Chapter 6 स्पीति में बारिश | CLASS 11TH | REVISION NOTES FOR HINDI AROH

हिन्दी Notes Class 11 Hindi Chapter 6 स्पीति में बारिश

पाठ का सारांश

यह पाठ एक यात्रा-वृत्तांत है। स्पीति, हिमालय के मध्य में स्थित है। यह स्थान अपनी भौगोलिक एवं प्राकृतिक विशेषताओं के कारण अन्य पर्वतीय स्थलों से भिन्न है। लेखक ने यहाँ की जनसंख्या, ऋतु, फसल, जलवायु व भूगोल का वर्णन किया है। ये एक-दूसरे से संबंधित हैं। उन्होंने दुर्गम क्षेत्र स्पीति में रहने वाले लोगों के कठिनाई भरे जीवन का भी वर्णन किया है। कुछ युवा पर्यटकों का पहुँचना स्पीति के पर्यावरण को बदल सकता है। ठंडे रेगिस्तान जैसे स्पीति के लिए उनका आना, वहाँ बूंदों भरा एक सुखद संयोग बन सकता है।

लेखक बताता है कि हिमाचल प्रदेश के लाहुल-स्पीति जिले की तहसील स्पीति है। ऊँचे दरों व कठिन रास्तों के कारण इतिहास में इसका नाम कम ही रहा है। आजकल संचार के आधुनिक साधनों में वायरलेस के जरिए ही केलग व काजा के बीच संबंध रहता है। केलग के बादशाह को हमेशा अवज्ञा या बगावत का डर रहता है। यह क्षेत्र प्राय: स्वायत्त रहा है चाहे कोई भी राजा रहा हो। इसका कारण यहाँ का भूगोल है। भूगोल ही इसकी रक्षा तथा संहार करता है। पहले राजा का हरकारा आता था तो उसके आने तक अल्प वसंत बीत जाता था। जोरावर सिंह हमले के समय स्पीति के लोग घर छोड़कर भाग गए थे। उसने यहाँ के घरों और विहारों को लूटा।

स्पीति में जनसंख्या लाहुल से भी कम है। 1901 में यहाँ 3231 लोग थे, अब यहाँ 34,000 लोग हैं। लाहुल स्पीति का क्षेत्रफल 12210 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ जनसंख्या प्रति वर्गमील बहुत कम है। भारत को यहाँ का प्रशासन ब्रिटिश राज से मिला। अंग्रेजों ने 1846 ई. में कश्मीर के राजा गुलाब सिंह से यहाँ का प्रशासन लिया था ताकि वे पश्चिमी तिब्बत के ऊन वाले क्षेत्र में जा सकें। लद्दाख मंडल के समय यहाँ का शासन स्थानीय राजा (नोनी) द्वारा चलाया जाता था। अंग्रेजी काल में कुल्लू के असिस्टेंट कमिश्नर के समर्थन से नोनो काम करता था। स्थानीय लोग इसे अपना राजा मानते थे।

1873 ई. में स्पीति रेगुलेशन में लाहुल व स्पीति को विशेष दर्जा दिया गया। यहाँ पर अन्य कानून लागू नहीं होते थे। यहाँ के नोनो को मालगुजारी इकट्ठा करने तथा छोटे-छोटे फौजदारी के मुकदमों का फैसला करने का अधिकार दिया गया। उससे ऊपर के मामले वह कमिश्नर के पास भेज देता था। 1960 में इस क्षेत्र को पंजाब राज्य में तथा 1966 में हिमाचल प्रदेश बनने के बाद राज्य के उत्तरी छोर का जिला बनाया गया।

स्पीति 31.42 और 32.59 अक्षांश उत्तर और 77.26 और 78.42 पूर्व देशांतर के बीच स्थित है। यहाँ चारों तरफ पहाड़ हैं। इसकी मुख्य घाटी स्पीति नदी की घाटी है। स्पीति नदी तिब्बत की तरफ से आती है तथा किन्नौर जिले से बहती हुई सतलुज में मिलती है। लेखक पारा नदी, पिन की घाटी के बारे में भी मान भाई से सुना है। यह क्षेत्र अत्यंत बीहड़ और वीरान है। यहाँ लोग रहते कैसे हैं? स्पीति के बारे में बताने पर यह सवाल लोग लेखक से पूछते हैं। ये क्षेत्र आठ-नौ महीने शेष दुनिया से कटे हुए हैं। वे एक फसल उगाते हैं तथा लकड़ी व रोजगार भी नहीं है, फिर भी वे यहाँ रह रहे हैं, क्योंकि वे यहाँ रहते आए हैं। यह तर्क से परे की चीज है।

स्पीति के पहाड़ लाहुल से अधिक ऊँचे, भव्य व नंगे हैं। इनके सिरों पर स्पीति के नर-नारियों का आर्तनाद जमा हुआ है। यहाँ हिम का आर्तनाद है, ठिठुरन है और व्यथा है। स्पीति मध्य हिमालय की घाटी है। यह हिमालय का तलुआ है। लाहुल । समुद्र की तरह से 10535 फीट ऊँचा है तो स्पीति 12986 फीट ऊँचा। स्पीति घाटी को घेरने वाली पर्वत श्रेणियों की ऊँचाई 16221 से 16500 फीट है। दो चोटियाँ 21,000 फीट से भी ऊँची हैं। इन्हें बारालचा श्रेणियाँ कहते हैं। दक्षिण की पर्वत श्रेणियों को माने श्रेणियाँ कहते हैं। शायद बौद्धों के माने मंत्रों के नाम पर इनका नामकरण किया गया हो। बौद्धों का बीज मंत्र ‘ओों मणि पद्भे हु’ है। इसे संक्षेप में माने कहते है।

स्पीति के पार बाह्य हिमालय दिखता है। इसकी एक चोटी 23,064 फीट ऊँची बताई जाती है। लेखक चोटियों से होड़ लगाने के पक्ष में नहीं है। इन ऊँचाइयों से होड़ लगाना मृत्यु है। कभी-कभी उनका मान-मर्यादा करना मर्द और औरत की शान है। लेखक चाहता है कि देश-दुनिया के मैदानों व पहाड़ों से युवक-युवतियाँ आकर अपने अहंकार को गलाकर फिर चोटियों के अहंकार को चूर करें। माने की चोटियाँ बूढ़े लामाओं के जाप से उदास हो गई। युवक-युवतियाँ यहाँ आकर किलोल करें तो यहाँ आनंद का प्रसार हो।

स्पीति में दो ही ऋतुएँ होती हैं। जून से सितंबर तक अल्पकालिक वसंत ऋतु तथा शेष वर्ष शीत ऋतु होती है। बसंत में जुलाई में औसत तापमान 15० सेंटीग्रेड तथा शीत में, जनवरी में औसत तापमान 8० सेंटीग्रेड होता है। वसंत में दिन गर्म तथा रात ठंडी होती है। शीत ऋतु की ठंड की कल्पना ही की जा सकती है। यहाँ वसंत का समय लाहुल से कम होता है। इस ऋतु में यहाँ फूल, हरियाली आदि नहीं आते। दिसंबर से मई तक बर्फ रहती है। नदी-नाले जम जाते हैं। तेज हवाएँ मुँह, हाथ व अन्य खुले अंगों पर शूल की तरह चुभती हैं।

