Chapter 11 जब सिनेमा ने बोलना सीखा का सार Notes class 8th Hindi Vasant

सारांश


लेखक ने इस पाठ में देश की पहली बोलने वाली फिल्म का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब देश की पहली बोलने वाली फिल्म ‘आलम आरा’ प्रदर्शित होने वाली थी तो शहर भर में उसके पोस्टरों में कुछ इस तरह की पंक्तियाँ लिखी हुई थी कि- ‘वे सभी जिन्दा हैं, साँस ले रहे हैं, शत-प्रतिशत बोल रहे हैं, अठहत्तर मुर्दा मानव ज़िंदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।’ इन पंक्तियों का अर्थ था कि फिल्म में जितने भी पात्र हैं वह सब जीवित नजर आ रहे हैं, सभी उनको बोलते, बातें करते देख सकते हैं, इस तरह का विज्ञापन तैयार करके लोगों को फिल्म को देखने के लिए आकर्षित किया गया था और यह ‘आलम आरा’ फिल्म का सबसे पहला पोस्टर था।
14 मार्च 1931 की वह ऐतिहासिक तारीख भारतीय सिनेमा में बड़े बदलाव का दिन था। इसी दिन पहली बार भारत के सिनेमा ने बोलना सीखा था। हालाँकि वह दौर ऐसा था जब मूक सिनेमा लोकप्रियता के शिखर पर था।


आलम आरा’ पहली सवाक फिल्म है। ये फिल्म 14 मार्च 1931 को बनी। भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनाने वाले फिल्मकार ‘अर्देशिर एम. ईरानी’ थे। अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी थी जिससे उन्हें इस तरह की फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली और उनके मन में भी भारतीय सिनेमा में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जागी।


इस फिल्म में पहले पार्श्वगायक बने डब्लू. एम. खान। पहला गाना था ‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे अगर देने की ताकत है’। आलम आरा का संगीत उस समय डिस्क फॉर्म में रिकार्ड नहीं किया जा सका, फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो साउंड के कारण ही इसकी शूटिंग रात में करनी पड़ती थी।


आलम आरा फिल्म ‘अरेबियन नाइट्स’ जैसी फैंटेसी थी। फिल्म ने हिंदी-उर्दू के मेलवाली ‘हिंदुस्तानी’ भाषा को लोकप्रिय बनाया। इसमें गीत, संगीत तथा नृत्य के अनोखे संयोजन थे। फिल्म की नायिका जुबैदा थीं। नायक थे विट्ठल। वे उस दौर के सर्वाधिक पारिश्रमिक पाने वाले स्टार थे।


लेखक कहते है कि जब विट्ठल को फिल्म के नायक के रूप में चुना गया तो उनके बारे में एक कहानी बहुत ही मशहूर थी कि विट्ठल को उर्दू बोलने में मुश्किलें आती थीं। पहले तो उनका बतौर नायक चयन किया गया मगर उर्दू न बोल पाने के कारण उन्हें फिल्म में नायक की भूमिका से हटाकर उनकी जगह मेहबूब को नायक बना दिया गया। मेहबूब भी एक बहुत ही प्रसिद्ध और बेहतरीन कलाकार रहे हैं।


विट्ठल नाराज़ हो गए और अपना हक पाने के लिए उन्होंने मुकदमा कर दिया। उस दौर में उनका मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा जो तब के मशहूर वकील हुआ करते थे। विट्ठल मुकदमा जीते और भारत की पहली बोलती फिल्म के नायक बनें।


इसके नायक बिट्ठल तथा नायिका जुबैदा थी। अर्देशिर को इस फिल्म को बनाने के बाद ‘भारतीय सवाक्‌ फिल्म का पिता’ कहा गया। ये फिल्म 8 सप्ताह तक हाउस फुल चली थी।
इस फिल्म में सिर्फ तीन वाद्य यंत्र प्रयोग किये गए थे। आलम आरा फिल्म फैंटेसी फिल्म थी। फिल्म ने हिंदी-उर्दू के तालमेल वाली हिंदुस्तानी भाषा को लोकप्रिय बनाया। यह फिल्म 14 मार्च 1931 को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक ‘हाउसफुल’ चली और भीड़ इतनी उमड़ती थी कि पुलिस के लिए नियंत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था।


इसी फिल्म के उपरान्त ही फिल्मों में कई ‘गायक – अभिनेता’ बड़े परदे पर नज़र आने लगे। आलम आरा भारत के अलावा श्रीलंका, बर्मा और पश्चिम एशिया में पसंद की गई।
इसी सिनेमा से सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया था।

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Chapter 10 कामचोर का सार Notes class 8th Hindi Vasant

