बिहारी के दोहे कविता का सार | Sparsh Hindi Class 10th | पाठ 3 | बिहारी के दोहे कविता Summary | Quick revision Notes ch-3 Sparsh | EduGrown

बिहारी  बिहारी के दोहे  कविता का सार | Sparsh Hindi Class 10th | पाठ 3 |  बिहारी के दोहे  कविता  Summary | Quick revision Notes ch-3 Sparsh | EduGrown

कवि परिचय

बिहारी

इनका जन्म 1595 में ग्वालियर में हुआ था। सात-आठ वर्ष की उम्र में ही इनके पिता ओरछा चले गए जहाँ इन्होंने आचार्य केशवदास से काव्य शिक्षा पायी। यहीं बिहारी रहीम के संपर्क में आये। बिहारी ने अपने जीवन के कुछ वर्ष जयपुर में भी बिताये। ये रसिक जीव थे पर इनकी रसिकता नागरिक जीवन की रसिकता थी। इनका स्वभाव विनोदी और व्यंग्यप्रिय था। इनकी एक रचना ‘सतसई’ उपलब्ध है जिसमे करीब 700 दोहे संगृहीत हैं। 1663 में इनका देहावसान हुआ

बिहारी सतसई के दोहे की व्याख्या | Bihari ke dohe summary

(1) सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात | 

मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु पर्यौ प्रभात ||

 भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों के माध्यम से कवि बिहारी श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पीले वस्त्र में सुसज्जित साँवले-सलोने श्रीकृष्ण ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो नीलमणि पर्वत पर सुबह-सुबह सूर्य की किरणें पड़ रही हों |

 (2)- कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ | 

जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ-दाघ निदाघ || 

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि ग्रीष्म ऋतू की अत्यधिक ताप ने संसार को तपोवन बना दिया है | परिणामस्वरूप, इस भयंकर गर्मी अर्थात् विपत्ति से बचने के लिए शत्रु भी अपनी शत्रुता भुलाकर एक-दूसरे के साथ रहने लगे हैं | जैसे साँप, मोर और बाघ साथ-साथ रहने लगे हैं | अत: जानवर भी अपने-अपने द्वेषों को भुलाकर तपस्वी जैसा व्यवहार करने लगे हैं | 

(3)- बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ | 

सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ ||

 भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि गोपियों के मन में श्रीकृष्ण से बात करने की इच्छा है, जिसके कारण उन्होंने कृष्ण की बाँसुरी या मुरली छुपा दी हैं | गोपियाँ कृष्ण से मुरली ना चुराने की बात कहती हैं और उनकी मुरली देने से इनकार करती हैं | 


(4)- कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत,खिलत, लजियात | 

भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात || 

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों के माध्यम से कवि बिहारी जी ने लोगों के मध्य में भी दो प्रेमी किस तरह अपने प्रेम का इजहार करते हैं, उसे बताने का प्रयास किया है | नायक यानी कृष्ण अपनी नायिका से नैनों के इशारे से ही बात करते हुए मिलने को कहते हैं, जिसे नायिका मना कर देती है | तत्पश्चात्, इशारों में ही दोनों के बीच रूठने-मनाने का एहसास आरम्भ होता है | बाद में दोनों मिलते हैं और उनके चेहरे खिल जाते हैं तथा नायिका लज्जा से भर जाती है | 


(5)- बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह |

 देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह || 

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों में कवि बिहारी जी ने जेठ यानी गर्मी के महीने की दोपहर के समय का चित्रण किया है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि इस समय धूप इतनी तेज होती है कि आराम के लिए कहीं छाया भी नसीब नहीं होती | ऐसा प्रतीत होता है, जैसे गर्मी से बचकर विश्राम हेतु वह भी कहीं चली गई हो | 


(6)- कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात | 

कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात || 


भावार्थ –
 प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों के माध्यम से कवि बिहारी जी उस नायिका के मनोदशा को दिखाने की चेष्टा कर रहे हैं, जिसका प्रियतम उससे दूर है | नायिका कहती है कि उसे कागज़ पे अपना सन्देश लिखा नहीं जा रहा है | संदेश लिखते समय उसे लज्जा आ रही है | तत्पश्चात्, नायिका यह भी कहती है कि किसी संदेशवाहक से भी सन्देश नहीं भिजवा सकती, क्योंकि उससे दिल की बात कहने में लज्जा आती है | इसलिए नायिका, नायक को संबोधित करते हुए कहती है कि अब तुम्हीं मेरे हृदय की बात महसूस करो की मैं क्या चाहती हूँ | 


(7)- प्रगट भए द्विजराज-कुल, सुबस बसे ब्रज आइ | 

मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ || 

भावार्थ –प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों में कवि बिहारी जी श्रीकृष्ण से विनती करते हुए कह रहे हैं कि आप द्विजराज-कुल में पैदा हुए हैं तथा अपनी इच्छा से ब्रज आए | आप मेरे सारे कष्टों को हर लें | 

(8)- जपमाला , छापैं , तिलक सरै न एकौ कामु | 

मन-काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु ||

 भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि बिहारी के दोहे से उद्धृत हैं |इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि सिर्फ माला थाम कर जपने और तिलक लगा कर आडम्बर करने से कुछ नहीं होता | मन तो काँच की तरह होता है, जो व्यर्थ में नाचता रहता है | कवि अपनी बातों पर जोर देते हुए कहते हैं कि दिखावा को छोड़ अगर सच्चे मन से ईश्वर की आराधना की जाए तो काम अवश्य बनता है | 

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NCERT Solution – बिहारी के दोहे

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मीरा के पद कविता का सार | Sparsh Hindi Class 10th | पाठ 2 | मीरा के पद कविता Summary | Quick revision Notes ch-2 Sparsh | EduGrown

मीराबाई का जीवन परिचय  | मीरा के पद  कविता का सार | Sparsh Hindi Class 10th | पाठ 2 | मीरा के पद  कविता  Summary | Quick revision Notes ch-2 Sparsh | EduGrown

मीराबाई का जीवन परिचय 

एक मान्यता के अनुसार, कवयित्री मीराबाई का जन्म 1503 ई. में जोधपुर के चोकड़ी गाँव में हुआ माना जाता है | इनकी बाल्यावस्था में ही माँ का देहांत हो गया था | महज 13 बरस की उम्र में मेवाड़ के महाराणा साँगा के कुँवर भोजराज से उनका विवाह हुआ था | विवाह के कुछ ही वर्ष पश्चात् पहले पति, फिर पिता और एक युद्ध के दौरान श्वसुर का भी देहांत हो गया | तत्पश्चात्, भौतिक जीवन से निराश होकर मीरा ने घर-परिवार त्याग दिया और वृंदावन में डेरा डालकर पूर्ण रूप से कृष्ण के प्रति समर्पित हो गई | 

मीरा के पद अर्थ सहित – Mera Bai Ke Pad Class 10 Summary

हरि आप हरो जन री भीर।द्रोपदी री लाज राखी, आप बढायो चीर।
भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप सरीर।
बूढतो गजराज राख्यो , काटी कुण्जर पीर।
दासी मीराँ लाल गिरधर , हरो म्हारी भीर।

भावार्थ – इस पद में मीराबाई अपने प्रिय भगवान श्रीकृष्ण से विनती करते हुए कहतीं हैं कि हे प्रभु अब आप ही अपने भक्तों की पीड़ा हरें। जिस तरह आपने अपमानित द्रोपदी की लाज उसे चीर प्रदान करके बचाई थी जब दु:शासन ने उसे निर्वस्त्र करने का प्रयास किया था। अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नरसिंह रूप धारण किया था। आपने ही डुबते हुए हाथी की रक्षा की थी और उसे मगरमच्छ के मुँह से बचाया था। इस प्रकार आपने उस हाथी की पीड़ा दूर की थी। इन उदाहरणों को देकर दासी मीरा कहतीं हैं की हे गिरिधर लाल! आप मेरी पीडा भी दूर कर मुझे छुटकारा दीजिये।

स्याम म्हाने चाकर राखे जी,गिरिधरी लाल म्हाँने चाकर राखोजी।
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्दरावन री कुंज गली में , गोविन्द लीला गास्यूँ।
चाकरी में दरसण पास्यूँ , सुमरण पास्यूँ खरची।
भाव भगती जागीरी पास्यूँ , तीनू बाताँ सरसी।
मोर मुगट पीताम्बर सौहे , गल वैजन्ती माला।
बिन्दरावन में भेनु चरावे , मोहन मुरली वाला।उँचा उँचा महल बणाव , बिच बिच राखूँ बारी।
साँवरिया रा दरसण पास्यूँ , पहर कुसुम्बी साडी।
आधी रात प्रभु दरसण , दीज्यो जमनाजी रे तीरां।
मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर , हिवडो घणो अधीराँ॥

भावार्थ – इन पदों में मीरा भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहतीं हैं कि हे श्याम! आप मुझे अपनी दासी बना लीजिये। आपकी दासी बनकर में आपके लिए बाग–बगीचे लगाऊँगी , जिसमें आप विहार कर सकें। इसी बहाने मैं रोज आपके दर्शन कर सकूँगी। मैं वृंदावन के कुंजों और गलियों में कृष्ण की लीला के गान करुँगी। इससे उन्हें कृष्ण के नाम स्मरण का अवसर प्राप्त हो जाएगा तथा भावपूर्ण भक्ति की जागीर भी प्राप्त होगी। इस प्रकार दर्शन, स्मरण और भाव–भक्ति नामक तीनों बातें मेरे जीवन में रच–बस जाएँगी।

अगली पंक्तियों में मीरा श्री कृष्ण के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहती हैं कि मेरे प्रभु कृष्ण के शीश पर मोरपंखों का बना हुआ मुकुट सुशोभित है। तन पर पीले वस्त्र सुशोभित हैं। गले में वनफूलों की माला शोभायमान है। वे वृन्दावन में गायें चराते हैं और मनमोहक मुरली बजाते हैं। वृन्दावन में मेरे प्रभु का बहुत ऊँचे-ऊँचे महल हैं। वे उस महल के आँगन के बीच–बीच में सुंदर फूलों से सजी फुलवारी बनाना चाहती हैं। वे कुसुम्बी साड़ी पहनकर अपने साँवले प्रभु के दर्शन पाना चाहती हैं। मीरा भगवान कृष्ण से निवेदन करते हुए कहती हैं कि हे प्रभु! आप आधी रात के समय मुझे यमुना जी के किनारे अपने दर्शन देकर कृतार्थ करें। हे गिरिधर नागर! मेरा मन आप से मिलने के लिए बहुत व्याकुल है इसलिए दर्शन देने अवश्य आइएगा।