यहाँ मानसून की पहुँच नहीं है। यहाँ बरखा बहार नहीं है। कालिदास को अपने ‘ऋतु संहार’ ग्रंथ में से वर्षा ऋतु का वर्णन हटाना होगा। उसका वर्षा वर्णन लाहुल-स्पीति के लोगों की समझ से परे है। वे नहीं जानते कि बरसात में नदियाँ बहती हैं,बादल बरसते हैं और मस्त हाथी चिंघाड़ते हैं। जंगलों में हरियाली छा जाती है और वियोगिनी स्त्रियाँ तड़पती हैं। यहाँ के लोगों ने कभी पर्याप्त वर्षा नहीं देखी। धरती सूखी, ठंडी व वंध्या रहती है।

स्पीति में एक ही फसल होती है जिनमें जौ, गेहूँ, मटर व सरसों प्रमुख है। इनमें भी जो मुख्य है। सिंचाई के साधन पहाड़ों से बहने वाले झरने हैं। स्पीति नदी का पानी काम में नहीं आता। स्पीति की भूमि पर खेती की जा सकती है बशर्त वहाँ पानी पहुँचाया जाए। यहाँ फल, पेड़ आदि नहीं होते। भूगोल के कारण स्पीति नंगी व वीरान है। वर्षा यहाँ एक घटना है। लेखक एक घटना का वर्णन करता है। वह काजा के डाक बंगले में सो रहा था। आधी रात के समय उन्हें लगा कि कोई खिड़की खड़का रहा है। उसने खिड़की खोली तो हवा का तेज झोंका मुँह व हाथ को छीलने-सा लगा। उसने पल्ला बंद किया तथा आड़ में देखा कि बारिश हो रही है। बर्फ की बारिश हो रही थी। सुबह उठने पर पता चला कि लोग उनकी यात्रा को शुभ बता रहे थे। यहाँ बहुत दिनों बाद बारिश हुई।

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Chapter 5 गलता लोहा | Class 11th | revision notes for Hindi aroh

हिन्दी Notes Class 11 Hindi Chapter 5 गलता लोहा

पाठ का सारांश

गलता लोहा कहानी में समाज के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी की गई है। यह कहानी लेखक के लेखन में अर्थ की गहराई को दर्शाती है। इस पूरी कहानी में लेखक की कोई मुखर टिप्पणी नहीं है। इसमें एक मेधावी, किंतु निर्धन ब्राहमण युवक मोहन किन परिस्थितियों के चलते उस मनोदशा तक पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है। सामाजिक विधि-निषेधों को ताक पर रखकर वह धनराम लोहार के आफर पर बैठता ही नहीं, उसके काम में भी अपनी कुशलता दिखाता है। मोहन का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे को प्रस्तावित करता प्रतीत होता है मानो लोहा गलकर नया आकार ले रहा हो।

मोहन के पिता वंशीधर ने जीवनभर पुरोहिती की। अब वृद्धावस्था में उनसे कठिन श्रम व व्रत-उपवास नहीं होता। उन्हें चंद्रदत्त के यहाँ रुद्री पाठ करने जाना था, परंतु जाने की तबियत नहीं है। मोहन उनका आशय समझ गया, लेकिन पिता का अनुष्ठान कर पाने में वह कुशल नहीं है। पिता का भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला, लेकिन हँसुवे की धार कुंद हो चुकी थी। उसे अपने दोस्त धनराम की याद आ गई। वह धनराम लोहार की दुकान पर धार लगवाने पहुँचा।

धनराम उसका सहपाठी था। दोनों बचपन की यादों में खो गए। मोहन ने मास्टर त्रिलोक सिंह के बारे में पूछा। धनराम ने बताया कि वे पिछले साल ही गुजरे थे। दोनों हँस-हँसकर उनकी बातें करने लगे। मोहन पढ़ाई व गायन में निपुण था। वह मास्टर का चहेता शिष्य था और उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर बना रखा था। वे उसे कमजोर बच्चों को दंड देने का भी अधिकार देते थे। धनराम ने भी मोहन से मास्टर के आदेश पर डडे खाए थे। धनराम उसके प्रति स्नेह व आदरभाव रखता था, क्योंकि जातिगत आधार की हीनता उसके मन में बैठा दी गई थी। उसने मोहन को कभी अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा।

धनराम गाँव के खेतिहर या मजदूर परिवारों के लड़कों की तरह तीसरे दर्जे तक ही पढ़ पाया। मास्टर जी उसका विशेष ध्यान रखते थे। धनराम को तेरह का पहाड़ा कभी याद नहीं हुआ। इसकी वजह से उसकी पिटाई होती। मास्टर जी का नियम था कि सजा पाने वाले को अपने लिए हथियार भी जुटाना होता था। धनराम डर या मंदबुद्ध होने के कारण तेरह का पहाड़ा नहीं सुना पाया। मास्टर जी ने व्यंग्य किया-‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे। विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?”

इतना कहकर उन्होंने थैले से पाँच-छह दरॉतियाँ निकालकर धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी। हालाँकि धनराम के पिता ने उसे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखा दी। विद्या सीखने के दौरान मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट देते थे, परंतु गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे। एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे। धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली।

इधर मोहन ने छात्रवृत्ति पाई। इससे उसके पिता वंशीधर तिवारी उसे बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे। पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था। वे कभी परिवार का पूरा पेट नहीं भर पाए। अत: उन्होंने गाँव से चार मील दूर स्कूल में उसे भेज दिया। शाम को थकामाँदा मोहन घर लौटता तो पिता पुराण कथाओं से उसे उत्साहित करने की कोशिश करते। वर्षा के दिनों में मोहन नदी पार गाँव के यजमान के घर रहता था। एक दिन नदी में पानी कम था तथा मोहन घसियारों के साथ नदी पार कर घर आ रहा था। पहाड़ों पर भारी वर्षा के कारण अचानक नदी में पानी बढ़ गया। किसी तरह वे घर पहुँचे इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और फिर मोहन को स्कूल न भेजा।

उन्हीं दिनों बिरादरी का एक संपन्न परिवार का युवक रमेश लखनऊ से गाँव आया हुआ था। उससे वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त की तो वह उसे अपने साथ लखनऊ ले जाने को तैयार हो गया। उसके घर में एक प्राणी बढ़ने से कोई अंतर नहीं पड़ता। वंशीधर को रमेश के रूप में भगवान मिल गया। मोहन रमेश के साथ लखनऊ पहुँचा। यहाँ से जिंदगी का नया अध्याय शुरू हुआ। घर की महिलाओं के साथ-साथ उसने गली की सभी औरतों के घर का काम करना शुरू कर दिया। रमेश बड़ा बाबू था। वह मोहन को घरेलू नौकर से अधिक हैसियत नहीं देता था। मोहन भी यह बात समझता था। कह सुनकर उसे समीप के सामान्य स्कूल में दाखिल करा दिया गया। कारों के बोझ व नए वातावरण के कारण वह । अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। गर्मियों की छुट्टी में भी वह तभी घर जा पाता जब रमेश या उसके घर का कोई आदमी गाँव जा रहा होता। उसे अगले दरजे की तैयारी के नाम पर शहर में रोक लिया जाता।

मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। वह घर वालों को असलियत बताकर दुखी नहीं करना चाहता था। आठवीं कक्षा पास करने के बाद उसे आगे पढ़ने के लिए रमेश का परिवार उत्सुक नहीं था। बेरोज्ग्री का तर्क देकर उसे तकनी स्कूल में दाखिल करा दिया गया। वह पहले की तरह घर व स्कूल के काम में व्यस्त रहता। डेढ़-दो वर्ष के बाद उसे कारखानों के चक्कर काटने पड़े। इधर वंशीधर को अपने बेटे के बड़े अफसर बनने की उम्मीद थी। जब उसे वास्तविकता का पता चला तो उसे गहरा दुख हुआ। धनराम ने भी उससे पूछा तो उसने झूठ बोल दिया। धनराम ने उन्हें यही कहो-मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धमान थे।