इस कहानी की लेखिका इस्मत चुगताई जी हैं। इस्मत चुगताई की कहानी “कामचोर” , लगभग ऐसे हर घर की कहानी है जिसमें दो या दो से ज्यादा बच्चे व भी कामचोर होते हैं। यह कहानी लेखिका व उसके परिवार के अन्य बच्चों की कहानी है जो दिन भर या तो बैठकर आराम फरमाते रहते हैं या फिर मौज मस्ती और शरारत करने में अपना पूरा दिन निकाल देते थे। यहां तक कि वे खुद के कार्य भी अपने आप नहीं करते थे।

ऐसे में घर के बड़ों ने सोचा कि घर के सारे नौकरों को निकाल दिया जाए और इन निकम्मे बच्चों को घर के छोटे-बड़े कामों में हाथ बटाँना सिखाया जाए । सोच को हकीकत का रूप देने से असली कहानी की शुरूवात होती हैं। 

मां-बाप के बातों को सुनकर बच्चों ने सोचा कि हमें भी कुछ काम खुद करने चाहिए। सो बच्चों ने काम की शुरुवात अपने लिए पीने का पानी खुद लाने से की और फिर सभी बच्चे मटके और सुराहियों से पानी लेने दौड़ पड़े।

फिर क्या था पहले पानी लेने के चक्कर में धक्का-मुक्की शुरू हो गई। कोई किसी से डरने वाला नहीं था और कोई किसी की सुनने वाला भी नहीं था। सो वहीं पर फिर से लड़ाई झगड़ा शुरू हो गया। नतीजा सारे मटके , सुराहियों , पतीलियों इधर-उधर बिखर गई और बच्चे बुरी तरह से पानी से भीग गए।

लेखिका की मां ने फरमान सुनाया “जो काम नहीं करेगा। उसे रात का खाना नहीं दिया जाएगा”।  यह सुनते ही सभी बच्चे काम करने के लिए राजी हो गये। लेखिका की मां ने बच्चों को कई सारे काम बताए। जैसे गंदी दरी को साफ करना , आंगन में पड़े कूड़े को साफ करना , पेड़ पौधों में पानी देना आदि। साथ में लेखिका के पिता ने बच्चों को इनाम का लालच भी दिया।

बच्चों ने अपने काम की शुरुआत फर्श पर पड़ी दरी साफ करने से शुरू की। दरी की धूल साफ करने के लिए बच्चों ने उस पर लकड़ी के डंडों से मारना शुरू कर दिया जिसकी वजह से दरी की सारी धूल कमरे में फैल गई और बच्चों के नाक और आंखों में धुस गई जिसकी वजह से बच्चे खाँसते-खाँसते बेदम हो गए।

इसके बाद बच्चों ने दूसरा मोर्चा संभाला आंगन में झाड़ू लगाने का। कुछ बच्चों के दिमाग में यह बात आयी कि झाड़ू लगाने से पहले थोड़ा पानी डाल देना चाहिए। फिर क्या था दरी में डालकर पानी छिड़कने का कार्य शुरू हुआ। काम तो क्या होना था। लेकिन छीना झपटी की वजह से बच्चों ने झाड़ू के तिनके तिनके बिखेर दिए। पानी डालने की वजह से पूरा आंगन व बच्चे कीचड़ से सन गये।

खैर अगला काम था पेड़ – पौधों में पानी देना। सारे बच्चे घर की सारी बाल्टियों , लोटे , भगौने आदि लेकर पौधों में पानी डालने निकल पड़े। अब पानी भरने के लिए भी लड़ाई झगड़ा , धक्का-मुक्की शुरू हो गई। नतीजा सारे बच्चे कीचड़ से सन गये। बच्चों को काबू करने के लिए सभी बड़ों को ( भाइयों , मामा-मामी , मौसी आदि ) को बुला लिया गया। फिर पड़ोस के बंगलों से नौकर बुला कर चार आना प्रति बच्चे के हिसाब से , हर बच्चे को नहलाया गया।

बच्चे यह मान चुके थे कि उनसे सफाई और पौधों में पानी देने का काम नहीं हो सकता है। इसलिए अब वो मुर्गियों को उनके दबड़े (मुर्गी घर) में बंद करने का कार्य करेंगे। फिर क्या था सभी बच्चे मुर्गियों को पकड़ने लगे जिस वजह से मुर्गियों डर के मारे इधर उधर भागने लगी। डर से भागती  मुर्गियों ने घर की रसोई से लेकर पूरे आंगन में खूब उत्पात मचाया। लेकिन उन बच्चों से एक भी मुर्गी दबड़े में नहीं गई।