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NCERT Solution – मीरा के पद

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साखी कविता का सार | Sparsh Hindi Class 10th | पाठ 1 | साखी कविता Summary | Quick revision Notes ch-1 Sparsh | EduGrown

कबीर साखी कविता का सार | Sparsh Hindi Class 10th | पाठ 1 | साखी कविता  Summary | Quick revision Notes ch-1 Kshitij | EduGrown

कवि परिचय

कबीर

इनका जन्म 1398 में काशी में हुआ ऐसा माना जाता है। इनके गुरु रामानंद थे। ये क्रांतदर्शी के कवि थे जिनके कविता से गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। इन्होने 120 वर्ष की लम्बी उम्र पायी। इन्होने आने जीवन के कुछ अंतिम वर्ष मगहर में बिताये और वहीँ चिर्निद्रा में लीन हो गए।

कबीर की साखी अर्थ सहित – Kabir Ki Sakhi Class 10 Summary in Hindi

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ।।


भावार्थ – कबीर कहते हैं की हमें ऐसी बातें करनी चाहिए जिसमें हमारा अहं ना झलकता हो। इससे हमारा मन शांत रहेगा तथा सुनने वाले को भी सुख और शान्ति प्राप्त होगी।

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूंढै वन माँहि। 

ऐसैं घटि-घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि।।


भावार्थ – यहाँ कबीर ईश्वर की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि कस्तूरी हिरन की नाभि में होती है लेकिन इससे अनजान हिरन उसके सुगंध के कारण उसे पूरे जंगल में ढूंढ़ता फिरता है ठीक उसी प्रकार ईश्वर भी प्रत्येक मनुष्य के हृदय में निवास करते हैं परन्तु मनुष्य इसे वहाँ नही देख पाता। वह ईश्वर को मंदिर-मस्जिद और तीर्थ स्थानों में ढूंढ़ता रहता है।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि।।


भावार्थ – यहाँ कबीर कह रहे हैं की जब तक मनुष्य के मन में अहंकार होता है तब तक उसे ईश्वर की प्राप्ति नही होती। जब उसके अंदर का अंहकार मिट जाता है तब ईश्वर की प्राप्ति होती है। ठीक उसी प्रकार जैसे दीपक के जलने पर उसके प्रकाश से आँधियारा मिट जाता है। यहाँ अहं का प्रयोग अन्धकार के लिए तथा दीपक का प्रयोग ईश्वर के लिए किया गया है।

सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।

भावार्थ – कबीरदास के अनुसार ये सारी दुनिया सुखी है क्योंकि ये केवल खाने और सोने का काम करता है। इसे किसी भी प्रकार की चिंता नहीं है। उनके अनुसार सबसे दुखी व्यक्ति वो हैं जो प्रभु के वियोग में जागते रहते हैं। उन्हें कहीं भी चैन नही मिलता, वे प्रभु को पाने की आशा में हमेशा चिंता में रहते हैं।

बिरह भुवंगम तन बसै, मन्त्र ना लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ।।

भावार्थ – जब किसी मनुष्य के शरीर के अंदर अपने प्रिय से बिछड़ने का साँप बसता है तो उसपर कोई मन्त्र या दवा का असर नहीं होता ठीक उसी प्रकार राम यानी ईश्वर के वियोग में मनुष्य भी जीवित नही रहता। अगर जीवित रह भी जाता है तो उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है।

निंदक नेडा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणी बिना, निरमल करै सुभाइ।।


भावार्थ – संत कबीर कहते हैं की निंदा करने वाले व्यक्ति को सदा अपने पास रखना चाहिए, हो सके तो उसके लिए अपने पास रखने का प्रबंध करना चाहिए ताकि हमें उसके द्वारा अपनी त्रुटियों को सुन सकें और उसे दूर कर सकें। इससे हमारा स्वभाव साबुन और पानी की मदद के बिना निर्मल हो जाएगा।

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया ना कोइ।
ऐकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होई।।


भावार्थ – कबीर कहते हैं की इस संसार में मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़-पढ़ कर कई मनुष्य मर गए परन्तु कोई भी पंडित ना बन पाया। यदि किसी मनुष्य ने ईश्वर-भक्ति का एक अक्षर भी पढ़ लिया होता तो वह पंडित बन जाता यानी ईश्वर ही एकमात्र सत्य है, इसे जाननेवाला ही वास्तविक ज्ञानी है।


हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराडा हाथि। 
अब घर जालौं तास का, जे चले हमारे साथि।।


भावार्थ – कबीर कहते हैं की उन्होंने अपने हाथों से अपना घर जला लिया है यानी उन्होंने मोह-माया रूपी घर को जलाकर ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अब उनके हाथों में जलती हुई मशाल है यानी ज्ञान है। अब वो उसका घर जालयेंगे जो उनके साथ जाना चाहता है यानी उसे भी मोह-माया के बंधन से आजाद होना होगा जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।

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NCERT Solution – साखी

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संस्कृति का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 17 | संस्कृति Summary | Quick revision Notes ch-17 Kshitij | EduGrown

 

संस्कृति का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 17 | संस्कृति Summary | Quick revision Notes ch-17 Kshitij | EduGrown

लेखक परिचय

भदंत आनंद कौसल्यायन

इनका जन्म सन 1905 में पंजाब के अम्बाला जिले के सोहाना गाँव में हुआ। इनके बचपन का नाम हरनाम दास था। इन्होने लाहौर के नेशनल कॉलिज से बी.ए. किया। ये बौद्ध भिक्षु थे और इन्होने देश-विदेश की काफी यात्राएँ की तथा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। वे गांधीजी के साथ लम्बे अरसे तक वर्धा में रहे। सन 1988 में इनका निधन हो गया।

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संस्कृति Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

  • लेखक कहते हैं की सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं जिनका उपयोग अधिक होता है परन्तु समझ में कम आता है। इनके साथ विशेषण लगा देने से इन्हे समझना और भी कठिन हो जाता है। कभी-कभी दोनों को एक समझ लिया जाता है तो कभी अलग। आखिर ये दोनों एक हैं या अलग। लेखक समझाने का प्रयास करते हुए आग और सुई-धागे के आविष्कार उदाहरण देते हैं। वह उनके आविष्कर्ता की बात कहकर व्यक्ति विशेष की योग्यता, प्रवृत्ति और प्रेरणा को व्यक्ति विशेष की संस्कृति कहता है जिसके बल पर आविष्कार किया गया।
  • अपनी बुद्धि के आधार पर नए निश्चित तथ्य को खोज आने वाली पीढ़ी को सौंपने वाला संस्कृत होता है जबकि उसी तथ्य को आधार बनाकर आगे बढ़ने वाला सभ्यता का विकास करने वाला होता है। भौतिक विज्ञान के सभी विद्यार्थी जानते हैं की न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया इसलिए वह संस्कृत कहलाया परन्तु वह और अनेक बातों को नही जान पाया। आज के विद्यार्थी उन बातों को भी जानते है लेकिन हम इन्हे अधिक सभ्य भले ही कहे परन्तु संस्कृत नही कह सकते।
  • मानव हित में काम ना करने वाली संस्कृति का नाम असंस्कृति है। इसे संस्कृति नही कहा जा सकता। यह निश्चित ही असभ्यता को जन्म देती है। मानव हित में निरंतर परिवर्तनशीलता का ही नाम संस्कृति है।

संस्कृति Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

लेखक कहते हैं की सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं जिनका उपयोग अधिक होता है परन्तु समझ में कम आता है। इनके साथ विशेषण लगा देने से इन्हे समझना और भी कठिन हो जाता है। कभी-कभी दोनों को एक समझ लिया जाता है तो कभी अलग। आखिर ये दोनों एक हैं या अलग। लेखक समझाने का प्रयास करते हुए आग और सुई-धागे के आविष्कार उदाहरण देते हैं। वह उनके आविष्कर्ता की बात कहकर व्यक्ति विशेष की योग्यता, प्रवृत्ति और प्रेरणा को व्यक्ति विशेष की संस्कृति कहता है जिसके बल पर आविष्कार किया गया।

लेखक संस्कृति और सभ्यता में अंतर स्थापित करने के लिए आग और सुई-धागे के आविष्कार से जुड़ी प्रारंभिक प्रयत्नशीलता और बाद में हुई उन्नति के उदहारण देते हैं। वे कहते हैं लौहे के टुकड़े को घिसकर छेद बनाना और धागा पिरोकर दो अलग-अलग टुकड़ों को जोड़ने की सोच ही संस्कृति है। इन खोजों को आधार बनाकर आगे जो इन क्षेत्रों में विकास हुआ वह सभ्यता कहलाता है। अपनी बुद्धि के आधार पर नए निश्चित तथ्य को खोज आने वाली पीढ़ी को सौंपने वाला संस्कृत होता है जबकि उसी तथ्य को आधार बनाकर आगे बढ़ने वाला सभ्यता का विकास करने वाला होता है। भौतिक विज्ञान के सभी विद्यार्थी जानते हैं की न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया इसलिए वह संस्कृत कहलाया परन्तु वह और अनेक बातों को नही जान पाया। आज के विद्यार्थी उन बातों को भी जानते है लेकिन हम इन्हे अधिक सभ्य भले ही कहे परन्तु संस्कृत नही कह सकते।
लेखक के अनुसार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुई-धागे और आग के आविष्कार करते तथ्य संस्कृत संस्कृत होने या बनने के आधार नही बनते, बल्कि मनुष्य में सदा बसने वाली सहज चेतना भी इसकी उत्पत्ति या बनने का कारण बनती है। इस सहज चेतना का प्रेरक अंश हमें अपने मनीषियों से भी मिला है। मुँह के कौर को दूसरे के मुँह  में डाल देना और रोगी बच्चे को रात-रात भर गोदी में लेकर माता का बैठे रहना इसी इसी चेतना से प्रेरित होता है। ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्ध का मनुष्य को तृष्णा से मुक्ति के लिए उपायों को खोजने में गृह त्यागकर कठोर तपस्या करना, कार्ल मार्क्स का मजदूरों के सुखद जीवन के सपने पूरा करने के लिए दुखपूर्ण जीवन बिताना और लेनिन का मुश्किलों से मिले डबल रोटी के टुकड़ों को दूसरों को खिला देना इसी चेतना से संस्कृत बनने का उदाहरण हैं। लेखक कहते हैं की खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के तरीके आवागमन के साधन से लेकर परस्पर मर-कटने के तरीके भी संस्कृति का ही परिणाम सभ्यताके उदाहरण हैं।