इस तरह मोहन और धनराम जीवन के कई प्रसंगों पर बातें करते रहे। धनराम ने हँसुवे के फाल को बेंत से निकालकर तपाया, फिर उसे धार लगा दी। आमतौर पर ब्राहमण टोले के लोगों का शिल्पकार टोले में उठना-बैठना नहीं होता था। काम-काज के सिलसिले में वे खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली जाती थी। ब्राहमण टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। मोहन धनराम की कार्यशाला में बैठकर उसके काम को देखने लगा।

धनराम अपने काम में लगा रहा। वह लोहे की मोटी छड़ को भट्टी में गलाकर गोल बना रहा था, किंतु वह छड़ निहाई पर ठीक से फैंस नहीं पा रही थी। अत: लोहा ठीक ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। मोहन कुछ देर उसे देखता रहा और फिर उसने दूसरी पकड़ से लोहे को स्थिर कर लिया। नपी-तुली चोटों से छड़ को पीटते-पीटते गोले का रूप दे डाला। मोहन के काम में स्फूर्ति देखकर धनराम अवाक् रह गया। वह पुरोहित खानदान के युवक द्वारा लोहार का काम करने पर आश्चर्यचकित था। धनराम के संकोच, धर्मसंकट से उदासीन मोहन लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई की जाँच कर रहा था। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी।

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Chapter 4 विदाई – संभाषण | Class 11th | revision notes for Hindi aroh

हिन्दी Notes Class 11 Hindi Chapter 4 विदाई संभाषण

पाठ का साराश

विदाई-संभाषण पाठ वायसराय कर्जन जो 1899-1904 व 1904-1905 तक दो बार वायसराय रहे, के शासन में भारतीयों की स्थिति का खुलासा करता है। यह अध्याय शिवशंभु के चिट्ठे का अंश है। कर्जन के शासनकाल में विकास के बहुत कार्य हुए, नए-नए आयोग बनाए गए, किंतु उन सबका उद्देश्य शासन में गोरों का वर्चस्व स्थापित करना तथा इस देश के संसाधनों का अंग्रेजों के हित में सर्वोत्तम उपयोग करना था। कर्जन ने हर स्तर पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित करने की चेष्टा की। वे सरकारी निरंकुशता के पक्षधर थे। लिहाजा प्रेस की स्वतंत्रता पर उन्होंने प्रतिबंध लगा दिया। अंततः कौंसिल में मनपसंद अंग्रेज सदस्य नियुक्त करवाने के मुद्दे पर उन्हें देश-विदेश दोनों जगहों पर नीचा देखना पड़ा। क्षुब्ध होकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया और वापस इंग्लैंड चले गए।

लेखक ने भारतीयों की बेबसी, दुख एवं लाचारी को व्यंग्यात्मक ढंग से लॉर्ड कर्जन की लाचारी से जोड़ने की कोशिश की है। साथ ही यह बताने की कोशिश की है कि शासन के आततायी रूप से हर किसी को कष्ट होता है चाहे वह सामान्य जनता हो या फिर लॉर्ड कर्जन जैसा वायसराय। यह निबंध उस समय लिखा गया है जब प्रेस पर पाबंदी का दौर चल रहा था। ऐसी स्थिति में विनोदप्रियता, चुलबुलापन, संजीदगी, नवीन भाषा-प्रयोग एवं रवानगी के साथ यह एक साहसिक गद्य का नमूना है।

लेखक कर्जन को संबोधित करते हुए कहता है कि आखिरकार आपके शासन का अंत हो ही गया, अन्यथा आप तो यहाँ के स्थाई वायसराय बनने की इच्छा रखते थे। इतनी जल्दी देश को छोड़ने की बात आपको व देशवासियों को पता नहीं थी। इससे ईश्वर-इच्छा का पता चलता है। आपके दूसरी बार आने पर भारतवासी प्रसन्न नहीं थे। वे आपके जाने की प्रतीक्षा करते थे, परंतु आपके जाने से लोग दु:खी हैं। बिछड़न का समय पवित्र, निर्मल व कोमल होता है। यह करुणा पैदा करने वाला होता है। भारत में तो पशु-पक्षी भी ऐसे समय उदास हो जाते हैं। शिवशंभु की दो गाएँ थीं। बलशाली गाय कमजोर को टक्कर मारती रहती थी। एक दिन बलशाली गाय को पुरोहित को दान दे दिया गया, परंतु उसके जाने के बाद कमजोर गाय प्रसन्न नहीं रही। उसने चारा भी नहीं खाया। यहाँ पशु ऐसे हैं तो मानव की दशा का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है।

इस देश में पहले भी अनेक शासक आए और चले गए। यह परंपरा है, परंतु आपका शासनकाल दु:खों से भरा था। कर्जन ने सारा राजकाज सुखांत समझकर किया था, उसका अंत दु:ख में हुआ। वास्तव में लीलामय की लीला का किसी को पता नहीं चलता। दूसरी बार आने पर आपने ऐसे कार्य करने की सोची थी जिससे आगे के शासकों को परेशानी न हो, परंतु सब कुछ उलट गया। आप स्वयं बेचैन रहे और देश में अशांति फैला दी। आने वाले शासकों को परेशान रहना पड़ेगा। आपने स्वयं भी कष्ट सहे और जनता को भी कष्ट दिए।

लेखक कहता है कि आपका स्थान पहले बहुत ऊँचा था। आज आपकी दशा बहुत खराब है। दिल्ली दरबार में ईश्वर और एडवर्ड के बाद आपका सर्वोच्च स्थान था। आपकी कुर्सी सोने की थी। जुलूस में आपका हाथी सबसे आगे व ऊँचा था, परंतु जंगी लाट के मुकाबले में आपको नीचा देखना पड़ा। आप धीर व गंभीर थे, परंतु कौंसिल में गैरकानूनी कानून पास करके और कनवोकेशन में अनुचित भाषण देकर अपनी धीरता का दिवाला निकाल दिया। आपके इस्तीफे की धमकी को स्वीकार कर लिया गया। आपके इशारों पर राजा, महाराजा, अफसर नाचते थे, परंतु इस इशारे में देश की शिक्षा और स्वाधीनता समाप्त हो गई। आपने देश में बंगाल विभाजन किया, परंतु आप अपनी मजी से एक फौजी को इच्छित पद पर नहीं बैठा सके। अत: आपको इस्तीफा देना पड़ा।

लेखक कहता है कि आपका मनमाना शासन लोगों को याद रहेगा। आप ऊँचे चढ़कर गिरे हैं, परंतु गिरकर पड़े रहना अधिक दुखी करता है। ऐसे समय में व्यक्ति स्वयं से घृणा करने लगता है। आपने कभी प्रजा के हित की नहीं सोची। आपने आँख बंदकर हुक्म चलाए और किसी की नहीं सुनी। यह शासन का तरीका नहीं है। आपने हर काम अपनी जिद से पूरे किए। कैसर और जार भी घेरने-घोटने से प्रजा की बात सुनते थे। आपने कभी प्रजा को अपने समीप ही नहीं आने दिया। नादिरशाह ने भी आसिफजाह के तलवार गले में डालकर प्रार्थना करने पर कत्लेआम रोक दिया था, परंतु आपने आठ करोड़ जनता की प्रार्थना पर बंग-भंग रद्द करने का फैसला नहीं लिया। अब आपका जाना निश्चित है, परंतु आप बंग-भंग करके अपनी जिद पूरा करना चाहते हैं। ऐसे में प्रजा कहाँ जाकर अपना दु:ख जताए।