अचानक कुछ बच्चों का ध्यान घर आती हुई भेड़ों के ऊपर चला गया। उन्होंने सोचा कि क्यों न भेड़ों को ही खाना खिला दिया जाए। जैसे ही उन्होंने अनाज के दाने भेड़ों के आगे रखे तो , सारी भूखी भेड़ें अनाज पर टूट पड़ी और कुछ भेड़ों ने रसोई में रखी सब्जियों , मटर और अन्य चीजों को भी खाना शुरु कर दिया जिस वजह से पूरे घर में अफरा-तफरी का माहौल हो गया। बड़ी मुश्किल से भेड़ों पर काबू पाया गया। 

इतना सब काम करने के बाद भी बच्चे कहां मानने वाले थे। उन्होंने फिर से काम करने की सोची और भैसों का दूध दोहने में जुट गए। भैंस इतने सारे बच्चों को वहां देख कर डर गई और उसने चारों पैरों में उछलकर दूसरी तरफ छलांग लगा दी।

बच्चों ने सोचा कि क्यों न भैंस के पैर बाँधकर दूध निकाला जाय और बच्चों ने भैंस के अगले दो पैर चाचाजी की चारपाई से बांध दिए। भैंस डर के मारे इधर-उधर भागने लगी और साथ में चाचा जी की चारपाई भी धसीट कर अपने साथ ले गई।

अब भैंस जहां-जहां जाती। चाचाजी भी चारपाई सहित वहाँ वहाँ जाते। इतने में कुछ बच्चों ने भैंस का बछड़ा भी खोल दिया । बछड़े के चिल्लाने से भैंस रुक गई और बछड़ा तत्काल दूध पीने में लग गया।

इतना सब होने के बाद लेखिका की माँ इतना परेशान हो गई कि उन्होंने मायके जाने की धमकी दे डाली। तब पिताजी ने सबको बुलाया और आदेश दिया कि अब से कोई किसी भी काम पर हाथ नहीं लगाएगा।

अगर कोई किसी काम पर हाथ लगायेगा , तो उसे रात का खाना नहीं दिया जाएगा। यानि कहानी जहां से शुरू हुई थी वहीं पर आकर खत्म हो गई। निकम्मे बच्चे जो पहले भी कोई काम नहीं करते थे। आज के बाद भी नहीं करेंगे। 

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Chapter 9 कबीर की साखियॉं का सार Notes class 8th Hindi Vasant

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मेल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।1।।

कबीर की साखियाँ अर्थ सहित: कबीर की साखी की इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि हमें कभी भी सज्जन इंसान की जाति पर ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि हमें तो उसके गुणों के आधार पर उसका सम्मान करना चाहिए। जैसे, तलवार की कीमत म्यान नहीं, बल्कि तलवार की धार में छिपी होतो है।

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए,वही एक की एक।।2।।

कबीर की साखियाँ अर्थ सहित: प्रस्तुत साखी में कबीरदास जी कहते हैं कि किसी के अपशब्दों का जवाब कभी भी अपशब्दों से मत दो। इससे वो अपशब्द बढ़ने के बजाय घटते-घटते ख़त्म हो जाएंगे।

माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।
मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै,  यह तौ सुमिरन नाहिं।।3।।

कबीर की साखियाँ अर्थ सहित: प्रस्तुत दोहे में कबीर जी कहते हैं कि अगर आपका मन प्रभु की भक्ति में नहीं लगता है, तो फिर हाथ में माला लेकर घूमना, मुख से प्रभु का नाम लेना बेकार है। अगर प्रभु को पाना है, तो हमें एकाग्र होकर उनकी भक्ति करनी होगी।

कबीर घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ।।4।।

कबीर की साखियाँ अर्थ सहित: प्रस्तुत दोहे में कबीर जी कहते हैं कि हमें कभी भी किसी को छोटा समझकर उसका निरादर नहीं करना चाहिए। जैसे, घास को छोटा समझ कर हर वक़्त दबाना नहीं चाहिए क्योंकि अगर इसका एक तिनका भी आंख में चला जाए, तो हमें बहुत पीड़ा होती है। 

जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय।
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय।।5।।

कबीर की साखियाँ अर्थ सहित: प्रस्तुत साखी में कबीर जी कहते हैं कि जिस मनुष्य का मन शांत होता है, दुनिया में उसका कोई शत्रु नहीं हो सकता है। यदि दुनिया का हर मनुष्य स्वार्थ, क्रोध जैसी भावनाओं का त्याग कर दे, ओ वो दयालु और महान बन सकता है।

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Chapter 8 यह सबसे कठिन समय नहीं का सार Notes class 8th Hindi Vasant

