कार्यालयी पत्र | class 12th | Hindi कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन ncert solution

Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र

कार्यालयी पत्र

पत्र लिखना भी एक बहुत बड़ी और अद्भुत कला है। यह कला परिश्रम व अभ्यास द्वारा ही हासिल की जा सकती है। सही ढंग से लिखा गया पत्र न केवल हमारा प्रभुत्व बढ़ाता है, बल्कि हमारे व्यक्तित्व की छाप भी पाठक पर अवश्य छोड़ता है। हम पत्रों के माध्यम से न केवल दूसरों के दिलों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि मैत्री बढ़ा सकते हैं तथा अपने समाज को वश में कर सकते हैं। अतः पत्र लिखना एक ऐसी कला है जिसके लिए बुद्धि और ज्ञान की परिपक्वता, विचारों की विविधता, विषय का ज्ञान, अभिव्यक्ति की शक्ति और भाषा पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इसके बिना हमारे पत्र अत्यंत साधारण होंगे। पत्र केवल हमारे कुशल समाचारों के आदान-प्रदान का माध्यम ही नहीं, बल्कि उसके द्वारा आज के वैज्ञानिक युग में संपूर्ण कार्य व्यापार चलता है तथा इसकी आवश्यकता और उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। अतः इसे लिखने और इसके आकार-प्रकार की पूरी जानकारी होनी अतिआवश्यक है।

पत्र-लेखन की विशेषताएँ –

1. सरलता – पत्र की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा स्पष्ट होनी चाहिए। इसमें कठिन शब्द या साहित्यिक भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि जटिल व क्लिष्ट भाषा के प्रयोग से पत्र नीरस व प्रभावहीन बन जाते हैं।

2. स्पष्टता – जो भी हमें पत्र में लिखना है, यदि वह स्पष्ट, सुमधुर होगा तो पत्र उतना ही प्रभावशाली होगा। सरल भाषा शैली, शब्दों का चयन, वाक्य रचना की सरलता पत्र को प्रभावशाली बनाने में हमारी सहायता करती है। इसलिए भारी भरकम और अप्रचलित शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए तथा छोटे व प्रवाहपूर्ण वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए। हमें ऐसे विचार नहीं लिखने चाहिए जो अस्पष्ट हों।

3. संक्षिप्तता – पत्र में अनावश्यक विस्तार से बचना चाहिए। पत्र जितना संक्षिप्त व गठा हुआ होगा, उतना ही अधिक प्रभावशाली भी होगा। संक्षिप्तता का अर्थ यह भी नहीं कि पत्र अपने-आप में पूर्ण न हो। जो कुछ भी पाठक द्वारा कहा जाना है, वह व्यर्थ के शब्द-जाल से मुक्त होना चाहिए। अतः जो कुछ भी पत्र में कहा जाए, कम से कम शब्दों में कहना चाहिए।

4. प्रभावोत्पादकता – पत्र की शैली से पाठक प्रभावित हो सके तभी वह सफल मानी जाती है। हमारे विचारों की छाप उस पर पड़नी चाहिए, अतः इसके लिए शैली का परिमार्जित होना भी आवश्यक होता है। अच्छी व शुद्ध भाषा के बिना पत्र अपना असली रूप ग्रहण नहीं करता। वाक्यों का नियोजन, शब्दों का प्रयोग, मुहावरों का प्रयोग-अच्छी भाषा के गुण होते हैं। हमें सदा इसका प्रयोग करके पत्र को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करना चाहिए।

5. आकर्षकता व मौलिकता – पत्र का आकर्षक होना भी महत्त्वपूर्ण होता है। विशेषकर व्यापारिक व कार्यालयी पत्र स्वच्छता से टाइप किया हुआ होना चाहिए। मौलिकता भी पत्र का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। पत्र लिखते समय प्रचलित घिसे-पिटे वाक्यों के प्रयोग से बचना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि पत्र में हम अपने विषय में कम तथा प्राप्तकर्ता के विषय में अधिक लिख रहे हों।

6. उददेश्यपूर्णता – कोई भी पत्र अपने कथन या मंतव्य में स्वत: संपूर्ण होना चाहिए। उसे पढने के उपरांत तदविषयक किसी प्रकार की जिज्ञासा, शंका या स्पष्टीकरण की आवश्यकता शेष नहीं रहनी चाहिए। कई बार देखा गया है कि पत्र लेखक जिस विचार से पत्र लिखना आरंभ करता है, वह अप्रकट या अपूर्ण रह जाता है, लेकिन फिजूल बातों से ही पत्र भर जाता है। इसलिए पत्र लिखते समय इस बात का विशिष्ट ध्यान रखा जाना चाहिए कि कथ्य अपने-आप में पूर्ण तथा उद्देश्य की पूर्ति करने वाला हो।

7. शिष्टता – किसी पत्र में उसके लेखक के व्यक्तित्व, स्वभाव, पद-प्रतिष्ठा-बोध और व्यावहारिक आचरण की झलक मिलती है। सरकारी, व्यावसायिक तथा अन्य औपचारिक पत्र की भाषा-शैली शिष्टतापूर्ण होनी चाहिए। अस्वीकृति, शिकायत, खीझ या नाराजगी भी शिष्ट भाषा में प्रकट की जाए तो उसका अधिक लाभकारी प्रभाव पड़ता है। उदाहरणतः किसी  आवेदनकर्ता के आवेदन की अस्वीकृति इन शब्दों में भेजी जा सकती है –

‘खेद है कि हम आपकी सेवाओं का उपयोग नहीं कर सकेंगे।’

8. चिह्नांकन-पत्र में प्रयुक्त चिह्न पर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए। चिह्नांकन अनुच्छेद (पैराग्राफ) का प्रयोग समुचित किया जाना चाहिए। हर नए विचार, नई बात के लिए पैराग्राफ, अल्पविराम, अर्ध विराम, पूर्णविराम, कोष्ठक आदि का प्रयोग उचित स्थल पर ही होना चाहिए। इससे पत्र-कला में निखार आता है।

पत्र के अंग

पत्र अनेक प्रकार के होते हैं। विषय, संदर्भ, व्यक्ति और क्षेत्र के अनुसार अनेक प्रकार के पत्रों को लिखने का तरीका भी भिन्न-भिन्न होता है। यहाँ हम व्यावसायिक (औपचारिक) तथा निजी (अनौपचारिक) पत्रों के लिखने के लिए आवश्यक तथ्यों-संकेतों पर प्रकाश डालेंगे –

(क) प्रेषक का नाम व पता-व्यावसायिक पत्रों में सबसे ऊपर लिखने वाले का नाम व पता दिया होता है ताकि पाने वाला पत्र देखते ही समझ जाए कि पत्र किसने भेजा है और कहाँ से आया है ? प्रेषक का नाम व पता ऊपर की ओर दाएँ कोने में दिया जाता है। पते के नीचे टेलीफ़ोन नंबर तथा उसके नीचे दिनांक के लिए स्थान निर्धारित रहता है। सरकारी पत्रों में उसके ठीक सामने बाईं ओर पत्र का संदर्भ व पत्र-संख्या लिखी जाती है।

(ख) पाने वाले का नाम व पता-प्रेषक के बाद पृष्ठ की बाईं ओर पत्र पाने वाले का नाम व पता लिखा जाता है। नाम की जगह कभी-कभी केवल पदनाम भी लिखते हैं। कभी-कभी नाम व पदनाम दोनों भी लिखा जाता है अर्थात् पाने वाले का पूरा विवरण इस प्रकार होना चाहिए- नाम, पदनाम, कार्यालय का नाम, स्थान, जिला, शहर और पिन-कोड।

(ग) विषय-संकेत-औपचारिक पत्रों में यह आवश्यक होता है कि जिस विषय में पत्र लिखा जा रहा है, उस विषय को अत्यंत संक्षेप में पाने वाले के नाम और पते के पश्चात् बाएँ ओर से ‘विषय’ शीर्षक देकर लिखना चाहिए। इससे पत्र देखते ही पता चल जाता है कि मूल रूप में पत्र का विषय क्या है।

(घ) संबोधन-विषय के बाद पत्र के बाईं ओर संबोधन सूचक शब्द का प्रयोग किया जाता है। व्यक्तिगत पत्र में प्रिय लिखकर प्राप्तकर्ता का नाम या उपनाम दिया जाता है; जैसे–’प्रिय रमेश’, ‘प्रिय राधा’ आदि। अपने से बड़ों के लिए प्रिय के स्थान पर पूज्य, मान्यवर, श्रद्धेय आदि शब्दों का प्रयोग होता है। सरकारी पत्रों में यह कार्य ‘प्रिय महोदय’ या प्रिय महोदया के द्वारा संपन्न कर लिया जाता है।

(ङ) पत्र की मुख्य सामग्री-संबोधन के पश्चात् पत्र की मूल सामग्री लिखी जाती है। आवश्यकता, समय तथा परिस्थिति के अनुसार विषय में परिवर्तन होता रहता है।

(च) समापन-सूचक शब्द-पत्र की सामग्री समाप्त होने पर प्रेषक प्राप्तकर्ता से अपने संबंध और विषय की औपचारिकता अनौपचारिकता के अनुसार कुछ समापन सूचक शब्दों का प्रयोग कर पत्र समाप्त करता है। बड़ों के लिए ‘आपका आज्ञाकारी’, ‘आपका प्रिय’, बराबर वालों के लिए ‘स्नेहशील’, दर्शनाभिलाषी’, ‘स्नेही’ और छोटों के लिए ‘शुभचिंतक’, ‘शुभाकांक्षी’ जैसे शब्द प्रयोग किये जाते हैं। औपचारिक व्यावसायिक पत्रों में साधारणतः ‘भवदीय’ लिखा जाता है। उपर्युक्त सभी समापन शब्द मूल सामग्री के तुरंत बाद नई पंक्ति में दाएँ कोने में लिखा जाना चाहिए।

(छ) हस्ताक्षर और नाम-समापन शब्द के ठीक नीचे भेजने वाले के हस्ताक्षर होते हैं। हस्ताक्षर के ठीक नीचे कोष्ठक में भेजने वाले का पूरा नाम व पता भी अवश्य दिया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि हस्ताक्षर प्रायः सुपाठ्य नहीं होते, अतः प्रेषक का नाम भी लिखा होना चाहिए।

(ज) संलग्नक-सरकारी-पत्रों में प्रायः मूलपत्र के साथ अन्य आवश्यक कागजात भी भेजे जाते हैं। इन्हें उस पत्र के ‘संलग्न पत्र’ या ‘संलग्नक’ कहते हैं। इस स्थिति में समापन सूचक शब्द ‘भवदीय’ आदि के ठीक बाएँ और थोड़ा नीचे ‘संलग्नक’ शीर्षक देकर उसके आगे संख्या 1, 2, 3, के द्वारा संकेत दिया जाता है।

(झ) पुनश्च-कभी-कभी पत्र लिखते समय मूल सामग्री में से किसी महत्त्वपूर्ण अंश के छूट जाने पर इसका प्रयोग होता है। ‘समापनसूचक शब्द’, ‘हस्ताक्षर’, ‘संलग्नक’ आदि सब कुछ लिखने के पश्चात् कागज पर अंत में सबसे नीचे या उसके पृष्ठ भाग पर ‘पुनश्च’ शीर्षक देकर छूटी हुई सामग्री लिखकर एक बार पुनः हस्ताक्षर कर दिए जाते हैं।

औपचारिक व अनौपचारिक पत्र आरंभ तथा समाप्त करने की तालिका
CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र 1

उपर्युक्त समस्त आवश्यक बातों को व्यावहारिक रूप में समझने के लिए निम्नलिखित प्रारूप प्रस्तुत किए जा रहे हैं –

पत्रों के प्रकार

विभिन्न प्रकार के पत्रों का विभाजन मूलतः दो वर्गों में किया जा सकता है –

  1. औपचारिक पत्र
  2. अनौपचारिक पत्र

1. औपचारिक पत्र-विशिष्ट नियम-विधानों में आबद्ध पत्र ‘औपचारिक पत्र’ कहलाते हैं। औपचारिक पत्रों की परिधि बहुत व्यापक है। इसके अनेकानेक रूप अथवा प्रकार संभव हैं जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं –

  1. सरकारी पत्र
  2. व्यावसायिक पत्र
  3. संपादक के नाम पत्र
  4. शोक पत्र
  5. अर्धसरकारी पत्र
  6. आवेदन पत्र
  7. शिकायती पत्र
  8. निमंत्रण पत्र
  9. विज्ञापन पत्र
  10. अनुस्मारक पत्र
  11. बधाई पत्र
  12. शुभकामना पत्र।

इन सभी प्रकार के पत्रों के उत्तर में लिखे जाने वाले पत्र भी अपना अलग अस्तित्व और महत्त्व रखते हैं। इस प्रकार औपचारिक पत्रों के अनेक भेद संभव हैं।

2. अनौपचारिक पत्र-जो पत्र निजी, व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक होते हैं, वे ‘अनौपचारिक-पत्र’ कहलाते हैं। ऐसे पत्रों में किसी प्रकार की विशेष विधि अथवा नियम-पद्धति के पालन की आवश्यकता नहीं होती। इस पत्र में किसी तरह की औपचारिकता के निर्वाह का बंधन नहीं होता। इन पत्रों में प्रेषक अपनी बात व भावना को उन्मुक्तता के साथ, बिना संकोच के लिख सकता है। इन पत्रों का प्राण तत्व आत्माभिव्यक्ति, निजीपन और आत्मीयता है। ये आकार-प्रकार में अत्यंत लचीले होते हैं, अर्थात् संक्षिप्त भी हो सकते हैं तो अत्यंत विस्तृत भी।
CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र Q2

CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र Q2.1
CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र Q2.2

उदाहरण

औपचारिक पत्र

प्रश्नः 1.
दिल्ली परिवहन निगम के मुख्य प्रबंधक को पत्र लिखकर एक बस कर्मचारी के प्रशंसनीय और साहसिक व्यवहार की सूचना देते हुए उसे सम्मानित करने का आग्रह कीजिए।
उत्तरः

प्रति महाप्रबंधक
दिल्ली परिवहन निगम
सिंधिया हाउस, नई दिल्ली।

महोदय

मैं इस पत्र के द्वारा आपका ध्यान आपके विभाग के एक साहसी तथा कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी के व्यवहार की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ तथा आशा करता हूँ कि आप उस कर्मचारी को उचित पुरस्कार देकर सम्मानित करेंगे।

मैं दिनांक 6 फरवरी को विकासपुरी मोड़ से 851 रूट की बस नं0 DL-1P-7486 में प्रात:काल 7-30 बजे चढ़ा। बस में काफ़ी भीड़ थी। अत: मैं पीछे ही खड़ा था। बस मोतीनगर पहुँची थी कि आठ-दस लोगों की भीड़ पीछे से चढ़ी और तभी मेरी जेब से मेरा पर्स गायब हो गया। मैंने शोर मचाया, तो एक व्यक्ति बस से कूद कर भाग निकला। कंडक्टर श्री रविकांत ने बस रुकवाई और उसके पीछे भाग लिया। उस व्यक्ति ने चाकू दिखाया, मगर इसका रविकांत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने उसे धर दबोचा तथा उसे पुलिस के हवाले कर दिया। मेरा पर्स सही सलामत मुझे वापस मिल गया। मैंने उसे सौ रुपये पुरस्कार स्वरूप देने चाहे, मगर उसने सधन्यवाद लौटा दिये। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ एवं साहसी कर्मचारी कम ही देखे जाते हैं, जो अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरों की सहायता करते हैं। अतः आप से निवेदन है कि श्री रविकांत, जिनका बैज नं० 34560 है, को सम्मानित करके अन्य कर्मचारियों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करें।

भवदीय
रमेश गुप्ता
644, विकासपुरी, नई दिल्ली
दिनांक : 11 फरवरी, 20XX

प्रश्नः 2.
अपने क्षेत्र के पोस्टमास्टर साहब को इस आशय का पत्र लिखिए कि आपके क्षेत्र में डाक का वितरण ठीक से नहीं हो रहा है।
उत्तरः

सेवा में
पोस्टमास्टर महोदय
डाकघर राजौरी गार्डन
नई दिल्ली

महोदय

मैं राजौरी गार्डन बी-27 का रहने वाला हूँ। मैं इस पत्र के द्वारा अपने क्षेत्र की डाक वितरण की अनियमितताओं की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ।

मान्यवर, पिछले चार माह से इस क्षेत्र में डाक-वितरण का काम ठीक से नहीं हो रहा है। पोस्टमैन पत्रों को या तो घरों के जीने में फेंक जाता है या जीने के सामने खड़े किसी बच्चे के हाथ में पकड़ा जाता है। अनेक बार महत्त्वपूर्ण पत्र या तो दूसरे के घरों में पहुँच जाते हैं या देर से मिलते हैं। डाक-वितरण की व्यवस्था दिन में तीन बार है, जबकि हमारे पोस्टमैन महोदय एक से अधिक बार नहीं आते। हमारे क्षेत्र के निवासियों की आम शिकायत है कि ये पोस्टमैन साहब त्यौहारों के अवसर पर बखशीश देने को बाध्य करते हैं तथा न देने वालों की डाक में गड़बड़ी कर देते हैं। कई बार हमने पोस्टमैन को समझाने की चेष्टा की, मगर उसके कान पर तक न रेंगी। इसीलिए हारकर हमें आपका दरवाजा खटखटाना पड़ा। अतः आपसे प्रार्थना है कि आप इस विषय में जाँच-पड़ताल कर डाक वितरण ठीक करने की कृपा करें तथा संबंधित पोस्टमैन को उचित चेतावनी देकर यथासंभव उन्हें दंडित करें। इसके लिए हम आपके सदैव आभारी रहेंगे।

धन्यवाद।
भवदीय
जे० पी० गुप्ता
सचिव
राजौरी गार्डन कल्याण समिति,
नई दिल्ली।
दिनांक : 16-3-20XX

प्रश्नः 3.
अपने नगर विकास प्राधिकरण के सचिव को अपनी कालोनी के पार्क के विकास के लिए पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
सचिव
दिल्ली नगर विकास प्राधिकरण
टाउन हाल
दिल्ली

महोदय

मैं आपका ध्यान दिल्ली महानगर के शक्तिनगर क्षेत्र के पार्क की अव्यवस्था और उपेक्षा की ओर दिलाना चाहता हूँ। इस क्षेत्र में दिल्ली विकास प्राधिकरण की ओर से पार्क के लिए स्थान छोड़े गए हैं। उनकी चारदीवारी भी की गयी है, लेकिन इससे आगे कोई कदम लगातार दो वर्षों से आगे नहीं बढ़ा है। दुख और चिंता की बात यह है कि पार्कों के लिए इन छोड़ी हुई जगहों में कूड़ों के ढेर दिखाई देने लगे हैं। इससे बड़ी बदबू आती है। बीमारी के बढ़ने की आशंका भी पैदा हो गई है।

यदि पार्क के लिए छोड़े हुए इन स्थानों में अच्छे पेड़-पौधे और घास को लगा दिया जाए तो कॉलोनी निवासियों को स्वास्थ्य लाभ, सैर-सपाटे, व्यायाम आदि का अच्छा साधन प्राप्त हो जायेगा। इससे हमारी कॉलोनी की रौनक बढ़ जाएगी। अतएव आपसे सादर निवेदन है कि आप हमारी कॉलोनी के समुचित स्थानों में पार्क की सुव्यवस्था शीघ्र करवा करके हमें कृतार्थ करें। इसके लिए हम सब आपके सदैव आभारी रहेंगे।

भवदीय
शक्तिनगर निवासी
दिनांक : 18 अप्रैल, 20XX

प्रश्नः 4.
नगर निगम के गृहकर अधिकारी को अपना गृहकर का बिल ठीक कराने के लिए पत्र लिखिए।
उत्तरः

गृहकर अधिकारी
दिल्ली नगर निगम
टाउन हाल,
दिल्ली

महोदय

सविनय निवेदन है कि प्रार्थी प्रेम नगर क्षेत्र (शक्ति नगर क्षेत्र) का निवासी है। प्रार्थी का मकान नं० 7330. प्रेम नगर, दिल्ली है। प्रार्थी के गृह-कर (टैक्स) दो बार से पूर्वापेक्षा से कुछ अधिक वसूल किया जा रहा है। इस संबंध में प्रार्थी में आशंका है कि यह गड़बड़ी गृहकर बिल की गड़बड़ी के कारण ही है।

अतः आपसे सादर प्रार्थना है कि प्रार्थी का गृहकर बिल ठीक कराते हुए उससे नियमानुसार गृहकर वसूल करवाने की कृपा करें।

सधन्यवाद
प्रार्थी
मोहन देव
7330, प्रेम नगर,
दिल्ली-110007
दिनांक : 5 अप्रैल, 20XX

प्रश्नः 5.
अपने क्षेत्र में पेड़-पौधों के अनियंत्रित कटाव को रोकने के लिए अपने जिलाधिकारी को एक प्रार्थना-पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
जिलाधिकारी महोदय
बदरपुर (बाहरी दिल्ली)
नई दिल्ली

महोदय

सविनय निवेदन है कि हम दक्षिणी दिल्ली के बदरपुर क्षेत्र के निवासी हैं। हमारे इस क्षेत्र में कुछ महीनों से पेड़-पौधों की बेरोक-टोक कटाई हो रही है। इस अंधाधुंध वन-कटाव से हम लोगों का यह क्षेत्र पेड़-पौधों से लगभग रहित-सा हो गया है। चारों ओर एक वीरान दृश्य उपस्थित हो गया है। इससे इस क्षेत्र के पर्यावरण पर बहत गंभीर प्रभाव पड़ने लगा है। हवा जो पेड़ों-पौधों से सुलभ होती है, लगभग दुर्लभ हो रही है। फलतः वायु-प्रदूषण तीव्र गति से बढ़ने लगा है। इससे विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य से संबंधित खतरनाक बीमारियों के फैलने की आशंका बढ़ती जा रही है। अतः अगर निकट भविष्य में इस प्रकार से बेरोक-टोक पेड़-पौधों के कटाव को न रोका गया तो लोगों का जीना दुर्लभ हो जायेगा। आशा है कि आप इस दिशा में उचित कदम उठाकर हमें कृतार्थ करेंगे। इसके लिए हम आपके सदैव आभारी रहेंगे।

सधन्यवाद
भवदीय
बदरपुर क्षेत्र के निवासी,
(बाहरी दिल्ली)
दिनांक : 18 अप्रैल, 20XX

प्रश्नः 6.
परिवहन निगम को अपने गाँव तक बस सुविधा उपलब्ध कराने के लिए प्रार्थना-पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
अध्यक्ष
दिल्ली परिवहन निगम
महरौली टर्मिनल, नई दिल्ली

महोदय

सविनय निवेदन यह है कि हम महरौली क्षेत्र के निवासी हैं। हम लोगों का यह क्षेत्र महरौली-गुड़गाँव मार्ग पर स्थित है। यहाँ तक डी० टी० सी० की कोई भी बस नहीं आती है। केवल कुछ ही वाहन आते-जाते हैं। ये वाहन समय पर न आने के साथ ही कुछ ही समय तक आते-जाते हैं। फलतः आवश्यकतानुसार कोई भी वाहन या आवागमन का साधन इस मार्ग पर सुलभ नहीं है। डी०टी०सी० की बसें एयर फोर्स कैंटीन तक ही आती-जाती हैं। यह हमारे निवास क्षेत्र से लगभग दो किलोमीटर दूर है। फलतः आवागमन की इस असुविधा का घोर अभिशाप इस क्षेत्र के निवासियों को सहना पडता है। इस संबंध में आपको हम सूचित भी कर चुके हैं लेकिन अभी तक इस विषय में हमें न कोई सूचना मिली है और न ही इसके लिए कोई कदम ही उठाया गया है।

आशा है कि अब अवश्य ही कोई न कोई उचित कदम यथाशीघ्र उठाकर हमें कृतार्थ करेंगे।

सधन्यवाद
प्रार्थी
महरौली क्षेत्र के निवासी
नई दिल्ली
दिनांक : 10 मार्च, 20xx

प्रश्नः 7.
अपने मोहल्ले में वर्षा के कारण उत्पन्न हुई जल-भराव की समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट कराने के लिए नगरपालिका के स्वास्थ्य अधिकारी को पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
स्वास्थ्य अधिकारी
नगरपालिका
दिल्ली

महोदय

सविनय निवेदन है कि हम सब शक्ति नगर क्षेत्र के निवासी हैं। गत दिनों भयंकर वर्षा के कारण इस क्षेत्र में जगह-जगह पानी भर गया है। नालियों और सीवर के बंद होने के कारण सड़कों की बिगड़ी हुई दशा के कारण जल पाइप कहीं-कहीं कट-फट गए हैं। परिणामस्वरूप जल की बाढ़ आ गयी है। आपके विभाग के संबंधित कर्मचारी बिलकुल ही इस तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं। यही कारण है कि इस क्षेत्र में चारों ओर जल ही जल दिखाई दे रहा है। इससे न केवल आवागमन की बहुत बड़ी असुविधा उत्पन्न हो गई है अपितु विभिन्न प्रकार की बीमारियों के भी फैल जाने की आशंका बढ़ गई है। अतएव आपसे सादर अनुरोध है कि आप इस दिशा में यथाशीघ्र उचित कदम उठाकर हमें कृतार्थ करें। इसके लिए हम सदैव अभारी रहेंगे।

भवदीय
शक्तिनगर क्षेत्र के निवासी
दिनांक : 6 मार्च 20XX

प्रश्नः 8.
पुलिस आयुक्त को लाउडस्पीकरों का अनुचित प्रयोग रोकने के लिए पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
पुलिस आयुक्त
माल रोड
दिल्ली

महोदय

मैं अपने इस पत्र द्वारा आपका ध्यान दिल्ली में विभिन्न स्थानों पर लाउडस्पीकरों के अनुचित प्रयोग की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। आजकल दिल्ली में प्रायः सभी स्थानों पर लाउडस्पीकरों का अनुचित प्रयोग किया जा रहा है। बाजारों, पार्कों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों, मंदिरों, मस्जिदों तथा गुरुद्वारों में हर समय लाउडस्पीकर बजते रहते हैं। इन लाउडस्पीकरों के बजने से वैसे तो शांति भंग होती ही है, साथ ही विद्यार्थी वर्ग को इससे विशेष हानि उठानी पड़ रही है। परीक्षाएँ निकट आ रही हैं तथा दिन-रात लाउडस्पीकरों के शोर के कारण विद्यार्थी वर्ग एकाग्र होकर पढ़ाई नहीं कर सकता।

अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि लाउडस्पीकरों के प्रयोग की अनुमति अतिआवश्यक कार्य तथा निश्चित समय के लिए ही दें। रात 8 बजे के बाद इनका प्रयोग करने वालों के विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाए।

आशा है आप छात्र-वर्ग की इस असुविधा को ध्यान में रखते हुए संबंधित अधिकारियों को उचित निर्देश देंगे।

भवदीय
क.ख.ग.

प्रश्नः 9.
नगर निगम के स्वास्थ्य अधिकारी को मोहल्ले की सफ़ाई के विषय में पत्र लिखिए।
उत्तरः

प्रति
स्वास्थ्य अधिकारी
पश्चिमी क्षेत्र, नगर निगम
दिल्ली

महोदय

सविनय निवेदन है कि हम हरिनगर के निवासी अपने क्षेत्र की सफ़ाई की समस्या की ओर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहते हैं। इस मोहल्ले में सफ़ाई का समुचित प्रबंध नहीं है। इसके प्राय: सभी ब्लॉकों में यत्र-तत्र कूड़े के ढेर बिखरे दिखाई देते हैं, जिनसे प्रायः दुर्गंध आती रहती है। नालियों में गंदगी भरी रहती है। इस कारण मच्छरों का प्रकोप बढ़ गया है। इस काम के लिए नियुक्त किये गये जमादारों में अधिकांश अपना काम ठीक प्रकार से नहीं करते। यदि उनसे कुछ कहा जाये, तो वे दुर्व्यवहार करने लगते हैं तथा अगले दिन से काम में और भी ढील दे देते हैं।

महोदय ! आजकल गरमी के दिन हैं। नगर के कई भागों में मलेरिया का प्रकोप फैल रहा है। ऐसी अवस्था में स्थान-स्थान पर कूड़े के ढेरों का पड़े रहना, मच्छरों और मलेरिया को निमंत्रण देना ही है। कृपया आप संबंधित अधिकारियों को उचित निर्देश दें जिससे वे हमारे क्षेत्र की सफाई की समस्या को सुलझाकर इस क्षेत्र के निवासियों को मलेरिया के प्रकोप से बचा लें।

धन्यवाद
भवदीय
क.ख.ग.
हरिनगर सुधार समिति, नई दिल्ली।

प्रश्नः 10.
दिल्ली परिवहन निगम के प्रबंध अधिकारी को बस में छूटे सामान के बारे में पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
प्रबंध अधिकारी
दिल्ली परिवहन निगम
सिंधिया हाउस, नई दिल्ली

महोदय

निवेदन है कि मैंने कल दिनांक 28 जनवरी, 20XX को सवेरे 9.35 पर तिलक नगर से 810 नं० की बस केंद्रीय टर्मिनल के लिए पकड़ी थी। बस में काफ़ी भीड़ थी, अतः मुझे खड़े ही जाना पड़ा। मेरे पास एक ब्रीफकेस था जिस पर मेरा पता लिखा हुआ है। केंद्रीय टर्मिनल आने पर मैं जल्दी में उस ब्रीफकेस को बस में छोड़कर ही नीचे उतर गया। अपने दफ़्तर में पहुँचकर मुझे अपने ब्रीफकेस का ध्यान आया। मैंने केंद्रीय टर्मिनल फ़ोन करके पता किया, लेकिन मुझे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। आशा है कि मेरा ब्रीफकेस आपके यहाँ अवश्य जमा. करा दिया गया होगा। उसका रंग काला है। उस पर मेरा पता लिखा है तथा उसमें मेरे दफ्तर के ज़रूरी कागजात तथा लगभग पाँच सौ रुपये हैं। कृपया उसके बारे में मुझे सूचित करें।

धन्यवाद
भवदीय
क.ख.ग.

आवेदन पत्र

आज रोजमर्रा के जीवन में प्रायः आवेदन पत्र या प्रार्थना पत्र लिखने की आवश्यकता पड़ती है। अवकाश हेतु, किसी विभाग में नियुक्ति हेतु, आवास प्राप्ति हेतु, स्थानांतरण या पदोन्नति हेतु किसी भी विषय में निवेदन करने आदि से संबंधित पत्र आवेदन पत्र या प्रार्थना पत्र कहे जाते हैं।

आवेदन पत्र लिखते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है –

  1. प्रारंभ-सर्वप्रथम बाईं ओर ‘सेवा में’ या ‘प्रति’ लिखकर ठीक उसके नीचे प्रेषिती का नाम, पदनाम व पूरा पता लिखा जाता है।
  2. विषय-यहाँ संक्षेप अर्थात् केवल एक पंक्ति में पत्र के विषय को प्रेषित किया जाना चाहिए।
  3. संबोधन–महोदय/महोदया संबोधन सूचक शब्द ठीक सेवा में की पंक्ति में लिखा जाना चाहिए।
  4. शिष्टाचार द्योतक शब्द-अल्पविराम के ठीक नीचे मुख्य विषय के प्रारंभ में ‘प्रार्थना है, सविनय निवेदन है, विनम्र निवेदन है’ आदि शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  5. मुख्य विषय-यहाँ मुख्य विषय को सरल, स्पष्ट और संयत भाषा में संक्षिप्त रूप में लिखना चाहिए।
  6. पत्र का समापन–पत्र की समाप्ति पर सधन्यवाद, सम्मान सहित आदि शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  7. समापन सूचक शब्द-पत्र की समाप्ति पर बाईं ओर भवदीय/भवदीया, प्रार्थी/प्रार्थिनी आदि समापनसूचक शब्दों का प्रयोग कर अल्पविराम लगाना चाहिए।
  8. नाम और पता-समापनसूचक शब्द के नीचे आवेदनकर्ता को अपने स्पष्ट हस्ताक्षर करने चाहिए और हस्ताक्षर के नीचे कोष्ठक में पूरा नाम लिखकर, पदनाम और स्थाई पता भी लिखना चाहिए।
  9. तिथि-प्रेषक के पते के बाईं ओर आवेदन करने की तिथि उल्लिखित करनी चाहिए।
  10. संलग्न-यदि आवेदन पत्र के साथ कोई प्रमाण पत्र या पत्रज्ञात की प्रति संलग्न की गई हो, तो अंत में संलग्नक लिखकर संख्यावार 1, 2, 3 लिखकर उनका उल्लेख कर देना चाहिए।

प्रश्नः 11.
शिक्षा निदेशक को छात्रवृत्ति के लिए एक आवेदन पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
शिक्षा निदेशक
शिक्षा निदेशालय
रामकृष्णपुरम्, दिल्ली

महोदय

सविनय निवेदन है कि प्रार्थी ने इस वर्ष दिल्ली बोर्ड की 10वीं कक्षा सर्वोच्च अंकों में उत्तीर्ण की है। परीक्षा के सभी विषयों में (हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, गणित, विज्ञान व सामाजिक विषय में) 80 प्रतिशत से ऊपर अंक प्राप्त हुए हैं। अतएव आप से सादर प्रार्थना है कि प्रार्थी को उसकी योग्यतानुसार छात्रवृत्ति यथाशीघ्र प्रदान कर उसके मनोबल को बढ़ाने की कृपा करें। इसके लिए प्रार्थी सदैव आपका आभारी रहेगा।

सधन्यवाद
प्रार्थी
क.ख.ग.
सरिता विहार, थाना-बदरपुर
नई दिल्ली
दिनांक 20 जुलाई, 20XX

नोट-इस प्रार्थना पत्र के साथ शिक्षा विभाग का आवेदन-पत्र समुचित अंकों एवं चरित्र प्रमाण पत्रों की प्रतिलिपि संलग्न है।

प्रश्नः 12.
निम्न श्रेणी के लिपिक पद के लिए रेलवे भर्ती बोर्ड नई दिल्ली के सहायक सचिव के नाम आवेदन पत्र लिखिए।
अथवा
जिलाधीश के कार्यालय में टाइपिस्ट के रिक्त पद के लिए आवेदन पत्र लिखिए।
उत्तरः

प्रति
जिलाधीश महोदय
गुड़गाँव (हरियाणा)

मान्यवर
विषय-टाइपिस्ट पद के लिए आवेदन पत्र।

दिनांक 15-2-20XX के नवभारत टाइम्स में आपके कार्यालय के लिए टाइपिस्ट के पदों के लिए प्रार्थना-पत्र आमंत्रित किए गए हैं। मैं भी इस पद के लिए अपनी सेवाएँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

मेरी शैक्षणिक योग्यताएँ तथा अन्य विवरण इस प्रकार हैं –

  1. मैंने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, दिल्ली से सन् 1999 में दसवीं कक्षा की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की है।
  2. मैंने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, दिल्ली की ही बारहवीं कक्षा की परीक्षा सन् 2001 में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की है।
  3. मैंने एक वर्ष तक हिंदी टंकण तथा आशुलिपि का अभ्यास किया है। टंकण में मेरी गति 45 शब्द प्रति मिनट तथा आशुलिपि में लगभग 100 शब्द प्रति मिनट है। मैंने एक वर्ष सेंट कोलंबस स्कूल में लिपिक का कार्य किया है।
  4. मैं इक्कीस वर्ष का स्वस्थ नवयुवक हूँ। यदि मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया गया तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अपने कार्य, ईमानदारी, कार्यकुशलता तथा व्यवहार से अपने अधिकारियों को सदैव संतुष्ट रखने का प्रयास करूँगा।

प्रार्थना पत्र के साथ प्रमाण पत्रों तथा प्रशंसा पत्रों की सत्यापित प्रतियाँ संलग्न हैं।

भवदीय
क.ख.ग.

प्रश्नः 13.
नगर निगम के कार्यालय में सहायक पद के लिए एक आवेदन पत्र लिखिए।
उत्तरः

प्रति
मुख्य आयुक्त
नगर निगम
दिल्ली
विषय-सहायक पद के लिए आवेदन पत्र।

माननीय महोदय

दिनांक 25 जनवरी, 20XX के ‘रोजगार समाचार’ में नगर निगम के कार्यालय में सहायक पद के लिए प्रकाशित विज्ञापन के उत्तर में उक्त पद के लिए निवेदन पत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरा व्यक्तिगत विवरण निम्नलिखित है –

  1. नाम – रमेश चंद्र अग्रवाल
  2. पिता का नाम – सोमेश चंद्र अग्रवाल
  3. जन्म तिथि – 28 जनवरी, 19XX
  4. शैक्षिक योग्यता –
    1. केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से दसवीं की परीक्षा 19XX में 80 प्रतिशत अंकों के साथ . उत्तीर्ण की।
    2. केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से 19XX में सीनियर सेकेंडरी परीक्षा 72 प्रतिशत अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण की।
    3. दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. (आनर्स) की परीक्षा 20XX में 62 प्रतिशत अंकों से पास की।
    4. मेरी टंकण गति 60 शब्द प्रति मिनट है।
    5. कार्यालयी अनुभव – 1. इससे पहले मैं शांति प्रा० लि० कंपनी में छह महीने लिपिक के पद पर कार्य कर चुका हूँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यदि आपने मुझे सेवा का अवसर दिया तो मैं पूरी निष्ठा एवं लगन से कार्य कर अपने अधिकारियों को संतुष्ट रखने का पूरा प्रयास करूँगा।

धन्यवाद
प्रार्थी
रमेश चंद्र अग्रवाल
1650, कश्मीरी गेट,
दिल्ली
दिनांक : 20 जुलाई, 20XX

प्रश्नः 14.
सहायक अध्यापक के पद के लिए शिक्षा निदेशक के नाम आवेदन पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
शिक्षा निदेशक
शिक्षा विभाग
दिल्ली
विषय-सहायक अध्यापक पद के लिए आवेदन

मान्यवर

पिछले सप्ताह दिनांक 23 जुलाई, 20XX आपके विभाग की ओर से ‘नवभारत टाइम्स’ में सहायक अध्यापक के रिक्त पदों का विज्ञापन दिया गया था। इस पद के प्रत्याशी के रूप में मैं अपना आवेदन प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरी शैक्षणिक योग्यताओं तथा अन्य उपलब्धियों का विवरण निम्नलिखित है –

  1. नाम – अमित कुमार शर्मा
  2. पिता का नाम – सुरेंद्र कुमार शर्मा
  3. जन्म तिथि – 3 जनवरी, 19XX
  4. शैक्षणिक योग्यता –
    1. केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से दसवीं की परीक्षा 19XX में 80 प्रतिशत अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण की।
    2. केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से 19XX में सीनियर सेकेंडरी परीक्षा 80 प्रतिशत अंकों के साथ उत्तीर्ण की।
    3. दिल्ली विश्वविद्यालय से बी०ए० (आनर्स) की परीक्षा 20XX में 63 प्रतिशत अंकों से पास की।
    4. रोहतक विश्वविद्यालय से 20XX में एक वर्षीय टीचर-ट्रेनिंग कोर्स किया।

अध्यापन में मेरी विशेष रुचि शुरू से ही रही है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपने मुझे यदि सेवा का अवसर प्रदान किया तो मैं निष्ठा से अपना कर्तव्य पालन करूँगा। शिक्षा प्रदान करने के अलावा मैं विद्यार्थियों के व्यक्तिगत विकास तथा चारित्रिक विकास पर भी पूर्ण ध्यान दूंगा।

धन्यवाद
प्रार्थी
क.ख.ग.
(अमित कुमार शर्मा)
26, शांति नगर, दिल्ली
दिनांक : 24 जुलाई, 20XX

प्रश्नः 15.
हिंदुस्तान टाइम्स में उप-संपादक पद के लिए आवेदन पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
हिंदुस्तान टाइम्स
बहादुरशाह ज़फरमार्ग,
नई दिल्ली
विषय-उप-संपादक पद हेतु आवेदन पत्र।

महोदय

23 मार्च, 20… के हिंदुस्तान टाइम्स अखबार के विज्ञापन के माध्यम से पता चला है कि आपको अपने दैनिक पत्र के लिए एक योग्य उप संपादक की आवश्यकता है। मैं अपने आपको इस पद के लिए प्रस्तुत करता हूँ। मेरा परिचय एवं शैक्षणिक योग्यताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. नाम : दिनेश शर्मा
  2. पिता का नाम : श्री रूपेश शर्मा
  3. जन्म तिथि : 10 नवंबर, 19XX
  4. पत्र व्यवहार का पता : 16/39, शक्ति नगर, नई दिल्ली।
    1. शैक्षणिक योग्यताएँ : कक्षा दसवीं की परीक्षा में प्रथम स्थान कुल 85 प्रतिशत अंकों से प्राप्त किया।
    2. बारहवीं कक्षा की परीक्षा में प्रथम स्थान कुल 82 प्रतिशत अंकों से प्राप्त किया। हिंदी साहित्य में बी०ए० की उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से 75 प्रतिशत अंकों के साथ प्राप्त की।
    3. हिंदी साहित्य में एम०ए० दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्राचार के माध्यम से प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की।

अनुभव : पिछले दो वर्षों से मासिक पत्रिका ‘रश्मि’ के उप-संपादक पद पर कार्य कर रहा हूँ। मेरी कुछ पुस्तकें स्थानीय प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं।

विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के प्रमाण पत्र तथा मेरे द्वारा लिखी गई पुस्तकों की प्रतियाँ साथ भेज रहा हूँ।
आशा करता हूँ कि आप मुझे साक्षात्कार का अवसर प्रदान कर मेरी क्षमताओं को आपके सामने उजागर करने का अवसर प्रदान करेंगे।

सधन्यवाद।
प्रार्थी
रतनेश अग्रवाल
16/39, शक्ति नगर
नई दिल्ली
दिनांक : 25-3-20XX

प्रश्नः 16.
समाचार पत्र में विज्ञापित अध्यापक पद हेतु आवेदन पत्र लिखें।
उत्तरः

सेवा में
डी०ए०वी० पब्लिक स्कूल
पश्चिम विहार,
नई दिल्ली
विषय-अध्यापक पद के लिए आवेदन पत्र

महोदय

विनम्र निवेदन है कि दिनांक 3 फरवरी, 20XX के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित विज्ञापन से मुझे ज्ञात हुआ है कि आपके विद्यालय में रसायन शास्त्र के लिए प्रशिक्षित (पी०जी०टी०) अध्यापक के लिए स्थान रिक्त है। मैं अपनी सेवाएँ उक्त पद के लिए अर्पित करना चाहता हूँ। मैं अपनी शैक्षणिक तथा अनुभव संबंधी योग्यताएँ लिख रहा हूँ और इस आवेदन-पत्र के साथ अपने प्रमाण पत्रों की सत्यापित प्रतिलिपियाँ संलग्न कर रहा हूँ।

  1. नाम : राहुल सक्सेना
  2. पिता का नाम : श्री देवेंद्र सक्सेना
  3. जन्म तिथि : 18 अगस्त, 19XX
  4. पत्र व्यवहार का पता : 16/24, नवीन शहर, बुलंदशहर।
  5. शैक्षणिक योग्यताएँ :
    1. दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी०ए० उत्तीर्ण।
    2. मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम०ए० उत्तीर्ण।
    3. मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से बी०एड० की परीक्षा उत्तीर्ण ।

अनुभव : मैं एक प्राइवेट विद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहा हूँ। मुझे दो वर्ष का अनुभव है। उपर्युक्त सेवा काल में मेरे प्रधानाचार्य तथा छात्र मुझसे बहुत प्रसन्न हैं।

आशा है, आप मुझे एक अवसर अवश्य प्रदान करेंगे और मैं एक आदर्श अध्यापक के नाते काम कर सकूँगा। अन्य कोई जानकारी साक्षात्कार के समय दे सकूँगा।

सधन्यवाद
आपका विश्वासी
राहुल सक्सेना
दिनांक : 5-3-20XX

प्रार्थना पत्र

प्रश्नः 17.
प्रधानाचार्य को चरित्र प्रमाण पत्र देने का अनुरोध करते हुए एक प्रार्थना पत्र लिखिए तथा यह भी बताइए कि उसकी आपको क्यों आवश्यकता है।
उत्तरः

सेवा में
प्रधानाचार्य महोदय
भारतीय विद्या भवन, मेहता विद्यालय
कस्तूरबा गांधी मार्ग,
नई दिल्ली

मान्यवर महोदय

सविनय निवेदन है कि मैं 20XX से 20XX तक आपके विद्यालय का छात्र रहा हूँ। मैंने 20XX की सीनियर सेकेंडरी परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की थी। मैंने पढ़ाई के अतिरिक्त वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, नाटक, संगीत तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी भाग लिया था। मैंने स्कूल के लिए कई ट्राफियाँ भी जीती थीं। मैं 20XX-20XX में विद्यालय की फुटबाल टीम का कैप्टन भी रहा हूँ। मेरे बारे में अन्य जानकारी मेरे वर्ग आचार्य श्री बी० एन० श्रीवास्तव से आपको मिल जायेगी। मान्यवर, मुझे राष्ट्रीय मिलिटरी कॉलेज के आवेदन पत्र के साथ संलग्न करने के लिए चरित्र प्रमाण पत्र की आवश्यकता है। अतः आप से निवेदन है कि चरित्र प्रमाण पत्र यथाशीघ्र भेजने की कृपा करें।

धन्यवाद
आपका आज्ञाकारी
क.ख.ग.
मेरा पता ……….
………………….
………………….
………………….
दिनांक : 17 जुलाई, 20XX

प्रश्नः 18.
अपने स्कूल के प्रधानाचार्य को प्रार्थना पत्र लिखकर खेल संबंधी कठिनाइयाँ सूचित कीजिए और उन्हें दूर करने की प्रार्थना कीजिए।
उत्तरः

सेवा में
प्रधानाचार्य महोदय
रामजस स्कूल नं० 2,
दरियागंज
दिल्ली

मान्यवर

निवेदन है कि हमारा विद्यालय दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में गिना जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में प्रसिद्ध होते हुए भी खेलों में हमारे विद्यालय की गिनती अच्छे विद्यालयों में नहीं की जाती। मैं विद्यालय का खेल-कूद कप्तान होने के नाते आपका ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहता हूँ।

हमारे विद्यालय का क्रीड़ा क्षेत्र समतल नहीं है तथा वहाँ गंदगी रहती है। विद्यालय में खेलकूद का सामान भी कम है। विद्यालय का समय समाप्त होने के बाद छात्रों को खेलकूद में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तथा विभिन्न खेलों के प्रशिक्षकों द्वारा छात्रों को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। यदि आपकी ओर से विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया गया, तो मुझे विश्वास है कि विद्यार्थी खेलकूद में भाग लेंगे और हमारे विद्यालय का नाम रोशन करेंगे।

धन्यवाद
आपका आज्ञाकारी
कमल कांत
क्रीड़ा-कप्तान
दिनांक : 6 मार्च, 20XX

प्रश्नः 19.
दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण परीक्षा देने में असमर्थता प्रकट करते हुए अपने प्रधानाचार्य को एक प्रार्थना पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
प्रधानाचार्य
सर्वोदय विद्यालय नं० 1
शक्तिनगर, दिल्ली

सविनय निवेदन है कि मैं आपके विद्यालय के कक्षा दसवीं ‘अ’ (अनुक्रमांक 10) का नियमित छात्र हूँ। सड़क पार करते समय एक स्कूटर से टकरा जाने से मुझे गंभीर रूप से चोट लगी है। दोनों पैरों में काफ़ी चोट लगी है। एक पैर तो टूट गया है। सिर फट गया है। डॉक्टर की जाँच के अनुसार मुझे लगभग 20 दिनों तक पूर्ण आराम की आवश्यकता है। अतएव इन दिनों होने वाली परीक्षा में मैं सम्मिलित होने में बिलकुल ही असमर्थ हूँ।

अतएव आप से सादर प्रार्थना है कि आप मुझे 20 दिनों का अवकाश प्रदान करने की कृपा करें।

सधन्यवाद
आपका आज्ञाकारी छात्र
केशव प्रसाद
कक्षा दसवीं ‘अ’
अनुक्रमांक 10
दिनांक : 5 मार्च, 20xx

प्रश्नः 20.
अपनी आर्थिक कठिनाइयों का वर्णन करते हुए फ़ीस माफ़ करने (शुल्क-मुक्ति ) के लिए प्रधानाचार्य को प्रार्थना पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
श्रीमान् प्रधानाचार्य
हंसराज मॉडल स्कूल
पंजाबी बाग, नई दिल्ली

मान्यवर

मैं आपके विद्यालय में दसवीं ‘ख’ कक्षा का छात्र हूँ। मैं एक अत्यंत निर्धन परिवार से हूँ। मेरे पिता जी नई दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन में दफ़्तरी हैं। उनका वेतन कुल मिलाकर छह हज़ार रुपए हैं। मेरे पिता जी के अतिरिक्त हमारे परिवार में और कोई कमाने वाला नहीं है। मेरे अतिरिक्त हमारे घर में चार और पढ़ने वाले हैं। मेरा बड़ा भाई बी० ए० में तथा एक छोटी बहन छठी कक्षा में पढ़ती है। इस स्थिति में परिवार का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता है।

सूचनार्थ निवेदन है कि मैं प्रत्येक वर्ष अपनी कक्षा में प्रथम आता रहा हूँ। गत परीक्षा में भी मैंने 84 प्रतिशत अंक प्राप्त किये हैं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि भविष्य में भी मैं इसी प्रकार अच्छे अंक लेकर परीक्षाएँ उत्तीर्ण करता रहूँगा। अपने व्यवहार, चरित्र तथा कार्य से सदैव अपने गुरुजनों तथा आपको संतुष्ट रखने का प्रयास करता रहूँगा।

यदि मुझे शुल्क मुक्ति न मिली तो मेरे लिए पढ़ाई जारी रखना कठिन हो जाएगा। अतः आपसे करबद्ध निवेदन है कि मुझे पूर्ण शुल्क मुक्ति प्रदान करके अनुगृहीत करें।

सधन्यवाद
आपका आज्ञाकारी शिष्य
क. ख. ग.
कक्षा ‘ख’
दिनांक : 20 जुलाई, 20XX

संपादक को पत्र

प्रश्नः 21.
अपने नगर के समाचार पत्र के संपादक को एक पत्र लिखकर मोहल्ले में बढ़ रही जुआखोरी की जानकारी दीजिए।
उत्तरः

सेवा में
संपादक
नवभारत टाइम्स
नई दिल्ली

महोदय

मैं आपके इस दैनिक पत्र के माध्यम से आपका ध्यान अपने नगर में बढ़ रही दिनों-दिन जुआखोरी की दुष्प्रवृत्ति और बुरे व्यसनों की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। यह ध्यान देने की बात है कि इस बुरी आदत में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी बुरी तरह से फंस चुके हैं। पुलिस ने कई लोगों को इस मामले में गिरफ्तार करके छोड़ दिया है। समय-समय पर पुलिस आती रहती है। फिर भी लोग चोरी-छिपे जुआ खेलते ही रहते हैं। अतएव आप अपने इस समाचार पत्र के माध्यम से प्रशासन को ऐसा कदम उठाने के लिए सुझाव प्रस्तुत करें, जिससे यह बुरी आदत यथाशीघ्र समाप्त की जा सके और हमारा यह नगर फिर अच्छे वातावरण में आगे बढ़ सके।

भवदीय
क.ख.ग.
दिनांक : 2 फरवरी, 20XX

प्रश्नः 22.
अपने क्षेत्र की गंदगी की ओर अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए किसी दैनिक समाचार पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
संपादक
नवभारत टाइम्स
नई दिल्ली

महोदय

मैं लोकप्रिय समाचार पत्र ‘नवभारत टाइम्स’ के माध्यम से अपने क्षेत्र में बढ़ती हुई गंदगी की ओर इस क्षेत्र के स्वास्थ्य अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। इस संदर्भ में यह कहना है कि दिल्ली गेट क्षेत्र के आस-पास आजकल गंदगी बहुत हो गई है। कूड़ों के ढेर जगह-जगह हैं। उन पर विभिन्न प्रकार के जानवर घूमते रहते हैं। कई दिनों से सफ़ाई न होने से नालियों में गंदा पानी जमा हो गया है। फलतः बड़ी बदबू फैल रही है। इससे निकट भविष्य में किसी जानलेवा बीमारी के फैल जाने की आशंका बढ़ रही है।

