Chapter 4 धर्मचक्र प्रवर्तन का सार notes class 8th hindi Sanshipt Budhacharit

धर्मचक्र प्रवर्तन संक्षिप्त बुद्धचरित पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त बुद्धचरित पुस्तक से लिया गया है. इस अध्याय में सिद्धार्थ के ज्ञान प्राप्ति के पश्चात काशी गमन का वर्णन किया गया है. प्रस्तुत अध्याय के अनुसार बुद्धत्व को प्राप्त करने के बाद शाक्य मुनि को शांति की शक्ति का अनुभव हुआ. बुद्ध बनकर वे अकेले ही चल पड़े थे, परन्तु ऐसा लग रहा था, जैसे कि उनके पीछे-पीछे बड़ा जनसमूह चला आ रहा हो. शाक्य मुनि धीरे-धीरे काशी की ओर अग्रसर होने लगे. उन्होंने दूर से ही काशी को देखा जहाँ वरुणा और गंगा ऐसे मिल रही थीं जैसे दो सखियाँ मिल रही हों. वे वहां से मृगदाव मन (सारनाथ) गए, जहाँ सघन वृक्षों पर मोर बैठे हुए थे. मृगदाव वन में वे पाँच भिक्षु रहते थे, जिन्होंने शाक्य मुनि को तप-भ्रष्ट भिक्षु मानकर उनका संग छोड़ दिया था. पाँचों भिक्षुओं ने जब शाक्य मुनि को आते हुए देखा, तो वो आपस में बातें करने लगे. उन्होंने निश्चय कि वे इस तप-भ्रष्ट का अभिवादन नहीं करेंगे. यदि यह पहले हमसे बोलेगा तभी हम इससे बात करेंगे. लेकिन जब भगवान बुद्ध उनके समीप आ गए तो पाँचों भिक्षु अपने पूर्व निश्चय के विपरीत एकदम खड़े हो गए. उन्होंने विनयपूर्वक उनका अभिवादन किया. किसी ने उनका भिक्षापात्र लिया, किसी ने उनका चीवर उठाया, किसी ने चरण धोने के लिए जल दिया और किसी ने बैठने के लिए आसन बिछाया. 

तत्पश्चात, बुद्ध ने उन भिक्षुओं को समझाते हुए कहा कि – जैसे विषयों में आसक्त लोग अज्ञानी हैं, वैसे ही अपने आपको क्लेश देने वाले लोग भी अज्ञानी हैं. क्यूंकि क्लेश द्वारा अमरत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता. मेरी दृष्टि में मध्य मार्ग के जो चार मूलभूत सत्य हैं, वे हैं – दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निरोध और दुःख के निरोध के उपाय. मैंने दिव्य दृष्टि से ये आर्य सत्य जान लिए हैं और उनका अनुभव किया. दुःख है, यह मैंने पहचाना और उसके कारणों को छोड़ा. इसी तरह दुःख के निरोध का अनुभव किया और उसके उपायों के रूप में इस मार्ग की उद्भावना की है. मैंने इसी ज्ञान के आधार पर निर्वाण प्राप्त किया है. मैं अब बुद्ध हूँ. महात्मा बुद्ध के इन करुणायुक्त वचनों को प्रथम बार कौंडिल्य आदि पाँचों भिक्षुओं ने सुना और दिव्यज्ञान प्राप्त किया. अपने प्रथम प्रवचन के बाद सर्वज्ञ शाक्य मुनि ने पूछा – हे नरोत्तमो ! क्या तुम्हें ज्ञान हुआ ? तो कौंडिल्य ने कहा – हाँ भंते. इसलिए सभी भिक्षुओं में कौंडिल्य को ही प्रधान धर्मवेत्ता माना जता है. पर्वतों पर उपस्थित यक्षों ने सिंहनाद किया और घोषणा की कि जन-जन के सुख के लिए शाक्य मुनि ने धर्मचक्र प्रवर्तित कर दिया है. धर्मचक्र प्रवर्तन का उद्घोष धीरे-धीरे मृत्युलोक और देवलोक में व्याप्त हो गया. सर्वत्र सुख-शांति छा गई. निरभ्र आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी. 

सद्धर्म के प्रचार के लिए अपने शिष्यों को विभिन्न दिशाओं में विदा करके तथागत ख़ुद भी महाऋषियों की नगरी गया के लिए चल पड़े. कुछ समय बाद भगवान् बुद्ध वहां पहुंचे. वे वहां से सीधे काश्यप मुनि के आश्रम में गए. काश्यप मुनि ने उनका स्वागत तो किया, परन्तु ईर्ष्यावश उन्हें मारने की इच्छा से एक ऐसी अग्निशाला में रहने के लिए कहा, जिसमें एक भयंकर सांप रहता था. तथागत निर्विकार भाव से अग्निशाला में गए और शांतिपूर्वक एक वेदी पर बैठ गए. जब सर्प ने फुत्कार मारी तो सारी अग्निशाला जलने लगी परन्तु महात्मा बुद्ध विर्विकार भाव से बैठे रहे. उन्हें विष की अग्नि ने स्पर्श भी नहीं किया. जब सुबह ही तो भगवान बुद्ध ने उस महासर्प को अपने भिक्षापात्र में रखा और उसे लेकर काश्यप मुनि के पास गए. भिक्षापात्र में उस भयंकर महासर्प को विनीत भाव मिएँ बैठा देखकर काश्यप मुनि समझ गए कि यह मुझसे बहुत बड़ा है. अतः उन्होंने तथागत को प्रणाम किया और उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया. काश्यप मुनि के साथ-साथ उनके शिष्यों ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. 

तत्पश्चात भगवान बुद्ध को याद आया कि उन्होंने मगधराज बिम्बिसार को वचन दिया था कि जब उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो जाएगा तो वे उन्हें नए धर्म में दीक्षित करेंगे और उपदेश देंगे. इसलिए उन्होंने सभी काश्यपों को साथ लिया और मगध की राजधानी राजगृह की ओर प्रस्थान किया. भगवान बुद्ध ने जिज्ञासु मगधराज को अनात्मवाद का उपदेश दिया. उनको बताया जैसे सूर्यकांत मणि और ईंधन के संयोग से चेतना का जन्म होता है. बीज से उत्पन्न होने वाला अंकुर जैसे बीज से भिन्न भी है और अभिन्न भी, वैसे ही शरीर इंद्रिय और चेतना परस्पर भिन्न भी है और अभिन्न भी. भगवान बुद्ध के उपदेशों से मगधराज बिम्बिसार ने परमार्थ ज्ञान और पूर्ण धर्म दृष्टि प्राप्त की. उनके साथ आए मगध के अन्य व्यक्ति भी कृतकृत्य हो गए. भगवान बुद्ध काफी समय तक राजगृह में निवास करते रहे. एक दिन उन्हें याद आया कि उन्होंने अपने पिता के मंत्रियों को वचन दिया था कि ज्ञान प्राप्त करके वे कपिलवस्तु लौटेंगे. इसलिए उन्होंने अपने पिता शुद्धोदन के राज्य में जाने का विचार किया और अनेक शिष्यों के साथ राजगृह से कपिलवस्तु के लिए प्रस्थान किया. 

भगवान बुद्ध ने अपने पिता को समझाया – यह सारा संसार कर्म से बंधा हुआ है, अतः आप कर्म का स्वभाव, कर्म का कारण, कर्म का विपाक (फल) और कर्म का आश्रय, इन चारों के रहस्यों को समझिये, क्योंकि कर्म ही है, जो मृत्यु के बाद भी मनुष्य का अनुगमन करता है. आप इस सारे जगत को जलता हुआ समझकर उस पथ की खोज कीजिए जो शांत है और ध्रुव है, जहाँ न जन्म है, न मृत्यु है, न श्रम है और न दुःख. तथागत के चमत्कारों को देखकर और उनके उपदेशों को सुनकर राजा शुद्धोदन का चित्त शुद्ध हो गया, वे रोमांचित हो गए. उन्होंने हाथ जोड़कर तथागत से निवेदन किया – हे आर्य ! आज मैं धन्य हूँ. अपने आपने कृपाकर मुझे मोह से मुक्त किया है. हे तात ! आपका जन्म सफल है. अब मैं सचमुच पुत्रवान हूँ. आपने राजलक्ष्मी और स्वजनों का त्याग किया, दुष्कर तप किया और मुझ पर कृपा की, यह सब उचित है है. आप चक्रवर्ती राजा होकर भी हम सब लोगों को उतना सुख नहीं दे सकते थे, जितना आप आज दे रहे हैं. आपने अपने ज्ञान और सिद्धियों से भव-चक्र को जीत लिया है. बिना राज्य के ही आप सम्पूर्ण लोकों के सम्राट की भांति सुशोभित हैं. यह कहकर राजा ने भगवान बुद्ध को प्रणाम किया. 

राजगृह से तथागत गांधार देश गए. वहां पुष्कर नाम का राजा राज करता था. पुष्कर ने भगवान से ज्ञान प्राप्त किया. परिणामस्वरुप उसमें वैराग्य भाव का उदय हुआ. उसने अपना राज-पात त्याग दिया और संन्यास ग्रहण कर लिया. गांधार देश से वे विपुल पर्वत पर आए और वहां हेमवत और साताग्र नाम के यक्षों को उपदेश दिए. वहां से वे जीवक के आम्रवन में आए और विश्राम किया. कुछ समय बाद तथागत राजगृह से पाटलिपुत्र आए. उस समय मगधराज के मंत्री वर्षाकार लिच्छिवियों को शांत करने के लिए एक दृढ दुर्ग बनवा रहे थे. तथागत ने देखा कि उस दुर्ग के निर्माण के लिए अपार धनराशि आ रही है तो उन्होंने भविष्यवाणी की – शीघ्र ही यह नगर विश्व का महत्वपूर्ण नगर होगा और सर्वत्र ख्याति प्राप्त करेगा. तब मगधराज के मंत्री वर्षाकार ने भगवान बुद्ध की पूजा की और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किए. जब तथागत अपने शिष्यों को इस प्रकार उद्बोधित कर रहे थे, तभी आम्रपाली हाथ जोड़कर उनके उपस्थित हो गई. श्रद्धा तथा शांत भाव से उसने बुद्ध को प्रणाम किया. फिर मुनि की आज्ञा प्राप्त कर वह उनके सामने बैठ गई. भगवान बुद्ध ने आम्रपाली को उपदेश देते हुए कहा – हे सुन्दरी, तुम्हारा आशय पवित्र है, क्योंकि तुम्हारा मन शुद्ध है. तुम्हारा चित्त धर्म की ओर प्रवृत्त है. यही तुम्हारा सच्चा धन है, क्योंकि इस अनित्य संसार में धर्म ही नित्य है. देखो आयु यौवन का नाश करती है, रोग शरीर का नाश करता है और मृत्यु जीवन का नाश करती है, परन्तु धर्म का नाश कोई नहीं कर सकता. आम्रपाली के मन की समस्त वासनाएं समाप्त हो गई और उसे अपनी वृत्ति से घृणा होने लगी. वह तथागत के चरणों में गिर पड़ी और धर्म की भावना से उसने भगवान बुद्ध से निवेदन किया – हे देव, आपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है. आपने संसार को पार कर लिया है. हे साधो, आप मुझ पर दया करें और धर्म लाभ के लिए मेरी भिक्षा स्वीकार करें, मेरे जीवन को सफल करें. भगवान बुद्ध ने आम्रपाली की सच्ची भक्ति-भावना को जानकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली…|| 