यह सबसे कठिन समय नहीं भावार्थ – Yeh Sabse Kathin Samay Nahi Class 8 Summary

नहीं, यह सबसे कठिन समय नहीं!
अभी भी दबा है चिड़ियाँ की
चोंच में तिनका
और वह उड़ने की तैयारी में है!
अभी भी झरती हुई पत्ती
थामने को बैठा है हाथ एक
अभी भी भीड़ है स्टेशन पर
अभी भी एक रेलगाड़ी जाती है
गंतव्य तक
यह सबसे कठिन समय नहीं भावार्थ: कवयित्री के अनुसार, भले ही हर तरफ अविश्वास का अंधकार छाया है, लेकिन अभी भी उनके मन में आशा की किरणें चमक रही हैं, वो कहती हैं – ये सबसे बुरा वक्त नहीं है। 

अभी चिड़िया अपना घोंसला बुनने के लिए तिनके जमा कर रही है। वृक्ष से गिरती पत्ती को थामने के लिए कोई हाथ अभी मौजूद है। अभी भी अपनी मंज़िल तक पहुंचने का इंतज़ार कर रहे यात्रियों को उनकी मंज़िल तक ले जाने वाली गाड़ी आती है। 

जहाँ कोई कर रहा होगा प्रतीक्षा
अभी भी कहता है कोई किसी को
जल्दी आ जाओ कि अब
सूरज डूबने का वक्त हो गया
अभी कहा जाता है
उस कथा का आखिरी हिस्सा
जो बूढ़ी नानी सुना रही सदियों से
दुनिया के तमाम बच्चों को
अभी आती है एक बस
अंतरिक्ष के पार की दुनिया से
लाएगी बचे हुए लोगों की खबर!
नहीं, यह सबसे कठिन समय नहीं।
यह सबसे कठिन समय नहीं भावार्थ: कवयित्री ने निराशा से भरे इस संसार में भी आशा का दामन थाम रखा है। तभी वो इन पंक्तियों में कहती हैं कि यह सबसे बुरा समय नहीं है। आज भी कोई घर पर किसी का इंतज़ार करता है और सूरज डूबने से पहले उसे घर बुलाता है। जब तक इस दुनिया में दादी-नानी की सुनाई दिलचस्प कहानियां गूँजती रहेंगी, तब तक ये दुनिया बसी रहेगी और सबसे बुरा वक्त नहीं आएगा।

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Chapter 7 क्या निराश हुआ जाए का सार Notes class 8th Hindi Vasant

क्या निराश हुआ जाए पाठ का सार

Kya Nirash Hua Jaye saransh

लेखक आज के समय में फैले हुए डकैती ,चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार से बहुत दुखी है। आजकल का समाचार पत्र आदमी को आदमी पर विश्वास करने से रोकता है। लेखक के अनुसार जिस स्वतंत्र भारत का स्वप्न गांधी, तिलक, टैगोर ने देखा था यह भारत अब उनके स्वप्नों का भारत नहीं रहा। आज के समय में ईमानदारी से कमाने वाले भूखे रह रहे हैं और धोखा धड़ी करने वाले राज कर रहे हैं।


लेखक के अनुसार भारतीय हमेशा ही संतोषी प्रवृति के रहे हैं। वे कहते हैं आम आदमी की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कानून बनाए गए हैं किन्तु आज लोग ईमानदार नहीं रहे। भारत में धर्म को कानून से बढ़कर माना गया है,  शायद इसलिए  आज भी लोगों में ईमानदारी, सच्चाई है। लेखक को यह सोचकर अच्छा लगता है कि अभी भी लोगों में इंसानियत बाकी है उदहारण के लिए वेबस और रेलवे स्टेशन पर हुई घटना की बात बताते हैं।


इन उदाहरणो से लेखक के मन में आशा की किरण जागती है और वे कहते हैं कि अभी निराश नहीं हुआ जा सकता। लेखक ने टैगोर के एक प्रार्थना गीत का उदाहरण देकर कहा है कि जिस प्रकार उन्होंने भगवान से प्रार्थना की थी कि चाहे जितनी विपत्ति आए  वे भगवान में ध्यान लगाए रखें। लेखक को विश्वास है की एक दिन भारत इन्ही गुणों के बल पर वैसा ही भारत बन जायेगा जैसा वह चाहता है। अतः अभी निराश न हुआ जाए ।

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Chapter 6 भगवान के डाकिए का सार Notes class 8th Hindi Vasant

भगवान के डाकिए कविता का सारांश – Bhagwan Ke Dakiye Poem Meaning in Hindi : भगवान के डाकिए कविता में कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने पक्षी और बादलों को भगवान के डाकिए कहा है। उनके अनुसार ये एक देश के संदेशों को दूसरे देश तक पहुंचाते हैं। भले ही हम उनके पत्रों को ना समझ पाएं, लेकिन पर्वत, पेड़-पौधे और पानी आदि इनकी चिट्ठियां आसानी से पढ़ लेते हैं। कवि के अनुसार, हवाओं में तैरते बादल और बादलों पर उड़ते पक्षी एक देश की खुशबू और भाप को दूसरे देश तक ले जाते हैं। 

