नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता  Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

लेखक परिचय

स्वंय प्रकाश

इनका जन्म सन 1947 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढाई कर एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वंय प्रकाश का बचपन और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बिता। फिलहाल वे स्वैछिक सेवानिवृत के बाद भोपाल में रहते हैं और वसुधा सम्पादन से जुड़े हैं।

स्वंय प्रकाश नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता  Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

नेताजी का चश्मा Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

एक कंपनी में कार्यरत एक साहब अक्सर अपनी कंपनी के काम से बाहर जाते थे | हालदार साहब एक कस्बे से होकर गुजरते थे | वह क़स्बा बहुत ही छोटा था| कहने भर के लिए बाज़ार और पक्के मकान थे| लड़कों और लड़कियों का अलग अलग स्कूल था | मुख्य बाज़ार के मुख्य चौराहे पर नेताजी की मूर्ति थी | मूर्ति कामचलाऊ थी पर कोशिश सराहनीय थी | संगमरमर की मूर्ति थी पर उसपर चश्मा असली था | चौकोर और चौड़ा सा काला रंग का चश्मा | फिर एक बार गुजरते हुए देखा तो पतले तार का गोल चश्मा था | जब भी हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते तो मुख्य चौराहे पर रूककर पान जरुर खाते और नेताजी की मूर्ति पर बदलते चश्मे को देखते | एक बार पानवाले से पूछा की ऐसा क्यों होता है तो पानवाले ने बताया की ऐसा कैप्टेन चश्मे वाला करता है | जब भी कोई ग्राहक आटा और उसे वही चश्मा चाहिए तो वो मूर्ति से निकलकर बेच देता और उसकी जगह दूसरा फ्रेम लगा देता | पानवाले ने बताया की जुगाड़ पर कस्बे के मास्टर साहब से बनवाया वह मूर्ति, मास्टर साहब चश्मा बनाना भूल गए थे | और पूछने पर पता चला की चश्मे वाले का कोई दूकान नहीं था बल्कि वो बस एक मरियल सा बूढा था जो बांस पर चश्मे की फेरी लगाता था | जिस मजाक से पानवाले ने उसके बारे में बताया हालदार साहब को अच्छा न लगा और उन्होंने फैसला किया दो साल तक साहब वहां से गुजरते रहे और नेताजी के बदलते चश्मे को देखते रहे | कभी काला कभी लाल, कभी गोल कभी चौकोर, कभी धूप वाला कभी कांच वाला | एक बार हालदार साहब ने देखा की नेताजी की मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं है |  पान वाले ने उदास होकर नम आँखों से बताया की कैप्टन मर गया | वो पहले ही समझ चुके थे की वह चश्मे वाला एक फ़ौजी था और नेताजी को उनके चश्मे के बगैर देख कर आहत हो जाता होगा | अपने जी चश्मों में से एक चश्मा उन्हें पहना देता और जब भी कोई ग्राहक उसकी मांग करते तो उन्हें वह नेताजी से माफ़ी मांग कर ले जाता और उसकी जगह दूसरा सबसे बढ़िया चश्मा उन्हें पहना जाता होगा | और  उन्हें याद आया की पानवाले से हस्ते हुए उसे लंगड़ा पागल बताया था | उसके मरने की बात उनके दिल पर चोट कर गयी और उन्होंने फिर कभी वहां से गुजरते वक़्त न रुकने का फैसला किया | पर हर बार नज़र नेताजी की मूर्ति पर जरुर पड़ जाती थी | एक बार वो यह देख कर दंग रह गये की नेताजी की मूर्ति पर चश्मा चढ़ा है | जाकर ध्यान से देखा तो बच्चो द्वारा बनाया एक चश्मा उनकी आँखों पर चढ़ा था | इस कहानी से यह बताने की कोशिश की गयी है की हम देश के लिए कुर्बानी देने वाले जवानों की कोई इज्जत नहीं करते| उनके भावनाओं की खिल्ली उड़ा देते और न ही हमारे स्वतंत्रता के लिए जान लगाने वाले महान लोगों की इज्ज़त करते हैं | पर बच्चों ने कैप्टन की भावनाओं को समझा और नेताजी की आँखों को सुना न होने दिया |

नेताजी का चश्मा Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

पाठ का सार पार्ट-1 

कहानी कुछ इस प्रकार है कि हालदार साहब हर पन्द्रहवें दिन कंपनी के काम से एक छोटे से कस्बे से निकलते थे। उस कस्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का कारखाना, दो ओपन सिनेमा तथा एक नगरपालिका थी। नगरपालिका थी तो कुछ ना कुछ करती रहती थी, कभी सड़के पक्की करवाने का काम तो कभी शौचालय तो कभी कवि सम्मलेन करवा दिया।


पाठ का सार पार्ट-2

  एक बार नगरपालिका के एक उत्साही अधिकारी ने मुख्य बाजार के चौराहे पर सुभाषचंद्र बोस की संगमरमर की मूर्ति लगवा दी। चूँकि बजट अधिक नहीं था इसलिए मूर्ति बनाने का काम कस्बे के एक ड्राइंग मास्टर को दे दिया जाता है। मूर्ति सुंदर बनी थी। लेकिन उसमें एक कमी थी। नेताजी की आँखों में चश्मा नहीं था। किसी ने मूर्ति को रियल का एक काला चश्मा पहना दिया था। जब हालदार साहब आए तो वे देखकर बोले, वाह भई ! क्या आइडिया है। मूर्ति पत्थर का और चश्मा रियल का। दूसरी बार जब हालदार साहब आए तो उन्होंने मूर्ति पर तार से बना गोल फ्रेम वाला चश्मा लगा देखा।


पाठ का सार पार्ट-3 

          तीसरी बार फिर उन्होंने नया चश्मा देखा। इस बार उन्होंने पानवाले से पूछ लिया कि नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है? उसने बताया- यह काम कैप्टन चाश्मेंवाला करता है। हालदार तुरंत समझ गए कि बिना चश्में वाली मूर्ति कैप्टन को अच्छी नहीं लगती होगी इसलिए वह अपनी ओर से चश्मा लगा देता होगा है। जब कोई ग्राहक वैसे ही फ्रेम वाले चश्में की माँग करता होगा जैसा मूर्ति पर लगा है तो वह मूर्ति से उतारकर दे देता होगा और मूर्ति पर फिर से नया फ्रेमवाला चश्मा लगा देता होगा।


पाठ का सार पार्ट-4 

  हालदार साहब ने पानवाले से यह भी पूछा कि कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है क्या? या आजाद हिन्द फ़ौज का कोई भूतपूर्व सिपाहीपानवाला बोला कि वह लंगड़ा क्या फ़ौज में जाएगावह तो पागल हैपागल! हालदार साहब को एक  देशभक्त का इस तरह से मजाक उड़ाना  अच्छा नहीं लगा। जब उन्होंने कैप्टन को देखा तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि कैप्टन एक बूढ़ामरियल तथा लंगड़ा (दिव्यांग) सा आदमी था। उसके सिर पर गाँधी टोपी और गोला चश्मा था। वह एक हाथ में छोटी – सी संदूकची और दूसरे हाथ में चश्मों वाला बांस लिए था। 


पाठ का सार पार्ट-5 

         दो साल के भीतर हालदार साहब ने नेताजी की मूर्ति पर कई चश्मे बदलते हुए देखे। एक बार जब हालदार साहब पुनः कस्बे से गुजरे तो उनको मूर्ति पर किसी प्रकार का चश्मा नहीं दिखाई दिया। कारण पूछने पर पानवाले ने बताया कि कैप्टन मर चुका है। जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ। पंद्रह दिन बाद जब वे कस्बे से गुजरे तो उन्होंने ड्राइवर से कहा पान कहीं आगे खा लेंगे। मूर्ति की ओर भी नहीं देखेंगे।


पाठ का सार पार्ट-6 

       परन्तु आदत से मजबूर हालदार साहब की नजर चौराहे पर आते ही आँखे मूर्ति की ओर उठ जाती हैं। वे गाड़ी से उतर कर मूर्ति के सामने सावधानी से खड़े हो जाते हैं। मूर्ति पर बच्चों द्वारा बना एक सरकंडे का छोटा-सा चश्मा लगा हुआ था। सरकंडे का चश्मा देखकर उनकी आखें नम हो जाती हैं। वे भावुक हो गए।

Important Link

NCERT Solution –नेताजी का चश्मा

For Free Video Lectures Click here

Read More

संगतकार कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 9 | संगतकार कविता Summary | Quick revision Notes ch-9 Kshitij | EduGrown

संगतकार Sangatkar summary Class 10 Hindi  कविता का सार

कवि परिचय

मंगलेश डबराल

इनका जन्म सन 1948 में टिहरी गढ़वाल, उत्तरांचल के काफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा देहरादून में। दिल्ली आकर हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद ये पूर्वग्रह सहायक संपादक के रूप में जुड़े। इलाहबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की, बाद में सन 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद संभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादक रहने के बाद आजकल नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं।

संगतकार कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 9 | संगतकार कविता  Summary | Quick revision Notes ch-9 Kshitij | EduGrown