यहाँ की जनता ने आपकी जिद का फल देख लिया। जिद ने जनता को दु:खी किया, साथ ही आपको भी जिसके कारण आपको भी पद छोड़ना पड़ा। भारत की जनता दु:ख और कष्टों की अपेक्षा परिणाम का अधिक ध्यान रखती है। वह जानती है कि संसार में सब चीज़ों का अंत है। उन्हें भगवान पर विश्वास है। वे दु:ख सहकर भी पराधीनता का कष्ट झेल रहे हैं। आप ऐसी जनता की श्रद्धा-भक्ति नहीं जीत सके।

कर्जन अनपढ़ प्रजा का नाम एकाध बार लेते थे। यह जनता नर सुलतान नाम के राजकुमार के गीत गाती है। यह राजकुमार संकट में नरवरगढ़ नामक स्थान पर कई साल रहा। उसने चौकीदारी से लेकर ऊँचे पद तक काम किया। जाते समय उसने नगर का अभिवादन किया कि वह यहाँ की जनता, भूमि का अहसान नहीं चुका सकता। अगर उससे सेवा में कोई भूल न हुई हो तो उसे प्रसन्न होकर जाने की इजाजत दें। जनता आज भी उसे याद करती है। आप इस देश के पढ़े-लिखों को देख नहीं सकते।

लेखक कर्जन को कहता है कि राजकुमार की तरह आपका विदाई-संभाषण भी ऐसा हो सकता है जिसमें आप-अपने स्वार्थी स्वभाव व धूर्तता का उल्लेख करें और भारत की भोली जनता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कह सकेंगे कि आशीर्वाद देता हूँ कि तू फिर उठे और अपने प्राचीन गौरव और यश को फिर से प्राप्त कर। मेरे बाद आने वाले तेरे गौरव को समझे। आपकी इस बात पर देश आपके पिछले कार्यों को भूल सकता है, परंतु आप में इतनी उदारता कहाँ?

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Chapter 3 अपू के साथ ढाई साल | Class 11 | revision notes for Hindi aroh

हिन्दी Notes Class 11 Hindi Chapter 3 अपू के साथ ढाई साल

पाठ का सारांश

अपू के साथ ढाई साल नामक संस्मरण पथेर पांचाली फिल्म के अनुभवों से संबंधित है जिसका निर्माण भारतीय फिल्म के इतिहास में एक बड़ी घटना के रूप में दर्ज है। इससे फिल्म के सृजन और उनके व्याकरण से संबंधित कई बारीकियों का पता चलता है। यही नहीं, जो फिल्मी दुनिया हमें अपने ग्लैमर से चुधियाती हुई जान पड़ती है, उसका एक ऐसा सच हमारे सामने आता है, जिसमें साधनहीनता के बीच अपनी कलादृष्टि को साकार करने का संघर्ष भी है। यह पाठ मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया है जिसका अनुवाद विलास गिते ने किया है।

किसी फिल्मकार के लिए उसकी पहली फिल्म एक अबूझ पहेली होती है। बनने या न बन पाने की अमूर्त शंकाओं से घिरी। फिल्म पूरी होने पर ही फिल्मकार जन्म लेता है। पहली फिल्म के निर्माण के दौरान हर फिल्म निर्माता का अनुभव संसार इतना रोमांचकारी होता है कि वह उसके जीवन में बचपन की स्मृतियों की तरह हमेशा जीवंत बना रहता है। इस अनुभव संसार में दाखिल होना उस बेहतरीन फिल्म से गुजरने से कम नहीं है।

लेखक बताता है कि पथेर पांचाली फिल्म की शूटिंग ढाइ साल तक चली। उस समय वह विज्ञापन कंपनी में काम करता था। काम से फुर्सत मिलते ही और पैसे होने पर शूटिंग की जाती थी। शूटिंग शुरू करने से पहले कलाकार इकट्ठे करने के लिए बड़ा आयोजन किया गया। अपू की भूमिका निभाने के लिए छह साल का लड़का नहीं मिल रहा था। इसके लिए अखबार में विज्ञापन दिया। रासबिहारी एवेन्यू के एक भवन में किराए के कमरे पर बच्चे इंटरव्यू के लिए आते थे। एक सज्जन तो अपनी लड़की के बाल कटवाकर लाए थे। लेखक परेशान हो गया। एक दिन लेखक की पत्नी की नज़र पड़ोस में रहने वाले लड़के पर पड़ी और वह सुबीर बनर्जी ही ‘पथेर पांचाली’ में अपू बना।

फिल्म में अधिक समय लगने लगा तो लेखक को यह डर लगने लगा कि अगर अपू और दुर्गा नामक बच्चे बड़े हो गए तो दिक्कत हो जाएगी। सौभाग्य से वे नहीं बढ़े। फिल्म की शूटिंग के लिए वे पालसिट नामक गाँव गए। वहाँ रेल-लाइन के पास काशफूलों से भरा मैदान था। उस मैदान में शूटिंग शुरू हुई। एक दिन में आधी शूटिंग हुई। निर्देशक, छायाकार, कलाकार आदि सभी नए होने के कारण घबराए हुए थे। बाकी का सीन बाद में शूट करना था। सात दिन बाद वहाँ दोबारा पहुँचे तो काशफूल गायब थे। उन्हें जानवर खा गए। अत: आधे सीन की शूटिंग के लिए अगली शरद ऋतु की प्रतीक्षा करनी पड़ी।

अगले वर्ष शूटिंग हुई। उसी समय रेलगाड़ी के शॉट्स भी लिए गए। कई शॉट्स होने के लिए तीन रेलगाड़ियों से शूटिंग की गई। कलाकार दल का एक सदस्य पहले से ही गाड़ी के इंजन में सवार होता था ताकि वह शॉट्स वाले दृश्य में बायलर में कोयला डालता जाए और रेलगाड़ी का धुआँ निकलता दिख सके। सफेद काशफूलों की पृष्ठभूमि पर काला धुआँ अच्छा सीन दिखाता है। इस सीन को कोई दर्शक नहीं पहचान पाया।

लेखक को धन की कमी से कई समस्याएँ झेलनी पड़ीं। फिल्म में ‘भूलो’ नामक कुत्ते के लिए गाँव का कुत्ता लिया गया। दृश्य में कुत्ते को भात खाते हुए दिखाया जाना था, परंतु जैसे ही यह शॉट शुरू होने को था, सूरज की रोशनी व पैसे-दोनों ही खत्म हो गए। छह महीने बाद पैसे इकट्ठे करके बोडाल गाँव पहुँचे तो पता चला कि वह कुत्ता मर गया था। फिर भूलो जैसा दिखने वाला कुत्ता पकड़ा गया और उससे फिल्म की शूटिंग पूरी की गई। लेखक को आदमी के संदर्भ में भी यही समस्या हुई। फिल्म में मिठाई बेचने वाला है-श्रीनिवास। अपू व दुर्गा के पास पैसे नहीं थे। वे मुखर्जी के घर गए जो उससे मिठाई खरीदेंगे और बच्चे मिठाई खरीदते देखकर ही खुश होंगे। पैसे के अभाव के कारण दृश्य का कुछ अंश चित्रित किया गया। बाद में वहाँ पहुँचे तो श्रीनिवास का देहांत हो चुका था। किसी तरह उनके शरीर से मिलता-जुलता व्यक्ति मिला और उनकी पीठ वाले दृश्य से शूटिंग पूरी की गई।