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Chapter 3 ज्ञान की प्राप्ति का सार notes class 8th hindi Sanshipt Budhacharit

Class 8 Sankshipt Budhcharit Chapter 3 Gyan Prapti पाठ का सारांश 

प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त बुद्धचरित पुस्तक से लिया गया है. इस अध्याय में सिद्धार्थ के ज्ञान प्राप्ति अथवा दर्शन परिचर्चा का वर्णन किया गया है. प्रस्तुत अध्याय के अनुसार जब शांतिप्रिय अराड मुनि के आश्रम में राजकुमार सिद्धार्थ ने प्रवेश किया तो ऐसा लगा, जैसे उनके शरीर की आभा से सारा आश्रम प्रकाशित हो गया हो. अराड मुनि राजकुमार को निहारते हुए स्नेहपूर्वक कहा – हे सौम्य ! मुझे पता चला है कि आप सभी स्नेह-बंधनों को तोड़कर घर से निकल आए हैं. आपका मन सब प्रकार से धैर्यवान है. आप ज्ञानी हैं, तभी तो राजलक्ष्मी को त्यागकर यहाँ आ गए हैं. यद्यपि शिष्य को अच्छी तरह जानकार ही उचित समय पर शास्त्र-ज्ञान दिया जाता है, परन्तु आपकी गंभीरता और संकल्प को देखकर मैं आपकी परीक्षा नहीं लूँगा. तत्पश्चात, अराड मुनि की बातों से प्रभावित होकर राजकुमार परिव्राजक बोले – आप जैसे विरक्त की यह अनुकूलता मैं कृतार्थ हो गया हूँ. यदि आप उचित समझें तो मुझे जरा और मृत्यु के रोग से मुक्त होने का उपाय बताइए.  

अराड मुनि ने कुमार को संबोधित करते हुए कहा – हे श्रोताओं में श्रेष्ठ ! पहले आप हमारा सिद्धांत सुनिए और समझिए कि यह संसार जीवन और मृत्यु के चक्र के रूप में चलता रहता है. हे मोहमुक्त ! आलस्य है, जन्म-मृत्यु मोह हैं, काम महामोह है और क्रोध तथा विषाद भी अन्धकार है. इन्हीं पाँचों को अविधा कहते हैं और इन्हीं में फंसकर व्यक्ति पुनः-पुनः जन्म और मृत्यु के चक्र में पड़ता है. इस प्रकार आत्मा तत्वज्ञान प्राप्त कर आवागमन से मुक्त होती है और अक्षय पद अमरत्व को प्राप्त करता है. 

अराड मुनि की बातें सुनने के पश्चात कुमार ने कहा – हे मुनि ! मैंने आपसे उत्तरोत्तर कल्याणकारी मार्ग सुना. किन्तु मैं इसे मोक्ष नहीं मान सकता. आत्मा के अस्तित्व को मानने पर अहंकार के अस्तित्व को मानना पड़ता है. मुझे आपकी ये बातें स्वीकार नहीं हैं. अतः अराड मुनि के सिद्धांतों को सुनने के बाद भी कुमार को संतोष नहीं हुआ. यह धर्म अधुरा है, ऐसा मानकर वे उस आश्रम से निकल गए और अपने लक्ष्य की खोज में आगे बढ़ गए. ऐसे ही कुमार ने और भी ऋषियों के आश्रम गए, परन्तु उन्हें कहीं पर भी संतुष्टि नहीं मिला. 

तत्पश्चात कुछ समय के बाद बोधिसत्व कुमार को एकांत विहार की इच्छा हुई. इसलिए उनहोंने नैरंजना नदी के तट पर निवास किया. वहां पर उनहोंने पांच भिक्षुओं को देखा, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को में कर लिया था और वहीं रहकर तपस्या कर रहे थे. उन भिक्षुओं ने जब इस नवागत साधु को देखा तो वे उनके निकट आए और उनकी सेवा करने लगे. कुछ समय बाद जन्म और मृत्यु का अंत करने के उपाय के रूप में बोधिसत्व कुमार ने निराहार रहकर कठोर ताप प्रारंभ किया. वहां उनहोंने छः वर्षों तक कठोर ताप किया और अनेक उपवास व्रत किए. कुछ समय के बाद उन्हें ऐसा लगने लगा कि इस प्रकार की कठोर तपस्या से व्यर्थ ही शरीर को कष्ट होता है. उन्हें ऐसी अनुभूति हुई कि दुर्बल व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता. अतः वे शरीर-बल-वृद्धि के विषय में विचार करने लगे. उन्हें लगा कि आहार तृप्ति से ही मानसिक शक्ति मिलती है. 

इस प्रकार बोधिसत्व राजकुमार सिद्धार्थ ने बोधि प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प लिया और पास ही एक अवश्त्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे भूमि पर आसन लगाकर बैठ गए.  तभी काल नामक एक सर्प प्रकट हुआ, क्यूंकि उसे ज्ञात हो चूका था कि यह मुनि अवश्य ही बोधि प्राप्त करेगा. सर्प ने पहले उनकी स्तुति की फिर कहा – हे मुनि, आपके चरणों से आक्रान्त होकर यह पृथ्वी बार-बार डोल रही है, सूर्य के समान आपकी आभा सर्वत्र प्रकाशित है. आप अवश्य ही अपना लक्ष्य प्राप्त करेंगे. हे कमललोचन ! जिस प्रकार आकाश में नीलकंठ पक्षियों के झुंड आपकी प्रदक्षिणा कर रहे हैं और मंद-मंद पवन प्रवाहित हो रही है, उससे लगता है कि आप अवश्य ही बुद्ध बनेंगे. तत्पश्चात राजकुमार सिद्धार्थ ने बोधि प्राप्त करने के लिए प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि – जब तक मैं कृतार्थ नहीं हो जाता, इस आसन से नहीं उठूँगा. जब महामुनि सिद्धार्थ ने मोक्ष प्राप्ति के प्रतिज्ञा कर आसन लगाया तो सारा लोक अत्यंत प्रसन्न हुआ, परन्तु सद्धर्म का शत्रु मार (कामदेव) भयभीत हो गया. वह अपने पुत्र-पुत्रियों को संबोधित करते हुए कहने लगा कि – देखो, इस मुनि ने प्रतिज्ञा का कवच पहनकर सत्व के धनुष पर अपनी बुद्धि के बाण चढ़ा लिए हैं. यदि यह मुझे जीत लेता है और सारे संसार को मोक्ष का मार्ग बता देता है तो राज्य सूना हो जाएगा. इसलिए यह ज्ञान दृष्टि प्राप्त करे उससे पहले ही मुझे इसका व्रत भंग कर देना चाहिए. अतः मैं भी अभी अपना धनुष-बाण लेकर तुम सबके साथ इस पर आक्रमण करने जा रहा हूँ. जहाँ महामुनि सिद्धार्थ समाधी लगाकर विराजमान थे, वह मार अपने पुत्र-पुत्रियों के साथ पहुंचकर उन्हें ललकारा, परन्तु जब इसका महामुनि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उसने अपने पुत्रों और कन्याओं को आगे भेजा और अपना बाण छोड़ दिया. लेकिन इसका कोई भी प्रभाव मुनि पर नहीं हुआ. ततपश्चात मार ने अपनी सेना को याद किया और उसकी विकराल सेना उपस्थित हो गई. मार ने अपनी सेना को आक्रमण करने का आदेश दिया और कहा कि महर्षि को भयभीत करो, जिसका इसका ध्यान भंग हो जाए. इसी दौरान किसी अदृश्य जीव ने आकाश से प्रकट होकर मार से कहा – तुम व्यर्थ कि क्यों परिश्रम कर रहे हो, जैसे सुमेरु पर्वत को हवा हिला नहीं सकती, वैसे ही तुम और तुम्हारे भूतगण इस महामुनि को विचलित नहीं कर सकते. अंततः मार अपने सारे प्रयत्नों में विफलता पाकर वहां से भाग गया. मार पर महर्षि की विजय होते ही सारा आकाश चन्द्रमा से सुशोभित हो गया, सुगंधित जल सहित पुष्पों की वर्षा होने लगी, दिशाएँ निमल हो गई. 

अंततः इक्ष्वाकु वंश के मुनि राजकुमार सिद्धार्थ ने सिद्धि प्राप्त कर ली और वे बुद्ध हो गए. यह जानकार देवता और ऋषिगण उनके सम्मान के लिए विमानों पर सवार होकर उनके पास आए और अदृश्य रूप में उनकी स्तुति करने लगे. वे देवता बुद्ध से निवेदन करते हुए कहे – हे भवसागर को पार करनेवाले , आप इस दुखी जगत का उद्धार कीजिए. जैसे धनी धन बांटता है, वैसे ही आप अपने गुण और ज्ञान को बांटिए. महात्मा बुद्ध ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार की. तभी देवताओं के माध्यम से बुद्ध को भिक्षा पात्र दिया गया. अतः इस प्रकार संसार के अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाने के लिए महात्मा बुद्ध ने काशी जाने की इच्छा की. वे अपने आसन से उठे, उनहोंने अपने शरीर को इधर-उधर घुमाया और बोधिवृक्ष की ओर प्रेम से देखा…|| 

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Chapter 2 अभिनिष्‍क्रमण का सार notes class 8th hindi Sanshipt Budhacharit

संक्षिप्त बुद्धचरित अध्याय 2 अभिनिष्क्रमण पाठ का सारांश 

प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त बुद्धचरित पुस्तक से लिया गया है. इस अध्याय में सिद्धार्थ के गृह-त्याग का वर्णन किया गया है. प्रस्तुत अध्याय के अनुसार शाक्त पुत्र सिद्धार्थ को विविध प्रकार के आमोद-प्रमोद तथा भोग-विलासों द्वारा लुभाने का प्रयत्न किया गया था, परन्तु उसे उनमें न शांति मिली न सुख. जैसे कोई सिंह विषाक्त बाण के लग जाने पर बहुत बेचैन हो जाता है, वैसे ही राजकुमार बेचैन हो गया था. इसलिए उसके मन में शांति प्राप्ति के लिए वन की ओर जाने की इच्छा हुई. सिद्धार्थ ने अपने कुछ मित्रों को साथ लिया और वन जाने के लिए महाराज से आज्ञा माँगी. तत्पश्चात आज्ञा मिलते ही राजकुमार सिद्धार्थ अपने मित्रों के साथ सुन्दर घोड़े पर सवार राजभवन से निकला और सुदूर वन-प्रांतर की ओर चल पड़ा. राजकुमार सिद्धार्थ ने जब रास्ते में जुते हुए खेत, खेतों में हल से उखड़ी हुई घास, अन्य खरपतवार और हल की जुताई से मरे हुए कीड़े-मकोड़े को देखा तो उसका हृदय द्रवित हो उठा. उसका मन शोक से भर गया. वह घोड़े की पीठ से उतर गया और ज़मीन पर इधर-उधर घुमने लगा. राजकुमार सिद्धार्थ का मन जन्म और मृत्यु के बारे में सोचते-सोचते बहुत ही व्याकुल हो गया. 