संगतकार Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

‘संगतकार’ कविता गायन के मुख्य गायक का साथ देने वाले संगतकार के महत्त्व और उसकी अनिवार्यता की ओर संकेत करती है। वह मुख्य गायक की सफलता में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। संगतकार केवल गायन के क्षेत्र में ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि नाटक, फिल्म, संगीत, नृत्य आदि के लिए भी उपयोगी है। जब कोई मुख्य गायक अपने भारी स्वर में गाता है तब संगतकार का छोटा भाई या उसका कोई शिष्य अपनी सुंदर कमजोर कांपती आवाज़ से उसे और अधिक सुंदर बना देता है। युगों से संगतकार अपनी आवाज़ को मुख्य गायक के स्वर के साथ मिलाते ही रहे हैं। जब मुख्य गायक अंतरे की जटिल तान में खो चुका होता है या अपने ही सरगम को लांघ जाता है तब संगतकार ही स्थायी को संभाल कर आगे बढ़ाता है। जैसे वह उसे उसका बचपन याद दिला रहा हो। वही मुख्य गायक के गिरते हुए स्वर को ढाढ़स बंधाता है। कभी-कभी वह उसे यह अहसास दिलाता है कि गाने वाला अकेला नहीं है, बल्कि वह उसका साथ देने वाला था जो राग पहले गाया जा चुका है, वह फिर से गाया जा सकता है। वह मुख्य गायक के समान अपने स्वर को उँचा उठाने का प्रयत्न नहीं करता। इसे उसकी विफलता नहीं समझना चाहिए बल्कि उसकी मनुष्यता समझना चाहिए। वह ऐसा करके मुख्य गायक के प्रति अपने हृदय का सम्मान प्रकट करता है।

संगतकार Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

संगतकार कविता का भावार्थ – Sangatkar Class 10 Detailed Summary :

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती

वह आवाज सुंदर कमजोर काँपती हुई थी

वह मुख्य गायक का छोटा भाई है

या उसका शिष्य

या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार

मुख्य गायक की गरज में

वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीने काल से

भावार्थ :- कवि अपने इन पंक्तियों में कहता है की जब मुख्य गायक अपने चट्टान जैसे भारी स्वर में गाता है तब उसका संगतकार हमेशा उसका साथ देता है। वह आवाज मानो ऐसे प्रतीत हो रही है मानो बहुत ही कमजोर, कापंती हुई लेकिन बहुत ही सुन्दर थी जो मुख्य गायक के आवाज के साथ मिलकर उसकी प्रभावशीलता को और बढ़ा देते हैं। कवि को ऐसा लगता है की यह संगतकार गायक का कोई बहुत ही करीब का रिस्तेदार या पहचानने वाला है जो की उससे गायकी सिख रहा शिष्य है। और इस प्रकार वह बिना किसी के नजर में आये निरंतर अपना कार्य करते चला जाता है।

गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में

खो चुका होता है

या अपने ही सरगम को लाँघकर

चला जाता है भटकता हुअ एक अनहद में

तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है

जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान

जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन

जब वह नौसिखिया था।

भावार्थ :-  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने यह बताने का प्रयास किया है की जब कोई महान संगीतकार अपने गाने के लय में डूब जाता है तो उसे गाने के सुर ताल की भनक नहीं पड़ती और वह कभी कभी अपने गाने में भटक सा जाता है उसे आगे सुर कैसे पकड़ना है यह समझ नहीं आता और वह उलझ सा जाता है। तो ऐसे दुविधा के समय में भी उसका जो सहायक या संगतकार होता है वह निरंतर अपने कोमल एवं सुरीली आवाज में संगीत के सुर ताल को पकडे हुआ रहता है और मुख्य गायक को कहीं भटकने नहीं देता और संगीत के सुरताल को वापस पकड़ने में उसकी सहायता करता है। मानो मुख्य गायक अपना सामन पीछे छोड़ते हुए चला जाता है और संगीतकार उसे समेटा हुआ आगे बढ़ता है। और इससे मुख्य लेखक को उसके बचपन की याद आ जाती है जब वह संगीत सीखा करता था और स्वर अक्सर भूल जाया करता था।

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला

प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ

आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ

तभी मुख्य गायक को ढ़ाँढ़स बँधाता

कहीं से चला आता है संगीतकार का स्वर

कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ

यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है

और यह कि फिर से गाया जा सकता है

गाया जा चुका राग

भावार्थ :- इन पंक्तियों में कवि कहता है की जब मुख्य गायक ऊँचे स्वर में गाता-गाता थक जाता है और उसके अंदर गाने की इच्छा एवं ऊर्जा समाप्त हो जाती है और उसके स्वर निचे आने लगते हैं तब उस वक्त मुख्य गायक का हौसला बढ़ाने और और उसके स्वर को फिर से ऊपर उठाने के लिए सहायक का स्वर पीछे से सुनाई देता है। और यह सुनकर मुख्य गायक में फिर से ऊर्जा का संसार हो जाता है और वह अपनी धुन में गाता चला जाता है।

और कभी कभी तो वह सिर्फ इसलिए जाता है की मानो मुख्य गायक को यह अहसास दिला रहा हो की वह अकेला नहीं है और कभी कभी एक राग को दूबारा भी गाया जा सकता है। अगर आप कोई राग बिच में कहीं छूट जाए तो।

और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है

या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है

उसे विफलता नहीं

उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

भावार्थ : – इस पंक्ति में कवि ने एक सहायक के त्याग को दिखाया है जो खुद की प्रशिद्धि एवं मान सम्मान की परवाह किये बिना मुख्य गायक के साथ गाता चला जाता है। उसे तो इस बात की चिंता भी रहती है की कहीं वह मुख्य गायक से ज्यादा अच्छे स्वर में ना गा दे और इसी कारण वश उसके आवाज में हिचक साफ़ सुनाई देती है। और वह हमेशा यही कोशिश करता हैं एवं अपने आवाज को मुख्य गायक के आवाज से ज्यादा उठने नहीं देता यह उसकी विफलता नहीं बल्कि उसका बड्डपन एवं उसकी मनुष्यतता समझा जाना चाहिए।

Important Link

NCERT Solution –संगतकार

For Free Video Lectures Click here

Read More

कन्यादान कविता कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 8 | कन्यादान कविता Summary | Quick revision Notes ch-8 Kshitij | EduGrown

कन्यादान कविता   कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 8 | कन्यादान कविता  Summary | Quick revision Notes ch-8 Kshitij | EduGrown

कन्यादान Kanyadal Summary Class 10 Kshitij

कवि परिचय

ऋतुराज

इनका जन्म सन 1940 में भरतपुर में हुआ। राजस्थान विश्वविधालय, जयपुर से उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए किया। चालीस वर्षो तक अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन के बाद अब वे सेवानिवृत्ति लेकर जयपुर में रहते हैं। उनकी कविताओं में दैनिक जीवन के अनुभव का यथार्थ है और वे अपने आसपास रोजमर्रा में घटित होने वाले सामाजिक शोषण और विडंबनाओं पर निग़ाह डालते हैं, इसलिए उनकी भाषा अपने परिवेश और लोक जीवन से जुडी हुई है।

ऋतुराज कन्यादान कविता   कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 8 | कन्यादान कविता  Summary | Quick revision Notes ch-8 Kshitij | EduGrown

कन्यादान Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

कवि ने ‘कन्यादान’ में माँ-बेटी के आपसी संबंधों की घनिष्ठता को प्रतिपादित करते हुए नए सामाजिक मूल्यों की परिभाषा देने का प्रयत्न किया है। माँ अपनी युवा होती बेटी के लिए पहले कुछ और सोचती थी पर सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन के कारण अब कुछ और सोचती है। पहले उसके प्रति कुछ अलग तरह के डर के भाव छिपे हुए थे पर अब उसकी दिशा और मात्रा बदल गई है इसीलिए वह अपनी बेटी को परंपरागत उपदेश नहीं देना चाहती। उसके आदर्शों में भी परिवर्तन आ गया है। बेटी ही तो माँ की अंतिम पूंजी होती है क्योंकि वह उसके दुःख-सुख की पूंजी होती है। बेटी अभी पूरी तरह से बड़ी नहीं हुई। वह भोली-भाली और सरल थी। उसे सुखों का आभास तो होता था पर उसे जीवन के दुःखों की ठीक से पहचान नहीं थी। वह तो धुंधले प्रकाश में कुछ तुक और लयबद्ध पंक्तियों को पढ़ने का प्रयास मात्र करती है। माँ ने उसे समझाते हुए कहा कि उसे जीवन में संभल कर रहना पड़ेगा। पानी में झांककर अपने ही चेहरे पर न रीझने और आग से बच कर रहने की सलाह उसने अपनी बेटी को दी। आग रोटियां सेंकने के लिए होती हैं, न कि जलने के लिए। वस्त्रों और आभूषणों का लालच तो उसे जीवन के बंधन में डालने का कार्य करता है, माँ ने कहा कि उसे लड़की की तरह दिखाई नहीं देना चाहिए। उसे सजग, सचेत और दृढ़ होना चाहिए। जीवन की हर स्थिति का निर्भयतापूर्वक डट कर सामना करना आना चाहिए।

कन्यादान Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

1. कितना प्रामाणिक था उसका दुखलड़की को दान में देते वक़्तजैसे वही उसकी अंतिम पूंजी होलड़की अभी सयानी नहीं थीअभी इतनी भोली सरल थीकि उसे सुख का आभास होता थालेकिन दुख बाँचना नहीं आता थापाठिका थी वह धुंधले प्रकाश कीकुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की


व्याख्या – प्रस्तुत कविता में कवि कहते हैं कि कन्यादान के समय माँ का दुःख बहुत ही प्रामाणिक था।कन्यादान की रस्म में माँ विवाह के समय अपनी बेटी को किसी पराए को दान दे रही हैं।माँ के जीवन भर का लाड प्यार दुलार द्वारा सँवारी बेटी – उसकी अंतिम पूँजी थी।बेटी की उम्र ज्यादा नहीं है।उसे दुनियावी ज्ञान नहीं है।  वह बहुत ही सरल और सहृदय है। संसार में उसे केवल सुख का ही आभास था ,लेकिन ससुराल में जाने के बाद पुरुष प्रधान समाज द्वारा वैवाहिक जीवन कैसा होगा – इसी चिंताओं में माँ दुःख हैं।बेटी को केवल विवाह के सुरीले और मोहक पक्ष का ज्ञान था ,लेकिन कल्पना से इतर दुःख भी मिल सकता है। इस बात को लेकर माँ चिंतित है।