मानव हित में काम ना करने वाली संस्कृति का नाम असंस्कृति है। इसे संस्कृति नही कहा जा सकता। यह निश्चित ही असभ्यता को जन्म देती है। मानव हित में निरंतर परिवर्तनशीलता का ही नाम संस्कृति है।  यह बुद्धि और विवेक से बना एक ऐसा तथ्य है जिसकी कभी दल बाँधकर रक्षा करने की जरुरत नही पड़ती। इसका कल्याणकारी अंश अकल्याणकारी अंश की तुलना में सदा श्रेष्ठ और स्थायी है।

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NCERT Solution – संस्कृति

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नौबतखाने में इबादत का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 16 | नौबतखाने में इबादत Summary | Quick revision Notes ch-16 Kshitij | EduGrown

 

नौबतखाने में इबादत का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 16 | नौबतखाने में इबादत  Summary | Quick revision Notes ch-16 Kshitij | EduGrown

लेखक परिचय

यतीन्द्र मिश्र

इनका जन्म 1977 में अयोध्या, उत्तर प्रदेश में हुआ। इन्होने लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से हिंदी में एम.ए  किया। ये आजकल स्वतंत्र लेखन के साथ अर्धवार्षिक सहित पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। सन 1999 में साहित्य और कलाओं के संवर्ध्दन और अनुशलीन के लिए एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी फाउंडेशन’ का संचालन भी कर रहे हैं।

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नौबतखाने में इबादत Naubat Khane Me Ibadat class 10 ( Short Summary )

अम्मीरुद्दीन उर्फ़ बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म बिहार में डुमराँव के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ। इनके बड़े भाई का नाम शम्सुद्दीन था जो उम्र में उनसे तीन वर्ष बड़े थे। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम पैग़म्बरबख़्श खाँ तथा माँ मिट्ठन थीं। पांच-छह वर्ष होने पर वे डुमराँव छोड़कर अपने ननिहाल काशी आ गए। वहां उनके मामा सादिक हुसैन और अलीबक्श तथा नाना रहते थे जो की जाने माने शहनाईवादक थे। वे लोग बाला जी के मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपनी दिनचर्या का आरम्भ करते थे। वे विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने का काम करते थे।

ननिहाल में 14 साल की उम्र से ही बिस्मिल्लाह खाँ ने बाला जी के मंदिर में रियाज़ करना शुरू कर दिया। उन्होंने वहां जाने का ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्हें रसूलन और बतूलन बाई की गीत सुनाई देती जिससे उन्हें ख़ुशी मिलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्होनें स्वीकार किया की बचपन में इनलोगों ने इनका संगीत के प्रति प्रेम पैदा करने में भूमिका निभायी। भले ही वैदिक इतिहास में शहनाई का जिक्र ना मिलता हो परन्तु मंगल कार्यों में इसका उपयोग प्रतिष्ठित करता है अर्थात यह मंगल ध्वनि का सम्पूरक है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के वाबजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना में बिताया। मुहर्रम के दसों दिन बिस्मिल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो शहनाई बजाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटर की दुरी तक भींगी आँखों से नोहा बजाकर निकलते हुए सबकी आँखों को भिंगो देते।

नौबतखाने में इबादत Naubat Khane Me Ibadat class 10 (Detailed Summary )

अम्मीरुद्दीन उर्फ़ बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म बिहार में डुमराँव के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ। इनके बड़े भाई का नाम शम्सुद्दीन था जो उम्र में उनसे तीन वर्ष बड़े थे। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम पैग़म्बरबख़्श खाँ तथा माँ मिट्ठन थीं। पांच-छह वर्ष होने पर वे डुमराँव छोड़कर अपने ननिहाल काशी आ गए। वहां उनके मामा सादिक हुसैन और अलीबक्श तथा नाना रहते थे जो की जाने माने शहनाईवादक थे।  वे लोग बाला जी के मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपनी दिनचर्या का आरम्भ करते थे। वे विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने का काम करते थे।

ननिहाल में 14 साल की उम्र से ही बिस्मिल्लाह खाँ ने बाला जी के मंदिर में रियाज़ करना शुरू कर दिया। उन्होंने वहां जाने का ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्हें रसूलन और बतूलन बाई की गीत सुनाई देती जिससे उन्हें ख़ुशी मिलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्होनें स्वीकार किया की बचपन में इनलोगों ने इनका संगीत के प्रति प्रेम पैदा करने में भूमिका निभायी। भले ही वैदिक इतिहास में शहनाई का जिक्र ना मिलता हो परन्तु मंगल कार्यों में इसका उपयोग प्रतिष्ठित करता है अर्थात यह मंगल ध्वनि का सम्पूरक है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के वाबजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना में बिताया। मुहर्रम के दसों दिन बिस्मिल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो शहनाई बजाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटर की दुरी तक भींगी आँखों से नोहा बजाकर निकलते हुए सबकी आँखों को भिंगो देते।

फुरसत के समय वे उस्ताद और अब्बाजान को काम याद कर अपनी पसंद की सुलोचना गीताबाली जैसी अभिनेत्रियों की देखी फिल्मों को याद करते थे। वे अपनी बचपन की घटनाओं को याद करते की कैसे वे छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनाता तथा बाद में उनकी ‘मीठी शहनाई’ को ढूंढने के लिए एक-एक कर शहनाई को फेंकते और कभी मामा की शहनाई पर पत्थर पटककर दाद देते। बचपन के समय वे फिल्मों के बड़े शौक़ीन थे, उस समय थर्ड क्लास का टिकट छः पैसे का मिलता था जिसे पूरा करने के लिए वो दो पैसे मामा से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नाना से लेते थे फिर बाद में घंटों लाइन में लगकर टिकट खरीदते थे। बाद में वे अपनी पसंदीदा अभिनेत्री सुलोचना की फिल्मों को देखने के लिए वे बालाजी मंदिर पर शहनाई बजाकर कमाई करते। वे सुलोचना की कोई फिल्म ना छोड़ते तथा कुलसुम की देसी घी वाली दूकान पर कचौड़ी खाना ना भूलते।
काशी के संगीत आयोजन में वे अवश्य भाग लेते। यह आयोजन कई वर्षों से संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर हो रहा था जिसमे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन की सभा होती है। बिस्मिल्लाह खाँ जब काशी के बाहर भी रहते तब भी वो विश्वनाथ और बालाजी मंदिर की तरफ मुँह करके बैठते और अपनी शहनाई भी उस तरफ घुमा दिया करते। गंगा, काशी और शहनाई उनका जीवन थे। काशी का स्थान सदा से ही विशिष्ट रहा है, यह संस्कृति की पाठशाला है। बिस्मिल्लाह खाँ के शहनाई के धुनों की दुनिया दीवानी हो जाती थी।

सन 2000 के बाद पक्का महाल से मलाई-बर्फ वालों के जाने से, देसी घी तथा कचौड़ी-जलेबी में पहले जैसा स्वाद ना होने के कारण उन्हें इनकी कमी खलती। वे नए गायकों और वादकों में घटती आस्था और रियाज़ों का महत्व के प्रति चिंतित थे। बिस्मिल्लाह खाँ हमेशा से दो कौमों की एकता और भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देते रहे। नब्बे वर्ष की उम्र में 21 अगस्त 2006 को उन्हने दुनिया से विदा ली । वे भारतरत्न, अनेकों विश्वविद्यालय की मानद उपाधियाँ व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा पद्मविभूषण जैसे पुरस्कारों से जाने नहीं जाएँगे बल्कि अपने अजेय संगीतयात्रा के नायक के रूप में पहचाने जाएँगे।

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NCERT Solution – नौबतखाने में इबादत

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स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 15 | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Summary | Quick revision Notes ch-15 Kshitij | EduGrown

 

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 15 | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन  Summary | Quick revision Notes ch-15 Kshitij | EduGrown

Stri siksha ke virodh kurtuko ka khandan class 10 summary

लेखक परिचय

महावीर प्रसाद दिवेदी

इनका जन्म सन 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने के कारण स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होने रेलवे में नौकरी कर ली। बाद में नौकरी से इस्तीफा देकर सन 1903 में प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती का संपादन शुरू किया तथा 1920 तक उससे जुड़े रहे। सन 1938 में इनका देहांत हो गया।

महावीर प्रसाद दिवेदी | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 15 | स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन  Summary | Quick revision Notes ch-15 Kshitij | EduGrown

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

इस पाठ में लेखक ने स्त्री शिक्षा के महत्व को प्रसारित करते हुए उन विचारों का खंडन किया है। लेखक को इस बात का दुःख है आज भी ऐसे पढ़े-लिखे लोग समाज में हैं जो स्त्रियों का पढ़ना गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। विद्वानों द्वारा दिए गए तर्क इस तरह के होते हैं, संस्कृत के नाटकों में पढ़ी-लिखी या कुलीन स्त्रियों को गँवारों की भाषा का प्रयोग करते दिखाया गया है। शकुंतला का उदहारण एक गँवार के रूप में दिया गया है जिसने दुष्यंत को कठोर शब्द कहे। जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक वो गँवारों की भाषा थी। इन सब बातों का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं की क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नही बोल सकती। बुद्ध से लेकर महावीर तक ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिए हैं तो क्या वो गँवार थे। लेखक कहते हैं की हिंदी, बांग्ला भाषाएँ आजकल की प्राकृत हैं। जिस तरह हम इस ज़माने में हिंदी, बांग्ला भाषाएँ पढ़कर शिक्षित हो सकते हैं उसी तरह उस ज़माने में यह अधिकार प्राकृत को हासिल था। फिर भी प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का सबूत है यह बात नही मानी जा सकती।