श्रीनिवास के सीन में भूलो कुत्ते के कारण भी परेशानी हुई। एक खास सीन में दुर्गा व अपू को मिठाई वाले के पीछे दौड़ना होता है तथा उसी समय झुरमुट में बैठे भूलो कुत्ते को भी छलाँग लगाकर दौड़ना होता है। भूलो प्रशिक्षित नहीं था, अत: वह मालिक की आज्ञा को नहीं मान रहा था। अंत में दुर्गा के हाथ में थोड़ी मिठाई छिपा कुत्ते को दिखाकर दौड़ने की योजना से शूटिंग पूरी की गई।

बारिश के दृश्य चित्रित करने में पैसे का अभाव परेशान करता था। बरसात में पैसे नहीं थे। अक्टूबर में बारिश की संभावना कम थी। वे हर रोज देहात में बारिश का इंतजार करते। एक दिन शरद ऋतु में बादल आए और धुआँधार बारिश हुई। दुर्गा व अप्पू ने बारिश में भीगने का सीन किया। ठंड से दोनों काँप रहे थे, फिर उन्हें दूध में ब्रांडी मिलाकर पिलाई गई। बोडाल गाँव में अपू-दुर्गा का घर, स्कूल, गाँव के मैदान, खेत, आम के पेड़, बाँस की झुरमुट आदि मिले। यहाँ उन्हें कई तरह के विचित्र व्यक्ति भी मिले। सुबोध दा साठ वर्ष से अधिक के थे और झोंपड़ी में अकेले रहकर बड़बड़ाते रहते थे। फिल्मवालों को देखकर उन्हें मारने की कहने लगे। बाद में वे वायलिन पर लोकगीतों की धुनें बजाकर सुनाते थे। वे सनकी थे।

इसी तरह शूटिंग के साथ वाले घर में एक धोबी था जो पागल था। वह किसी समय राजकीय मुद्दे पर भाषण देने लगता था। शूटिंग के दौरान उसके भाषण साउंड के काम को प्रभावित करता था। पथेर पांचाली की शूटिंग के लिए लिया गया घर खंडहर था। उसे ठीक करवाने में एक महीना लगा। इस घर के कई कमरों में सामान रखा था तथा उन्हें फिल्म में नहीं दिखाया गया था। भूपेन बाबू एक कमरे में रिकॉर्डिंग मशीन लेकर बैठते थे। वे साउंड के बारे में बताते थे। एक दिन जब उनसे साउंड के बारे में पूछा गया तो आवाज नदारद थी। उनके कमरे से एक बड़ा साँप खिड़की से नीचे उतर रहा था। उनकी बोलती बंद थी। लोगों ने उसे मारने से रोका, क्योंकि वह वास्तुसर्प था जो बहुत दिनों से वहाँ रह रहा था।

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Chapter 2 मियाँ नसीरुद्दीन | Class 11 | revision notes for Hindi aroh

हिन्दी Notes Class 11 Chapter 2 Hindi मियाँ नसीरुद्दीन

पाठ का सारांश

मियाँ नसीरुद्दीन शब्दचित्र हम-हशमत नामक संग्रह से लिया गया है। इसमें खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन के व्यक्तित्व, रुचियों और स्वभाव का शब्दचित्र खींचा गया है। मियाँ नसीरुद्दीन अपने मसीहाई अंदाज से रोट्री पकाने की कला और उसमें अपनी खानदानी महारत बताते हैं। वे ऐसे इंसान का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने पेशे को कला का दर्जा देते हैं और करके सीखने को असली हुनर मानते हैं।

लेखिका बताती है कि एक दिन वह मटियामहल के गद्वैया मुहल्ले की तरफ निकली तो एक अँधेरी व मामूली-सी दुकान पर आटे का ढेर सनते देखकर उसे कुछ जानने का मन हुआ। पूछताछ करने पर पता चला कि यह खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन की दुकान है। ये छप्पन किस्म की रोटियाँ बनाने के लिए मशहूर हैं। मियाँ चारपाई पर बैठे बीड़ी पी रहे थे। उनके चेहरे पर अनुभव और आँखों में चुस्ती व माथे पर कारीगर के तेवर थे।

लेखिका के प्रश्न पूछने की बात पर उन्होंने अखबारों पर व्यंग्य किया। वे अखबार बनाने वाले व पढ़ने वाले दोनों को निठल्ला समझते हैं। लेखिका ने प्रश्न पूछा कि आपने इतनी तरह की रोटियाँ बनाने का गुण कहाँ से सीखा? उन्होंने बेपरवाही से जवाब दिया कि यह उनका खानदानी पेशा है। इनके वालिद मियाँ बरकत शाही नानबाई थे और उनके दादा आला नानबाई मियाँ कल्लन थे। उन्होंने खानदानी शान का अहसास करते हुए बताया कि उन्होंने यह काम अपने पिता से सीखा।

नसीरुद्दीन ने बताया कि हमने यह सब मेहनत से सीखा। जिस तरह बच्चा पहले अलिफ से शुरू होकर आगे बढ़ता है या फिर कच्ची, पक्की, दूसरी से होते हुए ऊँची जमात में पहुँच जाता है, उसी तरह हमने भी छोटे-छोटे काम-बर्तन धोना, भट्ठी बनाना, भट्ठी को आँच देना आदि करके यह हुनर पाया है। तालीम की तालीम भी बड़ी चीज होती है।

खानदान के नाम पर वे गर्व से फूल उठते हैं। उन्होंने बताया कि एक बार बादशाह सलामत ने उनके बुर्जुगों से कहा कि ऐसी चीज बनाओ जो आग से न पके, न पानी से बने। उन्होंने ऐसी चीज बनाई और बादशाह को खूब पसंद आई। वे बड़ाई करते हैं कि खानदानी नानबाई कुएँ में भी रोटी पका सकता है। लेखिका ने इस कहावत की सच्चाई पर प्रश्नचिहन लगाया तो वे भड़क उठे। लेखिका जानना चाहती थी कि उनके बुजुर्ग किस बादशाह के यहाँ काम करते थे। अब उनका स्वर बदल गया। वे बादशाह का नाम स्वयं भी नहीं जानते थे। वे इधर-उधर की बातें करने लगे। अंत में खीझकर बोले कि आपको कौन-सा उस बादशाह के नाम चिट्ठी-पत्री भेजनी है।

लेखिका से पीछा छुड़ाने की गरज से उन्होंने बब्बन मियाँ को भट्टी सुलगाने का आदेश दिया। लेखिका ने उनके बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वे उन्हें मजदूरी देते हैं। लेखिका ने रोटियों की किस्में जानने की इच्छा जताई तो उन्होंने फटाफट नाम गिनवा दिए। फिर तुनक कर बोले-तुनकी पापड़ से ज्यादा महीन होती है। फिर वे यादों में खो गए और कहने लगे कि अब समय बदल गया है। अब खाने-पकाने का शौक पहले की तरह नहीं रह गया है और न अब कद्र करने वाले हैं। अब तो भारी और मोटी तंदूरी रोटी का बोलबाला है। हर व्यक्ति जल्दी में है।