भगवान के डाकिए का भावार्थ – Bhagwan Ke Dakiye Class 8 Summary

पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड
बाँचते हैं।

भगवान के डाकिए भावार्थ: भगवान के डाकिए कविता की इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि आसमान में तैरते बादल और पक्षी भगवान के डाकिए हैं। ये एक देश से उड़कर दूसरे देश तक जाते हैं और ख़ास संदेशों का आदान-प्रदान करते हैं। ये संदेश हम समझ नहीं पाते, लेकिन भगवान के संदेश को पर्वत, जल, पेड़-पौधे आदि बख़ूबी समझ लेते हैं।

हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरते हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में पानी
बनकर गिरता है।

भगवान के डाकिए भावार्थ: रामधारी सिंह दिनकर जी ने यहां हमें प्रकृति की महानता के बारे में बताया है। हम तो धरती को सीमाओं में बांट लेते हैं, लेकिन प्रकृति के लिए सब एक-समान हैं। इसीलिए एक देश की धरती अपनी सुगंध दूसरे देश को भेजती है। ये सुगंध पक्षियों के पंखों पर बैठकर यहां-वहां फैलती है और एक देश की भाप, दूसरे देश में पानी बनकर बरस जाती है।

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Chapter 5 चिठ्ठियों की अनूठी दुनिया का सार Notes class 8th Hindi Vasant

सार

‘चिट्ठियों की दुनिया’ लेख अरविन्द कुमार सिंह द्वारा लिखित है जो पत्रों के उपयोगिता को दर्शाती है| इस आधुनिक समाज में जब विभिन्न त्वरित संचारों ने मनुष्य के जीवन को घेर रखा है उसमें लेखक ने पत्रों से होने वाले लाभ को बड़े ही सहज रूप में उकेरा है|

संसार में फ़ोन या एसएमएस आ जाने के बाद भी पत्र का महत्व बना है| राजनीति, साहित्य और कला के क्षेत्रों के तमाम विवाद और घटनाओं की शुरुआत पत्र से ही होती है| पत्रों को विभिन्न जगहों पर विभिन्न नामों से जाना जाता है। इन्हें उर्दू में ‘खत’, संस्कृत में ‘पत्र’, कन्नड़ में ‘कागद’, तेलगू में ‘उत्तरम’, ‘जाबू’ व और ‘लेख’ तथा तमिल में ‘कडिद’ कहा जाता है। भारत में प्रतिदिन लगभग चार करोड़ पत्र डाक में डाले जाते हैं जो इसकी लोकप्रियता को बताती है|

पत्र लेखन अब एक कला है| पत्र संस्कृति विकसित करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रमों में पत्र लेखन के विषय को भी शामिल किया गया है| विश्व डाक संघ भी पत्र लेखन को बढ़ावा देने के लिए प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाता है जिसकी शुरुआत 1972 में हुई|

पत्रों का इंतज़ार सभी को होता है। हमारे सैनिक पत्रों का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं| आज देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है, जो अपने पुरखों की चिट्ठियों को सहेज कर रखे हुए हैं। बड़े-बड़े लेखक, पत्रकार, उद्यमी, कवि, प्रशासक, संन्यासी या किसान – इनकी पत्र रचनाएँ अपने आप में अनुसंधान का विषय हैं। पंडित नेहरू द्वारा इंदिरा गाँधी को लिखे गए, पत्र करोड़ों लोगों को प्रेरणा देते हैं। एसoएमoएसo संदेश सँजोकर नहीं रखे जा सकते, पर पत्र यादगार के रुप से सहेजकर रखे जा सकते है। दुनिया के अनेक संग्रहालयों में महान हस्तियों के पत्र देखे जा सकते हैं।

महात्मा गांधी के पास दुनिया भर से ढेर सारे पत्र केवल महात्मा गांधी-इंडिया नाम से लिखे आते थे। अपने पास आए तमाम पत्रों का जवाब वे स्वयं दिया करते थे।  पत्रों के आधार पर अनेक किताबें लिखी गई हैं। निराला के पत्र ‘हमको लिख्यौ है कहा’, पंत के दो सौ पत्र बच्चन के नाम’ आदि इसके प्रमाण हैं। पत्र दस्तावेज जैसा ही महत्व रखते हैं। प्रेमचंद नए लेखकों को पत्र के माध्यम से प्रेरित करने का काम करते थे। नेहरू, गाँधी- रवींद्रनाथ टैगोर के पत्र प्रेरणा स्रोत हैं|

