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना’, ‘जुगनू की लौ में पढ़ना’, ‘मुट्ठयाँ भींचकर वक्त निकाल लेना’ आदि नए भाषिक प्रयोग हैं।
व्यंजना शब्द शक्ति है।
खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
मुक्त छंद है।
सरल शब्दावली है।

2. सबसे खतरनाक वह आँख होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है
जिसकी नजर दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है

जो चीजों से उठती अधेपन की भाप पर दुलक जाती है
जो रोजमर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है

प्रश्न
1. भाव-सौंदर्य स्पष्ट करें।
2. शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट करें।

उत्तर –
1. इस काव्यांश में दृष्टि के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है। कवि संवेदनशील व परिवर्तनकारी जीवन शैली का समर्थन है। ‘सबसे खतरनाक’ कहकर कवि उन वस्तुओं या भावों को समाज के लिए हानिकारक व अनुपयोगी मानता है।
2. जमी बर्फ’, संवेदना शून्य ठडे जीवन का
‘जमी बर्फ होती’, ‘मुहब्बत से चूमना’, ‘अंधेपन की प्रतीक है। भाप’ आदि नए भाषिक प्रयोग हैं।
‘अंधेपन की भाप’ में रूपक अलंकार है।
भाषा में व्यंजना शक्ति है।
खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
उर्दू शब्दों का सहज प्रयोग है।
प्रतीकों व बिंबों का सशक्त प्रयोग है।

3. सबसे खतरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुद धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए

प्रश्न
1. भाव-सौदर्य बताइए।
2. शिल्प–सौंदर्य बताइए।

उत्तर –
1. इस अंश में, कवि आत्मा की आवाज को अनसुना करने वाली चिंतन-शैली को धिक्कारता है। वह कट्टर विचारधारा का विरोधी है।
2. ‘आत्मा का सूरज’ में रूपक अलंकार है।
‘जिस्म के पूरब’ में रूपक अलंकार है।
सांकेतिक भाषा का प्रयोग है।
खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
मुक्त छंद है।
उर्दू शब्दावली का प्रयोग है।

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Chapter 18 हे भूख! मत मचल : अक्कमहादेवी | class 11th | revision notes hindi Aroh

हिन्दी Notes Class 11 Hindi Chapter 18 हे भूख! मत मचल

व्याख्या एवं अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. हो भूख ! मत मचल
प्यास, तड़प मत हे
हे नींद! मत सता
क्रोध, मचा मत उथल-पुथल
हे मोह! पाश अपने ढील

लोभ, मत ललचा
मद ! मत कर मदहोश
ईर्ष्या, जला मत
अो चराचर ! मत चूक अवसर
आई हूँ सदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का

शब्दार्थ
मचल-पाने की जिद। तड़प-छटपटाना। पाश-बंधन। ढील-ढीला करना। मद-नशा। मदहोश-नशे में उन्मत या होश खो बैठना। चराचर-जड़ व चेतन। चूक-छोड़ना, भूलना। चन्नमल्लिकार्जुन-शिव।

प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित ‘वचन’ से उद्धृत है। जो शैव आंदोलन से जुड़ी कर्नाटक की प्रसिद्ध कवयित्री अक्क महादेवी द्वारा रचित है। वे शिव की अनन्य भक्त थीं। इस पद में कवयित्री इंद्रियों पर नियंत्रण का संदेश देती है।

व्याख्या-इसमें अक्क महादेवी इंद्रियों से आग्रह करती हैं। वे भूख से कहती हैं कि तू मचलकर मुझे मत सता। सांसारिक प्यास को कहती हैं कि तू मन में और पाने की इच्छा मत जगा। हे नींद ! तू मानव को सताना छोड़ दे, क्योंकि नींद से उत्पन्न आलस्य के कारण वह प्रभु-भक्ति को भूल जाता है। हे क्रोध! तू उथल-पुथल मत मचा, क्योंकि तेरे कारण मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। वह मोह को कहती हैं कि वह अपने बंधन ढीले कर दे। तेरे कारण मनुष्य दूसरे का अहित करने की सोचता है। हे लोभ! तू मानव को ललचाना छोड़ दे। हे अहंकार! तू मनुष्य को अधिक पागल न बना। ईष्य मनुष्य को जलाना छोड़ दे। वे सृष्टि के जड़-चेतन जगत् को संबोधित करते हुए कहती हैं कि तुम्हारे पास शिव-भक्ति का जो अवसर है, उससे चूकना मत, क्योंकि मैं शिव का संदेश लेकर तुम्हारे पास आई हैं। चराचर को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