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Chapter 1 नमक का दारोगा | Class 11 | revision notes for Hindi aroh

हिन्दी Notes Class 11 Hindi Chapter 1 नमक का दारोगा

पाठ का सारांश

‘नमक का दारोगा’ प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी है जो आदर्शान्मुख यथार्थवाद का एक मुकम्मल उदाहरण है। यह कहानी धन के ऊपर धर्म की जीत है। ‘धन’ और ‘धर्म’ को क्रमश: सद्वृत्ति और असद्वृत्ति, बुराई और अच्छाई, असत्य और सत्य कहा जा सकता है। कहानी में इनका प्रतिनिधित्व क्रमश: पडित अलोपीदीन और मुंशी वंशीधर नामक पात्रों ने किया है। ईमानदार कर्मयोगी मुंशी वंशीधर को खरीदने में असफल रहने के बाद पंडित अलोपीदीन अपने धन की महिमा का उपयोग कर उन्हें नौकरी से हटवा देते हैं, लेकिन अंत:सत्य के आगे उनका सिर झुक जाता है। वे सरकारी विभाग से बखास्त वंशीधर को बहुत ऊँचे वेतन और भत्ते के साथ अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करते हैं और गहरे अपराध-बोध से भरी हुई वाणी में निवेदन करते हैं –

‘‘ परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, किंतु धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखे।”

नमक का विभाग बनने के बाद लोग नमक का व्यापार चोरी-छिपे करने लगे। इस काले व्यापार से भ्रष्टाचार बढ़ा। अधिकारियों के पौ-बारह थे। लोग दरोगा के पद के लिए लालायित थे। मुंशी वंशीधर भी रोजगार को प्रमुख मानकर इसे खोजने चले। इनके पिता अनुभवी थे। उन्होंने घर की दुर्दशा तथा अपनी वृद्धावस्था का हवाला देकर नौकरी में पद की ओर ध्यान न देकर ऊपरी आय वाली नौकरी को बेहतर बताया। वे कहते हैं कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। आवश्यकता व अवसर देखकर विवेक से काम करो। वंशीधर ने पिता की बातें ध्यान से सुनीं और चल दिए। धैर्य, बुद्ध आत्मावलंबन व भाग्य के कारण नमक विभाग के दरोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। घर में खुशी छा गई।

सर्दी के मौसम की रात में नमक के सिपाही नशे में मस्त थे। वंशीधर ने छह महीने में ही अपनी कार्यकुशलता व उत्तम आचार से अफसरों का विश्वास जीत लिया था। यमुना नदी पर बने नावों के पुल से गाड़ियों की आवाज सुनकर वे उठ गए। उन्हें गोलमाल की शंका थी। जाकर देखा तो गाड़ियों की कतार दिखाई दी। पूछताछ पर पता चला कि ये पंडित अलोपीदीन की है। वह इलाके का प्रसिद्ध जमींदार था जो ऋण देने का काम करता था। तलाशी ली तो पता चला कि उसमें नमक है। पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ में ऊँघते हुए जा रहे थे तभी गाड़ी वालों ने गाड़ियाँ रोकने की खबर दी। पंडित सारे संसार में लक्ष्मी को प्रमुख मानते थे। न्याय, नीति सब लक्ष्मी के खिलौने हैं। उसी घमंड में निश्चित होकर दरोगा के पास पहुँचे। उन्होंने कहा कि मेरी सरकार तो आप ही हैं। आपने व्यर्थ ही कष्ट उठाया। मैं सेवा में स्वयं आ ही रहा था। वंशीधर पर ईमानदारी का नशा था। उन्होंने कहा कि हम अपना ईमान नहीं बेचते। आपको गिरफ्तार किया जाता है।

यह आदेश सुनकर पडित अलोपीदीन हैरान रह गए। यह उनके जीवन की पहली घटना थी। बदलू सिंह उसका हाथ पकड़ने से घबरा गया, फिर अलोपीदीन ने सोचा कि नया लड़का है। दीनभाव में बोले-आप ऐसा न करें। हमारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। वंशीधर ने साफ मना कर दिया। अलोपीदीन ने चालीस हजार तक की रिश्वत देनी चाही, परंतु वंशीधर ने उनकी एक न सुनी। धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला।

सुबह तक हर जबान पर यही किस्सा था। पंडित के व्यवहार की चारों तरफ निंदा हो रही थी। भ्रष्ट व्यक्ति भी उसकी निंदा कर रहे थे। अगले दिन अदालत में भीड़ थी। अदालत में सभी पडित अलोपीदीन के माल के गुलाम थे। वे उनके पकड़े जाने पर हैरान थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए? इस आक्रमण को रोकने के लिए वकीलों की फौज तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर के पास सत्य था, गवाह लोभ से डाँवाडोल थे।

मुंशी जी को न्याय में पक्षपात होता दिख रहा था। यहाँ के कर्मचारी पक्षपात करने पर तुले हुए थे। मुकदमा शीघ्र समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने लिखा कि पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध प्रमाण आधारहीन है। वे ऐसा कार्य नहीं कर सकते। दरोगा का दोष अधिक नहीं है, परंतु एक भले आदमी को दिए कष्ट के कारण उन्हें भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी दी जाती है। इस फैसले से सबकी बाँछे खिल गई। खूब पैसा लुटाया गया जिसने अदालत की नींव तक हिला दी। वंशीधर बाहर निकले तो चारों तरफ से व्यंग्य की बातें सुनने को मिलीं। उन्हें न्याय, विद्वता, उपाधियाँ आदि सभी निरर्थक लगने लगे।

वंशीधर की बखास्तगी का पत्र एक सप्ताह में ही आ गया। उन्हें कत्र्तव्यपरायणता का दंड मिला। दुखी मन से वे घर चले। उनके पिता खूब बड़बड़ाए। यह अधिक ईमानदार बनता है। जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लें। उन्हें अनेक कठोर बातें कहीं। माँ की तीर्थयात्रा की आशा मिट्टी में मिल गई। पत्नी कई दिन तक मुँह फुलाए रही।

एक सप्ताह के बाद अलोपीदीन सजे रथ में बैठकर मुंशी के घर पहुँचे। वृद्ध मुंशी उनकी चापलूसी करने लगे तथा अपने पुत्र को कोसने लगे। अलोपीदीन ने उन्हें ऐसा कहने से रोका और कहा कि कुलतिलक और पुरुषों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण ग्ष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें। उन्होंने वंशीधर से कहा कि इसे खुशामद न समझिए। आपने मुझे परार कर दिया। वंशीधर ने सोचा कि वे उसे अपमानित करने आए हैं, परंतु पंडित की बातें सुनकर उनका संदेह दूर हो गया। उन्होंने कहा कि यह आपकी उदारता है। आज्ञा दीजिए।

अलोपीदीन ने कहा कि नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी, अब स्वीकार करनी पड़ेगी। उसने एक स्टांप पत्र निकाला और पद स्वीकारने के लिए प्रार्थना की। वंशीधर ने पढ़ा। पंडित ने अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर छह हजार वार्षिक वेतन, रोजाना खर्च, सवारी, बंगले आदि के साथ नियत किया था। वंशीधर ने काँपते स्वर में कहा कि मैं इस उच्च पद के योग्य नहीं हूँ। ऐसे महान कार्य के लिए बड़े अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।