इसके बाद राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने मन को एकाग्र करने की इच्छा से अपने मित्रों को वहीं रोककर खुद सामने जामुन के के नीचे बैठकर ध्यान करने लगा. थोड़ी देर ध्यान करने से वह कुछ स्थिर हुआ तथा तत्पश्चात वह राग-द्वेष से मुक्त होकर तर्कसंगत विचारों में डूब गया. धीरे-धीरे राजकुमार सिद्धार्थ ने मानसिक समाधि प्राप्त की और उसे शान्ति और सुख का अनुभव हुआ. अब वह हर्ष, संताप और संदेह से मुक्त था. इस समय वह न निद्रा में था, न तन्द्रा में, अब उसके मन में किसी के लिए न राग था और न द्वेष. 

इस मानसिक समाधि से सिद्धार्थ की बुद्धि जब निर्मल हो गई तो उसे भिक्षु वेश में एक पुरुष दिखाई दिया. वह और किसी को नहीं दिखाई पड़ रहा था. सिद्धार्थ ने उस पुरुष से पूछा की आप कौन हैं ? तो उसने बताया कि मैं जन्म-मृत्यु से डरा हुआ एक संन्यासी हूँ, मैं मोक्ष की खोज में हूँ, अपने-पराए के प्रति समान भाव रखते हुए अब मैं राग-द्वेष से मुक्त हो गया हूँ, अतः अब विचरण ही करता रहता हूँ, कभी किसी वन-प्रांतर में रहता हूँ, सभी आशाओं से मुक्त, संग्रहशीलता से मुक्त, अनायास जो कुछ मिल जाए उसे ही खाकर मैं मोक्ष की खोज में घूमता रहता हूँ. इतना कहते-कहते वह संन्यासी राजकुमार सिद्धार्थ के देखते-देखते अंतर्धान हो जाता है. उस संन्यासी के अदृश्य हो जाने के बाद राजकुमार को बहुत ही प्रसन्नता हुई. उसे धर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए उसने अब अपने मन में घर त्यागने का संकल्प कर लिया था. राजकुमार जब अपने राजभवन की ओर जा रहा था तो रास्ते में किसी राजकन्या ने उसे देखा और हाथ जोड़कर कहा कि हे विशाल नयन ! आप जिस स्त्री के पति हैं, वह निश्चित ही निवृत्त है, सुखी है. उस कन्या की बातों में निवृत्त शब्द के श्रवण मात्र से परम शान्ति का अनुभव हुआ और वह निर्वान के विषय में सोचने लगा. 

राजकुमार ने सीधा राजसभा में पहुँच कर राजा को प्रणाम किया और फिर निवेदन किया कि हे नरदेव, मैं अब मोक्ष-प्राप्ति के लिए संन्यास लेना चाहता हूँ, आप कृपाकर मुझे आज्ञा प्रदान करें, क्यूंकि यह निश्चित है कि एक न एक दिन मेरा आपका वियोग होगा, अतः अभी जाने की आज्ञा प्रदान कर मुझे उपकृत करें. राज कुमार की बातों को सुनकर राजा के होश उड़ जाते हैं. वे विभिन्न तर्क देते हुए राजकुमार को ऐसा करने से मना करते हैं. परन्तु राजकुमार ने उनके सभी तर्क व बातों को निरस्त कर देता है. आखिरकार, राजकुमार ने छंदक (घोड़े का रक्षक) को आदेश देकर कंथक नामक घोड़े को मंगवाया और उस पर सवार होकर दृढ़ संकल्प के साथ अपने प्रियजनों को त्यागकर राजमहल से दूर निकल गया. 

कुछ देर बाद सामने भार्गव ऋषि का आश्रम दिखाई दिया. आश्रम के द्वार पर पहुंचकर तपस्या को सम्मान देने के लिए वह विनम्रभाव से घोड़े की पीठ से उतर गया. तत्पश्चात राजकुमार छंदक को संबोधित करते हुए कहता है कि हे सौम्य, गरुड़ के समान द्रुतगति से चलने वाले इस घोड़े के साथ-साथ दौड़कर तुमने जो मुझमें भक्ति दिखाई है, उसने मेरा मन जीत लिया है. अब तुम घोड़े को लेकर लौट जाओ, मुझे मेरा गंतव्य मिल गया है. छंदक और राजकुमार के मध्य बात-चित हो ही रही थी की इतने में एक वहां एक शिकारी प्रकट हो गया, जो काषाय वस्त्र धारण किए हुए था. राजकुमार ने उस शिकारी से परस्पर वस्त्र बदलने का निवेदन करता है, तो शिकारी राजकुमार की बातों से सहमत हो जाता है. तत्पश्चात दोनों ने परस्पर वस्त्र बदले. इसके बाद शिकारी वह से चला जाता है. यह सब देखकर छंदक आश्चर्यचकित रह गया. छंदक ने वस्त्रधारी राजकुमार को विधिवत प्रणाम किया. राजकुमार ने उसे प्रेमपूर्वक विदा किया और स्वयं अकेला आश्रम की ओर चल पड़ा. 

आश्रम में प्रवेश करने के बाद आश्रमवासियों ने सिद्धार्थ का स्वागत किया. सिद्धार्थ ने भी सभी आश्रमवासियों का अभिनन्दन किया. प्रारंभिक परिचय के बाद सिद्धार्थ ने आश्रम के तपस्वी साधकों से कहा — आज मैं पहली बार आश्रम देख रहा हूँ. मैं यहाँ के नियमों से नितांत अपरिचित हूँ. कृपया आप बताइए कि आपका लक्ष्य क्या है ? आप क्या कर रहे हैं ? तभी एक तपस्वी ने उन्हें विभिन्न प्रकार की साधनाओं के विषय में बताया और उनके फलों की जानकारी भी दी. राजकुमार सिद्धार्थ ने तपस्वियों की सारी बातें ध्यान से सुनीं. तत्पश्चात उसने सोचा कि यदि इस लोक में शरीर पीड़ा सहन करना धर्म है, तो निश्चित ही शरीर के सुख को अधर्म कहना चाहिए. उन्हें लगा यह शरीर तो मन के अधीन है. मन के अनुसार ही यह कर्मों में प्रवृत है और उनसे निवृत्त होता है, अतः मन का दमन करना ही उचित होगा. राजकुमार ने इस आश्रम में कई दिनों तक रहकर यहाँ की चल रही साड़ी तप-विधियों का गहन अध्ययन और परीक्षण किया, किन्तु उन्हें संतोष नहीं मिला. अतः एक दिन उसने इस तपोवन को छोड़ देने का निश्चय किया. 

अपने स्वामी (राजकुमार सिद्धार्थ) के तपोवन जाने के बाद अश्व-रक्षक छंदक धीरे-धीरे अपने घोड़े के साथ कपिलवस्तु में प्रवेश किया. राजकुमार के जाने के बाद महल में सभी शोक में डूब गए. पुत्र को प्राप्त करने के लिए राजा शुद्धोदन देव-मंदिर में हवन आदि अनुष्ठान कर रहे थे. परन्तु जब उनहोंने सुना कि छंदक और कंथक लौट आए हैं और कुमार ने संन्यास ग्रहण कर लिया है तो वे व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े. तत्पश्चात राजा शुद्धोदन की आज्ञा से राजपुरोहित आर राजमंत्री दोनों राजकुमार सिद्धार्थ की तलाश में तापवन अथवा उस आश्रम की तरफ चलने लगे, जहाँ पर राजकुमार गए थे. आश्रम से जब पता चला कि राजकुमार अराड मुनि के आश्रम चले गए हैं, तो वे लोग पुनः राजकुमार की खोज में निकल पड़े. तभी रास्ते में एक वृक्ष के नीचे राजकुमार उन्हें बैठे मिल गया. राज महल से आए दोनों अपने घोड़े से उतर कर राजकुमार की आज्ञा प्राप्त करके उनके पास बैठ गए. राजपुरोहित आर राजमंत्री दोनों ने मिलकर राजकुमार को बहुत विनम्र और तर्कपूर्ण भाव से समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु राजकुमार ने अपनी बातों में अंतिम रूप से यह कहकर आगे बढ़ गए कि धर्म की खोज में मैं वन में आया हूँ. मेरे लिए अब अपनी प्रतिज्ञा को तोड़कर घर लौटना उचित नहीं होगा. मैं अब घर और बंधुओं के बंधन में नहीं पड़ना चाहता. 

राजकुमार सिद्धार्थ अपने कर्म मार्ग पर चलते-चलते उत्ताल तरंगों वाली गंगा को पार किया और धन-धान्य से संपन्न राजगृह नामक नगर में प्रवेश किया. जब मगध के राजा बिम्बिसार ने राजकुमार सिद्धार्थ को देखा तो अपने अनुचरों को आज्ञा दी कि जाओ और पता लगाओ, वह कहाँ जा रहा है ? तभी राजकर्मचारी महल से बाहर आए और परिव्राजक वेशधारी सिद्धार्थ के पीछे-पीछे चलने लगे. उनहोंने देखा कि परिव्राजक की दृष्टि स्थिर है, वाणी मौन है, गति नियंत्रित है, वे भिक्षा मांग रहे हैं, भिक्षा में जो कुछ मिलता है, वह उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं. भिक्षा में मिले अन्न को लेकर वे एक पर्वत पर गए. एकांत निर्झर के पास बैठकर उन्होंने भोजन किया और फिर वे पांडव पर्वत पर जाकर बैठ गए. काषाय वेशधारी सिद्धार्थ पर्वत पर वैसे ही सुशोभित हो रहे थे, जैसे कि उदयाचल पर बालसूर्य प्रकट हो गया हो. जब राजकर्मचारियों ने बिम्बिसार को सूचित किया तो वे अपने साथ कुछ अनुचरों को लेकर खुद बोधिसत्व (सिद्धार्थ) से मिलने के लिए चल पड़े. वहां पहुंचकर राजा बिम्बिसार ने राजकुमार सिद्धार्थ को उसके चुने हुए धर्म के मार्ग से परे हटकर राजकाज के वर्चस्व को आगे बढ़ाने का सलाह दे रहा था. काफी देर तक बातें सुनने के पश्चात राजकुमार सिद्धार्थ ने राजा बिम्बिसार को संबोधित करते हुए अंतिम रूप से कहता है कि हे राजन ! अब मुझे ठगा नहीं जा सकता. मैं वह सुख भी नहीं चाहता, जो दूसरों को दुःख देकर प्राप्त किया जाता है. मैं यहाँ आया था और अब मोक्षवादी अराड मुनि से मिलने जा रहा हूँ. आपका कल्याण हो. आप मुझे कठोर सत्य कहने के लिए क्षमा करें. कुमार भिक्षु के ये आशीर्वचन सुनकर मगधराज ने बड़े अनुनय के साथ हाथ जोड़े और कहा – आप अपना अभीष्ट प्राप्त करें, कृतार्थ हों और समय आने पर मेरे ऊपर भी अनुग्रह करें. तत्पश्चात दोनों अपने-अपने मार्ग के ओर प्रस्थान कर जाते है…|| 

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Chapter 1 आरंभिक जीवन का सार notes class 8th hindi Sanshipt Budhacharit

आरंभिक जीवन संक्षिप्त बुद्धचरित पाठ का सारांश 

प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त बुद्धचरित पुस्तक से लिया गया है. इस अध्याय में सिद्धार्थ के आरंभिक जीवन का वर्णन किया गया है. प्रस्तुत अध्याय के अनुसार प्राचीन काल में भारत में एक प्रसिद्द राजवंश था, जिसका नाम था – इक्ष्वाकु वंश. इसी वंश से सम्बंधित शाक्य कुल में शुद्धोदन नामक एक राजा हुए, जिनकी पत्नी थी माया. कालांतर में इन्हीं दोनों के पुत्र के रूप में सिद्धार्थ ने जन्म लिया. इस बालक के जन्म के समय आकाश से सुगन्धित लाल और नीले कमलों की वर्षा होने लगी, मंद-मंद पवन प्रवाहित होने लगी तथा सूर्य और भी अधिक चमकने लगा. आचरणशास्त्र के ज्ञाता और शीलवान ब्राह्मणों ने जब बालक के सभी लक्षण सुने और उनपर विचार किया तो अत्यंत प्रसन्न होकर उनहोंने राजा से कहा – हे राजन, आपका पुत्र आपके कुल का दीपक है. यह बालक न केवल आपके वंश की वृद्धि करेगा बल्कि यह संसार में दुखियों का संरक्षक भी होगा. इसके लक्षण बता रहे हैं कि यह तो बुद्धों में श्रेष्ठ होगा या परम राज्यश्री प्राप्त करेगा. जैसे सभी धातुओं में स्वर्ण, पर्वतों में सुमेरु, जलाशयों में समुद्र, प्रकाश्पुन्जों में सूर्य श्रेष्ठ है वैसे ही आपका यह पुत्र सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ सिद्ध होगा.  