जिस समय नाट्य-शास्त्रियों ने नाट्य सम्बन्धी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत नही थी। इसलिए उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और अन्य लोगों और स्त्रियों की भाषा प्राकृत कर दिया। लेखक तर्क देते हुए कहते हैं कि शास्त्रों में बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा मिलती है किन्तु उनके सिखने सम्बन्धी पुस्तक या पांडुलिपि नही मिलतीं उसी प्रकार प्राचीन समय में नारी विद्यालय की जानकारी नही मिलती तो इसका अर्थ यह तो नही लगा सकते की सारी स्त्रियाँ गँवार थीं। लेखक प्राचीन काल की अनेकानेक शिक्षित स्त्रियाँ जैसे शीला, विज्जा के उदारहण देते हुए उनके शिक्षित होने की बात को प्रामणित करते हैं। वे कहते हैं की जब प्राचीन काल में स्त्रियों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने की आजादी थी तब यह मत कैसे दिया जा सकता है की उन्हें शिक्षा नही दी जाती थी। लेखक कहते हैं मान लीजिये प्राचीन समय में एक भी स्त्री शिक्षित नही थीं, सब अनपढ़ थीं उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता ना समझी गयी होगी परन्तु वर्तमान समय को देखते हुए उन्हें अवश्य शिक्षित करना चाहिए।


लेखक पिछड़े विचारधारावाले विद्वानों से कहते हैं की अब उन्हें अपने पुरानी मान्यताओं में बदलाव लाना चाहिए। जो लोग स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए पुराणों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्ध का तिरेपनवां अध्याय पढ़ना चाहिए जिसमे रुक्मिणी हरण की कथा है। उसमे रुक्मिणी ने एक लम्बा -चौड़ा पत्र लिखकर श्रीकृष्ण को भेजा था जो प्राकृत में नहीं था। वे सीता, शकुंतला आदि के प्रसंगो का उदहारण देते हैं जो उन्होंने अपने पतियों से कहे थे। लेखक कहते हैं अनर्थ कभी नही पढ़ना चाहिए। शिक्षा बहुत व्यापक शब्द है, पढ़ना उसी के अंतर्गत आता है। आज की माँग है की हम इन पिछड़े मानसिकता की बातों से निकलकर सबको शिक्षित करने का प्रयास करें। प्राचीन मान्यताओं को आधार बनाकर स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करना अनर्थ है।

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतकों का खंडन’ निबंध के लेखक ‘महावीर प्रसाद दविवेदी’ हैं। लेखक का यह निबंध उन लोगों की चेतना जागृत करने के लिए है जो स्त्री शिक्षा को व्यर्थ मानते थे। उन लोगों के अनुसार शिक्षित स्त्री समाज के विघटन का कारण बनती है। इस निबंध की एक विशेषता यह है कि परंपरा का हिस्सा सड़-गल चुका है, उसे बेकार मानकर छोड़ देने की बात कही गई है।

लेखक के समय में कुछ ऐसे पढ़े-लिखे लोग थे जो स्त्री शिक्षा को घर और समाज दोनों के लिए हानिकारक मानते थे। इन लोगों का काम समाज में बुराइयों और अनीतियों को समाप्त करना था स्त्री शिक्षा के विरोध में ये लोग अपने कुछ तर्क प्रस्तुत करते हैं उनके अनुसार प्राचीन भारत में संस्कृत कवियों के नाटकों में कुलीन स्त्रियां गँंवार भाषा का प्रयोग करती थीं। इसलिए उस समय भी स्त्रियों को पढ़ाने का चलन नहीं था कम पढ़ी-लिखी शकुंतला ने दुष्यंत से ऐसे कटु वचन बोले कि अपना सत्यानाश कर लिया। यह उसके पढ़े-लिखे होने का फल था उस समय स्त्रियों को पढ़ाना समय बर्बाद करना समझा जाता था लेखक ने इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर दिया है। नाटकों में स्त्रियों का संस्कृत न बोलना उनका अनपढ़ होना सिद्ध नहीं करता। वाल्मीकि की रामायण में जब बंदर संस्कृत बोल सकते हैं तो उस समय स्त्रियां संस्कृत क्यों नहीं बोल सकती थीं ऋषि पत्नियों की भाषा गैवारों जैसी नहीं हो सकती। कालिदास और भवभूति के समय तो आम लोग भी संस्कृत भाषा बोलते थे । इस बात का कोई स्पष्ट सबूत नहीं है कि उस समय बोलचाल की भाषा प्राकृत नहीं थी। प्राकृत भाषा में बात करना अनपढ़ होना नहीं था। प्राकृत उस समय की प्रचलित भाषा थी इसका प्रमाण बौद्धों और जैनों के हज़ारों ग्रंथों से मिलता है। भगवान् बुद्ध के सभी उपदेश प्राकृत भाषा में मिलते हैं। बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा ग्रंथ त्रिपिटक प्राकृत भाषा में है। इसलिए प्राकृत बोलना और लिखना अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। गाथा-सप्तशती, सेतुबंध-महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रंथ प्राकृत भाषा में हैं। यदि इनको लिखने वाले अनपढ़ थे तो आज के सभी अखबार संपादक अनपढ़ हैं। वे अपनी-अपनी प्रचलित भाषा में आववार छापते हैं। जिस तरह हम बांग्ला, मराठी, हिंदी बोल, पढ़ और लिखकर स्वयं को विद्वान् समझते हैं उसी तरह उस समय पाली, मगधी, महाराष्ट्री, शोरसैनी आदि भाषाएं पढ़कर वे लोग सभ्य और शिक्षित हो सकते थे। जिस भाषा का चलन होता है वही बोली जाती है और उसी भाषा में साहित्य मिलता है।

उस समय के आचार्यों के नाट्य संबंधी नियमों के आधार पर पढ़े-लिखे होने का ज्ञान नहीं हो सकता जब ये नियम बने थे उस समय संस्कृत सर्वसाधारण की बोलचाल भाषा नहीं थी। इसीलिए उच्च पात्रों से नाटकों में संस्कृत और स्त्रियों एवं अन्य पात्रों से प्राकृत भाषा का प्रयोग करवाया था। उस समय स्त्रियों के लिए विद्यालय थे या नहीं इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है परंतु इसके आधार पर हम स्त्रियों को अनपढ़ और असभ्य नहीं मान सकते। कहा जाता है कि उस समय विमान होते थे जिससे एक द्वीपांतरों से अन्य द्वीपों तक जाया जा सकता था। परंतु हमारे शास्त्रों में इसके बनाने की विधि कहीं नहीं दी गई है। इससे उस समय जहाज़ होने की बात से इन्कार तो नहीं करते अपितु गर्व ही करते हैं। फिर यह कहाँ का न्याय है कि उस समय की स्त्रियों को शास्त्रों के आधार पर मूर्ख, असभ्य और अनपढ़ बता दिया जाए। हिंदू लोग वेदों की रचना को ईश्वरकृत रचना मानते हैं। ईश्वर ने भी मंत्रों की रचना स्त्रियों से कराई है। प्राचीन भारत में ऐसी कई स्त्रियां हुई हैं जिन्होंने बड़े-बड़े पुरुषों से शास्त्रार्थ किया और उनके हाथों सम्मानित हुई हैं। बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक में सैंकड़ों स्त्रियों की पद्य रचना लिखी हुई है। उन स्त्रियों को सभी प्रकार के काम करने की इजाजत थी तो उन्हें पढ़ने-लिखने से क्यों रोका जाता स्त्री शिक्षा विरोधियों की ऐसी बातें समझ में नहीं आतीं।

अत्रि की पत्नी, मंडन मिश्र की पत्नी, गार्गी आदि जैसी विदुषी नारियों ने अपने पांडित्य से उस समय के बड़े बड़े आचार्य को भी मात दे दी थी। तो क्या वे स्त्रियों को कुछ बुरा परिणाम भुगतना पड़ा। यह सब उन लोगों की गढ़ी हुई कहानियाँ हैं जो स्त्रियों को अपने से आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकते। जिनका अहंकार स्त्री को दबाकर रखने से संतुष्ट होता है तो वे स्त्री को अपनी बराबरी का अधिकार कैसे दे सकते हैं। यदि उनकी बात भी ली जाए तो पुराने समय में स्त्रियों को पढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती थी परंतु आज बदलते समय के साथ स्त्री-शिक्षा अनिवार्य है। जब हम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए कई पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ दिया है तो इस पद्धति को हम क्यों नहीं तोड़ सकते ? यदि उन लोगों को पुराने समय में स्त्रियों को पढ़े होने का प्रमाण चाहिए तो श्री श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध में रुक्मिणी के हाथ का लिखा कृष्ण को पत्र बड़ी विद्वता भरा है। यह उसके पढ़े-लिखे होने का प्रमाण नहीं है क्या ? वे लोग भागवत की बात से इन्कार नहीं कर सकते। स्त्री-शिक्षा विरोधियों के अनुसार यदि स्त्रियों को पढ़ाने से कुछ बुरा घटित होता है तो पुरुषों के पढ़ने से तो उससे भी बुरा घटित होता है। समाज में होने वाले सभी बुरे कार्य पढ़े-लिखे पुरुषों की देन हैं तो क्या पाठशालाएँ, कॉलेज आदि बंद कर देने चाहिएं। शकुंतला का दुष्यंत का अपमान करना स्वाभाविक बात थी। एक पुरुष स्त्री से शादी करके उसे भूल जाए और उसका त्याग कर दे तो वह स्त्री चुप नहीं बैठेगी। वह अपने विरुद्ध किए अन्याय का विरोध तो करेगी यह कोई गलत बात नहीं थी। सीता जी तो शकुंतला से अधिक पवित्र मानी जाती हैं। उन्होंने भी अपने परित्याग के समय राम जी पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने सबके सामने अग्नि में कूद कर अपनी पवित्रता का प्रमाण दिया था फिर लोगों की बातें सुनकर उसे क्यों छोड़ दिया। यह राम जी के कुल पर कलंक लगाने वाली बात है। सीता जी तो शास्त्रों का ज्ञान रखने वाली थी फिर उन्होंने अपने विरुद्ध हुए अन्याय का विरोध अनपढ़ों की भांति क्यों दिखाया। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। जब मनुष्य अपने विरुद्ध हुए अन्याय के विरोध में आवाज उठाता है।