अतः इस क्षेत्र के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों का ध्यान इस समाचार पत्र के माध्यम से न केवल ध्यान आकर्षित करने, अपितु उनको इस दिशा में उचित कदम उठाने के लिए भी आप सुझाव देंगे। इसके लिए हम सब इस क्षेत्र के निवासी आपके सदैव आभारी रहेंगे।

सधन्यवाद
भवदीय
दिल्ली गेट क्षेत्र के निवासी,
नई दिल्ली
दिनांक : 3 मार्च, 20XX

प्रश्नः 23.
अपने क्षेत्र में बिजली के संकट और उससे उत्पन्न कठिनाइयों का वर्णन करते हुए ‘दैनिक हिंदुस्तान’ के संपादक के नाम एक पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
संपादक महोदय
दैनिक हिंदुस्तान
नई दिल्ली

मान्यवर

मैं आपके लोकप्रिय समाचार पत्र के माध्यम से ‘दिल्ली विद्युत बोर्ड’ के अधिकारियों का ध्यान दिल्ली में बिजली के संकट से उत्पन्न कठिनाइयों की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ तथा दिल्ली निवासियों की कठिनाइयों को अधिकारियों तक पहुँचाना चाहता हूँ। कृपया अपने समाचार पत्र में इसे उचित स्थान पर प्रकाशित करके अनुग्रहीत करें।

मान्यवर, आए दिन दिल्ली की जनता को बिजली का संकट सहना पड़ रहा है। गरमी के मौसम में बिजली के चले जाने से जन-जीवन कितना कठिन हो जाता है तथा लोगों को कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, इसका अनुमान आप स्वयं ही लगा सकते हैं।

प्रायः उन्हीं इलाकों की बिजली अधिक जाती है, जो सर्वाधिक भीड़भाड़ के क्षेत्र हैं। चाँदनी चौक, अजमेरी गेट, कश्मीरी गेट इन तीनों क्षेत्रों की बिजली घंटों गायब रहती है। ये तीनों क्षेत्र दिल्ली के भीड़भाड़ से भरे क्षेत्र माने जाते हैं। यहाँ के बाजारों में हज़ारों लोगों की भीड़ रहती है। बिजली के बिना व्यापारियों तथा ग्राहकों को बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। आश्चर्य की बात यह है कि ‘विद्युत-विभाग’ के अधिकारियों को इस बारे में कई बार मौखिक तथा लिखित रूप में सूचित किया गया, लेकिन उन्होंने स्थिति में सुधार लाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। अतः आपसे निवेदन है कि संबंधित अधिकारियों को उचित निर्देश दें, जिससे इन क्षेत्रों के निवासियों को बिजली की उचित आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।

भवदीय
क.ख.ग.
दिनांक : 31 दिसंबर, 20XX

शिकायती पत्र

प्रश्नः 24.
दिल्ली परिवहन के महाप्रबंधक के नाम एक पत्र लिखिए जिसमें बस कंडक्टर के अभद्र व्यवहार की शिकायत की गई हो।
उत्तरः

प्रति
महाप्रबंधक
दिल्ली परिवहन निगम
इंद्रप्रस्थ एस्टेट
नई दिल्ली

महोदय

निवेदन है कि मैं हरिनगर घंटाघर का निवासी हूँ। मैं प्रतिदिन प्रातः आठ बजे बस रूट नं0 73 में केंद्रीय टर्मिनल के लिए यात्रा करता हूँ। इस बस में प्रायः सभी यात्री जाने-पहचाने हैं, क्योंकि उनमें से अधिकांश प्रतिदिन इसी बस से जाते हैं। दिनांक 05-05-20XX को इस रूट पर चंद्रपाल नाम का संवाहक (कंडक्टर) नियुक्त था। मैंने उसे बीस रुपये दिए तथा केंद्रीय सचिवालय तक का दस रुपये का टिकट देने को कहा। संवाहक महोदय ने दस रुपए का टिकट तो दे दिया, पर शेष बचे दस रुपए बाद में देने को कहा। मैं एक सीट पर बैठ गया। राजेंद्र नगर बस स्टॉप आने पर मैंने संवाहक से अपने शेष दस रुपए माँगे, तो वह आना-कानी करने लगा तथा बोला कि मैंने उसे दस रुपए ही दिए हैं, बीस रुपये का नोट नहीं। चूंकि मैंने बीस रुपये का नोट अपने कई सहयात्रियों के सामने दिया था। उन्होंने भी संवाहक को दस रुपए वापस करने को कहा, परंतु उसने किसी की न सुनी और अपशब्द कहने लगा। मैंने उससे परिवाद-पुस्तिका माँगी, तो उसने इस पर भी आनाकानी की। बोला, ‘तुम्हें जहाँ शिकायत करनी है, करो, मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।’ मुझे एक यात्री ने बताया कि जिस दिन भी यह संवाहक इस रूट पर आता है, उस दिन इसी प्रकार कई यात्रियों के शेष पैसे नहीं देता। वे यात्री उतरते समय स्वयं भूल जाते हैं या फिर संवाहक महोदय शेष राशि देने की बात स्वीकार ही नहीं करते।

आपसे अनुरोध है कि आप स्वयं किसी दिन किसी अधिकारी को सादे कपड़ों में इस महाशय की ड्यूटी के समय यात्रा करने का आदेश दें, जिससे वे स्वयं इसके अभद्र व्यवहार तथा आचरण की प्रथम जाँच कर सके। इन संवाहक महोदय के विरुद्ध एक आरोप और भी है-ये बस में धूम्रपान भी करते हैं, जिस पर यदि आपत्ति की जाए, तो इनका अभद्र व्यवहार देखने को मिलता है।

आशा है, आप ऐसे कर्मचारियों को सुधारने के लिए समुचित कार्यवाही करेंगे।

धन्यवाद
भवदीय
सुनील शर्मा
A-31/C, हरिनगर,
नई दिल्ली
दिनांक : 06-05-20XX

प्रश्नः 25.
मनीआर्डर गुम हो जाने की शिकायत करते हुए लोदी रोड, नई दिल्ली के डाकपाल को पत्र लिखिए।
अथवा
मनीआर्डर गुम हो जाने की शिकायत करते हुए डाकपाल को एक पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
डाकपाल महोदय
मुख्य डाकघर, लोदी रोड
नई दिल्ली

महोदय

निवेदन है कि मैंने दिनांक 16 दिसंबर, 20XX को पाँच सौ रुपये का मनीआर्डर अपने पिता श्री चंद्रप्रकाश शर्मा, 18 C, नई मंडी, रोहतक के पते पर लोदी रोड डाकघर से करवाया था। लगभग एक माह का समय बीत चुका है। अभी तक न तो वह मनीआर्डर ही मेरे पिता के पास पहुँचा है और न ही लौटकर मुझे मिला है। मैंने इस संबंध में नई मंडी, रोहतक के डाकघर से भी संपर्क किया, पर मनीआर्डर वहाँ नहीं पहुँचा।

मनीआर्डर की रसीद का नंबर 2307 तथा दिनांक 16-2-20XX है। आप से अनुरोध है कि इस संबंध में आवश्यक जाँचपड़ताल करके मुझे सूचित करवाने का कष्ट करें। आपकी सुविधा के लिए मनीआर्डर की रसीद की फोटो प्रति भी पत्र के साथ संलग्न कर रहा हूँ।

सधन्यवाद
भवदीय
दिनेश शर्मा
P-615, सेवा नगर,
नई दिल्ली
दिनांक : 15 जनवरी, 20XX

प्रश्नः 26.
बिजली बोर्ड के अध्यक्ष को अपने क्षेत्र में बिजली के संकट से उत्पन्न कठिनाइयों के संबंध में पत्र लिखिए।
अथवा
नगर के दिल्ली विद्युत बोर्ड के महाप्रबंधक को पत्र लिखिए जिसमें परीक्षा के दिनों में बार-बार बिजली चले जाने से उत्पन्न असुविधा का वर्णन हो।
उत्तरः

प्रति
अध्यक्ष
दिल्ली विद्युत बोर्ड
दिल्ली

महोदय

मैं इस पत्र द्वारा आपका ध्यान नवीन शाहदरा क्षेत्र में बिजली के संकट से उत्पन्न कठिनाइयों की ओर आकृष्ट कराना चाहता हूँ। नवीन शाहदरा पुस्तक-छपाई उद्योग की दृष्टि से दिल्ली का प्रमुख केंद्र बन गया है। इस क्षेत्र में और भी अनेक लघु उद्योग-धंधे स्थित हैं। इस क्षेत्र में घंटों बिजली नहीं होती, जिसके कारण यहाँ के निवासियों, व्यापारियों तथा विद्यार्थियों को अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। बीच-बीच में दस-पाँच मिनट को बिजली आती है, तो राहत का अनुभव होता है, परंतु थोड़ी ही देर में पुनः चली जाने पर ऐसा लगता है, मानो बिजली आँखमिचौली का खेल खेल रही है। यह सिलसिला प्रायः प्रतिदिन चलता है। यदि बिजली जाने का कोई निश्चित समय हो, तो सब्र किया जा सकता है, परंतु अनिश्चितता से सभी को अत्यधिक कष्ट होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बिजली आती तो है, पर बहुत कम वोल्ट की, जिससे ट्यूब आदि भी नहीं जलती। हमने दिल्ली विद्युत बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारियों से अनेक बार प्रार्थना की, परंतु हमारी एक न सुनी गई। बिजली के न आने से विद्यार्थियों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। उनकी पढ़ाई नहीं हो पाती। यदि यह क्रम और जारी रहा, तो इस क्षेत्र के विद्यार्थियों के परीक्षा-परिणाम पर बुरा असर पड़ेगा। उनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।

बिजली चले जाने से असामाजिक तत्वों को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। आए दिन इस क्षेत्र में चोरी आदि की वारदातें दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। बिजली के न आने से पानी की भी भीषण समस्या उत्पन्न होती है। आप सोच सकते हैं कि गरमी के इन दिनों में यदि बिजली और पानी दोनों ही उपलब्ध न हों, तो जनजीवन कितना अस्तव्यस्त और कष्टमय हो जाता है।

आपसे अनुरोध है कि इस क्षेत्र के निवासियों की इस समस्या को सुलझाने के लिए आवश्यक कदम उठाएँ तथा संबंधित अधिकारियों को उचित निर्देश दें।

आभार सहित
भवदीय
क. ख. ग.
सचिव
नवीन शाहदरा जन-कल्याण समिति, नवीन शाहदरा।
दिनांक : 17-2-20XX

प्रश्नः 27.
डाकतार विभाग की लापरवाही की ओर अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट कराने के लिए किसी दैनिक समाचार पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तरः

सेवा में
संपादक महोदय
नवभारत टाइम्स
7, बहादुरशाह जफर मार्ग, नई दिल्ली
विषय-डाकतार विभाग की लापरवाही के विषय में पत्र।

महोदय

मैं आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र में चिट्ठी पत्री स्तंभ के अंतर्गत अपनी यह शिकायत छपवाना चाहता हूँ। मैं दिल्ली नगर का निवासी हूँ। मैंने अपने मित्र के नाम उत्तर प्रदेश, नोएडा के पते पर एक पत्र शीघ्र डाक से दिनांक 20 जनवरी, 20XX को भेजा था। इस पत्र में कुछ अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण कागज थे, जिनका शीघ्र ही उस तक पहुँचना अत्यंत आवश्यक था, लेकिन उसके पास यह पत्र दस दिनों के बाद पहुँचा। इस वजह से उसका बहुत बड़ा नुकसान हुआ। ऐसी केवल यह एक ही घटना नहीं है। अनेक लोग डाक-तार विभाग की अव्यवस्था के शिकार हैं।

मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि इस संदर्भ में आप अपने समाचार पत्र में छापे तथा संबंधित अधिकारियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न करें, ताकि इस ओर उचित कदम उठाकर इस अव्यवस्था को सुधारा जाए। आम जनता को इस अव्यवस्था से आगे किसी और तरह की असुविधा न उठानी पड़े।

इसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी रहूँगा।

धन्यवाद सहित
भवदीय
राहुल त्यागी
26/2, मॉडल टाउन, दिल्ली
दिनांक : 2-2-20XX

प्रश्नः 28.
गलत किताबें प्रेषित करने के लिए पुस्तक विक्रेता को पत्र लिखें।
उत्तरः

सेवा में
श्रीमान् व्यवस्थापक महोदय
पुस्तक महल
दरियागंज, नई दिल्ली
विषय-गलत किताबें प्रेषित करने के लिए शिकायत।

प्रिय महोदय

आपके द्वारा प्रेषित दिनांक 5 अप्रैल, 20XX का पार्सल हमें प्राप्त हुआ। यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिन किताबों का हमने ऑर्डर दिया था, वे किताबें हमें उस पार्सल में नहीं मिली। हमने आपसे सरस भारती भाग-3 की 20 प्रतियाँ मँगाई थीं, लेकिन आपने सरस भारती के भाग-1 तथा कथा कलश के भाग-2 की प्रतियाँ भिजवा दी हैं।

आपकी तरफ से की गई इस लापरवाही से अनेक विद्यार्थियों के लिए परेशानी खड़ी हो गई है। कृपया इस पत्र के प्राप्त होते ही मँगाई गई पुस्तकों का पार्सल भेजने की कृपा करें। आशा है आप इस संबंध में विलंब करके हमें निराश नहीं करेंगे।

भवदीय
भरत बुक डिको
अलीगढ़
दिनांक : 7 अप्रैल, 20XX

व्यावसायिक पत्र

प्रश्नः 29.
वी०पी०पी० द्वारा पुस्तकें मँगाने के लिए प्रकाशक को एक पत्र लिखिए।
उत्तरः

4/44, सफदरजंग एनक्लेव
नई दिल्ली
दिनांक : 26 फरवरी, 20XX
व्यवस्थापक महोदय, फ्रैंक एजुकेशनल ऐड्स प्रा०लि०,
ए-39, सेक्टर-4, नोएडा
प्रिय महोदय

कृपया अधोलिखित पुस्तकें वी०पी०पी० द्वारा दिए गए पते पर यथा शीघ्र भेजने का कष्ट करें। पंद्रह सौ रुपये अग्रिम राशि के रूप में धनादेश (मनीआर्डर) द्वारा भेज दिए गए हैं। कृपया उन्हें बिल में से काट दीजिए। पुस्तकें भेजने से पहले देख लें कि किसी पुस्तक के पृष्ठ कम या फटे हुए न हों। पुस्तकों की पैकिंग ढंग से की गई हो।
पुस्तकों की सूची

  1. इतिहास (रिफ्रेशर कोर्स) – 3 प्रतियाँ 2018 का संस्करण
  2. भूगोल (रिफ्रेशर कोर्स) – 3 प्रतियाँ 2018 का संस्करण
  3. जीव-विज्ञान (रिफ्रेशर कोर्स) – 2 प्रतियाँ 2018 का संस्करण
  4. अंग्रेज़ी कोर्स (A) (रिफ्रेशर कोर्स) – 3 प्रतियाँ 2018 का संस्करण
  5. हिंदी (रिफ्रेशर कोर्स) – 3 प्रतियाँ 2018 का संस्करण

भवदीय
क. ख. ग.
मेरा पता
………….
………….

प्रश्नः 30.
गलत माल मिलने की शिकायत करते हुए खेल का सामान बेचने वाले प्रतिष्ठान ‘क्रीड़ा-विहार’ को एक पत्र लिखिए।
उत्तरः

6/11, सुभाष नगर
नई दिल्ली-16
दिनांक : 20 फरवरी, 20XX
व्यवस्थापक महोदय
क्रीड़ा-विहार
दरियागंज, दिल्ली

प्रिय महोदय

निवेदन है कि हमने आपके प्रतिष्ठान को दिनांक 14-12-20XX को खेल के कुछ सामान का आर्डर दिया था। इस आर्डर में निम्नलिखित सामान मँगाया था –

  1. क्रिकेट बैट (कश्मीर) – 5
  2. बैडमिंटन रैकिट (स्पेशल क्वालिटी) – 10
  3. फुटबाल (नं० 777) 4
  4. क्रिकेट बॉल (स्पेशल क्वालिटी नं० 36) -10
  5. हॉकी स्टिक (सुपर जेट क्वालिटी) – 20

आपके द्वारा भेजे गये बिल सं० 1674 2-1-20XX के अनुसार यह सामान हमें 7-1-20XX को प्राप्त हुआ। खेद की बात है कि कुछ सामान उस क्वालिटी का नहीं है तथा फुटबाल के स्थान पर वालीबाल भेजे गये हैं तथा 10 बैडमिंटन के रैकिट की जगह 5 रैकिट तथा 5 क्रिकेट बैट की जगह 10 बैट भेजे गये हैं। अतः यह सामान वापस भेजा जा रहा है। कृपया उचित सामान शीघ्र भिजवाने का कष्ट करें तथा सामान भेजने से पूर्व निरीक्षण करवा लें कि सही समान ही भेजा जाये।

धन्यवाद सहित
भवदीय
क.ख.ग.

सरकारी पत्र

सरकारी कार्यालयों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इन पत्रों को कई श्रेणियों में बाँट दिया गया है। मसलन कई पत्र सूचनाएँ माँगने या भेजने के लिए लिखे जाते हैं। कुछ पत्रों द्वारा मुख्यालय या बड़े अधिकारी अपने अधीनस्थ कार्यालयों या अधीनस्थ कर्मचारियों को आदेश भेजते हैं। कुछ पत्र अखबारों को विभागीय गतिविधियों की जानकारी देने के लिए भेजे जाते हैं। हर श्रेणी के पत्र के लिए एक विशेष स्वरूप निर्धारित कर दिया गया है।

पत्र लिखने का तरीका –

  1. सरकारी पत्र औपचारिक पत्र की श्रेणी में आते हैं।
  2. प्रायः ये पत्र एक कार्यालय, विभाग या मंत्रालय से दूसरे कार्यालय, विभाग या मंत्रालय को लिखे जाते हैं।
  3. पत्र के शीर्ष पर कार्यालय, विभाग या मंत्रालय का नाम व पता लिखा जाता है।
  4. पत्र के बाईं तरफ फाइल संख्या लिखी जाती है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि पत्र किस विभाग दवारा किस विषय के तहत कब लिखा जा
  5. रहा है। जिसे पत्र लिखा जा रहा है उसका नाम, पता आदि बाईं तरफ लिखा जाता है। कई बार अधिकारी का नाम भी दिया जाता है। ‘सेवा में’ का प्रयोग धीरे-धीरे कम हो रहा है।
  6. ‘विषय’ शीर्षक के अंतर्गत संक्षेप में यह लिखा जाता है कि पत्र किस प्रयोजन के लिए या किस संदर्भ में लिखा जा रहा
  7.  विषय के बाद बाईं तरफ ‘महोदय’ संबोधन लिखा जाता है।
  8. पत्र की भाषा सरल एवं सहज होनी चाहिए। क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।
  9. सटीक अर्थ प्रेषित करने के लिए प्रशासनिक शब्दावली का प्रयोग ही उचित होता है।
  10. पत्र के बाईं ओर प्रेषक का पता और तारीख दी जाती है।
  11. अंत में ‘भवदीय’ शब्द का प्रयोग अधोलेख के रूप में होता है।
  12. भवदीय के नीचे पत्र भेजने वाले के हस्ताक्षर होते हैं। हस्ताक्षर के नीचे कोष्ठक में पत्र लिखने वाले का नाम मुद्रित होता है। नाम के नीचे पदनाम लिखा जाता है।

उदाहरण

अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान क्षेत्रीय कार्यालय : मुंबई

CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र 2
सेवा में
महानिदेशक

अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
तिलक मार्ग, नई दिल्ली-110001
विषय : मोबाइल फ़ोन पर होने वाले व्यय के लिए निर्धारित सीमा

महोदय

कृपया अपने परिपत्र को स्मरण करें जिसकी संख्या 24/13/4/20XX थी, जो 23 नवंबर, 20XX को जारी किया गया था। परिपत्र में हिदायत दी गई थी कि मोबाइल फ़ोन पर महीने में दो हज़ार से अधिक खर्च नहीं किया जाना चाहिए।

इस संबंध में निवेदन है कि मुंबई स्थित क्षेत्रीय कार्यालय की गतिविधियाँ अत्यंत व्यापक हैं। देश के तमाम फ़िल्म और टेलीविज़न निर्माता मुंबई में ही हैं। इनकी वजह से विभिन्न विधाओं के कलाकार बड़ी संख्या में मुंबई में ही निवास करते हैं। साथ ही निदेशक को देश के विभिन्न नगरों में स्थित कार्यालयों एवं क्षेत्रीय कार्यालय से भी निरंतर संपर्क में रहना पड़ता है। साथ ही संस्थान की गतिविधियों के लिए प्रायोजक जुटाने के सिलसिले में देश के विभिन्न औद्योगिक संगठनों से भी लगातार बात करनी पड़ती है।

ऊपर बताए तथ्यों की वजह से दो हज़ार रुपए मासिक की सीमा मुंबई कार्यालय के लिए कम पड़ रही है। पिछले छह महीनों से यह देखा जा रहा है कि मासिक खर्च छह हज़ार रुपए के आसपास आता है।

अतः निवेदन है कि मुंबई कार्यालय की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए मोबाइल फ़ोन पर मासिक खर्च की सीमा बढ़ाकर छह हज़ार रुपए कर दी जाए।

भवदीय
(राकेश कुमार)
निदेशक

अर्ध सरकारी पत्र

औपचारिक पत्र के विपरीत अर्ध सरकारी पत्र में अनौपचारिकता का पुट होता है। इसमें एक मैत्री भाव होता है। अर्ध सरकारी पत्र तब लिखे जाते हैं जब लिखने वाला अधिकारी संबंधित अधिकारी को व्यक्तिगत स्तर पर जानता है।

इस प्रकार का पत्र ऐसी स्थिति में भी लिखा जाता है जब किसी खास मसले पर संबोधित अधिकारी का ध्यान व्यक्तिगत रूप से आकर्षित कराया जाता है या उसका व्यक्तिगत परामर्श लिया जाए।

पत्र लिखने की प्रक्रिया –

  1. प्रारूप में बाईं ओर शीर्ष पर प्रेषक का नाम होता है। इसके नीचे उसका पदनाम होता है।
  2. अर्ध सरकारी पत्र के लिए अमूमन कार्यालय के ‘लेटर हेड’ का प्रयोग होता है, अगर उपलब्ध हो।
  3. पत्र के प्रारंभ में संबोधन के रूप में महोदय या प्रिय महोदय का प्रयोग नहीं होता। ऐसे पत्र में आमतौर पर प्रयोग किया जाने वाला संबोधन ‘प्रिय श्री…’ ‘प्रियवर श्री…’ हो सकता है।
  4. पत्र के अंत में अधोलेख के रूप में दाहिनी ओर ‘भवदीय’ के स्थान पर ‘आपका’ का प्रयोग किया जाता है।
  5. अंत में बाईं ओर संबोधित अधिकारी का नाम, पदनाम और पूरा पता दिया जाता है।

उदाहरण

अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
महानिदेशालय

CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र 3

गुफरान अहमद
उपमहानिदेशक
प्रिय श्री कुमार

कृपया 15 मार्च, 20XX और 26 अप्रैल, 20XX को भेजे गए अपने पत्रों का स्मरण करें, जो मोबाइल फ़ोन पर किए जाने वाले मासिक व्यय की सीमा बढ़ाने के बारे में थे।

आपके अनुरोध पर कार्रवाई की जा रही है। चूँकि व्यय सीमा में बढ़ोतरी के लिए बोर्ड की अनुमति आवश्यक है अतः हम इस मसले को बोर्ड की अगली बैठक में प्रस्तुत करेंगे।

इस मसले पर बोर्ड के निर्णय से हम आपको अवगत करा देंगे।

शुभकामनाओं
सहित
आपका
निदेशक
श्री राकेश कुमार
दूरदर्शन केंद्र, मुंबई

टिप्पण अथवा टिप्पणी

किसी भी विचाराधीन पत्र अथवा प्रकरण को निपटाने के लिए उस पर जो राय, मंतव्य, आदेश अथवा निर्देश दिया जाता है वह टिप्पणी कहलाती है। टिप्पणी शब्द अंग्रेज़ी के नोटिंग शब्द के अर्थ में प्रयुक्त होता है। टिप्पणी लिखने की प्रक्रिया को हम टिप्पण यानी नोटिंग कहते हैं।

टिप्पणी का उद्देश्य उन तथ्यों को स्पष्ट तथा तर्कसंगत रूप से प्रस्तुत करना है जिन पर निर्णय लिया जाना है। साथ ही उन बातों की ओर भी संकेत करना है जिनके आधार पर उक्त निर्णय संभवतः लिया जा सकता है। टिप्पण का उद्देश्य मामलों को नियमानुसार निपटाना है।

टिप्पण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-सहायक स्तर पर टिप्पण तथा अधिकारी स्तर पर टिप्पण।

कार्यालय में टिप्पण कार्य अधिकतर सहायक स्तर पर होता है। इसे आरंभिक टिप्पण या मुख्य टिप्पण कहते हैं जिसमें सहायक विचाराधीन मामले का संक्षिप्त ब्योरा देते हुए उसका विवेचन करता है।

टिप्पण लिखने की प्रक्रिया –

  1. टिप्पण में सबसे पहले मूल पत्र या पावती में दिए गए विवरण या तथ्य का सार दिया जाता है। फिर निहित प्रस्ताव की व्याख्या की जाती है और संबंधित नियमों-विनियमों का हवाला देते हुए अपनी राय दी जाती है।
  2. टिप्पणी लिखने के बाद सहायक अधिकारी दाहिनी ओर अपने हस्ताक्षर कर उसे अपने अधिकारी के सम्मुख प्रस्तुत करता है। जिस अधिकारी को प्रस्तुत किया जाना है उसका पदनाम वहाँ बाईं ओर लिखा जाता है।
  3. टिप्पणी लिखने से पूर्व सहायक के लिए संबंधित विषय को समझना बहुत आवश्यक होता है।
  4. टिप्पणी अपने आप में पूर्ण एवं स्पष्ट होनी चाहिए। इसमें असली मुद्दे पर अधिक बल देना चाहिए।
  5. टिप्पणी संक्षिप्त, विषय-संगत, तर्कसंगत और क्रमबद्ध होनी चाहिए।
  6. टिप्पणकार को अपने विचार संतुलित एवं शिष्ट भाषा में देने चाहिए। इसमें व्यक्तिगत आक्षेप, उपदेश या पूर्वाग्रहों के लिए कोई स्थान नहीं होता।
  7. टिप्पणी सदैव अन्य पुरुष में लिखी जाती है।

उदाहरण

मुख्य टिप्पण (नोटिंग)

यह टिप्पणी मुंबई स्थित क्षेत्रीय कार्यालय के निदेशक के उस पत्र से संबंधित है जिसकी फा. संख्या मुंबई/का./5/20XX जो दिनांक 15 मार्च, 20XX को भेजी गई है। पत्र में निदेशक ने मोबाइल फ़ोन के मासिक व्यय पर लगाई गई सीमा को दो हज़ार रुपए से छह हज़ार रुपए तक बढ़ाए जाने का आग्रह किया गया है।

इस संदर्भ में महानिदेशालय दवारा दिनांक 23 नवंबर, 20… को जारी परिपत्र पर ध्यान देना आवश्यक है जो इस फाइल की पृष्ठ संख्या 12 पर है। इस परिपत्र में खर्च की सीमा दो हज़ार रुपए निर्धारित कर दी गई है और किसी भी परिस्थिति में किसी प्रकार की छूट का प्रावधान नहीं है।

इस सिलसिले में कृपया इस फाइल में इसी विषय पर की गई पहले की टिप्पणी को देखें जो पृष्ठ संख्या 8/टिप्पण पर है। टिप्पणी को पढ़ने से स्पष्ट है कि खर्च की सीमा का निर्धारण सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद सोच-समझकर लिया गया है।

यह भी विचारणीय है कि खर्च की सीमा बोर्ड की स्वीकृति से निर्धारित हुई है और बिना बोर्ड की अनुमति के इसमें किसी भी प्रकार का बदलाव संभव नहीं है।
CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र 4

आनुषंगिक टिप्पणी –

सहायक, आरंभिक या मुख्य टिप्पणी को जब संबंधित अधिकारी के पास भेजता है तो वह अधिकारी टिप्पणी पढ़ने के बाद नीचे मंतव्य लिखता है। इसे आनुषंगिक टिप्पणी कहते हैं और यह क्रिया आनुषंगिक टिप्पणी कहलाती है। अगर अधिकारी अपने अधीनस्थ की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत है तो इस प्रकार की टिप्पणी की आवश्यकता नहीं होती। अधिकारी अधीनस्थ की टिप्पणी के नीचे या तो केवल हस्ताक्षर भर करता है या ‘मैं उपर्युक्त टिप्पणी से सहमत हूँ’, लिखता है।

अगर अधिकारी अपने अधीनस्थ की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत है मगर उसे और सशक्त एवं तर्कसंगत बनाने के लिए अपनी ओर से भी कुछ जोड़ना चाहता है तो वह अपना मंतव्य आनुषंगिक टिप्पणी के रूप में दर्ज कर देता है। यदि अधिकारी पूर्णत: असहमत है या आंशिक रूप से सहमत है तो वह अपने तर्क और कारणों के साथ अपनी आनुषंगिक टिप्पणी करता है।

अधिकारी को अधीनस्थ की टिप्पणी को काटने, बदलने या हटाने का अधिकार नहीं है। वह केवल अपनी सहमति, आंशिक सहमति या असहमति व्यक्त कर सकता है।

आनुषंगिक टिप्पणी प्रायः संक्षिप्त होती है लेकिन असहमति की स्थिति में कई बार इस प्रकार की टिप्पणी बड़ी भी हो सकती है।

उदाहरण

मैं ऊपर लिखी टिप्पणी से सहमत हूँ, साथ ही इस ओर भी ध्यान दिलाना चाहूँगा कि मुंबई कार्यालय के निदेशक पिछले छह महीने से निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करते रहे हैं, जो परिपत्र का उल्लंघन है। चूंकि परिपत्र में किसी प्रकार की छूट का प्रावधान नहीं है। अत: अतिरिक्त राशि निदेशक द्वारा देय होनी चाहिए। यह राशि निदेशक के वेतन से काटी जा सकती है।
CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र 5

अनुस्मारक –

  • जब किसी पत्र, ज्ञापन इत्यादि का उत्तर समय पर प्राप्त नहीं होता तो याद दिलाने के लिए ‘अनुस्मारक’ भेजा जाता है। इसे ‘स्मरण पत्र’ भी कहते हैं।
  • इसका प्रारूप औपचारिक पत्र की तरह ही होता है मगर आकार छोटा होता है।
  • अनुस्मारक के शुरू में पूर्व पत्र का हवाला दिया जाता है।
  • जब एक से अधिक अनुस्मारक भेजे जाते हैं, तो पहले अनुस्मारक को ‘अनुस्मारक-1′, दूसरे ‘अनुस्मारक’, तीसरे को ‘अनुस्मारक-3’ इत्यादि लिखते हैं।

उदाहरण

अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
क्षेत्रीय कार्यालय : मुंबई ।

CBSE Class 12 Hindi कार्यालयी पत्र 6

सेवा में
महानिदेशक
अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान,

तिलक मार्ग, नई दिल्ली-110001
विषय : मोबाइल फ़ोन पर होने वाले व्यय के लिए निर्धारित सीमा

महोदय

कृपया उपर्युक्त विषय पर इस कार्यालय द्वारा भेजे गए समसंख्यक पत्र का स्मरण करें जो 15 मार्च, 20xx को भेजा गया था।
निवेदन है कि मोबाइल फ़ोन की मासिक व्यय सीमा को बढ़ाने संबंधी इस कार्यालय के अनुरोध पर विचार कर कृपया आवश्यक स्वीकृति जारी की जाए।

भवदीय
निदेशक
(राकेश कुमार)

टिप्पण अथवा टिप्पणी

यह अपने स्वरूप में आरंभिक या मुख्य टिप्पणी से काफ़ी मिलती है। चूँकि यह टिप्पणी फाइल के ऊपर लिखकर स्वतंत्र रूप से भेजी जाती है। अतः इसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि यह अपने आप में संपूर्ण हो और केवल इस टिप्पणी को पढ़ लेने भर से पूरा मसला समझ में आ जाए। यदि आवश्यक हो तो संदर्भ के लिए किसी पिछली टिप्पणी, पत्र, ज्ञापन इत्यादि को संलग्नक के रूप में टिप्पणी के साथ लगाया जा सकता है।

बोर्ड के पास भेजी जाने वाली स्वतः स्पष्ट टिप्पणी किसी मसले पर बोर्ड की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए होती है। इसके लिए प्रारंभ में मसले की पृष्ठभूमि दी जाती है और उसके विभिन्न पहलुओं का विवेचन किया जाता है। इसके बाद स्वीकृति क्यों दी जानी चाहिए उसके समर्थन में तर्क दिए जाते हैं। अंत में स्वीकृति प्रदान किए जाने का अनुरोध होता है।

उदाहरण

अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति बोर्ड की पचपनवीं बैठक के विचारार्थ प्रस्तुत टिप्पणी विषय-मोबाइल फ़ोन के लिए निर्धारित व्यय सीमा।

बोर्ड ने 12 नवंबर, 20XX को हुई अपनी तैंतालीसवीं बैठक में निर्णय लिया था कि विभिन्न क्षेत्रीय कार्यालयों के निदेशकों को कार्यालय द्वारा प्रदान मोबाइल फ़ोन पर किए जाने वाले खर्च की सीमा दो हज़ार रुपए प्रतिमाह हो (बैठक के कार्यवृत्त का संबंधित अंश संलग्न है)।

बोर्ड के निर्णय का पालन करते हुए महानिदेशालय ने इस संबंध में 23 नवंबर, 20XX को एक परिपत्र जारी किया था। जिसकी एक प्रति संलग्न है।
संस्थान के मुंबई स्थित क्षेत्रीय कार्यालय में ऐसा महसूस किया जा रहा है कि यह सीमा कार्यालय के दक्ष, सुचारु और प्रभावी संचालन में बाधक बन रही है।

निदेशक ने सूचित किया है कि कार्यालय की गतिविधियों में निरंतर वृद्धि हुई है। जिसकी वजह से निदेशक को मोबाइल फ़ोन का अत्यधिक प्रयोग करना पड़ रहा है। उन्हें विभिन्न विशेषज्ञों, कलाकारों, साहित्यकारों, प्रायोजकों, वरिष्ठ अधिकारियों, सहकर्मियों और अन्य कर्मियों के साथ निरंतर संपर्क में रहना पड़ता है।

कार्यालय की गतिविधियों में जो बढ़ोतरी हुई है उससे कार्यालय का राजस्व भी बढ़ा है। ऐसे में यह आवश्यक प्रतीत होता है कि केंद्र के अनुरोध को स्वीकार करते हुए उनकी मासिक व्यय सीमा दो हज़ार रुपए से बढ़ा कर छह हज़ार रुपए कर दी जाए। बोर्ड के विचारार्थ प्रस्तुत।

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अनुच्छेद लेखन | class 12th | Hindi कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन ncert solution

Class 12 Hindi अनुच्छेद लेखन

हिंदी साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधाओं में एक है-अनुच्छेद लेखन। यह अपने मन के भाव-विचार अभिव्यक्त करने की विशिष्ट विधा है जिसके माध्यम से हम संबंधित विचारों को ‘गागर में सागर’ की तरह व्यक्त करते हैं। अनुच्छेद निबंध की तुलना में आकार में छोटा होता है, पर यह अपने में पूर्णता समाहित किए रहता है। इस विधा में बात को घुमा-फिराकर कहने के बजाए सीधे-सीधे मुख्य बिंदु पर आ जाते हैं। इसमें भूमिका और उपसंहार दोनों को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता है। इसी तरह कहावतों, सूक्तियों और अनावश्यक बातों से भी बचने का प्रयास किया जाता है। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनावश्यक बातों को छोड़ते-छोड़ते हम मुख्य अंश को ही न छोड़ जाए और विषय आधा-अधूरा-सा लगने लगे।

अनुच्छेद लेखन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –

  • विषय का आरंभ मुख्य विषय से करना चाहिए।
  • वाक्य छोटे-छोटे, सरल तथा परस्पर संबद्ध होने चाहिए।
  • भाषा में जटिलता नहीं होनी चाहिए।
  • पुनरुक्ति दोष से बचने का प्रयास करना चाहिए।
  • विषय के संबंध में क्या, क्यों, कैसे प्रश्नों के उत्तर इसी क्रम में देकर लिखने का प्रयास करना चाहिए।

निबंध की भाँति ही अनुच्छेदों को मुख्यतया चार भागों में विभाजित कर सकते हैं –

  1. वर्णनात्मक अनुच्छेद
  2. भावात्मक अनुच्छेद
  3. विचारात्मक अनुच्छेद
  4. विवरणात्मक अनुच्छेद

उदाहरण

मिट्टी तेरे रूप अनेक

संकेत बिंदु –

  • सामान्य धारणा
  • कल्याणकारी रूप
  • मानव शरीर की रचना के लिए आवश्यक
  • बच्चों के लिए मिट्टी।
  • जीवन का आधार

प्रायः जब किसी वस्तु को अत्यंत तुच्छ बताना होता है तो लोग कह उठते हैं कि यह तो मिट्टी के भाव मिल जाएगी। लोगों की धारणा मिट्टी के प्रति भले ही ऐसी हो परंतु तनिक-सी गहराई से विचार करने पर यह धारणा गलत साबित हो जाती है। समस्त जीवधारियों यहाँ तक पेड़-पौधों को भी यही मिट्टी शरण देती है। आध्यात्मवादियों का तो यहाँ तक मानना है कि मानव शरीर निर्माण के लिए जिन तत्वों का प्रयोग हुआ है उनमें मिट्टी भी एक है।

जब तक शरीर ज़िंदा रहता है तब तक मिट्टी उसे शांति और चैन देती है और फिर मृत शरीर को अपनी गोद में समाहित कर लेती है। पृथ्वी पर जीवन का आधार यही मिट्टी है, जिसमें नाना प्रकार के फल, फ़सल और अन्य खाद्य वस्तुएँ पैदा होती हैं, जिसे खाकर मनुष्य एवं अन्य प्राणी जीवित एवं हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। यह मिट्टी कीड़े-मकोड़े और छोटे जीवों का घर भी है। यह मिट्टी विविध रूपों में मनुष्य और अन्य जीवों का कल्याण करती है। विभिन्न देवालयों को नवजीवन से भरकर कल्याणकारी रूप दिखाती है। मिट्टी का बच्चों से तो अटूट संबंध है। इसी मिट्टी में लोटकर, खेल-कूदकर वे बड़े होते हैं और बलिष्ठ बनते हैं। मिट्टी के खिलौनों से खेलकर वे अपना मनोरंजन करते हैं। वास्तव में मिट्टी हमारे लिए विविध रूपों में नाना ढंग से उपयोगी है।

आज की आवश्यकता-संयुक्त परिवार

संकेत बिंदु –

  • एकल परिवार का बढ़ता चलन
  • एकल परिवार और वर्तमान समाज
  • संयुक्त परिवार की
  • आवश्यकता
  • बुजुर्गों की देखभाल
  • एकाकीपन को जगह नहीं।

समय सतत परिवर्तनशील है। इसका उदाहरण है-प्राचीनकाल से चली आ रही संयुक्त परिवार की परिपाटी का टूटना और एकल परिवार का चलन बढ़ते जाना। शहरीकरण, बढ़ती महँगाई, नौकरी की चाहत, उच्च शिक्षा, विदेशों में बसने की प्रवृत्ति के कारण एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके अलावा बढ़ती स्वार्थ वृत्ति भी बराबर की जिम्मेदार है। इन एकल परिवारों के कारण आज बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, माता-पिता के लिए दुष्कर होता जाता है। जिस एकल परिवार में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते हों, वहाँ यह और भी दुष्कर बन जाता है। आज समाज में बढ़ते क्रेच और उनमें पलते बच्चे इसका जीता जागता उदाहरण हैं।

प्राचीनकाल में यह काम संयुक्त परिवार में दादा-दादी, चाचा-चाची, ताई-बुआ इतनी सरलता से कर देती थी कि बच्चे कब बड़े हो गए पता ही नहीं चल पाता था। संयुक्त परिवार हर काल में समाज की ज़रूरत थे और रहेंगे। भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार और भी महत्त्वपूर्ण हैं। बच्चों और युवा पीढ़ी को रिश्तों का ज्ञान संयुक्त परिवार में ही हो पाता है। यही सामूहिकता की भावना, मिल-जुलकर काम करने की भावना पनपती और फलती-फूलती है।

एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आने की भावना संयुक्त परिवार में ही पनपती है। संयुक्त परिवार बुजुर्गं सदस्यों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। परिवार के अन्य सदस्य उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं जिससे उन्हें बुढ़ापा कष्टकारी नहीं लगता है। संयुक्त परिवार व्यक्ति को अकेलेपन का शिकार नहीं होने देते हैं। आपसी सुख-दुख बाँटने, हँसी-मजाक करने के साथी संयुक्त परिवार स्वत: उपलब्ध कराते हैं। इससे लोग स्वस्थ, प्रसन्न और हँसमुख रहते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग-मनुष्यता के लिए खतरा

संकेत बिंदु –

  • ग्लोबल वार्मिंग क्या है?
  • समस्या का समाधान।
  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण
  • ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव

गत एक दशक में जिस समस्या ने मनुष्य का ध्यान अपनी ओर खींचा है, वह है-ग्लोबल वार्मिंग। ग्लोबल वार्मिंग का सीधा-सा अर्थ है है-धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि। यद्यपि यह समस्या विकसित देशों के कारण बढ़ी है परंतु इसका नुकसान सारी धरती को भुगतना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारणों के मूल हैं—मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताएँ और उसकी स्वार्थवृत्ति।

मनुष्य प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में शामिल होकर पर्यावरण को अंधाधुंध क्षति पहँचा रहा है। कल-कारखानों की स्थापना, नई बस्तियों को बसाने, सड़कों को चौड़ा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की गई है। इससे पर्यावरण को दोतरफा नुकसान हुआ है तो इन गैसों को अपनाने वाले पेड़-पौधों की कमी से आक्सीजन, वर्षा की मात्रा और हरियाली में कमी आई है। इस कारण वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक ओर धरती की सुरक्षा कवच ओजोन में छेद हुआ है तो दूसरी ओर पर्यावरण असंतुलित हुआ है। असमय वर्षा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सरदी-गरमी की ऋतुओं में भारी बदलाव आना ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रभाव है। इससे ध्रुवों पर जमी बरफ़ पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है जिससे एक दिन प्राणियों के विनाश का खतरा होगा, अधिकाधिक पौधे लगाकर उनकी देख-भाल करनी चाहिए तथा प्रकृति से छेड़छाड़ बंद कर देना चाहिए। इसके अलावा जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करना होगा। आइए इसे आज से शुरू कर देते हैं, क्योंकि कल तक तो बड़ी देर हो जाएगी।

नर हो न निराश करो मन को

संकेत बिंदु –

  • आत्मविश्वास और सफलता
  • आशा से संघर्ष में विजय
  • कुछ भी असंभव नहीं
  • महापुरुषों की सफलता का आधार।

मानव जीवन को संग्राम की संज्ञा से विभूषित किया है। इस जीवन संग्राम में उसे कभी सुख मिलता है तो कभी दुख। सुख मन में आशा एवं प्रसन्नता का संचार करते हैं तो दुख उसे निराशा एवं शोक के सागर में डुबो देते हैं। इसी समय व्यक्ति के आत्मविश्वास की परीक्षा होती है। जो व्यक्ति इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना विश्वास नहीं खोता है और आशावादी बनकर संघर्ष करता है वही सफलता प्राप्त करता है। आत्मविश्वास के बिना सफलता की कामना करना दिवास्वप्न देखने के समान है।

मनुष्य के मन में यदि आशावादिता नहीं है और वह निराश मन से संघर्ष करता भी है तो उसकी सफलता में संदेह बना रहता है। कहा भी गया है कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। मन में जीत के प्रति हमेशा आशावादी बने रहना जीत का आधार बन जाता है। यदि मन में आशा संघर्ष करने की इच्छा और कर्मठता हो तो मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी उसी प्रकार विजय प्राप्त करता है जैसा नेपोलियन बोनापार्ट ने।

इसी प्रकार निराशा, काम में हमें मन नहीं लगाने देती है और आधे-अधूरे मन से किया गया कार्य कभी सफल नहीं होता है। संसार के महापुरुषों ने आत्मविश्वास, दृढनिश्चय, संघर्षशीलता के बल पर आशावादी बनकर सफलता प्राप्त की। अब्राहम लिंकन हों या एडिसन, महात्मा गांधी हों या सरदार पटेल सभी ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशावान रहे और अपना-अपना लक्ष्य पाने में सफल रहे। सैनिकों के मन में यदि एक पल के लिए भी निराशा का भाव आ जाए तो देश को गुलाम बनने में देर न लगेगी। मनुष्य को सफलता पाने के लिए सदैव आशावादी बने रहना चाहिए।

सबको भाए मधुर वाणी

संकेत बिंदु –

  • मधुर वाणी सबको प्रिय
  • मधुर वाणी एक औषधि
  • मधुरवाणी का प्रभाव
  • मधुर वाणी की प्रासंगिकता।

मधुर वाणी की महत्ता प्रकट करने वाला एक दोहा है –

कोयल काको दुख हरे, कागा काको देय।
मीठे वचन सुनाए के, जग अपनो करि लेय।।

यूँ तो कोयल और कौआ दोनों ही देखने में एक-से होते हैं परंतु वाणी के कारण दोनों में जमीन आसमान का अंतर हो जाता है। दोनों पक्षी किसी को न कुछ देते हैं और न कुछ लेते हैं परंतु कोयल मधुर वाणी से जग को अपना बना लेती है और कौआ अपनी कर्कश वाणी के कारण भगाया जाता है। कोयल की मधुर वाणी कर्ण प्रिय लगती है और उसे सब सुनने को इच्छुक रहते हैं। यही स्थिति समाज की है। समाज में वे लोग सभी के प्रिय बन जाते हैं जो मधुर बोलते हैं जबकि कटु बोलने वालों से सभी बचकर रहना चाहते हैं।

मधुर वाणी औषधि के समान होती है जो सुनने वालों के तन और मन को शीतलकर देती है। इससे लोगों को सुखानुभूति होती है। इसके विपरीत कटुवाणी उस तीखे तीर की भाँति होती है जो कानों के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश करती है और पूरे शरीर को कष्ट पहुँचाती है। कड़वी बोली जहाँ लोगों को ज़ख्म देती है वहीं मधुर वाणी वर्षों से हुए मन के घाव को भर देती है। मधुर वाणी किसी वरदान के समान होती है जो सुनने वाले को मित्र बना देती है। मधुर वाणी सुनकर शत्रु भी अपनी शत्रुता खो बैठते हैं।

इसके अलावा जो मधुर वाणी बोलते हैं उन्हें खुद को संतुष्टि और सुख की अनुभूति होती है। इससे व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावी एवं आकर्षक बन जाता है। इससे व्यक्ति के बिगड़े काम तक बन जाते हैं। कोई भी काल रहा हो मधुर वाणी का अपना विशेष महत्त्व रहा है। इस भागमभाग की जिंदगी में जब व्यक्ति कार्य के बोझ, दिखावा और भौतिक सुखों को एकत्रकर पाने की होड़ में तनावग्रस्त होता जा रहा है तब मधुर वाणी का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। हमें सदैव मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए।

बच्चों की शिक्षा में माता-पिता की भूमिका

संकेत बिंदु –

  • शिक्षा और माता-पिता
  • शिक्षा की महत्ता
  • उत्तरदायित्व
  • शिक्षाविहीन नर पशु समान।

संस्कृत में एक श्लोक है –

माता शत्रु पिता वैरी, येन न बालो पाठिता।
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये वको यथा।।

अर्थात वे माता-पिता बच्चे के लिए शत्रु के समान होते हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं देते। ये बच्चे शिक्षितों की सभा में उसी तरह होते हैं जैसे हंसों के बीच बगुला। एक बच्चे के लिए परिवार प्रथम पाठशाला होती है और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक। माता-पिता यहाँ अभी अपनी भूमिका का उचित निर्वाह तो करते हैं पर जब बच्चा विद्यालय जाने लायक होता है तब कुछ मातापिता उनके शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान नहीं देते हैं और अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। ऐसे में बालक जीवन भर के लिए निरक्षर हो जाता है। मानव जीवन में शिक्षा की विशेष महत्ता एवं उपयोगिता है। शिक्षा के बिना जीवन अंधकारमय हो जाता है।

कभी वह साहूकारों के चंगुल में फँसता है तो कभी लोभी दुकानदारों के। उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। वह समाचार पत्र, पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि का लाभ नहीं उठा पाता है। उसे कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ऐसे में माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ ही उनकी शिक्षा की भली प्रकार व्यवस्था करें। कहा गया है कि विद्याविहीन नर की स्थिति पशुओं जैसी होती है, बस वह घास नहीं खाता है। शिक्षा से ही मानव सभ्य इनसान बनता है। हमें भूलकर भी शिक्षा से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।

जीवन में सरसता लाते त्योहार

संकेत बिंदु –

  • त्योहारों का देश भारत
  • नीरसता भगाते त्योहार
  • त्योहारों के लाभ
  • त्योहारों पर महँगाई का असर।

भारतवासी त्योहार प्रिय होते हैं। यहाँ त्योहार ऋतुओं और भारतीय महीनों के आधार पर मनाए जाते हैं। साल के बारह महीनों में शायद ही कोई ऐसा महीना हो जब त्योहार न मनाया जाता हो। चैत महीने में राम नवमी मनाने से त्योहारों का जो सिलसिला शुरू होता है, वह बैसाखी, गंगा दशहरा मनाने के क्रम में नाग पंचमी, तीज, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, दशहरा, दीपावली, क्रिसमस, लोहिड़ी से आगे बढ़कर वसंत पंचमी तथा होली पर ही आकर रुकती है। इसी बीच पोंगल, ईद जैसे त्योहार भी अपने समय पर मनाए जाते हैं।

त्योहार थके हारे मनुष्य के मन में उत्साह का संचार करते हैं और खुशी एवं उल्लास से भर देते हैं। वे लोगों को बँधी-बँधाई जिंदगी को अलग ही ढर्रे पर ले जाते हैं। इससे जीवन की ऊब एवं नीरसता गायब हो जाती है। त्योहार मनुष्य को मेल-मिलाप का अवसर देते हैं। इससे लोगों के बीच की कटुता दूर होती है। त्योहार लोगों में सहयोग और मिल-जुलकर कर रहने की प्रेरणा देते हैं। एकता बढ़ाने में त्योहारों का विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय में त्योहार अपना स्वरूप खोते जा रहे हैं। इनको महँगाई ने बुरी तरह से प्रभावित किया है। इसके अलावा त्योहारों पर बाज़ार का असर पड़ा है। अब प्रायः बाज़ार में बिकने वाले सामानों की मदद से त्योहारों को जैसे-तैसे मना लिया जाता है। इसका कारण लोगों की व्यस्तता और समय की कमी है। त्योहार हमारी संस्कृति के अंग हैं। हमें त्योहारों को मिल-जुलकर हर्षोल्लास से मनाना चाहिए।

जीना मुश्किल करती महँगाई
अथवा
दिनोंदिन बढ़ती महँगाई

संकेत बिंदु –

  • महँगाई और आम आदमी पर प्रभाव
  • कारण
  • महँगाई रोकने के उपाय
  • सरकार के कर्तव्य।