अलोपीदीन ने वंशीधर को कलम देते हुए कहा कि मुझे अनुभव, विद्वता, मर्मज्ञता, कार्यकुशलता की चाह नहीं। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर, परंतु धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखे। वंशीधर की आँखें डबडबा आई। उन्होंने काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए। अलोपीदीन ने उन्हें गले लगा लिया।

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Chapter 19 धूमिल | CLASS 11TH HINDI | REVISION NOTES ANTRA

घर में वापसी कविता क्लास 11 अंतरा पाठ 19 –  सुदामा पांडे (धूमिल)

कवि सुदामा पांडे (धूमिल) का जीवन परिचय – Sudama Pandey Dhoomil

धूमिल का पूरा नाम सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ है। इनका जन्म 9 नवम्बर 1936 को वाराणसी जिले के खेवली गांव में हुआ। बालक सुदामा ने सन् 1953 में हाई स्कूल परीक्षा पास की। सन् 1958 में आई.टी.आई. वाराणसी से विद्युत-डिप्लोमा किया और वहीं अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए। असमय ही ब्रेन-ट्यूमर हो जाने के कारण 10 फ़रवरी 1975 को इनका स्वर्गवास हो गया।

इनकी प्रमुख रचनाएं हैं– बांसुरी जल गई, संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र। धूमिल को मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनकी काव्यगत विशे सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ ‘नई कविता’ के सशक्त हस्ताक्षर थे।

उनके काव्य में एक विशेष प्रकार का गवैयेपन दिखाई देता है धूमिल की कविता में परंपरा, सभ्यता, शालीनता और भद्रता का विरोध है। इन्होंने व्यंग्यों के माध्यम से उपहास, झुंझलाहट और पीड़ा को व्यक्त किया है।

इनके काव्य में मुहावरें, लोकोक्तियों और सूक्तियों का सुंदर प्रयोग मिलता है। संवाद-शैली के प्रयोग से भाषा सशक्त हो गई है। लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता इनकी भाषा की विशेषता है भाषा सरल और सहज हैं। इन्होंने मुक्त छंदों का प्रयोग किया है।

घर में वापसी कविता का सारांश – Ghar Me Wapsi Poem Summary

‘घर की वापसी’ धूमिल जी की गरीबी से संघर्ष कर रहे परिवार की दुख भरी कविता है। कोई भी व्यक्ति अपने रोज की भाग दौड़ वाली जिंदगी में प्रेम, ममत्व, स्नेह, सुरक्षा, ऊर्जावान रिश्ते चाहता है। वह एक ऐसा घर चाहता है जहां उस घर में रहने वाले लोगों के बीच आपसी संबंध मधुर, परिपक्व, ऊर्जावान हो।

परन्तु इस कविता में जिस घर का उल्लेख किया गया है उसकी अपनी त्रासदी है। त्रासदी यह है कि उस घर के लोगों के बीच आपस में संवेदनहीनता कि दीवार खिंच गई है। इस संवेदनहीनता का कारण गरीबी है।

ऐसा नहीं है कि ये परिवार पैसे की ओर आकर्षित या धन का लालच रखता है। बल्कि सच तो ये है कि परिवार के सभी सदस्यों को एक-दूसरे की मजबूरी और लाचारी को जानते हैं, समझते है। इसलिए वे एक दूसरे से बोलते नहीं है।

यह परिवार गरीबी से लड़ते-लड़ते इतना ऊर्जाहीन, दीन-हीन जर्जर हो गया है कि आपसी रिश्तों को जीवित रखने के लिए जिस संवाद और ऊर्जा की जरूरत होती है, वह समाप्त हो चुकी है। परिवार में पांच सदस्य है।

सभी के बीच खून का रिश्ता है, परंतु गरीबी के कारण ये सभी अपने मन के भावों को अभिव्यक्त भी नहीं कर पाते है। ये संवाद हीनता इनके बीच आपस में भाषा रूपी जर्जर ताले को खोल भी नहीं पाती है।

यहां तक कि ये आपस में एक दूसरे के प्रति अपने दायित्वों, कर्त्तव्यों को भी गरीबी के कारण पूरा कर पाने में असमर्थ है। गरीबी इनके रिश्तों को आपस में जिंदा रखने में सबसे बड़ी बाधक है।

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Chapter 18 श्रीकांत वर्मा | CLASS 11TH HINDI | REVISION NOTES ANTRA

हस्तक्षेप कविता क्लास 11 अंतरा पाठ 18 – श्रीकांत वर्मा

कवि श्रीकांत वर्मा का जीवन परिचय-
कवि श्रीकांत वर्मा का जन्म 18 दिसंबर 1931 को बिलासपुर मध्य प्रदेश में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा बिलासपुर में ही हुई। सन् 1956 में नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. करने के बाद, उन्होंने एक पत्रकार के रूप में अपना सहित्यिक जीवन शुरू किया।

इन्हें निम्नलिखित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है:-
=>तुलसी पुरस्कार
=>आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी पुरस्कार
=>शिखर सम्मान
=>कुमारन आशान पुरस्कार

इनकी प्रमुख रचनाएं हैं – जलसाघर, मगध, भटका मेघ, माया-दर्पण, झाड़ी संवाद, घर, दूसरे के पैर, जिरह, अपोलो का रथ, फैसले का दिन, बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में।

इनकी काव्यगत विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
=>श्रीकांत वर्मा जी को कम शब्दों में अधिक कहने में महारथ हासिल है।
=>उन्होंने आधुनिक जीवन के यथार्थ का नाटकीय चित्र प्रस्तुत किया है।
=>भाषा आम बोलचाल वाली, सरल व सरस है।
=>तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग किया है।

हस्तक्षेप कविता का सारांश – Hastakshep Poem Summary

इस कविता में कवि ने मगध की सत्ता की निरंकुशता एवं क्रूरता का वर्णन करते हुए दर्शाया है कि वहां ऐसा आतंकपूर्ण वातावरण हो गया है, जिससे लोग भयभीत और भौंचक्के हो गए हैं। कवि सत्ताधारी वर्ग पर अप्रत्यक्ष रूप से व्यंग करते हुए कहते हैं, मगध के लोग यह सोचते हैं कि मगध में शांति रहनी ही चाहिए। शांति भंग होने के डर से कोई छींक तक नहीं मार रहा है। मगध के अस्तित्व के लिए शांति का होना अत्यंत आवश्यक है।

निरंकुश शासन व्यवस्था में लोगों पर कितना ही अत्याचार क्यों न हो जाए, कोई चीख-पुकार नहीं कर सकता। ऐसा करना शासन के विरुद्ध समझा जाएगा। शासन व्यवस्था में व्यवधान हो जाएगा। मगध सिर्फ नाम का मगध है, रहने के लिए मगध नहीं है।

कवि कहता है कि तुम विरोध से कितना ही बचो, परन्तु तुम उसके स्पष्ट विरोध से बच नहीं पाओगे। जब कोई विरोध नहीं करता, तो शहर के बीच से गुज़रता मुर्दा यह प्रश्न करता है कि मनुष्य क्यों मरता है अर्थात् अत्याचार बढ़ने पर दबा-कुचला वर्ग भी निरंकुश सत्ता पर उंगली उठा सकता है।

कुल-मिलाकर कवि ने हस्तक्षेप कविता में आम व्यक्ति को गलत निर्णयों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया है। कवि आम जनता का आह्वान करते हुए कहते हैं कि सत्ता के गलत निर्णयों के विरुद्ध विद्रोह करते हुए डरना नहीं चाहिए।