पढ़ने-लिखने से समाज में कोई भी अनर्थ नहीं होता। अनर्थ करने वाले अनपढ़ और पढ़े-लिखे दोनों तरह के हो सकते हैं। अनर्थ का कारण दुराचार और पापाचार है। स्त्रियाँ अच्छे-बुरे का ज्ञान कर सकें उसके लिए स्त्रियों को पढ़ाना आवश्यक है। जो लोग स्त्रियों को पढ़ने-लिखने से रोकते हैं उन्हें दंड दिया जाना चाहिए। स्त्रियों को अनपढ़ रखना समाज की उन्नति में रुकावट डालता है। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत है। उसमें सीखने योग्य सभी कार्य समाहित हैं तो पढ़ना-लिखना भी उसी के अंतर्गत आता है। यदि वर्तमान की शिक्षा-प्रणाली के कारण लड़कियों को पढ़ने-लिखने से रोका जाए तो ठीक नहीं है। इससे तो अच्छा है कि शिक्षा प्रणाली में सुधार लाया जाए। लड़कों की भी शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं है फिर स्कूल-कॉलेज क्यों बंद नहीं किए। दोहरे मापदंडों से समाज का हित नहीं हो सकता। यदि विचार करना है तो स्त्री-शिक्षा के नियमों पर विचार करना चाहिए उन्हें कहाँ पढ़ाना चाहिए, कितनी शिक्षा देनी चाहिए, किससे शिक्षा दिलानी चाहिए। परंतु यह कहना कि स्त्री-शिक्षा में दोष है यह पुरुषों के अहंकार को सिद्ध करता है, अहंकार को बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा लेना उचित नहीं है।

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NCERT Solution –स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

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एक कहानी यह भीका सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 14 | एक कहानी यह भी Summary | Quick revision Notes ch-14 Kshitij | EduGrown

 

एक कहानी यह भीका सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 14 | एक कहानी यह भी  Summary | Quick revision Notes ch-14 Kshitij | EduGrown

yk Kahani yeh bhi class 10 summary

लेखक परिचय

मन्नू भंडारी

इनका जन्म सन 1931 में गाँव भानपुरा, जिला मंदसौर, मध्य प्रदेश में हुआ था। इनकी इंटर तक की शिक्षा  शहर में हुई। बाद में इन्होने हिंदी से एम.ए किया। दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्ति के बाद आजकल दिल्ली में ही रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

एक कहानी यह भी Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी द्वारा आत्मपरक शैली में लिखी हुई आत्मकथ्य है। इस पाठ में यह बात बड़े ही प्रभावशाली ढंग से दर्शाई गई है कि बालिकाओं को किस तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ता है। अपने पिता से लेखिका के वैचारिक मतभेद का भी चित्रण हुआ है।
‘एक कहानी यह भी’ के संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि मन्नू भंडारी ने पारिभाषिक अर्थ में कोई सिलसिलेवार आत्मकथा नहीं लिखी है। अपनी आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में उल्लेख किया है, जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं।


संकलित अंश में मन्नूजी के किशोर जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के व्यक्तित्व विशेषरूप से उभरकर आया है, जो कि आगे चलकर उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लेखिक ने बड़े रोचकिय ढंग से एक साधारण लड़की के असाधारण बनने की प्रारंभिक पड़ावों का वर्णन किया है। सन् ’46-47′ की आज़ादी की आँधी ने मन्नूजी को भी अछूता नहीं छोड़ा। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आज़ादी की लड़ाई में जिस तरह से भागीदारी की, उसमे उसका उत्साह, ओज, संगठन-क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है। इन सब घटनाओं के साथ हो रहे अपने पिताजी के अंतर्विरोधों को भी लेखिका ने बखूबी उजागर किया है।

एक कहानी यह भी Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

एक कहानी यह भी’ एक आत्मकथ्य है। इसकी लेखिका मन्नू भंडारी हैं। इसमें उन्होंने अपने जीवन की उन घटनाओं का वर्णन किया है जो उन्हें लेखिका बनाने में सहायक हुई हैं; इस पाठ में छोटे शहर की युवा होती लड़की की कहानी है जिसका आज़ादी की लड़ाई में उत्साह, संगठन-क्षमता और विरोध करने का स्वरूप देखते ही बनता था।

लेखिका का जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था, परंतु उसका बचपन अजमेर ब्रह्मपुरी मोहल्ले में गुज़रा था। उनका घर दो मंजिला था। नीचे पूरा परिवार रहता था, ऊपर की मंजिल पर पिताजी का साम्राज्य था। अजमेर से पहले वे लोग इंदौर में रहते थे। इंदौर में उनका परिवार प्रतिष्ठित परिवारों में से एक था। वे शिक्षा को केवल उपदेश की तरह नहीं लेते थे। कमशोर छात्रों को पर लाकर भी पढ़ाषा करते थे उनके पढाए छात्र आज ऊैसे ओहदों पर लगे मे। पिता दरियादिल, कोमल स्वभाव, संवेदनशील के साथ-साथ क्रोधी और अहवादी थे। एक बहुत बड़े आर्थिक हुए टके ने उन्हें अंदर तक हिला दिया था। वे इंदौर छोड़ कर अजमेर आ गए थे यहाँ उन्होंने अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोष तैयार किया। यह अपनी तरह का पहला शब्दकोश था, जिसने उन्हें प्रसिद्धि तो बहुत दी, परंतु धन नहीं, कमजोर आर्थिक स्थिति ने उनके सकारात्मक पहलुओं पर अपना घर बना लिया था। वे अपनी गिरती आर्थिक स्थिति में अपने बच्चों को भागीदार बनाना नहीं चाहते थे। आरंभ से अच्छा देखने वाले पिताजी के लिए यह दिन बड़े कष्टदायक थे। इससे उनका स्वभाव क्रोधी हो गया था। उनके क्रोध का भाजन सदैव माँ बनती थी। जय से उन्होंने अपने लोगों से ही धोखा खाया है उनका स्वभाव शक्की हो गया था। वे हर किसी को शक की नजरों से देखते थे।

लेखिका अपने पिता जी को याद करके यह बताना चाहती है उसमें उसके पिता जी के कितने गुण और अवगुण आए है। उनके व्यवहार ने सदैव लेखिका को हीनता का शिकार बनाया है। लेखिका का रंग काला था। शरीर से भी यह दुबली-पतली थी, परंतु उसके पिता जी को गोरा रंग पसंद था। उससे बड़ी बहन सुशीला गोरे रंग की थी, इसलिए वह पिता जी की चहेती थी। पिता जी हर बात पर उसकी तुलना सुशीला से करते थे, जिससे उसमें हीन भावना घर कर गई। वह हीन भावना उसमें से आज तक नहीं निकली थी। आज भी वह किसी के सामने खुलकर अपनी तारीफ़ सुन नहीं पाती। लेखिका को अपने कानों पर यह विश्वास नहीं होता कि उन्होंने लेखिका के रूप में इतनी उपलब्धियां प्राप्त की हैं; लेखिका पर अपने पिता का पूरा प्रभाव था। उसे अपने व्यवहार में कहीं-न-कहीं अपने पिता का व्यवहार दिखाई देता था। दोनों के विचार सदैव आपस में टकराते रहे थे। समय मनुष्य को अवश्य बदलता है, परंतु कुछ जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि वे अपने स्थान से नहीं हिलती। पिता से विपरीत स्वभाव की लेखिका की माँ थी। वे हर समय सब की सेवा में तैयार रहती थी। पिता जी की हर कमजोरी माँ पर निकलती थी। वे हर बात को अपना कर्त्तव्य मानकर पूरा करती थी। लेखिका और उसके दूसरे भाई-बहिनों का माँ से विशेष लगाव था परंतु लेखिका की माँ उसका आदर्श कभी नहीं बन पाई।

लेखिका पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। उसकी बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। लेखिका को उसकी शादी की धुंधली-सी यादें हैं। घर के आंगन में उसको खेल में साथ उसकी बहन सुशीला ने दिया। दोनों बचपन के वे सभी खेल खेलती थीं जो सभी बच्चे खेलते हैं। दोनों अपने भाइयों के साथ लड़कों वाले खेल भी खेलती थीं, परंतु उनके खेल का दायरा घर का आँगन था। लड़के कहीं भी आ-जा सकते थे उस समय घरों का आँगन अपने घर तक सीमित नहीं था। वे पूरे मोहल्ले के घरों के आँगन तक आ-जा सकती थी। उस समय मोहल्ले के सभी घर एक-दूसरे के परिवारों का हिस्सा होते थे। लेखिका को आज की फ्लैट वाली जिंदगी असहाय लगती है। उसे लगता है कि उसकी दर्जनों कहानियों के पात्र उसी मोहल्ले के हैं जहाँ उसने अपना बचपन और यौवन व्यतीत किया था उस मोहल्ले के लोगों की छाप उसके मन पर इतनी गहरी थी कि वह किसी को भी अपनी कहानी या उपन्यास का पात्र बना लेती थी और उसे पता ही नहीं चलता था। उस समय के समाज में लड़की की शादी के लिए योग्य आयु सोलह वर्ष तथा मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्ति समझी जाती थी। उसकी बहन सुशीला की शादी सन् 1944 में हो गई थी। उसके दोनों बड़े भाई पढ़ाई के लिए बाहर चले गए थे। सबके चले जाने के पश्चात् लेखिका को अपने व्यक्तित्व का अहसास हुआ। उसके पिता जी ने भी उसे कभी घर के कार्यों के लिए प्रेरित नहीं किया। उन्होंने सदा उसे राजनीतिक सभाओं में अपने साथ बैठाया। वे चाहते थे कि उसे देश की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। उस समय देश में घट भी बहुत कुछ रहा था। चारों तरफ आजादी की लहर दौड़ रही थी। लेखिका की आयु काफ़ी कम थी, फिर भी उसे क्रांतिकारियों और देशभक्तों, शहीदों की कुर्वानियाँ रोमांचित कर देती थीं।