महँगाई उस समस्या का नाम है, जो कभी थमने का नाम नहीं लेती है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के साथ ही गरीब वर्ग को जिस समस्या ने सबसे ज़्यादा त्रस्त किया है वह महँगाई ही है। समय बीतने के साथ ही वस्तुओं का मूल्य निरंतर बढ़ते जाना महँगाई कहलाता है। इसके कारण वस्तुएँ आम आदमी की क्रयशक्ति से बाहर होती जाती हैं और ऐसा व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ तक पूरा नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति में कई बार व्यक्ति को भूखे पेट सोना पड़ता है।

महँगाई के कारणों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसे बढ़ाने में मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही कारण जिम्मेदार हैं। मानवीय कारणों में लोगों की स्वार्थवृत्ति, लालच अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति, जमाखोरी और असंतोष की भावना है। इसके अलावा त्याग जैसे मानवीय मूल्यों की कमी भी इसे बढ़ाने में आग में घी का काम करती है। सूखा, बाढ़ असमय वर्षा, आँधी, तूफ़ान, ओलावृष्टि के कारण जब फ़सलें खराब होती हैं तो उसका असर उत्पादन पर पड़ता है।

इससे एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति पैदा होती है और महँगाई बढ़ती है। महँगाई रोकने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों का उदय होना आवश्यक है ताकि वे अपनी आवश्यकतानुसार ही वस्तुएँ खरीदें। इसे रोकने के लिए जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाना आवश्यक है। महँगाई रोकने के लिए सरकारी प्रयास भी अत्यावश्यक है। सरकार को चाहिए कि वह आयात-निर्यात नीति की समीक्षा करे तथा जमाखोरों पर कड़ी कार्यवाही करें और आवश्यक वस्तुओं का वितरण रियायती मूल्य पर सरकारी दुकानों के माध्यम से करें।

समाचार-पत्र एक : लाभ अनेक
अथवा
समाचार-पत्र : ज्ञान और मनोरंजन का साधन

संकेत बिंदु –

  • जिज्ञासा पूर्ति का सस्ता एवं सुलभ साधन
  • रोज़गार का साधन
  • समाचार पत्रों के प्रकार
  • जानकारी के साधन।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अपने समाज और आसपास के अलावा देश-दुनिया की जानकारी के लिए जिज्ञासु रहता है। उसकी इस जिज्ञासा की पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है-समाचार-पत्र, जिसमें देश-विदेश तक के समाचार आवश्यक चित्रों के साथ छपे होते हैं। सुबह हुई नहीं कि शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में समाचार पत्र विक्रेता घर-घर तक इनको पहुँचाने में जुट जाते हैं। कुछ लोग तो सोए होते हैं और समाचार-पत्र दरवाज़े पर आ चुका होता है। अब समाचार पत्र अत्यंत सस्ता और सर्वसुलभ बन गया है।

समाचार पत्रों के कारण लाखों लोगों को रोजगार मिला है। इनकी छपाई, ढुलाई, लादने-उतारने में लाखों लगे रहते हैं तो एजेंट, हॉकर और दुकानदार भी इनसे अपनी जीविका चला रहे हैं। इतना ही नहीं पुराने समाचार पत्रों से लिफ़ाफ़े बनाकर एक वर्ग अपनी आजीविका चलाता है। छपने की अवधि पर समाचार पत्र कई प्रकार के होते हैं।

प्रतिदिन छपने वाले समाचार पत्रों को दैनिक, सप्ताह में एक बार छपने वाले समाचार पत्रों को साप्ताहिक, पंद्रह दिन में छपने वाले समाचार पत्र को पाक्षिक तथा माह में एक बार छपने वाले को मासिक समाचार पत्र कहते हैं। अब तो कुछ शहरों में शाम को भी समाचार पत्र छापे जाने लगे हैं। समाचार पत्र हमें देशदुनिया के समाचारों, खेल की जानकारी मौसम तथा बाज़ार संबंधी जानकारियों के अलावा इसमें छपे विज्ञापन भी भाँति-भाँति की जानकारी देते हैं।

सबसे प्यारा देश हमारा
अथवा
विश्व की शान-भारत

संकेत बिंदु –

  • भौगोलिक स्थिति
  • प्राकृतिक सौंदर्य
  • विविधता में एकता की भावना
  • अत्यंत प्राचीन संस्कृति।

सौभाग्य से दुनिया के जिस भू-भाग पर मुझे जन्म लेने का अवसर मिला दुनिया उसे भारत के नाम से जानती है। हमारा देश एशिया महाद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित है। यह देश तीन ओर समुद्र से घिरा है। इसके उत्तर में पर्वतराज हिमालय हैं, जिसके चरण सागर पखारता है। इसके पश्चिम में अरब सागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी है। चीन, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि इसके पड़ोसी देश हैं। हमारे देश का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। हिमालय की बरफ़ से ढंकी सफ़ेद चोटियाँ भारत के सिर पर रखे मुकुट में जड़े हीरे-सी प्रतीत होती हैं। यहाँ बहने वाली गंगा-यमुना, घाघरा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ इसके सीने पर धवल हार जैसी लगती हैं।

चारों ओर लहराती हरी-भरी फ़सलें और वृक्ष इसका परिधान प्रतीत होते हैं। यहाँ के जंगलों में हरियाली का साम्राज्य है। भारत में नाना प्रकार की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यहाँ विभिन्न जाति-धर्म के अनेक भाषा-भाषी रहते है। यहाँ के परिधान, त्योहार मनाने के ढंग और खान-पान व रहन-सहन में खूब विविधता मिलती है। यहाँ की जलवायु में भी विविधता का बोलबाला है, फिर भी इस विविधता के मूल में एकता छिपी है। देश पर कोई संकट आते ही सभी भारतीय एकजुट हो जाते हैं।

हमारे देश की संस्कृति अत्यंत प्राचीन और समृद्धिशाली है। परस्पर एकता, प्रेम, सहयोग और सहभाव से रहना भारतीयों की विशेषता रही है। ‘अतिथि देवो भवः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना भारतीय संस्कृति का आधार है। हमारा देश भारत विश्व की शान है जो अपनी अलग पहचान रखता है। हमें अपने देश पर गर्व है।

सुरक्षा का आवरण : ओजोन
अथवा
पृथ्वी का रक्षक : अदृश्य ओजोन

संकेत बिंदु –

  • ओजोन परत क्या है?
  • मनुष्य की प्रगति और ओजोन परत
  • ओजोन नष्ट होने का कारण
  • ओजोन बचाएँ जीवन बचाएँ।

मनुष्य और प्रकृति का अनादिकाल से रिश्ता है। प्रकृति ने मनुष्य की सुरक्षा के लिए अनेक साधन प्रदान किए हैं। इनमें से एक है-ओजोन की परत। पृथ्वी पर जीवन के लिए जो भी अनुकूल परिस्थितियाँ हैं, उन्हें बनाए और बचाएँ रखने में ओजोन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पृथ्वी पर चारों ओर वायुमंडल का उसी तरह रक्षा करता है जिस तरह बरसात से हमें छाते बचाते हैं। इसे पृथ्वी का रक्षा कवच भी कहा जाता है। मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्य होता गया त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गईं। बढ़ती जनसंख्या की भोजन और आवास संबंधी आवश्यकता के लिए उसने वनों की अंधाधुंध कटाई की जिससे धरती पर कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ी। कुछ और विषाक्त गैसों से मिलकर कार्बन डाईऑक्साइड ने इस परत में छेद कर दिया जिससे सूर्य की पराबैगनी किरणें धरती पर आने लगीं और त्वचा के कैंसर के साथ अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ गया। इन पराबैगनी किरणों को धरती पर आने से ओजोन की परत रोकती है। ओजोन की परत नष्ट करने में विभिन्न प्रशीतक यंत्रों में प्रयोग की जाने वाली क्लोरो प्लोरो कार्बन का भी हाथ है। यदि पृथ्वी पर जीवन बनाए रखना है तो हमें ओजोन परत को बचाना होगा। इसके लिए धरती पर अधिकाधिक पेड़ लगाना होगा तथा कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन कम करना होगा।

भ्रष्टाचार का दानव
अथवा
भ्रष्टाचार से देश को मुक्त बनाएँ

संकेत बिंदु –

  • भ्रष्टाचार क्या है?
  • देश के लिए घातक
  • भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव
  • लोगों की भूमिका।

भ्रष्टाचार दो शब्दों ‘भ्रष्ट’ और ‘आचार’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-नैतिक एवं मर्यादापूर्ण आचारण से हटकर आचरण करना। इस तरह का आचरण जब सत्ता में बैठे लोगों या कार्यालयों के अधिकारियों द्वारा किया जाता है तब जन साधारण के लिए समस्या उत्पन्न हो जाती है। पक्षपात करना, भाई-भतीजावाद को प्रश्रय देना, रिश्वत माँगना, समय पर काम न करना, काम करने के बदले अनुचित माँग रख देना, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। भ्रष्टाचार समाज और देश के लिए घातक है।

दुर्भाग्य से आज हमारे समाज में इसकी जड़ें इतनी गहराई से जम चुकी हैं कि इसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं रह गया है। भ्रष्टाचार के कारण देश की मानमर्यादा कलंकित होती है। इसे किसी देश के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। भ्रष्टाचार के कारण ही आज रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी, चोरबाज़ारी, मिलावट, भाई-भतीजावाद, कमीशनखोरी आदि अपने चरम पर हैं। इससे समाज में विषमता बढ़ रही है। लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है और विकास का मार्ग अवरुद्ध होता जा रहा है।

इसके कारण सरकारी व्यवस्था एवं प्रशासन पंगु बन कर रह गए हैं। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों को प्रगाढ़ करना चाहिए। इसके लिए नैतिक शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। लोगों को अपने आप में त्याग एवं संतोष की भावना मज़बूत करनी होगी। यद्यपि सरकारी प्रयास भी इसे रोकने में कारगर सिद्ध होते हैं पर लोगों द्वारा अपनी आदतों में सुधार और लालच पर नियंत्रण करने से यह समस्या स्वतः कम हो जाएगी।

भारतीय नारी की दोहरी भूमिका
अथवा
कामकाजी स्त्रियों की चुनौतियाँ

संकेत बिंदु –

  • प्राचीनकाल में नारी की स्थिति
  • वर्तमान में नौकरी की आवश्यकता
  • दोहरी भूमिका और चुनौतियाँ
  • सुरक्षा और सोच में बदलाव की आवश्यकता।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह परिवर्तन समय के साथ स्वतः होता रहता है। मनुष्य भी इस बदलाव से अछूता नहीं है। प्राचीन काल में मनुष्य ने न इतना विकास किया था और न वह इतना सभ्य हो पाया था। तब उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं। ऐसे में पुरुष की कमाई से घर चल जाता था और नारी की भूमिका घर तक सीमित थी। उसे बाहर जाकर काम करने की आवश्यकता न थी। वर्तमान समय में मनुष्य की आवश्यकता इतनी बढ़ी हुई है कि इसे पूरा करने के लिए पुरुष की कमाई अपर्याप्त सिद्ध हो रही है और नारी को नौकरी के लिए घर से बाहर कदम बढ़ाना पड़ा। आज की नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लगभग हर क्षेत्र में काम करती दिखाई देती हैं।

आज की नारी दोहरी भूमिका का निर्वाह कर रही है। घर में उसे खाना पकाने, घर की सफ़ाई, बच्चों की देखभाल और उनकी शिक्षा का दायित्व है तो वह कार्यालयों के अलावा खेल, राजनीति साहित्य और कला आदि क्षेत्रों में उतनी ही कुशलता और तत्परता से कार्य कर रही है। वह दोनों जगह की ज़िम्मेदारियों की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकारती हुई आगे बढ़ रही है और दोहरी भूमिका का निर्वहन कर रही है। वर्तमान में नारी द्वारा घर से बाहर आकर काम करने पर सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होने लगी है। कुछ लोगों की सोच ऐसी बन गई है कि वे ऐसी स्त्रियों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी स्त्रियों को प्रायः कार्यालय में पुरुष सहकर्मियों तथा आते-जाते कुछ लोगों की कुदृष्टि का सामना करना पड़ता है। इसके लिए समाज को अपनी सोच में बदलाव लाने की आवश्यकता है।

बढ़ती जनसंख्या : प्रगति में बाधक
अथवा
समस्याओं की जड़ : बढ़ती जनसंख्या

संकेत बिंदु –

  • जनसंख्या वृद्धि बनी समस्या
  • संसाधनों पर असर
  • वृद्धि के कारण
  • जनसंख्या रोकने के उपाय।

किसी राष्ट्र की प्रगति के लिए जनसंख्या एक महत्त्वपूर्ण संसाधन होती है, पर जब यह एक सीमा से अधिक हो जाती है तब यह समस्या का रूप ले लेती है। जनसंख्या वृद्धि एक ओर स्वयं समस्या है तो दूसरी ओर यह अनेक समस्याओं की जननी भी है। यह परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति पर बुरा असर डालती है। जनसंख्या वृद्धि के साथ देश के विकास की स्थिति ‘ढाक के तीन पात वाली’ बनकर रह जाती है।

प्रकृति ने लोगों के लिए भूमि वन आदि जो संसाधन प्रदान किए हैं, जनाधिक्य के कारण वे कम पड़ने लगते हैं तब मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ शुरू कर देता है। वह अपनी बढ़ी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों का विनाश करता है। इससे प्राकृतिक असंतुलन का खतरा पैदा होता है जिससे नाना प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के लिए हम भारतीयों की सोच काफ़ी हद तक जिम्मेदार है। यहाँ की पुरुष प्रधान सोच के कारण घर में पुत्र जन्म आवश्यक माना जाता है।

भले ही एक पुत्र की चाहत में छह, सात लड़कियाँ क्यों न पैदा हो जाएँ पर पुत्र के बिना न तो लोग अपना जन्म सार्थक मानते हैं और न उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती दिखती है। इसके अलावा अशिक्षा, गरीबी और मनोरंजन के साधनों का अभाव भी जनसंख्या वृद्धि में योगदान देता है। जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए लोगों का इसके दुष्परिणामों से अवगत कराकर जन जागरूकता फैलाई जानी चाहिए। सरकार द्वारा परिवार नियोजन के साधनों का मुफ़्त वितरण किया जाना चाहिए तथा ‘जनसंख्या वृद्धि’ को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।

मोबाइल फ़ोन : सुखद व दुखद भी
अथवा
विज्ञान की अद्भुत खोज : मोबाइल फ़ोन

संकेत बिंदु –

  • विज्ञान की अद्भुत खोज
  • फ़ोनों की बदलती दुनिया में
  • संचार क्षेत्र में क्रांति
  • सस्ता और सुलभ साधन
  • लाभ और हानियाँ।

विज्ञान ने मानव जीवन को विविध रूपों में प्रभावित किया है। शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ विज्ञान ने हस्तक्षेप न किया हो। समय-समय पर हुए आश्चर्यजनक आविष्कारों ने मानव जीवन को बदलकर रख दिया है। विज्ञान की इन्हीं अद्भुत खोजों में एक है मोबाइल फ़ोन जिससे मनुष्य इतना प्रभावित हुआ कि आप हर किशोर ही नहीं हर आयु वर्ग के लोग इसका प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। वास्तव में मोबाइल फ़ोन इतना उपयोगी और सुविधापूर्ण साधन है कि हर व्यक्ति इसे अपने पास रखना चाहता है और इसका विभिन्न रूपों में प्रयोग भी कर रहा है। संचार की दुनिया में फ़ोन का आविष्कार एक क्रांति थी। तारों के माध्यम से जुड़े फ़ोन पर अपने प्रियजनों से बातें करना एक रोमांचक अनुभव था। शुरू में फ़ोन महँगे और कई उपकरणों का मेल हुआ करते थे। इन्हें लाना-ले-जाना संभव न था।

हमें बातें करने के लिए इनके पास जाना पड़ता था पर मोबाइल फ़ोन जेब में रखकर कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है। अब यह सर्वसुलभ भी बन गया है। वास्तव में मोबाइल फ़ोन का आविष्कार संचार के क्षेत्र में क्रांति से कम नहीं है। आज मोबाइल फ़ोन पर बातें करने के अलावा फ़ोटो खींचना, गणनाएँ करना, फाइलें सुरक्षित रखना जैसे बहुत से काम किए जा रहे हैं क्योंकि यह जेब का कंप्यूटर बन गया है। कुछ लोग इसका दुरुपयोग करने से नहीं चूकते हैं। असमय फ़ोन करके दूसरों को परेशान करना, अवांछित फ़ोटो खींचना जैसे कार्य करके इसका दुरुपयोग करते हैं। इसके कारण छात्रों की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ा है। इसका आवश्यकतानुरूप ही प्रयोग करना चाहिए।

सादा जीवन उच्च विचार
अथवा
मर्यादित जीवन का आधार : सादा जीवन उच्च विचार

संकेत बिंदु –

  • भारतीय संस्कृति और सादा जीवन उच्च विचार
  • महत्ता
  • महापुरुषों ने अपना सादा जीवन उच्च विचार
  • वर्तमान स्थिति।

भारतीय संस्कृति को समृद्धशाली और लोकप्रिय बनाने में जिन तत्त्वों का योगदान है उनमें एक है-सादा जीवन उच्च विचार। सादा जीवन उच्च विचार रहन-सहन की एक शैली है जिससे भारतीय ही नहीं विदेशी तक प्रभावित हुए हैं। प्राचीनकाल में हमारे देश के ऋषि मुनि भी इसी जीवन शैली को अपनाते थे। भारतीयों को प्राचीनकाल से ही सरल और सादगीपूर्ण जीवन पसंद रहा है। इनके आचरण में त्याग, दया, सहानुभूति, करुणा, स्नेह उदारता, परोपकार की भावना आदि गुण विद्यमान हैं।

मनुष्य के सादगीपूर्ण जीवन के लिए इन गुणों की प्रगाढ़ता आवश्यक है। भारतीयों का जीवन किसी तप से कम नहीं रहा है क्योंकि उनके विचारों में महानता और जीवन में सादगी रही है। प्राचीनकाल से ही यह नियम बना दिया गया था कि जीवन के आरंभिक 25 वर्ष को ब्रह्मचर्य जीवन के रूप में बिताया जाय। इस काल में बालक गुरुकुलों में रहकर सादगी और नियम का पाठ सीख जाता था। इनका जीवन ऐशो-आराम और विलासिता से कोसों दूर हुआ करता था।

यही बाद में भारतीयों के जीवन का आधार बन जाता था। महात्मा गांधी, सरदार पटेल आदि का जीवन सादगी का दूसरा नाम था। वे एक धोती में जिस सादगी से रहते थे वह दूसरों के लिए आदर्श बन गया। वे दूसरों के लिए अनुकरणीय बन गए। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भी सादगीपूर्ण जीवन बिताते थे। दुर्भाग्य से आज लोगों की सोच में बदलाव आ गया है। अब सादा जीवन जीने वालों को गरीबी और पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाने लगा है। अब लोगों की पहचान उनके कपड़ों से की जाने लगी है। लोग उपभोग को ही सुख मान बैठे हैं। सुख एकत्र करने की चाहत में अब जीवन तनावपूर्ण बनता जा रहा है।

सांप्रदायिकता का फैलता जहर
अथवा
मानवता के लिए घातक : सांप्रदायिकता का जहर

संकेत बिंदु –

  • सांप्रदायिकता-अर्थ एवं कारण
  • सांप्रदायिकता का जहर
  • सांप्रदायिकता की रोकथाम
  • हमारी भूमिका।

धर्म के बिगड़े एवं कट्टर रूप को सांप्रदायिकता की संज्ञा दी जा सकती है। ‘धारयति इति धर्मः’ अर्थात् जिसे धारण किया जाए वही धर्म है। मनुष्य अपने आचरण और जीवन को मर्यादित रखने के लिए धर्म का सहारा लिया करता था। बाद में धर्म ने एक जीवन पद्धति का रूप ले लिया। धर्म का यह रूप मनुष्य और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता था। धीरे-धीरे लोगों की सोच में बदलाव आया और धर्म का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर दिया। यहीं से धर्म में विकृति आई।

लोगों में अपने धर्म के प्रति कट्टरता आने लगी और सांप्रदायिकता अपना रंग दिखाने लगी। सांप्रदायिकता के वशीभूत होकर मनुष्य वाणी और कर्म से दूसरे धर्मावलंबियों की भावनाएँ भड़काता है जो व्यक्ति समाज और राष्ट्र सभी के लिए हानिकारक होती है। दुर्भाग्य से यह कार्य आज समाज के तथा कथित ठेकेदार और समाज सुधारक कहलाने वाले नेता खुले आम कर रहे हैं जिससे लोगों का आपसी विश्वास घट रहा है। इसके अलावा धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता, भाई-चारा, आपसी सौहार्द्र नष्ट हो रहा है तथा घृणा की भावना प्रगाढ़ हो रही है।

सांप्रदायिकता की रोक थाम के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना बंद किया जाना चाहिए। ऐसा करने वालों को कठोर दंड देना चाहिए। हमारे नेताओं को चाहिए कि वे वोट की राजनीति बंद करें और लोगों को जाति-धर्म के आधार पर न बाँटें। इस स्थिति में हमारा कर्तव्य यह होना चाहिए कि हम किसी के बहकावे में न आएँ और सद्भाव बनाए रखते हुए दूसरों की भावनाएँ और उनके धर्मों का भी आदर करें।

सुविधाओं का भंडार : कंप्यूटर
अथवा
कंप्यूटर : आज की आवश्यकता

संकेत बिंदु –

  • विज्ञान की अद्भुत खोज
  • बढ़ता प्रयोग
  • ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार
  • अधिक प्रयोग हानिकारक।

विज्ञान ने मनुष्य को जो अद्भुत उपकरण प्रदान किए हैं उनमें प्रमुख है-कंप्यूटर। कंप्यूटर ऐसा चमत्कारी उपकरण है जो हमारी कल्पना को साकार रूप दे रहा है। जिन बातों की कल्पना कभी मनुष्य किया करता था, उन्हें कंप्यूटर पूरा कर रहा है। यह बहूपयोगी उपकरण है जिससे मनुष्य की अनेकानेक समस्याएँ हल हुई हैं। कंप्यूटर में लगा उच्च तकनीकि वाला मस्तिष्क मनुष्य की सोच से भी अधिक तेजी से कार्य करता है जिससे मनुष्य का समय और भ्रम दोनों ही बचने लगा है।

आज कंप्यूटर का प्रयोग हर छोटे-बड़े सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों में किया जाने लगा है। इसका प्रयोग इतनी जगह पर किया जा रहा है कि इसे शब्दों में बाँधना कठिन है। पुस्तक प्रकाशन, बैंकों में खाते का रख-रखाव, फाइलों की सुरक्षा, रेल और वायुयान के टिकटों का आरक्षण, रोगियों के आपरेशन, बीमारियों की खोज, विभिन्न परियोजनाओं के निर्माण आदि में इसका प्रयोग अत्यावश्यक हो गया है। अब तो छात्र अपनी पढ़ाई और लोग अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए इसका प्रयोग आवश्यक मानने लगे हैं। कंप्यूटर पर अब पीडीएफ (PDF) फ़ॉर्म में पुस्तकें अपलोड कर दी जाती हैं। अब छात्रों को बस एक बटन दबाने की ज़रूरत है।

ज्ञान का संसार कंप्यूटर की स्क्रीन पर प्रकट हो जाता है। अब उन्हें न भारी भरकम बस्ता उठाने की ज़रूरत है और न मोटी-मोटी पुस्तकें। इसके अलावा कंप्यूटर पर गीत सुनने, फ़िल्में देखने और गेम खेलने की सुविधा भी उपलब्ध रहती है। कंप्यूटर का अत्यधिक प्रयोग हमें आलसी और मोटापे का शिकार बनाता है। इंटरनेट के जुड़ जाने से कुछ लोग इसका दुरुपयोग करते हैं। कंप्यूटर का अधिक प्रयोग हमारी आँखों के लिए हानिकारक है। हमें कंप्यूटर का प्रयोग सोच समझकर करना चाहिए।

मनोरंजन के साधनों की बढ़ती दुनिया
अथवा
मनोरंजन का बदलता स्वरूप

संकेत बिंदु –

  • मनोरंजन की आवश्यकता
  • मनोरंजन के प्राचीन साधन
  • मनोरंजन के साधनों में बदलाव
  • आधुनिक साधनों के लाभ-हानियाँ।

मनुष्य श्रमशील प्राणी है। वह आदिकाल से श्रम करता रहा है। इस श्रम के उपरांत थकान उत्पन्न होना स्वाभाविक है। पहले वह भोजन की तलाश एवं जंगली जानवरों से बचने के लिए श्रम करता था। बाद में उसकी आवश्यकता बढ़ीं अब वह मानसिक और शारीरिक श्रम करने लगा। श्रम की थकान उतारने एवं ऊर्जा प्राप्त करने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता महसूस हुई। इसके लिए उसने विभिन्न साधन अपनाए। प्राचीन काल में मनुष्य पशु-पक्षियों के माध्यम से अपना मनोरंजन करता था।

वह पक्षी और जानवर पालता था। उनकी बोलियों और उनकी लड़ाई से वह मनोरंजन करता था। इसके अलावा शिकार करना भी उसके मनोरंजन का साधन था। इसके बाद ज्यों-ज्यों समय में बदलाव आया, उसके मनोरंजन के साधन भी बढ़ते गए। मध्यकाल तक मनुष्य ने नृत्य और गीत का सहारा लेना शुरू किया। नाटक, गायन, वादन, नौटंकी, प्रहसन काव्य पाठ आदि के माध्यम से वह आनंदित होने लगा। खेल तो हर काल में मनोरंजन का साधन रहे हैं। आज मनोरंजन के साधनों में भरपूर वृद्धि हुई है।

अब तो मोबाइल फ़ोन पर गाने सुनना, फ़िल्म देखना, सिनेमा जाना, देशाटन करना, कंप्यूटर का उपयोग करना, चित्रकारी करना, सरकस देखना, पर्यटन स्थलों का भ्रमण करना उसके मनोरंजन में शामिल हो गया है। मनोरंजन के आधुनिक साधन घर बैठे बिठाए व्यक्ति का मनोरंजन तो करते हैं पर व्यक्ति में मोटापा, रक्तचाप की समस्या, आलस्य, एकांतप्रियता और समाज से अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न कर रहे हैं।

दहेज का दानव
अथवा
दहेज प्रथा : एक सामाजिक समस्या

संकेत बिंदु –

  • दहेज क्या है?
  • दहेज का बदलता स्वरूप
  • दहेज प्रथा कितनी घातक
  • दहेज प्रथा की रोकथाम।

भारतीय संस्कृति के मूल में छिपी है-कल्याण की भावना। इसी भावना के वशीभूत होकर प्राचीनकाल में कन्या का पिता अपनी बेटी की सुख-सुविधा हेतु कुछ वस्त्र-आभूषण और धन उसकी विदाई के समय स्वेच्छा से दिया करता था। कालांतर में यही रीति विकृत हो गई। इसी विकृति को दहेज नाम दिया गया। धीरे-धीरे लोगों ने इसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ लिया। सभ्यता और भौतिकवाद के कारण लोगों में धन लोलुपता बढ़ी है जिसने इस प्रथा को विकृत करने में वही काम किया जो आग में घी करता है।

वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष से खुलकर दहेज माँगने लगे और समाज की नज़र बचाकर बलपूर्वक दहेज लेने लगे जिससे इस प्रथा ने दानवी रूप ले लिया। आज स्थिति यह है कि समाज में लड़कियों को बोझ समझा जाने लगा है। लोग घर में कन्या का जन्म किसी अपशकुन से कम नहीं समझते हैं। इससे समाज की सोच में विकृति आई है। दहेज प्रथा हमारे समाज के लिए अत्यंत घातक है। इस प्रथा के कारण ही जन्मी-अजन्मी लड़कियों को मारने का चलन शुरू हो गया। आज का समय तो जन्मपूर्व ही कन्या भ्रूण की हत्या करा देता है।

इसमें असफल रहने के बाद वह जन्म के बाद कन्याओं के पालन-पोषण में दोहरा मापदंड अपनाता है। वह लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा, खानपान और अन्य सुविधाओं के साथ ही उनके साथ व्यवहार में हीनता दिखाता है। दहेज प्रथा के कारण ही असमय नव विवाहिताओं को अपनी जान गवानी पड़ती है। मनुष्यता के लिए इससे ज़्यादा कलंक की बात क्या होगी कि अनेक लड़कियाँ बिन ब्याही रह जाती हैं या उन्हें बेमेल विवाह के लिए बाध्य होना पड़ता है। दहेज प्रथा रोकने के लिए केवल सरकारी प्रयास ही काफ़ी नहीं हैं। इसके लिए युवा वर्ग को आगे आना होगा और दहेज रहित-विवाह प्रथा की शुरूआत करके समाज के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।

त्योहारों का बदलता स्वरूप
अथवा
त्योहारों पर हावी भौतिकवाद

संकेत बिंदु –

  • मानव जीवन और त्योहार
  • भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग
  • त्योहार में आते बदलाव
  • हमारा दायित्व
  • वर्तमान स्वरूप।

मनुष्य और त्योहारों का अटूट संबंध है। मनुष्य अपने थके हारे मन को उत्साहित एवं आनंदित करने के साथ ही ऊर्जान्वित करने के लिए त्योहार मनाने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेता है। कभी महीना बदलने पर, कभी नई ऋतु आने पर और कभी फ़सल पकने की आड़ में मनुष्य प्राचीन समय से त्योहार मनाता आया है। ये त्योहार, मानव के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उल्लास आदि व्यक्त करने का साधन भी होते हैं। त्योहार हमारे संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए हैं। इनके माध्यम से हमारी संस्कृति की झलक मिलती है। त्योहारों के अवसर पर प्रयुक्त परिधान, रहन-सहन का ढंग, नृत्य-गायन की कलात्मकता आदि में संस्कृति के दर्शन होते हैं। ये त्योहार हमारी एकता को मज़बूत बनाते हैं। वर्तमान में भौतिकवाद के कारण बदलाव आया है। लोगों की भागम भरी जिंदगी की व्यस्तता और काम से बचने की प्रवृत्ति के कारण अब त्योहार उस हँसी-खुशी उल्लास से नहीं मनाए जाते हैं, जैसे पहले मनाए जाते थे। आज लोगों के मन में धर्म-जाति भाषा क्षेत्रीयता और संप्रदाय की कट्टरता के कारण दूरियाँ बढ़ी हैं। अब तो त्योहारों के अवसर पर दंगे भड़कने का भय स्पष्ट रूप से लोगों को आतंकित किए रहता है। इस कारण लोग इन त्योहारों को जैसे-तैसे मनाकर इतिश्री कर लेते हैं। त्योहारों को हँसी-खुशी मनाने के लिए धार्मिक कट्टरता त्यागनी चाहिए तथा प्रकृति से निकटता बनाने का प्रयास करना चाहिए। हमें इस तरह त्योहार मनाने का प्रयास करना चाहिए जिससे सभी को खुशी मिल सके।

मानव जीवन पर विज्ञापनों का असर
अथवा
विज्ञापनों की दुनिया कितनी लुभावनी
अथवा
मानव मन को सम्मोहित करते विज्ञापन

संकेत बिंदु –

  • विज्ञापन का अर्थ एवं प्रचार-प्रसार
  • विज्ञापनों की लुभावनी भाषा
  • विज्ञापन का प्रभाव
  • विज्ञापन के लाभ-हानि ।

‘ज्ञापन’ में ‘वि’ उपसर्ग लगाने से विज्ञापन शब्द बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-सूचना या जानकारी देना। दुर्भाग्य से आज विज्ञापन का अर्थ सिमट कर वस्तुओं की बिक्री बढ़ाकर लाभ कमाने तक ही सीमित रह गया है। वर्तमान समय में विज्ञापन का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ गया है कि अब तो कहीं भी विज्ञापन देखे जा सकते हैं। इस कारण से वर्तमान समय को विज्ञापनों का युग कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। विज्ञापनों की भाषा अत्यंत लुभावनी और आकर्षक होती है।

इनके माध्यम से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्ति का प्रयास किया जाता है। विज्ञापन की भाषा सरल एवं सटीक होती है, जिसे विशेष रूप से तैयार करके प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। दूरदर्शन और अन्य चलचित्रों के माध्यम से दिखाए जाने वाले विज्ञापनों की भाषा और भी प्रभावी बन जाती है। विज्ञापन मानव मन पर गहरा असर डालते हैं। बच्चे और किशोर इन विज्ञापनों के प्रभाव में आसानी से आ जाते हैं।

विज्ञापनों का प्रस्तुतीकरण, उनमें प्रयुक्त नारी देह का दर्शन, उनके हाव-भाव और अभिनय मानवमन पर जादू-सा असर कर सम्मोहित कर लेते हैं। यह विज्ञापनों का असर है कि हम विज्ञापित वस्तुएँ खरीदने का लाभ संवरण नहीं कर पाते हैं। विज्ञापन उत्पादक और उपभोक ता दोनों के लिए लाभदायी हैं। इसके माध्यम से हमारे सामने चुनाव का विकल्प, सुलभता, तुलनात्मक जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं तो विक्रेताओं को भी भरपूर लाभ होता है। विज्ञापन के कारण वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाता है। इनमें वस्तु के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है। अतः हमें विज्ञापनों से सावधान रहना चाहिए।

मनुष्यता का दूसरा नाम : परोपकार
अथवा
परहित सरसि धर्म नहिं भाई

संकेत बिंदु –

  • परोपकार का अर्थ और प्रकृति
  • परोपकार मनुष्य का उत्तम गुण
  • जीवन की सार्थकता
  • परोपकार सच्चे आनंद का स्रोत।

उपकार का अर्थ है-भलाई करना। इसी उपकार में ‘पर’ उपसर्ग लगाने से परोपकार बना है। इसका अर्थ है-दूसरों की भलाई करना। जब मनुष्य निस्स्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई मन, वाणी और कर्म से करता है, तब उसे परोपकार कहा जाता है। परोपकार का सर्वोत्तम उदाहरण हमें प्रकृति के कार्यों से मिलता है। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं, नदियाँ अपना पानी स्वयं नहीं पीती हैं। इसी प्रकार फूल दूसरों के लिए खिलते हैं और बादल जीवों के कल्याण के लिए अपना अस्तित्व तक नष्ट कर देते हैं। परोपकार मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। हमारे ऋषि-मुनि तो अपना जीवन परोपकार में अर्पित कर देते थे।

उनके कार्य हमें परोपकार की प्रेरणा देते हैं। कहा भी गया है कि ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।’ परोपकार से व्यक्ति को सुख-शांति की अनुभूति होती है तथा जिसकी भलाई की जाती है उसे अपनी दीन-हीन स्थिति से मुक्ति मिल जाती है। परोपकार व्यक्ति को आदर्श जीवन की राह दिखाते हैं। इससे व्यक्ति को मनुष्य बनने की पूर्णता प्राप्त होती है। वास्तव में परोपकार में ही जीवन की सार्थकता है। परोपकार से व्यक्ति को सच्चा आनंद प्राप्त होता है। इसी आनंद के वशीभूत होकर व्यक्ति अपना तन-मन और धन देकर भी परोपकार करता है। महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ देकर मानवता का कल्याण किया तो शिवि ने अपने शरीर का मांस देकर कबूतर की जान बचाई। हमें भी परोपकार का अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।

विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत
अथवा
विपत्ति का साथी : मित्र

संकेत बिंदु –

  • मित्र की आवश्यकता
  • मित्र का स्वभाव
  • सन्मार्ग पर ले जाते मित्र
  • मित्र के चयन में सावधानियाँ।

मानव जीवन को संग्राम की सभा से विभूषित किया गया है, जिसमें दुख और सुख क्रमशः आते-जाते रहते हैं। सुख का समय जल्दी और सरलता से कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता पर दुख के समय में उसे ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत होती है जो उसके काम आए। अब उसे मित्र की आवश्यकता होती है जो उसे दुख सहने का साहस प्रदान करे। मित्र का स्वभाव उदार, परोपकारी होने के साथ ही विपत्ति में साथ न छोड़ने वाला होना चाहिए। उसे जल की भाँति नहीं होना चाहिए जो जाल पड़ने पर जाल में फँसी मछलियों का साथ छोड़कर दूर हो जाता है और मछलियों को मरने के लिए छोड़ जाता है।

वास्तव में मित्र का स्वभाव श्रीराम और सुग्रीव के स्वभाव की भाँति होना चाहिए जिन्होंने एक-दूसरे की मदद करके अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। एक सच्चा मित्र को बुराइयों से हटाकर सन्मार्ग की ओर ले जाता है। एक सच्चा मित्र अपने मित्र को व्यसन से बचाकर सत्कार्य के लिए प्रेरित करता है और उसके लिए घावों पर लगी उस औषधि के समान साबित होता है जो उसकी पीड़ा हरकर शीतलता पहुँचाती है। व्यक्ति के पास धन देखकर बहुत से लोग नाना प्रकार से मित्र बनने की चेष्टा करते हैं। हमें इन अवसरवादी लोगों से सावधान रहना चाहिए। हमारी जी हुजूरी और चापलूसी करने वाले को भी सच्चा मित्र नहीं कहा जा सकता है। हमारी गलत बातों का विरोधकर उचित मार्गदर्शन कराने वाला ही सच्चा मित्र होता है। हमें मित्र के चयन में सावधान रहना चाहिए ताकि मित्रता चिरकाल तक बनी रहे।

जीवन में व्यायाम का महत्त्व
अथवा
स्वास्थ्य के लिए हितकारी : व्यायाम

संकेत बिंदु –

  • स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन
  • उत्तम स्वास्थ्य की औषधि-व्यायाम
  • व्यायाम का सर्वोत्तम समय
  • व्यायाम एक-लाभ अनेक।

स्वास्थ्य और मानवजीवन का घनिष्ठ संबंध है। यूँ तो स्वास्थ्य की महत्ता हर प्राणी के लिए होती है पर मनुष्य इसके प्रति कुछ अधिक ही सजग रहता है और स्वस्थ रहने के नाना उपाय करता है। मनुष्य जानता है कि धन को तुरंत दुबारा कमाया जा सकता है परंतु स्वास्थ्य इतनी सरलता से नहीं पाया जा सकता है। एक स्वस्थ व्यक्ति ही सांसारिक सुखों का लाभ उठा सकता है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो दुनिया का कोई सुख व्यक्ति को रुचिकर नहीं लगता है, तभी स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन कहा गया है। स्वास्थ्य पाने का एक साधन सात्विक भोजन, स्वस्थ आदतें, उचित दिनचर्या और दवाईयाँ हैं, पर ये सभी स्वस्थ रहने के साधन मात्र हैं।

स्वास्थ्य का अर्थ केवल शारीरिक नहीं बल्कि इस परिधि में मानसिक स्वास्थ्य भी आता है। इसे पाने की मुफ्त की औषधि है-व्यायाम, जिसे पाने के लिए धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती है। व्यायाम करने का सर्वोत्तम समय भोर की बेला है जब वातावरण में शांति, हवा में शीतलता और सुगंध होती है। ऐसे वातावरण में मन व्यायाम में लगता है। व्यायाम से हमारे शरीर का रक्त प्रवाह तेज़ होता है, हड्डियाँ मज़बूत और मांसपेशियाँ लचीली बनती हैं। इससे तन-मन दोनों स्वस्थ होता है। हमें भी समय निकालकर व्यायाम अवश्य करना चाहिए।

विद्यार्थी और अनुशासन
अथवा
अनुशासन का महत्त्व

संकेत बिंद –

  • अनुशासन का अर्थ
  • अनुशासन की आवश्यकता
  • प्रकृति में अनुशासन
  • अनुशासन सफलता की कुंजी।

‘शासन’ शब्द में ‘अनु’ उपसर्ग जोड़ने से अनुशासन शब्द बना है, जिसका अर्थ है शासन के पीछे चलना अर्थात् समाज द्वारा बनाए नियमों का पालन करते हुए मर्यादित जीवन जीना। जीवन के हर क्षेत्र और हर काल में अनुशासन की महत्ता होती है पर विद्यार्थी काल जीवन की नींव के समान होता है। इस काल में अनुशासन की आवश्यकता और महत्ता और भी बढ़ जाती है। इस काल में विद्यार्थी जो कुछ सीखता है वही उसके जीवन में काम आता है। इस काल में एक बार अनुशासनबद्ध जीवन की आदत पड़ जाने पर आजीवन यही आदत बनी रहती है। मानव मन अत्यंत चंचल होता है। वह स्वच्छंद आचरण करना चाहता है।

इसके लिए अनुशासन बहुत आवश्यक है। प्रकृति अपने कार्य व्यवहार से मनुष्य तथा अन्य प्राणियों को अनुशासन का पाठ पढ़ाती है। सूर्य समय पर निकलता है। चाँद और तारे रात होने पर चमकना नहीं भूलते हैं। ऋतु आने पर फूल खिलना नहीं भूलते हैं। वर्षा ऋतु में बादल बरसना और समयानुसार वृक्ष फल नहीं भूलते हैं। ऋतुएँ समय पर आती जाती हैं और मुर्गा समय पर बाँग देता है। ये हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं। जीवन में जितने भी लोगों ने सफलता प्राप्त की है उसके मूल में अनुशासन रहा है। गांधी जी, नेहरू जी, टैगोर, तिलक, विवेकानंद आदि की सफलता का मूल मंत्र अनुशासन रहा है। विद्यार्थियों को कदम-कदम पर अनुशासन का पालन करना चाहिए और सफलता के सोपान चढ़ना चाहिए।

समय का महत्त्व
अथवा
समय चूकि वा पुनि पछताने

संकेत बिंदु –

  • समय की पहचान
  • समय पर काम न करने पर पछताना व्यर्थ
  • समय का सदुपयोग-सफलता का सोपान
  • आलस्य का त्याग।

एक सूक्ति है – ‘समय और सूक्ति किसी की प्रतीक्षा नहीं करते हैं।’ ये आते और जाते रहते हैं, चाहे कोई इनका लाभ उठाए या नहीं पर गुणवान लोग समय की महत्ता समझकर समय का लाभ उठाते हैं। एक चतुर मछुआरा अपने जाल और नाव के साथ ज्वार की प्रतीक्षा करता है और उसका लाभ उठाता है। जो लोग समय पर काम नहीं करते हैं उनके हाथ पछताने के सिवा कुछ भी नहीं लगता है। समय बीतने पर काम करने से उसकी सफलता का आनंद सूख जाता है। ऐसे ही लोगों के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-‘समय चूकि वा पुनि पछताने।’ का बरखा जब कृषि सुखाने। अर्थात् समय पर काम करने से चूक कर पछताना उसी तरह है जैसा कि फ़सल सूखने के बाद वर्षा होने से वह हरी नहीं हो पाती है।

जो व्यक्ति समय का सदुपयोग करते हैं वे हर काम में सफल होते हैं। शत्रु आक्रमण का जो देश मुकाबला नहीं करता वह गुलाम होकर रह जाता है, समय पर बीज न बोने वाले किसान की फ़सल अच्छी नहीं होती है और समय पर वर्षा न होने से भयानक अकाल पड़ जाता है। इस तरह निस्संदेह समय का उपयोग सफलता का सोपान है। समय पर काम करने के लिए आवश्यक है-आलस्य का त्याग करना। आलस्य भाव बनाए रखकर समय पर काम पूरा करना कठिन है। अतः हमें आलस्य भाव त्यागकर समय का सदुपयोग करना चाहिए।

देशाटन
अथवा
मनोरंजन का साधन : पर्यटन

संकेत बिंदु –

  • देशाटन क्या है?
  • देशाटन का महत्त्व
  • देशाटन के लाभ
  • देश की प्रगति में सहायक।

‘देशाटन’ शब्द दो शब्दों ‘देश’ और ‘अटन’ के मेल से बना है जिसका अर्थ है देश का भ्रमण करना अर्थात् ज्ञान और मनोरंजन के उद्देश्य से किया जाने वाला भ्रमण देशाटन कहलाता है। देशाटन करना मनुष्य की स्वाभाविक विशेषता है। वह प्राचीनकाल से ही शिकार और आश्रय के उद्देश्य से भटकता रहा है। मनुष्य आज भी भ्रमण करता है पर उसके भ्रमण की महत्ता आज अधिक है। आज वह ज्ञानार्जन और धनार्जन के लिए भ्रमण करता है जो उसे सामाजिक और आर्थिक रूप से उन्नत बनाता है।

इस प्रकार मनुष्य के जीवन में देशाटन का बहुत महत्त्व है। देशाटन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि मनुष्य विभिन्न वस्तुओं को साक्षात् रूप से देखता है और भिन्न-भिन्न लोगों से मिलता है। वह उस स्थान विशेष की कला, संस्कृति और सभ्यता से परिचित होता है। उसका स्वभाव मिलनसार बनता है। वह भिन्न-भिन्न लोगों की भाषाओं से परिचित होता है। इससे राष्ट्रीय एकता मज़बूत होती है। देशाटन से देश के विकास में सहायता होती है। पर्यटन उद्योग फलता-फूलता है और विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है। लोगों को रोजगार मिलता है। इस प्रकार व्यक्ति और राष्ट्र दोनों की आय बढ़ती है। हमें अवसर मिलते ही देशाटन अवश्य करना चाहिए।

मेरी अविस्मरणीय यात्रा
अथवा
पर्वतीय स्थल की यात्रा का रोमांच

संकेत बिंदु –

  • यात्रा की तैयारी
  • रास्ते का सौंदर्य
  • पर्वतीय सौंदर्य
  • यादगार पल।

मनुष्य के मन में यात्रा करने का विचार जोर मारता रहता है। उसे बस मौके की तलाश रहती है। मुझे भी यात्रा करना बहुत अच्छा लगता है। आखिर मुझे अक्टूबर के महीने में यह मौका मिल ही गया जब पिता जी ने बताया कि हम सभी वैष्णो देवी जाएँगे। वैष्णो देवी का नाम सुनते ही मन बल्लियों उछलने लगा और मैं तैयारी में जुट गया। उधर माँ भी आवश्यक तैयारियाँ करने के क्रम में कपड़े, चादर और खाने के लिए नमकीन बिस्कुट आदि पैक करने लगी। आखिर नियत समय पर हम प्रातः तीन बजे नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँचे और स्वराज एक्सप्रेस से जम्मू के लिए चल पड़े। लगभग आधे घंटे बाद हम दिल्ली की सीमा पार करते हुए सोनीपत पहुँचे। अब तक सवेरा हो चुका था। दोनों ओर दूर तक हरे-भरे खेत दिखाई देने लगे। इसी बीच पूरब से भगवान भास्कर का उदय हुआ।

उनका यह रूप मैं दिल्ली में नहीं देख सका था। दस बजे तक तो मैं जागता रहा पर उसके बाद चक्की बैंक पहुँचने पर मेरी नींद खुली। उससे आगे जाने पर हमें एक ओर पहाड़ नज़र आ रहे थे। वहाँ से कटरा जाकर हमने पैदल चढ़ाई की। पर्वतों को इतने निकट से देखने का यह मेरा पहला अवसर था। इनकी ऊँचाई और महानता देखकर अपनी लघुता का अहसास हो रहा था। अब मुझे समझ में आया कि ‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’ मुहावरा क्यों कहा गया होगा। वैष्णो देवी पहुँचकर वहाँ का पर्वतीय सौंदर्य हमारे दिलो-दिमाग पर अंकित हो गया। वहाँ से भैरव मंदिर पहुँचकर जिस सौंदर्य के दर्शन हुए वह आजीवन भुलाए नहीं भूलेगा।

परीक्षा का डर
अथवा
परीक्षा से पहले मेरी मनोदशा

संकेत बिंदु –

  • परीक्षा नाम से भय
  • पर्याप्त तैयारी
  • घबराहट और दिल की धड़कनें हुई तेज़
  • प्रश्न-पत्र देखकर भय हुआ दूर।

परीक्षा वह शब्द है जिसे सुनते ही अच्छे अच्छों के माथे पर पसीना आ जाता है। परीक्षा का नाम सुनते ही मेरा भी भयभीत होना स्वाभाविक है। ज्यों-ज्यों परीक्षा की घड़ी निकट आती जा रही थी त्यों-त्यों यह घबराहट और भी बढ़ती जा रही थी। जितना भी पढ़ता था घबराहट में सब भूला-सा महसूस हो रहा था। खाने-पीने में भी अरुचि-सी हो रही थी। इस घबराहट में न जाने कब ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर’-उच्चरित होने लगता था पता नहीं। यद्यपि मैं अपनी तरफ से परीक्षा का भय भूलने और सभी प्रश्नों के उत्तर दोहराने की तैयारी कर रहा था और जिन प्रश्नों पर तनिक भी आशंका होती तो उस पर निशान लगाकर पिता जी से शाम को हल करवा लेता था पर मन में कहीं न कहीं भय तो था ही।

परीक्षा का दिन आखिर आ ही गया। सारी तैयारियों को समेटे मैं परीक्षा भवन में चला गया पर प्रश्न-पत्र हाथ में आने तक मन में तरह-तरह की आशंकाएँ आती जाती रही। मैंने अपनी सीट पर बैठकर आँखें बंद किए प्रश्न-पत्र मिलने का इंतज़ार करने पर घबराहट के साथ-साथ दिल की धड़कने तेज़ हो गई थी। इसी बीच घंटी बजी। कक्ष निरीक्षक ने पहले हमें उत्तर पुस्तिकाएँ दी फिर दस मिनट बाद प्रश्न-पत्र दिया। काँपते हाथों से मैंने प्रश्न पत्र लिया और पढ़ना शुरू किया। शुरू के पेज के चारों प्रश्नों को पढ़कर मेरी घबराहट आधी हो गई क्योंकि उनमें से चारों के जवाब मुझे आते थे। पूरा प्रश्न पत्र पढ़ा। अब मैं प्रसन्न था क्योंकि एक का उत्तर छोड़कर सभी के उत्तर लिख सकता था। मेरी घबराहट छू मंतर हो चुकी थी। अब मैं लिखने में व्यस्त हो गया।

देश-प्रेम
अथवा
प्राणों से प्यारा : देश हमारा

संकेत बिंदु –

  • देश से लगाव स्वाभाविक गुण
  • देश के लिए सर्वस्व न्योछावर
  • मातृभूमि ‘माँ’ के समान
  • राष्ट्रीय एकता प्रगाढ़ करने में सहायक।

मनुष्य की स्वाभाविक विशेषता है कि वह जिस व्यक्ति, वस्तु या स्थान के साथ कुछ समय बिता लेता है उससे उसका लगाव हो जाता है। ऐसे में जिस देश में उसने जन्म पाया है, जहाँ का अन्न-जल और वायु ग्रहण कर बड़ा हुआ है, उस स्थान से लगाव होना लाजिमी है। इसी लगाव का नाम है देश-प्रेम। अर्थात् देश के कण-कण से प्रेम होना उसकी सजीव-निर्जीव वस्तुओं के अलावा पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं और मनुष्यों से प्यार करना देश-प्रेम कहलाता है। यह वह पवित्र भावना है जो देश की रक्षा करते हुए अपना तन-मन-धन अर्थात् सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसा व्यक्ति ही सच्चादेश प्रेमी कहलाता है। कहा गया है-‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।

आखिर हो भी क्यों न व्यक्ति को स्वर्ग जाने के योग्य जननी और जन्मभूमि ही बनाते हैं। माँ संतान को जन्म देती है पर जन्मभूमि की रज में लोटकर बच्चा बढ़ता है और यहीं का अन्न जलग्रहण कर बड़ा होता है। वास्तव में जन्मभूमि के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हमारे देश के वीरों और देशभक्तों ने जन्मभूमि की रक्षा के लिए सुख-चैन त्याग दिया, जेल की दर्दनाक यातनाएँ भोगी, हँसते-हँसते लाठियाँ और कोडे खाए और हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम गए। देश प्रेम की पवित्र भावना जाति, धर्म, भाषा, वर्ण, वर्ग, प्रांत और दल से ऊपर होती है। यह इन संकीर्णताओं का बंधन नहीं स्वीकारती है। इससे राष्ट्रीय एकता मज़बूत होती है। हमें अपने देश पर गर्व है। मैं इससे असीम प्यार करता हूँ।