2. माँ ने कहा पानी में झाँककरअपने चेहरे में मत रीझानाआग रोटियाँ सेंकने के लिए हैजलने के लिए नहींवस्त्र और आभूषण शब्दिक भ्रमों की तरहबंधन हैं स्त्री-जीवन केमाँ ने कहा लड़की होनापर लड़की जैसी मत दिखाई देना।


व्याख्या –  माँ ,अपनी बेटी को सीख देते हुए कहती है कि बेटी तुम ससुराल में जाकर अपने सौंदर्य पर रीझ कर मत रह जाना। आग से सावधान रहना। आग का प्रयोग भोजन पकाने के लिए करना।  न की जलने के लिए।  तू सावधानी से रहना। पर अपने ऊपर अत्याचार न सहना। स्त्री जीवन में आभूषणों के मोह में न रहना। क्योंकि यह केवल एक बंधन है और स्त्री को मोह में फँसाती है।  माँ कहती है कि तू हमेशा की तरह निश्चल ,सरल रहना।  लेकिन लोक व्यवहार के प्रति सजग रहना ,जिससे तेरा कोई गलत लाभ न उठा सके। अन्यथा दुनिया के लोग तुझे मुर्ख बनाकर तेरा शोषण करेंगे। अतः बेटी तू सावधान रहना।

Important Link

NCERT Solution –कन्यादान

For Free Video Lectures Click here

Read More

छाया मत छूना कविता कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 7 | छाया मत छूना कविता Summary | Quick revision Notes ch-7 Kshitij | EduGrown

छाया मत छूना कविता   कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 7 | छाया मत छूना कविता  Summary | Quick revision Notes ch-7 Kshitij | EduGrown

कवि परिचय

गिरिजाकुमार माथुर

इनका जन्म सन 1918 में गुना, मध्य प्रदेश में हुआ था। इन्होने प्रारंभिक शिक्षा झांसी, उत्तर प्रदेश में ग्रहण करने के बाद एम.ए अंग्रेजी व एल.एल.बी की उपाधि लखनऊ से अर्जित की। शुरू में कुछ समय वकालत किया तथा बाद में दूरदर्शन और आकाशवाणी में कार्यरत हुए। इनकी मृत्यु 1994 में हुई।

गिरिजाकुमार माथुर | छाया मत छूना कविता   कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 7 | छाया मत छूना कविता  Summary | Quick revision Notes ch-7 Kshitij | EduGrown

छाया मत छूना Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

छाया मत छूना कविता मानव जीवन के संदर्भों से जुड़ी हुई है। हमारे जीवन में सुख आते हैं तो दुःख भी अपने रंग दिखाते हैं। मनुष्य को सुख अच्छे लगते हैं तो दु:ख परेशान करने वाले। व्यक्ति पुराने सुखों को याद करके वर्तमान के दुःखों को और अधिक बढ़ा लेते हैं। कवि की दृष्टि में ऐसा करना उचित नहीं है। इससे दुःखों की मात्रा बढ़ जाती है। सुख तो हमें सदा ही अच्छे लगते हैं। उनके द्वारा दी गई प्रसन्नताएँ मन पर देर तक छायी रहती हैं। प्रेम भरे क्षण भुलाने की कोशिश करने पर भी भूलते नहीं हैं। मनुष्य सुखों के पीछे जितना अधिक भागता है उतना ही अधिक भ्रम के जाल में उलझता जाता है। हर सुख के बाद दुःख अवश्य आता है। हर चांदनी के बाद अमावस्या भी तो छिपी रहती है। मनुष्य को जीवन की वास्तविकता को समझना चाहिए; उसे स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य के मन में छिपा साहस का भाव जब छिप जाता है तो उसे जीवन की राह दिखाई नहीं देती। मानव मन में छिपे दुःखों की सीमा का तो पता ही नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में सब कुछ नहीं मिलता। जो हमें वर्तमान में प्राप्त हो गया है हमें उसी को प्राप्त कर संतुष्ट होना चाहिए। जो अभी प्राप्त नहीं हुआ उसे भविष्य में प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए लेकिन पुरानी यादों से स्वयं को चिपकाए रखने का कोई लाभ नहीं है। उनसे तो दुःख बढ़ते हैं, घटते नहीं।

छाया मत छूना Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

छाया मत छूना कविता का भावार्थ- Chaya Mat Chuna Summary

छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
भूली सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।


छाया मत छूना कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि छाया मत छूना अर्थात अतीत की पुरानी यादों में जीने के लिए मना कर रहा है। कवि के अनुसार, जब हम अपने अतीत के बीते हुए सुनहरे पलों को याद करते हैं, तो वे हमें बहुत प्यारे लगते हैं, परन्तु जैसे ही हम यादों को भूलकर वर्तमान में वापस आते हैं, तो हमें उनके अभाव का ज्ञान होता है। इस तरह हृदय में छुपे हुए घाव फिर से हरे हो जाते हैं और हमारा दुःख बढ़ जाता है।

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुराने मीठे पलों को याद कर रहा है। ये सारी यादें उनके सामने रंग-बिरंगी छवियों की तरह प्रकट हो रही हैं, जिनके साथ उनकी सुगंध भी है। कवि को अपने प्रिय के तन की सुगंध भी महसूस होती है। यह चांदनी रात का चंद्रमा कवि को अपने प्रिय के बालों में लगे फूल की याद दिला रहा है। इस प्रकार हर जीवित क्षण जो हम जी रहे हैं, वह पुरानी यादों रूपी छवि में बदलता जाता है। जिसे याद करके हमें केवल दुःख ही प्राप्त हो सकता है, इसलिए कवि कहते हैं छाया मत छूना, होगा दुःख दूना।

यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन
छाया मत छूनामन, होगा दुख दूना।


छाया मत छूना कविता का भावार्थ :-  
इन पंक्तियों में कवि हमें यह सन्देश देना चाहते हैं कि इस संसार में धन, ख्याति, मान, सम्मान इत्यादि के पीछे भागना व्यर्थ है। यह सब एक भ्रम की तरह हैं।

कवि का मानना यह है कि हम अपने जीवन-काल में धन, यश, ख्याति इन सब के पीछे भागते रहते हैं और खुद को बड़ा और मशहूर समझते हैं। लेकिन जैसे हर चांदनी रात के बाद एक काली रात आती है, उसी तरह सुख के बाद दुःख भी आता है। कवि ने इन सारी भावनाओं को छाया बताया है। हमें यह संदेश दिया है कि इन छायाओं के पीछे भागने में अपना समय व्यर्थ करने से अच्छा है, हम वास्तविक जीवन की कठोर सच्चाइयों का सामना डट कर करें। यदि हम वास्तविक जीवन की कठिनाइयों से रूबरू होकर चलेंगे, तो हमें इन छायाओं के दूर चले जाने से दुःख का सामना नहीं करना पड़ेगा। अगर हम धन, वैभव, सुख-समृद्धि इत्यादि के पीछे भागते रहेंगे, तो इनके चले जाने से हमारा दुःख और बढ़ जाएगा।

दुविधा हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं,
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।


छाया मत छूना कविता का भावार्थ :- 
 कवि कहता है कि आज के इस युग में मनुष्य अपने कर्म पथ पर चलते-चलते जब रास्ता भटक जाता है और उसे जब आगे का रास्ता दिखाई नहीं देता, तो वह अपना साहस खो बैठता है। कवि का मानना है कि इंसान को कितनी भी सुख-सुविधाएं मिल जाएं वह कभी खुश नहीं रह सकता, अर्थात वह बाहर से तो सुखी दिखता है, पर उसका मन किसी ना किसी कारण से दुखी हो जाता है। कवि के अनुसार, हमारा शरीर कितना भी सुखी हो, परन्तु हमारी आत्मा के दुखों की कोई सीमा नहीं है। हम तो किसी भी छोटी-सी बात पर खुद को दुखी कर के बैठ जाते हैं। फिर चाहे वो शरद ऋतू के आने पर चाँद का ना खिलना हो या फिर वसंत ऋतू के चले जाने पर फूलों का खिलना हो। हम इन सब चीजों के विलाप में खुद को दुखी कर बैठते हैं।

इसलिए कवि ने हमें यह संदेश दिया है कि जो चीज़ हमें ना मिले या फिर जो चीज़ हमारे बस में न हो, उसके लिए खुद को दुखी करके चुपचाप बैठे रहना, कोई समाधान नहीं हैं, बल्कि हमें यथार्थ की कठिन परिस्थितियों का डट कर सामना करना चाहिए एवं एक उज्जवल भविष्य की कल्पना करनी चाहिए।

Important Link

NCERT Solution – छाया मत छूना कविता

For Free Video Lectures Click here

Read More

यह दंतुरित मुसकान, फसल कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 6 | यह दंतुरित मुसकान, फसल कविता का सार Summary | Quick revision Notes ch-6 Kshitij | EduGrown

यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 6 | यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार  Summary | Quick revision Notes ch-6 Kshitij | EduGrown

कवि परिचय

नागार्जुन

इनका जन्म बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में सन  1911 को हुआ था। इनकी आरंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में हुई, बाद में अध्यन के लिए बनारस और कलकत्ता गए। 1936 में वे श्रीलंका गए और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। दो साल प्रवास के बाद 1938 में स्वदेस लौट आये। घुमक्कड़ी और अक्खड़ स्वभाव के धनी स्वभाव के धनी नागार्जुन ने अनेक बार सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। सन 1998 में इनकी मृत्यु हो गयी।

यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 6 | यह दंतुरित मुसकान, फसल  कविता का सार  Summary | Quick revision Notes ch-6 Kshitij | EduGrown

यह दंतुरित मुसकान, फसल Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

1. यह दंतुरित मुसकान
कवि अपने छोटे बच्चे की उस मुसकान को देख कर अपार प्रसन्न हैं जिसके मुँह में अभी छोटे-छोटे दाँत निकले हैं। कवि को उस की मुसकान जीवन का संदेश प्रतीत होती है। उस मुसकान के सामने कठोर से कठोर मन भी पिघल सकता है। उस की मुसकान तो किसी मृतक में भी नई जान फूंक सकती है। धूल-मिट्टी से सना हुआ नन्हा- सा बच्चा तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कमल का सुंदर-कोमल फूल तालाब छोड़ कर उसकी झोंपड़ी में खिल उठा हो। उसे छू कर तो पत्थर भी जल बन जाता है। उसे छू कर ही शेफालिका के फूल झड़ने लगते हैं। नन्हा-सा बच्चा कवि को नहीं पहचान पाया इसलिए एक टक उसकी तरफ देखता रहा। कवि मानता है कि उस बच्चे की मोहिनी छवि और उसके सुंदर दाँतों को वह उसकी माँ के कारण देख पाया था। वह माँ धन्य है और बच्चे की मुसकान भी धन्य है। वह स्वयं तो इधर-उधर जाने वाला प्रवासी था इसलिए उसकी पहचान नन्हे बच्चे के साथ नहीं हो सकी थी। जब उसकी माँ कहती तब वह कनखियों से कवि की ओर देखता और उसकी छोटे-छोटे दाँतों से सजी मुस्कान कवि के मन को मोह लेती थी।

2. फसल
फसलें हमारे जीवन की आधार हैं। ‘फरल’ शब्द सुनते ही हमारी आँखों के सामने खेतों में लहलहाती फसलें आ जाती हैं। फसल को पैदा करने के लिए न जाने कितने तत्त्व और कितने हाथों का परिश्रम लगता है। फसल प्रकृति और मनुष्य के आपसी सहयोग से ही संभव होती है। न जाने कितनी नदियों का पानी और लाखों-करोड़ों हाथों का परिश्रम इसे उत्पन्न करता है। खेतों की उपजाऊ मिट्टी इसे शक्ति देती है। सूर्य की किरणें इसे जीवन देती हैं और हवा इसे थिरकना सिखाती है। फसल अनेक दृश्य- अदृश्य शक्तियों के मिले-जुले बल के कारण उत्पन्न होती है।

यह दंतुरित मुसकान, फसल Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

यह दंतुरित मुसकान- (Nagarjun Ki Kavita Yah Danturit Muskan)

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात….
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण, पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने एक दांत निकलते बच्चे की मधुर मुस्कान का मन मोह लेने वाला वर्णन किया है। कवि के अनुसार एक बच्चे की मुस्कान मृत आदमी को भी ज़िन्दा कर सकती है। अर्थात कोई उदास एवं निराश आदमी भी अपना गम भूलकर मुस्कुराने लगे। बच्चे घर के आँगन में खेलते वक्त खुद को गन्दा कर लेते हैं, धूल से सन जाते हैं, उनके गालों पर भी धूल लग जाती है।

कवि को यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो किसी तालाब से चलकर कमल का फूल उनकी झोंपड़ी में खिला हुआ है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर यह बालक किसी पत्थर को छू ले, तो वह भी पिघलकर जल बन जाए और बहने लगे। अगर वो किसी पेड़ को छू ले, फिर चाहे वो बांस हो या फिर बबूल, उससे शेफालिका के फूल ही झरेंगे।

अर्थात बच्चे के समक्ष कोई कोमल हृदय वाला इंसान हो, या फिर पत्थरदिल लोग। सभी अपने आप को बच्चे को सौंप देते हैं और वह जो करवाना चाहता है, वो करते हैं एवं उसके साथ खेलते हैं।

तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :-  
शिशु जब पहली बार कवि को देखता है, तो वह उसे पहचान नहीं पाता और कवि को एकटक बिना पलक झपकाए देखने लगता है। कुछ समय तक देखने के पश्चात् कवि कहता है – क्या तुम मुझे पहचान नहीं पाए हो? कितने देर तुम इस प्रकार बिना पलक झपकाए एकटक मुझे देखते रहोगे? कहीं तुम थक तो नहीं गए मुझे इस तरह देखते देखते? अगर तुम थक गए हो, तो मैं अपनी आँख फेर लेता हूँ, फिर तुम आराम कर सकते हो।

अगर हम इस मुलाकात में एक-दूसरे को पहचान नहीं पाए तो कोई बात नहीं। तुम्हारी माँ हमें मिला देगी और फिर मैं तुम्हें जी भर देख सकता हूँ। तुम्हारे मुख मंडल को निहार सकता हूँ। तुम्हारी इस दंतुरित मुस्कान का आनंद ले सकता हूँ।

धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुत्र के बारे में बताता है कि उसके नए-नए दांत निकलना शुरु हुए हैं। कवि बहुत दिनों बाद अपने घर वापस लौटा है, इसलिए उसका पुत्र उसे पहचान नहीं पा रहा। आगे कवि लिखते हैं कि बालक तो अपनी मनमोहक छवि कारण धन्य है ही और उसके साथ उसकी माँ भी धन्य है, जिसने उसे जन्म दिया।

आगे कवि कहते हैं कि तुम्हारी माँ रोज तुम्हारे दर्शन का लाभ उठा रही है। एक तरफ मैं दूर रहने के कारण तुम्हारे दर्शन भी नहीं कर पाता और अब तुम्हें पराया भी लग रहा हूँ। एक तरह से यह ठीक भी है, क्योंकि मुझसे तुम्हारा संपर्क ही कितना है। यह तो तुम्हारी माँ की उँगलियाँ ही हैं, जो तुम्हें रोज मधुर-स्वादिष्ट भोजन कराती है। इस तरह तिरछी नज़रों से देखते-देखते जब हमारी आँख एक-दूसरे से मिलती है, मेरी आँखों में स्नेह देखकर तुम मुस्कुराने लगते हो।  यह मेरे मन को मोह लेता है।

फसलNagarjun Ki Kavita Phasal

एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढ़ेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल किसी एक व्यक्ति के परिश्रम या फिर केवल जल या मिट्टी से नहीं उगती है। इसके लिए बहुत अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है।  इसी के बारे में आगे लिखते हुए कवि ने कहा है कि एक नहीं दो नहीं, लाखों-लाखों नदी के पानी के मिलने से यह फसल पैदा होती है।

किसी एक नदी में केवल एक ही प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन जब कई तरह की नदियां आपस में मिलती हैं, तो उनमें सारे गुण आ जाते हैं, जो बीजों को अंकुरित होने में सहायता करते हैं और फसल खिल उठती है। ठीक इसी प्रकार, केवल एक या दो नहीं, बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों की मेहनत और पसीने से यह धरती उपजाऊ बनती है और उसमे बोए गए बीज अंकुरित होते हैं। खेतों में केवल एक खेत की मिट्टी नहीं बल्कि कई खेतों की मिट्टी मिलती है, तब जाकर वह उपजाऊ बनते हैं।

फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!


नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- 
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हमसे यह प्रश्न करता है कि यह फसल क्या है? अर्थात यह कहाँ से और कैसे पैदा होता है? इसके बाद कवि खुद इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि फसल और कुछ नहीं बल्कि नदियों के पानी का जादू है। किसानों के हाथों के स्पर्श की महिमा है। यह मिट्टियों का ऐसा गुण है, जो उसे सोने से भी ज्यादा मूल्यवान बना देती है। यह सूरज की किरणों एवं हवा का उपकार है। जिनके कारण यह फसल पैदा होती है।

अपनी इन पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल कैसे पैदा होती है? हम इसी अनाज के कारण ज़िन्दा हैं, तो हमें यह ज़रूर पता होना चाहिए कि आखिर इन फ़सलों को पैदा करने में नदी, आकाश, हवा, पानी, मिट्टी एवं किसान के परिश्रम की जरूरत पड़ती है। जिससे हमें उनके महत्व का ज्ञान हो।

Important Link

NCERT Solution – यह दंतुरित मुसकान, फसल

For Free Video Lectures Click here

Read More

उत्साह और अट नहीं रही कविता का सार कविता | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 5 | उत्साह और अट नहीं रही कविता का सार Summary | Quick revision Notes ch-5 Kshitij | EduGrown

उत्साह और अट नहीं रही – भावार्थ NCERT Class 10th Hindi

कवि परिचय

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

 इनका जन्म बंगाल के महिषादल में सन 1899 में हुआ था। ये मूलतः गढ़ाकोला, जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। इनकी औपचारिक शिक्षा नवीं तक महिषादल में ही हुई। इन्होने स्वंय अध्ययन कर संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी का ज्ञान अर्जित किया। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की विचारधारा ने इनपर गहरा प्रभाव डाला। सन 1961 में इनकी मृत्यु हुई।