दसवीं कक्षा तक तो लेखिका को जो भी साहित्य मिलता उसे पढ़ लेती थी, परंतु जैसे ही दसवीं पास करके कॉलेज में ‘फर्स्ट ईयर’ में गई। वहाँ हिंदी की अध्यापिका शीला अग्रवाल ने उसका वास्तविक रूप में साहित्य से परिचय करवाया। वे स्वयं उसके लिए किताबें चुनती और उसे पढ़ने को देती थी उन विषयों शीला अग्रवाल, लेखिका से लंबी बहस करती थी। इससे उसके साहित्य का दायरा बढ़ा। लेखिका ने उस समय के सभी बड़े-बड़े लेखकों के साहित्यों को पढ़कर समझना आरंभ कर दिया था। अध्यापिका शीला अग्रवाल की संगति ने उसका परिचय मात्र साहित्य से ही नहीं अपितु घर से बाहर की दुनिया से भी करवाया पिता जी के साथ आरंभ से ही राजनीतिक सभाओं में हिस्सा लेती थी, परंतु उन्होंने उसे सक्रिय राजनीति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उस समय सन् 1946-47 में देश का वातावरण इस प्रकार था कि कोई भी व्यक्ति अपने घर में चुप रहकर नहीं बैठ सकता था। अध्यापक शीला अग्रवाल की बातों ने उसकी रगों में जोश भर दिया था। वह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़कों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी, परंतु उसके पिता जी को यह बातें अच्छी नहीं लगती थीं। वे दोहरे व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे आधुनिकता के समर्थक होते हुए भी दकियानूसी विचारों के थे एक ओर तो वे मन्नू को घर में हो रही राजनीतिक सभाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित करते दूसरी ओर उन्हें उसका घर से बाहर की राजनीतिक उथल-पुथल में भाग लेना अच्छा नहीं लगता था। यहीं पर दोनों पिता-बेटी के विचारों में टकराहट होने लगी थी दोनों के मध्य विचारों की टकराहट राजेंद्र से शादी होने तक चलती रही थी।

लेखिका के पिता जी की सबसे बड़ी कमजोरी यश की चाहत थी उनके अनुसार कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि जिससे समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान हो। उनकी इसी चाहत ने लेखिका को उनके क्रोध का भाजन बनने से बचाया था। एक बार कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र पिता जी के नाम आया। उन्होंने उन्हें उसके बारे में बातचीत करने के लिए बुलाया था। पिता जी को बहुत क्रोध आया था, परंतु जब वे कॉलेज से लौटे तो बहुत खुश थे उन्होंने बताया कि ठसका कॉलेज में बहुत दबदबा है, सारा कॉलेज उसके एक इशारे पर खाली हो जाता है। वे तीन लड़कियाँ हैं, जिन्होंने कॉलेज चलाना मुश्किल कर रखा था। पिता जी को प्रिंसिपल की बातें सुनकर गर्व हुआ कि उनके घर भी एक ऐसा नेता है जो सभी को एक आवाज़ में अपने साथ चलने के लिए प्रेरित कर सकता है। पिता जी के मुँह से अपने लिए प्रशंसा सुनकर उसे अपने कानों और आँखों पर विश्वास नहीं हुआ था। ऐसी ही एक घटना और थी। उन दिनों आजाद हिंद फौज का मुकद्दमा चल रहा था। सभी स्कूल, कॉलेजों में हड़ताल चल रही थी। सारा युवा वर्ग अजमेर के मुख्य बाजार के चौराहे पर एकत्रित हुआ। वहाँ सभी ने अपने विचार रखे। लेखिका ने भी अपने विचार उपस्थित भीड़ के सामने रखे। उसके विचार सुनकर उसके पिता जी के मित्र ने आकर पिता जी को उसके बारे में उल्टी-सीधी बातें कह दी जिसे सुनकर पिता जी आग-बबूला हो गए। वे सारा दिन माँ पर कुछ-न-कुछ बोलते रहे। रात के समय जब वह घर लौटी तो उसके पिता के पास उनके एक अभिन्न मित्र अंबा लाल जी बैठे थे डॉ० अंबा लाल जी ने मन्नू को देखते ही उसकी प्रशंसा करनी आरंभ कर दी। वे उसके पिता जी से बोले कि उन्होंने मन्नू का भाषण न सुनकर अच्छा नहीं किया। मन्नू ने बड़ा ही अच्छा और जोरदार भाषण दिया। पिता जी यह सब सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनके चेहरे पर गर्व के भाव थे। बाद में उसे उसकी माँ ने दोपहर में पिता जी के क्रोध वाली बात बताई तो उसकी साँस में साँस आई।

लेखिका आज अपने अतीत में देखती है कि उसे यह समझ नहीं आता कि क्या वास्तव में उसका भाषण जोरदार था या फिर उस समय के समाज में किसी लड़की द्वारा उपस्थित भीड़ के सामने नि:संकोच से धुआँधार बोलना ही सब पर अपना प्रभाव छोड़ गया था। परंतु लेखिका के पिता जी कई प्रकार के अंतर्विरोधों में जी रहे थे। वे आधुनिकता और पुराने विचारों दोनों के समर्थक थे। उनके यही विचार कई प्रकार के विचारों के विरोध का कारण बनते थे मई 1947 में अध्यापक शीला अग्रवाल को कॉलेज से निकाल दिया गया था उन पर यह आरोप था कि वे कॉलेज की लड़कियों में अनुशासनहीनता फैला रही थी। लेखिका के साथ दो और लड़कियों को ‘धर्ड इयर’ में दाखिला नहीं दिया गया। कॉलेज में इस बात को लेकर खूब शोर-शराबा हुआ। जीत लड़कियों की हुई, परंतु इस जीत की खुशी से भी ज्यादा एक और खुशी प्रतीक्षा में थी। वह उस शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उस समय भारत 15 अगस्त, सन् 1947 को आजाद हुआ था।

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NCERT Solution –एक कहानी यह भी

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मानवीय करुणा की दिव्य चमक का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 13 | मानवीय करुणा की दिव्य चमक Summary | Quick revision Notes ch-13 Kshitij | EduGrown

 

manveya karuna ki divyachmak summary

लेखक परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इनक जन्म 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनकी उच्च शिक्षा इलाहबाद विश्वविधयालय से हुई।  अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर, दिनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। ये बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। सन 1983 में इनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मानवीय करुणा की दिव्य चमक का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 13 | मानवीय करुणा की दिव्य चमक  Summary | Quick revision Notes ch-13 Kshitij | EduGrown

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक ‘सर्वेश्वर दयाल सक्सेना’ हैं। यह पाठ एक संस्मरण है। लेखक ने इस पाठ में फ़ादर बुल्के से संबंधित स्मृतियों का वर्णन किया है। फ़ादर बुल्के ने अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल को छोड़कर भारत को अपनी कार्यभूमि बनाया। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष लगाव था।

फ़ादर की मृत्यु जहरबाद से हुई थी। उनके साथ ऐसा होना ईश्वर का अन्याय था। इसका कारण यह था कि वे सारी उम्र दूसरों को अमृत-सी मिठास देते रहे थे। उनका व्यक्तित्व ही नहीं अपितु स्वभाव भी साधुओं जैसा था। लेखक उन्हें पैंतीस सालों से जानता था। वे जहां भी रहे अपने प्रियजनों पर ममता लुटाते रहे थे। फ़ादर को याद करना, देखना और सुनना ये सब कुछ लेखक के मन में अजीब शांत-सी हलचल मचा देते थे। उसे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब वह उनके साथ काम करता था। फ़ादर बड़े भाई की भूमिका में सदैव सहायता के लिए तत्पर रहते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि वह फ़ादर की बात कहां से शुरू करे। फ़ादर जब भी मिलते थे वे जोश में होते थे। उनमें प्यार और ममता कूट-कूट कर भरी हुई थी। किसी ने भी कभी उन्हें क्रोध में नहीं देखा था। फ़ादर बह बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे जब वे संन्यासी होकर भारत आ गए। उनका पूरा परिवार बेल्जियम के रैम्स चैपल में रहता था। भारत में रहते हुए वे अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल और अपनी माँ को प्राय: याद करते थे। वे अपने विषय में बताते थे कि उनकी माँ ने उनके बचपन में ही घोषणा कर दी थी कि यह लड़का हाथ से निकल गया है और उन्होंने अपनी माँ की बात पूरी कर दी। वे संन्यासी बनकर भारत के गिरजाघर में आ गए। आरंभ के दो साल उन्होंने धर्माचार की पढ़ाई की । 9- 10 साल तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। कलकत्ता से उन्होंने बी० ए० की पढ़ाई की। इलाहाबाद से एम०ए० किया था। उन्होंने अपना शोध कार्य प्रयाग विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग से सन् 1950 में पूरा किया था। उनके शोध कार्य का विषय-रामकथा: उत्पत्ति और विकास था। उन्होंने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लूबर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ नाम से रूपांतर किया। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। यहाँ रहकर उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेज़ी हिंदी कोश तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद भी किया। रांची में ही उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था।

फ़ादर बुल्के मन से नहीं अपितु संकल्प से संन्यासी थे। वे जिससे एक बार रिश्ता जोड़ लेते थे उसे कभी नहीं तोड़ते थे। दिल्ली आकर कभी वे बिना मिले नहीं जाते थे। मिलने के लिए सभी प्रकार की तकलीफों को सहन कर लेते थे। ऐसा कोई भी संन्यासी नहीं करता था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। वे हर सभा में हिंदी को सर्वोच्च भाषा बनाने की बात करते थे। वे उन लोगों पर झुंझलाते थे जो हिंदी भाषा वाले होते हुए भी हिंदी की उपेक्षा करते थे। उनका स्वभाव सभी लोगों की दु:ख-तकलीफों में उनका साथ देना था। उनके मुँह से सांत्वना के दो बोल जीवन में रोशनी भर देते थे। लेखक की जब पत्नी और पुत्र की मृत्यु हुई उस समय फ़ादर ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।’ लेखक को उनकी बीमारी का पता नहीं चला था। वह उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली पहुँचा था। वे चिरशांति की अवस्था में लेटे थे। उनकी मृत्यु 18 अगस्त, सन् 1982 को हुई। उन्हें कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके ताबूत के साथ रघुवंश जी, जैनेंद्र कुमार, डॉ० सत्य प्रकाश, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन, विजयेंद्र स्नातक और रघुवंश जी का बेटा आदि लोग थे। साथ में मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण थे। सभी दुःखी और उदास थे। उनका अंतिम संस्कार मसीही विधि से हुआ था। उनकी अंतिम यात्रा में रोने वालों की कमी नहीं थी। इस तरह एक छायादार, फल-फूल गंध से भरा वृक्ष हम सबसे अलग हो गया उनकी स्मृति जीवन भर यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह सबके मन में बनी रहेगी। लेखक उनकी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धा से नतमस्तक है।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

पार्ट-1

‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी हैं। उन्होंने बेल्जियम देश (यूरोप) में जन्मे फादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व और जीवन का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है। फादर बुल्के एक ईसाई संन्यासी थे लेकिन उनका व्यवहार कतई  संन्यासी  जैसा नहीं था। वे संन्यासी होते हुए भी लोगों के साथ मधुर संबंध रखते थे।

          कभी-कभी लेखक को लगता है कि फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। मन से नहीं । क्योंकि वे एक बार जिससे रिश्ता बनाते, तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद भी उनकी गंध महसूस की जा सकती है। वे जब भी दिल्ली आते थे, तो मिलकर ही जाते थे। यह कौन संन्यासी करता है?