पत्रों का चलन भारत में बहुत पुराना है| परन्तु आजादी के बाद इसके विकास में बहुत तेजी आई है| डाक विभाग लोगों को जोडऩे का काम करता है। जन-जन तक इसकी पहुँच है। शहर के आलीशान महल में जी रहे लोग, बर्फबारी के बीच रह रहे पहाड़ी लोग, मछुआरे या रेगिस्तान में रह रहे लोग सबको पत्रों का इंतजार बेसब्री से रहता है। दूरदराज के क्षेत्रों मे डाक विभाग द्वारा मनीऑर्डर पहुँचने पर ही वहाँ चूल्हा जलता है। गरीब बस्तियों में डाकिये को देवदूत के रुप में देखा जाता है, क्योंकि उसी के आने से उन्हें पैसा तथा खुशियाँ मिल पाती हैं।

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Chapter 4 दीवानों की हस्ती का सार  Notes class 8th Hindi Vasant

सार

‘दीवानों की हस्ती’ कविता को लिखा है भगवतीचरण शर्मा ने| यह कविता आजादी से पहले की है| कवि ने उन दीवानों अर्थात उन वीरों का वर्णन किया है जो देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ लुटाने को तैयार रहते हैं|

हम दीवानों की क्या हस्ती,
हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले,
मस्ती का आलम साथ चला,
हम धूल उड़ाते जहाँ चले।

आए बनकर उल्लास अभी,
आँसू बनकर बह चले अभी,
सब कहते ही रह गए, अरे,
तुम कैसे आए, कहाँ चले? 

कवि कहते हैं दीवाने अर्थात वीर देश की आजादी के लिए कुछ भी करने को तत्पर हैं| ये बेफिक्र लोग हैं| जहाँ भी ये जाते हैं, खुशियाँ खुद चली आती हैं| ये लोग एक जगह नहीं टिकते| जब ये आते हैं तो कुछ के चेहरों पर ख़ुशी यानी अंग्रेज़ सरकार द्वारा प्रताड़ित लोगों के चेहरों पर ख़ुशी तो वहीं जाते हैं यानी शहीद होते हैं तो उन लोगों के आँखों में आँसू छोड़ जाते हैं| उन्हें जल्दी वापस जाता देख लोगों उनसे पूछना चाहते हैं कि तुम अभी तो आए हो और अभी किधर जा रहे हो।

किस ओर चले? यह मत पूछो,
चलना है, बस इसलिए चले,
जग से उसका कुछ लिए चले,
जग को अपना कुछ दिए चले।

दो बात कही, दो बात सुनी;
कुछ हँसे और फिर कुछ रोए।
छककर सुख-दुख के घूँटों को
हम एक भाव से पिए चले।

दीवाने लोगों से कहते हैं कि वे कहाँ जा रहे हैं यह उनसे ना पूछे चूँकि मंजिल किधर है यह उन्हें भी नहीं पता| वे मंजिल कि ओर चलते जाने को ही जीवन समझते हैं| वे जग से दुःख लेते जा रहे हैं और अपने गुण और खुशियाँ देते जा रहे हैं| मंजिल के रास्ते में दीवानों ने लोगों पर हो रहे अत्याचारों, उनके विचारों को सुना और कुछ अपने विचारों को भी रखा| ऐसा कर उन्हें हंसी और दुःख दोनों का अनुभव हुआ| लेकिन इस सुख-दुख के चक्र को उन्होंने एक समान माना| न तो सुख से अधिक खुश हुए और न ही दुख से अधिक दुखी। इसी तरह इन्होनें अपना जीवन जिया।

हम भिखमंगों की दुनिया में,
स्वच्छंद लुटाकर प्यार चले,
हम एक निसानी-सी उर पर,
ले असफलता का भार चले। 

अब अपना और पराया क्या?
आबाद रहें रुकनेवाले!
हम स्वयं बँधे थे और स्वयं
हम अपने बंधन तोड़ चले। 

दीवाने इस भिखमंगों की दुनिया यानी गरीब स्नेहरहित लोगों के लिए अपना प्यार लुटाया| ऐसा करते समय उन्होंने कोई भेदभाव नहीं किया| इन सब के बावजूद वे अपने लक्ष्य यानी आजादी से दूर रहे, इस बात का भी भार उन्होंने अपने सर लेकर दुनिया से विदा हुए| दीवानों के लिए कौन अपना कौन पराया| वे धर्म, जाति को नहीं मानते| उनका लक्ष्य तो केवल आजादी है ताकि सब ख़ुशी से रहें| हंसी से रहने के लिए जो बंधन दीवानों ने बनाये थे जब वह आजादी छिनने लगे तब उन्होंने खुद इन बन्धनों को भी तोड़ा| धन्यवाद|

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Chapter 3 बस की यात्रा का सार  Notes class 8th Hindi Vasant