बालक सिद्धार्थ को देखकर महर्षि असित ने बताया था कि दुःख रूपी समुद्र में डूबते हुए संसार को यह बालक ज्ञान की विशाल नौका से उस पार ले जाएगा. यह धर्म की ऐसी नदी प्रवाहित करेगा, जिसमें प्रज्ञा का जल होगा, शील का तट होगा और समाधि की शीतलता होगी. इसी धर्म-नदी के जल को पीकर तृष्णा की पिपासा से व्याकुल यह संसार शांति लाभ करेगा. 

माता के स्वर्गवासी होने पर मौसी गौतमी ने बालक सिद्धार्थ का अत्यंत स्नेहपूर्वक लालन-पालन किया. बालक धीरे-धीरे बड़ा होने लगा. तत्पश्चात सिद्धार्थ की कुमारावस्था बीतने पर राजा ने अपने कुल के अनुरूप उसका विधिवत उपनयन संस्कार किया और बालक की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की. बालक सिद्धार्थ अत्यंत मेधावी था. जिन विद्याओं को सामान्य बालक वर्षों में सीखते हैं, उनको उसने कुछ ही समय में सीख लिया. इस प्रकार विद्याभ्यास करते हुए सिद्धार्थ ने किशोरावस्था पूरी की और वह युवावस्था की ओर बढ़ने लगा. आगे चलकर राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ का विवाह करने का निश्चय किया और इसके लिए यशोधरा नामक सुन्दर कन्या की तलाश कर दोनों का बड़े ही उत्साह के साथ विवाह कर दिया. महाराज चाहते थे कि राजकुमार सिद्धार्थ राजमहल में ही रहे, भोग-विलास में तल्लीन रहे और ऐसा कोई दृश्य उसके सामने न आए जिससे उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो. 

एक बार राजकुमार  ने सुना कि राजमहल से बाहर एक सुन्दर उद्यान है. राजकुमार को वह उद्यान देखने की इच्छा हुई. जब राजकुमार ने महाराज से उसे देखने कि आज्ञा माँगी तो महाराज ने आज्ञा दे दी. लेकिन वे चाहते थे कि राजकुमार के मन में किसी प्रकार का वैराग्य-भाव उत्पन्न न हो. इसलिए अनुचरों को ऐसी व्यवस्था करने की आज्ञा दी की जिधर से राजकुमार निकलें उस मार्ग पर कोई रोगी या पीड़ित व्यक्ति दिखाई न दे. तत्पश्चात राजा की आज्ञा प्राप्त कर अपने कुछ मित्रों को साथ लेकर राजकुमार सिद्धार्थ उद्यान देखने के लिए राजमहल से बाहर निकले. वे स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत और चार घोड़ों से युक्त रथ में बैठे थे जो श्वेत पुष्पों और पताकाओं से भली-भांति सुसज्जित था. राजकुमार को देखने के लिए लोगों की भीड़ लग गई. तभी इतने में राजकुमार सिद्धार्थ को राजपथ पर एक वृद्ध पुरुष दिखाई दिया. उसे देखते ही सिद्धार्थ चौंक गया और बड़े ही ध्यान से उसकी ओर देखने लगा. तत्पश्चात राजकुमार उस वृद्ध व्यक्ति के बारे में अपने सारथि से पूछा – यह कौन है ? उत्तर स्वरूप उसके सारथी ने बोला कि यह बूढ़ा हो चूका है, सबको एकदिन इस अवस्था से गुजरना पड़ेगा. सारथी की बातें सुनकर राजकुमार चकित हो गया. फिर उसने उस वृद्ध की ओर देखा और अपने सारथी से पूछा – क्या यह दोष मुझे भी होगा ? क्यूँ मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा ? सारथी ने उत्तर दिया – हाँ, आयुष्मान ! समय आने पर आपको भी वृद्धावस्था अवश्य प्राप्त होगी. तत्पश्चात राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने सारथी को संबोधित करते हुए कहा कि हे सूत ! चलो, घर चलें, अपने घोड़ों को मोड़ दो. मन में जब बुढ़ापे का भाव भर गया हो तो इस उद्यान में मेरा मन कैसे रम सकता है. राजकुमार अपने महल वापस चला गया, परन्तु उसका मन उस वृद्ध के बारे में ही सोचा जा रहा था. एक बार पुनः राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने से उद्यान जाने की इजाजत लेकर वहां जैसे ही गया, उसे एक रोगी दिखाई पड़ा, उसका पेट बढ़ा हुआ था, कंधे झुके थे और वह लम्बी-लम्बी साँसे ले रहा था. राजकुमार ने पुनः अपने सारथी से पूछा – हे सूत, यह दुबला-पतला व्यक्ति कौन है ? जो दूसरों का सहारा लेकर चल रहा है और कराह रहा है ? तभी सारथी ने उसके बीमार होने की ओर संकेत किया और राजकुमार के पूछने पर यह बताया कि यह रोग किसी को भी हो सकता है. सारथी का उत्तर सुनकर राजकुमार और भी बेचैन हो उठा. उसका ह्रदय कांपने लगा. तत्पश्चात राजकुमार ने सारथी को रथ महल की तरफ मोड़कर वापस चलने को कहा. राजकुमार से वह रोग-भय सहा नहीं जा रहा था. एक समय ऐसा भी आया जब राजकुमार सिद्धार्थ पुनः नगर भ्रमण के लिए अपने रथ पर सवार होकर निकला तो उसे अचानक किसी मृत व्यक्ति की शव-यात्रा दिखाई दी. राजकुमार ने जब इस सुन्दर वातावरण में शव-यात्रा देखी और उसके साथ रोते-बिलखते लोगों को देखा तो वह चौंक गया. उसने फिर अपने सारथी को संबोधित करते हुए उस शव के बारे में पूछा तो सारथी ने उत्तर स्वरूप कहा – हाँ राजकुमार, सभी प्राणियों की यही अंतिम गति है, क्यूंकि सभी नाशवान हैं, चाहे कोई व्यक्ति उत्तम हो या मध्यम हो या अधम हो, अंत सभी का एक सा ही है. 

अब राजकुमार सिद्धार्थ को बोध होने लगा था कि इस जगत में सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ अनित्य है. जागे की अनित्यता के विषय में सोचते हुए वह अपने महल में गया और संसार की नश्वरता के विषय में और विचार करता रहा. महाराज शुद्धोदन ने जब सुना कि राजकुमार सभी विषयों से विमुख होकर लौट आया है तो उन्हें बहुत दुःख हुआ. जैसे किसी हाथी के ह्रदय में बाण लग जाने से वह रात भर सो नहीं पाता वैसे ही महाराज भी रातभर सो नहीं सके. वे अपने मंत्रियों को बुलाकर उनके साथ मंत्रणा करते रहे कि क्या उपाय किए जाएँ कि राजकुमार का मन बदले, उसका वैराग्य समाप्त हो और विषयों के प्रति आसक्ति जागे…|| 

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Chapter 9 दो पृष्ठभूमियाँ – भारतीय और अंग्रेजी का सार notes class 8th hindi bharat ki khoj

Bharat Ki Khoj Class 8 Chapter 9 Summary

भारत में अगस्त, 1942 में जो कुछ हुआ, वह आकस्मिक नहीं था। वह पहले से जो कुछ होता आ रहा था, उसकी परिणति थी।

व्यापक उथल-पुथल और उसका दमन- जनता की ओर से अकस्मात् संगठित प्रदर्शन और विस्फोट जिसका अंत हिंसात्मक संघर्ष और तोड़-फोड़ होता था। इससे जनता की तीव्रता का पता चलता था। 1942 में पूरी युवा पीढ़ी ने विशेष रूप से विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों ने हिंसक और शांतिपूर्ण दोनों की तरह की कार्यवाहियों में महत्त्वपूर्ण काम किया। 1942 के दंगों में पुलिस और सेना की गोलीबारी से मारे गए और घायलों की संख्या सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1028 लोग मरे और 3200 लोग घायल हुए। जनता के अनुसार मृतकों की संख्या 25000 थी। संभवतः यह संख्या कुछ ज्यादा रही हो, पर 10000 की संख्या ठीक होगी।

भारत की बीमारी : अकाल- भारत तन और मन दोनों से बीमार था। उन दिनों अकाल पड़ा। इसका व्यापक असर बंगाल और दक्षिणी भारत पर पड़ा। पिछले 170 सालों में यह सबसे बड़ा और विनाशकारी था। इसकी तुलना 1766 ई. से 1770 ई. के दौरान बिहार और बंगाल के उन भयंकर अकालों से की जा सकती है जो ब्रिटिश शासन की स्थापना के आरंभिक परिणाम थे। इसके बाद महामारी फैली, विशेषकर हैजा और मलेरिया।

हजारों की संख्या में लोग काल का ग्रास बन गए। कोलकाता की सड़कों पर लाशें बिछी थीं। ऊपरी तबके के लोगों में विलासिता जारी थी। उनका जीवन उल्लास से भरा था। सन् 1943 के उत्तरार्द्ध में अकाल के उन भयंकर दिनों में जैसा अंतर्विरोध कोलकाता में दिखाई दिया, वैसा पहले कभी नहीं था। भारत गरीबी और भुखमरी के कगार पर था। भारत में ब्रिटिश शासन पर बंगाल की भयंकर बरबादी ने और उड़ीसा मालाबार और दूसरे स्थानों पर पड़ने वाले अकाल ने आखिरी फैसला दे दिया कि जब अंग्रेज जाएँगे तो क्या छोड़ेंगे। वे अपने पीछे कचरा और कीचड़ ही छोड़ेंगे।

भारत का सजीव सामर्थ्य- अकाल और युद्ध के बावजूद प्रकृति अपना कायाकल्प करती है और कल के लड़ाई के मैदान को आज फूल और हरी घास से ढक देती है। मनुष्य के पास स्मृति का विलक्षण गुण होता है। आज जो बीते हुए कल की संतान हैं, खुद अपनी जगह अपनी संतान आने वाले कल को दे जाते हैं। कमजोर आत्मा वाले लोग समर्पण कर देते हैं, लेकिन बाकी लोग मशाल को आगे ले जाते हैं और आने वाले मार्गदर्शकों को सौंप देते हैं।

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Chapter 8 तनाव का सार notes class 8th hindi bharat ki khoj