व्यवस्था को जनतांत्रिक बनाने के लिए समय-समय पर उसमें हस्तक्षेप की जरूरत होती है, वरना व्यवस्था निरंकुश हो जाती है। इस कविता में ऐसे ही तंत्र का वर्णन है, जहां किसी भी प्रकार के विरोध के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ी गई है। कवि बताता है कि हस्तक्षेप तो मुर्दा भी कर जाता है। फिर जिंदा लोग चुप बैठे रह जाएंगे, यह कैसे संभव है।

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Chapter 17 नागार्जुन | CLASS 11TH HINDI | REVISION NOTES ANTRA

Class 11 Hindi Antra Chapter 17 Badal Ko Ghirte Dekha Hai Poem Summary

बादल को घिरते देखा है क्लास 11 अंतरा पाठ 17 – नागार्जुन

कवि नागार्जुन का जीवन परिचय:

बाबा नागार्जुन का जन्म बिहार के तरौनी ज़िले में हुआ था। नागार्जुन जी का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृति पाठशाला तथा उच्च शिक्षा वाराणसी और कोलकाता में हुई। इनकी प्रमुख काव्य कृतियां हैं – युगधारा, पथराई आंखें, तालाब की मछलियां, सतरंगे पंखों वाली, तुमने कहा था, रत्नगर्भा, पुरानी जूतियों का कोरस, हज़ार-हज़ार बांहों वाली आदि।
इनके द्वारा लिखे गए उपन्यासों का नाम है- बलचनामा, जमनिया का बाबा, कुंभी पाक, उग्रतारा, रविनाथ की चाची, वरुण के बेटे आदि।
विलक्षण प्रतिभा के धनी नागार्जुन को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। जो कुछ इस प्रकार हैं–
1. साहित्य अकादमी पुरस्कार
2. भारत भारती पुरस्कार
3. मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार
4. राजेंद्र प्रसाद पुरस्कार
5. अकादमी दिल्ली का शिखर सम्मान आदि।

कवि नागार्जुन के लिखने का अंदाज़ ही कुछ अलग था। वे अपनी लेखनी में साधारण लोगों के दुखों को जगह देते थे। समाज के यथार्थ को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करते थे। शायद यही कारण है कि इनको ज़मीनी कलाकार भी कहा जाता था। वे मनुष्य के दर्द को महसूस करते थे एवं उनकी व्यथा को अपने लेखनी में स्थान देते थे। बाबा अपने पाठकों को समाज की असलियत से भी परिचित करवाते थे।
बाबा नागार्जुन न सिर्फ हिंदी भाषा में लिखा करते थे, बल्कि अरबी, फारसी, बांग्ला, संस्कृत एवं मैथिली भाषा में भी लिखा करते थे। वे बहु भाषा प्रेमी थे और बहु भाषा में ही इन्होंने कविताएं लिखी हैं, उपन्यास लिखे हैं।

बादल को घिरते देखा है कविता का सारांश – Badal Ko Ghirte Dekha Hai Summary

कवि नागार्जुन घूमने-फिरने के शौकीन थे। जहां-जहां वे जाते थे, उस स्थान पर मन खोल कर घूमते थे एवं अपने भ्रमण के अनुभवों को अपनी कविता में स्थान देते थे। बाबा नागार्जुन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिंदुस्तान के हर एक स्थान में घूमकर आनंद लिया है। इसके अलावा वे विदेशों में भी भ्रमण कर चुके हैं। नेपाल, भूटान एवं म्यांमार इनमें से प्रमुख हैं।
इस तरह, एकबार वे यात्रा करते-करते हिमालय प्रदेश में पहुंच गए। वहां की वादियां उन्हें बहुत भा गईं और उस पर ही कवि ने बादल को घिरते देखा है कविता लिख डाली।

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Chapter 16 नरेंद्र शर्मा | CLASS 11TH HINDI | REVISION NOTES ANTRA

Class 11 Hindi Antra Chapter 16 Neend Uchat Jati Hai Poem Summary

नींद उचट जाती है क्लास 11 अंतरा पाठ 16 – नरेन्द्र शर्मा

कवि पंडित नरेन्द्र शर्मा का जीवन परिचय:-

पंडित नरेंद्र शर्मा हिन्दी के प्रसिद्ध कवि, लेखक एवं सम्पादक थे। पं. नरेंद्र शर्मा का जन्म 28 फ़रवरी, 1923 में उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर जिले में हुआ। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षाशास्त्र और अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। इन्होंने फिल्म जगत में भी लेखन कार्य किया ।

नरेंद्र जी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी स्वराज्य भवन में अधिकारी भी रहे। बंबई आने के बाद इन्होंने बॉम्बे टाकीज़ के लिए फिल्मी गीत भी लिखे। बाद में ये आकाशवाणी से भी जुड़ गए। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं– ‘प्रभात फेरी‘ , ‘पलाश वन‘ , ‘प्रीति कथा‘ , ‘कामिनी‘ , ‘मिट्टी के फूल‘ , ‘हंसमाला‘ ,’ रक्त चंदन‘ , ‘कदली वन‘ , ‘द्रौपदी‘ , ‘प्यासा निर्झर‘ , ‘उत्तर जय‘ , आदि अनेक रचनाएं लिखी।

इन्होंने आम जन जीवन से जुड़ी कहानियां एवं कविताएं लिखी। समाज की बुराइयों, विषमताओं को इन्होंने अपनी कविताओं में लिखकर व्यक्त किया है। इन्होंने छायावादी एवं प्रगतिवादी दोनों प्रकार की ही कविताएं लिखी हैं। 

पंडित नरेन्द्र शर्मा जी की भाषा सरल, सहज व मधुर है। इनकी भाषा में प्रेरक तत्व की प्रधानता मिलती हैं जो पढ़ने वालों को दृढ़ निश्चयी बनाती है। इनकी भाषा में एक ओर जहां कोमलता दिखाई पड़ती है वहीं दूसरी ओर कठोरता भी दिखाई देती है। इस महान कवि की मृत्यु 11 फ़रवरी 1984 को हृदय की गति रुकने के कारण हुई।

नींद उचट जाती है कविता का सारांश – Neend Uchat Jati Hai Poem Summary

कवि नरेंद्र शर्मा द्वारा रचित कविता ‘नींद उचट जाती है’ एक व्यक्ति और समाज के भीतर अवसाद बेचैनी, निराशा, सन्नाटा, चिंताओं के भावों की कविता है। यहां कवि ने इन सभी नकारात्मक भावों को प्रकट करने के लिए रात, अंधेरे, नींद न आना आदि शब्दों का प्रयोग किया है।

कवि ने कविता में जिस अंधेरे की बात की है वह दो स्तर पर है। एक व्यक्ति के स्तर पर और दूसरा समाज के स्तर पर। व्यक्ति पर यह अंधेरा, उसकी निराशा, चिन्ता, बुरे सपने, बेचैनी आदि के रूप में है।

जो समाज के अंधेरे के रूप में प्रतिबिंबित हुई है। अर्थात् समाज में अंधेरे के रूप में विषमता, चेतना व जागृति का अभाव, विकास न होना, शोषण, छल, कपट विद्यमान है जिसके फलस्वरूप समझ में विसंगति बढ़ती जा रही है। और इन्हीं विसंगति के परिणामस्वरूप समाज के व्यक्ति की नींद उचट जाती है।

कवि – जीवन में दोनों स्तर के अंधेरे को दूर करने की बात करता है। वह चाहता है कि समाज में जागृति, चेतना फैले और सभी के जीवन से अंधेरा दूर हो जाए।

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