पार्ट-2           

भारत को वे अपना देश मानते थे। फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था, जो गिरजों, पादरियों, धर्मगुरूओं और संतों की भूमि कही जाती है। लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि भारत को चुना ।

               फ़ादर का बचपन और स्कूल की पढ़ाई रैम्सचैपल में ही हुई थी । उनके पिता एक बिजनेसमैन थे। उनका एक भाई पादरी था और दूसरा भाई माता-पिता के साथ घर में रहकर काम करता था। उनकी एक बहिन भी थी। जब उनसे पूछा जाता था कि तुमको अपने देश की याद आती है? तब वे कहते थे- अब भारत ही मेरा देश है ।


पार्ट-3       

बुल्के ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर संन्यासी बनने का निर्णय लिया था। उन्होंने संन्यासी बनने पर भारत जाने की शर्त रखी थी और उनकी शर्त मान ली गई थी। फादर बुल्के भारत व भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित थे। इसीलिए उन्होंने यह शर्त रखी थी।

          कामिल बुल्के संन्यासी बनने  के बाद भारत आए। फिर यहीं के हो कर रह गए।


पार्ट-4

फादर बुल्के को अपनी मां से बहुत लगाव था । वे अक्सर उनको याद करते थे। उनकी मां उन्हें पत्र लिखती रहती थी, जिसके बारे में वह अपने मित्र  डॉ. रघुवंश को बताते थे।  भारत में आकर उन्होंने ‘जिसेट संघ’ में दो साल तक पादरियों के साथ  रहकर धर्माचार(धर्म  पालन) की पढ़ाई की। फिर 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। उसके बाद उन्होंने कोलकाता से बी.ए और इलाहाबाद से हिंदी में एम.ए की डिग्री प्राप्त की। और इसी के साथ ही उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950 में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ विषय में शोध (पी.एच.-डी) भी किया।


पार्ट-5         

कामिल बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ के नाम से अनुवाद किया। बाद में वे ‘सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची’ में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष बने। यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश’ भी तैयार किया और बाइबिल का भी हिंदी में अनुवाद किया। इन्हीं कारणों से उनका हिंदी के प्रति गहरा प्रेम दिखाई देता है। और वहीं बीमार पड़े, पटना से दिल्ली गए।

               दिल्ली में जहरबाद (एक तरह का फोड़ा) की बीमारी के कारण 73 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। वे भारत में लगभग 47 वर्षों तक जीवित रहे।  इस बीच वो सिर्फ तीन या चार बार ही बेल्जियम गए थे। फादर बुल्के का लेखक से बहुत गहरा संबंध था। फादर बुल्के लेखक के परिवार के सदस्य जैसे थे। लेखक का परिचय फादर बुल्के से इलाहाबाद में हुआ था, जो जीवन पर्यंत रहा। लेखक फादर के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे।


पार्ट-6        

लेखक के अनुसार फादर वात्सल्य (बड़ों का छोटों के प्रति प्रेम) व प्यार की साक्षात मूर्ति थे। वे हमेशा लोगों को अपने आशीष वचनों  से भर देते थे। उनके हृदय में हर किसी के लिए प्रेम, दया व अपनेपन  का भाव था। वह लोगों के दुख में शामिल होते और उन्हें अपने मधुर वचनों से सांत्वना देते थे। फादर की इच्छा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वह अक्सर हिंदी भाषियों की हिंदी के प्रति उपेक्षा देखकर दुखी हो जाते थे।

          फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। लेखक उस वक्त भी दिल्ली में ही रहते थे। लेकिन उनको फादर की बीमारी का पता समय से न चल पाया, जिस कारण वह मृत्यु से पहले फादर बुल्के के दर्शन नहीं कर सके। इस बात का लेखक को गहरा अफ़सोस था ।


पार्ट-7             

वह 18 अगस्त 1982 की सुबह 10 बजे कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी सी नीली गाड़ी में से कुछ पादरियों, रघुवंशीजी के बेटे, राजेश्वर सिंह द्वारा उतारा गया। फिर उस ताबूत को पेड़ों की घनी छाँव वाली सड़क से कब्र तक ले जाया गया। उसके बाद फादर बुल्के के मृत शरीर को धरती की गोद में सुला दिया। रांची के फादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से उनका अंतिम संस्कार किया और  सबने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।

          उनके अंतिम संस्कार के वक्त वहां हजारों लोग इकट्ठे थे, जिन्होंने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि दी। इसके अलावा वहाँ जैनेन्द्र कुमार, विजेंद्र स्नातक, अजीत कुमार, डॉ निर्मला जैन, मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण, डॉक्टर सत्यप्रकाश और डॉक्टर रघुवंश भी उपस्थित थे।


पार्ट-8         

लेखक कहता है, “मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा ।”  लेकिन उस समय रोने वालों की कोई कमी नहीं थी । उस समय नम आँखों को गिनना स्याही फ़ैलाने जैसा है। लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीवन भर दूसरों को वात्सल्य व प्रेम का अमृत पिलाया। और  जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उसकी मृत्यु जहरबाद से हुई। यह फादर के प्रति ऊपर वाले का घोर अन्याय है।

               लेखक ने फादर की तुलना एक ऐसे छायादार वृक्ष से की है जिसके फल फूल सभी मीठी-मीठी सुगंध से भरे रहते हैं और जो अपनी शरण में आने वाले सभी लोगों को अपनी छाया से शीतलता प्रदान करता है।


पार्ट-9        

ठीक उसी तरह फादर बुल्के भी हम सबके साथ रहते हुए, हम जैसे होकर भी, हम सब से बहुत अलग थे। प्राणी मात्र के लिए उनका प्रेम व वात्सल्य उनके व्यक्तित्व को मानवीय करुणा की दिव्य चमक से प्रकाशमान करता था।

               लेखक के लिए उनकी स्मृति किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह है जो आजीवन बनी रहेगी। लेखक का मानना है कि जबतक राम कथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जायेगा और उन्हें हिंदी भाषा का प्रेमी माना जाएगा। आज फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है ।

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NCERT Solution –लखनवी अंदाज

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लखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

Dलखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता  Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

 

lakhnavi andaaz class 10 summary

लेखक परिचय

यशपाल

इनका जन्म सन 1903 में पंजाब के फिरोजपुर छावनी में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा काँगड़ा में ग्रहण करने के बाद लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी.ए. किया। वहाँ इनका परिचय भगत सिंह और सुखदेव से हुआ। स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी धारा से जुड़ाव के कारण ये जेल भी गए। इनकी मृत्यु सन 1976 में हुई।

यशपाल | Dलखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता  Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

 Lakhnavi Andaaz Short Summary : लखनवी अंदाज पाठ सार

लेखक को पास में ही कहीं जाना था। लेखक ने यह सोचकर सेकंड क्लास का टिकट लिया की उसमे भीड़ कम होती है, वे आराम से खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देखते हुए किसी नए कहानी के बारे में सोच सकेंगे। पैसेंजर ट्रेन खुलने को थी। लेखक दौड़कर एक डिब्बे में चढ़े परन्तु अनुमान के विपरीत उन्हें डिब्बा खाली नही मिला। डिब्बे में पहले से ही लखनऊ की नबाबी नस्ल के एक सज्जन पालथी मारे बैठे थे, उनके सामने दो ताजे चिकने खीरे तौलिये पर रखे थे। लेखक का अचानक चढ़ जाना उस सज्जन को अच्छा नही लगा। उन्होंने लेखक से मिलने में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। लेखक को लगा शायद नबाब ने सेकंड क्लास का टिकट इसलिए लिया है ताकि वे अकेले यात्रा कर सकें परन्तु अब उन्हें ये बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था की कोई सफेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफर करता देखे। उन्होंने शायद खीरा भी अकेले सफर में वक़्त काटने के लिए ख़रीदा होगा परन्तु अब किसी सफेदपोश के सामने खीरा कैसे खायें। नबाब साहब खिड़की से बाहर देख रहे थे परन्तु लगातार कनखियों से लेखक की ओर देख रहे थे।