Bharat Ki Khoj Class 8 Chapter 8 Summary

चुनौती-‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव
सात-आठ अगस्त को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने खुली सभा में उस प्रस्ताव पर विचार किया जो ‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’ के नाम से जाना जाता है। इस बड़े प्रस्ताव में ऐसी अंतरिम सरकार बनाने का सुझाव दिया गया जिसमें सभी वर्गों के महत्त्वपूर्ण लोगो का प्रतिनिधित्व हो, जिसका पहला काम मित्र शक्तियों के बाहरी हमले को रोकना है।

कांग्रेस कमेटी ने संसार की आज़ादी के लिए संयुक्त राष्ट्र से अपील की। अपने भाषण में अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद और गांधी जी ने स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि वायसराय से मुलाकात कर संयुक्त राष्ट्र के मुख्य अधिकारियों से एक सम्मानपूर्ण समझौते के लिए अपील करेंगे।

कमेटी के कड़े प्रयास व अपील के बाद 8 अगस्त सन् 1942 को यह प्रस्ताव पास हो गया। जन आंदोलन के शुरुआत होते ही अगस्त की सुबह-सुबह गिरफ़्तारियाँ प्रारंभ हो गईं। इसी गिरफ्तारी में जवाहर लाल नेहरू व अन्य नेता अहमदनगर के किले में बंदी बनाए गए।

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Chapter 7 अंतिम दौर – दो का सार notes class 8th bharat ki khoj

Bharat Ki Khoj Class 8 Chapter 7 Summary

राष्ट्रपिता बनाम साम्राज्यवाद-
मध्यवर्ग की बेवसी : गाँधी का आगमन- पहला विश्वयुद्ध आरंभ हुआ। राजनीति उतार पर थी। यह युद्ध समाप्त हुआ और भारत में दमनकारी कानून और पंजाब में मार्शल लॉ लागू हुआ। शोषण लगातार बढ़ रहा था, तभी गाँधी जी का आगमन हुआ। गाँधी जी ने भारत में करोड़ों लोगों को प्रभावित किया। गाँधी जी ने पहली बार कांग्रेस के संगठन में प्रवेश किया। इस संगठन का लक्ष्य और आधार था-सक्रियता। इसका आधार शांतिप्रियता थी। गाँधी जी ने अंग्रेजी शासन की बुनियाद पर चोट की। कांग्रेस के पुराने नेता, जो एक अलग निष्क्रिय परंपरा में पले थे, इन नए तौर-तरीकों को आसानी से नहीं पचा पाए। ऐसा कहा जाता है कि भारतीय मूलतः निवृत्ति मार्गी है, पर गाँधी जी इस निवृत्त मार्ग के विपरीत थे। उन्होंने भारतीय जनता की निष्क्रियता के विरुद्ध संघर्ष किया। उन्होंने लोगों को गाँव की ओर भेजा। देहात में हलचल मच गई। गाँधी जी मूलतः धर्मप्राण व्यक्ति थे। वे भारत को अपनी इच्छाओं तथा आदर्शों के अनुसार ढाल रहे थे। वे सभी को समान अधिकार देने के पक्षपाती थे। इस अद्भुत तेजस्वी आदमी का पैमाना सबसे गरीब आदमी था। कांग्रेस पर गाँधी जी का प्रभुत्व था। सन् 1920 में नेशनल कांग्रेस ने काफी हद तक देश में एक नए रास्ते को अपना लिया। सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ और उसके कारण बहुत कष्ट उठाने पड़े, लेकिन उससे ताकत ही प्राप्त हुई।

अल्पसंख्यकों की समस्या : मुस्लिम लीग-मोहम्मद अली जिन्ना- राजनीतिक मामलों में धर्म का स्थान साम्प्रदायिकता ने लिया था। कांग्रेस सांप्रदायिक हल निकालने के लिए उत्सुक और चिंतित थी। कांग्रेस की सदस्य संख्या में मुख्य रूप से हिंदू थे। कांग्रेस दो बुनियादी प्रश्नों पर अडिग रही-राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र। 1940 में कांग्रेस ने घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश सरकार की नीति जनजीवन में संघर्ष और फूट को प्रत्यक्ष रूप से उकसाती और भड़काती है।

बीते दिनों में अंग्रेजों की नीति मुस्लिम लीग और हिंदू सभा के मतभेदों को प्रोत्साहित करके उन पर बल देने की और साम्प्रदायिक संगठनों को कांग्रेस के विरुद्ध महत्त्व देने की रही।

मिस्टर जिन्ना की माँग का आधार एक नया सिद्धांत था-भारत में दो राष्ट्र हैं-हिंदू और मुसलमान। यदि राष्ट्रीयता का आधार धर्म है तो भारत में बहुत से राष्ट्र हैं। मिस्टर जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धांत से पाकिस्तान या भारत के विभाजन की अवधारणा का विकास हुआ। लेकिन उससे दो राष्ट्रों की समस्या का हल नहीं हुआ, क्योंकि वे तो पूरे देश में थे।

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Chapter 6 अंतिम दौर – एक का सार notes Class 8 Hindi Bharat ki Khoj

Bharat Ki Khoj Class 8 Chapter 5 Summary

अरब और मंगोल जब हर्ष उत्तर भारत में शक्तिशाली शासक था उस समय अरब में इस्लाम अपना प्रचार एवं प्रसार कर रहा था। उसे उस समय से भारत आने में 60 वर्ष लग गए। जब उसने राजनीतिक विजय के साथ भारत में प्रवेश किया तब उसमें काफ़ी बदलाव आ चुका था। धीरे-धीरे सिंध बगदाद की केंद्रीय सत्ता से अलग हो गया और अलग सत्ता के रूप में कायम किया। समय बीतने के साथ अरब और भारत के संबंध बढ़ते गए। दोनों देशों के यात्रियों का आना जाना लगा रहा। राजदूतों की आपस में अदला बदली होती रही। भारतीय गणित खगोल शास्त्र की पुस्तकें बगदाद पहुँची। अरबी भाषा में इन पुस्तकों का अनुवाद हुआ। इसके अलावे कई भारतीय चिकित्सक बगदाद गए।

भारत के दक्षिण के राज्यों खासकर राष्ट्रकूटों ने भी व्यापार व सांस्कृतिक संबंध बगदाद के साथ बनाए। धीरे-धीरे भारतीयों को इस्लाम धर्म की जानकारी होती गई। इस्लाम धर्म के प्रचारकों का स्वागत हुआ। मस्जिदों का निर्माण का दौर शुरू हुआ। अतः यह निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि भारत आने से पहले इस्लाम ने धर्म के रूप में प्रविष्ट किया।

महमूद गज़नवी और अफगान
लगभग तीन सौ वर्षों तक भारत विदेशी आक्रमण से बचा रहा। सन् 1000 ई. के आस-पास महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण किया। गज़नवी तुर्क जाति का था। इसने बहुत खून खराबा किया। उसने उत्तर भारत के एक भाग में लूट-पाट की। उसने पंजाब और सिंध को अपने राज्य में मिला लिया व हर बार खजाना लूटकर ढेरों धन अपने साथ ले गया। उसने हिंदुओं को धूल चटा दिया। हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति नफ़रत भर चुकी थी। वह कश्मीर पर विजय नहीं पा सका। कठियावाड़ में सोमनाथ से लौटते हुए उसे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में पराजय का सामना करना पड़ा। सन् 1830 में उसकी मृत्यु हो गई। 160 वर्षों के बाद शहाबुद्दीन गौरी ने गजनी पर कब्जा कर लिया। फिर लाहौर पर आक्रमण किया, इसके बाद दिल्ली पर भी आक्रमण किया। दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने उसे पराजित कर दिया। वह अफगानिस्तान लौट गया फिर एक साल बाद उसने फिर दिल्ली पर आक्रमण किया। 1192 ई. में वह दिल्ली का शासक बन गया।

दिल्ली को जीतने के बाद भी दक्षिण भारत शक्तिशाली बना रहा। 14वीं सदी के अंत में तुर्क-मंगोल तैमूर ने उत्तर भारत की ओर से आकर दिल्ली की सल्तनत को ध्वस्त कर दिया। दुर्भाग्यवश वह बहुत आगे नहीं बढ़ सका। 14वीं शताब्दी की शुरुआत में दो बड़े राज्य कायम हुए- गुलबर्ग, जो बहमनी राज्य के नाम से प्रसिद्ध है और विजयनगर का हिंदू राज्य।

इस समय उत्तर भारत छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो चुका था। दक्षिण भारत सुदृढ़ व उन्नतं था। ऐसे में बहुत से हिंदू भागकर दक्षिण भारत की ओर चले गए। विजय नगर की तरक्की के वक्त उत्तरी पहाड़ियों से होकर एक आक्रमणकारी दिल्ली के पास पानीपत के मैदान में आ गया। उसने 1526 ई. में दिल्ली को जीतकर मुगल साम्राज्य की नींव डाली। वह आक्रमणकारी तैमूर वंश का तुर्क बाबर था।

समन्वय और मिली-जुली संस्कृति का विकास कबीर, गुरु नानक और अमीर खुसरो
वास्तविक रूप में इस्लाम भारत में धर्म प्रचार-प्रसार के रूप में आया था। जबकि भारत पर आक्रमण तुर्कों, अफगानों व मुसलमानों ने किए। अफगान और तुर्क पूरे भारत पर छा गए। जबकि मुसलमान अजनबी होते हुए भी भारतीय रीति रिवाजो में घुल-मिल गए। वे भारत को अपना देश मानने लगे। अधिकतर राजपूत घरानों ने भी इनसे अच्छे संबंध कायम किए। इस समय हिंदू-मुसलमानों के वैवाहिक संबंध भी काफ़ी हद तक बढ़ते गए। फिरोजशाह व गयासुद्दीन तुगलक की माँ भी हिंदू थी। गुलबर्ग (बहमनी राज्य) के मुस्लिम शासक ने विजय नगर की हिंदू राजकुमारी से धूमधाम विवाह किया था।

मुस्लिम शासन काल में भारत का चहुँमुखी विकास हुआ। सैनिक सुरक्षा, उत्तम रखने के लिए यातायात साधनों में सुधार किया। शेरशाह सूरी ने उत्तम मालगुजारी व्यवस्था की, जिसका अकबर ने विकास किया। इस काल में व्यापार उद्योग भी प्रगति पर रहा। अकबर के लोकप्रिय राजस्व मंत्री टोडरमल की नियुक्ति शेरशाह ने की थी। वास्तुकला की नई शैलियों का विकास हुआ। खाना-पहनना बदल गया। गीत-संगीत में भी समन्वय दिखाई पड़ने लगा फारसी भाषा राजदरबार की भाषा बन गई। जब तैमूर के हमले से दिल्ली की सलतनत कमज़ोर हो गई तो जौनपुर में एक छोटी सी मुस्लिम रियासत खड़ी हुई। 15वीं शताब्दी के दौरान यह रियासत कला संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता का केंद्र रही। यहाँ आम भाषा हिंदी को प्रोत्साहित किया गया तथा हिंदू और मुसलमानों के बीच समन्वय का प्रयास किया गया। इसी समय ऐसे कामों के लिए एक कश्मीरी शासक जैनुल आबदीन को बहुत यश मिला।