विशेष-
1. प्रभु-भक्ति के लिए इंद्रिय व भाव नियंत्रण पर बल दिया गया है।
2. सभी भावों व वृत्तियों को मानवीय पात्रों के समान प्रस्तुत किया गया है, अत: मानवीकरण अलंकार है।
3. अनुप्रास अलंकार की छटा है।
4. संबोधन शैली है।
5. शांत रस का परिपाक है।
6. खड़ी बोली है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवयित्री ने किन-किन को संबोधित किया है?
2. कवयित्री क्या प्रार्थना करती है तथा क्यों?
3. कवयित्री चराचर जगत् को क्या प्रेरणा देती है?
4. कवयित्री किसकी भक्त है? अपने आराध्य को प्राप्त करने का उसने क्या उपाय बताया है?

उत्तर –
1. कवयित्री ने भूख, प्यास, नींद, मोह, ईष्या, मद और चराचर को संबोधित किया है।
2. कवयित्री इंद्रियों व भावों से प्रार्थना करती है कि वे उसे सांसारिक कष्ट न दें, क्योंकि इससे उसकी भक्ति बाधित होती है।
3. कवयित्री चराचर जगत् को प्रेरणा देती है कि वे इस अवसर को न चूकें तथा सांसारिक मोह को छोड़कर प्रभु की भक्ति करें। वह भगवान शिव का संदेश लेकर आई है।
4. कवयित्री चन्नमल्लिकार्जुन अर्थात् शिव की भक्त है। उसने आराध्य को प्राप्त करने का यह उपाय बताया है कि मनुष्य की अपनी इंद्रियों को वश में करने से आराध्य (शिव) की प्राप्ति की जा सकती है।

2. हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
मँगवाओ मुझसे भीख
और कुछ ऐसा करो
कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह
झोली फैलाऊँ और न मिले भीख

कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को
तो वह गिर जाए नीचे
और यदि में झूकूं उसे उठाने
तो कोई कुत्ता आ जाए
और उसे झपटकर छीन ले मुझसे।

शब्दार्थ
जूही-एक सुगधित फूल। भीख-भिक्षा। हाथ बढ़ाना-सहायता करना। झपटकर-खींचकर।

प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित ‘वचन’ से उद्धृत है। जो शैव आदोलन से जुड़ी कर्नाटक की प्रसिद्ध कवयित्री अक्क महादेवी द्वारा रचित है। वे शिव की अनन्य भक्त थीं। इस पद में कवयित्री ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव व्यक्त करती है। वह अपने अहंकार को नष्ट करके ईश्वर में समा जाना चाहती है।

व्याख्या-कवयित्री ईश्वर से प्रार्थना करती है कि हे जूही के फूल को समान कोमल व परोपकारी ईश्वर! आप मुझसे ऐसे-ऐसे कार्य करवाइए जिससे मेरा अह भाव नष्ट हो जाए। आप ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कीजिए जिससे मुझे भीख माँगनी पड़े। मेरे पास कोई साधन न रहे। आप ऐसा कुछ कीजिए कि मैं पारिवारिक मोह से दूर हो जाऊँ। घर का मोह सांसारिक चक्र में उलझने का सबसे बड़ा कारण है। घर के भूलने पर ईश्वर का घर ही लक्ष्य बन जाता है। वह आगे कहती है कि जब वह भीख माँगने के लिए झोली फैलाए तो उसे कोई भीख नहीं दे। ईश्वर ऐसा कुछ करे कि उसे भीख भी नहीं मिले। यदि कोई उसे कुछ देने के लिए हाथ बढ़ाए तो वह नीचे गिर जाए। इस प्रकार वह सहायता भी व्यर्थ हो जाए। उस गिरे हुए पदार्थ को वह उठाने के लिए झुके तो कोई कुत्ता उससे झपटकर छीनकर ले जाए। कवयित्री त्याग की पराकाष्ठा को प्राप्त करना चाहती है। वह मान-अपमान के दायरे से बाहर निकलकर ईश्वर में विलीन होना चाहती है।

विशेष-
1. ईश्वर के प्रति समर्पण भाव को व्यक्त किया गया है।
2. जूही के फूल जैसे ईश्वर’ में उपमा अलंकार है।
3. अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
4. सहज एवं सरल भाषा है।
5. ‘घर’ सांसारिक मोह-माया का प्रतीक है।
6. ‘कुत्ता’ सांसारिक जीवन का परिचायक है।
7. संवादात्मक शैली है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवयित्री आराध्य से क्या प्रार्थना करती है?
2. ‘अपने घर भूलने’ से क्या आशय है?
3. पहले भीख और फिर भोजन न मिलने की कामना क्यों की गई है?
4. ईश्वर को जूही के फूल की उपमा क्यों दी गई है?