उत्साह और अट नहीं रही - भावार्थ NCERT Class 10th Hindi

उत्साह, अट नहीं रही है Class 10 Hindi Short Summary – क्षितिज भाग 2

उत्साह


प्रस्तुत कविता एक आह्वाहन गीत है। इसमें कवि बादल से घनघोर गर्जन के साथ बरसने की अपील कर रहे हैं। बादल बच्चों के काले घुंघराले बालों जैसे हैं। कवि बादल से बरसकर सबकी प्यास बुझाने और गरज कर सुखी बनाने का आग्रह कर रहे हैं। कवि बादल में नवजीवन प्रदान करने वाला बारिश तथा सबकुछ तहस-नहस कर देने वाला वज्रपात दोनों देखते हैं इसलिए वे बादल से अनुरोध करते हैं कि वह अपने कठोर वज्रशक्ति को अपने भीतर छुपाकर सब में नई स्फूर्ति और नया जीवन डालने के लिए मूसलाधार बारिश करे।
आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादल को देखकर कवि को लगता है की वे बेचैन से हैं तभी उन्हें याद आता है कि समस्त धरती भीषण गर्मी से परेशान है इसलिए आकाश की अनजान दिशा से आकर काले-काले बादल पूरी तपती हुई धरती को शीतलता प्रदान करने के लिए बेचैन हो रहे हैं। कवि आग्रह करते हैं की बादल खूब गरजे और बरसे और सारे धरती को तृप्त करे।

अट नहीं रही

प्रस्तुत कविता में कवि ने फागुन का मानवीकरण चित्र प्रस्तुत किया है। फागुन यानी फ़रवरी-मार्च के महीने में वसंत ऋतू का आगमन होता है। इस ऋतू में पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और नए पत्ते आते हैं। रंग-बिरंगे फूलों की बहार छा जाती है और उनकी सुगंध से सारा वातावरण महक उठता है। कवि को ऐसा प्रतीत होता है मानो फागुन के सांस लेने पर सब जगह सुगंध फैल गयी हो। वे चाहकर भी अपनी आँखे इस प्राकृतिक सुंदरता से हटा नही सकते।
इस मौसम में बाग़-बगीचों, वन-उपवनों के सभी पेड़-पौधे नए-नए पत्तों से लद गए हैं, कहीं यहीं लाल रंग के हैं तो कहीं हरे और डालियाँ अनगिनत फूलों से लद गए हैं जिससे कवि को ऐसा लग रहा है जैसे प्रकृति देवी ने अपने गले रंग बिरंगे और सुगन्धित फूलों की माला पहन रखी हो। इस सर्वव्यापी सुंदरता का कवि को कहीं ओऱ-छोर नजर नही आ रहा है इसलिए कवि कहते हैं की फागुन की सुंदरता अट नही रही है।

उत्साह, अट नहीं रही है Class 10 Hindi Detailed Summary – क्षितिज भाग 2

उत्साह कविता का सार 

बादल, गरजो!घेर घेर घोर गगन,

धाराधर ओ!ललित ललित, काले घुँघराले,बाल कल्पना।

के-से पाले,विद्युत छवि उर में, कवि,

नवजीवन वालेवज्र छिपा नूतन कविताफिर भर दो-बादल गरजो!


प्रसंग– यहाँ कवि निराला ने बादल को संबोधित किया है। बादल का आहवान करते हुए कवि ने कहा है की  –उत्साह का भावार्थ (सार)– उत्साह कविता में कवि कहता है की हे बादल! तुम गरजना करते हुए आओ। तुम उमड़-घुमड़ कर ऊँची आवाज करते हुए संपूर्ण आकाश को घेरते हुए छा जाओ। अरे बादल! तुम सुन्दर, सुन्दर और घुमावदार काले रंग वाले हो और तुम बच्चों की विचित्र कल्पनाओं की पतवारों तथा पालों के समान लगते हो। हे नवजीवन प्रदान करने वाले बादल रूपी कवि! तुम्हारे हृदय में बिजली की कांति और वज्र के समान कठोर गर्जना छिपी हुई है। तुम अपनी बिजली की चमक और भीषण गर्जना से जनमानस में एक नई चेतना का संचार कर दो। कवि बादल के गर्जने का आह्वान करता है।



विकल विकल, उन्मन थे उन्मन विश्व के निदाघ के सकल जन, 

आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!तप्त धरा,

जल से फिर शीतल कर दो- बादल, गरजो!


प्रसंग– यहाँ कवि ने बादल को नयी कल्पना और नये अंकुर के लिए विनाश, विप्लव और क्रांति चेतना को संभव करने वाला बताया है। निराला जी का कहना है कि-
उत्साह का भावार्थ(सार)– उत्साह कविता में कवि कहता है की संसार के सभी लोग गर्मी के कारण व्याकुल और अनमने हो रहे थे। संसार के संपूर्ण मानव-समुदाय में बदलाव के परिणामस्वरूप व्याकुलता और अनमनी परिस्थितियों का वातावरण बना हुआ था। साहित्य के द्वारा ही समाज में चेतना का भाव आने का भरोसा बना है। हे कभी न समाप्त होने बादल! तुम्हारा अनजान दिशा से आगमन हुआ है। यह धरती गर्मी से तप रही है. तुम जल बरसाकर इसे शीतल कर दो. साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को इस प्रकार प्रेरित करें कि संसार में विचारों के मतभेदों से होने वाली क्रांतियों का वातावरण शांत हो जाए। हे बादल! तुम घोर गर्जन करते हुए आकाश मण्डल में छा जाओ।


अट नहीं रही है का सार 

अट नहीं रही है

आभा फागुन की तनसट नहीं रही है।

कहीं साँस लेते हो,

घर-घर भर देते हो,

उड़ने को नभ में तुमपर-पर कर देते हो,

आँख हटाता हूँ तोहट नहीं रही है।

पत्तों से लदी डालकहीं हरी,

कहीं लाल,

कहीं पड़ी है उर मेंमंद-गंध-पुष्प-माल,

पाट-पाट शोभा-श्रीपट नहीं रही है।

प्रसंग– अट नहीं रही है कविता में कवि ने फागुन की मादकता को प्रकट करते हुए फागुन की सर्वव्यापक सुंदरता का सजीव चित्रण किया है। 


अट नहीं रही है का भावार्थ (सार)– अट नहीं रही है कविता में कवि कहता है कि फागुन के महीने की कांति कहीं भी समा नहीं रही है। फागुन में प्राकृतिक उपमानों का सौंदर्य इतना अनुपम और मनोहारी हो गया है कि वह पूरी तरह से शरीर के अन्दर नहीं समा पा रहा है। सर्वत्र सुंदर एवं हृदयग्राही नज़ारे बिखरे हुए हैं, वे सभी एक साथ मन में नहीं बसाए जा सकते हैं।
 अट नहीं रही है कविता में कवि निराला फागुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे फागुन! जहाँ कहीं भी साँसे ली जाती है वहीं से सुगंध आती है। फागुन ने ही सुगंध से परिपूर्ण आकाश में उड़ने के लिए सभी को पंख लगा दिए हैं। फागुन के महीने में सभी प्राणियों पर मस्ती का वातावरण छा जाता है और प्रसन्नता के कारण स्वयं को हल्का अनुभव करते हैं। चारों तरफ इतना अधिक सौंदर्य फैल गया है यदि मैं उससे अपनी आँखों को हटाना चाहता हूँ तो भी इतना विवश हूँ कि चाहते हुए भी मैं अपनी आँखें नहीं हटा पा रहा हूँ।
अट नहीं रही है कविता में कवि कहता है कि फागुन के महीने में चारों तरफ हरियाली छाई हुई है। पेड़ों की डालियाँ हरे और किसलयी लाल रंग की पत्तियों से आच्छादित हैं। कहीं पेड़-पौधों की छाती पर मंद-सुगंध से महकते फूलों की मालाएँ सुशोभित हो रही है। पेड़-पौधे खिले हुए सुगंधित फूलों से लद जाते हैं। प्रकृति का एक-एक अंग सौंदर्य से परिपूर्ण है और वह सुंदरता इतनी अधिक है कि उन जगहों पर समा नहीं रही है।

Important Link

NCERT Solution – उत्साह, अट नहीं रही है

For Free Video Lectures Click here

Read More

आत्मकथ्य कविता का सार कविता | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 4 | आत्मकथ्य कविता का सार Summary | Quick revision Notes ch-4 Kshitij | EduGrown

आत्मकथ्य Class 10 Hindi  कविता का सार ( Atmakathya summary )

कवि परिचय

जयशंकर प्रसाद

इनका जन्म सन 1889 में वाराणसी में हुआ था। काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में वे पढ़ने गए परन्तु स्थितियां अनुकूल ना होने के कारण आँठवी से आगे नही पढ़ पाए। बाद में घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फारसी का अध्ययन किया। छायावादी काव्य प्रवृति के प्रमुख कवियों में ये एक थे। इनकी मृत्यु सन  1937 में हुई।

जयशंकर प्रसाद आत्मकथ्य Class 10 Hindi  कविता का सार

आत्मकथ्य Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

मुंशी प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका ‘हंस’ में छापने के लिए श्री जयशंकर प्रसाद से आत्मकथा लिखने का आग्रह किया था पर उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया था। उन्होंने आत्मकथा न लिख कर कविता के रूप में ‘आत्मकथ्य’ लिखा था, जो सन् 1932 में ‘हंस’ में छपा था। कवि ने इस कविता में जीवन के यथार्थ को प्रकट करने के साथ-साथ अनेक उन अभावों को भी लिखा था, जिन्हें उन्होंने झेला था। उन्होंने माना था कि उनका जीवन किसी भी सामान्य व्यक्ति के जीवन की तरह सरल और सीधा था जिसमें कुछ भी विशेष नहीं था वह लोगों की वाहवाही लूटने और उन्हें रोचक लगने वाला नहीं था।