हमारे देश के राष्ट्रीय पर्व
अथवा
देश की अखंडता में सहायक राष्ट्रीय पर्व

संकेत बिंदु –

  • राष्ट्रीय पर्व का अर्थ एवं उनकी महत्ता
  • हमारे राष्ट्रीय पर्व और मनाने का ढंग
  • देश की एकता अखंडता बनाने में सहायक
  • राष्ट्रीय पर्वो का संदेश।

पर्व मानव जीवन को मनोरंजन और ऊर्जा से भरकर मनुष्य की नीरसता दूर करते हैं। इन पर्वो को सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय पर्यों के रूप में बाँटा जा सकता है। राष्ट्रीय पर्व वे पर्व हैं जिन्हें राष्ट्र के सारे लोग बिना किसी भेदभाव के एकजुट होकर मनाते हैं। इनका सीधा संबंध देश की एकता और अखंडता से होता है। राष्ट्रीय पर्व व्यक्तिगत न होकर राष्ट्रीय होते हैं, इसलिए देशवासियों के अलावा विभिन्न प्रशासनिक और सरकारी कार्यालय, विभिन्न संस्थाएँ मिल-जुलकर मनाती हैं।

इस दिन देश में सरकारी अवकाश रहता है। यहाँ तक कि दुकानें और फैक्ट्रियाँ भी बंद रहती हैं ताकि देशवासी इन्हें मनाने में अपना योगदान दें। हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं-स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त), गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) और गांधी जयंती (02 अक्टूबर)। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रात:काल सरकारी कार्यालयों एवं भवनों पर झंडा फहराया जाता है और रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है।

इस दिन देशभक्तों और शहीदों के योगदान को याद करते हुए स्वतंत्रता बनाए रखने की प्रतिबद्धता दोहराई जाती है। गांधी जयंती के अवसर पर कृतज्ञ देशवासी गांधी जी के योगदान को याद करते हैं और उनके बताए रास्ते पर चलने की प्रतिज्ञा करते हैं। देश की एकता अखंडता बनाए रखने में राष्ट्रीय त्योहार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री देशवासियों से एकता बनाए रखने का आह्वान करते हैं। ये पर्व हमें एकजुट रहकर देश की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा देश के लिए तन-मन और धन न्योछावर करने का संदेश देते हैं। हमें इस संदेश को सदा याद रखना चाहिए।

गाँवों का देश भारत
अथवा
गाँवों की दयनीय दशा

संकेत बिंदु –

  • देश की 70 प्रतिशत जनता गाँवों में
  • प्रदूषण रहित वातावरण
  • गाँवों में अभाव ग्रस्तता
  • गाँवों की दशा में कुछ बदलाव।

है अपना हिंदुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में। अगर हमें अपने देश की सच्ची तसवीर देखनी है तो हमें गाँवों की ओर रुख करना पड़ेगा। हमारे देश की आत्मा इन्हीं गाँवों में निवास करती है। देश की जनसंख्या का 70 प्रतिशत से अधिक भाग इन्हीं गाँवों में बसता है। इनमें से अधिकांश लोगों की आजीविका का साधन कृषि है। यहाँ रहने वाले चाहे खुद भूखे सो जाएँ पर देशवासियों को पेट भरने का दायित्व यही गाँव निभाते हैं। यहाँ के किसानों का श्रम और कार्य देखकर श्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। गाँवों में चारों ओर हरियाली का साम्राज्य होता है। ये पेड़-पौधे ग्रामवासियों को शुद्ध वायु उपलब्ध कराते हैं।

यहाँ कारखाने और औद्योगिक इकाइयों का अभाव है। यहाँ मोटर गाड़ियों का न धुआँ है और न शोर। यहाँ का वातावरण शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक है। गाँवों की धूलभरी गलियाँ, कच्चे घर, घास-फूस की झोपड़ियाँ, नालियों में बहता गंदा पानी, मैले-कुचैले कपड़े पहने बच्चे और अधनंगे बदन वाले किसान की दयनीय दशा देखकर गाँवों की अभाव ग्रस्तता का पता चल जाता है।

यहाँ रहने वालों की कृषि मानसून पर आधारित है। मानसून की कमी होने पर फ़सल अच्छी नहीं होती है जिससे उन्हें साहूकारों से कर्ज लेने पर विवश होना पड़ता है और वे ऋण ग्रस्तता के जाल में फँस जाते हैं। ग्रामवासी आज भी अंधविश्वास और अशिक्षा के शिकार हैं। गाँवों तक पक्की सड़कें बन जाने और बिजली पहुँच जाने के कारण गाँवों की दशा में कुछ सुधार होता है। सरकार द्वारा शिक्षा की व्यवस्था करने तथा ग्रामवासियों के कल्याण हेतु अनेक योजनाएँ चलाने के कारण अब गाँवों के दिन फिरने लगे हैं।

रंग-बिरंगी ऋतुएँ
अथवा
भारत की छह ऋतुएँ

संकेत बिंदु –

  • ऋतुएँ-प्रकृति का अनुपम उपहार
  • छह ऋतुएँ और उनकी विशेषताएँ
  • ऋतुराज वसंत
  • ऋतुओं का प्रभाव।

प्रकृति ने भारत को अनेक उपहार प्रदान किए हैं। इन उपहारों में एक है-छह ऋतुओं का उपहार। ये ऋतुएँ एक के बाद एक बारीबारी से आती हैं और मुक्त हाथों से सौंदर्य बिखरा जाती हैं। ऋतुओं के जैसा मनभावन मौसम का समन्वय भारत में बना रहता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। हमारे देश में छह ऋतुएँ पाई जाती हैं। ये छह ऋतुएँ हैं ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत। भारतीय महीनों के अनुसार बैसाख और जेठ ग्रीष्म ऋतु के महीने होते हैं। इस समय छोटी-छोटी वनस्पतियाँ सूख जाती हैं। धरती तवे-सी जलने लगती है। आम, कटहल, फालसा, जामुन आदि फल इस समय प्रचुरता से मिलते हैं। इसके बाद अगले दो महीने वर्षा ऋतु के होते हैं। इस समय वर्षा होती है जो मुरझाई धरती और प्राणियों को नवजीवन देती हैं। अधिक वर्षा बाढ़ के रूप में प्रलय लाती है। वर्षा ऋतु के उपरांत शरद ऋतु का आगमन होता है। यह ऋतु दो महीने तक रहती है। दशहरा और दीपावली इस ऋतु के प्रमुख त्योहार हैं। इस समय सरदी और गरमी बराबर होती है, जिससे मौसम सुहाना रहता है। शिशिर और हेमंत ऋतुओं में कड़ाके की सरदी पड़ती है। हेमंत पतझड़ की ऋतु मानी है। इस समय पेड़-पौधे अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इसके बाद ऋतुराज वसंत का आगमन होता है। इस से मौसम सुहावना होता है। चारों ओर खिले फूल और सुगंधित हवा इस समय को सुहावना बना देते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह सर्वोत्तम ऋतु है। विभिन्न ऋतुओं का अपना अलग-अलग प्रभाव होता है। इस कारण हमारा खान-पान और रहन-सहन प्रभावित होता है। तरह-तरह की फ़सलों के उत्पादन में ऋतुएँ महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। सचमुच ये ऋतुएँ किसी वरदान से कम नहीं हैं।

वन रहेंगे-हम रहेंगे
अथवा
वनों की महत्ता

संकेत बिंदु –

  • वन प्रकृति के अनुपम उपहार
  • वनों के लाभ
  • मनुष्य का स्वार्थपूर्ण व्यवहार
  • वन बचाएँ जीवन बचाएँ।

प्रकृति ने मनुष्य को जो नाना प्रकार के उपहार दिए हैं, वन उनमें सबसे अधिक उपयोगी और महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्य और प्रकृति का साथ अनादिकाल से रहा है। पृथ्वी पर जीवन योग्य जो परिस्थितियाँ हैं उन्हें बनाए रखने में वनों का विशेष योगदान है। मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं के साथ इन्हीं वनों में पैदा हुआ, पला, बढ़ा और सभ्य होना सीखा। वनों ने मनुष्य की हर ज़रूरत को पूरा किया है। वन हमें लकड़ी, छाया, फल-फूल, कोयला, गोंद, कागज, नाना प्रकार की औषधियाँ देते हैं। वे पशुओं तथा पशु-पक्षियों के लिए आश्रय-स्थल उपलब्ध करते हैं। इससे जैव विविधता और प्राकृतिक संतुलन बना रहता है।

वन वर्षा लाने में सहायक हैं जिससे प्राणी नवजीवन पाते हैं। वन बाढ़ रोकते हैं और भूक्षरण कम करते हैं तथा धरती का उपजाऊपन बनाए रखते हैं। वास्तव में वन मानवजीवन का संरक्षण करते हैं। वन परोपकारी शिव के समान हैं जो विषाक्त वायु का स्वयं सेवन करते हैं और बदले में प्राणदायी शुद्ध ऑक सीजन देते हैं। दुर्भाग्य से मनुष्य की जब ज़रूरतें बढ़ने लगी तो उसने वनों की अंधाधुंध कटाई शुरू कर दी। नई बस्तियाँ बनाने, कृषि योग्य भूमि पाने, सड़कें बनाने आदि के लिए पेड़ों की कटाई की गई, जिससे पर्यावरण असंतुलन बढ़ा और वैश्विक ऊष्मीकरण में वृद्धि हुई। इससे असमय वर्षा, बाढ़, सूखा आदि का खतरा उत्पन्न हो गया। धरती पर जीवन बचाने के लिए पेड़ों को बचाना आवश्यक है। आओ हम जीवन बचाने के लिए अधिकाधिक पेड़ लगाने और बचाने की प्रतिज्ञा करते हैं।

प्रदूषण की समस्या
अथवा
जीवन खतरे में डालता प्रदूषण

संकेत बिंदु –

  • प्रदूषण का अर्थ
  • प्रदूषण के कारण
  • प्रदूषण के प्रभाव
  • प्रदूषण से बचाव के उपाय।

स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक है कि हम जिन वस्तुओं का सेवन करें, जिस वातावरण में रहें वह साफ़-सुथरा हो। जब हमारे पर्यावरण और वायुमंडल में ऐसे तत्व मिल जाते हैं जो उसे दुषित करते हैं तथा इनका स्तर इतना बढ़ जाता है कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाते हैं तब यह स्थिति प्रदूषण कहलाती है। आज सभ्यता और विकास की इस दौड़ में मनुष्य के कार्य व्यवहार ने प्रदूषण को खूब बढ़ाया है। बढ़ती आवश्यकता के कारण एक ओर वनों को काटकर नई बस्तियाँ बसाई गईं तो दूसरी ओर अंधाधुंध कल-कारखानों की स्थापना की गई। इन बस्तियों तक पहुँचने के लिए सड़कें बनाई गईं।

इसके लिए भी वनों की कटाई की गई। सभ्यता की ऊँचाई छूने के लिए मनुष्य ने नित नए आविष्कार किए। मोटर-गाड़ियाँ वातानुकूलित उपकरणों से सजी गाड़ियाँ और मकानों के कार्य आदि के कारण पर्यावरण इतना प्रदूषित हुआ कि आदमी को साँस लेने के लिए शुद्ध हवा मिलना कठिन हो गया है। प्रदूषण के दुष्प्रभाव के कारण प्राकृतिक असंतुलन उत्पन्न हो गया है। वायुमंडल में कार्बनडाई ऑक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ गई है। इससे अम्लीय वर्षा का खतरा पैदा हो गया है।

मोटर-गाड़ियों और फैक्ट्रियों के शोर के कारण स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अति वृष्टि, अनावृष्टि और असमय वर्षा प्रदूषण का ही दुष्परिणाम है। इस प्रदूषण से बचने का सर्वोत्तम उपाय है अधिकाधिक वन लगाना। पेड़ लगाकर प्रकृति में संतुलन लाया जा सकता है। इसके अलावा हमें सादा जीवन उच्च विचार वाली जीवन शैली अपनाते हुए प्रकृति के करीब लौटना चाहिए।

बाल मजदूरी
अथवा
बाल मज़दूरी : समाज के लिए अभिशाप

संकेत बिंदु –

  • बाल मजदूर कौन
  • बाल मजदूरी क्यों
  • बाल मजदूरी के क्षेत्र
  • समस्या का समाधान ।

समाज शास्त्रियों ने मानवजीवन को आयु के विभिन्न वर्गों में बाँटा है। इसके अनुसार सामान्यतया 5 से 11 साल के बच्चे को बालक कहा जाता है। इसी उम्र में बालक विद्यालय जाकर पढ़ना-लिखना सीखता है और शिक्षित जीवन की नींव रखता है परंतु परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने के कारण जब बच्चे को पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिलता है और उसे अपना पेट पालने के लिए न चाहते हुए काम करना पड़ता है तो उसे बाल मजदूरी कहते हैं। मजदूर की भाँति काम करने वाले इन बालकों को बाल मज़दूर कहते हैं। बाल मजदूरी के मूल में है-गरीबी।

गरीब माता-पिता जब बच्चे को विद्यालय भेजने की स्थिति में नहीं होते हैं और वे परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते हैं तो वे अपने बच्चों को भी काम पर भेजना शुरू कर देते हैं। इसका एक कारण समाज के कुछ लोगों की शोषण की प्रवृत्ति भी है। वे अपने लाभ के लिए कम मजदूरी देकर इन बच्चों से काम करवाते हैं। बाल मजदूरी के कुछ विशेष क्षेत्र हैं जहाँ बच्चों से काम कराया जाता है। दियासलाई उद्योग, पटाखा उद्योग, अगरबत्तियों के कारखाने, कालीन बुनाई, चूड़ी उद्योग, बीड़ी, गुटखा फैक्ट्रियों में बच्चों से काम लिया जाता है। बाल मजदूरी रोकने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है। बाल मजदूरों को मज़बूरी से मुक्त कराकर उन्हें शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इसके अलावा स्वार्थी लोगों को अपनी स्वार्थवृत्ति त्यागकर इन बच्चों पर दया करना चाहिए और इनसे काम नहीं करवाना चाहिए।

महानगरों की यातायात को सुखद बनाती-मैट्रो रेल
अथवा
यात्रा सुखद बनाती-मैट्रो रेल

संकेत बिंदु –

  • महानगरों का भीड़भाड़ युक्त जीवन
  • मैट्रो रेल की आवश्यकता
  • मैट्रो रेल के लाभ
  • सुखद यात्रा का साधन ।

महानगर सुख-सुविधा के केंद्र माने जाते हैं। इसी सुख-सुविधा का आकर्षण लोगों को अपनी ओर खींचता है जिससे लोग महानगरों की ओर पलायन करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि महानगर भीड़भाड़ का केंद्र बनते जा रहे हैं। यहाँ भीड़ के कारण यातायात कठिन हो गया है। यहाँ काम-काज के सिलसिले में लोगों को लंबी यात्राएँ करनी पड़ती हैं जो भीड़ के कारण दुष्कर हो जाती हैं। थोड़ी दूर की यात्रा भी पहाड़ पार करने जैसा हो जाती है। ऐसे में आवागमन को सरल, सुगम और सुखद बनाने के लिए ऐसे साधन की आवश्यकता महसूस होने लगी जो इनका समाधान कर सके। महानगरों में आवागमन की समस्या को हल किया है मैट्रो रेल ने।

आज मैट्रो रेल दिल्ली के अलावा अन्य महानगरों जैसे-मुंबई, जयपुर, लखनऊ, चेन्नई आदि में संचालित करने की योजना है जिन पर जोर-शोर से काम हो रहा है। मैट्रो रेल का संचालन खंभों पर पटरियाँ बिछाकर ज़मीन से काफ़ी ऊँचाई पर किया जाता है। इस कारण जाम की समस्या से मुक्ति तो मिली है तीव्र गति से यात्रा भी संभव हो गई है। इसके अलावा वातानुकूलित मैट्रो रेल की यात्रा लोगों को थकान, चिड़चिड़ेपन और रक्तचाप बढ़ने से बचाती है। इस यात्रा के बाद भी थकान की अनुभूति नहीं होती है। मैट्रो में लोगों की बढ़ती भीड़ इसका स्वयं में प्रमाण है। हमें मैट्रो रेल के नियमों का पालन करते हुए स्टेशन और रेल को साफ़-सुथरा बनाना चाहिए ताकि यह सुखद यात्रा सदा वरदान जैसी बनी रहे।

जल है तो जीवन है
अथवा
जल ही जीवन है
अथवा
जल संरक्षण-आज की आवश्यकता

संकेत बिंदु –

  • जीवनदायी जल
  • जल प्रदूषण के कारण
  • जल संरक्षण कितना ज़रूरी
  • जल संरक्षण के उपाय।

पृथ्वी पर प्राणियों के जीवन के लिए हवा के बाद सबसे आवश्यक वस्तु है-जल। यद्यपि भोजन भी आवश्यक है पर इस भोजन को तरल रूप में लाने और सुपाच्य बनाने के लिए जल की आवश्यकता होती है। मानव शरीर में लगभग 70 प्रतिशत जल होता है। कहा भी गया है-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंच तत्व से बना शरीरा। वनस्पतियों में तो 80 प्रतिशत से ज़्यादा जल पाया जाता है। इस जल के बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है। पृथ्वी पर यूँ तो तीन चौथाई भाग जल ही है पर इसमें पीने योग्य जल की मात्रा बहुत कम है। यह पीने योग्य जल कुओं, तालाबों, नदियों और झीलों में पाया जाता है जो मनुष्य की स्वार्थपूर्ण गतिविधियों के कारण दूषित होता जा रहा है।

मनुष्य नदी, तालाबों में खुद नहाता है और जानवरों को नहलाता है। इतना ही नहीं वह फैक्ट्रियों और नालियों का दूषित पानी इसमें मिलने देता है जिससे जल प्रदूषित होता है। पेयजल की मात्रा में आती कमी और गिरते भू-जल स्तर के कारण जल संरक्षण अत्यावश्यक हो गया। पृथ्वी पर जीवन बनाए और बचाए रखने के लिए जल बचाना ज़रूरी है। जल संरक्षण का पहला उपाय है-उपलब्ध जल का दुरुपयोग न किया जाए और हर स्तर पर होने वाली बरबादी को रोका जाए। टपकते नलों की मरम्मत की जाए और अपनी आदतों में सुधार लाया जाए। इसे बचाने का दूसरा उपाय है-वर्षा जल का संरक्षण करना और इसे व्यर्थ बहने से बचाना। ऐसा करके हम आने वाली पीढ़ी को जल का उपहार स्वतः दे जाएँगे।

पराधीनता-एक अभिशाप

संकेत बिंदु –

  • पराधीनता का आशय
  • पराधीनता-एक अभिशाप
  • पराधीनता से मुक्ति का साधन-त्याग एवं बलिदान

‘पराधीनता’ शब्द ‘पर’ और ‘अधीनता’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-दूसरों की अधीनता। अर्थात् हमारा जीवन, व्यवहार, कार्य आदि दूसरों की इच्छा पर निर्भर होना। वास्तव में पराधीनता एक अभिशाप है। पराधीन मनुष्य की ज़िंदगी उसी तरह हो जाती है, जैसे-पिंजरे में बंद पक्षी। ऐसा जीवन जीने वाला मनुष्य सपने में भी सुखी नहीं हो सकता है। उसे दूसरों का गुलाम बनकर अपनी इच्छाएँ और मन मारकर जीना होता है। पराधीन व्यक्ति को कितनी भी सुविधाएँ क्यों न दी जाए वह सुखी नहीं महसूस कर सकता है क्योंकि उसकी मानसिकता गुलामों जैसी हो चुकी होती है।

पराधीन व्यक्ति का मान-सम्मान और स्वाभिमान सभी कुछ नष्ट होकर रह जाता है। पराधीनता से मुक्ति पाने का साधन त्याग एवं बलिदान है। हमारा देश भी अंग्रेजों की पराधीनता झेल रहा था, परंतु क्रांतिकारी एवं देशभक्त युवाओं ने अपना सब कुछ त्याग कर स्वयं को संघर्ष की आग में झोंक दिया। उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार सहे, जेलों में प्राणांतक यातनाएँ सही। हज़ारों-लाखों ने अपनी कुरबानी दी। यह संघर्ष रंग लाया और हमें पराधीनता के अभिशाप से मुक्ति मिली। अब स्वतंत्र रहकर अभावों में भी सुख का अनुभव करते हैं।

जीवन में सत्संग का महत्त्व

संकेत बिंदु –

  • सत्संग क्या है
  • सत्संग दुर्लभ
  • सत्संग के लाभ

सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगों अर्थात् सज्जनों का साथ। सज्जनों के साथ रहना, उनकी बातें सुनना, उन्हें जीवन में उतारना ही सत्संग कहलाता है। सत्संग के कारण हमारे जीवन में परिवर्तन होने लगते हैं। इस संसार में सत्संग दुर्लभ माना जाता है। जिस पर ईश्वर की कृपा होती है, उसी को सत्संग का अवसर मिल पाता है। इससे हमारे मन, बुद्धि और मस्तिष्क का विकास होता है। इससे हमारे सोच-विचार और आचरण में बदलाव आने लगता है। व्यक्ति सत्संग के बिना विवेकवान नहीं हो सकता है।

तभी तो तुलसीदास ने कहा है-बिनु सत्संग विवेक ने होई। मनुष्य को जीने के लिए जिस प्रकार हवा और पानी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीवन में उत्थान विकास और विवेकवान बनने के लिए सत्संग आवश्यक है। सत्संग के विषय में कवि रहीम पहले ही कह चुके हैं-‘जैसी संगति कीजिए, तैसोई फल दीन।’ अर्थात् संगति के अनुसार मनुष्य को फल मिलता है। स्वाति नक्षत्र की एक बूंद केले के पत्ते पर पड़कर कपूर, हाथी के मस्तक पर पड़कर गजमौक्तिक और सीप में पड़कर मोती बन जाती है। अतः हमें भी सत्संग अवश्य करना चाहिए।

विद्यार्थी जीवन

संकेत बिंदु –

  • जीवन निर्माण का काल
  • विद्यार्थी के लक्षण
  • विद्यार्थी के कर्तव्य

हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को चार भागों में बाँट दिया था। इनमें जीवन के जिस आरंभिक पच्चीस वर्ष को ‘ब्रह्मचर्य’ के नाम से जाना था, उसी को आज विदयार्थी जीवन कहने में कोई विसंगति न होगी। इसी काल में बालक तरह-तरह की विद्याएँ, संस्कार और सदाचार की बातें सीखता है, अत: यह जीवन-निर्माण का काल होता है। इस समय बालक जो कुछ भी सीखता है, चाहे अच्छा या बुरा, उसका प्रभाव जीवन भर रहता है।

इन्हीं गुणों पर व्यक्ति का भविष्य निर्भर करता है। विद्यार्थी जीवन विद्यार्जन का काल होता है। इसके लिए नम्रता, जिज्ञासा, सेवा तथा कर्तव्य भावना आवश्यक है। इस समय उसे कौए-सी चेष्टा, बगुले-सा ध्यान, कुत्ते-सी निद्रा, कम भोजन करने वाला तथा घर-परिवार की मोहमाया से दूर रहने वाला होना चाहिए। जो विद्यार्थी आलस्य करते हैं या असंयमित आचरण के शिर हो जाते हैं वे सफलता से दूर रह जाते हैं। अतः विद्यार्थियों को विनम्र, जिज्ञासु, संयमी, परिश्रमी तथा अध्यवसायी बनना चाहिए। उसके जीवन में सादगी और विचारों की महानता होने पर वह उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करता है।

महानगरीय जीवन-एक वरदान या अभिशाप

संकेत बिंदु –

  • शहरों की ओर बढ़ते कदम
  • दिवास्वप्न
  • वरदान रूप
  • महानगरीय जीवन-एक अभिशाप

आदिकाल में जंगलों में रहने वाले मनुष्य ने ज्यों-ज्यों सभ्यता की दिशा में कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गईं। उसने इन आवश्यकताओं की पूर्ति का केंद्र शहर प्रतीत हुए और उसने शहरों की ओर कदम बढ़ा दिए। महानगरों का अपना विशेष आकर्षण होता है। यही चमक-दमक गाँवों में या छोटे शहरों में रहने वालों को विशेष रूप से आकर्षित करती है। उसे यहाँ सब कुछ आसानी से मिलता प्रतीत होता है। इसी दिवास्वप्न को देखते हुए उसके कदम महानगरों की ओर बढ़े चले आते हैं। इसके अलावा वह रोज़गार और बेहतर जीवन जीने की लालसा में इधर चला आता है। धनी वर्ग के लिए महानगर किसी वरदान से कम नहीं।

उनके कारोबार यहाँ फलते-फूलते हैं। कार, ए.सी., अच्छी सड़कें, विलासिता की वस्तुएँ, चौबीसों घंटे साथ निभाने वाली बिजली यहाँ जीवन को स्वर्गिक आनंद देती हैं। इसके विपरीत गरीब आदमी का जीवन यहाँ दयनीय है। रहने को मलिन स्थानों पर झुग्गियाँ, चारों ओर फैली गंदगी, मिलावटी वस्तुएँ, दूषित हवा, प्रदूषित पानी यहाँ के जीवन को नारकीय बना देते हैं। ऐसा जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं।

बिना विचारे जो करे

संकेत बिंदु –

  • सूक्ति का अर्थ

कवि गिरधर की एक कुंडली की पहली पंक्ति है–’बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए, काम बिगारे आपनो जग में होत हँसाय। अर्थात् बिना सोच-विचार किए जो व्यक्ति काम करता है वह बाद में पछताता है। ऐसा करके वह अपना काम बिगाड़ लेता है जिससे संसार में उसकी हँसी होती है। वास्तव में मानव जीवन में मनुष्य की सोच ही उसके व्यवहार का आईना होती है। बिना सोचे-समझे काम करके मानव वह अपनी समस्या को और भी जटिल बना लेता है। ऐसे में वह दूसरों की सहायता लेने के लिए विवश होता है।

सोच-विचार का अर्थ यह तो बिलकुल नहीं है कि वह हवाई खयालों में डूबा रहे और काम को करने के बजाए दिवास्वप्न में डूबा रहे। ऐसा सोच-विचार किस काम का जिससे वह काम करना तो दूर काम को हाथ भी न लगाए। सोच-विचार का अर्थ है काम करने के लिए सही दिशा में बढ़ना और अपनी सोच को इस स्तर का बनाना जिससे काम सफल हो जाए और किसी को हँसने का अवसर भी न मिले। इस तरह की सोच से मनुष्य की पहचान और व्यवहार दोनों ही अच्छा बन जाता है।

अनुशासन का महत्त्व

संकेत बिंदु –

  • अनुशासन का अभिप्राय
  • अनुशासन का महत्त्व
  • सफलता के लिए अनुशासन आवश्यक

अनुशासन का अभिप्राय है-शासन (नियम) के पीछे चलना। अर्थात् विद्वानों तथा समाज के माननीय लोगों द्वारा बनाए गए नैतिक एवं सामाजिक नियमों का पालन करते हुए जीना। जीवन में अनुशासन का बहुत महत्त्व है। अनुशासन जीने की कला है। यह व्यक्ति का वह मार्गदर्शक है जो व्यक्ति को सुपथ पर चलाते हुए लक्ष्य की ओर ले जाता है। अनुशासन का महत्त्व हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि अंकुश की सहायता से महावत पागल हाथी को भी वश में कर लेता है और मनचाहे काम करवाता है।

यदि महावत के पास अंकुश न हो तो पागल हाथी बेकाबू होकर विध्वंस बन जाता है। वास्तव में अनुशासनहीन जीवन नाविक विहीन नाव के समान होता है। नाविक नाव को मध्य धारा से धीरे-धीरे किनारे लगा लेता है परंतु नाविक विहीन नाव किसी चट्टान या पत्थर से टकराकर चकनाचूर हो जाती है। अनुशासनहीन व्यक्ति न अपना भला कर पाता है और न समाज या राष्ट्र का। अनुशासनहीन व्यक्ति सफलता से कोसों दूर रह जाता है। अतः जीवन को आनंदमय बनाने के लिए अनुशासन में रहना अत्यावश्यक है।

ऋतुराज-वसंत

संकेत बिंदु –

  • ऋतुराज क्यों
  • जड़-चेतन में नवोल्लास
  • स्वास्थ्यवर्धक ऋतु
  • वसंत ऋतु के त्योहार

हमारे देश भारत में छह ऋतुएँ पाई जाती हैं। इनमें से वसंत को ऋतुराज कहा जाता है। इस काल में न शीत की अधिकता होती है और न ग्रीष्म का तपन। वर्षा ऋतु का कीचड़ और कीट-पतंगों का आधिक्य भी नहीं होता है। माघ महीने की शुक्ल पंचमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक ही यह ऋतु बहुत-ही सुहावनी होती है। इस समय पेड़-पौधों में नवांकुर फूट पड़ते हैं। लताओं पर कलियाँ और फूल आ जाते हैं। चारों दिशाओं में फूलों की सुगंध, कोयल कूक तथा वासंती हवा की सरसर से वातावरण उल्लासमय दिखता है।

इस ऋतु का असर बच्चों, युवा, प्रौढ़ों और वृद्धों पर दिखता है। उनका तन-मन उल्लास से भर जाता है। यह ऋतु स्वास्थ्यवर्धक मानी गई है। स्वास्थ्य के अनुकूल जलवायु, सुंदर वातावरण तथा प्राणवायु की अधिकता के कारण संचार बढ़ जाता है। इससे मन में एक नया उल्लास एवं उमंग भर उठता है। वसंत पंचमी, होली इस ऋतु के त्योहार हैं। वसंत पंचमी के दिन ज्ञानदायिनी सरस्वती की पूजा-आराधना की जाती है तथा होली के दिन रंगों में सराबोर हम खुशी में डूब जाते हैं।

बदलती दुनिया में पीछे छूटते जीवन मूल्य

संकेत बिंदु –

  • संसार परिवर्तनशील
  • बदलाव का प्रभाव
  • खोते नैतिक मूल्य

यह संसार परिवर्तनशील है। यह पल-पल परिवर्तित हो रहा है। इस परिवर्तन के कारण कल तक जो नया था वह आज पुराना हो जाता है। कुछ ही वर्षों के बाद दुनिया का बदला रूप नज़र आने लगता है। इस परिवर्तन से हमारे जीवन मूल्य भी अछूते नहीं हैं। इन जीवन मूल्यों में बदलाव आता जा रहा है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल रहा है। यह बदलाव व्यक्ति के व्यवहार में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। विज्ञान की खोजों के कारण हर क्षेत्र में बदलाव आ गया है। पैदल और बैलगाड़ी पर सफ़र करने वाला मनुष्य वातानुकूलित रेलगाड़ियों और तीव्रगामी विमानों से सफ़र कर रहा है।

हरकोर और कबूतरों से संदेश भेजने वाला मनुष्य आज टेलीफ़ोन और तार की दुनिया से भी आगे आकर मोबाइल फ़ोन पर आमने-सामने बातें करने लगा है। दुर्भाग्य से हमारे जीवन मूल्य इस प्रगति में पीछे छूटते गए। कल तक दूसरों के लिए त्याग करने वाला, अपना सर्वस्व दान देनेवाला मनुष्य आज दूसरों का माल छीनकर अपना कर लेना चाहता है। परोपकार, उदारदता, मित्रता, परदुखकातरता, सहानुभूति, दया, क्षमा, साहस जैसे मूल्य जाने कहाँ छूटते जा रहे हैं। हम स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं।

देश हमारा सबसे प्यारा

संकेत बिंदु –

  • भारत का नामकरण
  • प्राकृतिक सौंदर्य
  • अनेकता में एकता
  • प्राचीन परंपरा
  • वर्तमान में भारत

स्वर्ग के समय जिस धरा पर मैं रहता हूँ, दुनिया उसे भारत के नाम से जानती-पहचानती है। प्राचीन काल में यहाँ आर्यों (सभ्य) का निवास था, इस कारण इसे आर्यावर्त कहा जाता था। प्राचीन साहित्य में इसे जंबूद्वीप के नाम से भी जाना जाता था। कहा जाता है कि प्रतापी राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर इसका नाम भारत पड़ा। भारत का प्राकृतिक सौंदर्य अप्रितम है। यहाँ छह ऋतुएँ बारी-बारी से आकर अपना सौंदर्य बिखरा जाती हैं। इसके उत्तर में मुकुट रूप में हिमालय है। दक्षिण में सागर चरण पखारता है। गंगा-यमुना जैसी पावन नदियाँ इसके सीने पर धवल हार की भांति प्रवाहित होती हैं। यहाँ के हरे-भरे वन इस सौंदर्य को और भी बढा देते हैं।

यहाँ विभिन्न भाषा-भाषी, जाति-धर्म के लोग रहते हैं। उनकी वेषभूषा, रहन-सहन, खान-पान और रीति-रिवाजों में पर्याप्त अंतर है फिर भी हम सभी भारतीय हैं और मिल-जुलकर रहते हैं। यहाँ की परंपरा अत्यंत प्राचीन, महान और समृद्धशाली है। भारतीय संस्कृति की गणना प्राचीनतम संस्कृतियों में की जाती है। वर्तमान में भारत को स्वार्थपरता, आतंकवाद, गरीबी, निरक्षरता आदि का सामना करना पड़ रहा है तथा मानवीय मूल्य कहीं खो गए-से लगते हैं। नेताओं की स्वार्थलोलुपता ने रही-सही कसर पूरी कर दी है, फिर भी हमें निराश होने की जरूरत नहीं है। भारत एक-न-एक दिन अपना खोया गौरव अवश्य प्राप्त करेगा।

इंटरनेट का उपयोग

संकेत बिंदु –

  • इंटरनेट क्या है
  • इंटरनेट के लाभ
  • उपयोग में सावधानियाँ

इंटरनेट को विज्ञान की अद्भुत देन कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वास्तव में इंटरनेट सूचनाओं एवं जानकारियों का विस्तृत जाल है। इसमें एक-दो नहीं करोड़ों पन्नों की जानकारी भरी है। इंटरनेट की मदद से हम अपनी इच्छित जानकारी और जिज्ञासा का हल कुछ ही पल में कंप्यूटर की मदद से पा सकते हैं। इसकी सहायता से हम कुछ ही क्षण में दुनिया से जुड़ जाते हैं। अपने विचित्र गुण के कारण इंटरनेट अत्यंत तेज़ी से युवाओं के बीच लोकप्रिय हो रहा है।

यह ऐसा माध्यम है जिसमें संचार के लगभग साधनों के गुण समाए हैं। इंटरनेट अपने आप में विशाल पुस्तकालय भी है जिसमें दुर्लभ जानकारियों से भरी अनेकानेक पुस्तकें समायी हैं। इसकी पहुँच दुनिया के कोने-कोने तक है। इंटरनेट बहु उपयोगी साधन है। इसके माध्यम से मनोवांछित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तो घर बैठे सिनेमा या हवाई जहाज़ के टिकट बुक करवा सकते हैं। यह पढ़ने लिखने वालों तथा शोधकर्ताओं के लिए वरदान है। इंटरनेट का सावधानीपूर्वक उपयोग न करने पर इसके दुरुपयोग की संभावना रहती है। इंटरनेट की अश्लील सामग्री से युवाओं का कोमल मन दिग्भ्रमित हो रहा है। विवेकपूर्वक उपयोग करने पर यह वरदान सरीखा है।

पुस्तकालय कितने उपयोगी

संकेत बिंदु –

  • पुस्तकालय क्या है?
  • पुस्तकालय के प्रकार
  • ज्ञान के भंडार
  • आवश्यकता एवं महत्त्व

पुस्तकालय शब्द दो शब्दों ‘पुस्तक’ और ‘आलय’ के मेल से बना है। इसमें आलय का अर्थ है-घर। अर्थात् वह स्थान जहाँ बहुत सारी पुस्तकें सुरक्षित एवं व्यवस्थित ढंग से रखी जाती हैं, उसे पुस्तकालय कहते हैं। प्राचीन काल में कुछ राजा-महाराजा अपना शौक पूरा करने के लिए पुस्तकालय बनवाया करते थे। पुस्तकालय मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं-निजी पुस्तकालय और सार्वजनिक पुस्तकालय। निजी पुस्तकालय व्यक्ति अपने सामर्थ्य, रुचि और आवश्यकता के अनुसार बनवाता है तथा स्वयं उसका उपयोग करता है।

इसके विपरीत सार्वजनिक पुस्तकालय प्रायः सरकार द्वारा बनवाए एवं संचालित किए जाते हैं, जिनके दरवाज़े हर एक के लिए खुले रहते हैं। यहाँ कोई भी जाकर उनका लाभ उठा सकता है। यहाँ विविध विषयों पर बहुत सारी उपयोगी एवं दुर्लभ पुस्तकें मिल जाती हैं। यहाँ धर्म, अर्थ, ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा राजनीतिक विषयों के अलावा पौराणिक पुस्तकें मिलती हैं। इस प्रकार पुस्तकालय ज्ञान के भंडार हैं। इस युग में प्रत्येक व्यक्ति पुस्तकें नहीं खरीद सकता है तथा उनका रख-रखाव नहीं करता है। ज्ञान की उपयोगिता तो सर्वविदित है। ऐसे में पुस्तकालय की आवश्यकता एवं महत्त्व और भी बढ़ जाता है।

आत्मनिर्भरता

संकेत बिंदु –

  • आत्मनिर्भरता क्या है
  • आत्मनिर्भरता के लाभ
  • आत्मनिर्भरता से जुड़ी सावधानियाँ

आत्मनिर्भरता दो शब्दों ‘आत्म’ और निर्भरता से बना है, जिसका अर्थ है-स्वयं पर निर्भर रहना। अर्थात् अपने कार्यों और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरे का मुँह न ताकना। आत्मनिर्भरता उत्तम कोटि का मानवीय गुण है। इससे व्यक्ति कर्म करने लिए स्वतः प्रेरित होता है। व्यक्ति को अपनी शक्ति, योग्यता और कार्यक्षमता पर पूरा विश्वास होता है। इसी बल पर व्यक्ति उत्साहित होकर पूरी लगन से काम करता है और सफलता का वरण करता है। आत्मनिर्भरता व्यक्ति के लिए स्वतः प्रेरणा का कार्य करती है।

यह प्रेरणा व्यक्ति को निरंतर आगे ही आगे ले जाती है। इससे व्यक्ति में निराशा या हीनता नहीं आने पाती है। आगे बढ़ते रहने से हम दसरों के लिए आदर्श और अनुकरणीय बन जाते हैं। यहाँ एक बात यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि हम अति उत्साहित होकर अति आत्मविश्वासी न बन जाएँ क्योंकि इससे हमारे कदम गलत दिशा में उठ सकते हैं। अच्छा हो कि कोई कदम उठाने से पूर्व हम अपनी कार्य क्षमता का आँकलन कर लें, इससे हम असफलता का शिकार होने से बच जाएँगे, पर हमें हर परिस्थिति में आत्म निर्भर बनना चाहिए।

नारी तेरे रूप अनेक

संकेत बिंदु –

  • नारी के विविध रूप
  • शिक्षा में प्रगति
  • विभिन्न पदों पर नारी
  • सुरक्षा की आवश्यकता

समाज में नारी के अनेक रूप हैं। वह विविध भूमिकाएं निभाकर परिवार एवं समाज के विकास में अपना योगदान देती है। वह परिवार में माँ, दादी, पत्नी, बहन, भाभी, चाची, मामी आदि भूमिकाओं में नज़र आती है। अब उसके इस कल्याणी रूप के अलावा नौकरी करने वाला रूप भी दिखने लगा है। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के लिए उठाए गए कदमों से नारी शिक्षा में प्रगति हुई है। साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, जिसमें स्त्री शिक्षा का भी योगदान है। शिक्षा के कारण उसके उत्तरदायित्वों में निरंतर वृद्धि होती गई।

आज नारी घर की चारदीवारी को लाँघकर नौकरी-पेशा करने लगी है। शायद ही कोई क्षेत्र हो जहाँ नारी नौकरी न कर रही हो। डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका, नर्स, प्रशासनिक अधिकारी, क्लर्क, विमान परिचारिका के रूप में उसे सेवा देते देखा जा सकता है। उसे सरकारी, गैरसरकारी, सार्वजनिक संस्थानों में काम करते देखा जा सकता है। आज लोगों की सोच में बदलाव आने के कारण नारी को छेड़छाड़, अश्लीलता, छींटाकसी, हिंसात्मक घटनाओं का शिकार होना पड़ रहा है। ऐसे में नारी के प्रति सम्मानजनक सोच, आदर की भावना एवं सुरक्षा देने के लिए तत्परता की आवश्यकता है।

मैंने ग्रीष्मावकाश कैसे बिताया
अथवा
मेरी अविस्मरणीय यात्रा

संकेत बिंदु –

  • पर्वतों का आकर्षण
  • यात्रा की तैयारी एवं प्रस्थान
  • मनभावन स्थल
  • अविस्मरणीय स्मृतियाँ

न जाने क्यों पर्वत मुझे सदा से ही आकर्षित करते हैं। आकाश छूते उनके उन्नत शीश, विशालकाय शरीर, शरीर पर रोएँ के समान उगी वनस्पतियाँ और पेड और इनसे भी अधिक उनके पैरों के पास खड़े होकर उनकी विशालता तथा अपने छोटेपन की अनुभूति मुझे रोमांचित कर देती है। इसी बीते ग्रीष्मावकाश में हम चार-पाँच मित्रों ने परीक्षा से पूर्व ही देहरादून की यात्रा कार्यक्रम घरवालों की अनुमति से बनाया और ‘देहरादून एक्सप्रेस’ से आरक्षण करा लिया। यात्रा की सारी तैयारी करके 02 जून को हम दिल्ली से शाम को चलकर प्रात: देहरादून पहुँच गए। वहाँ होटल में रुके और नित्यकर्म से निवृत्त होकर सहस्रधारा स्नान का मन बनाया।

वहाँ की पतली-सी शीतल धारा में नहाते ही हमारी थकान छूमंतर हो गई। हमने स्वास्थ्य के लिए उपयोगी गंधक का पानी भी पिया। अगले दिन हम बस द्वारा मंसूरी गए। यहाँ की सीली पहाड़ी सड़क की यात्रा बड़ी रोमांचक थी। यहाँ हम चार दिन रुककर कैंपटीफाल समेत अनेक स्थानों को देखा। यहाँ का सौंदर्य रात्रि में और भी निखर उठता था। ‘लाल टिब्बा’ नामक स्थान देखकर हम देहरादून आए और यहाँ सप्ताह भर रुककर गंगा स्नान किया। मंसा देवी मंदिर पैदल जाना एक विचित्र अनुभव था। यहाँ बिताए ग्रीष्मावकाश की स्मृतियाँ आज भी ताज़ी हैं।

मेरे जीवन का लक्ष्य

संकेत बिंदु –

  • लक्ष्य निर्धारण
  • लक्ष्य के प्रति समर्पण, यही लक्ष्य क्यों?
  • विकास में योगदान

लक्ष्यहीन जीवन भटकाव से भरा रहता है। ऐसा जीवन लोगों की दृष्टि में अच्छा नहीं माना जाता है। निरुद्देश्य घूमते रहने से अच्छा है कि हम अपने जीवन का एक लक्ष्य बना लें। बचपन से ही मैं एक अच्छा इंजीनियर बनने के लिए सोचा करता था। अब यही मेरा जीवन लक्ष्य है। इसे मैं पूरा करके ही रहूँगा। इसके लिए मैंने आठवीं कक्षा से ही विज्ञान, गणित, अंग्रेज़ी जैसे विषयों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। मैंने दसवीं में ‘ए’ ग्रेड लाने का फैसला किया है, ताकि ग्यारहवीं में विज्ञान पढ़ने में कोई परेशानी न आए।

यह लक्ष्य मैंने इसलिए चुना क्योंकि समाज में इंजीनियर का स्थान ऊँचा माना जाता है। वह समाज और प्रकृति को सुंदर बनाने में अपना सहयोग देता है। इसमें नौकरी और स्वतंत्र व्यवसाय दोनों के रास्ते खुले रहते हैं। यह आय और सम्मान दोनों ही पाने का साधन है। एक इंजीनियर बनकर औद्योगिक विकास में अपना योगदान देना चाहता हूँ। अपने परिश्रम और नई खोज द्वारा देश के विकास में तनमन से प्रयास करूंगा। मैं प्रसिद्ध भारतीय इंजीनियर सर गंगा राम के कार्यों की तरह समाज के लिए हितकारी काम करना चाहता हूँ।

भ्रष्टाचार की समस्या एवं समाधान

संकेत बिंदु –

  • भूमिका
  • भ्रष्टाचार की परिभाषा
  • भ्रष्टाचार फैलने के कारण
  • समाधान

वर्तमान समय में समाज को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भ्रष्टाचार की समस्या उनमें सर्वोपरि है, जिससे किसीन-किसी मोड़ पर दो-चार होना पड़ता है। भ्रष्टाचार का अर्थ है-भ्रष्ट आचरण करना अर्थात् स्वार्थ के वशीभूत होकर नैतिक मापदंडों के विरुद्ध आचरण करना ही भ्रष्टाचार है। आज यह समाज में अपनी जड़ें जमा चुका है। बेईमानी, चोरबाज़ारी, रिश्वतखोरी, मिलावट, जमाखोरी, जैसी बुराइयाँ भ्रष्टाचार की ही देन है। सरकारी एवं राजनैतिक अधिकारों का दुरुपयोग कर लोग भ्रष्टाचार में आकर डूबकर अपने भले में लग जाते हैं और दूसरों के हित से उनका कोई लेना-देना नहीं रह जाता है।

भौतिकवाद के प्रभावस्वरूप लोगों की सोच में बदलाव आया है और वे येन-केन प्रकारेण अधिकाधिक धन कमाना अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठे हैं। रही-सही कसर उपभोक्तावादी संस्कृति ने पूरी कर दी है, जिसके लोभ में फँसकर व्यक्ति बिना परिश्रम किए अधिकाधिक सुख-सुविधाओं का उपभोग कर लेना चाहता है। भ्रष्टाचार के समाधान के लिए सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए। भ्रष्टाचारियों द्वारा अर्जित संपत्ति जब्त कर उन्हें पदों से हटा देना चाहिए। भ्रष्ट नेताओं की सदस्यता समाप्त कर उनके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इसके अलावा लोगों को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा तथा युवाओं को आगे आना चाहिए।

मेरी प्रिय पुस्तक

संकेत बिंदु –

  • प्रिय पुस्तक
  • प्रिय होने का कारण
  • मर्मस्पर्शी कथ्य
  • पथ-प्रदर्शक

अब तक मैंने कहानी, नाटक के अलावा कविताओं की अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं, पर जिस पुस्तक ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया, वह है-गोस्वामी तुलसीदास की अमरकृति रामचरित मानस। इस महाकवि ने रामचरित मानस की रचना चार सौ वर्ष से भी अधिक समय पूर्व की थी परंतु इस पुस्तक की प्रासंगिकता में कोई कमी नहीं आई है। वर्तमान परिस्थितियों में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। इसमें पिता-पुत्र, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य, स्वामी-सेवक, भाई-भाई और मित्र आदि के संबंधों का सुंदर निरूपण करते हुए उन्हें कर्तव्यबोध भी कराती है। यह सब व्यावहारिक धरातल पर किया गया है। इसमें भारतीय संस्कृति की मूल भावना ‘एकता’ और समन्वय का घनीभूत रूप है। इसका कथ्य भगवान राम की पावन जीवनगाथा है जो जनमानस को कदम-कदम पर प्रेरित करती है और कर्तव्यबोध एवं उत्तरदायित्व की भावना जगाती है। इसकी भाषा-शैली अत्यंत सहज-सरल है, जिसे आसानी से समझा जा सकता है। यह पुस्तक मानव को आजीवन सदाचार की राह दिखाती है।

जीवनमूल्यों की बढ़ती आवश्यकता

संकेत बिंदु –

  • जीवन मूल्यों का अर्थ

जीवन मूल्यों का अर्थ उन आदर्शों और मान्यताओं से है जिन्हें हमारे ऋषि-मुनियों ने जीवन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए बनाया था। ये जीवन मूल्य ही हैं जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखते हैं अन्यथा मनुष्य तथा पशुओं में भेद करना मुश्किल हो जाएगा। किसी तरह छीन-झपटकर अपना पेट भरना, घूमने, सोने जैसे काम तो पशु भी कर लेते हैं, पर जीवन मूल्यों के कारण ही व्यक्ति अपने आगे की थाली किसी भूखे के आगे सरका देता है। कार्ल मार्क्स ने अपनी मेज़ की दराज़ में रखी ब्रेड को दूसरों को खिला दिया। लेनिन ने दूसरों के हक के लिए संघर्ष किया। कर्ण और राजा हरिश्चंद की दानशीलता उनके जीवन मूल्यों के कारण ही थी।

गांधी जी ने दूसरों को अधनंगा देखकर एक धोती से काम चलाया तो, राजा शिवि ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर का मांस काटकर बाज को दिया। दुर्भाग्य से पाश्चात्य सभ्यता के कारण लोग इन जीवन-मूल्यों की उपेक्षा करते हैं। त्याग, परोपकार, उदारता पर दुख कातरता इतिहास की बातें होती जा रही हैं, इससे व्यक्ति एवं समाज में असंतोष एवं तृष्णा बढ़ रही है।

दूरदर्शन की उपयोगिता

संकेत बिंदु –

  • दूरदर्शन की आवश्यकता
  • दूरदर्शन का महत्त्व
  • शिक्षा और दूरदर्शन
  • सांस्कृतिक प्रदूषण

जे.एल. बेयर्ड ने जब दूरदर्शन की खोज की थी तो यह बिलकुल भी नहीं सोचा था कि उनकी खोज एक दिन हर घर की आवश्यकता बन जाएगी। सचमुच आज दूरदर्शन हर परिवार, क्या हर व्यक्ति के लिए आवश्यक बनता जा रहा है। यह लोगों के थके-हारे मन एवं शरीर को मनोरंजन प्रदान कर नवीन उत्साह से भर देता है। दूरदर्शन केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि नित नई-नई जानकारियों का साधन भी है। इससे अपने देश की घटनाओं के अलावा विदेश की जानकारी भी प्राप्त की जाती है और घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है।

वर्तमान में यह बच्चे, बूढ़े और युवाओं सभी का चेहता बन गया है। छात्रों के लिए एन.सी.ई.आर. टी. द्वारा शैक्षिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। इनमें विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान जैसे विषय मुख्य हैं। विद्यार्थियों को इन कार्यक्रमों का लाभ उठाना चाहिए। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों में फूहड़ता, अश्लीलता, हिंसा, मारकाट, लूट आदि के दृश्य होते हैं, जो युवा मन पर कुभाव डालते हैं। इससे सांस्कृतिक प्रदूषण में वृद्धि हुई है परंतु क्या देखना है, कितना देखना है, यह तो मनुष्य के ही हाथ में है।

समय का सदुपयोग

संकेत बिंदु –

  • समय सदुपयोग का महत्त्व
  • आलस्य का महान शत्रु
  • विद्यार्थी जीवन में समय की महत्ता
  • सफलता का रहस्य

समय निरंतर चलने वाली गतिशील शक्ति है। बुद्धिमान इसका महत्त्व समझकर सदुपयोग करते हैं जबकि अज्ञानी इसे व्यर्थ में गँवा देते हैं। समय का सदुपयोग करने वाले लोग ही समय पर अपना काम पूरा कर पाते हैं। जो समय की महत्ता समझता है, समय उसे महत्त्वपूर्ण बना देता है। परिश्रमी एवं कर्मशील व्यक्ति समय का एक-एक पल नियोजित कर सदुपयोग करते हैं। आलसी व्यक्ति आलस करते हुए समय गंवाते हैं और काम अपूर्ण रह जाने पर समय की कमी का रोना रोते हैं। उनका आलस्य उन्हें समय पर काम करने में अवरोध उत्पन्न करता है। आलस्य व्यक्ति का महान शत्रु है। विद्यार्थी जीवन में समय के सदुपयोग की महत्ता और भी बढ़ जाती है। उसे प्रत्येक विषय के लिए समय नियोजन करना पड़ता है। इस काल में विद्यार्थी में जो आदतें पड़ जाती हैं वे आजीवन साथ रहती हैं। ऐसे समय के सदुपयोग की आदत और भी महत्त्वपूर्ण बन जाती है। संसार में जितने भी लोगों ने सफलता का शिखर छुआ, उसके पीछे समय का सदुपयोग करने का रहस्य छिपा था। गांधी, नेहरू, टैगोर, तिलक, नेपोलियन बोनापार्ट आदि की सफलता का मूलमंत्र समय का सदुपयोग ही था।