सार

‘बस की यात्रा’ पाठ एक व्यंग्यात्मक यात्रा वृतान्त है जिसे लिखा है हरिशंकर परसाई जी ने| यह । लेखक ने उन प्राइवेट बस कम्पनियों पर व्यंग्य किया है जो ज्यादा मुनाफा के लिए यात्रियों की जान-माल के साथ खिलवाड़ करते हैं| तो शुरू करते हैं|

लेखक और उसके चार साथियों को जबलपुर जानेवाली ट्रेन पकड़नी थी। इसके लिए उन्होंने बस से पन्ना से सतना जाने का कार्यक्रम बनाया। वे सुबह पहुँचना चाहते थे। उनमें से दो को सुबह काम पर भी जाना था। कुछ लोगों ने उन्हें शाम वाली बस से यात्रा न करने की सलाह भी दी।

लेखक ने जब बस को देखा तो उन्हें वह जर्जर हालत में लगी| उन्हें लगा बस वृध्दावस्था में है| लेखक को लगा बस पूजा करने योग्य है, इस पर चढ़ा कैसे जा सकता है? उसी बस में कंपनी के एक हिस्सेदार भी यात्रा कर रहे थे। उनके अनुसार बस एकदम ठीक थी और अच्छी तरह से चलेगी। बस की हालत देखकर लेखक और उसके साथी उससे जाने का निश्चय नहीं कर पा रहे थे। लेखक के डॉक्टर मित्र ने कहा कि यह बस नई-नवेली बसों से भी ज्यादा विश्वसनीय है चूँकि अनुभवी है। लेखक अपने साथियों के साथ बस में बैठ गया। जो छोडऩे आए थे, वे इस तरह देख रहे थे, मानो वे इस दुनिया से जा रहे हों।

बस के चालू होते ही सारी बस हिलने लगी। खिड़कियों के बचे-खुचे काँच भी गिरने की स्थिति में आ गए। लेखक को डर लग रहा था कि वे काँच गिरकर उसको ही घायल न कर दें। उन्हें लग रहा था कि सारी बस ही इंजन है। बस को चलता हुआ देखकर लेखक को गाँधी जी के असहयोग आंदोलन की बात याद आ गई जिसमें भारतवासी अंग्रेजों का सहयोग नहीं कर रहे थे  उसी तरह बस के अन्य भाग भी उसका सहयोग नहीं कर रहे थे। आठ-दस मील चलने पर ऐसा लगने लगा कि लेखक सीट पर बैठा नहीं बल्कि अटका है|

अचानक बस रुक गई। पता चला कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राइवर ने पेट्रोल बाल्टी में निकाल लिया और अपनी बगल में रखकर नली से इंजन में भेजने लगा। बस की चाल कम हो रही थी। लेखक का बस पर से पूरी तरह से भरोसा उठ गया। उसे डर लग रहा था कि कहीं बस का स्टेयरिंग न टूट जाए या उसका ब्रेक न फेल हो जाए। उसे हरे-भरे पेड़ अपने दुश्मन से लग रहे थे क्योंकि उनसे बस टकरा सकती थी। सड़क के किनारे झील देखने पर वह सोचता कि बस इसमें गोता न लगा जाए।

इसी बीच बस पुन: रुक गई। ड्राइवर के प्रयासों के बाद भी बस न चली। कंपनी के हिस्सेदार बस को फर्स्ट क्लास की बताते हुए इसे महज संयोग बता रहे थे। कमजोर चाँदनी में बस ऐसी लग रही थी जैसे कोई वृद्धा थककर बैठ गई हो। उसे डर लग रहा था कि इतने लोगों के बैठने से इसका प्राणांत ही न हो जाए और उन सबको उसकी अंत्येष्टि न करनी पड़ जाए।

कंपनी के हिस्सेदार ने बस इंजन को खोलकर कुछ ठीक किया। बस तो चल पड़ी पर उसकी रफ़्तार अब और भी कम हो गई। बस की हेडलाइट की रोशनी भी कम होती जा रही थी। वह बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। अन्य गाडिय़ों के आने पर वह किनारे खड़ी हो जाती थी।

बस कुछ दूर चलकर पुलिया पर पहुँची थी कि उसका एक टायर फट गया और बस झटके से रुक गई। यदि बस स्पीड में होती तो उछलकर नाले में गिर जाती। लेखक बस कंपनी के हिस्सेदार को श्रद्धाभाव से देख रहा था चूँकि वह अपनी जान की परवाह किए बिना वह बस में सफर किए जा रहा था। परन्तु लेखक को लगा कि उसके साहस और बलिदान की भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा था। उसे तो क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए था।