जीवन रूपी उपवन में मन रूपी भंवरा गुनगुना कर चाहे अपनी-अपनी कहानी कहता हो पर उसके आस-पास पेड़ पौधों की न जाने कितनी पत्तियाँ मुरझा कर बिखरती रहती हैं। इस नीले आकाश के नीचे न जाने कितने जीवन-इतिहास रचे जाते हैं पर ये व्यंग्य से भरे होने के कारण पीड़ा को प्रकट करते हैं। क्या इन्हें सुन कर सुख पाया जा सकता है ? मेरा जीवन तो खाली गागर के समान व्यर्थ है, अभावग्रस्त है। इस संसार में व्यक्ति स्वार्थ भरा जीवन जीते हैं। वे दूसरों के सुखों को छीनकर स्वयं सुखी होना चाहते हैं। यह जीवन की विडंबना है। कवि दूसरों के धोखे और अपनी पीड़ा की कहानी नहीं सुनाना चाहता। वह नहीं समझता कि उसके पास दूसरों को सुनाने के लिए कोई मीठी बातें हैं। उसे अपने जीवन में सुख प्रदान करने वाली मीठी-अच्छी बातें दिखाई नहीं देतीं। उसे प्राप्त होने वाले सुख तो आधे रास्ते से ही दूर हो जाते हैं। उसकी यादें तो थके हुए यात्री के समान हैं जिसमें कहीं सुखद यादें नहीं हैं। कोई भी उसके मन में छिपी दुःख भरी बातों को क्यों जानना चाहेगा। उसके छोटे-से जीवन में कोई बड़ी उपलब्धियां नहीं हैं। इसलिए कवि अपनी कहानियां न सुनाकर केवल दूसरों की बातें सुनना चाहता है। वह चुप रहना चाहता है। कवि को अपनी आत्मकथा भोली-भाली और सीधी-सादी प्रतीत होती है। उसके हृदय में छिपी हुई पीड़ाएं मौन-भाव से थक कर सो गई थीं जिन्हें कवि जगाना उचित नहीं समझता। वह नहीं चाहता कि कोई उसके जीवन के कष्टों को जाने।

आत्मकथ्य Class 10 Hindi  कविता का सार (Detailed Summary )

मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत नीलिमा में असंख्य जीवन इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य मलिन उपहास

तब भी कहते हो कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती।


व्याख्या – भँवरे गुनगुनाकर पता नहीं अपनी कौन सी कहानी कहने की कोशिश करते हैं। शायद उन्हें नहीं पता है कि जीवन तो नश्वर है जो आज है और कल समाप्त हो जाएगा। पेड़ों से मुरझाकर गिर रही पत्तियाँ शायद जीवन की नश्वरता का प्रतीक हैं। मनुष्य जीवन भी ऐसा ही है; क्षणिक।इसलिए इस जीवन की कहानी सुनाने से क्या लाभ। यह संसार अनंत है जिसमे कितने ही जीवन के इतिहास भरे पड़े हैं। इनमें से अधिकतर एक दूसरे पर घोर कटाक्ष करते ही रहते हैं। इसके बावजूद पता नहीं तुम मेरी कमजोरियों के बारे में क्यों सुनना चाहते हो। मेरा जीवन तो एक खाली गागर की तरह है जिसके बारे में सुनकर तुम्हें शायद ही आनंद आयेगा।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों को दिखलाऊँ मैं।


व्याख्या –  मेरे जीवन की कमियों को सुनकर ऐसा न हो कि तुम ये समझने लगो कि तुम्हारे जीवन में सबकुछ अच्छा ही हुआ और मेरा जीवन हमेशा एक कोरे कागज की तरह था। कवि का कहना है कि वे इस दुविधा में भी हैं कि दूसरे की कमियों को दिखाकर उनकी हँसी उड़ाएँ या फिर अपनी कमियों को जगजाहिर कर दें। 

उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिलाकर हँसते होने वाली उन बातों की।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।


व्याख्या –  कवि का कहना है कि उन्होंने कितने स्वप्न देखे थे, कितनी ही महात्वाकांक्षाएँ पाली थीं। लेकिन सारे सपने जल्दी ही टूट गये। ऐसा लगा कि मुँह तक आने से पहले ही निवाला गिर गया था। उन्होंने जितना कुछ पाने की हसरत पाल रखी थी, उन्हें उतना कभी नहीं मिला। इसलिए उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं कि जीवन की सफलताओं या उपलब्धियों की उज्ज्वल गाथाएँ बता सकें।

जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनि उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

कभी कोई ऐसा भी था जिसके चेहरे को देखकर कवि को प्रेरणा मिलती थी। लेकिन अब उसकी यादें ही बची हुई हैं। अब मैं तो मैं एक थका हुआ राही हूँ जिसका सहारा केवल वो पुरानी यादें हैं।


सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

इसलिए किसी को भी इसका कोई हक नहीं है कि मुझे कुरेद कर मेरे जख्मों को देखे। मेरा जीवन इतना भी सार्थक नहीं कि मैं इसके बारे में बड़ी-बड़ी कहानियाँ सुनाता फिरूँ। इससे अच्छा तो यही होगा कि मैं मौन रहकर दूसरे के बारे में सुनता रहूँ। कवि का कहना है कि उनकी मौन व्यथा थकी हुई है और शायद अभी उचित समय नहीं आया है कि वे अपनी आत्मकथा लिख सकें।

Important Link

NCERT Solution – आत्मकथ्य

For Free Video Lectures Click here

Read More

सवैया देव Class 10 Hindi कविता का सार कविता | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 3 | सवैया देव Class 10 Hindi कविता का सार Summary | Quick revision Notes ch-3 Kshitij | EduGrown

सवैया देव Class 10 Hindi  कविता का सार कविता  | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 3 | सवैया देव Class 10 Hindi  कविता का सार  Summary | Quick revision Notes ch-3 Kshitij | EduGrown

कवित्त-सवैया देव Class 10 Hindi  कविता का सार

कवि परिचय

देव

इनका जन्म इटावा, उत्तर प्रदेश में सन 1673 में हुआ था। उनका पूरा नाम देवदत्त दिवेदी था। देव के अनेक आश्रयदाताओं में औरंगज़ेब के पुत्र आजमशाह भी थे परन्तु इन्हे सबसे अधिक संतोष और सम्मान उनकी कविता के गुणग्राही आश्रयदाता भोगीलाल से प्राप्त हुआ। देव रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं। अलंकारिता और श्रृंगारिकता  काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इनकी काव्य ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। इनकी मृत्यु सन 1767 में हुई।

कवित्त-सवैया देव Class 10 Hindi  कविता का सार (Short Summary )

देव के द्वारा रचित कवित्त-सवैयों में जहाँ एक ओर रूप-सुंदरता का अलंकारिक चित्रण किया गया है तो वहाँ दूसरी ओर प्रेम और प्रकृति के प्रति मनोरम भाव अभिव्यक्त किए गए हैं। पहले सवैये में श्री कृष्ण के सौंदर्य का चित्रण किया गया है। इसमें उनका लौकिक रूप नहीं है, बल्कि सामंती वैभव दिखाया गया है। उनके पाँवों में नूपुर मधुर ध्वनि उत्पन्न करते हैं और कमर में बंधी किंकिनि मीठी धुन-सी पैदा करती है। उनके सांवले रंग पर पीले वस्त्र और गले में फूलों की माला शोभा देती है। उन के माथे पर सुंदर मुकुट है और चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान चांदनी के समान बिखरी हुई है। इस संसार रूपी मंदिर में उनकी शोभा दीपक के समान फैली हुई है। दूसरे कवित्त में बसंत को बालक के रूप में दिखाकर प्रकृति के साथ उस का संबंध जोड़ा गया है। बालक रूपी बसंत पेड़ों के नए-नए पत्तों के पलने पर झूलता है और तरह-तरह के फूल उन के शरीर पर ढीले-ढाले वस्त्रों के रूप में सजे हुए हैं। हवा उन्हें झुलाती है तो मोर और तोते उस से बातें करते हैं। कोयल उसे बहलाती है। कमल की कली रूपी नायिका उसकी नज़र उतारती है। कामदेव के बालक बसंत को सुबह-सवेरे गुलाब चुटकी दे-दे कर जगाती है। तीसरे कवित्त में पूर्णिमा की रात में चांद तारों से भरे आकाश की शोभा का वर्णन किया गया है। चांदनी रात की शोभा को दर्शाने के लिए कवि ने दूध में फेन जैसे पारदर्शी बिंबों का प्रयोग किया है। चांदनी बाहर से भीतर तक सर्वत्र फैली है। तारे की तरह झिलमिलाती राधा अनूठी दिखाई 1. देती है। उस के शरीर का अंग-प्रत्यंग अद्भुत छटा से युक्त है। चांदनी जैसे रंग वाली राधा चांदनी रात में स्फटिक के महल में वह छिपी-सी रहती है।

कवित्त-सवैया देव Class 10 Hindi  कविता का सार (Detailed Summary )

कवित्त-सवैया देव Class 10 Hindi  कविता का सार (Detailed Summary )

सवैया

पाँयनि नूपुर मंजु बजै, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।

माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई।

जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह ‘देव’ सहाई॥


व्याख्या – प्रस्तुत सवैया में कवी देव ने श्रीकृष्ण के राजसी रूप का चित्रण किया है . कृष्ण के पैरों की पायल मधुर ध्वनि पैदा कर रही है . उनकी कमर में बंधी करधनी किनकिना रही है . श्रीकृष्ण के साँवले शरीर पर पीले वस्त्र सुसोभित हो रहे हैं .उनके ह्रदय पर वनमाला सुशोभित हो रही है . उनके सिर पर मुकुट है तथा उनकी बड़ी बड़ी चंचलता से पूर्ण है . उनका मुख चंद्रमा के समान पूर्ण है .कवी कहते हैं कि कृष्ण संसार रूपी मंदिर में सुन्दर दीपक के समान प्रकाशमान है . अतः कृष्ण समस्त संसार को प्रकाशित कर रहे हैं . 