अमीर खुसरो तुर्क थे। वे फारसी के महान कवि थे और उन्हें संस्कृत का भी ज्ञान था। कहा जाता है कि सितार का आविष्कार उन्होंने ही किया था। अमीर खुसरो ने अनगिनत पहेलियाँ लिखी। अपने जीवन काल में ही खुसरो अपने गीतों और पहेलियों के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी लोकप्रियता आज भी कायम है। पंद्रहवीं सदी में दक्षिण में रामानंद और उनसे भी अधिक प्रिय कबीर हुए। कबीर की साखियाँ और पद आज भी प्रसिद्ध हैं। उत्तर में गुरु नानक हुए; जो सिख धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। पूरे हिंदू धर्म सुधारकों के विचारकों का प्रभाव पड़ा।

इसी समय कुछ समाज सुधारकों का उदय हुआ जिन्होंने इस समन्वय का समर्थन तथा वर्ण-व्यवस्था की उपेक्षा की। पंद्रहवीं शताब्दी में रामानंद और उनके शिष्य कबीर ऐसे ही समाज सुधारक थे। कबीर की साखियाँ और पद आज भी जनमानस में लोकप्रिय हैं। उत्तर भारत में गुरु नानक देव ने सिख धर्म की स्थापना की। हिंदू धर्म इन सुधारकों के विचारों से प्रभावित हुआ।

अमीर खुसरो भी फारसी लेखकों में काफी प्रसिद्ध थे। वे फारसी लेखक के साथ-साथ फ़ारसी कवि भी थे। भारतीय वाद्य यंत्र सितार उनके द्वारा ही आविष्कृत है। उन्होंने धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र आदि विषयों पर लिखा। उनके लिखे लोकगीत और अनगिनत पहेलियाँ आज भी काफ़ी लोकप्रिय हैं।

बाबर और अकबर-भारतीयकरण की प्रक्रिया
‘बाबर’ ने सन् 1526 ई. में पानीपत का युद्ध जीतकर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। उसका व्यक्त्तिव आकर्षक था। उसने केवल चार वर्षों तक ही भारत पर शासन किया। इन चार वर्षों में उसका समय आगरा में विशाल राजधानी में बीता।

अकबर भारत में मुगल साम्राज्य का तीसरा शासक था। वह बाबर का पोता था। वह आकर्षक, गुणवान, साहसी, बहादुर और योग्य शासक एवं सेनानायक था। वह विनम्र और दयालु होने के साथ-साथ लोगों का दिल जीतना चाहता था। 1556 ई. से आरंभ होने वाले अपने लंबे शासन काल 50 वर्ष तक रहा। उसने एक राजपूत राजकुमारी से शादी की। उसका पुत्र जहाँगीर आधा मुगल और आधा हिंदू राजपूत था। जहाँगीर का बेटा भी राजपूत, माँ का बेटा था। राजपूत घरानों से संबंध बनाने में साम्राज्य बहुत मज़बूत हुआ। राणा प्रताप ने मुगलों से टक्कर ली। इसके बाद अकबर को मेवाड़ के राणा प्रताप को अधीन बनाने में सफलता नहीं मिली। अकबर की अधीनता स्वीकार करने के बजाए वे जंगलों में फिरते रहे।

अकबर ने प्रतिभाशाली लोगों का समुदाय एकत्रित किया। इनमें फैजी, अबुल फजल, बीरबल, राजा मानसिंह, अब्दुल रहीम खानखाना प्रमुख थे। उसने दीन-ए-एलाही नामक नए धर्म की स्थापना कर मुगल वंश को भारत के वंश जैसा ही बना दिया।

यांत्रिक उन्नति और रचनात्मक शक्ति में एशिया और यूरोप के बीच अंतर अकबर सभी क्षेत्रों के ज्ञाता था।

उसे सैनिक और राजनीतिक मामलों के अतिरिक्त यांत्रिक कलाओं का भी पूरा ज्ञान था। अकबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की मज़बूत नींव रखी थी तथा उस पर जो इमारत बनाई वह सौ वर्षों तक बनी रही। सिंहासन के लिए उच्चाधिकारियों में युद्ध होते रहे और केंद्रीय नेतृत्व कमज़ोर होता गया। यूरोप में मुगल बादशाहों के यश में वृद्धि हो रही थी। अकबर के समय में दक्षिण में मंदिरों से भिन्न शैली में कई इमारतें बनी जिन्होंने आने वाले दर्शकों को प्रेरित किया। आगरा का ताजमहल इसी का उदाहरण है।

इस प्रकार दिल्ली और आगरा में सुंदर इमारतें तैयार हुईं। भारत में रहने वाले अधिकतर मुसलमानों ने हिंदू धर्म से धर्म परिवर्तन कर लिया। दोनों में काफ़ी समानताएँ विकसित हो गईं। भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के साथ रहने के कारण उनकी आदतें, रहन-सहन के ढंग और कलात्मक रुचियों में समानता दिखाई देती थी। वे शांतिपूर्वक साथ रहने उत्सवों में आने-जाने में एक जैसे थे तथा वे एक ही भाषा का प्रयोग करते थे। गाँव की आबादी के बड़े हिस्से में जीवन मिला-जुला था। गाँव में हिंदू और मुसलमानों के बीच गहरे संबंध थे। वे मिल-जुलकर जीवन की परेशानियों व आर्थिक समस्याओं का सामना करते थे। दोनों जातियों के लोक गीत सामान्य थे। गाँवों में रहने वाले अधिकतर हिंदू व मुसलमान किसान, दस्तकार एवं शिल्पी थे।

मुगल शासन काल के दौरान कई हिंदुओं ने दरबारी भाषा में फारसी पुस्तके लिखी। फारसी में संस्कृत की पुस्तकों का अनुवाद हुआ। हिंदी के प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी तथा अब्दुल रहीम खानखाना की कविताओं का स्तर बहुत ऊँचा था। रहीम ने राणा प्रताप का गुणगान अपने कविताओं में काफी किया। रहीम ने मेवाड़ के राणा प्रताप की प्रशंसा में भी लिखा, जो लगातार अकबर से युद्ध करते रहे और कभी हथियार न डाले यानी हार न मानी।

औरंगजेब ने उल्टी गंगा बहाई – हिंदू राष्ट्रवाद का लार शिवाजी
औरंगजेब एक कट्टरवादी मुसलमान था। वह धर्मान्ध व कठोर नैतिकतावादी था। वह एक ऐसा सम्राट हुआ जिसने हिंदू और मुसलमानों के बीच दीवारें खड़ी कर दी। उसने एक हिंदू विरोधी कर लगाया जिसे ‘जजिया टैक्स’ कहते हैं। उसने अनेक मंदिरों को तुड़वाया। जो राजपूत मुगल साम्राज्य के स्तंभ थे उसने हिंदू विरोधी कार्य करके उनके हृदयों में अपने प्रति घृणा, रोष एवं विद्वेष की भावना पैदा की। इस प्रकार मुगल सम्राट औरंगजेब की नीतियों से तंग आकर उत्तर में सिख मुगलों के विरुद्ध खड़े हो गए।

इसकी प्रतिक्रिया में पूर्ण जागरण विचार पनपने लगे। मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई। जो पतन का एक प्रमुख कारण बना। इसी समय 1627 ई. में शिवाजी के रूप में हिंदुओं का एक नेता उभरा। उनके छापामार दस्तों ने मुगलों की नाक में दम कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों की कोठियों को लूटा और मुगल साम्राज्य के क्षेत्रों पर चौथ कर लगाया। मराठा पूरी शक्ति पा गए। 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई। लेकिन मराठा शक्ति का विस्तार होते चला गया। वह भारत पर अपना एकाधिकार करना चाहती थी।

प्रभुत्व के लिए मराठों और अंग्रेजों के बीच संघर्ष-अंग्रेज़ों की विजय
औरंगजेब की सन् 1707 में मृत्यु हो गई। इसके बाद लगभग 100 वर्षों तक भारत पर अधिकार करने लिए अलग-अलग जातियों का संघर्ष एवं आक्रमण जारी रहा।

18वीं शताब्दी में भारत पर अपना आधिपत्य करने के लिए प्रमुख चार दावेदार थे-
(i) मराठे, (ii) हैदर अली और उसका बेटा टीपू सुल्तान (iii) फ्रांसीसी (iv) अंग्रेज़। फ्रांसीसी और अंग्रेज़ विदेशी दावेदार थे। इसी बीच 1739 में ईरान का बादशाह नादिरशाह दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। उसने काफ़ी खून खराबा किया और लूटपाट मचाई। बेशुमार दौलत लूटी। वह तख्ते ताऊस भी ले गया। बँगाल में जालसाजी और बगावत को बढ़ावा देकर क्लाइव ने 1757 में प्लासी का युद्ध जीत लिया। 1770 में बंगाल तथा बिहार में अकाल पड़ा, जिसमें एक तिहाई जनसंख्या की मौत हो गई। दक्षिण में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध में फ्रांसीसियों का अंत हो गया। भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए मराठे, अंग्रेज़ और हैदर अली रह गए थे। इससे भारत पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। 1799 में अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को हरा दिया। इसके बाद अंग्रेज़ काफ़ी शक्तिशाली हो गए और उनकी राह और आसान हो गई।

मराठे सरदारों में आपसी रंजिश थी। 1804 में अंग्रेजों ने उन्हें अलग-अलग युद्धों में हरा दिया। अंग्रेजों ने भारत को अव्यवस्था और अराजकता से बचाया। 1818 तक के अंत तक उन्होंने मराठों को हराकर भारत पर कब्जा कर लिया। अब अंग्रेज़ भारत में सुव्यवस्थित ढंग से शासन करने लगे। अब आतंक युग की समाप्ति हो गई यानी मारकाट बंद हो गया लेकिन यह कहा जा सकता है कि आपस में भेदभाव, आपसी रंजिश भुलाकर काम करते तो अंग्रेजों की सहायता के बिना भी भारत में शांति और व्यवस्थित शासन की स्थापना की जा सकती थी।

रणजीत सिंह और जयसिंह
आतंक के उस दौर में दो प्रमुख भारतीय सितारे उभरे, उनके नाम थे – रणजीत सिंह और जयसिंह।

महाराजा रणजीत सिंह एक जाट सिख थे। पंजाब में उन्होंने अपना शासन कायम किया। राजपूताने में जयपुर का सवाई जयसिंह था। जयसिंह ने जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, बनारस और मथुरा में बड़ी-बड़ी बेधशालाएँ बनवाईं। जयपुर की नगर योजना उन्हीं की देन है। उन्होंने मानवीय विचारों को आधार बनाया तथा खून-खराबे को नापसंद किया। युद्ध के सिवा उन्होंने किसी की जान नहीं ली। वह बहादुर योद्धा, कुशल राजनयिक होने के साथ गणित, खगोल विज्ञानी, नगर निर्माण करने वाले तथा इतिहास में रुचि रखने वाले थे।

भारत की आर्थिक पृष्ठभूमि-इंग्लैंड के दो रूप
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद उसका मुख्य उद्देश्य था भारतीय माल लेकर यूरोप के देशों में बेचना। भारतीय कारीगरों का बना माल इंग्लैंड की तकनीकों का सफलता पूर्वक मुकाबला करता था। कंपनी का ध्येय अधिक से अधिक धन कमाना था। इंग्लैंड में मशीनों का दौर शुरू होने पर मशीनों से बने माल के साथ-साथ भारतीय वस्तुएँ भी थी। कंपनी ने इससे काफ़ी मुनाफा कमाया। इंग्लैंड का भारत में वास्तविक रूप से तभी आगमन हुआ जब 1600 ई. में एलिजाबेथ ने ईस्ट इंडिया कंपनी को परवाना दिया। 1608 ई. मिल्टन का जन्म होने के सो साल बाद कपड़ा बुनने की तेज़ मशीन का आविष्कार हुआ। इसके बाद काटने की कला, इंजन और मशीन के करघे निकाले गए। उस समय इंग्लैंड सामंतवाद और प्रतिक्रियावाद से घिरा हुआ था। इंग्लैंड को प्रभावित करने वाले लेखकों में शेक्सपियर, मिल्टन था। साथ ही में राजनीतिक और स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाले, विज्ञान और तकनीक में प्रगति करने वाले भी थे।