बच्चों के कंधों पर बढ़ता बोझ

संकेत बिंदु –

  • प्रतियोगिता का दौर
  • बच्चों पर प्रभाव
  • स्वार्थी प्रवृत्ति

वर्तमान समय में प्रतियोगिता का दौर है। इस दौर में हर माता-पिता की यह इच्छा रहती है कि उसका बच्चा सबसे आगे निकल जाए। इसी सोच के कारण आज स्कूल जाने वाले बच्चों के कंधे पर बस्ते का बोझ बढ़ता जा रहा है। कमज़ोर शरीर वाले बच्चे तो अपना बस्ता भी नहीं उठा पाते हैं। जो उठा भी पाते हैं वे कमर झुकाए चल रहे हैं पर माता-पिता देखकर भी इसे अनदेखा कर रहे हैं। शिक्षाविद् तथा विद्वानों ने समय-समय पर सुझाव दिया है कि बस्ते का बोझ कम किया जाए, पर माता-पिता की सोच स्कूल तथा पब्लिशर की लालच के कारण उनके सुझाव कागजों तक ही सीमित रह जाते हैं।

माता-पिता अपने बच्चे को अल्पकाल में सबसे होशियार बना देना चाहते हैं तो स्कूल के प्रधानाचार्य और प्रबंधक पुस्तकें बेचकर लाभ कमाना चाहते हैं। जब ज़्यादा पुस्तकें चाहिए तो प्रकाशक संस्थानों (Publishers) को काम मिलेगा और उन्हें भी दो का चार बनाने का मौका मिलेगा। अब इसी लोभ में बच्चे की कमर टूटे या वह बस्ता उठाए झुककर चले, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं रह जाता है। अब समय आ गया है कि बच्चों के बस्ते का बोझ अविलंब कम किया जाए।

अतिथि देवो भवः

संकेत बिंदु –

  • अतिथि भगवान का रूप
  • अतिथि कौन
  • पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव

भारतीय संस्कृति की ऐसी अनेक विशेषताएँ हैं जो इसे अन्य संस्कृतियों से विशिष्ट बनाती है। इनमें एक है अतिथि को देवता मानने की सोच। इस धारणा के कारण लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार अतिथि का स्वागत करते हैं और उसे संतुष्ट रखने का प्रयास करते हैं। अतिथि कौन होता है? अतिथि वह व्यक्ति होता है जिसके आने की कोई तिथि नहीं होती है। वह अचानक आ धमकता है, बिना किसी पूर्व सूचना के। इस स्थिति में जब हम अतिथि का भरपूर स्वागत सत्कार करते हैं तो अतिथि पर ही नहीं समाज पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

भारतीय संस्कृति की परंपरानुसार अतिथि का स्वागत-सत्कार करना हर भारतीय का दायित्व बनता है। हमें इस परंपरा का निर्वाह करना ही चाहिए। आजकल टूटते परिवार, बढ़ती, महँगाई, समयाभाव काम-काज की अधिकता और भागमभाग की जिंदगी के बीच अतिथि का सत्कार करना मुश्किल होता जा रहा है। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण हम इसे भूलते जा रहे हैं। कुछ भी हो पर हमें अतिथि सत्कार की परंपरा को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।

ट्रैफिक जाम की समस्या

संकेत बिंदु –

  • ट्रैफिक जाम की वर्तमान स्थिति
  • जाम से निपटने के उपाय
  • ‘आड-इवेन’ योजना

दिल्ली को देश का दिल कहा जाता है। जो यहाँ आता है वह यहीं का होकर रह जाता है। इस कारण इस महानगर में सरकारी और व्यक्तिगत वाहनों की संख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही है। इससे यहाँ हर चौराहे पर लगभग जाम की स्थिति देखने को मिलती है। सुबह-शाम के समय मुख्य मार्गों पर कई-कई किलोमीटर लंबी वाहनों की कतारें देखने को मिलती हैं।

ट्रैफिक जाम से निपटने के लिए सरकार और पुलिस द्वारा समय-समय पर कदम उठाए जाते हैं। दिल्ली में मेट्रो रेल की शुरुआत इसी दिशा में उठाया एक कदम था। जाम से बचाने के लिए व्यस्त चौराहों पर फ़्लाई ओवर बनाए जाते हैं। इसके अलावा दिल्ली सरकार ने ‘ऑड और इवेन’ योजना शुरू की थी। इससे शुरू में लोगों को परेशानी तो हुई, पर जाम की समस्या में कमी आई थी। इससे निपटने के लिए सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग, कार पूलिंग तथा व्यक्तिगत वाहनों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए।

पाश्चात्य सभ्यता की गिरफ्त में आते युवा ।

संकेत बिंदु –

  • पाश्चात्य संस्कृति का अर्थ
  • पाश्चात्य संस्कृति का आकर्षण
  • मानवीय मूल्यों पर बुरा असर

पाश्चात्य संस्कृति को पश्चिमी देशों की संस्कृति भी कहा जाता है। अर्थात् पश्चिमी देशों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, आधुनिक जीवन शैली आदि का मिला-जुला नाम पाश्चात्य संस्कृति है। पश्चात्य संस्कृति से युवा वर्ग सम्मोहित हो गया है। वह पाश्चात्य संस्कृति को ललचाई नज़रों से देख रहा है। वह अपना सोच-विचार रहन-सहन, आचार-विचार आदि पश्चिमी देशों जैसा करता जा रहा है। युवाओं के लिए धोती-कुरता या कुरता-पजामा पिछड़ी पोशाकों का प्रतीक है। वे जींस और टी-शर्ट पहनने लगे हैं।

‘प्रणाम’ और ‘चरण-स्पर्श’ की जगह हाय हैलो लेता जा रहा है। भारतीय पकवानों की जगह बर्गर, पीज्जा, चाउमीन, नूडलस, समोसा, मोमोज़, पेटीज आदि रुचिकर लगते हैं। पाश्चात्य संस्कृति का सबसे बुरा असर हमारे जीवन मूल्यों पर पड़ रहा है। त्याग, प्रेम, सद्भाव, भाईचारा, उदारता परोपकार आदि की जगह स्वार्थपरता, आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता लेती जा रही है। समाज के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।

पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र

संकेत बिंदु –

  • पुस्तकों का महत्त्व
  • ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार
  • सच्चा मनुष्य बनने में सहायक

मनुष्य ज्ञान पिपासु एवं जिज्ञासु प्राणी है। उसकी ज्ञान पियासा और जिज्ञासा को शांत करने का सर्वोत्तम साधन पुस्तकें हैं। पुस्तकों में विविध प्रकार का ज्ञान भरा होता है जिससे मनुष्य अच्छा इनसान बनता है तथा उन्नति करता है। इस प्रकार पुस्तकों का बहुत महत्त्व है। पुस्तकें दुविधाग्रस्त व्यक्ति का मार्गदर्शन करती हैं। इससे दुविधाओं से मुक्ति मिलती है। पुस्तकें ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार होती हैं। इनसे व्यक्ति ज्ञानवान बनता है। जब वह कामकाज से थक जाता है तो पुस्तकों से अपना मनोरंजन करता है और थकानमुक्त महसूस करता है।

पुस्तकें हमारे सच्चे विवेकशील मित्र की तरह होती हैं। वे हमें सही-गलत, नैतिक-अनैतिक, ज्ञान-अज्ञान तथा न्याय-अन्याय में अंतर करना सिखाती हैं। पुस्तकें मानसिक शांति प्रदान करती हैं तथा कर्म का संदेश देती हैं। रामचरितमानस, महाभारत श्रीमद् भागवत गीता, कामायनी, निर्मला, साकेत आदि ऐसी ही पुस्तकें हैं। पुस्तकें हमें धर्म की ओर मोड़कर नैतिकता का पाठ पढ़ाती हैं। हमें पुस्तकें पढ़कर फेंकने के बजाय किसी व्यक्ति या पुस्तकालय को दे देनी चाहिए।

औद्योगीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव

संकेत बिंदु –

  • औद्योगीकरण एक आवश्यकता
  • वनों को क्षति
  • पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि

हमारा देश विकासशील राष्ट्र है। विकास के पथ पर बढ़ते हुए यहाँ अनेक औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की गईं। स्वतंत्रता के बाद औद्योगीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया गया। इससे हमारे देश में ही सुई से हवाई जहाज़ तक का निर्माण किया जाने लगा। इससे एक ओर लोगों को रोजगार मिला तो दूसरी ओर अर्थव्यवस्था मज़बूत हुई। इसके लिए पर्याप्त भूमि की आवश्यकता हुई जिसकी पूर्ति के लिए वनों को काटा गया।

इतना ही नहीं इन इकाइयों तक पहुँचने के लिए और इनमें बना माल लाने ले जाने के लिए सड़कें बनाईं गई जिससे हरे-भरे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की गई। इसके अलावा इन औद्योगिक इकाइयों से निकले धुएँ से हवा में प्रदूषक तत्व मिले जिससे हवा जहरीली होती है। इनसे निकला अपशिष्ट पदार्थ और दूषित जल ने आस-पास के जल स्रोतों को प्रदूषित किया। इससे पानी ही नहीं मृदा प्रदूषण भी बढ़ा। इन इकाइयों में लगे उच्च क्षमता के मोटरों ने ध्वनि प्रदूषण को बढ़ावा दिया। औद्योगीकरण एक आवश्यकता है परंतु पर्यावरण का ध्यान रखकर इनकी स्थापना की जानी चाहिए।

संतोष-सबसे बड़ा धन

संकेत बिंदु –

  • भौतिकवाद का असर

मनुष्य की प्रवृत्ति ही है कि वह अधिक से अधिक सुख-सुविधाएँ पा लेना चाहता है। वह दूसरों के हिस्से की सुविधाएँ अपना बनाता जा रहा है। भौतिकवाद ने उसकी तृष्णा और भी बढ़ा दिया है। इससे व्यथित होकर वह सुख के पीछे भागता जा रहा है। वह मृगतृष्णा का शिकार हो रहा है। इसके बाद भी वह सुखी नहीं है, क्योंकि मनुष्य के मन में संतोष नामकी चीज़ ही नहीं बची है। कहा भी गया है- ‘गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान। जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान।।

अर्थात् संतोष रूपी धन के सामने सभी धन तुच्छ हैं। जो व्यक्ति संतोषी होता है वही सच्चा सुख पाता है। धन का लालच व्यक्ति को चैन से बैठने नहीं देता है। लालच के कारण व्यक्ति भूखे पशु की भाँति यहाँ-वहाँ घूमता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति के मन में संतोष की भावना आ गई तो वह प्रसन्नता की अनुभूति करता है। वह उतने ही पैसों की आवश्यकता महसूस करता है जितना कि उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ज़रूरी होती है। ऐसे ही लोग कहते हैं-‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।’

संयुक्त परिवार के प्रति बदलती अवधारणा

संकेत बिंदु –

  • संयुक्त परिवार के लाभ
  • संयुक्त परिवार टूटने के कारण
  • हानियाँ

भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार को महत्ता दी गई है। ऐसे परिवार में माता-पिता और बच्चों के अलावा दादा-दादी चाचा-चाची तथा ताऊ-ताई और उनके बच्चे साथ रहते हैं, खाते-पीते हैं और एक ही छत के नीचे रहते हैं। संयुक्त परिवार उस बड़े-बूढ़े बरगद के वृक्ष की भाँति होते हैं जो धूप-सरदी और वर्षा स्वयं सहकर दूसरों को सुख देते हैं। यही स्थिति घर के बुजुर्गों की होती है जो परिवार के अन्य सदस्यों को परेशानी से बचाते हैं। वे छोटे बच्चों को ज्ञानपूर्ण बातों एवं कहानियों से शिक्षा ही नहीं देते बल्कि उनका चरित्र निर्माण भी करते हैं। संयुक्त परिवार टूटने से अब दादी-नानी की कहानियाँ कागजों की बातें बनती जा रही हैं। संयुक्त परिवार टूटने का मुख्य कारण भौतिकवाद बढ़ती स्वार्थी प्रवृत्ति तथा पश्चिमी सभ्यता का असर है। इसके अलावा शिक्षित होकर नौकरी करने अन्य शहर में जाना वहीं बस जाना भी है। संयुक्त परिवार टूटने से अब बच्चों में नैतिक ज्ञान एवं संस्कार की कमी होती जा रही हैं। उन्हें अपनों का संरक्षण न मिल पाने से वे असुरक्षा तथा हीनता से ग्रसित रहते हैं। माता-पिता दोनों के काम पर जाने से बच्चों को केच में अपना बचपन बिताने को विवश होना पड़ रहा है। प्यार तथा अपनेपन की कमी में यही बच्चे वृद्ध माता की उपेक्षा करते हैं जिससे उन्हें वृद्धाश्रम की शरण लेनी पड़ती है।

सादा जीवन उच्च विचार

संकेत बिंदु –

  • सादा जीवन उच्च विचार का आशय
  • उपभोक्तावाद का प्रभाव
  • महापुरुषों के उदाहरण

मनुष्य का व्यवहार, उसका रहन-सहन और कार्यकलाप उसकी अपनी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है। कुछ लोग फ़ैशन और चमक-दमक से पूर्ण जीवन को ही आधुनिकता का पर्याय मानते हैं, पर कुछ लोग साधारण किंतु साफ़-सुथरे पहनावे का वरीयता देते हुए अपने आचरण में सरलता पवित्रता, उदारता, त्याग, करुणा आदि उच्च मानवीय गुणों को व्यवहार में बनाए रखते हैं। ऐसा जीवन किसी तपस्या से कम नहीं है। कुछ वर्षों से समाज में उपभोक्तावाद का प्रभाव जोरों पर है। लोग सुख-सुविधाओं का अधिकाधिक प्रयोग करके शारीरिक और भौतिक सुख पाना चाहते हैं। इसके लिए वे तड़क-भड़क और दिखावायुक्त आडंबरपूर्ण जीवन जीते हैं। इससे व्यक्ति की मानसिक शांति छिन जाती है तथा जीवन में रिक्तता एवं व्यग्रता बढ़ती जाती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सादा जीवन जीते हुए विचारों की श्रेष्ठता बनाए रखी। उन्होंने मानवता की भलाई को अपना परम लक्ष्य समझा। गांधी जी ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का आदर्श अपनाते थे और संपूर्ण विश्व में पूजनीय बने।

आतंकवाद-एक विश्वव्यापी समस्या

संकेत बिंदु –

  • संपूर्ण विश्व की समस्या
  • आतंकवाद के दुष्प्रभाव
  • समाधान के प्रयास

हर देश की अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं, परंतु जिस समस्या के कारण आज पूरा विश्व परेशान है वह है-आतंकवाद। अपनी हिंसक शक्ति से जनता में भय का वातावरण बनाकर उसे आतंकित करना और अपनी अनुचित माँगे मँगवाने के लिए हिंसा का सहारा लेना ही आतंकवाद है। आज भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, ईराक ही नहीं बल्कि अमेरिका और इंग्लैंड भी इसकी गिरफ़्त में आ गए हैं। 02 अक्टूबर 2017 को अमेरिका के लास वेगास के एक कंसर्ट में अंधाधुंध गोलीबारी से साठ से अधिक लोगों की हत्या इसका ताज़ा उदाहरण है। ऐसी घटनाओं से दुनिया की नींद उड़ी है। कब कहाँ कौन-सी आतंकी घटना हो जाए, इसकी आशंका बनी रहती है।

आतंकवाद से समाज और राष्ट्र को अपूर्ण क्षति होती है। अनेक बच्चे जवान और बूढ़े असमय काल-कवलित हो जाते हैं। आतंकवाद से निपटने में जो धन खर्च होता है, उसे विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। आतंकवाद से निपटने के लिए दुनिया के सभी देशों को मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। पकड़े गए आतंकियों का सिर कुचलकर आतंकवाद को मुँह तोड़ जवाब देना चाहिए ताकि इस पर नियंत्रण किया जा सके।

मनोरंजन के आधुनिक साधन

संकेत बिंदु –

  • मनोरंजन की आवश्यकता
  • मनोरंजन के प्राचीन और आधुनिकतम साधन
  • मनोरंजन से किसी को दुख नहीं

श्रम से थके तन-मन और मनोरंजन का अत्यंत गहरा नाता है। मनुष्य दिनभर मानसिक और शारीरिक श्रम से थककर चूर हो जाता है तो वह मनोरंजन करना चाहता है ताकि वह थकान से मुक्त और नई ऊर्जा से भर जाए। प्राचीन काल में मनुष्य पशु-पक्षियों से अपना मनोरंजन करता था। वह मुरगे, भेड़ें तथा भैसों-बैलों की लड़ाई देखकर प्रसन्न होता था। कालांतर में वह साहित्य संगीत, कला आदि से अपना मनोरंजन करने लगा। समय के साथ-साथ वह मनोरंजन के उत्तम साधनों की खोज करता रहा।

विज्ञान का साथ पाकर उसने नए-नए साधन बनाए। ग्रामोफोन, टेलीविजन, वी.सी.आर. फ़िल्मों के अलावा रिकॉर्डेड गीत-संगीत से अपना मनोरंजन करने लगा। कंप्यूटर और मोबाइल फ़ोन भी उसका पसंदीदा साधन बन गया है। अपना मनोरंजन करते समय हमें दूसरों के दुख का भी ध्यान रखना चाहिए। ऊँची आवाज़ में गीत संगीत बजाना, देर रात तक डीजे पर नाचने से किसी को परेशानी हो रही होगी, इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिए।

क्रिकेट का लोकप्रिय प्रारूप – टी-ट्वेंटी

संकेत बिंदु –

  • नए प्रारूप की विशेषता
  • लोकप्रियता का कारण
  • टी-ट्वेंटी में भारत की स्थिति

क्रिकेट हमारे देश का अत्यंत लोकप्रिय खेल है। कुछ समय तक दो प्रारूपों टेस्ट मैच और एक दिवसीय रूप में ही खेला जाता था पर इधर करीब एक दशक से इसे टी-20 क्रिकेट के प्रारूप में खेला जाने लगा है। इसका नाम फटाफट क्रिकेट भी है क्योंकि इसे 20-20 ओवरों तक ही खेला जाता है। लगभग चार घंटे में समाप्त हो जाने से इस मैच में रोमांच अपने चरम पर पहँच जाता है। इस प्रारूप में परिणाम का निकलना तय रहता है। कम समय में क्रिकेट का भरपूर आनंद देने के कारण आजकल इसकी लोकप्रियता चरम पर है। आजकल यह क्रिकेट की प्रतिभा परखने का अच्छा साधन मिल गया है। इस प्रारूप में कई बार तो 50 ओवरों तक खेले जाने वाले क्रिकेट मैच से भी अधिक रन बन जाते हैं। रनों की बारिस देखने का मज़ा टी-20 प्रारूप में ही है। भारत ने सन् 2007 में पाकिस्तान को हराकर टी-20 क्रिकेट का विश्वकप जीता था। इस खेल में भारत आज भी विशिष्ट स्थान रखता है। इसी खेल के माध्यम से एक दिवसीय एवं टेस्ट में भारतीय खिलाड़ी विश्व में क्रिकेट प्रेमियों के दिलों पर राज कर रहे हैं।

मधुर वाणी की महत्ता

संकेत बिंदु –

  • वाणी एक अनमोल वरदान
  • मीठी वाणी का प्रभाव
  • कटुभाषा की हानियाँ

मनुष्य को ईश्वर से एक विशिष्ट वरदान मिला है, वह है-वाणी का अनमोल वरदान। इसी अनमोल वाणी के कारण व्यक्ति दूसरों को भी अपना बना लेता है। कहा भी गया है कि ‘कागा काको लेत है कोयल काको देय। मीठे वचन सुनाय के जग अपनो करि लेय। अर्थात् कौआ अपनी कर्कश वाणी के कारण हर जगह से भगाया जाता है जबकि कोयल अपनी वाणी से सबका मन हर लेती है। मीठी वाणी का प्रभाव अत्यंत व्यापक होता है। मीठी बोली बोलने वाले को सुख देती है तो यह सुनने वाले को प्रसन्न कर देती है। मीठी वाणी से बिगड़े काम भी बन जाते हैं। मृदुभाषी को सर्वत्र आदर मिलता है। कवि तुलसी ने कहा है-“तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँओर, वशीकरण एक मंत्र है तजि दे वचन कठोर।” कटुभाषी व्यक्ति की स्थिति कौए जैसी होती है। उसे कहीं भी आदर नहीं मिलता है। अपनी कटुभाषा के कारण उसे हानि उठानी पड़ती है। कटुभाषियों के लिए ही रहीम ने कहा है-“खीरा सिर ते काटिए मलियत नमक मिलाय। रहिमन कडुवे मुखन को चहिए यही सजाय।”

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अपठित काव्यांश | Hindi Unseen Passages अपठित बोध class12th

NCERT Solutions for Class 12 Hindi Core – अपठित काव्यांश-बोध

अपठित काव्यांश क्या है?
वह काव्यांश, जिसका अध्ययन हिंदी की पाठ्यपुस्तक में नहीं किया गया है, अपठित काव्यांश कहलाता है। परीक्षा में इन काव्यांशों से विद्यार्थी की भावग्रहण-क्षमता का मूल्यांकन किया जाता है।

परीक्षा में प्रश्न का स्वरूप
परीक्षा में विद्यार्थियों को अपठित काव्यांश दिया जाएगा। उस काव्यांश से संबंधित पाँच लघूत्तरात्मक प्रश्न पूछे जाएँगे। प्रत्येक प्रश्न एक अंक का होगा तथा कुल प्रश्न पाँच अंक के होंगे।

प्रश्न हल करने की विधि
अपठित काव्यांश पर आधारित प्रश्न हल करते समय निम्नलिखित बिंदु ध्यातव्य हैं-

  • विद्यार्थी कविता को मनोयोग से पढ़ें, ताकि उसका अर्थ समझ में आ जाए। यदि कविता कठिन है, तो उसे बार-बार पढ़ें, ताकि भाव स्पष्ट हो सके।
  • कविता के अध्ययन के बाद उससे संबंधित प्रश्नों को ध्यान से पढ़िए।
  • प्रश्नों के अध्ययन के बाद कविता को दुबारा पढ़िए तथा उन पंक्तियों को चुनिए, जिनमें प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हों।
  • जिन प्रश्नों के उत्तर सीधे तौर पर मिल जाएँ उन्हें लिखिए।
  • कुछ प्रश्न कठिन या सांकेतिक होते हैं। उनका उत्तर देने के लिए कविता का भाव-तत्व समझिए।
  • प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट होने चाहिए।
  • प्रश्नों के उत्तर की भाषा सहज व सरल होनी चाहिए।
  • उत्तर अपने शब्दों में लिखिए।
  • प्रतीकात्मक व लाक्षणिक शब्दों के उत्तर एक से अधिक शब्दों में दीजिए। इससे उत्तरों की स्पष्टता बढ़ेगी।

उदाहरण

निम्नलिखित काव्यांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

1. अपने नहीं अभाव मिटा पाया जीवन भर
पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता हूँ।
तूफानों-भूचालों की भयप्रद छाया में,
मैं ही एक अकेला हूँ जो गा सकता हूँ।

मेरे ‘मैं’ की संज्ञा भी इतनी व्यापक है,
इसमें मुझ-से अगणित प्राणी आ जाते हैं।
मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है।
मैं खंडहर को फिर से महल बना सकता हूँ।

जब-जब भी मैंने खंडहर आबाद किए हैं,
प्रलय-मेघ भूचाल देख मुझको शरमाए।
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।

प्रश्न

(क) उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में किसका महत्व प्रतिपादित किया गया है?
(ख) स्वर्ग के प्रति मजदूर की विरक्ति का क्या कारण है?
(ग) किन कठिन परिस्थितियों में उसने अपनी निर्भयता प्रकट की है?
(घ) मेरे ‘मैं’ की संज्ञा भी इतनी व्यापक है,
इसमें मुझ-से अगणित प्राणी आ जाते हैं।
उपर्युक्त पंक्तियों का भाव स्पष्ट करके लिखिए।
(ङ) अपनी शक्ति और क्षमता के प्रति उसने क्या कहकर अपना आत्म-विश्वास प्रकट किया है?

उत्तर-

(क) उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में मजदूर की शक्ति का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
(ख) मज़दूर निर्माता है । वह अपनी शक्ति से धरती पर स्वर्ग के समान सुंदर बस्तियाँ बना सकता है। इस कारण उसे स्वर्ग से विरक्ति है।
(ग)  मज़दूर ने तूफानों व भूकंपों जैसी मुश्किल परिस्थितियों में भी घबराहट प्रकट नहीं की है। वह हर मुसीबत का सामना करने को तैयार रहता है।
(घ)  इसका अर्थ यह है कि ‘मैं’ सर्वनाम शब्द श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा है। कवि कहना चाहता है कि मजदूर वर्ग में संसार के सभी क्रियाशील प्राणी आ जाते हैं।
(ङ)
  मज़दूर ने कहा है कि वह खंडहर को भी आबाद कर सकता है। उसकी शक्ति के सामने भूचाल, प्रलय व बादल भी झुक जाते हैं।

2.

निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,
मृत्यु एक है विश्राम-स्थल।
जीव जहाँ से फिर चलता है,
धारण कर नव जीवन संबल ।
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें
श्रम से कातर जीव नहाकर

फिर नूतन धारण करता है,
काया रूपी वस्त्र बहाकर।
सच्चा प्रेम वही है जिसकी 
तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर!
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,
करो प्रेम पर प्राण निछावर ।

प्रश्न

(क) कवि ने मृत्यु के प्रति निर्भय बने रहने के लिए क्यों कहा है?
(ख) मृत्यु को विश्राम-स्थल क्यों कहा गया है?
(ग) कवि ने मृत्यु की तुलना किससे और क्यों की है?
(घ) मृत्यु रूपी सरिता में नहाकर जीव में क्या परिवर्तन आ जाता है?
(ङ) सच्चे प्रेम की क्या विशेषता बताई गई है और उसे कब निष्प्राण कहा गया है?

उत्तर-

(क) मृत्यु के बाद मनुष्य फिर नया रूप लेकर कार्य करने लगता है, इसलिए कवि ने मृत्यु के प्रति निर्भय होने को कहा है।
(ख) कवि ने मृत्यु को विश्राम-स्थल की संज्ञा दी है। कवि का कहना है कि जिस प्रकार मनुष्य चलते-चलते थक जाता है और विश्राम-स्थल पर रुककर पुन: ऊर्जा प्राप्त करता है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद जीव नए जीवन का सहारा लेकर फिर से चलने लगता है।
(ग) कवि ने मृत्यु की तुलना सरिता से की है, क्योंकि जिस तरह थका व्यक्ति नदी में स्नान करके अपने गीले वस्त्र त्यागकर सूखे वस्त्र पहनता है, उसी तरह मृत्यु के बाद मानव नया शरीर रूपी वस्त्र धारण करता है।
(घ) मृत्यु रूपी सरिता में नहाकर जीव नया शरीर धारण करता है तथा पुराने शरीर को त्याग देता है।
(ङ) सच्चा प्रेम वह है, जो आत्मबलिदान देता है। जिस प्रेम में त्याग नहीं होता, वह निष्प्राण होता है।

3.

जीवन एक कुआँ है
अथाह- अगम
सबके लिए एक-सा वृत्ताकार !
जो भी पास जाता है,
सहज ही तृप्ति, शांति, जीवन पाता ह !
मगर छिद्र होते हैं जिसके पात्र में,
रस्सी-डोर रखने के बाद भी,
हर प्रयत्न करने के बाद भी-
वह यहाँ प्यासा-का-प्यासा रह जाता है।
मेरे मन! तूने भी, बार-बार
बड़ी-बड़ी रस्सियाँ बटीं
रोज-रोज कुएँ पर गया

तरह-तरह घड़े को चमकाया,
पानी में डुबाया, उतराया
लेकिन तू सदा ही 
प्यासा गया, प्यासा ही आया !
और दोष तूने दिया
कभी तो कुएँ को
कभी पानी को
कभी सब को
मगर कभी जाँचा नहीं खुद को
परखा नहीं घड़े की तली को
चीन्हा नहीं उन असंख्य छिद्रों को
और मूढ़! अब तो खुद को परख देख!

प्रश्न

(क) कविता में जीवन को कुआँ क्यों कहा गया है? कैसा व्यक्ति कुएँ के पास जाकर भी प्यासा रह जाता है?
(ख) कवि का मन सभी प्रकार के प्रयासों के उपरांत भी प्यासा क्यों रह जाता है?
(ग) ‘और तूने दोष दिया ……… कभी सबको’ का आशय क्या है?
(घ) यदि किसी को असफलता प्राप्त हो रही हो तो उसे किन बातों की जाँच-परख करनी चाहिए?
(ङ) ‘चीन्हा नहीं उन असंख्य छिद्रों को ‘- यहाँ असंख्य छिद्रों के माध्यम से किस ओर संकेत किया गया है ?

उत्तर-

(क) कवि ने जीवन को कुआँ कहा है, क्योंकि जीवन भी कुएँ की तरह अथाह व अगम है। दोषी व्यक्ति कुएँ के पास जाकर भी प्यासा रह जाता है।
(ख) कवि ने कभी अपना मूल्यांकन नहीं किया। वह अपनी कमियों को नहीं देखता। इस कारण वह सभी प्रकार के प्रयासों के बावजूद प्यासा रह जाता है।
(ग) ‘और तूने दोष दिया ……… कभी सबको’ का आशय है कि हम अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी मानते हैं।
(घ) यदि   किसी को असफलता प्राप्त  हो तो उसे अपनी कमियों के बारे में जानना चाहए । उन्हें सुधार करके कार्य करने चाहिए।
(ङ) यहाँ असंख्य छिद्रों के माध्यम से मनुष्य की कमियों की ओर संकेत किया गया है।

4.

माना आज मशीनी युग में, समय बहुत महँगा है लेकिन
तुम थोड़ा अवकाश निकाली, तुमसे दो बातें करनी हैं!

उम्र बहुत बाकी है लेकिन, उम्र बहुत छोटी भी तो है
एक स्वप्न मोती का है तो, एक स्वप्न रोटी भी तो है
घुटनों में माथा रखने से पोखर पार नहीं होता है :
सोया है विश्वास जगा लो, हम सब को नदिया तरनी है!
तुम थोड़ा अवकाश निकालो, तुमसे दो बातें करनी हैं!

मन छोटा करने से मोटा काम नहीं छोटा होता है,
नेह-कोष को खुलकर बाँटो, कभी नहीं टोटा होता है,
आँसू वाला अर्थ न समझे, तो सब ज्ञान व्यर्थ जाएँगे :
मत सच का आभास दबा लो, शाश्वत आग नहीं मरनी है!
तुम थोड़ा अवकाश निकाली, तुमसे दो बातें करनी हैं!

प्रश्न

(क) मशीनी युग में समय महँगा होने का क्या तात्पर्य है? इस कथन पर आपकी क्या राय है?
(ख) ‘मोती का स्वप्न’ और ‘रोटी का स्वप्न’ से क्या तात्पर्य है? दोनों किसके प्रतीक हैं?
(ग) ‘घुटनों में माथा रखने से पोखर पार नहीं होता है’-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
(घ) ‘मन’ और ‘स्नेह’ के बारे में कवि क्या परामर्श दे रहा है और क्यों?
(ङ) सच का आभास क्यों नहीं दबाना चाहिए?

उत्तर-

(क) इस युग  में व्यक्ति समय के साथ बाँध गया है । उसे हर घंटे के हीसाब से मज़बूरी मिलती है । हमारी राय में यह बात सही है ।
(ख) ‘ मोती का स्वप्न ‘ का तात्पर्य वैभवयुक्त जीवन की आकांक्षा से है तथा ‘रोटी का स्वप्न’ का तात्पर्य जीवन की मूल जरूरतों को पूरा करने से है। दोनों अमीरी व गरीबी के प्रतीक हैं।
(ग) इसका भाव यह है कि मानव निष्क्रिय होकर आगे नहीं बढ़ सकता। उसे परिश्रम करना होगा, तभी उसका विकास हो सकता है।
(घ) ‘मन’ के बारे में कवि का मानना है कि मनुष्य को हिम्मत रखनी चाहिए। हौसला खोने से कार्य या बाधा खत्म नहीं होती। ‘स्नेह’ भी बाँटने से कभी कम नहीं होता। कवि मनुष्य को मानवता के गुणों से युक्त होने के लिए कह रहा है।
(ङ) सच का आभास इसलिए नहीं दबाना चाहिए, क्योंकि इससे वास्तविक समस्याएँ समाप्त नहीं हो जातीं।

5.

नवीन कंठ दो कि मैं नवीन गान गा सकूं,
स्वतंत्र देश की नवीन आरती सजा सकूं !
नवीन दृष्टि का नया विधान आज हो रहा,
नवीन आसमान में विहान आज हो रहा,
खुली दसों दिशा खुले कपाट ज्योति-द्वार के-
विमुक्त राष्ट्र-सूर्य भासमान आज हो रहा।
युगांत की व्यथा लिए अतीत आज रो रहा,
दिगंत में वसंत का भविष्य बीज बो रहा,
कुलीन जो उसे नहीं गुमान या गरूर है,
समर्थ शक्तिपूर्ण जो किसान या मजूर है।
भविष्य-द्वार मुक्त से स्वतंत्र भाव से चलो,
मनुष्य बन मनुष्य से गले मिले चले चलो,
समान भाव के प्रकाशवान सूर्य के तले-
समान रूप-गंध फूल-फूल-से खिले चलो।

सुदीर्घ क्रांति झेल, खेल की ज्वलंत आग से-
स्वदेश बल सँजो रहा, कडी थकान खो रहा।
प्रबुद्ध राष्ट्र की नवीन वंदना सुना सकूं,
नवीन बीन दो कि मैं अगीत गान गा सकूं!
नए समाज के लिए नवीन नींव पड़ चुकी,
नए मकान के लिए नवीन ईंट गढ़ चुकी,
सभी कुटुंब एक, कौन पास, कौन दूर है
नए समाज का हरेक व्यक्ति एक नूर है।
पुराण पंथ में खड़े विरोध वैर भाव के
त्रिशूल को दले चलो, बबूल को मले चलो।
प्रवेश-पर्व है स्वदेश का नवीन वेश में
मनुष्य बन मनुष्य से गले मिलो चले चलो।
नवीन भाव दो कि मैं नवीन गान गा सकूं,
नवीन देश की नवीन अर्चना सुना सकूं! “

प्रश्न

(क) कवि नई आवाज की आवश्यकता क्यों महसूस कर रहा है?
(ख) ‘नए समाज का हरेक व्यक्ति एक नूर है’-आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) कवि मनुष्य को क्या परामर्श दे रहा है?
(घ) कवि किस नवीनता की कामना कर रहा है?
(ङ)
 किसान और कुलीन की क्या विशेषता बताई गई है?

उत्तर-

(क) कवि नई आवाज की आवश्यकता इसलिए महसूस कर रहा है, ताकि वह स्वतंत्र देश के लिए नए गीत गा सके तथा नई आरती सजा सके।
(ख) इसका आशय यह है कि स्वतंत्र भारत का हर व्यक्ति प्रकाश के गुणों से युक्त है। उसके विकास से भारत का विकास
(ग) कवि मनुष्य को परामर्श दे रहा है कि आजाद होने के बाद हमें अब मैत्रीभाव से आगे बढ़ना है। सूर्य व फूलों के समान समानता का भाव अपनाना है।
(घ) कवि कामना करता है कि देशवासियों को वैर-विरोध के भावों को भुलाना चाहिए। उन्हें मनुष्यता का भाव अपनाकर
सौहाद्रता से आगे बढ़ना चाहिए।
(ङ) किसान समर्थ व शक्तिपूर्ण होते हुए भी समाज के हित में कार्य करता है तथा कुलीन वह है, जो घमंड नहीं दिखाता।

6.

जिसमें स्वदेश का मान भरा
आजादी का अभिमान भरा
जो निर्भय पथ पर बढ़ आए
जो महाप्रलय में मुस्काए
जो अंतिम दम तक रहे डटे
दे दिए प्राण, पर नहीं हटे
जो देश-राष्ट्र की वेदी पर
देकर मस्तक हो गए अमर
ये रक्त-तिलक-भारत-ललाट!

उनको मेरा पहला प्रणाम !
फिर वे जो ऑधी बन भीषण
कर रहे आज दुश्मन से रण
बाणों के पवि-संधान बने
जो ज्वालामुख-हिमवान बने
हैं टूट रहे रिपु के गढ़ पर
बाधाओं के पर्वत चढ़कर
जो न्याय-नीति को अर्पित हैं
भारत के लिए समर्पित हैं
कीर्तित जिससे यह धरा धाम
उन वीरों को मेरा प्रणाम

श्रद्धानत कवि का नमस्कार
दुर्लभ है छंद-प्रसून हार
इसको बस वे ही पाते हैं
जो चढ़े काल पर आते हैं
हुम्कृति से विश्व काँपते हैं
पर्वत का दिल दहलाते हैं
रण में त्रिपुरांतक बने शर्व
कर ले जो रिपु का गर्व खर्च
जो अग्नि-पुत्र, त्यागी, अकाम
उनको अर्पित मेरा प्रणाम !

प्रश्न

(क) कवि किन वीरों को प्रणाम करता है?
(ख) कवि ने भारत के माथे का लाल चंदन किन्हें कहा है?
(ग) दुश्मनों पर भारतीय सैनिक किस तरह वार करते हैं?
(घ) काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ङ) कवि की श्रद्धा किन वीरों के प्रति है?

उत्तर-

(क) कवि उन वीरों को प्रणाम करता है, जिनमें स्वदेश का मान भरा है तथा जो साहस और निडरता से अंतिम दम तक देश के लिए संघर्ष करते हैं।
(ख) कवि ने भारत के माथे का लाल चंदन (तिलक) उन वीरों को कहा है, जिन्होंने देश की वेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
(ग) दुश्मनों पर भारतीय सैनिक आँधी की तरह भीषण वार करते हैं तथा आग उगलते हुए उनके किलों को तोड़ देते हैं।
(घ) शीर्षक- वीरों को मेरा प्रणाम!
(ङ) कवि की श्रद्धा उन वीरों के प्रति है, जो मृत्यु से नहीं घबराते, अपनी हुंकार से विश्व को कैंपा देते हैं तथा जिनके साहस और वीरता की कीर्ति धरती पर फैली हुई है।

7.

पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।
पुरुष क्या, पुरुषार्थ हुआ न जो,
हृदय की सब दुर्बलता तजो।
प्रबल जो तुम में पुरुषार्थ हो,
सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो?
प्रगति के पथ में विचरों उठो ।
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।।

न पुरुषार्थ बिना कुछ स्वार्थ है,
न पुरुषार्थ बिना परमार्थ है।
समझ लो यह बात यथार्थ है
कि पुरुषार्थ ही पुरुषार्थ है।
भुवन में सुख-शांति भरो, उठो।
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ।।

न पुरुषार्थ बिना स्वर्ग है,
न पुरुषार्थ बिना अपसर्ग है।
न पुरुषार्थ बिना क्रियत कहीं,
न पुरुषार्थ बिना प्रियता कहीं।
सफलता वर-तुल्य वरो, उठो ।
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।।

न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ-
सफलता वह पा सकता कहाँ ?
अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,
न उसमें यश है, न प्रताप है।
न कृमि-कीट समान मरो, उठो ।
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।।

प्रश्न

(क) काव्यांश के प्रथम भाग के माध्यम से कवि ने मनुष्य को क्या प्रेरणा दी है?
(ख) मनुष्य पुरुषार्थ से क्या-क्या कर सकता है?
(ग)  ‘सफलता वर-तुल्य वरो, उठो’—पंक्ति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(घ)  ‘अपुरुषार्थ भयंकर पाप है’-कैसे?
(ङ)  काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर-

(क) इसके माध्यम से कवि ने मनुष्य को प्रेरणा दी है कि वह अपनी समस्त शक्तियाँ इकट्ठी करके परिश्रम करे तथा उन्नति की दिशा में कदम बढ़ाए।
(ख) पुरुषार्थ से मनुष्य अपना व समाज का भला कर सकता है। वह विश्व में सुख-शांति की स्थापना कर सकता है।
(ग)  इसका अर्थ है कि मनुष्य निरंतर कर्म करे तथा वरदान के समान सफलता को धारण करे। दूसरे शब्दों में, जीवन में सफलता के लिए परिश्रम  आवश्यक है।
(घ) अपुरुषार्थ का अर्थ यह है-कर्म न करना। जो व्यक्ति परिश्रम नहीं करता, उसे यश नहीं मिलता। उसे वीरत्व नहीं प्राप्त होता। इसी कारण अपुरुषार्थ को भयंकर पाप कहा गया है।
(ङ)  शीर्षक-पुरुषार्थ का महत्त्व। अथवा, पुरुष हो पुरुषार्थ करो।

8.

मनमोहिनी प्रकृति की जो गोद में बसा है।
सुख स्वर्ग-सा जहाँ है, वह देश कौन-सा है।
जिसके चरण निरंतर रत्नेश धो रहा है।
जिसका मुकुटहिमालय, वह देश कौन-सा है।

नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं।
सींचा हुआ सलोना, वह देश कौन-सा है।।
जिसके बड़े रसीले, फल, कंद, नाज, मेवे।
सब अंग में सजे हैं, वह देश कौन-सा है।।

जिसके सुगंध वाले, सुंदर प्रसून प्यारे।
दिन-रात हँस रहे हैं, वह देश कौन-सा है।।
मैदान, गिरि, वनों में, हरियाली है महकती।
आनंदमय जहाँ है, वह देश कौन-सा है।।

 जिसके अनंत वन से धरती भरी पड़ी है।
संसार का शिरोमणि, वह देश कौन-सा है।
सबसे प्रथम जगत में जो सभ्य था यशस्वी।
जगदीश का दुलारा, वह देश कौन-सा है।

प्रश्न

(क) मनमोहिनी प्रकृति की गोद में कौन-सा देश बसा हुआ है और उसका पद-प्रक्षालन निरंतर कौन कर रहा है?
(ख) भारत की नदियों की क्या विशेषता है?
(ग) भारत के फूलों का स्वरूप कैसा है?
(घ) जगदीश का दुलारा देश भारत संसार का शिरोमणि कैसे है?
(ङ) काव्यांश का सार्थक एवं उपयुक्त शीर्षक लिखिए।

उत्तर-

(क) मनमोहिनी प्रकृति की गोद में भारत देश बसा हुआ है। इस देश का पद-प्रक्षालन निरंतर समुद्र कर रहा है।
(ख) भारत की नदियों की विशेषता है कि इनका जल अमृत के समान है तथा ये देश को निरंतर सींचती रहती हैं।
(ग)  भारत के फूल सुंदर व प्यारे हैं। वे दिन-रात हँसते रहते हैं।
(घ) नाना प्रकार के वैभव एवं सुख-समृद्ध से युक्त भारत देश जगदीश का दुलारा तथा संसार-शिरोमणि है, क्योंकि यहीं पर सबसे पहले सभ्यता विकसित हुई और संसार में फैली।
(ङ) शीर्षक-वह देश कौन-सा है?

9.

जब कभी मछेरे को फेंका हुआ
फैला जाल
समेटते हुए देखता हूँ
तो अपना सिमटता हुआ
‘स्व’ याद हो आता है-
जो कभी समाज, गाँव और
परिवार के वृहत्तर रकबे में
समाहित था
‘सर्व’ की परिभाषा बनकर
और अब केंद्रित हो
गया हूँ, मात्र बिंदु में।

जब कभी अनेक फूलों पर
बैठी, पराग को समेटती
मधुमक्खियों को देखता हूँ
तो मुझे अपने पूर्वजों की
याद हो आती है,
जो कभी फूलों को रंग, जाति, वर्ग
अथवा कबीलों में नहीं बाँटते थे
और समझते रहे थे कि
देश एक बाग है,
और मधू-मनुष्यता
जिससे जीने की अपेक्षा होती है ।

किंतु अब
बाग और मनुष्यता
शिलालेखों में जकड़ गई है
मात्र संग्रहालय की जड़ वस्तुएँ।

प्रश्न

(क) कविता में प्रयुक्त ‘स्व’ शब्द से कवि का क्या अभिप्राय है? उसकी जाल से तुलना क्यों की गई हैं ?
(ख) कवि के ‘स्व’ में किस तरह का बदलाव आता जा रहा है और क्यों ?
(ग) कवि को अपने पूर्वजों की याद कब और क्यों आती है?
(घ) उसके पूर्वजों की विचारधारा वर्तमान में और भी प्रासंगिक बन गई है, कैसे?
(ङ) निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए –
‘…….और मनुष्यता
शिलालेखों में जकड़ गई है।’

उत्तर-

(क) यहाँ ‘स्व’ का अभिप्राय ‘निजता’ से है। इसकी तुलना जाल से इसलिए की गई है, क्योंकि इसमें विस्तार व संकुचन की क्षमता होती है।
(ख) कवि का ‘स्व’ पहले समाज, गाँव व परिवार के बड़े दायरे में फैला था। आज यह निजी जीवन तक सिमटकर रह गया है, क्योंकि अब मनुष्य स्वार्थी हो गया है।
(ग) कवि जब मधुमक्खियों को परागकण समेटते देखता है तो उसे अपने पूर्वजों की याद आती है। उसके पूर्वज रंग, जाति, वर्ग या कबीलों के आधार पर भेद-भाव नहीं करते थे।
(घ) कवि के पूर्वज सारे देश को एक बाग के समान समझते थे। वे मनुष्यता को महत्व देते थे। इस प्रकार उनकी विचारधारा वर्तमान में और भी प्रासंगिक बन गई है।
(ङ) इन काव्य-पंक्तियों का अर्थ यह है कि आज के मनुष्य शिलालेखों की तरह जड़, कठोर, सीमित व कट्टर हो गए हैं। वे जीवन को सहज रूप में नहीं जीते।

10.

तू हिमालय नहीं, तू न गंगा-यमुना
तू त्रिवेणी नहीं, तू न रामेश्वरम्
तू महाशील की है अमर कल्पना
देश! मेरे लिए तू परम वंदना।
तू पुरातन बहुत, तू नए से नया
तू महाशील की है अमर कल्पना।
देश! मेरे लिए तू महा अर्चना।
शक्ति-बल का समर्थक रहा सर्वदा,
तू परम तत्व का नित विचारक रहा।

मेघ करते नमन, सिंधु धोता चरण,
लहलहाते सहस्त्रों यहाँ खेत-वन।
नर्मदा-ताप्ती, सिंधु, गोदावरी,
हैं कराती युगों से तुझे आचमन।
शांति-संदेश देता रहा विश्व को।
प्रेम-सद्भाव का नित प्रचारक रहा।
सत्य औ’ प्रेम की है परम प्रेरणा
देश! मेरे लिए तू महा अर्चना।

प्रश्न

(क) कवि का देश को ‘महाशील की अमर कल्पना’ कहने से क्या तात्पर्य है ?
(ख) भारत देश पुरातन होते हुए भी नित नूतन कैसे है?
(ग) ‘तू परम तत्व का नित विचारक रहा’ पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
(घ) देश का सत्कार प्रकृति कैसे करती है? काव्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
(ङ) ‘शांति-संदेश ’ रहा’ काव्य-पंक्तियों का अर्थ बताते हुए इस कथन की पुष्टि में इतिहास से कोई एक प्रमाण दीजिए।

उत्तर-

(क) कवि देश को ‘महाशील की अमर कल्पना’ कहता है। इसका अर्थ यह है कि भारत में महाशील के अंतर्गत करुणा, प्रेम, दया, शांति जैसे महान आचरण हैं, जिनके कारण भारत का चरित्र उज्ज्वल बना हुआ है।
(ख) भारत में करुणा, दया, प्रेम आदि पुराने गुण विद्यमान हैं तथा वैज्ञानिक व तकनीकी विकास भी बहुत हुआ है। इस कारण भारत देश पुरातन होते हुए भी नित नूतन है।
(ग) इस पंक्ति का भावार्थ यह है कि भारत ने सदा सृष्टि के परम तत्व की खोज की है।
(घ) प्रकृति देश का सत्कार विविध रूपों में करती है। मेघ यहाँ वर्षा करते हैं, सागर भारत के चरण धोता है। यहाँ लाखों लहलहाते खेत व वन हैं। नर्मदा, ताप्ती, सिंधु, गोदावरी नदियाँ भारत को आचमन करवाती हैं।
(ङ) इन काव्य-पंक्तियों का अर्थ यह है कि भारत सदा विश्व को शांति का पाठ पढ़ाता रहा है। यहाँ सम्राट अशोक व गौतम बुद्ध ने संसार को शांति व धर्म का पाठ पढ़ाया।

11.

जब-जब बाँहें झुकीं मेघ की, धरती का तन-मन ललका है,
जब-जब मैं गुजरा पनघट से, पनिहारिन का घट छलका है।

सुन बाँसुरिया सदा-सदा से हर बेसुध राधा बहकी है,
मेघदूत को देख यक्ष की सुधियों में केसर महकी है।
क्या अपराध किसी का है फिर, क्या कमजोरी कहूँ किसी की,
जब-जब रंग जमा महफ़िल में जोश रुका कब पायल का है।

जब-जब मन में भाव उमड़ते, प्रणय श्लोक अवतीर्ण हुए हैं,
जब-जब प्यास जमी पत्थर में, निझर स्रोत विकीर्ण हुए हैं।
जब-जब गूंजी लोकगीत की धुन अथवा आल्हा की कड़ियाँ,
खेतों पर यौवन लहराया, रूप गुजरिया का दमका है।

प्रश्न

(क) मेघों के झुकने का धरती पर क्या प्रभाव पड़ता है और क्यों?
(ख) राधा कौन थी ? उसे ‘बेसुध’ क्यों कहा है?
(ग) मन के भावों और प्रेम-गीतों का परस्पर क्या संबंध है ? इनमें से कौन किस पर आश्रित है?
(घ) काव्यांश में झरनों के अनायास फूट पड़ने का क्या कारण बताया गया है?
(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए-खेतों पर यौवन लहराया, रूप गुजरिया का दमका है।

उत्तर-

(क) मेघों के झुकने पर धरती का तन-मन ललक है, क्योंकि मेघों से बारिश होती है और इससे धरती पर खुशाँ फैलती हैं ।
(ख) राधा कृष्ण की आराधिका थी। वह कृष्ण की बाँसुरी की मधुर तान पर मुग्ध थी। वह हर समय उसमें ही खोई रहती थी। इस कारण उसे बेसुध कहा गया है।
(ग) प्रेम का स्थान मन में है। जब मन में प्रेम उमड़ता है तो कवि प्रेम-गीतों की रचना करता है। प्रेम-गीत मन के भावों पर आश्रित होते हैं।
(घ) जब-जब पत्थरों के मन में प्रेम की प्यास जागती है, तब-तब उसमें से झरने फूट पड़ते हैं।
(ङ) इसका अर्थ यह है कि खेतों में हरी-भरी फसलें लहलहाने पर कृषक-बालिकाएँ प्रसन्न हो जाती हैं। उनके चेहरे खुशी से दमक उठते हैं।

12.