कवित्त

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।

पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’,कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।

।पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।

मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥


व्याख्या –  प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने वसंत ऋतू का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है . उन्होंने वसंत की कल्पना कामदेव के नवशिशु के रूप में की है . पेड़ की डाली बालक का झुला है .वृक्षों के नए पत्ते पलने पर पलने वाले बच्चे के लिए बिछा हुआ है .हवा स्वयं आकर बच्चे को झुला रही है . मोर और तोता मधुर स्वर में बालक का बालक का मन बहला रहे हैं .कोयल बालक को हिलाती और तालियाँ बजाती है . कवि कहते हैं कि कमल के फूलों से कलियाँ मानो पर अपने सिरपर पराग रूपी पल्ला की हुई है ,ताकि बच्चे पर किसी की नज़र न लगे .इस वातावरणमें कामदेव का बालक वसंत इस प्रकार बना हुआ है की मानो वह प्रातःकाल गुलाब रूपी चुटकी बजा बजाकर जगा रही है . 

कवित्त

फटिक सिलानि सौं सुधारयौ सुधा मंदिर,उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।

बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’,दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।

तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।

आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद॥


व्याख्या –  प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने शरदकालीन पूर्णिमा की रात का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है .चांदनी रात का चंद्रमा बहुत ही उज्जवल और शोभामान हो रहा है .आकाश स्फटिक पत्थर से बने मंदिर के समान लग रहा है . उसकी सुन्दरता सफ़ेद दही के समान उमड़ रही है .मंदिर के आँगन में दूध के झाग के समान चंद्रमा के किरने के समान विशाल फर्श बना हुआ है . आकाश में फैले मंदिर में शीशे के समान पारदर्शी लग रहा है .चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेरता ,कृष्ण की प्रेमिका राधा के प्रतिबिम्ब के समान प्यारा लग रहा है . 

Important Link

NCERT Solution – कवित्त-सवैया देव

For Free Video Lectures Click here

Read More

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद-तुलसीदास कविता | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 2 | राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद-तुलसीदास Summary | Quick revision Notes ch-2 Kshitij | EduGrown

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद-तुलसीदास कविता  | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 2 | राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद-तुलसीदास   Summary | Quick revision Notes ch-2 Kshitij | EduGrown

पाठ-राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद-तुलसीदास (Ram-lakshman-parsuram-samwad Summary)

कवि परिचय

तुलसीदास

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में सन 1532 में हुआ था। तुलसी का बचपन  संघर्षपूर्ण था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही माता-पिता से उनका बिछोह हो गया। कहा जाता है की गुरुकृपा से उन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। वे मानव-मूल्यों के उपासक कवि थे। रामभक्ति परम्परा में तुलसी अतुलनीय हैं।

पाठ-राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद-तुलसीदास

ये चौपाइयाँ और दोहे रामचरितमानस के बालकांड से ली गईं हैं। यह प्रसंग सीता स्वयंवर में राम द्वारा शिव के धनुष के तोड़े जाने के ठीक बाद का है। शिव के धनुष के टूटने से इतना जबरदस्त धमाका हुआ कि उसे दूर कहीं बैठे परशुराम ने सुना। परशुराम भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे इसलिए उन्हें बहुत गुस्सा आया और वे तुरंत ही राजा जनक के दरबार में जा पहुँचे। क्रोधित परशुराम उस धनुष तोड़ने वाले अपराधी को दंड देने की मंशा से आये थे। यह प्रसंग वहाँ पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच हुए संवाद के बारे में है।

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥

परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण कहते हैं कि हे नाथ जिसने शिव का धनुष तोड़ा होगा वह आपका ही कोई सेवक होगा। इसलिए आप किसलिए आये हैं यह मुझे बताइए। इस पर क्रोधित होकर परशुराम कहते हैं कि सेवक तो वो होता है जो सेवा करे, इस धनुष तोड़ने वाले ने तो मेरे दुश्मन जैसा काम किया है और मुझे युद्ध करने के लिए ललकारा है।

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाइ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस किन्हि गोसाईँ॥

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार्।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

वे फिर कहते हैं कि हे राम जिसने भी इस शिवधनुष को तोड़ा है वह वैसे ही मेरा दुश्मन है जैसे कि सहस्रबाहु हुआ करता था। अच्छा होगा कि वह व्यक्ति इस सभा में से अलग होकर खड़ा हो जाए नहीं तो यहाँ बैठे सारे राजा मेरे हाथों मारे जाएँगे। यह सुनकर लक्ष्मण मुसकराने लगे और परशुराम का मजाक उड़ाते हुए बोले कि मैंने तो बचपन में खेल खेल में ऐसे बहुत से धनुष तोड़े थे लेकिन तब तो किसी भी ऋषि मुनि को इसपर गुस्सा नहीं आया था। इसपर परशुराम जवाब देते हैं कि अरे राजकुमार तुम अपना मुँह संभाल कर क्यों नहीं बोलते, लगता है तुम्हारे ऊपर काल सवार है। वह धनुष कोई मामूली धनुष नहीं था बल्कि वह शिव का धनुष था जिसके बारे में सारा संसार जानता था।

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥

लक्ष्मण ने कहा कि आप मुझसे मजाक कर रहे हैं, मुझे तो सभी धनुष एक समान लगते हैं। एक दो धनुष के टूटने से कौन सा नफा नुकसान हो जायेगा। उनको ऐसा कहते देख राम उन्हें तिरछी आँखों से निहार रहे हैं। लक्ष्मण ने आगे कहा कि यह धनुष तो श्रीराम के छूने भर से टूट गया था। आप बिना मतलब ही गुस्सा हो रहे हैं।

बोलै चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

इसपर परशुराम अपने फरसे की ओर देखते हुए कहते हैं कि शायद तुम मेरे स्वभाव के बारे में नहीं जानते हो। मैं अबतक बालक समझ कर तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ। तुम मुझे किसी आम ऋषि की तरह निर्बल समझने की भूल कर रहे हो। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और सारा संसार मुझे क्षत्रिय कुल के विनाशक के रूप में जानता है। मैंने अपने भुजबल से इस पृथ्वी को कई बार क्षत्रियों से विहीन कर दिया था और मुझे भगवान शिव का वरदान प्राप्त है। मैंने सहस्रबाहु को बुरी तरह से मारा था। मेरे फरसे को गौर से देख लो। तुम तो अपने व्यवहार से उस गति को पहुँच जाओगे जिससे तुम्हारे माता पिता को असहनीय पीड़ा होगी। मेरे फरसे की गर्जना सुनकर ही गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है।


बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि दिखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥

इसपर लक्ष्मण हँसकर और थोड़े प्यार से कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि आप एक महान योद्धा हैं। लेकिन मुझे बार बार आप ऐसे कुल्हाड़ी दिखा रहे हैं जैसे कि आप किसी पहाड़ को फूँक मारकर उड़ा देना चाहते हैं। मैं कोई कुम्हड़े की बतिया नहीं हूँ जो तर्जनी अंगुली दिखाने से ही कुम्हला जाती है।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

मैंने तो कोई भी बात ऐसी नहीं कही जिसमें अभिमान दिखता हो। फिर भी आप बिना बात के ही कुल्हाड़ी की तरह अपनी जुबान चला रहे हैं। आपके जनेऊ को देखकर लगता है कि आप एक ब्राह्मण हैं इसलिए मैंने अपने गुस्से पर काबू किया हुआ है। हमारे कुल की परंपरा है कि हम देवता, पृथ्वी, हरिजन और गाय पर वार नहीं करते हैं। इनके वध करके हम व्यर्थ ही पाप के भागी नहीं बनना चाहते हैं। आपके वचन ही इतने कड़वे हैं कि आपने व्यर्थ ही धनुष बान और कुल्हाड़ी को उठाया हुआ है। इसपर विश्वामित्र कहते हैं कि हे मुनिवर यदि इस बालक ने कुछ अनाप शनाप बोल दिया है तो कृपया कर के इसे क्षमा कर दीजिए।


कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू॥
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौ चाहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥

ऐसा सुनकर परशुराम ने विश्वामित्र से कहा कि यह बालक मंदबुद्धि लगता है और काल के वश में होकर अपने ही कुल का नाश करने वाला है। इसकी स्थिति उसी तरह से है जैसे सूर्यवंशी होने पर भी चंद्रमा में कलंक है। यह निपट बालक निरंकुश है, अबोध है और इसे भविष्य का भान तक नहीं है। यह तो क्षण भर में काल के गाल में समा जायेगा, फिर आप मुझे दोष मत दीजिएगा।

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

इसपर लक्ष्मण ने कहा कि हे मुनि आप तो अपने यश का गान करते अघा नहीं रहे हैं। आप तो अपनी बड़ाई करने में माहिर हैं। यदि फिर भी संतोष नहीं हुआ हो तो फिर से कुछ कहिए। मैं अपनी झल्लाहट को पूरी तरह नियंत्रित करने की कोशिश करूँगा। वीरों को अधैर्य शोभा नहीं देता और उनके मुँह से अपशब्द अच्छे नहीं लगते। जो वीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते बल्कि अपनी करनी से अपनी वीरता को सिद्ध करते हैं। वे तो कायर होते हैं जो युद्ध में शत्रु के सामने आ जाने पर अपना झूठा गुणगान करते हैं।