उस समय अमेरिका इंग्लैंड के चंगुल से स्वतंत्र हुआ था। अमेरिका में नई शुरुआत के लिए भी रास्ते साफ़ थे। जबकि भारतीय प्राचीन परंपराओं में जकड़े हुए थे। इसके बावजूद यह सत्य है कि यदि ब्रिटेन मुगलों के शक्ति खोने पर भारत का बोझ न उठाता तो भी भारत देश अधिक शक्तिशाली और समृद्ध होता।

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Chapter 5 नयी समस्याएँ का सार notes Class 8 Hindi Bharat ki Khoj

Bharat Ki Khoj Class 8 Chapter 5 Summary

अरब और मंगोल-जब हर्ष उत्तर भारत में एक शक्तिशाली शासक थे और विद्वान चीनी चात्री हुआनत्सांग नालंदा में अध्ययन कर रहे थे, उसी समय अरब में इस्लाम अपना रूप ग्रहण कर रहा था। लगभग 600 वर्षों में उसने भारत में राजनीतिक विजय के साथ प्रवेश किया। अरब वाले भारत के उत्तर-पश्चिम छोर तक पहुँचकर वहीं रुक गए। अरब सभ्यता का क्रमश: पतन हुआ। मध्य तथा पश्चिमी एशिया में तुर्की जातियाँ आगे आईं। यहीं तुर्क और अफगान इस्लाम को राजनीतिक शक्ति के रूप में भारत लाए।

अरबों ने बड़ी आसानी से दूर-दूर तक फैलकर तमाम इलाके जीत लिए। बाद में वे सिंध से आगे नहीं बढ़े। अरबों के आंतरिक झगड़े भी थे। दोनों ओर से यात्रियों व दूतों का आना-जाना हुआ। गणित तथा खगोल शास्त्र की पुस्तकों का अरबी में अनुवाद हुआ। अब भारतीयों को इस नए इस्लाम धर्म की जानकारी हुई।

महमूद गजनवी और अफगान- 1000 ई. के आस-पास अफगानिस्तान के सुल्तान महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण शुरू किए। बहुत खून-खराबा हुआ। महमूद गजनवी ने उत्तर भारत के सिर्फ एक टुकड़े को छुआ और लूटा। उसने पंजाब और सिंध को अपने राज्य में मिला लिया। वह कश्मीर पर विजय नहीं पा सका। काठियावाड़ में सोमनाथ से लौटते हुए उसे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में हार खानी पड़ी। सन् 1030 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। फिर 160 वर्षों बाद शहाबुद्दीन गौरी ने गजनी पर कब्जा कर लिया। फिर लाहौर तथा दिल्ली पर धावा बोल दिया। पृथ्वीराज चौहान ने उसे पराजित किया, पर अगले साल उसकी जीत हुई और 1192 में वह दिल्ली के तख्त पर बैठा।

14वीं शती के अंत में तुर्क-मंगोल तैमूर ने उत्तर की ओर से आकर दिल्ली की सल्तनत को ध्वस्त कर दिया। सौभाग्य से वह बहुत आगे नहीं बढ़ा पाया। 14वीं शताब्दी के आरंभ में दो बड़े राज्य कायम हुए-गुलबर्ग जो बहमनी राज्य के नाम से प्रसिद्ध है और विजयनगर का हिंदू राज्य। दक्षिण भारत में विजयनगर तरक्की कर रहा था। तब एक हमलावर ने 1526 में दिल्ली का सिंहासन जीत लिया। तैमूर वंश का वह तुर्क-मंगोल बाबर था। इसने भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की।

समन्वय और मिली-जुली संस्कृति का विकास- दिल्ली के प्रसिद्ध सुल्तान फिरोजशाह की माँ हिंदू थी। यही स्थिति गयासुद्दीन तुगलक की थी। अकबर के प्रसिद्ध राजस्व मंत्री टोडरमल की नियुक्ति शेरशाह ने ही की थी। यह समन्वय का एक नया रूप था। वास्तुकला की नई शैली उपजी, खान-पान बदला, गीत-संगीत में भी समन्वय दिखाई देने लगा। फारसी भाषा दरबार की भाषा बन गई। जब तैमूर के हमले से दिल्ली की सल्तनत कमजोर हुई तो जौनपुर में एक छोटी-सी मुस्लिम रियासत खड़ी हुई। 15वीं शताब्दी के दौरान यह रियासत कला, संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता का केंद्र रही।

अमीर खुसरो तुर्क थे। वे फारसी के चोटी के कवि थे और उन्हें संस्कृत का भी ज्ञान था। कहा जाता है कि सितार का आविष्कार उन्होंने ही किया था। अमीर खुसरो ने अनगिनत पहेलियाँ लिखीं।

बाबर और अकबर : भारतीयकरण की प्रक्रिया- अकबर भारत में मुगल खानदान का तीसरा शासक था। उसने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव पक्की की। भारत में आने के चार वर्ष बाद ही बाबर की मृत्यु हो गई। बाबर का व्यक्तित्व आकर्षक था। उसका पौत्र अकबर उससे भी गुणवान् निकला। वह बहादुर ‘दुस्साहसी’ योग्य सेनानायक, विनम्र, दयालु, आदर्शवादी और स्वप्नदर्शी था। 1556 से शुरू होकर उसका शासन 50 वर्ष तक रहा। उसने एक राजपूत राजकुमारी से शादी की। उसका बेटा जहाँगीर आधा मुगल आधा हिंदू राजपूत था। जहाँगीर का बेटा शाहजहाँ भी राजपूत माँ का बेटा था। राजपूत घरानों से संबंध बनाने से साम्राज्य मजबूत हुआ। राणा प्रताप ने मुगलों से टक्कर ली। अकबर ने अपने चारों ओर अत्यंत प्रतिभाशाली लोगों का समुदाय इकट्ठा किया जो उसके आदर्शों के प्रति समर्पित थे।

यांत्रिक उन्नति और रचनात्मक शक्ति में एशिया और यूरोप के बीच अंतर- अकबर ने जो इमारत खड़ी की थी, वह इतनी मजबूत थी कि दुर्बल उत्तराधिकारियों के बावजूद सौ साल तक कायम रही। वास्तुकला की दृष्टि से दिल्ली और आगरा में सुंदर इमारतें तैयार हुईं। भारत में रहने वाले अधिकतर मुसलमानों ने हिंदू धर्म से धर्म परिवर्तन कर लिया था। दोनों में काफी समानताएँ विकसित हो गई थीं। गाँव की जनता का जीवन मिला-जुला था। हिंदुओं ने मुसलमानों को भी एक जात मान लिया था। मुगल शासन के दौरान कई हिंदुओं ने दरबारी भाषा फारसी में पुस्तकें लिखीं। फारसी में संस्कृत की पुस्तकों का अनुवाद हुआ।

औरंगजेब ने उल्टी गंगा बहाई : हिंदू राष्ट्रवाद का उभार शिवाजी- औरंगजेब समय के विपरीत चलने वाला शासक था। उसने अपने कारनामों से पूर्वजों के कामों पर पानी फेरने का प्रयास किया। वह धर्मान्ध तथा कठोर नैतिकतावादी था। उसे कला और साहित्य से कोई प्रेम नहीं था। उसने हिंदुओं पर जजिया-कर लगाया। मंदिरों को तुड़वाया। इसकी प्रतिक्रिया में पुनर्जागरण विचार पनपने लगे। मुसलमान साम्राज्य के खंडित होने का महत्त्वपूर्ण कारण आर्थिक ढाँचे का चरमराना था। इसी समय 1627 ई. में शिवाजी का जन्म हुआ। उसके छापामार दस्तों ने मुगलों की नाक में दम कर दिया। 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई।

प्रभुत्व के लिए मराठों और अंग्रेजों में संघर्ष : अंग्रेजों की विजय- 1707 ई. औरंगजेब की मृत्यु के बाद 100 वर्ष तक भारत पर अधिकार के लिए संघर्ष चलता रहा। 18वीं शताब्दी में चार दावेदार थे-(i) मराठे, (ii) दक्षिण में हैदरअली और उसका बेटा टीपू सुल्तान, (iii) फ्रांसीसी, (iv) अंग्रेज। 1739 ई. में ईरान का बादशाह नादिरशाह दिल्ली पर टूट पड़ा। उसने मार-काटकर बेशुमार दौलत लूट ली। वह अपने साथ तख्ते-ताऊस भी साथ ले गया। बंगाल में जालसाजी और बगावत को बढ़ावा देकर क्लाइव ने 1757 ई. में प्लासी का युद्ध जीत लिया। 1770 ई. बंगाल और बिहार में भयंकर अकाल पड़ा। अंग्रेजों की विजय के साथ भारत में फ्रांसीसियों का नामो-निशान मिट गया। मैसूर के टीपू सुल्तान को अंग्रेजों ने अंतत: 1799 में हरा दिया। मराठे सरदारों में आपसी वैर था। अंग्रेजों ने उन्हें भी अलग-अलग युद्धों में हरा दिया। अंग्रेजों ने भारत को अव्यवस्था व अराजकता से बचाया। पर यह स्थिति भी ईस्ट इंडिया कंपनी के कारण फैली थी।

रणजीत सिंह और जयसिंह- महाराजा रणजीत सिंह एक जाट सिख थे। पंजाब में उन्होंने अपना शासन कायम किया। राजपूताने में जयपुर का सवाई जयसिंह था। जयसिंह ने जयपुर, दिल्ली, बनारस और मथुरा में बड़ी-बड़ी वेधशालाएँ बनवाईं। जयपुर नगर की योजना उसी की थी।

भारत की आर्थिक पृष्ठभूमि : इंग्लैंड के दो रूप- ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्य काम था-भारतीय माल लेकर यूरोप में व्यापार करना। कंपनी को इससे बहुत लाभ भी हुआ।

इंग्लैंड का भारत में तभी आगमन हुआ जब 1600 ईसवी में एलिजाबेथ ने ईस्ट इंडिया कंपनी को परवाना दिया। 1605 ई. में मिल्टन का जन्म हुआ। सौ साल बाद कपड़े बुनने की ढरकी का आविष्कार हुआ। इंग्लैंड सामंतवाद और प्रतिक्रियावाद से घिरा हुआ था।

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Chapter 4 युगों का दौर का सार notes Class 8 Hindi Bharat ki Khoj