क्या रोकेंगे प्रलय मेघ ये, क्या विद्युत-घन के नर्तन,
मुझे न साथी रोक सकेंगे, सागर के गर्जन-तर्जन।

मैं अविराम पथिक अलबेला रुके न मेरे कभी चरण,
शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने मित्र चयन।
मैं विपदाओं में मुसकाता नव आशा के दीप लिए ।
फिर मुझको क्या रोक सकेंगे, जीवन के उत्थान-पतन।

आँधी हो, ओले-वर्षा हों, राह सुपरिचित है मेरी,
फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये जग के खंडन-मंडन।
मैं अटका कब, कब विचलित मैं, सतत डगर मेरी संबल।
रोक सकी पगले कब मुझको यह युग की प्राचीर निबल।

मुझे डरा पाए कब अंधड़, ज्वालामुखियों के कंपन,
मुझे पथिक कब रोक सके हैं, अग्निशिखाओं के नर्तन।
मैं बढ़ता अविराम निरंतर तन-मन में उन्माद लिए,
फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये बादल-विद्युत नर्तन।

प्रश्न

(क) उपर्युक्त पंक्तियों के आधार पर कवि के स्वभाव की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(ख) कविता में आए मे, विद्युत, सागर की गर्जना औरज्वालामुखी किनके प्रतीक हैं ? कवि ने उनकासंयोजन यहाँ क्यों किया है ?
(ग) ‘शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने कभी चयन’-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
(घ) ‘युग की प्राचीर’ से क्या तात्पर्य है? उसे कमजोर क्यों बताया गया है?
(ङ) किन पंक्तियों का आशय है-तन-मन में दृढ़ निश्चय का नशा हो तो जीवन-मार्ग में बढ़ते रहने से कोई नहीं रोक सकता।

उत्तर-

(क) कवि के स्वभाव की दो विशेषताएँ हैं-(क) गतिशीलता। (ख) साहस व संघर्षशीलता।
(ख) मेघ, विद्युत, सागर की गर्जना व ज्वालामुखी जीवन-पथ में आने वाली बाधाओं के परिचायक हैं। कवि इनका संयोजन इसलिए करता है ताकि अपनी संघर्षशीलता व साहस को दर्शा सके।
(ग) इस पंक्ति का भाव यह है कि कवि ने हमेशा चुनौतियों से पूर्ण कठिन मार्ग चुना है। वह सुख-सुविधापूर्ण जीवन त्यागकर संघर्ष करते हुए जीना चाहता है।
(घ) इसका अर्थ है-समय की बाधाएँ। कवि कहता है कि संकल्पवान व्यक्ति बाधाओं व संकटों को अपने साहस एवं संघर्ष से जीत लेते हैं। इसी कारण वे कमजोर कमज़ोर हैं।
(ङ) ये पंक्तियाँ हैं –
मैं बढ़ता अविराम निरंतर तन-मन में उन्माद लिए, फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये बादल-विद्युत नर्तन।

13.

यह मजूर, जो जेठ मास के इस निधूम अनल में
कर्ममग्न है अविचल अविकल दग्ध हुआ पल-पल में;
यह मजूर, जिसके अंगों पर लिपटी एक लँगोटी,
यह मजूर, जर्जर कुटिया में जिसकी वसुधा छोटी,
किस तप में तल्लीन यहाँ है भूख-प्यास को जीते,
किस कठोर साधना में इसके युग-के-युग हैं बीते!

कितने महा महाधिप आए, हुए विलीन क्षितिज में,
नहीं दृष्टि तक डाली इसने, निर्विकार यह निज में।
यह अविकप न जाने कितने घूंट पिए है विष के,
आज इसे देखा जब मैंने बात नहीं की इससे।
अब ऐसा लगता है, इसके तप से विश्व विकल है,
नया इंद्रपद इसके हित ही निश्चित है निस्संशय।

प्रश्न

(क) जेठ के महीने में मजदूर को देखकर कवि क्या अनुभव कर रहा है?
(ख) उसकी दीन-हीन दशा को कवि ने किस तरह प्रस्तुत किया है?
(ग) उसका पूरा जीवन कैसे बीता है? उसने बड़े-से-बड़े लोगों को भी अपना कष्ट क्यों नहीं बताया?
(घ) उसने जीवन कैसे जिया है ? उसकी दशा को देखकर कवि को किस बात का आभास होने लगा है?
(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए :
‘नया इंद्रपद इसके हित ही निश्चित है निस्संशय।’

उत्तर-

(क) जेठ के महीने में काम करते मजदूर को देखकर कवि अनुभव करता है कि वह अपने काम में मग्न है। गरम मौसम भी उसके कार्य को बाधित नहीं कर पा रहा है।
(ख) कवि बताता है कि मजदूर की दशा दयनीय है। वह सिर्फ़ एक लैंगोटी पहने हुए है। उसकी कुटिया टूटी-फूटी है। वह पेट भरने लायक भी नहीं कमा पाता।
(ग) मज़दूर का पूरा जीवन तंगहाली में बीता है। उसने बड़े-से-बड़े लोगों को भी अपना कष्ट नहीं बताया, क्योंकि वह , जागरूक नहीं था। वह अपने काम में तल्लीन रहता था।
(घ) मज़दूर ने सारा जीवन विष के घूंट पीकर जिया है। वह सदा अभावों से ग्रस्त रहा है। उसकी दशा देखकर कवि को लगता है कि मजदूर की तपस्या से सारा संसार विकल है।
(ङ) इस काव्य पंक्ति का आशय यह है कि मजदूर के कठोर तप से यह लगता है कि उसे नया इंद्रपद मिलेगा। कवि को लगता है कि अब उसकी हालत में सुधार होगा।

14.

मुक्त करो नारी को, मानव !
चिर बंदिनी नारी को,
युग-युग की बर्बर कारा से
जननी, सखी, प्यारी को !
छिन्न करो सब स्वर्ण-पाश ।
उसके कोमल तन-मन के,
वे आभूषण नहीं, दाम
उसके बंदी जीवन के !
उसे मानवी का गौरव दे
पूर्ण सत्व दो नूतन,

उसका मुख जग का प्रकाश हो,
उठे अंध अवगुंठन।
मुक्त करो जीवन–संगिनी को,
जननी देवी को आदृत
जगजीवन में मानव के संग
हो मानवी प्रतिष्ठित !
प्रेम–स्वर्ग हो धरा, मधुर
नारी महिमा से मंडित,
नारी-मुख की नव किरणों से
युग–प्रभात हो ज्योतित !

प्रश्न

(क) कवि नारी को किस दशा से मुक्त कराना चाहता है? वह उसके भिन्न-भिन्न रूपों का उल्लेख क्यों कर रहा है?
(ख) कवि नारी के आभूषणों को उसके अलंकरण के साधन न मानकर उन्हें किन रूपों में देख रहा है?
(ग) वह नारी को किन दी गरिमाओं से मंडित करा रहा है और क्या कामना कर रहा है?
(घ) वह मुक्त नारी को किन-किन रूपों में प्रतिष्ठित करना चाहता है?
(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए :
नारी-मुख की नव किरणों से
युग-प्रभात हो ज्योतित !

उत्तर-

(क) कवि नारी को पुरुष के बंधन से मुक्त कराना चाहता है। वह उसके जननी, सखी व प्रिया रूप का उल्लेख करता है, क्योंकि पुरुष का संबंध उसके साथ माँ दोस्त व पत्नी के रूप में होता है।
(ख) कवि नारी के आभूषणों को उसके अलंकरण के साधन नहीं मानता। वह उन्हें नारी की स्वतंत्रता की कीमत मानता है।
(ग) कवि नारी को मानवी तथा मातृत्व की गरिमाओं से मंडित कर रहा है। वह कामना करता है कि उसे पुरुष के समान दर्ज़ा मिले।
(घ) कवि मुक्त नारी को मानवी, युग को प्रकाश देने वाली आदि रूपों में प्रतिष्ठित करना चाहता है।
(ङ) इन काव्य पंक्तियों का आशय यह है कि नारी के नए रूप से नए युग का प्रभात प्रकाशित हो। अर्थात नारी अपने कार्यों से समाज को दिशा दे।

15.

कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए।
प्राणों के लाले पड़ जाएँ त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाए |
नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाए।

बरसे आग, जलद जल जाए, भस्मसात् भूधर हो जाए,
पाप-पुण्य सदसद् भावों की धूल उड़े उठ दायें-बायें।
नभ का वक्षस्थल फट जाए, तारे टूक-टूक हो जाएँ।
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।

प्रश्न

(क) कवि की कविता क्रांति लाने में कैसे सहायक हो सकती है?
(ख) कवि के द्वारा किस प्रकार की उथल-पुथल चाही गई है?
(ग) आपके विचार से नाश और सत्यानाश में क्या अंतर हो सकता है? कवि उनकी कामना क्यों करता है?
(घ) किसी समाज में फैली जड़ता और रूढ़िवादिता क्रांति से ही दूर हो सकती है-पक्ष या विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
(ङ) काव्यांश से दो मुहावरे चुनकर उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए।

उत्तर-

(क) कवि अपनी कविता के माध्यम से लोगों में जागरूकता पैदा करता है। वह अपने संदेशों से जनता को कुशासन समाप्त करने के लिए प्रेरित करता है।
(ख) कवि के द्वारा ऐसी उथल-पुथल की चाह की गई है, जिससे समाज में बुरी ताकतें पूर्णतया नष्ट हो जाएँ।
(ग) हमारे विचार से ‘नाश’ से सिर्फ़ बुरी ताकतें समाप्त हो सकती हैं, परंतु ‘सत्यानाश’ से सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसमें अच्छी ताकतें भी समाप्त हो जाती हैं। कवि ऐसा करके बुरी ताकतों के बचने की किसी भी संभावना को छोड़ना नहीं चाहता।
(घ) यह बात बिलकुल सही है कि समाज में फैली जड़ता व रूढ़िवादिता केवल क्रांति से ही दूर हो सकती है। क्रांति से वर्तमान में चल रही व्यवस्था नष्ट हो जाती है तथा नए विचारों को पनपने का अवसर मिलता है।
(ङ) लाले पड़ना-महँगाई के कारण गरीबों को रोटी के लाले पड़ने लगे हैं।
छा जाना-बिजेंद्र पदक जीतकर देश पर छा गया।

16.

यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम-से-कम मत बोओ!
है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बड़ा मानव का मन
ममता की शीतल छाया में होता कटुता का स्वयं शमन।
ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मुँदे नयन
होकर निर्मलता में प्रशांत, बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।
संकट में यदि मुसका न सको, भय से कातर हो मत रोओ
यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम-से-कम मत बोओ!

प्रश्न

(क) ‘फूल बोने’ और ‘काँटे बोने” का प्रतीकार्थ क्या है?
(ख) मन किन स्थितियों में अशांत होता है और कैसी स्थितियाँ उसे शांत कर देती हैं?
(ग) संकट आ पड़ने पर मनुष्य का व्यवहार कैसा होना चाहिए और क्यों?
(घ) मन में कटुता कैसे आती है और वह कैसे दूर हो जाती है?
(ङ) काव्यांश से दो मुहावरे चुनकर वाक्य-प्रयोग कीजिए।

उत्तर-

(क) ‘फूल बोने’ का अर्थ है-‘अच्छे कार्य करना’ तथा ‘काँटे बोने’ का अर्थ है-‘बुरे कार्य करना’।
(ख) मन में विरोध की भावना के उदय होने के कारण अशांति का उदय होता है। ममता की शीतल छाया उसे शांत कर देती है।
(ग) संकट आ पड़ने पर मनुष्य को भयभीत नहीं होना चाहिए। उसे अपना मन मजबूत करना चाहिए तथा मुस्कराना चाहिए।
(घ) मन में कटुता तब आती है, जब मनुष्य को सफलता नहीं मिलती। वह भटकता रहता है। स्नेह से यह कटुता स्वयं दूर हो जाती है।
(ङ) काँटे बोना- हमें दूसरों के लिए काँटे नहीं बोने चाहिए।
घुल जाना- विदेश में गए पुत्र की खोज-खबर न मिलने पर विक्रम घुल गया है।

17.

पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह तुझी से बनी हुई है,

बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है,
फिर अंत समय तूही इसे अचल देख अपनाएगी।
हे मातृभूमि! यह अंत में तुझमें ही मिल जाएगी।

प्रश्न

(क) यह काव्यांश किसे संबोधित है ? उससे हम क्या पाते हैं ?
(ख) ‘प्रत्युपकार’ किसे कहते हैं? देश का प्रत्युपकार क्यों नहीं हो सकता?
(ग) शरीर-निर्माण में मातृभूमि का क्या योगदान है?
(घ) ‘अचल’ विशेषण किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और क्यों?
(ङ) देश से हमारा संबंध मृत्युपर्यत रहता है, स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-

(क) यह काव्यांश मातृभूमि को संबोधित है। मातृभूमि से हम जीवन के लिए आवश्यक सभी वस्तुएँ पाते हैं।
(ख) किसी से वस्तु प्राप्त करने के बदले में कुछ देना ‘प्रत्युपकार’ कहलाता है। मातृभूमि का प्रत्युपकार इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक हमेशा कुछ-न-कुछ मातृभूमि से प्राप्त करता रहता है।
(ग) मातृभूमि से ही मनुष्य का शरीर बना है। जल, हवा, आग, भूमि व आकाश-मातृभूमि में ही मिलते हैं।
(घ) ‘अचल’ विशेषण मानव के मृत शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि मृत शरीर गतिहीन होता है।
(ङ) मनुष्य का शरीर मातृभूमि और इसके तत्वों-वायु, जल, अग्नि, भूमि और आकाश-से मिलकर बनता है और अंतत: मातृभूमि में ही मिल जाता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि मातृभूमि से हमारा संबंध मृत्युपर्यत रहता है।

18.

क्षमामयी तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है,
विभवशालिनी, विश्वपालिनी दुखहनी है,
भयनिवारिणी, शांतिकारिणी, सुखकर्नी,

हे शरणदायिनी देवि तू करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि, संतान हम, तू जननी, तू प्राण है ।

प्रश्न

(क) इस काव्यांश में किसे संबोधित किया गया है ? उसे क्षमामयी क्यों कहा गया है?
(ख) वात्सल्य किसे कहते हैं? मातृभूमि ‘वात्सल्यमयी’ कैसे है?
(ग) मातृभूमि को ‘विभवशालिनी’ और ‘विश्वपालिनी’ क्यों कहा गया है?
(घ) शरणदायिनी कौन है? यह भूमिका वह कैसे निभाती है?
(ङ) कवि देश और देशवासियों में परस्पर क्या संबंध मानता है ?

उत्तर-

(क) इस काव्यांश में मातृभूमि को संबोधित किया गया है। मातृभूमि मानव की गलतियों को सदैव क्षमा करती है, इस कारण उसे ‘क्षमामयी’ कहा
गया है।
(ख) बच्चे के प्रति माँ के प्रेम को ‘वात्सल्य’ कहते हैं। मातृभूमि मनुष्य की देखभाल माँ की तरह करती है, इसी कारण उसे ‘वात्सल्यमयी’ कहा गया है।
(ग) मातृभूमि से हमें अनेक संसाधन मिलते हैं। इन संसाधनों से मनुष्य का विकास होता है। पृथ्वी से ही अन्न, फल आदि मिलते हैं। इस कारण मातृभूमि को ‘विभवशालिनी’ व ‘विश्वपालिनी’ कहा जाता है।
(घ) शरणदायिनी मातृभूमि है। सभी प्राणी इसी पर आवास बनाते हैं।
(ङ) कवि कहता है कि देशवासी के कार्य देश को महान बनाते हैं तथा देश ही उनकी रक्षा करता है और नागरिकों को अपना नाम देता है।

19.

चिड़िया को लाख समझाओ
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बड़ी है, निर्मम है,
वहाँ हवा में उसे
अपने जिस्म की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
पर पानी के लिए भटकना है,
यहाँ कटोरी में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है

यहाँ चुग्गा मोटा है।
बाहर बहेलिये का डर है
यहाँ निद्र्वद्व कंठ-स्वर है।
फिर भी चिड़िया मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी
पिंजड़े से जितना अंग निकल सकेगा निकालेगी,
हर सू जोर लगाएगी
और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

प्रश्न

(क) पिंजड़े के बाहर का संसार निर्मम कैसे है?
(ख) पिंजड़े के भीतर चिड़िया को क्या-क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं?
(ग) कवि चिड़िया को स्वतंत्र जगत की किन वास्तविकताओं से अवगत कराना चाहता है?
(घ) बाहर सुखों का अभाव और प्राणों का संकट होने पर भी चिड़िया मुक्ति ही क्यों चाहती है?
(ङ) कविता का संदेश स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-

(क) पिंजड़े के बाहर का संसार हमेशा कमजोर को सताने की कोशिश में रहता है। यहाँ कमजोर को सदैव संघर्ष करना पड़ता है। इस कारण वह निर्मम है।
(ख) पिंजड़े के भीतर चिड़िया को पानी, अनाज, आवास तथा सुरक्षा उपलब्ध है।
(ग) कवि बताना चाहता है कि बाहर जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। भोजन, आवास व सुरक्षा के लिए हर समय मेहनत करनी होती है।
(घ) बाहर सुखों का अभाव व प्राणों संकटहोने पर भी चिड़िया मुक्ति चाहती है, क्योंकि वह आज़ाद जीवन जीना पसंद करती है।
(ङ) इस कविता में कवि ने स्वतंत्रता के महत्त्व को समझाया है। मनष्य के व्यक्तित्व का विकास स्वतंत्र परिवेश में ही हो सकता है।

20.

मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली।
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की।
बरस बाद सुधि लीन्हीं-
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की।

प्रश्न

(क) उपर्युक्त काव्यांश में ‘पाहुन’ किसे कहा गया है और क्यों?
(ख) मेघ किस रूप में और कहाँ आए?
(ग) मेघ के आने पर गाँव में क्या-क्या परिवर्तन दिखाई देने लगे ?
(घ)
 पीपल को किसके रूप में चित्रित किया गया है? उसने क्या किया?
(ङ)‘लता’ कौन है? उसने क्या शिकायत की?

उत्तर-

(क) मेघ को ‘पाहुन’ कहा गया है, क्योंकि वे बहुत दिन बाद लौटे हैं और ससुराल में पाहुन की भाँति उनका स्वागत हो रहा है।
(ख) मेघ मेहमान की तरह सज-सँवरकर गाँव में आए।
(ग) मेघ के आने पर गाँव के घरों के दरवाजे व खिड़कियाँ खुलने लगीं। पेड़ झुकने लगे, आँधी चली और धूल ग्रामीण बाला की भाँति भागने लगी।
(घ) पीपल को गाँव के बूढ़े व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। उसने नवागंतुक का स्वागत किया।
(ङ) ‘लता’ नवविवाहिता है, जो एक वर्ष से पति की प्रतीक्षा कर रही है। उसे शिकायत है कि वह (बादल) पूरे एक साल बाद लौटकर आया है।

21.

ले चल माँझी मझधार मुझे, दे-दे बस अब पतवार मुझे।
इन लहरों के टकराने पर आता रह-रहकर प्यार मुझे ॥
मत रोक मुझे भयभीत न कर, मैं सदा कैंटीली राह चला।
पथ-पथ मेरे पतझारों में नव सुरभि भरा मधुमास पला।

मैं हूँ अबाध, अविराम, अथक, बंधन मुझको स्वीकार नहीं।
मैं नहीं अरे ऐसा राही, जो बेबस-सा मन मार चलें।
कब रोक सकी मुझको चितवन, मदमाते कजरारे घन की,
कब लुभा सकी मुझको बरबस, मधु-मस्त फुहारें सावन की।

फिर कहाँ डरा पाएगा यह, पगले जर्जर संसार मुझे।
इन लहरों के टकराने पर, आता रह-रहकर प्यार मुझे।
मैं हूँ अपने मन का राजा, इस पार रहूँ, उस पार चलूँ
मैं मस्त खिलाड़ी हूँ ऐसा, जी चाहे जीतें हार चलूँ।

जो मचल उठे अनजाने ही अरमान नहीं मेरे ऐसे-
राहों को समझा लेता हूँ, सब बात सदा अपने मन की
इन उठती-गिरती लहरों का कर लेने दो श्रृंगार मुझे,
इन लहरों के टकराने पर आता रह-रहकर प्यार मुझे।

प्रश्न

(क) ‘अपने मन का राजा’ होने के दो लक्षण कविता से चुनकर लिखिए।
(ख) किस पंक्ति में कवि पतझड़ को भी बसंत मान लेता है?
(ग) कविता का केंद्रीय भाव दो-तीन वाक्यों में लिखिए।
(घ) कविता के आधार पर कवि-स्वभाव की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(ङ)आशय स्पष्ट कीजिए-“कब रोक सकी मुझको चितवन, मदमाते कजरारे घन की।”

उत्तर-

(क) ‘अपने मन का राजा’ होने के दो लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) कवि कहीं भी रहे उसे हार-जीत की परवाह नहीं रहती।
(2) कवि को किसी प्रकार का बंधन स्वीकार नहीं है।
(ख) यह पंक्ति है
पथ-पथ मेरे पतझारों में नव सुरभि भरा मधुमास पला।
(ग) इस कविता में कवि जीवन-पथ पर चलते हुए भयभीत न होने की सीख देता है। वह विपरीत परिस्थितियों में मार्ग बनाने, आत्मनिर्भर बनने तथा किसी भी रुकावट से न रुकने के लिए कहता है।
(घ) कवि का स्वभाव निभाँक, स्वाभिमानी तथा विपरीत दशाओं को अनुकूल बनाने वाला है।
(ङ) इसका अर्थ यह है कि किसी सुंदरी का आकर्षण भी पथिक के निश्चय को नहीं डिगा सका।

22.

पथ बंद है पीछे अचल है पीठ पर धक्का प्रबल।
मत सोच बढ़ चल तू अभय, प्ले बाहु में उत्साह-बल।
जीवन-समर के सैनिको, संभव असंभव को करो
पथ-पथ निमंत्रण दे रहा आगे कदम, आगे कदम।

ओ बैठने वाले तुझे देगा न कोई बैठने।
पल-पल समर, नूतन सुमन-शय्यान देगा लेटने ।
आराम संभव है नहीं, जीवन सतत संग्राम है
बढ़ चल मुसाफ़िर धर कदम, आगे कदम, आगे कदम।

ऊँचे हिमानी श्रृंग पर, अंगार के भ्रू-भृग पर
तीखे करारे खंग पर आरंभ कर अद्भुत सफ़र
ओ नौजवाँ निर्माण के पथ मोड़ दे, पथ खोल दे
जय-हार में बढ़ता रहे आगे कदम, आगे कदम।

प्रश्न

(क) इस काव्यांश में कवि किसे क्या प्रेरणा दे रहा है?
(ख) किस पंक्ति का आशय है-‘जीवन के युद्ध में सुख-सुविधाएँ चाहना ठीक नहीं’?
(ग) अद्भुत सफ़र की अद्भुतता क्या है?
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए-‘ जीवन सतत संग्राम है।’
(ङ) कविता का केंद्रीय भाव दो-तीन वाक्यों में लिखिए।

उत्तर-

(क) इस काव्यांश में कवि मनुष्य को निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहा है।
(ख) उक्त आशय प्रकट करने वाली पंक्ति है- 
पल-पल समर, नूतन सुमन-शय्या न देगा लेटने।
(ग) कवि के अद्भुत सफ़र की अद्भुतता यह है कि यह सफ़र हिम से ढँकी ऊँची चोटियों पर, ज्वालामुखी के लावे पर तथा तीक्ष्ण तलवार की धार पर भी जारी रहता है।
(घ) इसका आशय यह है कि जीवन युद्ध की तरह है, जो निरंतर चलता रहता है। मनुष्य सफलता पाने के लिए बाधाओं से निरंतर संघर्ष करता रहता है।
(ङ) इस कविता में कवि ने जीवन को संघर्ष से युक्त बताया है। मनुष्य को बाधाओं से संघर्ष करते हुए जीवन पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए।

23.

रोटी उसकी, जिसका अनाज, जिसकी जमीन, जिसका श्रम है;
अब कौन उलट सकता स्वतंत्रता का सुसिद्ध, सीधा क्रम है।
आज़ादी है अधिकार परिश्रम का पुनीत फल पाने का,
आज़ादी है अधिकार शोषणों की धज्जियाँ उड़ाने का।
गौरव की भाषा नई सीख, भिखमंगों-सी आवाज बदल,
सिमटी बाँहों को खोल गरुड़, उड़ने का अब अंदाज बदल।
स्वाधीन मनुज की इच्छा के आगे पहाड़ हिल सकते हैं;
रोटी क्या ? ये अंबर वाले सारे सिंगार मिल सकते हैं।

प्रश्न

(क) आजादी क्यों आवश्यक है?
(ख) सच्चे अर्थों में रोटी पर किसका अधिकार है ?
(ग) कवि ने किन पंक्तियों में गिड़गिड़ाना छोड़कर स्वाभिमानी बनने को कहा है?
(घ) कवि व्यक्ति को क्या परामर्श देता है?
(ङ) आज़ाद व्यक्ति क्या कर सकता है?

उत्तर-

(क) परिश्रम का फल पाने तथा शोषण का विरोध करने के लिए आजादी आवश्यक है।
(ख) सच्चे अर्थों में रोटी पर उसका अधिकार है, जो अपनी जमीन पर श्रम करके अनाज पैदा करता है।
(ग) कवि ने ” गौरव की भाषा नई सीख, भिखमंगों-सी आवाज बदल।” पंक्ति में गिड़गिड़ाना छोड़कर स्वाभिमानी बनने को कहा है।
(घ) कवि व्यक्ति को स्वतंत्रता के साथ जीवन जीने और उसके बल पर सफलता पाने का परामर्श देता है।
(ङ) आज़ाद व्यक्ति शोषण का विरोध कर सकता है, पहाड़ हिला सकता है तथा आकाश से तारे तोड़कर ला सकता है।

24.

खुलकर चलते डर लगता है
बातें करते डर लगता है

क्योंकि शहर बेहद छोटा है।

ऊँचे हैं, लेकिन खजूर से
मुँह है इसीलिए कहते हैं,
जहाँ बुराई फूले-पनपे-
वहाँ तटस्थ बने रहते हैं,
नियम और सिद्धांत बहुत
दंगों से परिभाषित होते हैं-
जो कहने की बात नहीं है,
वही यहाँ दुहराई जाती,
जिनके उजले हाथ नहीं हैं,
उनकी महिमा गाई जाती
यहाँ ज्ञान पर, प्रतिभा पर
अवसर का अंकुश बहुत कड़ा है
सब अपने धंधे में रत हैं
यहाँ न्याय की बात गलत है

क्योंकि शहर बेहद छोटा है।

बुद्धि यहाँ पानी भरती है,
सीधापन भूखों मरता है
उसकी बड़ी प्रतिष्ठा है,
जो सारे काम गलत करता है।
यहाँ मान के नाप-तौल की
इकाई कंचन है, धन है
कोई सच के नहीं साथ है
यहाँ भलाई बुरी बात है

क्योंकि शहर बेहद छोटा है।

प्रश्न

(क) कवि शहर को छोटा कहकर किस ‘ छोटेपन ‘ को अभिव्यक्त करता चाहता है ?
(ख) 
इस शहर के लोगों की विशेषताएँ क्या हैं ?
(ग)
  आशय समझाइए :
         बुद्धि यहाँ पानी भरती है,
सीधापन भूखों मरता है-
(घ)  इस शहर में असामाजिक तत्व और धनिक क्या-क्या प्राप्त करते हैं?
(ङ) 
 ‘जिनके उजले हाथ नहीं हैं”-कथन में ‘हाथ उजले न होना’ से कवि का क्या आशय है? [CBSE (Delhi), 2013]

उत्तर-

(क) कवि शहर को छोटा कहकर लोगों की संकीर्ण मानसिकता, उनके स्वार्थपूर्ण बात-व्यवहार, बुराई का प्रतिरोध न करने की भावना, अन्याय के प्रति तटस्थता जैसी बुराइयों में लिप्त रहने के कारण उनके छोटेपन को अभिव्यक्त करना चाहता है।
(ख) इस शहर के लोग बुराई का विरोध न करके तटस्थ बने रहते हैं। अर्थात वे बुराई के फैलने का उचित वातावरण प्रदान करते हैं।
(ग) इन पंक्तियों का आशय यह है कि बुद्धमान लोग धनिकों के गुलाम बनकर रह गए हैं। वे वही काम करते हैं जो सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति करवाना चाहते हैं। यहाँ सीधेपन का कोई महत्त्व नहीं है। यहाँ वही व्यक्ति सम्मानित होता है जो हिंसा, आतंक से भय का वातावरण बनाए रखता है।
(घ) इस शहर में असामाजिक तत्त्व और धनिक प्रतिष्ठा तथा मान-सम्मान प्राप्त करते हैं।
(ङ) ‘ जिनके उजले हाथ नहीं हैं ‘ कथन में ‘हाथ उजले न होने’ का आशय है
अनैतिक, अमर्यादित, अन्यायपूर्वक कार्य करना तथा गलत तरीके एवं बेईमानी से धन, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करके दूसरों का शोषण करने जैसे कार्यों में लिप्त रहना।

25.

अचल खड़े रहते जो ऊँचा शीश उठाए तूफानों में,
सहनशीलता, दृढ़ता हँसती जिनके यौवन के प्राणों में।
वही पंथ बाधा को तोड़े बहते हैं जैसे हों निझर,
प्रगति नाम को सार्थक करता यौवन दुर्गमता पर चलकर।
आज देश की भावी आशा बनी तुम्हारी ही तरुणाई,
नए जन्म की श्वास तुम्हारे अंदर जगकर है लहराई।
आज विगत युग के पतझर पर तुमको नव मधुमास खिलाना,
नवयुग के पृष्ठों पर तुमको है नूतन इतिहास लिखाना।
उठो राष्ट्र के नवयौवन तुम दिशा-दिशा का सुन आमंत्रण,
जगो, देश के प्राण जगा दो नए प्राप्त का नया जागरण।
आज विश्व को यह दिखला दो हममें भी जागी। तरुणाई,
नई किरण की नई चेतना में हमने भी ली ऑगड़ाई।

प्रश्न

(क) मार्ग की रुकावटों को कौन तोड़ता है और कैसे?
(ख) नवयुवक प्रगति के नाम को कैसे सार्थक करते हैं?
(ग) ‘विगत युग के पतझर’ से क्या आशय है?
(घ) कवि देश के नवयुवकों का आहवान क्यों कर रहा है?
(ङ) कविता का मूल संदेश अपने शब्दों में लिखिए।  [CBSE (Delhi), 2014]

उत्तर-

(क)  मार्ग की रुकावटों को वे तोड़ते हैं जो संकटों से घबराए बिना उनका सामना करते हैं। ऐसे लोग अपनी मूल रिदृढ़ता से जवना में आने वाले संक्टरूपा तुमानों का निहारता से मुकबल कते हैं और विजयी होते हैं।
(ख) जिस प्रकार झरना अपने वेग से अपने रास्ते में आने वाली चट्टानों और पत्थरों को तोड़कर आगे निकल जाता है, उसी प्रकार नवयुवक भी बाधाओं को जीतकर आगे बढ़ते हैं और प्रगति के नाम को स्रार्थक करते हैं।
(ग) ‘विगत युग के पतझर’ का आशय है-बीता हुआ वह समय जब देश के लोग विशेष सफलता और उपलब्धियाँ अर्जित नहीं कर पाए।
(घ) कवि देश के नवयुवकों का आहवान इसलिए कर रहा है क्योंकि नवयुवक उत्साह, साहस, उमंग से भरे हैं। उनके स्वभाव में निडरता है। वे बाधाओं से हार नहीं मानते। उनका यौवन देश की आशा बना हुआ है। वे देश को प्रगति के पथ पर ले जाने में समर्थ हैं।
(ङ) कवि नवयुवकों का आहवान कर रहा है कि वे देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने के लिए आगे आएँ। उनका यौवन दुर्गम पथ पर विपरीत परिस्थितियों में उन्हें विजयी बनाने में सक्षम है। देशवासी उन्हें आशाभरी निगाहों से देख रहे हैं। अब समय आ गया है कि वे अपने यौवन की ताकत दुनिया को दिखा दें।

26.

आँसू से भाग्य पसीजा है, हे मित्र, कहाँ इस जग में?
नित यहाँ शक्ति के आगे, दीपक जलते मग-मग में।
कुछ तनिक ध्यान से सोची, धरती किसकी हो पाई?
बोलो युग-युग तक किसने, किसकी विरुदावलि गाई?
मधुमास मधुर रुचिकर है, पर पतझर भी आता है।
जग रंगमंच का अभिनय, जो आता सो जाता है।
सचमुच वह ही जीवित है, जिसमें कुछ बल-विक्रम है।
पल-पल घुड़दौड़ यहाँ है, बल-पौरुष का संगम है।
दुर्बल को सहज मिटाकर, चुपचाप समय खा जाता,
वीरों के ही गीतों को, इतिहास सदा दोहराता।
फिर क्या विषाद, भय, चिंता, जो होगा सब सह लेंगे,
परिवर्तन की लहरों में जैसे होगा बह लेंगे।

प्रश्न

(क) कविता का मूल संदेश क्या है?
(ख) ‘रोने से दुर्भाग्य सौभाग्य में नहीं बदल जाता’ के भाव की पंक्तियाँ छाँटकर लिखिए।
(ग) समय किसे नष्ट कर देता है और कैसे?
(घ) इतिहास किसे याद रखता है और क्यों?
(ङ) ‘मधुमास मधुर रुचिकर है, पर पतझर भी आता है’ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। [CBSE (Foreign), 2014)]

उत्तर-

(क) कविता का मूल संदेश यह है कि हमें अपनी दुर्बलता त्यागकर सबल बनना चाहिए। व्यक्ति अपनी कोई पहचान नहीं छोड़ पाते, जबकि वीरों और सबलों की कीर्ति धरती पर गूँजती रहती है।
(ख) उक्त भाव प्रकट करने वाली पंक्तियाँ हैं
आँसू से भाग्य पसीजा है, हे मित्र, कहाँ इस जग में?
नित यहाँ शक्ति के आगे, दीपक जलते मग-मग में।
(ग) समय कमजोर व्यक्तियों को नष्ट कर देता है। कमजोर व्यक्ति अपनी कायरता और दुर्बलता के कारण कोई ऐसा महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाते, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें याद रखें। इसके अलावा साहसपूर्ण काम न करने वाले लोग आसानी से भुला दिए जाते हैं।
(घ) इतिहास उन लोगों को याद रखता है, जिनमें बल और पुरुषार्थ का संगम होता है। इतिहास उन्हें इसलिए याद रखता है क्योंकि वे अपनी वीरता और साहस से याद रखने वाले काम करते हैं तथा अपने इसी गुण के कारण वे विपरीत परिस्थितियों में भी जिंदा बने रहते हैं।
(ङ) ‘मधुमास मधुर रुचिकर है, पर पतझर भी आता है’-पंक्ति का भाव यह है अच्छे दिन सदैव नहीं रहते। मनुष्य के जीवन में बुरे दिन भी आते हैं। इस तरह जीवन में सुख-दुख का आना-जाना लगा रहता है।

27.

मैंने गढ़े
ताकत और उत्साह से
भरे-भरे
कुछ शब्द
जिन्हें छीन लिया मठाधीशों ने
दे दिया उन्हें धर्म का झंडा
उन्मादी हो गए
मेरे शब्द।
तलवार लेकर
मिटाने लगे
खाद-पानी से
फिर रचे मैंने
इंसानियत से लबरेज
ढेर सारे शब्द।
नहीं छीन पाएगा उन्हें
छीनने की कोशिश में भी
गिर ही जाएँगे कुछ दाने
और समय आने पर
फिर उगेंगे

अबकी उन्हें अगवा कर लिया
सफ़ेदपोश लुटेरों ने
और दबा दिया उन्हें
कुर्सी के पाये तले
असहनीय दर्द से चीख रहे हैं
मेरे शब्द और वे
कर रहे हैं अट्ठहास।
अब मैं गढ़ेंगी
बोऊँगी उन्हें
निराई गुड़ाई और
अपना ही वजूद
लहलहा उठेगी फसल
तब कोई मठाधीश
कोई लुटेरा
एक बार
दो बार
लगातार उगेंगेबार-बार
वे मेरे शब्द।

प्रश्न

(क) ‘मठधीशों’ ने उत्साह भरे शब्दों को क्यों छीना होगा?
(ख) ‘तलवार’ शब्द यहाँ किस ओर संकेत कर रहा है?
(ग) आशय समझाइए कुर्सी के पाये तले-दर्द से चीख रहे हैं।
(घ) कवयित्री किस उम्मीद से शब्दों को बो रही है?
(ङ) ‘और वे कर रहे हैं अट्ठहास’ में ‘वे’ शब्द किनके लिए प्रयुक्त हुआ है? [CBSE Sample Paper 2015]

उत्तर-

(क) मठाधीशों ने उत्साह-भरे शब्दों को इसलिए छीना होगा ताकि वे उनका दुरुपयोग करते हुए भोले-भाले लोगो को बहकाएँ और उनमें धार्मिक उन्माद पैदा कर सकें।
(ख) यहाँ ‘ तलवार ‘ द्वारा आना ही वह मानेक कर्य किया गया है अत यहा “आयात को ओ सीता कर रहा ह।
(ग)  आशय यह है कि समाज के तथाकथित लुटेरों ने कवयित्री द्वारा गढ़े गए ताकत और उत्साह से भरे शब्दों का दुरुपयोग सत्ता पाने के लिए किया और लोग उन शब्दों के भ्रम में आ गए।
(घ) कवयित्री शब्दों को इसलिए बो रही है ताकि वे समाज में खूब फैलें। उसे उम्मीद है कि ये शब्द समय आने पर अपने सही अर्थ की अभिव्यक्ति करेंगे।
(ङ) ‘वे कर रहे हैं अट्ठहास’ में ‘वे’ शब्द समाज के सफ़ेदपोश लुटेरों के लिए प्रयुक्त हुआ है।

28.

पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे?
लहू गर्म करने को रक्खो मन में ज्वलित विचार,
हिंस्र जीव से बचने को चाहिए किंतु तलवार।
एक भेद है और, जहाँ निर्भय होते नर-नारी

कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बातों में बिजली होती, होते दिमाग में गोले।
जहाँ लोग पालते लहू में हालाहल की धार
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में हुई नहीं तलवार?

प्रश्न

(क) कलम किस बात की प्रतीक है?
(ख) तलवार की आवश्यकता कहाँ पड़ती है?
(ग) लहू को गर्म करने से कवि का क्या आशय है?
(घ) कैसे व्यक्ति को तलवार की आवश्यकता नहीं होती?
(ङ) तलवार कब अपरिहार्य हो जाती है? [CBSE (Delhi), 2015]

उत्तर-

(क) कलम व्यक्ति में ओजस्वी और क्रांतिकारी विचार उत्पन्न करने के साधन का प्रतीक है जिससे व्यक्ति की दीनता-हीनता नष्ट हो जाती है।
(ख) जहाँ लोग क्रांतिकारी विचारों से दूरी रखते हैं; साहस, उत्साह से हीन होते हैं; वाणी में दीनता और व्यवहार में ल्किता है जो लोक कल्ममेंआपाउलों की ताकता नाटह चुकहैव लरिक आवयकता पडती है।
(ग) लहू को गर्म रखने का तात्पर्य है-मन में जोश, उत्साह और उमंग बनाए रखते हुए क्रांतिकारी विचार रखना।
(घ) जो व्यक्ति निर्भय होता है, जिस व्यक्ति के विचारों में क्रांति की ज्वाला फूटती है, अन्याय अत्याचार को न सहने की प्रबल भावना होती है तथा जिसमें अपने राष्ट्र के प्रति बलिदान की उत्कट भावना होती है उसे तलवार की आवश्यकता नहीं पड़ती।
(ङ) तलवार तब अपरिहार्य बन जाती है जब अत्याचार, अन्याय तथा राष्ट्र के प्रति कुदृष्टि रखने वाले शत्रुरूपी हिंसक जीव से अपना बचाव करना होता है तथा प्रेम, सद्भाव आदि को दुर्बलता समझकर उनका अनुचित फायदा उठाया जाता है।

स्वयं करें

निम्नलिखित काव्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए 

1.

यहाँ कोकिला नहीं, काक हैं शोर मचाते।
काले-काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से।
वे पौधे, वे पुष्प, शुष्क हैं अथवा झुलसे॥
परिमल-हीन पराग दाग-सा बना पड़ा है।
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना।
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले पर मंद चाल से उसे चलाना।
दुख की आहें संग उड़ाकर मत ले जाना।
कोकिल गाए, किंतु राग रोने का गाए।
भ्रमर करे गुंजार, कष्ट की कथा सुनाए।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले।
हो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ-कुछ गीले॥

किंतु न तुम उपहार भाव आकर दरसाना।
स्मृति की पूजा-हेतु यहाँ थोड़े बिखराना॥
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा—खाकर।
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर॥
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं।
अपने प्रिय परिवार, देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना।
करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना॥
तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर।
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर॥
यह सब करना किंतु बहुत धीरे से आना।
यह है शोक-स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।

प्रश्न

(क) कवि ने बाग की क्या दशा बताई है?
(ख) कवि ऋतुराज को धीरे से आने की सलाह क्यों देता है?
(ग) ऋतुराज को क्या-क्या न लाने के लिए कहा गया है?
(घ) ‘कोमल बालक………  खा-खाकर’ पंक्ति से किस घटना का पता चलता है?
(ङ) शुष्क पुष्प कहाँ गिराने की बात कही गई है तथा क्यों?

2.

स्नेह निझर बह गया है।
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है ”अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते, पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन दह गया है।”
दिए हैं मैंने जगत को फूल-फल

पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल—
ठाठ जीवन का वही,
जो ढह गया है।
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम, तृण पर बैठने को, निरुपमा
बह रही है हृदय पर केवल अमा,
मैं अलक्षित हूँ, यही
कवि कह गया है।

प्रश्न

(क) कवि ने यह क्यों कहा कि ‘स्नेह-निझर बह गया है”?
(ख) ‘ मैं वह ……….  जिसका अर्थ।’-पंक्ति का भाव बताइए।
(ग) कवि ने अपने जीवन में समाज को क्या दिया था?
(घ) वृद्धावस्था में कवि की क्या दशा है?
(ङ) कवि स्वयं को अलक्षित क्यों कहता है?

3.

एक फ़ाइल ने दूसरी फ़ाइल से कहा
बहन लगता है
साहब हमें छोड़कर जा रहे हैं
इसीलिए तो सारा काम
जल्दी-जल्दी निपटा रहे हैं।
मैं बार-बार सामने जाती हूँ
रोती हूँ, गिड़गिड़ाति हूँ
करती हूँ विनती हर बार
साहब जी ! इधर भी देख लो एक बार।
दूसरी फ़ाइल ने उसे
प्यार से समझाया
जीवन का नया फ़लसफ़ा सिखाया
बहन! हम यूँ ही रोते हैं
बेकार  गिड़गिड़ाते हैं
लोग आते हैं, जाते हैं
हस्ताक्षर कहाँ रुकते हैं
हो ही जाते हैं।
पर कुछ बातें ऐसी होती हैं

कभी मुझे नीचे पटक देते हैं
कभी पीछे सरका देते हैं
और कभी-कभी तो
फ़ाइलों के ढेर तले
दबा देते हैं।
अधिकारी बार-बार
डरते-डरते पूछ जाता है
साहब कहाँ गए ……….   ?
पर साहब हैं कि ……….   ?
हस्ताक्षर हो गए ……….   ?
जो दिखाई नहीं देतीं
और कुछ आवाजों
सुनाई नहीं देतीं।
जैसे फूल खिलते हैं
और अपनी महक छोड़ जाते हैं
वैसे ही कुछ लोग
कागज पर नहीं
दिलों पर हस्ताक्षर छोड़ जाते हैं।

प्रश्न

(क) साहब जल्दी-जल्दी काम क्यों निपटा रहे हैं
(ख) फ़ाइल की विनती पर साहब की क्या प्रतिक्रिया होती है?
(ग)  ‘हस्ताक्षर कहाँ रुकते हैं-हो ही जाते हैं।’-पंक्ति में छिपा व्यंग्य बताइए।
(घ)  दूसरी फ़ाइल ने पहली फ़ाइल को क्या समझाया?
(ङ) इस काव्यांश के भाव दो-तीन पंक्तियों में लिखिए।

4.

आधुनिकता के दौर में,
ये प्रश्न उठता है।
कोख किराये पर लें,
ये कोख बिकता है।
आधुनिकता के दौर में
ये प्रश्न उठता है …..
पवित्र बँधन है माँ का संतान से
माँ संतान को हर शहर में
और संतान माँ को
प्रश्न उठता है – – –

क्या कभी खत्म न होगा
गुमान हुआ कोख नहीं,
इक माँ है बिक रही,
ठंडी-शिलाओं में आग-सी जल रही
और धुआँ उठता है।
ये भावनाओं का व्यापार,
आधुनिकता की डोर में
कब तक बँधेगा संसार
संस्कारों को भूल किन
परंपराओं की दुहाई देता है।
आधुनिकता के दौर में
ये प्रश्न उठता है – – – –

प्रश्न

(क) आधुनिकता के दौर में क्या प्रश्न उठता है?
(ख) ‘इक माँ है बिक रही।’-भाव स्पष्ट कीजिए।
(ग) आज के दौर में माँ और संतान के बीच कैसा रिश्ता हो गया है?
(घ) चौथे अनुच्छेद में कौन-कौन से प्रश्न उठाए गए हैं?
(ङ) इस काव्यांश में निहित व्यंग्य को स्पष्ट करें।

5.

ग्राम, नगर या कुछ लोगों का
नाम नहीं होता है देश।
संसद, सड़कों, आयोगों का
नाम नहीं होता है देश।
देश नहीं होता है केवल
सीमाओं से घिरा मकान।
देश नहीं होता है कोई
सजी हुई ऊँची दुकान।
देश नहीं क्लब जिसमें बैठे
करते रहें सदा हम मौज।
देश नहीं होता है फ़ौज।
जहाँ प्रेम के दीपक जलते
वहीं हुआ करता है देश।

जहाँ इरादे नहीं बदलते
वहीं हुआ करता है देश।
हर दिल में अरमान मचलते,
वहीं हुआ करता है देश।
सज्जन सीना ताने चलते,
वहीं हुआ करता है देश।
देश वहीं होता जो सचमुच,
आगे बढ़ता कदम-कदम।
धर्म, जाति, सीमाएँ जिसका,
ऊँचा रखते हैं परचम।
पहले हम खुद को पहचानें,
फिर पहचानें अपना देश
एक दमकता सत्य बनेगा,
नहीं रहेगा सपना देश।

प्रश्न

(क) कवि किसे देश नहीं मानता ?
(ख) ‘पहले हम खुद को पहचाने-फिर पहचानें अपना देश’-इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
(ग) देश की पहचान किन-किन बातों से होती है?
(घ) देश के मस्तक को ऊँचा रखने में किन-किनका योगदान होता है ?
(ङ) प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि देशवासियों को क्या संदेश देना चाहता है?

6.

मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित !
चाहता हूँ, देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँ तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा फिर भी निवेदन।
थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब भी,
कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्त का कण-कण समर्पित!
चाहता हूँ, देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

कर रहा आराधना मैं आज तेरी,
एक विनती तो करो स्वीकार मेरी।
भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया घनेरी।
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित !

चाहता हूँ, देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो
गाँव मेरे, द्वार, घर, आँगन क्षमा दो।
देश का जयगान अधरों पर सजा है
देश का ध्वज हाथ में केवल थमा दी।
ये सुमन लो, यह चमन लो,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित!
चाहता हूँ, देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

प्रश्न

(क) कवि देश की धरती को क्या-क्या समर्पित करता है ?
(ख) मातृभूमि का हम पर क्या ऋण है?
(ग) कवि देश की आराधना में क्या निवेदन करता है तथा क्यों?
(घ) देश के प्रति आयु का क्षण-क्षण समर्पित करने के बाद भी कवि को संतुष्टि क्यों नहीं है?
(ङ) कवि किस-किस से क्षमा माँगता है?