Important Link

NCERT Solution – पाठ-राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद-तुलसीदास

For Free Video Lectures Click here

Read More

सूरदास के पद कविता | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 1 | सूरदास के पद Summary | Quick revision Notes ch-1 Kshitij | EduGrown

सूरदास के पद कविता  | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 1 | सूरदास के पद   Summary | Quick revision Notes ch-1 Kshitij | EduGrown

सूरदास के पद , कक्षा 10 , हिन्दी विषय , क्षितिज  : Surdas Ke Pad Class 10 CBSE Hindi Kshitij

सूरदास के पद 

Surdas Ke Pad Class 10 Hindi Kshitij

कवि परिचय

सूरदास

इनका जन्म सन 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ था जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार इनका जन्म स्थान दिल्ली के पास सीही माना जाता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। सुर ‘वात्सल्य’ और ‘श्रृंगार’ के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनकी मृत्यु 1583 में पारसौली में हुई।

सूरदास Class 10 Hindi  कविता का सार ( Short Summary )

सूरदास के द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में संकलित ‘ भ्रमरगीत’ से लिए गए चार पदों में गोपियों के विरह-भाव को प्रकट किया गया है। ब्रजक्षेत्र से मथुरा जाने के बाद श्री कृष्ण ने गोपियों को कभी कोई संदेश नहीं भेजा था और न ही स्वयं वहाँ गए थे जिस कारण गोपियों की विरह-पीड़ा बढ़ गई थी। श्री कृष्ण ने ज्ञान-मार्ग पर चलने वाले उद्धव को ब्रज- क्षेत्र में भेजा था ताकि वह गोपियों को संदेश देकर उनकी वियोग-पीड़ा को कुछ कम कर सके, पर उद्धव ने निर्गुण ब्रह्म और योग का उपदेश देकर गोपियों की पीड़ा को घटाने के स्थान पर बढ़ा दिया था। गोपियों को उद्धव के द्वारा दिया जाने वाला शुष्क निर्गुण संदेश बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था। उन्होंने अन्योक्ति के द्वारा उद्धव पर व्यंग्य बाण छोड़े थे। उन्होंने उस के द्वारा ग्रहण किए गए निर्गुण-मार्ग को उचित नहीं माना था। सूरदास ने इन भ्रमर गीतों के द्वारा निर्गुण भक्ति की पराजय और सगुण भक्ति की विजय दिखाने का सफल प्रयत्न किया है।

गोपियां मानती हैं कि उद्धव बड़ा भाग्यशाली है जिसके हृदय में कभी किसी के लिए प्रेम का भाव जागृत ही नहीं हुआ। वह तो श्रीकृष्ण के पास रहते हुए भी उन के प्रेम बंधन में नहीं बंधा। जैसे कमल का पत्ता सदा पानी में रहता है पर फिर भी उस पर जल की बूँद नहीं ठहर पाती तथा तेल की मटकी को जल के भीतर डुबोने पर भी उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती। उद्धव ने तो प्रेम नदी में कभी अपना पैर तक नहीं डुबोया पर वे बेचारी भोली-भाली गोपियां तो श्री कृष्ण के रूप-माधुर्य के प्रति रीझ गई थीं। वे तो उन के प्रेम में डूब चुकी हैं। उनके हृदय की सारी अभिलाषाएं तो मन में ही रह गईं। वे मन ही मन वियोग की पीड़ा को झेलती रहीं । योग के संदेशों ने तो उन्हें और भी अधिक पीड़ित कर दिया है। श्री कृष्ण का प्रेम तो उनके लिए हारिल की लकड़ी के समान है जिसे वे कदापि नहीं छोड़ सकतीं। उन्हें तो सोते-जागते केवल श्री कृष्ण का ही ध्यान रहता है। योग-साधना का नाम ही उन्हें कड़वी ककड़ी सा लगता है। वह तो उनके लिए किसी मानसिक बीमारी से कम नहीं है। गोपियां श्रीकृष्ण को ताना मारती हैं कि उन्होंने अब राजनीति पढ़ ली है। एक तो वे पहले ही बहुत चतुर थे और अब गुरु के ज्ञान को भी उन्होंने प्राप्त कर लिया है। गोपियां उद्धव को याद दिलाती हैं कि राजधर्म यही होता है कि राजा को कभी भी अपनी प्रजा को नहीं सताना चाहिए।

सूरदास के पद कविता  | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 1 | सूरदास के पद   Summary | Quick revision Notes ch-1 Kshitij | EduGrown

सूरदास Class 10 Hindi  कविता का सार ( Detailed Summary )

(1)उधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

अर्थ – इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से व्यंग्य करती हैं, कहती हैं कि तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम और स्नेह से वंचित हो। तुम कमल के उस पत्ते के समान हो जो रहता तो जल में है परन्तु जल में डूबने से बचा रहता है। जिस प्रकार तेल की गगरी को जल में भिगोने पर भी उसपर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहर पाती,ठीक उसी प्रकार तुम श्री कृष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते हुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दूर तुम पर तो श्रीकृष्ण प्रेम की एक छींट भी नहीं पड़ी। तुमने कभी प्रीति रूपी नदी में पैर नही डुबोए। तुम बहुत विद्यवान हो इसलिए कृष्ण के प्रेम में नही रंगे परन्तु हम भोली-भाली गोपिकाएँ हैं इसलिए हम उनके प्रति ठीक उस तरह आकर्षित हैं जैसे चीटियाँ गुड़ के प्रति आकर्षित होती हैं। हमें उनके प्रेम में लीन हैं।

(2)मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि असार आस आवन की,तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि,बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उर तैं धार बही ।
‘सूरदास’अब धीर धरहिं क्यौं,मरजादा न लही।।


अर्थ – इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनकी मन की बात मन में ही रह गयी। वे कृष्ण से बहुत कुछ कहना चाहती थीं परन्तु अब वे नही कह पाएंगी। वे उद्धव को अपने सन्देश देने का उचित पात्र नही समझती हैं और कहती हैं कि उन्हें बातें सिर्फ कृष्ण से कहनी हैं, किसी और को कहकर संदेश नहीं भेज सकती। वे कहतीं हैं कि इतने समय से कृष्ण के लौट कर आने की आशा को हम आधार मान कर तन मन, हर प्रकार से विरह की ये व्यथा सह रहीं थीं ये सोचकर कि वे आएँगे तो हमारे सारे दुख दूर हो जाएँगे। परन्तु श्री कृष्ण ने हमारे लिए ज्ञान-योग का संदेश भेजकर हमें और भी दुखी कर दिया। हम विरह की आग मे और भी जलने लगीं हैं। ऐसे समय में कोई अपने रक्षक को पुकारता है परन्तु हमारे जो रक्षक हैं वहीं आज हमारे दुःख का कारण हैं। हे उद्धव, अब हम धीरज क्यूँ धरें, कैसे धरें. जब हमारी आशा का एकमात्र तिनका भी डूब गया। प्रेम की मर्यादा है कि प्रेम के बदले प्रेम ही दिया जाए पर श्री कृष्ण ने हमारे साथ छल किया है उन्होने मर्यादा का उल्लंघन किया है।

(3)हमारैं हरि हारिल की लकरी।मन क्रम  बचन नंद -नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि, कान्ह- कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।


यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौपौं, जिनके मन चकरी ।।अर्थ – इन पंक्तियों में गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण उनके लिए हारिल की लकड़ी हैं। जिस तरह हारिल पक्षी लकड़ी के टुकड़े को अपने जीवन का सहारा मानता है उसी प्रकार श्री कृष्ण भी गोपियों के जीने का आधार हैं। उन्होंने  मन कर्म और वचन से नन्द बाबा के पुत्र कृष्ण को अपना माना है। गोपियाँ कहती हैं कि जागते हुए, सोते हुए दिन में, रात में, स्वप्न में हमारा रोम-रोम कृष्ण नाम जपता रहा है। उन्हें उद्धव का सन्देश कड़वी ककड़ी के समान लगता है। हमें कृष्ण के प्रेम का रोग लग चुका है अब हम आपके कहने पर योग का रोग नहीं लगा सकतीं क्योंकि हमने तो इसके बारे में न कभी सुना, न देखा और न कभी इसको भोगा ही है। आप जो यह योग सन्देश लायें हैं वो उन्हें जाकर सौपें जिनका मन चंचल हो चूँकि हमारा मन पहले ही कहीं और लग चुका है।

(4)हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं हीं , अब गुरु ग्रंथ पढाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के , पर हित डोलत धाए।
अब अपने  मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन ,जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘ सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।

अर्थ – गोपियाँ कहतीं हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। गोपियाँ बात करती हुई व्यंग्यपूर्वक कहती हैं कि वे तो पहले से ही बहुत चालाक थे पर अब उन्होंने बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ लिए हैं जिससे उनकी बुद्धि बढ़ गई है तभी तो हमारे बारे में सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने हमारे पास उद्धव से योग का सन्देश भेजा है। उद्धव जी का इसमे कोई दोष नहीं है, ये भले लोग हैं जो दूसरों के कल्याण करने में आनन्द का अनुभव करते हैं। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं की आप जाकर कहिएगा कि यहाँ से मथुरा जाते वक्त श्रीकृष्ण हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे, उसे वे वापस कर दें। वे अत्याचारियों को दंड देने का काम करने मथुरा गए हैं परन्तु वे स्वयं अत्याचार करते हैं। आप उनसे कहिएगा कि एक राजा को हमेशा चाहिए की वो प्रजा की हित का ख्याल रखे। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचने दे, यही राजधर्म है।

Important Link

NCERT Solution – सूरदास के पद 

For Free Video Lectures Click here

Read More