अचानक ही नबाब साहब ने लेखक को सम्बोधित करते हुए खीरे का लुत्फ़ उठाने को कहा परन्तु लेखक ने शुक्रिया करते हुए मना कर दिया। नबाब ने बहुत ढंग से खीरे को धोकर छिले, काटे और उसमे जीरा, नमक-मिर्च बुरककर तौलिये पर सजाते हुए पुनः लेखक से खाने को कहा किन्तु वे एक बार मना कर चुके थे इसलिए आत्मसम्मान बनाये रखने के लिए दूसरी बार पेट ख़राब होने का बहाना बनाया। लेखक ने मन ही मन सोचा कि मियाँ रईस बनते हैं लेकिन लोगों की नजर से बच सकने के ख्याल में अपनी असलियत पर उतर आयें हैं। नबाब साहब खीरे की एक फाँक को उठाकर होठों तक ले गए, उसको सूँघा। खीरे की स्वाद का आनंद में उनकी पलकें मूँद गयीं। मुंह में आये पानी का घूँट गले से उतर गया, तब नबाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। इसी प्रकार एक-एक करके फाँक को उठाकर सूँघते और फेंकते गए। सारे फाँको को फेकने के बाद उन्होंने तौलिये से हाथ और होठों को पोछा। फिर गर्व से लेखक की ओर देखा और इस नायब इस्तेमाल से थककर लेट गए। लेखक ने सोचा की खीरा इस्तेमाल करने से क्या पेट भर सकता है तभी नबाब साहब ने डकार ले ली और बोले खीरा होता है लजीज पर पेट पर बोझ डाल देता है। यह सुनकर लेखक ने सोचा की जब खीरे के गंध से पेट भर जाने की डकार आ जाती है तो बिना विचार, घटना और पात्रों के इच्छा मात्र से नई कहानी बन सकती है।

 Lakhnavi Andaaz Detailed Summary : लखनवी अंदाज पाठ सार

पार्ट-1

    लखनवी अंदाज़ एक व्यंगात्मक कहानी है। इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है- ट्रेन चलने को तैयार थी। लेखक को कहीं दूर जाना नहीं था। इसलिए भीड़ से बचने और एकांत में बैठना चाहते थे। जिससे नई कहानी के बारे में सोच सकें । और  ट्रेन की खिड़की से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों को भी देख सकें । इसिलए  लोकल ट्रेन के सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया था ।


पार्ट-2

      गाड़ी छूट रही थी। इसीलिए लेखक  सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर थोडा दौड़कर चढ़ गए। जिस डिब्बे को वो खाली समझकर चढ़े थे। वहाँ पहले से ही एक लखनवी नवाब(सफ़ेद पोश) बहुत आराम से पालथी मारकर बैठे हुए थे। उनके सामने तौलिए पर दो ताजे खीरे रखे थे। लेखक के आने से उनको अच्छा नहीं लगा था। उनको देख नवाब साहब बिल्कुल भी खुश नहीं हुए क्योंकि उन्हें अपना एकांत भंग होता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने लेखक से बात करने में भी कोई रूचि नहीं दिखाई। लेखक जाकर उनके सामने वाली सीट पर बैठ जाता है।

पार्ट-3

लेखक का खाली बैठकर कल्पना करने की पुरानी आदत थी। इसलिए वो अपने आने से नवाब साहब को होने वाली असुविधा का अनुमान लगाने लगे। वे सोच रहे थे शायद नवाब साहब ने अकेले आराम से यात्रा करने की इच्छा से सेकंड क्लास का टिकट ले लिया होगा ।


पार्ट-4

      नवाब साहब को यह अच्छा नहीं लग रहा था कि कोई व्यक्ति उन्हें सेकंड क्लास में सफर करते देखे। उन्होंने अकेले सफर में समय काटने के लिए दो खीरे ख़रीदे होंगे। लेकिन अब किसी अंजान  व्यक्ति के सामने खीरा कैसे खाएँ ?

नवाब साहब ने गाड़ी की खिड़की से बाहर गौर से देखा।  और लेखक कनखियों (तिरछी नजरों से) से नवाब साहब की ओर देख रहे थे।


पार्ट-5

      फिर अचानक नवाब साहब ने लेखक से खीरा खाने के लिए पूछा। लेकिन लेखक ने नवाब साहब को शुक्रिया कहकर मना कर दिया। उसके बाद नवाब साहब ने दोनों खीरों को लिया और सीट के नीचे लोटा निकाला। और खिड़की के बाहर धोकर तौलिए से पोंछ लिया। जेब से चाकू निकालकर उनके सिर काट लेते हैं। फिर छील उनकी फाकें बनाकर तौलिए पर सजा लेते हैं। उसके बाद उनपर पिसा जीरा और लाल मिर्च मिला नमक डालते हैं। नमक पड़ते ही खीरों से पानी निकलने लगता है।


पार्ट-6

उसके बाद नवाब साहब एक बार लेखक से फिर खीरा खाने के लिए पूछते हैं। चूँकि वे पहले ही इनकार कर चुके थे। इसीलिए उन्होंने अपना आत्म सम्मान बचाने के लिए इस बार पेट खराब कहकर खीरा खाने से मना कर दिया। वैसे लेखक का खीरा खाने को मन तो कर रहा था।

उसके बाद नवाब साहब ने खीरे के टुकड़ों को देखा। फिर खिड़की के बाहर देख कर एक गहरी सांस ली। और उन्होंने खीरे की फाँकों (टुकड़े) को बारी -बारी से उठाकर होठों तक लाकर सूंघा। स्वाद के आनंद में नवाब साहब की पलकें मुंद गईं। उसके बाद नवाब साहब ने खीरे के उन टुकड़े को खिड़की से बाहर फेंक दिया।


पार्ट-7

     खीरे के सारे टुकड़ों को सूँघकर बाहर फेंकदिया । उसके  बाद उन्होंने आराम से तौलिए से हाथ और होंठों को पोछा।  बाद में  बड़े गर्व से लेखक की ओर गुलाबी आँखों से देखते हैं। और ऐसा लगता है जैसे लेखक से कहना चाह रहे हों-यह है खानदानी रईसों का तरीका!नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थक कर लेट जाते हैं। लेखक गौर कर रहे थे कि क्या ‘सिर्फ खीरे को सूंघकर ही पेट भरा जा सकता है?’ तभी नवाब साहब एक ऊँची डकार लेते हैं और लेखक से कहते हैं- खीरा लजीज होता है लेकिन पेट पर बोझ डाल देता है।


पार्ट-8

यह सुनकर लेखक के ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। उन्होंने सोचा कि जब खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से ही पेट भर कर डकार आ सकती है, तो बिना विचार, घटना और पात्रों के, लेखक की इच्छा मात्र से ‘नई कहानी‘ क्यों नहीं बन सकती अर्थात् लिखी जा सकती है?

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NCERT Solution –लखनवी अंदाज

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बालगोबिन भगतकविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 11 | बालगोबिन भगत कविता Summary | Quick revision Notes ch-11 Kshitij | EduGrown

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लेखक परिचय

रामवृक्ष बेनीपुरी

इनका जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन 1889 में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण , आरम्भिक वर्ष अभावों-कठिनाइयों और संघर्षों में बीते। दसवीं तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रीय रूप से जुड़ गए। कई बार जेल भी गए।इनकी मृत्यु सन 1968 में हुई।

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बालगोबिन भगत Balgobin Summary Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

बालगोबिन भगत मंझोले कद के गोर-चिट्टे आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से उपर थी और बाल पक गए थे। वे लम्बी ढाढ़ी नही रखते थे और कपडे बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों की सी कनफटी टोपी। सर्दियों में ऊपर से कम्बल ओढ़ लेते। वे गृहस्थ होते हुई भी सही मायनों में साधू थे। माथे पर रामानंदी चन्दन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहने रहते। उनका एक बेटा और पतोहू थे। वे कबीर को साहब मानते थे। किसी दूसरे की चीज़ नही छूटे और न बिना वजह झगड़ा करते। उनके पास खेती बाड़ी थी तथा साफ़-सुथरा मकान था। खेत से जो भी उपज होती, उसे पहले सिर पर लादकर कबीरपंथी मठ ले जाते और प्रसाद स्वरुप जो भी मिलता उसी से गुजर बसर करते।


वे कबीर के पद का बहुत मधुर गायन करते। आषाढ़ के दिनों में जब समूचा गाँव खेतों में काम कर रहा होता तब बालगोबिन पूरा शरीर कीचड़ में लपेटे खेत में रोपनी करते हुए अपने मधुर गानों को गाते। भादो की अंधियारी में उनकी खँजरी बजती थी, जब सारा संसार सोया होता तब उनका संगीत जागता था। कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जातीं। वे अहले सुबह नदी-स्नान को जाते और लौटकर पोखर के ऊँचे भिंडे पर अपनी खँजरी लेकर बैठ जाते और अपना गाना शुरू कर देते। गर्मियों में अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। उनकी संगीत साधना का चरमोत्कर्ष तब देखा गया जिस दिन उनका इकलौता बेटा मरा। बड़े शौक से उन्होंने अपने बेटे कि शादी करवाई थी, बहू भी बड़ी सुशील थी। उन्होंने मरे हुए बेटे को आँगन में चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढक रखा था तथा उसपर कुछ फूल बिखरा पड़ा था। सामने बालगोबिन ज़मीन पर आसन जमाये गीत गाये जा रहे थे और बहू को रोने के बजाये उत्सव मनाने को कह रहे थे चूँकि उनके अनुसार आत्मा परमात्मा पास चली गयी है, ये आनंद की बात है। उन्होंने बेटे की चिता को आग भी बहू से दिलवाई। जैसे ही श्राद्ध की अवधि पूरी हुई, बहू के भाई को बुलाकर उसके दूसरा विवाह करने का आदेश दिया। बहू जाना नही चाहती थी, साथ रह उनकी सेवा करना चाहती थी परन्तु बालगोबिन के आगे उनकी एक ना चली उन्होंने दलील अगर वो नही गयी तो वे घर छोड़कर चले जायेंगे।

बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनके अनुरूप ही हुई। वे हर वर्ष गंगा स्नान को जाते। गंगा तीस कोस दूर पड़ती थी फिर भी वे पैदल ही जाते। घर से खाकर निकलते तथा वापस आकर खाते थे, बाकी दिन उपवास पर। किन्तु अब उनका शरीर बूढ़ा हो चूका था। इस बार लौटे तो तबीयत ख़राब हो चुकी थी किन्तु वी नेम-व्रत छोड़ने वाले ना थे, वही पुरानी दिनचर्या शुरू कर दी, लोगों ने मन किया परन्तु वे टस से मस ना हुए। एक दिन अंध्या में गाना गया परन्तु भोर में किसी ने गीत नही सुना, जाकर देखा तो पता चला बालगोबिन भगत नही रहे।

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NCERT Solution –बालगोबिन भगत

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