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अपठित गद्यांश | Hindi Unseen Passages अपठित बोध class12th

NCERT Solutions for Class 12 Hindi Core – अपठित गद्यांश-बोध

अपठित गदयांश क्या है?
वह गद्यांश, जिसका अध्ययन विद्यार्थियों ने पहले कभी न किया हो, उसे अपठित गद्यांश कहते हैं। अपठित गद्यांश देकर उस पर भाव-बोध संबंधी प्रश्न पूछे जाते हैं ताकि विद्यार्थियों की भावग्रहण-क्षमता का मूल्यांकन हो सके।

अपठित गदयांश हल करते समय ध्यान देने योग्य बातें-

  1. अपठित गद्यांश का बार-बार मूक वाचन करके उसे समझने का प्रयास करें।
  2. इसके पश्चात प्रश्नों को पढ़ें और गद्यांश में संभावित उत्तरों की रेखांकित करें।
  3. जिन प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट न हों, उनके उत्तर जानने हेतु गद्यांश को पुन: ध्यान से पढ़ें।
  4. प्रश्नों के उत्तर अपनी भाषा में दें।
  5. उत्तर संक्षिप्त एवं भाषा सरल और प्रभावशाली होनी चाहिए।
  6. यदि कोई प्रश्न शीर्षक देने के संबंध में हो तो ध्यान रखें कि शीर्षक मूल कथ्य से संबंधित होना चाहिए।
  7. शीर्षक गद्यांश में दी गई सारी अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए।
  8. अंत में अपने उत्तरों को पुन: पढ़कर उनकी त्रुटियों को अवश्य दूर करें।

उदाहरण

निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-

1. भारतीय धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक थे। उनकी यह धारणा थी कि नैतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उन्होंने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के निर्माण के लिए वेद की एक ऋचा के आधार पर कहा कि उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली मनुष्य की विवेक-बुद्ध से तभी निर्मित होनी संभव है, जब सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों; सबके हृदय में समानता की भव्य भावना जाग्रत हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल कार्य करें। चरित्र-निर्माण की जो दिशा नीतिकारों ने निर्धारित की, वह आज भी अपने मूल रूप में मानव के लिए कल्याणकारी है। प्राय: यह देखा जाता है कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा वाणी, बाहु और उदर को संयत न रखने के कारण होती है। जो व्यक्ति इन तीनों पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है, उसका चरित्र ऊँचा होता है।

सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही संभव है। जिस समाज में चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य है, वह समाज सभ्य होता है और वही उन्नत कहा जाता है। चरित्र मानव-समुदाय की अमूल्य निधि है। इसके अभाव में व्यक्ति पशुवत व्यवहार करने लगता है। आहार, निद्रा, भय आदि की वृत्ति सभी जीवों में विद्यमान रहती है, यह आचार अर्थात चरित्र की ही विशेषता है, जो मनुष्य को पशु से अलग कर, उससे ऊँचा उठा मनुष्यत्व प्रदान करती है। सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए भी चरित्र-निर्माण की आवश्यकता है। सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में तभी जाग्रत होती है, जब वह मानव प्राणियों में ही नहीं, वरन सभी जीवधारियों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है।

प्रश्न –

(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक क्यों थे?
(ख) चरित्र मानव-जीवन की अमूल्य निधि कैसे है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) धर्मनीतिकारों ने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के संबंध में क्या कहा?
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में किन पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है और क्यों?
(ड) कैसा समाज सभ्य और उन्नत कहा जाता है?
(च) सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में कब जाग्रत होती है?
(छ) ‘उत्कृष्ट’ और ‘प्रगति’ शब्दों के विलोम तथा ‘बाहु’ और ‘वाणी’ शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए।
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक थे। इसका कारण यह था कि नैतिक मूल्यों का पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं।
(ख) चरित्र मानव-जीवन की अमूल्य निधि है, क्योंकि इसके द्वारा ही मनुष्य व पशु में अंतर होता है। चरित्र सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
(ग) धर्मनीतिकारों ने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के संबंध में यह कहा कि परिष्कृत जीवन-प्रणाली मनुष्य के विवेक-बुद्ध से ही निर्मित हो सकती है। हालाँकि यह तभी संभव है, जब संपूर्ण मानव-जाति के संकल्प और उद्देश्य समान हों। सबके अंतर्मन में भव्य भावना जाग्रत हो और सभी लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल कार्य करें।
(घ) इस गद्यांश में वाणी, बाहु तथा उदर पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है, क्योंकि इन पर नियंत्रण न होने से चारित्रिक व नैतिक पतन हो जाता है।
(ड) यह सर्वमान्य तथ्य है कि सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही संभव है। आदर्श चरित्र के अभाव में सभ्यता का विकास असंभव है। अत: जिस समाज में चरित्रवान लोगों की बहुलता होती है, उसी समाज को सभ्य और उन्नत कहा जाता है।
(च) ‘व्यापकता ही जागरण का प्रतीक है।’ अत: किसी व्यक्ति में अनुशासन की भावना का जाग्रत होना तभी संभव हो पाता है, जब वह व्यापक स्वरूप ग्रहण करता है, यानी समस्त जीवधारियों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है।
(छ) विलोम शब्द-

उत्कृष्ट × निकृष्ट
प्रगति × अवगति

पर्यायवाची शब्द-

बाहु – भुजा
वाणी – वचन

(ज) शीर्षक-चरित्र-निर्माण।

2. वैदिक युग भारत का प्राय: सबसे अधिक स्वाभाविक काल था। यही कारण है कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार लोभ से देखता है। वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्णकाल कहते थे या नहीं, यह हम नहीं जानते; किंतु उनका समय हमें स्वर्णकाल के समान अवश्य दिखाई देता है। लेकिन जब बौद्ध युग का आरंभ हुआ, वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उसकी आलोचना आरंभ हो गई। बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिक आदोलन के समान था। ब्राहमणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, बुद्ध जाति-प्रथा के विरोधी थे और वे मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे।

नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं, जो जाति-प्रथा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। किंतु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे, गृहस्थी के कर्म से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उनकी प्रेरणा से देश के हजारों-लाखों युवक, जउन बाक समाजक भण-पण कनेके हायक थे सन्यास होगए संन्यासक संस्था समाज विधिी सस्था हैं।

प्रश्न –

(क) वैदिक युग स्वर्णकाल के समान क्यों प्रतीत होता है?
(ख) जाति-प्रथा एवं नारियों के विषय में बुद्ध के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
(ग) बुद्ध पर क्या आरोप लगता है और उनकी कौन-सी बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती?
(घ) ‘संन्यास’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि इससे समाज को क्या हानि पहुँचती है।
(ड) बौद्ध युग का उदय वैदिक समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए किस प्रकार हानिकारक था?
(च) बौद्ध धर्म ने नारियों को समता का अधिकार दिलाने में किस प्रकार से योगदान दिया?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. उपसर्ग और मूल शब्द अलग-अलग करके लिखिए विद्रोह, संन्यास।
  2. मूल शब्द और प्रत्यय अलग-अलग करके लिखिए आधुनिकता, विरोधी।

(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) वैदिक युग भारत का स्वाभाविक काल था। हमें प्राचीन काल की हर चीज अच्छी लगती है। इस कारण वैदिक युग स्वर्णकाल के समान प्रतीत होता है।
(ख) बुद्ध जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। उन्होंने ब्राहमणों की श्रेष्ठता का विरोध किया। मनुष्य को वे कर्म के अनुसार श्रेष्ठ या अधम मानते थे। उन्होंने नारी को मोक्ष की अधिकारिणी माना।
(ग) बुद्ध पर निवृत्तिवादी होने का आरोप लगता है। उनकी गृहस्थ धर्म को भिक्षु धर्म से निकृष्ट मानने वाली बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती।
(घ) ‘संन्यास’ शब्द ‘सम् + न्यास’ शब्द से मिलकर बना है। ‘सम्’ यानी ‘अच्छी तरह से’ और ‘न्यास’ यानी ‘त्याग करना’। अर्थात अच्छी तरह से त्याग करने को ही संन्यास कहा जाता है। संन्यास की संस्था से देश का युवा वर्ग उत्पादक कार्य में भाग नहीं लेता। इससे समाज की व्यवस्था खराब हो जाती है।
(ड) बौद्ध युग का उदय वैदिक युग की कमियों के प्रतिक्रियास्वरूप हुआ था। वस्तुत: वैदिक युगीन समाज के शीर्ष पर ब्राहमण वर्ग के कुछ स्वार्थी लोग विराजमान थे। ये लोग जन्म के आधार पर अपने-आप को श्रेष्ठ मानते थे और शेष समाज को भी श्रेष्ठ मानने के लिए मजबूर करते थे। ऐसे में बौद्ध धर्म के सिद्धांत शोषित समाज धात अधिकार देकर यह सिद्ध किया कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है। इस पर नारियों का भी हक है। यह नारियों को समता का अधिकार दिलाने में काफी प्रभावी कदम साबित हुआ।
(छ)

  1. उपसर्ग-वि, सम्
    मूल शब्द-द्रोह, न्यास
  2. मूल शब्द-आधुनिक, विरोध।
    प्रत्यय-ता, ई।

(ज) शीर्षक-बुद्ध की वैचारिक प्रासंगिकता।

3. तत्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्रवितीय वह, जो हमें जीना सिखाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह परावलंबी हो-माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर। पहली विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेनेवाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा, उसमें यदि वह जीवन-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्यपथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींगविहीन पशु कहा जाता है।

वर्तमान भारत में दूसरी विद्या का प्राय: अभावे दिखाई देता है, परंतु पहली विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति ‘कु’ से ‘सु’ बनता है; सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है।

जीवन के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ‘अन्न’ से ‘आनंद’ की ओर बढ़ने को जो ‘विद्या का सार’ कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।

प्रश्न –

(क) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) व्यक्ति किस परिस्थिति में मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता?
(ग) विद्या के कौन-से दो रूप बताए गए हैं?
(घ) वर्तमान शिक्षा पद्धति के लाभ व हानि बताइए।
(ड) विद्याहीन व्यक्ति की समाज में क्या दशा होती है?
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान कौन-कौन-से हैं?
(छ) शिक्षित युवकों को अपना बहुमूल्य समाज क्यों बर्बाद करना पड़ता है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. संधि-विच्छेद कीजिए-परावलबी, जीविकोपार्जन।
  2. विलोम शब्द लिखिए-सार्थक, विकास।

उत्तर –

(क) शीर्षक-शिक्षा के सोपान।
(ख) जीवन-यापन के लिए काफी धन अर्जित करने के बावजूद व्यक्ति का जीवन सुचारु रूप से नहीं चल पाता, क्योंकि उनके पास वह जीवन-शक्ति नहीं होती, जो स्वयं के जीवन को सत्पथ की ओर अग्रसर करती है और साथ-ही-साथ समाज और राष्ट्र का मार्गदर्शन करती है। इस परिस्थिति में व्यक्ति मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता।
(ग) विद्या के दो रूप बताए गए हैं

  1. वह विद्या जो जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है।
  2. वह विद्या जो जीना सिखाती है।

(घ) आधुनिक शिक्षा-पद्धति हमारी बुद्ध विकसित करती है, भावनाओं को चेतन करती है, परंतु जीविकोपार्जन के लिए कुछ नहीं कर पाती।
(ड) विद्याहीन व्यक्ति न तो जीवन-यापन के लिए अर्जन करना जानता है और न ही वह जीने की कला से परिचित होता है। उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। वह आजीवन परावलंबी होता है।
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान हैं-विद्यार्थी की आवश्यकता, शिक्षा की उपयोगिता और जीवन को परिष्कृत तथा अलकृत करना।
(छ) वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में कला, शिल्प एवं प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप शिक्षित युवकों का जीविकोपार्जन टेढ़ी खीर बन गया है। उन्हें अपना अधिकांश समय नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में बर्बाद करना पड़ता है।
(ज)

  1. संधि-विच्छेद—
    परावलंबी :
     पर + अवलंबी।
    जीवकोपार्जन : जीविका + उपार्जन।
  2. विलोम शब्द : सार्थक × निरर्थक।
    विकास × हास।

4. प्रजातंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। प्रजातंत्र की सार्थकता एवं दृढ़ता को ध्यान में रखते हुए और जनता के प्रहरी होने की भूमिका को देखते हुए मीडिया (दृश्य, श्रव्य और मुद्रित) को प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है। समाचार-माध्यम या मीडिया को पिछले वर्षों में पत्रकारों और समाचार-पत्रों ने एक विश्वसनीयता प्रदान की है और इसी कारण विश्व में मीडिया एक अलग शक्ति के रूप में उभरा है।

कार्यपालिका और विधायिका की समस्याओं, कार्य-प्रणाली और विसंगतियों की चर्चा प्राय: होती रहती है और सर्वसाधारण में वे विशेष चर्चा के विषय रहते ही हैं। इसमें समाचार-पत्र, रेडियो और टी०वी० समाचार अपनी टिप्पणी के कारण चर्चा को आगे बढ़ाने में योगदान करते हैं, पर न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसके बारे में चर्चा कम ही होती है। ऐसा केवल अपने देश में ही नहीं, अन्य देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है।

स्वराज-प्राप्ति के बाद और एक लिखित संविधान के देश में लागू होने के उपरांत लोकतंत्र के तीनों अंगों के कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ी है। संविधान-निर्माताओं का उद्देश्य रहा है कि तीनों अंग परस्पर ताल-मेल से कार्य करेंगे। तीनों के पारस्परिक संबंध भी संविधान द्वारा निर्धारित , फिर भी समय के साथ-साथ कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आज लोकतंत्र यह महसूस करता है कि न्यायपालिका | भी अधिक पारदर्शिता हो, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े। ‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।’

प्रश्न –

(क) लोकतंत्र के तीनों अंगों का नामोल्लेख कीजिए। चौथा अंग किसे माना जाता है?
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
(ग) अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद न्यायपालिका के बारे में मीडिया में कम चर्चा क्यों होती है?
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में किसका योगदान है? कैसे?
(ड) ‘पारदर्शिता’ से क्या तात्पर्य है? लोकतंत्र न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता क्यों चाहता है?
(च) आशय स्पष्ट कीजिए-‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।’
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. विशेषण बनाइए—विश्व, प्रतिष्ठा
  2. वाक्य में प्रयोग कीजिए-मर्यादा, विसंगति

(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) लोकतंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। चौथा अंग मीडिया को माना जाता है। इसमें दृश्य, श्रव्य व मुद्रित मीडिया होते हैं।
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की अह भूमिका है। यह कार्यपालिका व विधायिका की समस्याओं, कार्य-प्रणाली तथा विसंगतियों की चर्चा करती है, पर न्यायपालिका पर किसी प्रकार की टिप्पणी करने से बचती है।
(ग) न्यायपालिका प्रजातंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, परंतु इसकी चर्चा मीडिया में कम होती है, क्योंकि उसमें पारदर्शिता अधिक होती है। दूसरे, न्यायपालिका अपने विशेषाधिकारों के प्रयोग से मीडिया को दबा देती है।
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में मीडिया का योगदान है। यह सरकार द्वारा बनाई गई नई-नई नीतियों को जनता तक पहुँचाती है तथा उन नीतियों के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूक बनती है। साथ-ही-साथ यह दायित्वबोध कराने में भी अपनी अह भूमिका अदा करती है।
(ड) ‘पारदर्शिता’ का अर्थ है-आर-पार दिखाई देना या संदेह में न रखना। न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षिका है, परंतु न्यायाधीशों पर आक्षेप लगने लगे हैं। अत: लोकतंत्र न्यायपालिका में पारदर्शिता चाहता है।
(च) इसका अर्थ यह है कि भारत में पहले न्यायाधीशों को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया जाता था, क्योंकि वे पक्षपातपूर्ण निर्णय नहीं देते थे आजकल न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्य-प्रणालियों पर आरोप लगाए जाने लगे हैं। यह गलत परंपरा की शुरुआत है।
(छ)

  1. विशेषण-वैश्विक, प्रतिष्ठित
  2. हर व्यक्ति को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए।
    सरकार ने वेतन-विसंगति दूर करने का वायदा किया।

(ज) शीर्षक-मीडिया और लोकतंत्र। अथवा, प्रजातंत्र के अंग।

5. संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है। संस्कृति के मूल उपादान तो प्राय: सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों में एक सीमा तक समान रहते हैं, किंतु बाहय उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं, जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति संशयालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है। यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का फल है।

अपनी संस्कृति को छोड़, विदेशी संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण से हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो ठेस पहुँच रही है, वह किसी राष्ट्रप्रेमी जागरूक व्यक्ति से छिपी नहीं है। भारतीय संस्कृति में त्याग और ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है। अत: आज के वैज्ञानिक युग में हम किसी भी विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहना चाहेंगे, किंतु अपनी सांस्कृतिक निधि की उपेक्षा करके नहीं। यह परावलंबन राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य की आलोकप्रदायिनी किरणों से पौधे को चाहे जितनी जीवनशक्ति मिले, किंतु अपनी जमीन और अपनी जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता। अविवेकी अनुकरण अज्ञान का ही पर्याय है।

प्रश्न –

(क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण बताइए।
(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु क्यों हो गए हैं?
(ग) राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन क्या है?
(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा क्यों नहीं कर सकते?
(ड) हम विदेशी संस्कृति से क्या ग्रहण कर सकते हैं तथा क्यों?
(च) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

प्रत्यय बताइए-जातीय, सांस्कृतिक।
पर्यायवाची बताइए-देश, सूर्य।

(छ) गद्यांश में युवाओं के किस कार्य को राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है तथा उन्हें क्या संदेश दिया गया है?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण यह है कि भिन्न संस्कृतियों के निकट आने के कारण अतिक्रमण एवं विरोध स्वाभाविक है।
(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु इसलिए हो गए हैं, क्योंकि नई पीढ़ी ने विदेशी संस्कृति के कुछ तत्वों को स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है।
(ग) राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सब्से बड़ी देन यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा और रीति – नीति से जोड़े रखती है।
(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा इसलिए नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने से हम जडविहीन पौधे के समान हो जाएँगे।
(ड) हम विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति में त्याग व ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है।
(च) प्रत्यय-ईय, इक।
पर्यायवाचीदेश-राष्ट्र, राज्य।
सूर्य-रवि, सूरज।
(छ) गद्यांश में युवाओं द्वारा विदेशी संस्कृति का अविवेकपूर्ण अंधानुकरण करना राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है। साथ-ही-साथ युवाओं के लिए यह संदेश दिया गया है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की अवहेलना करके विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।
(ज) शीर्षक-भारतीय संस्कृति का वैचारिक संघर्ष।

6. परियोजना शिक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करने में किसी खेल की तरह का ही आनंद मिलता है। इस तरह परियोजना तैयार करने का अर्थ है-खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाना। यदि आपको कहा जाए कि दशहरा पर निबंध लिखिए, तो आपको शायद उतना आनंद नहीं आएगा। लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि अखबारों में प्राप्त जानकारियों के अलावा भी आपको देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह आपको तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। इससे आप में नए-नए तथ्यों के कौशल का विकास होता है। इससे आपमें एकाग्रता का विकास होता है। लेखन संबंधी नई-नई शैलियों का विकास होता है।

आपमें चिंतन करने तथा किसी पूर्व घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है। परियोजना कई प्रकार से तैयार की जा सकती है। हर व्यक्ति इसे अलग ढंग से, अपने तरीके से तैयार कर सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हर व्यक्ति का बातचीत करने का, रहने का, खाने-पीने का अपना अलग तरीका होता है। ऐसा निबंध, कहानी कविता लिखते या चित्र बनाते समय भी होता है। लेकिन ऊपर कही गई बातों के आधार पर यहाँ हम परियोजना को मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं-एक तो वे परियोजनाएँ, जो समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाती हैं और दूसरी वे, जो किसी विषय की समुचित जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार की जाती हैं।

समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाने वाली परियोजनाओं में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और उस समस्या के निदान के लिए भी दिए जाते हैं। इस तरह की परियोजनाएँ प्राय: सरकार अथवा संगठनों  द्वारा किसी समस्या पर कार्य – योजना तैयार करते समय बनाई जाती हैं। इससे उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करने में आसानी हो जाती हैं।
किंतु दूसरे प्रकार की परियोजना को आप आसानी से तैयार कर सकते हैं। इसे ‘शैक्षिक परियोजना’ भी कहा जाता है। इस तरह की परियोजनाएँ तैयार करते समय आप संबंधित विषय पर तथ्यों को जुटाते हुए बहुत सारी नई-नई बातों से अपने-आप परिचित भी होते हैं।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) परियोजना क्या है? इसका क्या महत्व है?
(ग) शैक्षिक परियोजना क्या है?
(घ) परियोजना हमें क्या-क्या प्रदान करती है?
(ड) परियोजना किस प्रकार तैयार की जा सकती है? यह कितने प्रकार की होती है?
(च) समस्या का निदान करने वाली परियोजना कैसी होनी चाहिए?
(छ) फोटो-फीचर परियोजना से आप क्या समझते हैं?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1.  विशेषण बनाइए-शिक्षा, संबंध
  2. सरल वाक्य में बदलिए—
    ‘इस तरह से न केवल आपने चित्र काटे और चिपकाए, बल्कि कई शहरों में मनाए जाने वाले दशहरे के तरीके को भी जाना।”

उत्तर –

(क) शीर्षक-परियोजना का स्वरूप।
(ख) गद्यांश के आधार पर हम कह सकते हैं कि परियोजना नियमित एवं व्यवस्थित रूप से स्थिर किया गया विचार एवं स्वरूप है। इसके द्वारा खेल-खेल में ज्ञानार्जन तथा समस्या-समाधान आदि की तैयारी की जाती है।
(ग) शैक्षिक परियोजना में संबंधित विषय पर तथ्यों को जुटाते हुए, चित्र इकट्ठे करके एक स्थान पर चिपकाए जाते हैं। इनसे नई-नई बातों की जानकारी दी जाती है।
(घ) परियोजना हमें हमारी समस्याओं का निदान प्रदान करती है तथा देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। साथ-ही-साथ यह हमको नए-नए तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर भी प्रदान करती है।
(ड) परियोजना कई प्रकार से तैयार की जाती है। हर व्यक्ति इसे अपने ढंग से तैयार कर सकता है। परियोजनाएँ दो प्रकार की होती हैं

  1. समस्या का निदान करने वाली परियोजना, तथा
  2. विषय की समुचित जानकारी देने वाली परियोजना।

(च) समस्या का निदान करने वाली परियोजना में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डालना चाहिए और समस्या-निदान के सुझाव भी दिए जाने चाहिए।
(छ) फोटो-फीचर परियोजना समस्या-निदान और ज्ञानार्जन दोनों के लिए हो सकती है। इसके अंतर्गत फोटो-फीचर के माध्यम से देश-दुनिया की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं या किसी समस्या के निदान हेतु एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुँचा जाता है।
(ज)

  1. विशेषण-शैक्षिक, संबंधित।
  2. सरल वाक्य-इस तरह आपने चित्र काटना, चिपकाना और विभिन्न शहरों में मनाए जाने वाले दशहरे को जाना।

7. सुचारित्र्य के दो सशक्त स्तंभ हैं-प्रथम सुसंस्कार और द्रवितीय सत्संगति। सुसंस्कार भी पूर्व जीवन की सत्संगति व सत्कर्मों की अर्जित संपत्ति है और सत्संगति वर्तमान जीवन की दुर्लभ विभूति है। जिस प्रकार कुधातु की कठोरता और कालिख पारस के स्पर्श मात्र से कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है, ठीक उसी प्रकार कुमार्गी का कालुष्य सत्संगति से स्वर्णिम आभा में परिवर्तित हो जाता है। सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं।

परिणामत: सुचरित्र का निर्माण होता है। आचार्य हजारीप्रसाद विवेदी ने लिखा है-‘महाकवि टैगोर के पास बैठने मात्र से ऐसा प्रतीत होता था, मानो भीतर का देवता जाग गया हो।’ वस्तुत: चरित्र से ही जीवन की सार्थकता है। चरित्रवान व्यक्ति समाज की शोभा है, शक्ति है। सुचारित्र्य से व्यक्ति ही नहीं, समाज भी सुवासित होता है और इस सुवास से राष्ट्र यशस्वी बनता है। विदुर जी की उक्ति अक्षरश: सत्य है कि सुचरित्र के बीज हमें भले ही वंश-परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं, पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है।

आनुवंशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थिति उसे केवल प्रेरणा दे सकते हैं, पर उसका अर्जन नहीं कर सकते; वह व्यक्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होता। व्यक्ति-विशेष के शिथिल-चरित्र होने से पूरे राष्ट्र पर चरित्र-संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज और अनेकानेक जातियों और समाज-समुदायों से मिलकर ही एक राष्ट्र बनता है। आज जब लोग सूचित्र-नमाण की बात कते हैं तब वे स्वायं इसराष्ट्र के एक आवक घट्क हैं-इस बात को विस्तक देते हैं।

प्रश्न –

(क) सत्संगति कुमार्गी को कैसे सुधारती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
(ख) चरित्र के बारे में विदुर के क्या विचार हैं?
(ग) व्यक्ति-विशेष का चरित्र समूचे राष्ट्र को कैसे प्रभावित करता है?
(घ) व्यक्ति के चरित्र-निर्माण में किस-किस का योगदान होता है तथा व्यक्ति सुसंस्कृत कैसे बनता है?
(ड) संगति के संदर्भ में पारस के उल्लेख से लेखक क्या प्रतिपादित करना चाहता है?
(च) किसी व्यक्ति-विशेष के शिथिल-चरित्र होने से राष्ट्र की क्या क्षति होती है?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. विलोम शब्द लिखिए-दुर्लभ, निर्माण।
  2. मिश्र वाक्य में बदलिए-
    ‘सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं।”

(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। इससे कुमार्गी व्यक्ति उसी तरह सुधर जाता है, जैसे पारस के संपर्क में आने से लोहा सोना बन जाता है।
(ख) चरित्र के बारे में विदुर का विचार है कि अच्छे चरित्र के बीज वंश-परंपरा से मिल जाते हैं, परंतु चरित्र-निर्माण व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है। सुचरित्र कभी उत्तराधिकार में नहीं मिलता।
(ग) यदि व्यक्ति-विशेष का चरित्र कमजोर हो, तो पूरे राष्ट्र के चरित्र पर संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक आचरक घटक होता है।
(घ) व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में सुसंस्कार, सत्संगति, परिवार, कुल, जाति, समाज आदि का योगदान होता है। व्यक्ति में अच्छे संस्कारों व सत्संगति से अच्छे गुणों का विकास होता है। इस कारण व्यक्ति सुसंस्कृत बनता है।
(ड) संगति के संदर्भ में लेखक ने पारस का उल्लेख किया है। पारस के संपर्क में आने से हर किस्म का लोहा सोना बन जाता है, इसी तरह अच्छी संगति से हर तरह का बुरा व्यक्ति भी अच्छा बन जाता है।
(च) किसी व्यक्ति-विशेष के शिथिल-चरित्र होने पर संपूर्ण राष्ट्र के चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि व्यक्तियों के समूह से ही किसी राष्ट्र का निर्माण होता है। इस प्रकार व्यक्ति राष्ट्र का एक आचरक घटक है। अत: राष्ट्रीय चरित्र किसी राष्ट्र के संपूर्ण व्यक्तियों के चरित्र का समावेशित रूप है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि किसी एक व्यक्ति के शिथिल-चरित्र होने पर राष्ट्रीय चरित्र की क्षति होती है।
(छ)

  1. विलोम शब्द-सुलभ, विध्वंस।
  2. मिश्र वाक्य-जब सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है, तब अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं।

(ज) शीर्षक-चरित्र-निर्माण और सत्संगति।

8. जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्ति की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपने पेशे या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण, जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर, के अनुसार पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है, भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आती है, क्योंकि उद्योग-धंधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

प्रश्न –

(क) कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
(ख) जाति-प्रथा के सिद्धांत को दूषित क्यों कहा गया है?
(ग) “जाति-प्रथा पेशे का न केवल दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती है, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे से बाँध देती है।”-कथन पर उदाहरण सहित टिप्पणी कीजिए।
(घ) भारत में जाति-प्रथा बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण किस प्रकार बन जाती है?
(ड) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष कौन-कौन-से हैं?
(च) जाति-प्रथा बेरोजगारी का कारण कैसे बन जाती है?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. गद्यांश में से ‘इक’ और ‘इत’ प्रत्ययों से बने शब्द छाँटकर लिखिए।
  2. समस्तपदों का विग्रह कीजिए और समास का नाम लिखिए श्रम-विभाजन, माता-पिता।

(ज) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) कुशल या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि हम जातीय जड़ता को त्यागकर प्रत्येक व्यक्ति को इस सीमा तक विकसित एवं स्वतंत्र करें, जिससे वह अपनी कुशलता के अनुसार कार्य का चुनाव स्वयं करे। यदि श्रमिकों को मनचाहा कार्य मिले तो कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण स्वाभाविक है।
(ख) जाति-प्रथा का सिद्धांत इसलिए दूषित कहा गया है, क्योंकि वह व्यक्ति की क्षमता या रुचि के अनुसार उसके चुनाव पर आधारित नहीं है। वह पूरी तरह माता-पिता की जाति पर ही अवलंबित और निर्भर है।
(ग) जाति-प्रथा व्यक्ति की क्षमता, रुचि और इसके चुनाव पर निर्भर न होकर, गर्भाधान के समय से ही, व्यक्ति की जाति का पूर्वनिर्धारण कर देती है, जैसे-धोबी, कुम्हार, सुनार आदि।
(घ) उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में निरंतर विकास और परिवर्तन हो रहा है, जिसके कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ सकती है। यदि वह ऐसा न कर पाए तो उसके लिए भूखे मरने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह पाता।
(ड) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष निम्नलिखित हैं —
— पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण।
— अक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण।
— देश-काल की परिस्थिति के अनुसार पेशा–परिवर्तन पर रोका
(च) जाति प्रथा बेरोजगारी का कारण तब बन जाती है, जब परंपरागत ढंग से किसी जाति-विशेष के द्वारा बनाए जा रहे उत्पाद को आज के औद्योगिक युग में नई तकनीक द्वारा बड़े पैमाने पर तैयार किया जाने लगता है। ऐसे में उस जाति-विशेष के लोग नई तकनीक के मुकाबले टिक नहीं पाते। उनका परंपरागत पेशा छिन जाता है, फिर भी उन्हें जाति-प्रथा पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। ऐसे में बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है।
(छ)

  1. प्रत्यय—इक, इत प्रत्यययुक्त शब्द-स्वाभाविक, आधारित।
  2. समस्तपद         समास-विग्रह          समास क्रा नाम
    श्रम-विभाजन     श्रम का विभाजन       तत्पुरुष समास
    माता-पिता         माता और पिता         द्वंद्व समास

(ज) शीर्षक-जाति-प्रथा।

9. जहाँ भी दो नदियाँ आकर मिल जाती हैं, उस स्थान को अपने देश में ‘तीर्थ’ कहने का रिवाज है। और यह केवल रिवाज की ही बात नहीं है; हम सचमुच मानते हैं कि अलग-अलग नदियों में स्नान करने से जितना पुण्य होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य संगम स्नान में है। किंतु, भारत आज जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें असली संगम वे स्थान, वे सभाएँ तथा वे मंच हैं, जिन पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्र होती हैं।

नदियों की विशेषता यह है कि वे अपनी धाराओं में अनेक जनपदों का सौरभ, अनेक जनपदों के आँसू और उल्लास लिए चलती हैं और उनका पारस्परिक मिलन वास्तव में नाना के आँसू और उमंग, भाव और विचार, आशाएँ और शंकाएँ समाहित होती हैं। अत: जहाँ भाषाओं का मिलन होता है, वहाँ वास्तव में विभिन्न जनपदों के हृदय ही मिलते हैं, उनके भावों और विचारों का ही मिलन होता है तथा भिन्नताओं में छिपी हुई एकता वहाँ कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो उठती है। इस दृष्टि से भाषाओं के संगम आज सबसे बड़े तीर्थ हैं और इन तीर्थों में जो भी भारतवासी श्रद्धा से स्नान करता है, वह भारतीय एकता का सबसे बड़ा सिपाही और संत है।

हमारी भाषाएँ जितनी ही तेजी से जगेंगी, हमारे विभिन्न प्रदेशों का पारस्परिक ज्ञान उतना ही बढ़ता जाएगा। भारतीय कि वे केवल अपनी ही भाषा में प्रसिद्ध होकर न रह जाएँ, बल्कि भारत की अन्य भाषाओं में भी उनके नाम पहुँचे और उनकी कृतियों की चर्चा हो। भाषाओं के जागरण का आरंभ होते ही एक प्रकार का अखिल भारतीय मंच आप-से-आप प्रकट होने लगा है। आज प्रत्येक भाषा के भीतर यह जानने की इच्छा उत्पन्न हो गई है कि भारत की अन्य भाषाओं में क्या हो रहा है, उनमें कौन-कौन ऐसे लेखक हैं, हैं तथा कौन-सी विचारधारा वहाँ प्रभुसत्ता प्राप्त कर रही है।

प्रश्न –

(क) लेखक ने आधुनिक संगम-स्थल किसको माना है और क्यों?
(ख) भाषा-संगमों में भारत की किन विशेषताओं का संगम होता है?
(ग) दो नदियों का मिलन किसका प्रतीक है?
(घ) अलग-अलग प्रदेशों में आपसी ज्ञान किस प्रकार बढ़ सकता है?
(ड) स्वराज-प्राप्ति के उपरांत विभिन्न भाषाओं के लेखकों में क्या जिज्ञासा उत्पन्न हुई?
(च) लेखक ने सबसे बड़ा सिपाही और संत किसको कहा है और क्यों?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. समानार्थी शब्द बताइए – सौरभ, आकांक्षा।
  2. विपरीतार्थक शब्द बताइए – भिन्नता, प्रत्यक्ष।

(ज) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) लेखक ने आधुनिक संगम-स्थल उन सभाओं व मंचों को माना है, जहाँ पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्रितहोती हैं। ये भा षाएँ विभिन्न जनपदों में बसने वाली जानता की भावनाएँ लेकर आती हैं।
(ख) किसी भी भाषा के भीतर उस भाषा को बोलने वाली जनता के आँसू और उमंग, भाव और विचार, आशाएँ और शंकाएँ समाहित होती हैं। फलत: जहाँ भाषाओं का संगम होता है, वहाँ विभिन्न भाषा-भाषी लोगों के भावों और विचारों का संगम होता है।
(ग) नदियाँ अपनी धाराओं के साथ मार्ग में आने वाले जनपदों के हर्ष एवं विषाद की कहानी लेकर बहती हैं। अत: उनका मिलन विभिन्न जनपदों के मिलन का ही प्रतीक है।
(घ) भाषाएँ ही लाखों वर्षों तक ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रखती हैं तथा ज्ञान का प्रचार-प्रसार करती हैं। अत: हम कह सकते हैं कि अलग-अलग प्रदेशों में आपसी ज्ञान तभी बढ़ सकता है, जब भारतीय भाषाएँ जागेंगी।
(ड) स्वराज-प्राप्ति के उपरांत विभिन्न भाषाओं के लेखकों में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि भारत की अन्य भाषाओं में क्या हो रहा है। वे अन्य भाषाओं में भी अपनी प्रसिद्ध चाहने लगे तथा वे अन्य भाषाओं के कवियों एवं उनकी कृतियों के प्रति जिज्ञासु हो उठे।
(च) लेखक ने भाषाओं के संगम में गोता लगाने वाले श्रद्धालुओं को सबसे बड़ा सिपाही और संत कहा है। उसका मानना है कि भाषाओं का संगम, विभिन्न भाषा-भाषियों के भावों और विचारों का संगम होता है। वहाँ विभिन्नता में छिपी एकता मूर्त रूप लेती है और दर्शन करने वाला कोई देशभक्त सिपाही हो सकता है या संत।
(छ)

  1. समानार्थी शब्द-खुशबू, इच्छा।
  2. विपरीतार्थक शब्द-अभिन्नता, परोक्ष।

(ज) शीर्षक-भाषा-संगम : एकता का सूत्र।

10. विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता परमावश्यक है-चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है।

युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे, ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे भोग, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत-से अवगुण और थोड़े गुण-सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए।

नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है, जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है; जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चट-पट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा उसके अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाए। सच्ची आत्मा वही है, जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह आप निकालती है।

प्रश्न –

(क) ‘विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का. कोई अर्थ नहीं।’ इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ख) मर्यादापूर्वक जीने के लिए किन गुणों का होना अनिवार्य है और क्यों?
(ग) नम्रता और दब्बूपन में क्या अंतर है?
(घ) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में किस प्रकार बाधक होता है? स्पष्ट कीजिए।
(ड) आत्ममर्यादा के लिए कौन-सी बातें आवश्यक हैं? इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है?
(च) आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता किनकी-किनकी होती है?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. नम्रता, अनिवार्य का विलोम लिखिए।
  2. ‘अभिमान’ और ‘संकल्प’ में प्रयुक्त उपसर्ग एवं मूल शब्द लिखिए।

(ज) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर –

(क) किसी भी व्यक्ति में स्वतंत्रता का भाव आते ही उसके मन में अहकार आ जाता है। इस अहकार के कारण वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है। इससे व्यक्ति के आचरण में इतना बदलाव आ जाता है कि वह दूसरों को खुद से हीन समझने लगता है। ऐसे में स्वतंत्रता के साथ विनम्रता का होना आवश्यक है, अन्यथा स्वतंत्रता अर्थहीन हो जाएगी।
(ख) मर्यादापूर्वक जीवन जीने के लिए मानसिक स्वतंत्रता आवश्यक है। इस स्वतंत्रता के साथ नम्रता का मेल होना आवश्यक है। इससे व्यक्ति में आत्मनिर्भरता आती है। आत्मनिर्भरता के कारण वह परमुखापेक्षी नहीं रहता। उसे अपने पैरों पर खड़ा होने की कला आ जाती है।
(ग) दब्बूपन में व्यक्ति का संकल्प व बुद्ध क्षीण होती है, वह त्वरित निर्णय नहीं ले सकता। वह अपने छोटे-छोटे कार्यों तथा निर्णय लेने के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। इसके विपरीत, नम्रता में व्यक्ति स्वतंत्र होता है। वह नेतृत्व करने वाला होता है। वह अपने निर्णय खुद लेता है और दूसरे का मुँह देखने के लिए विवश नहीं होता।
(घ) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में बाधक होता है क्योंकि इसके कारण वह दूसरे का मुँह ताकता है। वह निर्णय नहीं ले पाता। वह अपने संकल्प पर स्थिर नहीं रह पाता। उसकी बुद्ध कमजोर हो जाती है। इससे मनुष्य आगे बढ़ने की बजाय पीछे रह जाता है।
(ड) आत्ममर्यादा के लिए अपने बड़ों का सम्मान करना, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करना आवश्यक है। इससे व्यक्ति को यह लाभ होता है कि वह आत्मसंस्कारित होता है, विनम्र और मर्यादित जीवन जीता है तथा उसे अपने पैरों पर खड़े होने में मदद मिलती है।
(च) आत्ममर्यादा के लिए आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता है। इस सारे संसार के लिए, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है, आदि सभी इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं। अर्थात हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हम जो कुछ खाते-पीते हैं, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत-से अवगुण यहाँ तक कि कुछ गुण भी आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता प्रकट करते हैं।
(छ)

  1. शब्द विलोम नम्रत उद्दंडता अनिवार्य ऐच्छिक
  2. शब्द उपसर्ग मूल शब्द अभिमान ওলমি मान संकल्प सम् क्रलप

(ज) शीर्षक-विनम्रता का महत्व।

11. राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा भी एक प्रमुख तत्व है। मानव-समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति हेतु भाषा का साधन अपरिहार्यत: अपनाता है, इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। दिव्य-ईश्वरीय आनंदानुभूति के संबंध में भले ही कबीर ने ‘गूँगे केरी शर्करा’ उक्ति का प्रयोग किया था, पर इससे उनका लक्ष्य शब्द-रूपा भाषा के महत्व को नकारना नहीं था, प्रत्युत उन्होंने भाषा को ‘बहता नीर’ कहकर भाषा की गरिमा प्रतिपादित की थी।

विद्वानों की मान्यता है कि भाषा तत्व राष्ट्रहित के लिए अत्यावश्यक है। जिस प्रकार किसी एक राष्ट्र के भूभाग की भौगोलिक विविधताएँ तथा उसके पर्वत, सागर, सरिताओं आदि की बाधाएँ उस राष्ट्र के निवासियों के परस्पर मिलने-जुलने में अवरोधक सिद्ध हो सकती हैं, उसी प्रकार भाषागत विभिन्नता से भी उनके पारस्परिक संबंधों में निबांधता नहीं रह पाती। आधुनिक विज्ञान युग में यातायात एवं संचार के साधनों की प्रगति से भौगोलिक बाधाएँ अब पहले की तरह बाधित नहीं करतीं। इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक संपर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं।

मानव-समुदाय को एक जीवित जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यक्तित्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त, मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है। मनुष्यों के विविध समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं, विचारधाराएँ हैं, संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है। साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदशों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं एवं विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व संभव है?

वस्तुत: ज्ञानराशि एवं भावराशि का अपार संचित कोश, जिसे साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है। अत: इस संबंध में वैमत्य की किंचित गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है, जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने एवं समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अत: राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) भाषा मानव-समुदाय के लिए आवश्यक क्यों है?
(ग) कबीर ने ‘गूँगे केरी शर्करा’ के माध्यम से क्या कहना चाहा था? उन्होंने भाषा की महत्ता किस तरह प्रतिपादित की थी?
(घ) राष्ट्रहित में भाषागत एकता की महत्ता स्पष्ट कीजिए।
(ड) ‘भाषा मनुष्य के व्यक्तित्व को साकार करती है।’ स्पष्ट कीजिए।
(च) साहित्य संगीत के अस्तित्व को बनाए रखने में भाषा किस प्रकार सहायक है?
(छ) ‘भाषा मनुष्यों में निकटता लाती है।’ इससे आप कितना सहमत हैं?
(ज) भौगोलिक बाधाओं के बावजूद आज भाषिक एकता किस प्रकार स्थापित की जा सकती है?

उत्तर –

(क) शीर्षक-राष्ट्रीयता और भाषा-तत्व।
(ख) भाषा मानव-समुदाय के लिए इसलिए आवश्यक है क्योंकि मनुष्य भाषा के माध्यम से ही अपने भाव-विचार दूसरों तक पहुँचाता है और भाषा के माध्यम से ही वह दूसरों के विचारों से अवगत होता है। इस प्रकार भाषा मानव-समाज में एकता बनाए रखने का सशक्त माध्यम है।
(ग) ‘गूँगे केरी शर्करा’ के माध्यम से कबीर ने कहना चाहा था कि आनंद की अनुभूति के लिए भाषा आवश्यक नहीं है, क्योंकि गूंगा गुड़ का आनंद लेकर भी उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाता। संत कबीर ने भाषा को ‘बहता नीर’ कहकर उसकी महत्ता प्रतिपादित की है।
(घ) राष्ट्रहित के लिए भाषागत एकता परमावश्यक तत्व है। जिस प्रकार किसी राष्ट्र की भौगोलिक विविधताएँ, वहाँ के पर्वत, सागर, सरिताएँ आदि बाधाएँ राष्ट्र के लोगों के परस्पर मिलन में बाधक सिद्ध होती हैं, उसी प्रकार विभिन्न भाषाएँ भी एकता में बाधक सिद्ध होती हैं। अत: राष्ट्र के लिए भाषागत एकता आवश्यक है।
(ड) मानव-समाज को एक जीवित, जाग्रत एवं जीवंत शरीर कहा जा सकता है। उसका अपना एक निश्चित व्यक्तित्व होता है। भाषा इस समाज के अमूर्त, मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है। भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, जो मानव-समाज के व्यक्तित्व को साकार करती है।
(च) साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि वे साधन हैं, जिनके माध्यम से मानव-समुदाय अपने आदशों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं और विशिष्टताओं को मुखर रूप देता है। भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि अस्तित्वविहीन हो जाते हैं। इस प्रकार साहित्य संगीत के अस्तित्व को बनाए रखने में सहायक है।
(छ) भाषा वह साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ जाते हैं। उनमें परस्पर घनिष्ठता बढ़ती है। वे परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में एकता विद्यमान रहती है। इस प्रकार भाषा मनुष्यों में एकता बढ़ाती है। इससे मैं पूर्णतया सहमत हूँ।
(ज) पर्वत, सागर, नदी तथा अन्य भौगोलिक बाधाओं के बावजूद इस विज्ञान युग में यातायात और संचार के साधनों की उन्नति के कारण भौगोलिक बाधाएँ छोटी पड़ गई हैं, जिससे भाषिक एकता आसानी से स्थापित की जा सकती है।

12. शिक्षा के क्षेत्र में पुनर्विचार की आवश्यकता इतनी गहन है कि अब तक बजट, कक्षा-आकार, शिक्षक-वेतन और पाठ्यक्रम आदि के परंपरागत मतभेद आदि प्रश्नों से इतनी दूर निकल गई है कि इसको यहाँ पर विवेचित नहीं किया जा सकता। द्रवितीय तरंग दूरदर्शन तंत्र की तरह (अथवा उदाहरण के लिए धूम्र भंडार उद्योग) हमारी जनशिक्षा-प्रणालियाँ बड़े पैमाने पर प्राय: लुप्त हैं।

बिलकुल मीडिया की तरह शिक्षा में भी कार्यक्रम विविधता के व्यापक विस्तार और नए मार्गों की बहुतायत की आवश्यकता है। केवल आर्थिक रूप से उत्पादक भूमिकाओं के लिए ही निम्न विकल्प पद्धति की जगह उच्च विकल्प पद्धति को अपनाना होगा, यदि नई थर्ड वेव सोसायटी में शिष्ट जीवन के लिए विद्यालयों में लोग तैयार किए जाते हैं।

शिक्षा और नई संचार-प्रणाली के छह सिद्धांतों-पारस्परिक क्रियाशीलता, गतिशीलता, परिवर्तनीयता, संयोजकता, सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकरण-के बीच बहुत ही कम संबंध खोजे गए हैं। अब भी भविष्य की शिक्षा-पद्धति औपिक संवार प्रल के बचसंधक उपेवा करना उना शिवार्थियों को धख देता है,जिक निमाणदनों से होना है। सार्थक रूप से शिक्षा की प्राथमिकता अब मात्र माता-पिता, शिक्षकों एवं मुट्ठी भर शिक्षा-सुधारकों के लिए ही नहीं है, बल्कि व्यापार के उस आधुनिक क्षेत्र के लिए भी प्राथमिकता में है, जब से वहाँ सार्वभौम प्रतियोगिता और शिक्षा के बीच संबंध को स्वीकारने वाले नेताओं की संख्या बढ़ रही है। दूसरी प्राथमिकता कप्यूटर वृद्ध, सूचना तकनीक और विकसित मीडिया के त्वरित सार्वभौमिकरण की है।

कोई भी राष्ट्र 21वीं सदी के इलेक्ट्रॉनिक आधारिक संरचना, एंब्रेसिंग कप्यूटर्स, डाटा संचार और अन्य नवीन मीडिया के बिना 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था का संचालन नहीं कर सकता। इसके लिए ऐसी जनसंख्या की आवश्यकता है, जो इस सूचनात्मक आधारिक संरचना से परिचित हो, ठीक उसी प्रकार जैसे कि समय के परिवहन तंत्र और कारों, सड़कों, राजमार्गों, रेलों से सुपरिचित है। वस्तुत: सभी को टेलीकॉम इंजीनियर अथवा कप्यूटर विशेषज्ञ बनने की जरूरत नहीं है, जैसा कि सभी को कार मैकेनिक होने की आवश्यकता नहीं है, परंतु संचार-प्रणाली का ज्ञान कंप्यूटर, फ़ैक्स और विकसित दूरसंचार को सम्मिलित करते हुए, उसी प्रकार आसान और मुफ़्त होना चाहिए, जैसा कि आज परिवहन-प्रणाली के साथ है।

अत: विकसित अर्थव्यवस्था चाहने वाले लोगों का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए कि सर्वव्यापकता के नियम की क्रियाशीलता को बढ़ाया जाए–वह है, यह निश्चित करना कि गरीब अथवा अमीर सभी नागरिकों को मीडिया की व्यापक संभावित पहुँच से अवश्य परिचित कराया जाए। अंतत: यदि नई अर्थव्यवस्था का मूल ज्ञान है, तब सतही बातों की अपेक्षा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘का लोकतांत्रिक आदर्श सर्वोपरि राजनीतिक प्राथमिकता बन जाता है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) लेखक पुनर्विचार की आवश्यकता कहाँ महसूस कर रहा है और क्यों?
(ग) शिक्षा के क्षेत्र में मीडिया का उदाहरण क्यों दिया गया है?
(घ) शिक्षा और नई संचार-प्रणाली के सिद्धांत लिखिए और बताइए कि इसे धोखा क्यों कहा गया है?
(ड) शिक्षा की प्राथमिकता के क्षेत्र में आए बदलावों का उल्लेख कीजिए।
(च) 21वीं शताब्दी में किस तरह की जनसंख्या की जरूरत होगी और क्यों?
(छ) विकसित अर्थव्यवस्था चाहने वालो का लक्ष्य क्या होना चाहिए?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. ‘विकल्प’, ‘शिक्षा’ में ‘इक’ प्रत्यय लगाकर शब्द बनाइए।
  2. (ii) विलोम बताइए-लोकतंत्र, व्यापक।

उत्तर –

(क) शीर्षक-शिक्षा पर पुनर्विचार की आवश्यकता।
(ख) लेखक शिक्षा के क्षेत्र में पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस कर रहा है, क्योंकि वर्तमान में शिक्षा बजट, कक्षा आकार, शिक्षक-वेतन और पाठ्यक्रम आदि के परंपरागत मतभेद आदि के प्रश्नों से पर्याप्त आगे निकल चुकी है। समय के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने के लिए शिक्षा में भी पुनर्विचार की आवश्यकता है।
(ग) वर्तमान में मीडिया का स्तर और पर्याप्त ऊँचा तथा विस्तार व्यापक हुआ है। मीडिया की तरह ही शिक्षा का स्तर ऊँचा करने, उसका विस्तार करने और जन-जन तक पहुँचाने के लिए नए-नए मार्गों और साधनों की आवश्यकता है, इसलिए शिक्षा में मीडिया का उदाहरण दिया गया है।
(घ) शिक्षा और नई संचार-प्रणाली के छह सिद्धांत हैं-पारस्परिक क्रियाशीलता, गतिशीलता, परिवर्तनीयता, संयोजकता, सार्वभौमिकता और सर्वव्यापकता। इनके बीच संबंधों की बहुत कम खोज हुई है। इसे धोखा इसलिए कहा गया है, क्योंकि भविष्य की शिक्षा-पद्धति और भविष्य की संचार-प्रणाली के बीच संबंधों को महत्व नहीं दिया गया।
(ड) अब तक शिक्षा की प्राथमिकता माता-पिता, शिक्षक एवं मुट्ठी पर शिक्षा सुधारकों के लिए ही थी, पर जब से व्यापार में सार्वभौम प्रतियोगिता और शिक्षा के बीच संबंध स्वीकारने वाले नेताओं की संख्या बढ़ी है, तब से व्यापार का क्षेत्र भी शिक्षा की प्राथमिकता में आ गया है।
(च) 21वीं सदी में सूचनात्मक आधारिक संरचना से परिचित जनसंख्या की आवश्यकता होगी, क्योंकि एंब्रेसिंग कंप्यूटर्स, डाटा संचार और नवीन मीडिया के बिना 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था का संचालन नहीं किया जा सकता।
(छ) विकसित अर्थव्यवस्था चाहने वालो का निम्नलिखित लक्ष्य होना चाहिए

  1. संचार-प्रणाली, कंप्यूटर, फ़ैक्स, विकसित दूरसंचार आसान और सर्वसुलभ हों।
  2. अमीर-गरीब सभी नागरिकों को मीडिया की पहुँच से परिचित कराएँ।

(ज)

  1. विकल्प + इक = वैकल्पिक, शिक्षा + इक = शैक्षिक।
  2. शब्द            विलोम
    लोकतंत्र       राजतत्र
    व्यापक        अव्यापक

13. तुलसी जैसा कवि काव्य की विशुद्ध, मनोमयी, कल्पना-प्रवण तथा श्रृंगारात्मक भावभूमियों के प्रति उत्साही नहीं हो सकता। उनका संत-हृदय परम कारुणिक राम के प्रति ही उन्मुख हो सकता है, जो जीवन के धर्ममय सौंदर्य, मर्यादापूर्ण शील और आत्मिक शौर्य के प्रतीक हैं।

विजय-रथ के रूपक में उन्होंने संत जीवन की रूपरेखा उभारी है और अपनी रामकथा को इसी संतत्व की चरितार्थता बना दिया है। उनका काव्य भारतीय जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा मर्यादित जीवन-चर्या अथवा ‘संत-रहनि’ को वाणी देता है। धर्ममय जीवन की आकांक्षा भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य है। तुलसी के काव्य में धर्म का अनाविल, अनावरित और अक्षुण्ण रूप ही प्रकट हुआ है।

मध्ययुग की आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए भी उनका काव्य भारतीय आत्मा के चिरंतन सौंदर्य का प्रतिनिधि है, जो सत्य, तप, करुणा और मैत्री में ही आरोहण के देवधर्मी मूल्यों को अनावृत करता है। उनके काव्य में हमें श्रेष्ठ कवित्व ही नहीं मिलता, उसके आधार पर हम संत-कवित्व की रूपरेखा भी निर्धारित कर सकते हैं। भक्ति उनके संतत्व की आंतरिक भाव-साधना है। इस भाव-साधना की वाणी की अप्रतिम क्षमता देकर उन्होंने निष्कंप दीपशिखा की भाँति अपनी काव्य-कला को नि:संग और निवैयक्तिक दीप्ति से भरा है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) कवि तुलसी में किसके प्रति उत्साह नहीं है? तुलसी के काव्य की विशेषता का उल्लेख कीजिए
(ग) गद्यांश में तुलसी के राम की क्या विशेषताएँ बताई गई हैं?
(घ) ‘संत-रहनि’ का आशय स्पष्ट करते हुए भारतीय जीवन में इसकी महत्ता स्पष्ट कीजिए।
(ड) तुलसी के काव्य में देवधर्मी मूल्य किस प्रकार अनावृत हुए हैं?
(च) तुलसी की भक्ति-साधना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
(छ) तुलसी के काव्य में धर्म किस रूप में प्रकट हुआ है? स्पष्ट कीजिए।
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. पर्यायवाची बताइए-संत, वाणी।
  2. मूल शब्द और प्रत्यय अलग-अलग करके लिखिए-कारुणिक, मर्यादित।

उत्तर –

(क) शीर्षक-संत कवि तुलसीदास।
(ख) तुलसी के काव्य में विशुद्ध मन की उपज, काल्पनिकता की अधिकता तथा श्रृंगारिक भावभूमियों के प्रति अत्यधिक लगाव नहीं है। उनके काव्य में राम के प्रति उन्मुखता है। तुलसी के संत हृदय का असर उनके काव्य पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
(ग) गद्यांश में तुलसी के राम को आदर्श पुरुष बताते हुए उन्हें ‘धर्ममय सौंदर्ययुक्त’ कहा गया है। उनका शील मर्यादापूर्ण है। तथा उनमें वीरता एवं करुणा कूट-कूटकर भरी है।
(घ) ‘संत-रहनि’ का आशय है-संतों जैसी जीवन-शैली या संतों जैसा जीवन जीना। भारतीय जीवन में संतों जैसी मर्यादित जीवन-चर्या की आकांक्षा की गई है। ऐसी जीवन-चर्या भारतीय संस्कृति की विशेषता एवं धर्ममय रही है।
(ड) तुलसी के काव्य में आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व है, जिसमें भारतीय काव्य-आत्मा के चिरंतन सौंदर्य के दर्शन होते हैं। इसमें निहित सत्य, तप, करुणा और मित्रता के आरोहण में देवधर्मी मूल्यों का आरोहण किया गया है।
(च) तुलसी के काव्य में उनके संतत्व और भक्ति-साधना का मणिकांचन योग है। इसी भक्ति-साधना की वाणी को अद्वतीय क्षमता से युक्त करके तुलसी ने उसे उस दीपशिखा के समान प्रज्वलित कर दिया है, जिसकी लौ युगों-युगों तक प्रकाश रहेगी।
(छ) तुलसी के काव्य में धर्म अपने पंकरहित, निष्कलंकित, खुले रूप में, अक्षुण्ण या अपने संपूर्ण रूप में प्रकट हुआ है। काव्य में धर्म का जो रूप है, उसके मूल में लोक-कल्याण की भावना भी समाहित किए हुए है।
(ज)