Bharat Ki Khoj Class 8 Chapter 4 Summary

गुप्त शासन में राष्ट्रीयता और साम्राज्यवाद- मौर्य शासन की समाप्ति पर शुंग वंश आया। भारतीय और यूनानी संस्कृतियों के मेल से अफगानिस्तान और सरहदी सूबे के क्षेत्र में गांधार की यूनानी बौद्ध कला का जन्म हुआ। मध्य एशिया में शक आक्सस नदी की घाटी में बस गए थे। ये शक बौद्ध और हिंदू हो गए थे। कुषाणों ने शकों को हराकर दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। शक काठियावाड़ और दक्खन की ओर चले गए। कुषाण काल में बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों में बँट गया-महायान और हीनयान। इनमें विवाद होने लगा। एक नाम नागार्जुन उभरा। वह बौद्धशास्त्रों और भारतीय दर्शन के विद्वान थे। उन्हीं के कारण महायान की विजय हुई। चीन में महायान तथा लंका-बर्मा में हीनयान को मानते रहे।

चंद्रगुप्त ने गुप्त साम्राज्य स्थापित किया। 320 ई. में गुप्त युग का आरंभ हुआ। इसमें कई महान शासक हुए। 150 वर्ष तक गुप्त वंश ने उत्तर में एक शक्तिशाली और समृद्ध राज्य स्थापित किया। भारत में हूणों का शासन आधी शताब्दी तक ही रहा। इनका दमन करके कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने उत्तर से लेकर मध्य भारत तक एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। हर्षवर्धन कवि और नाटककार था। उसकी मृत्यु 648 ई. में हुई थी।

दक्षिण भारत- दक्षिण भारत में मौर्य साम्राज्य के सिमटकर अंत हो जाने से एक हजार साल से भी ज्यादा समय तक बड़े-बड़े राज्य फूले-फले। दक्षिण भारत अपनी बारीक दस्तकारी और समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। उत्तर भारत पर बार-बार होने वाले हमलों का सीधा प्रभाव दक्षिण पर नहीं पड़ा। इसका परोक्ष प्रभाव जरूर पड़ा कि बहुत से लोग उत्तर से दक्षिण में जाकर बस गए। इन लोगों में राजगीर, शिल्पी और कारीगर भी शामिल थे।

शांतिपूर्ण विकास और युद्ध के तरीके- मौर्य, कुषाण, गुप्त और दक्षिण भारत में आंध्र. चालुक्य, राष्ट्रकूट के अलावा और भी ऐसे राज्य हैं जहाँ दो-दो, तीन-तीन सौ वर्षों तक शासन रहा। जब कभी दो राज्यों के बीच कोई युद्ध या आंतरिक आंदोलन होता था तो आम जनता की दिनचर्या में बहुत कम हस्तक्षेप किया जाता था। यह धारणा भ्रामक है कि अंग्रेजी राज ने पहली बार भारत में शांति और व्यवस्था कायम की। अंग्रेजों के शासन में देश अवनति की पराकाष्ठा पर था। इस समय राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था टूट चुकी थी।

प्रगति बनाम सुरक्षा- भारत में जिस सभ्यता का निर्माण किया गया, उसका मूल आधार स्थिरता और सुरक्षा की भावना थी। भारतीय दर्शन व्यक्तिवादी है; जबकि भारत का सामाजिक ढाँचा सामुदायिक है। पाबंदी के बावजूद पूरे समुदाय में लचीलापन था। रीति-रिवाज बदले जा सकते थे। यहाँ समन्वय की भावना थी। राजा आते-जाते रहे, पर व्यवस्था नींव की तरह कायम रही। ऐसे हर तत्त्व ने जो बाहर से आया और जिसे भारत में अपने आप में समा लिया। भारत को कुछ दिया और उससे बहुत कुछ लिया।

भारत का प्राचीन रंगमंच- भारतीय रंगमंच अपने मूलरूप में विचारों और विकास में पूरी तरह स्वतंत्र था। इसका उद्गम ऋग्वेद की ऋचाओं में खोजा जा सकता है। रंगमंच की कला पर रचित ‘नाट्यशास्त्र’ ईसा की तीसरी शताब्दी की रचना बताई जाती है। यह माना जाता है कि नियमित रूप से लिखे गए संस्कृत नाटक ई.पू. तीसरी शताब्दी तक प्रतिष्ठित हो चुके थे। भास द्वारा रचित तेरह नाटकों का संग्रह मिला है। संस्कृत नाटकों में प्राचीनतम नाटक अश्वघोष के हैं। उसने ‘बुद्धचरित’ नाम से बुद्ध की जीवनी लिखी। यह ग्रंथ भारत, चीन तिब्बत में बहुत प्रसिद्ध हुआ। 1789 ई. में कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का अंग्रेजी अनुवाद सर विलियम जोर ने किया। गेटे पर भी इसका बड़ा प्रभाव पड़ा। कालिदास को संस्कृत साहित्य का सबसे बड़ा कवि और नाटककार माना गया है। कालिदास की एक लंबी कविता ‘मेघदूत’ है। शूद्रक का नाटक ‘मृच्छकटिक’ अर्थात् मिट्टी की एक गाड़ी प्रसिद्ध रचना है। विशाखदत्त का नाटक ‘मुद्राराक्षस’ था। इस ऊँचे दर्जे के रंगमंच के अलावा एक लोकमंच भी रहा है। इसका आधार भारतीय पुराकथाएँ तथा महाकाव्यों से ली गई कथाएँ होती थीं। दर्शकों को इन विषयों की अच्छी जानकारी रहती थी। संस्कृत साहित्य के पतन के काल में भाषा ने अपनी कुछ शक्ति और सादगी खो दी थी।

दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय उपनिवेश और संस्कृति- ईसा की पहली शताब्दी से लगभग 900 ई. तक उपनिवेशीकरण की चार प्रमुख लहरें दिखाई पड़ती हैं। इन साहसिक अभियानों की सबसे विशिष्ट बात यह थी कि इनका आयोजन स्पष्टतः राज्य द्वारा किया जाता था। इन बस्तियों का नामकरण पुराने भारतीय नामों के आधार पर किया गया जिसे अब कंबोडिया कहते हैं, उस समय कंबोज़ कहलाया। जावा स्पष्ट रूप यवद्वीप है। साहसिक व्यवसायियों और व्यापारियों के बाद धर्म-प्रचारकों का जाना शुरू हुआ होगा। प्राचीन भारत में जहाज बनाने का उद्योग बहुत विकसित और उन्नति पर था। अजंता के भित्तिचित्रों में लंका-विजय और हाथियों को ले जाते हुए जहाजों के चित्र हैं।

विदेशों पर भारतीय कला का प्रभाव- भारतीय सभ्यता ने विशेष रूप से दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में अपनी जड़ें जमाईं। चंपा अंगकोर श्री विजय आदि स्थानों पर संस्कृत के बड़े-बड़े अध्ययन केंद्र थे। वहाँ के शासकों के विशुद्ध भारतीय और संस्कृत नाम थे। इंडोनेशिया और बाली आदि लेने अभी तक भारतीय संस्कृति को कायम रखा है। कंबोडिया की वर्णमाला दक्षिण भारत से ली गई है और बहुत से संस्कृत शब्दों को थोड़े हेरफेर से लिया गया है। जावा में बुद्ध के जीवन की कथा पत्थरों पर अंकित है। अंगकोर के विशाल मंदिर के चारों ओर विशाल खंडहरों का विस्तृत क्षेत्र है। कंबोडिया के राजा का नाम जयवर्मन था जो ठेठ भारतीय नाम है।

भारतीय कला का भारतीय दर्शन और धर्म से बहुत गहरा रिश्ता है। भारतीय संगीत जो यूरोपीय संगीत से इतना भिन्न है, अपने ढंग से बहुत विकसित था। मथुरा के संग्रहालय में बोधिसत्व की एक विशाल शक्तिशाली प्रभावशाली पाषाण प्रतिमा है। भारतीय कला अपने आरंभिक काल में प्रकृतिवाद से भरी है। भारतीय कला पर चीनी प्रभाव दिखाई देता है। गुप्त काल को भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसी काल में अजंता की गुफाएँ खोदी गईं तथा उनमें भित्तिचित्र बनाए गए। इन चित्रों को बौद्ध भिक्षुओं ने बनाया था। इनमें सुंदर स्त्रियाँ, राजकुमारियाँ, गायिकाएँ, नर्तकियाँ बैठी हैं।

सातवीं-आठवीं शताब्दी में ठोस चट्टान को काटकर एलोरा की विशाल गुफाएँ तैयार हुईं। एलिफेंटा की गुफाओं में नटराज-शिव की एक खंडित मूर्ति है जिसमें शिव नृत्य की मुद्रा में है। ब्रिटिश संग्रहालय में विश्व का सृजन और नाश करते हुए नटराज शिव की एक मूर्ति है।

भारत का विदेशी व्यापार- ईस्वी सन् के एक हजार वर्षों के दौरान भारत का व्यापार दूर-दूर तक फैल चुका था। भारत में प्राचीन काल से ही कपड़े का उद्योग बहुत विकसित हो चुका था। यहाँ रेशमी कपड़ा भी बनता था। कपड़े रंगने की कला भी उन्नत थी। भारत में रसायन शास्त्र का विकास और देशों की तुलना में अधिक हुआ था। भारतीय लोहे व फौलाद का दूसरे देशों में बहुत महत्त्व था। भारतीयों को बहुत-सी धातुओं की जानकारी थी। औषधियों के लिए धातुओं का मिश्रण तैयार करना भी भारतीय जानते थे।

प्राचीन भारत में गणित शास्त्र- आधुनिक अंकगणित और बीजगणित की नींव भारत में ही पड़ी, ऐसा माना जाता है। बीजगणित का सबसे प्राचीन ग्रंथ आर्यभट्ट का है जिसका जन्म 427 ई. में हुआ था। भारतीय गणित शास्त्र में अगला नाम भास्कर का है। ब्रह्मपुत्र प्रसिद्ध खगोल शास्त्री था जिसने शून्य पर लागू होने वाले नियम निश्चित किए थे। अंकगणित की प्रसिद्ध पुस्तक ‘लीलावती’ है जिसके रचयिता भास्कर हैं।

विकास और ह्रास- चौथी से छठी शताब्दी तक गुप्त साम्राज्य समृद्ध होता रहा। स्वर्ण-युग के समाप्त होते ही ह्रास के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। सातवीं शताब्दी में हर्ष के शासनकाल में उज्जयिनी जो गुप्त शासकों की शानदार राजधानी थी, एक अन्य शक्तिशाली साम्राज्य का केंद्र बनती है। आगे के समय में वह भी कमजोर पड़कर खत्म हो जाती है। नौवीं शताब्दी में मिहिरभोज एक संयुक्त राज्य कायम करता है। 11वीं शताब्दी में एक बार दूसरा भोज सामने आता है। भीतरी कमजोरी ने भारत को जकड़ रखा था। छोटे-छोटे राज्यों में बँटे होने पर भी भारत समृद्ध देश था।

साहित्य के क्षेत्र में भवभूति आखिरी बड़ा व्यक्ति था। भारत समय के साथ-साथ क्रमशः अपनी प्रतिभा और जीवन-शक्ति को खोता जा रहा था। यह प्रक्रिया धीमी थी और कई सदियों तक चलती रही। राधाकृष्णन का कहना था कि भारतीय दर्शन ने अपनी शक्ति राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ खो दी है। हर सभ्यता के जीवन में ह्रास और विघटन के दौर आते रहते हैं। भारत ने उन सबसे बचकर नए सिरे से अपना कायाकल्प किया था। भारत के सामाजिक ढाँचे ने भारतीय सभ्यता को अद्भुत दृढ़ता दी थी। हर तरफ ह्रास हुआ- विचारों में, दर्शन में, राजनीति में, युद्ध पद्धति में और बाहरी दुनिया के बारे में जानकारी और संपर्क में।

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