उत्तर –
1. कवयित्री आराध्य से प्रार्थना करती है कि वह ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे जिससे संसार से उसका लगाव समाप्त हो जाए।
2. ‘अपना घर भूलने’ से आशय है-गृहस्थी के सांसारिक झंझटों को भूलना, जिसे संसार को लोग सच मानने लगते हैं।
3. भीख तभी माँगी जा सकती है जब मनुष्य अपने अहभाव को नष्ट कर देता है और भोजन न मिलने पर मनुष्य वैराग्य की तरफ जाता है। इसलिए कवयित्री ने पहले भीख और फिर भोजन न मिलने की कामना की है।
4. ईश्वर को जूही के फूल की उपमा इसलिए दी गई है कि ईश्वर भी जूही के फूल के समान लोगों को आनंद देता है, उनका कल्याण करता है।

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न

1. हो भूख ! मत मचल
प्यास, तड़प मत हे
हे नींद! मत सता
क्रोध, मचा मत उथल-पुथल
हे मोह! पाश अपने ढील

लोभ, मत ललचा
मद ! मत कर मदहोश
ईर्ष्या, जला मत
अो चराचर ! मत चूक अवसर
आई हूँ सदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का

प्रश्न
1. इस पद का भाव स्पष्ट करें।
2. शिल्प व भाषा पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तर –
1. इस पद में, कवयित्री ने इंद्रियों व भावों पर नियंत्रण रखकर ईश्वर-भक्ति में लीन होने की प्रेरणा दी है। मनुष्य को भूख, प्यास, नींद, क्रोध, मोह, लोभ, ईष्या, अहंकार आदि प्रवृत्तियाँ सांसारिक चक्र में उलझा देती हैं। इस कारण वह ईश्वर-भक्ति के मार्ग को भूल जाता है।
2. यह पद कन्नड़ भाषा में रचा गया है। इसका यहाँ अनुवाद है। इस पद में संबोधन शैली का प्रयोग किया है। इंद्रियों व भावों को मानवीय तरीके से संबोधित किया गया है। अत: मानवीकरण अलंकार है। ‘मत मचल’ ‘मचा मत’ में अनुप्रास अलंकार है। प्रसाद गुण है। शैली में उपदेशात्मकता है। खड़ी बोली के माध्यम से सहज अभिव्यक्ति है।

2. हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
मँगवाओ मुझसे भीख
और कुछ ऐसा करो
कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह
झोली फैलाऊँ और न मिले भीख

कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को
तो वह गिर जाए नीचे
और यदि में झूकूं उसे उठाने
तो कोई कुत्ता आ जाए
और उसे झपटकर छीन ले मुझसे।

प्रश्न
1. इस पद का भाव स्पष्ट करें।
2. शिल्प–सौदंर्य बताइए।

उत्तर –
1. इस वचन में, कवयित्री ने अपने आराध्य के प्रति पूर्णत: समर्पित भाव को व्यक्त किया है। वह अपने आराध्य के लिए तमाम भौतिक साधनों को त्यागना चाहती है वह अपने अहकार को खत्म करके ईश्वर की प्राप्ति करना चाहती है। कवयित्री निस्पृह जीवन जीने की कामना रखती है।
2. कवयित्री ने ईश्वर की तुलना जूही के फूल से की है। अत: उपमा अलंकार है। ‘मैंगवाओ मुझसे’ व ‘कोई कुत्ता’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘अपना घर’ यहाँ अह भाव का परिचायक है। सुंदर बिंब योजना है, जैसे भीख न मिलने, झोली फैलाने, भीख नीचे गिरने, कुत्ते द्वारा झपटना आदि। खड़ी बोली में सहज अभिव्यक्ति है। संवादात्मक शैली है। शांत रस का परिपाक है।

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