बस के नाले में गिरने से यदि यात्रियों की मृत्यु हो जाती तो देवता बाँहें पसारे उसका इंतज़ार करते और कहते कि वह महान आदमी आ रहा है जिसने अपनी जान दे दी पर टायर नहीं बदलवाया। दूसरा टायर लगाने पर बस पुन: चल पड़ी। लेखक एवं उसके मित्र पन्ना या कहीं भी कभी भी जाने की उम्मीद छोड़ चुके थे। उन्हें लग रहा था कि पूरी जिंदगी उन्हें इसी बस में बिताना है| अब वे घर की तरह आराम से बैठ गए और चिंता छोडक़र हँसी-मज़ाक में शामिल हो गए।

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Chapter 2 लाख की चूड़ियाँ का सार Notes class 8th Hindi Vasant

सार

‘लाख की चूड़ियाँ’ कहानी को लिखा है कामतानाथ जी ने, जिसमें लेखक ने मशीनों द्वारा छिनते कारीगरों रोजगार को तो दर्शाया ही हैं साथ ही एक कुशल कारीगर के स्वाभिमान को भी दिखाया है|

लेखक बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में अपने ननिहाल अपने मामा के पास जाया करते थे और एक-डेढ़ महीना रहकर आते थे। वहाँ पर उसे बदलू नाम का व्यक्ति सबसे अच्छा लगता था चूँकि वह लेखक को लाख की गोलियाँ देता था। वह पेशे से मनिहार यानी चूड़ियाँ बनाने वाला था। वह लाख की सुन्दर-सुन्दर चूड़ियाँ बनाया करता था। बदलू का मकान गाँव में कुछ ऊँचाई पर था, जिसके सामने नीम का पेड़ था। उसी की बगल में बनी भट्ठी पर बदलू लाख पिघलाया करता था। लाख को मुंगेरिओ पर चढ़ाकर वह उन्हें चूडिय़ों का आकार देता था|

लेखक अन्य बच्चों की तरह उसे बदलू काका कहते थे| आसपास की औरतें भी चूड़ियाँ बदलू काका से ही ले जाती थीं। हालांकि वह चूड़ियों के बदले पैसे ना लेकर अनाज लिया करता था| परन्तु शादी-ब्याह के मौकों पर वह चूड़ियों का मुँह माँगा दाम लेता था। वह स्वभाव से बहुत सीधा सादा था।

बदलू को काँच की चूडिय़ों से बहुत चिढ़ थी। वह किसी महिला की कलाई पर काँच की चूडिय़ाँ देखकर गुस्सा हो जाता था। वह बचपन में लेखक से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछता। लेखक उसे बताता कि शहर में सभी औरतें काँच की चूडिय़ाँ पहनती हैं। वह लेखक को रंग-बिरंगी लाख की गोलियों के अलावा गाय के दूध की मलाई तथा आम की फसल के समय खाने को आम दिया करता था।

पिता की बदली दूर शहर में होने के कारण लेखक आठ-दस वर्षों तक गाँव न जा सका| वह लगभग आठ दस साल के बाद गाँव गया। अब बड़ा होने पर उसे इसमें कोई रुचि नहीं थी। लेखक ने देखा कि गाँव की सभी स्त्रियाँ अब काँच की चूड़ियाँ पहनने लगी थीं।

एक दिन उसके मामा की लड़की फिसलकर गिर गई और काँच की चूडिय़ों के चुभने से उसकी कलाई में घाव हो गया, जिसकी पटटी लेखक को कराने जाना पड़ा। इस घटना से लेखक को बदलू का ध्यान आ गया। वह बदलू से मिलने उसके घर गया। आज भी वह उसी नीम के पेड़ के नीचे चारपाई बिछा लेटा था। बदलू काका का शरीर बुढा हो चुका था उसे खाँसी भी थीं। बदलू ने लेखक को पहचाना नहीं। तब लेखक ने उसे अपना परिचय दिया जिससे लेखक ने उसे पहचाना|

बदलू की लाख की चूड़ियों का काम बर्बाद हो गया था। उसकी गाय भी बिक चुकी थी| बदलू काका ने लेखक को बताया कि आजकल सभी काम मशीन से होते हैं। मशीनी काँच की चूड़ियाँ लाख की चूड़ियों से अधिक सुन्दर होती हैं।

इसी बीच बदलू की बेटी, रज्जो डलिया में आम ले आई। लेखक की दृष्टि रज्जो की कलाई पर सुंदर लग रही लाख की चूडिय़ों पर गई। यह देख बदलू ने लेखक को बताया यही उसके द्वारा बनाया गया आखिरी जोड़ा है, जिसे उसने जमींदार की लड़की के विवाह के लिए बनाया था। जमींदार इस जोड़े के दस आने दे रहा था। इस दाम पर बदलू ने उसे चूडिय़ों का जोड़ा नहीं दिया और शहर से लाने को कह दिया। बदलू की इस बात में लेखक ने उसका स्वाभिमान देखा|

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