  1. शब्द पर्यायवाची
    संत साधु, अवधूत
    वाणी वचन, वाक्शक्ति
  2. शब्द मूल शब्द प्रत्यय
    कारुणिक करुणा इक
    मर्यादित मर्यादा इत

14. आज हम इस असमंजस में पड़े हैं और यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि हम किस ओर चलेंगे और हमारा ध्येय क्या है? स्वभावत: ऐसी अवस्था में हमारे पैर लड़खड़ाते हैं। हमारे विचार में भारत के लिए और सारे संसार के लिए सुख और शांति का एक ही रास्ता है और वह है-अहिंसा और आत्मवाद का। अपनी दुर्बलता के कारण हम उसे ग्रहण न कर सके, पर उसके सिद्धांतों को तो हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। यदि हम सिद्धांत ही न मानेंगे तो उसके प्रवर्तन की आशा कैसे की जा सकती है। जहाँ तक मैंने महात्मा गांधी के सिद्धांत को समझा है, वह इसी आत्मवाद और अहिंसा के, जिसे वे सत्य भी कहा करते थे, मानने वाले और प्रवर्तक थे। उसे ही कुछ लोग आज गांधीवाद का नाम भी दे रहे हैं।

यद्यपि महात्मा गांधी ने बार-बार यह कहा था-“वे किसी नए सिद्धांत या वाद के प्रवर्तक नहीं हैं और उन्होंने अपने जीवन में प्राचीन सिद्धांतों को अमल कर दिखाने का यत्न किया।” विचार कर देखा जाए, तो जितने सिद्धांत अन्य देशों, अन्य-अन्य कालों और स्थितियों में भिन्न-भिन्न नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं,सभी अंतिम और मार्मिक अन्वेषण के बाद इसी तत्व अथवा सिद्धांत में समाविष्ट पाए जाते हैं। केवल भौतिकवाद इनसे अलग है।

हमें असमंजस की स्थिति से बाहर निकलकर निश्चय कर लेना है कि हम अहिंसावाद, आत्मवाद और गांधीवाद के अनुयायी और समर्थक हैं, न कि भौतिकवाद के। प्रेय और श्रेय में से हमें श्रेय को चुनना है। श्रेय ही हितकर है, भले ही वह कठिन और श्रमसाध्य हो। इसके विपरीत, प्रेय आरंभ में भले ही आकर्षक दिखाई दे, उसका अंतिम परिणाम अहितकर होता है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) आज का मनुष्य असमंजस में क्यों पड़ा है?
(ग) लेखक के अनुसार, विश्व में सुख-समृद्ध और शांति कैसे स्थापित हो सकती है?
(घ) अहिंसा के बारे में लेखक का विचार स्पष्ट कीजिए।
(ड) आज गांधीवाद की संज्ञा किसे दी जा रही है?
(च) भौतिकवाद को छोड़कर अन्य सिद्धांतों और धर्मों में समानता है, कैसे? स्पष्ट कीजिए।
(छ) भौतिकवाद से क्या अभिप्राय है? मनुष्य को किसका समर्थक बनना चाहिए?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. उपसर्ग, मूल शब्द और प्रत्यय पृथक कीजिए-दुर्बलता।
  2. विशेषण बनाइए-सिद्धांत, निश्चय।

उत्तर –

(क) शीर्षक-श्रेय या प्रेय।
(ख) आज का मनुष्य असमंजस में इसलिए पड़ा हुआ है, क्योंकि वह दिग्भ्रमित है और यह निश्चय नहीं कर पा रहा है कि उसका जीवन-लक्ष्य क्या है और वह किस ओर चले। ऐसी स्थिति में मनुष्य के कदम उसका साथ नहीं दे पाते और वह कोई फैसला नहीं कर पाता।
(ग) लेखक के अनुसार विश्व में सुख-शांति और समृद्ध के लिए आवश्यक है कि लोग हिंसा का रास्ता त्याग दें और मन-वचन तथा कर्म से अहिंसा का पालन करें और आत्मवाद का मार्ग अपनाकर औरों की सुख-शांति के लिए सोचें।
(घ) अहिंसा के बारे में लेखक का विचार है कि अपनी कमजोरी के कारण हम भारतीय अहिंसा को न अपना सके, पर हमें अहिंसा के सिद्धांतों को स्वीकार कर लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम उसके सिद्धांत को मानें।
(ड) गांधी जी आत्मवाद और अहिंसा का पालन करते थे। इसी अहिंसा और आत्मवाद को वे मानते थे और उसका प्रवर्तन किया तथा इसे ही सत्य का नाम देते थे। उसी को आज गांधीवाद की संज्ञा दी जा रही है।
(च) भौतिकवाद को छोड़कर अन्य सिद्धांतों और धर्मों में समानता है, क्योंकि वे दूसरे देशों में अलग-अलग समय और परिस्थितियों में भले ही अलग-अलग नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं, उन सभी में अंतिम और मार्मिक खोज के बाद सत्य और अहिंसा समाविष्ट पाए गए हैं।
(छ) भौतिकवाद से अभिप्राय उस सिद्धांत से है, जिसमें सांसारिक सुख-साधनों की प्रधानता रहती है। इन्हीं सुख-साधनों का अधिकाधिक प्रयोग ही जीवन का लक्ष्य मान लिया जाता है। मनुष्य को अहिंसावाद, आत्मवाद और सत्य का समर्थक बनना चाहिए, भौतिकवाद का बिलकुल भी नहीं।
(ज)

  1. शब्द उपसर्ग मूल शब्द प्रत्यय
    दुर्बलता दुर् बल ता
  2. शब्द विशेषण
    सिद्धांत सैद्धांतिक
    निश्चय निश्चित

15. संस्कृति ऐसी चीज नहीं, जिसकी रचना दस-बीस या सौ–पचास वर्षों में की जा सकती हो। हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें हमारी संस्कृति की झलक होती है; यहाँ तक कि हमारे उठने- ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने से भी हमारी संस्कृति की पहचान होती है, यद्यपि हमारा कोई भी एक काम हमारी संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता।

असल में, संस्कृति जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से हम जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं। इस लिए, जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जिस समाज से मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी संस्कृति है; यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा कर रहे हैं, वे भी हमारी संस्कृति के अंग बन जाते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं।

इसलिए संस्कृति वह चीज मानी जाती है, जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मातर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जाब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते है, तब अचानक कह देते हैं कि वह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है; और जबकि सभ्यता की मामांग्रेयों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संस्कृति के बारे में लेखक क्या बताता है?
(ग) स्पष्ट कीजिए कि संस्कृति जीने का एक तरीका है।
(घ) संस्कृति एवं सभ्यता में अंतर स्पष्ट कीजिए।
(ड) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है। इसे बताने के लिए लेखक ने क्या उदाहरण दिया है?
(च) संस्कृति की रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है-स्पष्ट कीजिए।
(छ) संस्कृति जीने का तरीका क्यों है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. संस्कृति जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है।-मिश्र वाक्य बनाइए।
  2. विलोम बताइए—छाया, जीवन।

उत्तर –

(क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।
(ख) संस्कृति के बारे में लेखक बताता है कि इसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास साल में नहीं की जा सकती। इसके बनने में सदियाँ लग जाती हैं। इसके अलावा हमारे दैनिक कार्य-व्यवहार में हमारी संस्कृति की झलक मिलती है।
(ग) मनुष्य के अत्यंत साधारण से काम, जैसे-उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने के तरीके में भी उसकी संस्कृति की झलक मिलती है। यद्यपि किसी एक काम को संस्कृति का पर्याय नहीं कहा जा सकता, फिर भी हमारे कामों से संस्कृति की पहचान होती है, अत: संस्कृति जीने का एक तरीका है।
(घ) संस्कृति और सभ्यता का मूल अंतर यह होता है कि संस्कृति हमारे सारे जीवन में समाई हुई है। इसका प्रभाव जन्म-जन्मांतर तक देखा जा सकता है। इसका संबंध परलोक से है, जबकि सभ्यता का संबंध इसी लोक से है। इसका अनुमान व्यक्ति के जीवन-स्तर को देखकर लगाया जाता है।
(ड) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है, इसे बताने के लिए लेखक ने यह उदाहरण दिया है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म भी उसके संस्कारों के अनुरूप ही होता है। जब हम किसी बालक-बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तो कह बैठते हैं कि ये तो इसके पूर्वजन्म के संस्कार हैं।
(च) व्यक्ति अपने जीवन में जो संस्कार जमा करता है, वे संस्कृति के अंग बन जाते हैं। मरणोपरांत व्यक्ति अन्य वस्तुओं के अलावा इस संस्कृति को भी छोड़ जाता है, जो आगामी पीढ़ी के सारे जीवन में व्याप्त रहती है। इस तरह उसकी रचना और विकास में सदियों के अनुभवों का हाथ होता है।
(छ) व्यक्ति के उठने-बैठने, जीने के ढंग उस समाज में छाए रहते हैं, जिसमें वह जन्म लेता है। व्यक्ति अपने समाज की संस्कृति को अपनाकर जीता है, इसलिए संस्कृति जीने का तरीका है।
(ज)

  1. संस्कृति जीने का वह तरीका है, जो सदियों से जमा होकर समाज में छाया रहता है।
  2. शब्द विलोम
    छाया धूप
    जीवन मरण

16. विज्ञापन कला जिस तेजी से उन्नति कर रही है, उससे मुझे भविष्य के लिए और भी अंदेशा है। लगता है ऐसा युग आने वाला है, जब शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और साहित्य आदि का केवल विज्ञापन कला के लिए ही उपयोग रह जाएगा। वैसे तो आज भी इस कला के लिए इनका खासा उपयोग होता है। बहुत-सी शिक्षण संस्थाएँ हैं, जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन हैं।

अपनी पीढ़ी के कई लेखकों की कृतियाँ लाला छगनलाल, मगनलाल या इस तरह के नाम के किसी और लाल की स्मारक निधि से प्रकाशित होकर लाला जी की दिवंगत आत्मा के प्रति स्मारक होने का फ़ज़ अदा कर रही हैं, मगर आने वाले युग में यह कला दो कदम आगे बढ़ जाएगी। विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय के दीक्षांत महोत्सव पर जो डिग्रियाँ दी जाएँगी, उनके निचले कोने में छपा रहेगा-“आपकी शिक्षा के उपयोग का एक ही मार्ग है, आज ही आयात-निर्यात का धंधा प्रारंभ कीजिए। मुफ्त सूचीपत्र के लिए लिखिए।”

हर नए आविष्कारक का चेहरा मुस्कराता हुआ टेलीविजन पर जाकर कुछ इस तरह निवेदन करेगा-“मुझे यह कहते हुए हार्दिक प्रसन्नता है कि मेरे प्रयत्न की सफलता का सारा श्रेय रबड़ के टायर बनाने वाली कंपनी को है, क्योंकि उन्हीं के प्रोत्साहन और प्रेरणा से मैंने इस दिशा में कदम बढ़ाया था ’” विष्णु के मंदिर खड़े होंगे, जिनमें संगमरमर की सुंदर प्रतिमा के नीचे पट्टी लगी होगी-“याद रखिए, इस मूर्ति और इस भवन के निर्माण का श्रेय लाल हाथी के निशान वाले निर्माताओं को है।

वास्तुकला संबंधी अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए लाल हाथी का निशान कभी मत भूलिए।” और ऐसे-ऐसे उपन्यास हाथ में आया करेंगे, जिनकी सुंदर चमड़े की जिल्द पर एक ओर बारीक अक्षरों में लिखा होगा-‘साहित्य में अभिरुचि रखने वालों को इक्का माक साबुन वालों की एक और तुच्छ भेंट।” और बात बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच जाएगी कि जब एक दूल्हा बड़े अरमान से दुल्हन ब्याहकर घर आएगा और घूंघट हटाकर उसके रूप की प्रसन्नता में पहला वाक्य कहेगा तो दुल्हन मधुर भाव से आँख उठाकर हृदय का सारा दुलार शब्दों में उड़ेलती हुई कहेगी-“रोज सुबह उठकर नौ सौ इक्यावन नंबर के साबुन से नहाती हूँ।”

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) भविष्य के लिए लेखक को किस बात की आशंका हो रही है और क्यों?
(ग) आज शिक्षण संस्थाओं की क्या स्थिति है?
(घ) विज्ञापन ने अपनी पहुँच मंदिरों और भगवान के चरणों तक बना ली है। कैसे?
(ड) इस गद्यांश के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
(च) कुछ लेखकों की कृतियाँ किसी व्यक्ति-विशेष की स्मारक बन जाती हैं, कैसे?
(छ) आने वाले समय में विश्वविद्यालय की डिग्रियों की स्थिति क्या होगी? और क्यों?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. “बहुत-सी शिक्षण संस्थाएँ हैं, जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन हैं”-उपवाक्य और उसका भेद लिखिए।
  2. संधि-विच्छेद कीजिए-दीक्षांत, महोत्सव।

उत्तर –

(क) शीर्षक-विज्ञापन युग।
(ख) लेखक को भविष्य के लिए इस बात की आशंका बढ़ती जा रही है कि ऐसा समय आने वाला है, जब शिक्षा विज्ञान, संस्कृति और साहित्य का प्रयोग केवल विज्ञापन कला भर के लिए ही रह जाएगा। उसका कारण यह है कि विज्ञापन कला निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर है।
(ग) आज शिक्षण संस्थाएँ सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन बन चुकी हैं। उनके नाम को पढ़ते ही किसी धर्म, संप्रदायविशेष से उनका जुड़ाव प्रकट होने लगता है। ऐसा लगता है कि उनकी स्थापना उसी संप्रदाय-विशेष के हित के लिए की गई है। कुछ संस्थाओं के संचालन का जिम्मा कुछ ट्रस्टों की कृपा पर आश्रित होकर रह गया है।
(घ) विज्ञापन का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ चुका है कि देवालय जैसे स्थान भी इसकी पहुँच से दूर नहीं रहे हैं। आज मंदिरों और देवालयों में भी तरह-तरह के विज्ञापन सरलता से देखे जा सकते हैं। दीवारों और मंदिर की मूर्तियों पर उनके दानदाता का नाम कुछ विज्ञापित करता दिखाई देता है।
(ड) इस गद्यांश के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि वर्तमान में विज्ञापन का बोलबाला है। इसने मानवजीवन को कदम-कदम पर प्रभावित किया है। शिक्षालय, देवालय, विद्यार्थियों की डिग्रियाँ भी किसी-न-किसी व्यक्ति या वस्तु का विज्ञापन करती नजर आती हैं। भविष्य में इसके बढ़ते रहने की प्रबल संभावना है।
(च) जब कुछ लेखकों की कृतियाँ धनाभाव में प्रकाशित नहीं हो पाती हैं, तब किसी लाला छगनलाल, मगनलाल की सहायता राशि से प्रकाशित होती हैं, परंतु उस पर सहायक व्यक्ति या संस्था का नाम लिखा जाता है। इस प्रकार वह कृति उस व्यक्ति-विशेष की स्मारक बन जाती है।
(छ) आगामी समय में विश्वविद्यालय की डिग्रियाँ व्यक्ति की योग्यता का प्रमाण-पत्र कम, विज्ञापन का साधन अधिक होंगी, क्योंकि उन पर शिक्षार्थी की योग्यता के उल्लेख के साथ-साथ विज्ञापन संबंधी वाक्य भी होंगे, जो आयात-निर्यात के धंधे और सूची-पत्र पाने की जगह के बारे में बताएँगे।
(ज)

  1. उपवाक्य-जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन हैं। भेद-विशेषण उपवाक्य।
  2. शब्द संधि-विच्छेद
    दीक्षांत दीक्षा + अंत
    महोत्सव महा + उत्सव

17. साहित्य की शाश्वतता का प्रश्न एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्या साहित्य शाश्वत होता है? यदि हाँ, तो किस मायने में? क्या कोई साहित्य अपने रचनाकाल के सौ वर्ष बीत जाने पर भी उतना ही प्रासंगिक रहता है, जितना वह अपनी रचना के समय था? अपने समय या युग का निर्माता साहित्यकार क्या सौ वर्ष बाद की परिस्थितियों का भी युग-निर्माता हो सकता है। समय बदलता रहता है, परिस्थितियाँ और भावबोध बदलते हैं, साहित्य बदलता है और इसी के समानांतर पाठक की मानसिकता और अभिरुचि भी बदलती है।

अत: कोई भी कविता अपने सामयिक परिवेश के बदल जाने पर ठीक वही उत्तेजना पैदा नहीं कर सकती, जो उसने अपने रचनाकाल के दौरान की होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि एक विशेष प्रकार के साहित्य के श्रेष्ठ अस्तित्व मात्र से वह साहित्य हर युग के लिए उतना ही विशेष आकर्षण रखे, यह आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि वर्तमान युग में इंगला-पिंगला, सुषुम्ना, अनहद, नाद आदि पारिभाषिक शब्दावली मन में विशेष भावोत्तेजन नहीं करती।

साहित्य की श्रेष्ठता मात्र ही उसके नित्य आकर्षण का आधार नहीं है। उसकी श्रेष्ठता का युगयुगीन आधार हैं, वे जीवन-मूल्य तथा उनकी अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्तियाँ जो मनुष्य की स्वतंत्रता तथा उच्चतर मानव-विकास के लिए पथ-प्रदर्शक का काम करती हैं। पुराने साहित्य का केवल वही श्री-सौंदर्य हमारे लिए ग्राह्य होगा, जो नवीन जीवन-मूल्यों के विकास में सक्रिय सहयोग दे अथवा स्थिति-रक्षा में सहायक हो। कुछ लोग साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता को अस्वीकार करते हैं।

वे मानते हैं कि साहित्यकार निरपेक्ष होता है और उस पर कोई भी दबाव आरोपित नहीं होना चाहिए। किंतु वे भूल जाते हैं कि साहित्य के निर्माण की मूल प्रेरणा मानव-जीवन में ही विद्यमान रहती है। जीवन के लिए ही उसकी सृष्टि होती है। तुलसीदास जब स्वांत:सुखाय काव्य-रचना करते हैं, तब अभिप्राय यह नहीं रहता कि मानव-समाज के लिए इस रचना का कोई उपयोग नहीं है, बल्कि उनके अंत:करण में संपूर्ण संसार की सुख-भावना एवं हित-कामना सन्निहित रहती है। जो साहित्यकार अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को व्यापक लोक-जीवन में सन्निविष्ट कर देता है, उसी के हाथों स्थायी एवं प्रेरणाप्रद साहित्य का सृजन हो सकता है।

प्रश्न –

(क) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) पुराने साहित्य के प्रति अरुचि का क्या कारण है?
(ग) जीवन के विकास में पुराने साहित्य का कौन-सा अंश स्वीकार्य है और कौन-सा नहीं?
(घ) साहित्य की शाश्वतता का आशय स्पष्ट करते हुए बताइए कि यह शाश्वत होता है या नहीं।
(ड) सामयिक परिवेश बदलने का कविता पर क्या प्रभाव पड़ता है और क्यों?
(च) साहित्य की श्रेष्ठता के आधार क्या हैं?
(छ) कुछ लोग साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता अस्वीकारने की भूल किस तरह करते हैं? यह किस तरह अनुचित है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए

  1. ‘भावोत्तेजना’, ‘समानांतर’ शब्दों का संधि-विच्छेद कीजिए।
  2. ‘जीवन-मूल्य’, ‘साहित्यकार’ शब्दों का विग्रह करके समास का नाम बताइए।

उत्तर –

(क) शीर्षक-साहित्य की प्रासंगिकता।
(ख) वर्तमान युग में पुराने साहित्य के प्रति अरुचि हो गई है, क्योंकि पाठक की अभिरुचि बदल गई है और वर्तमान युग में पुराने साहित्य को वह अपने लिए प्रासंगिक नहीं पाता। इसके अलावा देशकाल और परिस्थिति के अनुसार साहित्य की प्रासंगिकता बदलती रहती है।
(ग) जीवन के विकास में पुराने साहित्य का केवल वही अंश स्वीकार्य है, जो नवीन जीवन-मूल्यों के विकास में सक्रिय सहयोग दे। पुराने साहित्य का वह अंश अस्वीकार कर दिया जाता है, जो अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता खो चुका है तथा जीवन-मूल्यों से असंबद्ध हो चुका होता है।
(घ) साहित्य की शाश्वतता का तात्पर्य है-हर काल एवं परिस्थिति में अपनी उपयोगिता बनाए रखना एवं प्रासंगिकता को कम न होने देना। साहित्य को शाश्वत इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो बैठता है। इसके अलावा रचनाकार अपने काल की परिस्थितियों के अनुरूप ही साहित्य-सृजन करता है।
(ड) सामयिक परिवेश के बदलाव का कविता पर बहुत प्रभाव पड़ता है। परिवेश बदलने से कविता पाठक के मन में वह उत्तेजना नहीं उत्पन्न कर पाती, जो वह अपने रचनाकाल के समय करती थी। इसका कारण है-समय, परिस्थितियाँ और भावबोध बदलने के अलावा पाठकों की अभिरुचि और मानसिकता में भी बदलाव आ जाना।
(च) साहित्य की श्रेष्ठता के आधार हैं वे जीवन-मूल्य तथा उनकी अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्तियाँ, जो मनुष्य की स्वतंत्रता तथा उच्चतर मानव-विकास के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करती हैं।
(छ) कुछ लोग साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता अस्वीकारने की भूल यह मानकर करते हैं कि साहित्य निरपेक्ष होता है तथा उस पर दबाव नहीं होना चाहिए। चूँकि साहित्य मानव-जीवन के सापेक्ष होता है और जीवन के लिए ही उसकी सृष्टि की जाती है, अत: कुछ लोगों द्वारा साहित्य को निरपेक्ष मानना अनुचित है।
(ज)

  1. शब्द संधि-विच्छेद
    भावोत्तेजना भाव + उत्तेजना
    समानांतर समान + अंतर
  2. शब्द विग्रह समास का नाम
    जीवन-मूल्य जीवन के मूल्य संबंध तत्पुरुष
    साहित्यकार साहित्य को रचना करने वाला कर्मधारय समास

18. भारतीय मनीषा ने कला, धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में नाना भाव से महत्वपूर्ण फल पाए हैं और भविष्य में भी महत्वपूर्ण फल पाने की योग्यता का परिचय वह दे चुकी है। परंतु भिन्न कारणों से समूची जनता एक ही धरातल पर नहीं है और सबकी चिंतन-दृष्टि भी एक नहीं है। जल्दी ही कोई फल पा लेने की आशा में अटकलपच्चू सिद्धांत कायम कर लेना और उसके आधार पर कार्यक्रम बनाना अभीष्ट सिद्ध में सब समय सहायक नहीं होगा।

विकास की अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़ी जनता के लिए नाना प्रकार के कार्यक्रम आवश्यक होंगे। उद्देश्य की एकता ही विविध कार्यक्रमों में एकता ला सकती है, परंतु इतना निश्चित है कि जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब कोई भी कार्य, कितनी ही व्यापक शुभेच्छा के साथ क्यों न आरंभ किया जाए, वह फलदायक नहीं होगा।

बहुत-से हिंदू- एकता को या हिंदू-संगठन को ही लक्ष्य मानकर उपाय सोचने लगते हैं। वस्तुत: हिंदू-मुस्लिम एकता साधन है, साध्य नहीं। साध्य है, मनुष्य को पशु समान स्वार्थी धरातल से ऊपर उठाकर ‘मनुष्यता’ के आसन पर ।

हिंदू और मुस्लिम अगर मिलकर संसार में लूट-खसोट मचाने के लिए साम्राज्य स्थापित करने निकल पड़े, तो हिंदू-मुस्लिम मिलन से मनुष्यता काँप उठेगी। परंतु हिंदू-मुस्लिम मिलन का उद्देश्य है-मनुष्य को दासता, जड़ता, , कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना; मनुष्य को क्षुद्र स्वार्थ और अहमिका की दुनिया से ऊपर उठाकर सत्य, और दुनिया में ले जाना; मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को हटाकर परस्पर सहयोगिता के पवित्र धन में बाँधना। मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है। वही मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य है।

आर्य, नाग, आभीर आदि जातियों के सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद हिंदू दृष्टिकोण बना है। नए सिरे से भारतीय दृष्टिकोण बनाने के लिए इतने ही लंबे अरसे की जरूरत नहीं है। आज हम इतिहास को अधिक यथार्थ ढंग से समझ सकते हैं और तदनुकूल अपने विकास की योजना बना सकते हैं। धैर्य हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इतिहास-विधाता समझकर ही हम अपनी योजना बनाएँ, तो सफलता की आशा कर सकते हैं।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) गद्यांश के आधार पर भारतीय मनीषा की विशेषताएँ लिखिए।
(ग) जनता के विकास के लिए किस तरह के कार्यक्रम की आवश्यकता होती है? और क्यों?
(घ) ‘हिंदू-मुस्लिम एकता भी साधन है, साध्य नहीं’ का क्या अर्थ है? यहाँ लेखक क्या ध्यान रखना चाहता है?
(ड) हिंदू-मुस्लिम ऐक्य किस तरह मानवता के लिए घातक हो सकता है?
(च) हिंदू-मुस्लिम एकता का उद्देश्य क्या है?
(छ) मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य क्या है? इस प्राप्य के लिए हिंदू दृष्टिकोण कैसे विकसित हुआ है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. “हम इतिहास को अधिक यथार्थ ढंग से समझकर तद्नुकूल अपने विकास की योजना बना सकते हैं” मिश्र वाक्य में बदलिए।
  2. विलोम बताइए-एकता, पवित्र।

उत्तर –

(क) शीर्षक-हमारा लक्ष्य-मानव-कल्याण।
(ख) भारतीय मनीषा ने कला, धर्म, दर्शन और साहित्य आदि इस बात का भी प्रमाण दिया है कि भविष्य में भी वह P जनता न तो एक धरातल पर है और न सभी की चिंतन दृष्टि में समानता है।
(ग) जनता के विकास के लिए ऐसे कार्यक्रमों की आवश्यकता होती है, जिसमें

  1. विविधता हो अर्थात् जिससे सभी की आवश्यकताएँ पूरी हो सकें।
  2. फल पाने की जल्दी में काल्पनिक सिद्धांत के लिए जगह न हो। ऐसा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि जनता विकास की अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़ी है।

(घ) इसका अर्थ यह है कि मात्र हिंदू-मुस्लिम ऐक्य स्थापित करना ही हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे मानव-कल्याण का उद्देश्य पाने का साधन भी समझना चाहिए। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हिंदू-मुस्लिम की यह एकता अपने उद्देश्य से भटककर मानवता-विरोधी कार्य में न संलग्न हो जाए।
(ड) हिंदू-मुस्लिम एकता मानवता के लिए तब घातक हो सकती है, जब दोनों संप्रदाय आपस में मिलकर नया राज्य स्थापित करना चाहें अर्थात यह एकता मानव-कल्याण के उद्देश्य से भटक जाए।
(च) हिंदू-मुस्लिम एकता का उद्देश्य है-मनुष्य को दासता, जड़ता, मोह, कुसंस्कार और अपने कार्यों के लिए दूसरों का मुँह ताकने से बचाते हुए क्षुद्र स्वार्थ की भावना का त्याग करना। इसके अलावा मनुष्य को न्याय और उदारता की दुनिया में ले जाना तथा मनुष्य को मनुष्य के शोषण से बचाकर परस्पर सहयोग के बंधन में बाँधना है।
(छ) मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य है-मनुष्य का सामूहिक कल्याण करने का लक्ष्य। इस प्राप्य के लिए हिंदू दृष्टिकोण आर्य, द्रविड़, शक, नाग, आभीर आदि जातियों के सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद बना है।
(ज)

  1. जब हम इतिहास को अधिक यथार्थ ढंग से समझेंगे तब तदनुकूल अपने विकास की योजना बना सकते हैं।
  2. शब्द विलोम
    एकता अनेकता
    पवित्र अपवित्र

19. स्वतंत्र व्यवसाय की अर्थनीति के नए वैश्चिक वातावरण ने विदेशी पूँजी-निवेश की खुली छूट है रखी है, जिसके कारण दूरदर्शन में ऐसे विज्ञापनों की भरमार हौ गई है, जो उन्मुक्त वासना, हिंसा, अपराध, लालच और ईर्ष्या जैसे मानव की हीनतम प्रवृस्तिओं को आधार मानकर चल रहै हैं। अत्यंत खेद का विषय है कि राष्टीय दूरदर्शन ने भी उनकी भौंडी नकल कौ ठान ली हैं।

आधुनिकता के नाम पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, सुनाया जा रहा है, उससे भारतीय जीवन-मुख्या का दूर का भी रिश्ता नहीं है, वे सत्य से भी कोसों दूर हैं। नई पीढी, जो स्वयं में रचनात्मक गुणों का विकास करने की जगह दूरदर्शन के सामने बैठकर कुछ सीखना, जानना और मनोरंजन करना चाहती है, उसका भगवान ही मालिक है।

जो असत्य है, वह सत्य नहीं हो सकता। समाज को शिव बनाने का प्रयत्न नहीं होगा तो समाज शव बनेगा ही। आज यह मज़बूरी हो गई है कि दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले वासनायुक्त, अश्लील दृश्यों से चार पीढ़ियाँएक साथ आँखें चार कर रही हैं। नतीजा सामने हैं। बलात्कार, अपहरण, छोटी बच्चियों के साथ निकट संबंधियों द्वारा शर्मनाक यौनाचार की घटनाओं में वृदूधि।

ठुमक कर चलते शिशु दूरदर्शन पर दिखाए और सुनाए जा रहे स्वर और भंगिमाओं, पर अपनी कमर लचकाने लगे हैं। ऐसे कार्यक्रम न शिव हैं, न समाज को शिव बनाने को शक्ति है इनमें। फिर जी शिव नहीं, वह सुंदर जैसे हो सकता है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) नई आर्थिक व्यवस्था से भारतीय दूरदर्शन किस तरह प्रभावित है?
(ग) नई आर्थिक नीति ने मानवीय मूल्यों को किस तरह प्रभावित किया है?
(घ) ‘अर्थनीति के नए वैश्विक वातावरण’ से लेखक का क्या तात्पर्य है?
(ड) लेखक ने कहा है कि ‘नई पीढ़ी का भगवान ही मालिक है।’ उसने ऐसा क्यों कहा होगा?
(च) ‘समाज को शिव बनाने का प्रयत्न नहीं होगा तो समाज शव बनेगा ही।’ के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
(छ) दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम उपयोगी क्यों नहीं हैं?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. संधि-विच्छेद कीजिए-अत्यंत, उन्मुक्त।
  2. विलोम बताइए-स्वतंत्र, सत्य।

उत्तर –

(क) शीर्षक-भारतीय दूरदर्शन की अनर्थकारी भूमिका।
(ख) नई आर्थिक व्यवस्था से भारतीय दूरदर्शन बुरी तरह प्रभावित है। इसके कारण दूरदर्शन पर जो विज्ञापन और कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं, उनमें हिंसा, यौनाचार, बलात्कार, अपहरण आदि मानव की हीनतम वृत्तियों की बाढ़-सी आ गई है। इससे समाज पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
(ग) नई आर्थिक नीति के कारण दूरदर्शन पर जो कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं, उनके आधुनिक होने का दावा किया जाता है। ऐसे कार्यक्रमों ने भारतीय जीवन-मूल्यों को बुरी तरह प्रभावित किया है। इनमें पाश्चात्य जीवन-मूल्यों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है और भारतीय जीवन-मूल्यों को हासिए पर डालने का कार्य किया जा रहा है।
(घ) इसका अर्थ यह है कि आर्थिक नीति में राष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटाकर उसका उदारीकरण करना, जिससे कोई देश अन्य किसी देश में व्यवसाय करने, उद्योग लगाने आदि आर्थिक कार्यक्रमों में स्वतंत्र हो।
(ड) लेखक के अनुसार, ‘नई पीढ़ी का भगवान ही मालिक है।’ उसने ऐसा इसलिए कहा है, क्योंकि बाल्यावस्था एवं युवावस्था जीवन-निर्माण का काल होता है। इसी काल में रचनात्मक गुण विकसित होते हैं। इसके लिए पिजवना-मृत्य हिता एवं सय से कस दू वाले कर्यक्म देक सखना जाना औरमोजना करता चाहती है।
(च) इस कथन के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि दूरदर्शन पर ऐसे कार्यक्रम प्रसारित किए जाने चाहिए, जिनसे भारतीय जीवन-मूल्य संबंधित हों। इससे समाज शिव अर्थात सुंदर बनेगा। यदि इसके लिए सही प्रयास किया गया, तो समाज में हिंसा, अपहरण, यौनाचार जैसी घटनाएँ बढ़ेगीं और समाज शव की भाँति विकृत एवं घृणित हो जाएगा।
(छ) दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों में आधुनिकता की नकल है। इस आधुनिकता के दिखाया-सुनाया जा रहा है, वे भारतीय मूल्यों से संबंधित नहीं हैं। ये कार्यक्रम सत्य नहीं होते। पीढ़ी में रचनात्मक गुणों का विकास नहीं करते, इसलिए ये उपयोगी नहीं हैं।
(ज)

  1. शल्द संधि-विच्छेद
    अत्यत अति + अंत
    उन्मुक्त उन् + मुक्त
  2. शब्द विलोम
    स्वतंत्र परतत्र
    सत्य असत्य

20. संस्कृति और सभ्यता-ये दो शब्द हैं और उनके अर्थ भी अलग-अलग हैं। सभ्यता मनुष्य का वह गुण है, जिससे वह अपनी बाहरी तरक्की करता है। संस्कृति वह गुण है, जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है, करुणा, प्रेम और परोपकार सीखता है। आज रेलगाडी , मोटर और हवाई जहाज, लंबी-चौही सड़कें और बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक, ये सभ्यता की पहचान है और जिस देश में इनकी जितनी ही अधिकता है, उस देश को हम उतना ही सभ्य मानते हैं। मगर संस्कृति इन सबसे कहीं बारीक चीज है।

वह मोटर नहीं, मोटर बनाने की कला है, मकान नहीं, मकान बनाने की रुचि डै। संस्कृति धन नहीं, गुण है। संस्कृति ठाठ-बाट नहीँ, विनय और विनम्रता है। एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज है, जो हमारे पास है, लेकिन संस्कृति वह गुण है, जो हममें छिपा हुआ है। हमारे पास घर होता है कपडे-लत्ते होते हैं, मगर ये सारी चीजे हमारी सभ्यता के सबूत हैं, जबकि संस्कृति इतने मोटे तौर पर दिखाई नहीं देती, वह बहुत ही सूक्ष्म और महीन चीज है और वह हमारी हर पसंद, हर आदत में छिपी रहती है।

मकान बनाना सभ्यता का काम है, लेकिन हम मकान का कौन-सा नक्शा पसंद करते है-यह हमारी संस्कृति बताती है। आदमी के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर-ये छह विकार प्रकृति के दिए हुए हैं। परंतु अगर ये विकार बेरोके छोड़ दिए जाएँ, तो आदमी इतना गिर जाए कि उसमें और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाएगा। इसलिए आदमी इन विकारों पर रोक लगाता है। इन दुर्गिणों पर जो आदमी जितना ज्यादा काबू कर याता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है।

संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान रने बढती है। जब दो देशों या जातियों के लोग आपस में मिलते हैं तब उन दोनों की संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। इसलिए संस्कृति को दृष्टि से वह जाति या वह देश बहुत ही धनी समझा जाता है, जिसने ज्यादा-रपे-ज्यादा देशों या जातियों को संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास किया हो।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) सभ्य व्यक्ति की पहचान कैसे की जा सकती है?
(ग) सभ्यता से संस्कृति किस प्रकार भिन्न है?
(घ) ‘संस्कृति व्यक्ति की भीतरी उन्नति करती है।’-स्पष्ट कीजिए।
(ड) मनुष्य में कौन-कौन-से विकार पाए जाते हैं? इन पर रोक न लगाने का क्या दुष्परिणाम होगा?
(च) किसी देश की सभ्यता के मापदंड क्या-क्या हैं?
(छ) संस्कृति का स्वभाव बताइए तथा स्पष्ट कीजिए कि देश की सांस्कृतिक समृद्ध इससे किस तरह प्रभावित होती है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. ‘संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है।’-उपवाक्य तथा उसका भेद बताइए।
  2. उपसर्ग पृथक कर मूल शब्द बताइए—उन्नति, संस्कृति।

उत्तर –

(क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।
(ख) जिस व्यक्ति में बाहरी तरक्की करने का गुण है, उसे ‘सभ्य’ कहते हैं। उस व्यक्ति की बाहरी तरक्की की पहचान उसके आस-पास मौजूद भौतिक साधनों के माध्यम से की जाती है। मोटर-गाड़ी, अच्छा मकान, सुख-सुविधा के पूना, अछा भजना, अच्छी पेशक आद जिके पास हैं.उसी पहावान साथ व्यिक्त के रूप मेंक जाती है।
(ग) सभ्यता और संस्कृति में एक नहीं, अनेक भिन्नताएँ हैं। सभ्यता बाहरी दिखावे की वस्तु है, जबकि संस्कृति व्यक्ति का आतरिक गुण है। सभ्यता के माध्यम से व्यक्ति भौतिक सुख-साधनों की वृद्ध करता है, जबकि संस्कृति उसकी भीतरी उन्नति में सहायक होती है। यह अत्यंत सूक्ष्म एवं महीन होती है।
(घ) संस्कृति व्यक्ति में छिपा एक मानवीय गुण है। संस्कृति के प्रभाव से व्यक्ति प्रेम, करुणा और परोपकार का पाठ सीखता है। इन मानवीय गुणों के बिना के जीवन की सार्थकता नहीं होती। ये मानवीय गुण बाहर से दिखाई देने की वस्तु नहीं होते, अत: स्पष्ट है कि संस्कृति व्यक्ति की भीतरी उन्नति करती है।
(ड) मनुष्य के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर-ये छह विकार पाए जाते हैं, जो प्रकृति प्रदत्त हैं। इन न लगाने का दुष्परिणाम यह होगा कि मनुष्य भी पशुओं जैसा आचरण करना शुरू कर देगा। के कार्य-व्यवहार में कोई अंतर नहीं रह जाएगा।
(च) किसी देश की सभ्यता के मापदंड वहाँ विद्यमान रेलगाड़ियाँ, मोटर, वायुयान, लंबी-चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन, अच्छी पोशाकें, स्वास्थ्य सुविधाएँ आदि हैं। इनसे उस देश के सभ्य होने का पता चलता है। जिस देश में ये सब जितना अधिक पाए जाते हैं, उस देश को उतना ही सभ्य कहते हैं।
(छ) यह संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है। दो देशों तथा जातियों के लोगों के मिलन से दोनों की संस्कृतियाँ प्रभावित होती हैं। जो देश जो अधिकाधिक देशों की संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास करते हैं, वे सांस्कृतिक रूप से उतने ही समृद्ध कहलाते हैं।
(ज)

  1. उपवाक्य-वह आदान-प्रदान से बढ़ती है। भेद-संज्ञा उपवाक्य।
  2. शब्द उपसर्ग मूल शब्द
    उन्नति उत् नति
    संस्कृति सम् कृति

21. विधाता-रचित इस सृष्टि का सिरमौर है-मनुष्य, उसकी कारीगरी का सर्वोत्तम नमूना। मानव को ब्रहमांड का लघु रूप मानकर भारतीय दार्शनिकों ने ‘यत् पिंडे तत् ब्रहमडे’ की कल्पना की थी। उनकी यह कल्पना मात्र कल्पना नहीं थी, प्रत्युत यथार्थ में जो विचारना के रूप में घटित होता है, उसी का कृति रूप ही तो सृष्टि है। मन तो मन, मानव का शरीर भी अप्रतिम है। देखने में इससे भव्य, आकर्षक एवं लावण्यमय रूप सृष्टि में अन्यत्र कहाँ है? अद्भुत एवं अद्वतीय है-मानव-सौंदर्य। साहित्यकारों ने इसके रूप-सौंदर्य के वर्णन के लिए कितने ही अप्रस्तुतों का विधान किया है करने के लिए अनेक काव्य-सृष्टियाँ रच डाली हैं।

साहित्यशास्त्रियों ने भी इसी हुए अनेक रसों का निरूपण किया है। परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाए, तो मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र से उपमित किया जा सकता है। जिस प्रकार यंत्र के एक पुर्जे में जाने यंत्र गड़बड़ा जाता है, बेकार हो जाता है, उसी प्रकार मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों में से बिगड़ जाता है, तो उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। इतना ही नहीं, गुर्दे जैसे कोमल एवं नाजुक हिस्से के खराब हो जाने से यह गतिशील वपुर्यत्र एकाएक अवरुद्ध हो सकता है, व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है।

एक अंग के विकृत होने पर सारा शरीर दंडित हो, वह कालकवलित हो जाए-यह विचारणीय है। यदि किसी यंत्र के पुर्जे को बदलकर उसके स्थान पर नया पुर्जा लगाकर यंत्र को पूर्ववत सुचारु एवं व्यवस्थित रूप से क्रियाशील बनाया जा सकता है तो शरीर के विकृत अंग के स्थान पर नव्य निरामय अंग लगाकर शरीर को स्वस्थ एवं सामान्य क्यों नहीं बनाया जा सकता?

शल्य-चिकित्सकों ने इस दायित्वपूर्ण चुनौती को स्वीकार किया तथा निरंतर अध्यवसायपूर्ण साधना के अनंतर अंग-प्रत्यारोपण के क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। अंग-प्रत्यारोपण का उद्देश्य यह है कि मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सके। यहाँ यह ध्यातव्य है कि मानव-शरीर हर अंग को उसी प्रकार स्वीकार नहीं करता, जिस प्रकार हर किसी का रक्त उसे स्वीकार्य नहीं होता।

रोगी को रक्त देने से पूर्व रक्त-वर्ग का परीक्षण अत्यावश्यक है तो अंग-प्रत्यारोपण से पूर्व ऊतक-परीक्षण अनिवार्य है। आज का शल्य-चिकित्सक गुर्दे, यकृत, आँत, फेफड़े और हृदय का प्रत्यारोपण सफलतापूर्वक कर रहा है। साधन-संपन्न चिकित्सालयों में मस्तिष्क के अतिरिक्त शरीर के प्राय: सभी अंगों का प्रत्यारोपण संभव हो गया है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) मानव को सृष्टि का लघु रूप क्यों कहा गया है?
(ग) मानव शरीर के प्रति लेखकों और कवियों का क्या दृष्टिकोण रहा है?
(घ) मानव शरीर को ‘मशीन’ की संज्ञा क्यों दी गई है?
(ड) शल्य चिकित्सकों ने किस चुनौती को स्वीकारा? इसे स्वीकारने का ध्येय स्पष्ट कीजिए।
(च) शरीर द्वारा अन्य किसी का अंग स्वीकारने के संबंध में रक्त और अंग में समानता स्पष्ट कीजिए।
(छ) ‘मानव को दीघार्यु बनाने में विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है।’ गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. विलोम बताइए—यथार्थ, मृत्यु।
  2. उपसर्ग बताइए—अवरुद्ध, संपन्न। उत्तर

उत्तर –

(क) शीर्षक-मानव अंग प्रत्यारोपण।
(ख) मानव को सृष्टि का लघु रूप इसलिए कहा गया है, क्योंकि भारतीय दार्शनिकों ने मानव को ब्रहमांड का लघु रूप मानकर ‘यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे’ की कल्पना की थी। उनकी कल्पना में यथार्थ भी था, क्योंकि मानव-मन में जो विचारना के रूप में घटित होता था, वही सृष्टि में घटित होता था।
(ग) लेखकों ने मानव-शरीर को अप्रतिम माना है। वे सृष्टि में इसकी भव्यता, आकर्षण और लावण्यमयता अतुलनीय मानते हैं। उन्हें इसका शरीर अद्भुत एवं अद्वतीय लगता है। कवियों ने मानव-शरीर की सौंदर्य-राशि को लेकर अनेक रचनाएँ की हैं। उन्हें भी इसका सौंदर्य मनभावन लगता था।
(घ) वैज्ञानिकों द्वारा मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र की संज्ञा इसलिए दी गई है, क्योंकि जिस प्रकार मशीन के किसी एक पुर्जे में गड़बड़ी आ जाने पर सारा यंत्र बेकार हो जाता है, उसी प्रकार मानव-शरीर के एक अंग में दोष आ जाने पर उसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है।
(ड) किसी एक अंग के खराब होने मात्र से व्यक्ति की मृत्यु तक हो जाती है। मशीन के खराब पुर्जे को बदलकर जिस तरह काम के योग्य बना लिया जाता है, उसी प्रकार शरीर के खराब अंग को बदलने की चुनौती को शल्य-चिकित्सकों ने स्वीकारा। शल्य-चिकित्सा संबंधी इस चुनौती को स्वीकारने का उद्देश्य था-मानव को स्वस्थ शरीर और चिरायु प्रदान करना।
(च) शरीर द्वारा अन्य किसी का अंग स्वीकारने के संबंध में रक्त और अंग के संबंध में यह समानता है कि जिस प्रकार शरीर हर तरह के रक्त को नहीं स्वीकारता, उसी प्रकार वह हर किसी के अंग को भी नहीं स्वीकारता। सिलहकू चबाने से पूर्वरक्ता-पक्षण किया जाता है. इस प्रकर अंगप्रत्यारोण से पूर्व तक पक्षण किया जाता है।
(छ) विज्ञान ने अंग-प्रत्यारोपण द्वारा मानव को दीर्घायु बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अंगों के प्रत्यारोपण से उसके शरीर के विभिन्न अंग-गुर्दा, यकृत, आँत, फेफड़े, हृदय आदि-पुन: लगाए जा सकते हैं। विभिन्न परीक्षणों के बाद लगाए गए इन अंगों को शरीर स्वीकार करके मनुष्य को दीर्घायु बनाता है।
(ज)

  1. शब्द विलोम
    यथार्थ काल्पनिक
    मृत्यु जन्म
  2. अव, सम्।

22. हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता जनसंख्या-वृद्ध रोकना है। इस क्षेत्र में हमारे सभी प्रयत्न निष्फल रहे हैं। ऐसा क्यों है? यह इसलिए भी हो सकता है कि समस्या को देखने का हर एक का एक अलग नजरिया है। जनसंख्याशास्त्रियों के लिए यह आँकड़ों का अंबार है। अफ़सरशाही के लिए यह टागेंट तय करने की कवायद है। राजनीतिज्ञ इसे वोट बैंक की दृष्टि से देखता है। ये सब अपने-अपने ढंग से समस्या को सुलझाने में लगे हैं।

अत: अलग-अलग किसी के हाथ सफलता नहीं लगी। पर यह स्पष्ट है कि परिवार के आकार पर आर्थिक विकास और शिक्षा का बहुत प्रभाव का मतलब पाश्चात्य मतानुसार भौतिकवाद नहीं, जहाँ बच्चों को बोझ माना जाता है। हमारे यह सम्मानपूर्वक जीने के स्तर से संबंधित है। यह मौजूदा संपत्ति के समतामूलक विवरण पर ही निर्भर नहीं है, वरन ऐसी शैली अपनाने से संबंधित है, जिसमें अस्सी करोड़ लोगों की ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल हो सके। इसी प्रकार स्त्री-शिक्षा भी है।

यह समाज में एक नए प्रकार का चिंतन पैदा करेगी, जिससे सामाजिक और आर्थिक विकास के नए आयाम खुलेंगे और साथ ही बच्चों के विकास का नया रास्ता भी खुलेगा। अत: जनसंख्या की समस्या सामाजिक है। यह अकेले सरकार नहीं सुलझा सकती। केंद्रीयकरण से हटकर इसे ग्राम-ग्राम, व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचाना होगा। जब तक यह जन-आंदोलन नहीं बन जाता, तब तक सफलता मिलना संदिग्ध है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता क्या है? इसमें सफलता क्यों नहीं मिल रही है?
(ग) जनसंख्या के प्रति अधिकारियों और नेताओं के दृष्टिकोण किस तरह भिन्न हैं?
(घ) परिवार के आकार को कौन-कौन प्रभावित करते हैं, और कैसे?
(ड) जनसंख्या की समस्या को ‘सामाजिक समस्या’ क्यों कहा गया है?
(च) जनसंख्या नियंत्रण के ठोस उपाय क्या हो सकते हैं? सुझाइए।
(छ) आर्थिक विकास के प्रति भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण में क्या अंतर है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. ‘सर्वोच्च’ और ‘निष्फल’ में संधि-विच्छेद कीजिए।
  2. ‘स्त्री-शिक्षा’, ‘ग्राम-ग्राम’ शब्दों का विग्रह करके समास का नाम लिखिए।

उत्तर –

(क) शीर्षक-जनसंख्या पर नियंत्रण।
(ख) हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता जनसंख्या-वृद्ध को रोकना है। इस क्षेत्र में सफलता न मिलने का कारण है-जनसंख्यावृद्ध की समस्या को देखने का दृष्टिकोण एक-सा न होना। इससे इसका प्रभावी हल नहीं निकल पा रहा है।
(ग) जनसंख्या के प्रति अधिकारीगण यह दृष्टिकोण रखते हैं कि जनसंख्या उनके लिए एक नियमावली है, जो उन्हें तरह-तरह के आँकड़े बनाने में मदद करती है। इसके विपरीत, नेतागण इसे अपना वोट बैंक समझकर इसका बँटवारा जाति-धर्म के आधार पर करके अगला चुनाव जीतने का साधन समझते हैं।
(घ) परिवार के आकार को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं-आर्थिक विकास और शिक्षा। हमारे देश में लोग चाहते हैं कि हमारे परिवार का ऐसा आकार हो कि वे खुशहाल जिंदगी जी सकें। इसके अलावा शिक्षा भी परिवार का अकल क्ले में माहवर्ण भूमाक निभाती है। प्रय देता गया है कि क्ति लोगों के पिरवार का आक्र छोटा होता हैं।
(ड) जनसंख्या की समस्या को ‘सामाजिक समस्या’ इसलिए कहा गया है, क्योंकि इसका जुड़ाव सीधे-सीधे जनता और समाज से है। इस समस्या को बढ़ाने में किसी एक व्यक्ति या सरकार का योगदान नहीं, बल्कि पूरे समाज का है। इसी प्रकार इस समस्या का दुष्प्रभाव सरकार और समाज दोनों पर पड़ रहा है। इसका हल भी सरकार के साथ-साथ हर व्यक्ति के सहयोग से ही खोजा जा सकता है।
(च) जनसंख्या नियंत्रण के लिए स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए। लोगों को अपनी सोच में बदलाव लाना चाहिए। सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए। इसके अलावा गाँव-गाँव, प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचकर उनमें जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए। इसके लिए सरकार के साथ-साथ लोगों को मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए।
(छ) पाश्चात्य दृष्टिकोण में आर्थिक विकास का अर्थ भौतिकवाद है, जहाँ बच्चों को बोझ माना जाता है, जबकि भारतीय दृष्टिकोण में बच्चों को कभी बोझ नहीं माना जाता। भारत में यह सम्मानपूर्वक जीने के स्तर से संबंधित माना जाता है।
(ज)

  1. शब्द संधि-विच्छेद
    सर्वोच्चा सर्व + उच्च
    निष्फल नि: + फल
  2. शब्द विग्रह समास का नाम
    स्त्री-शिक्षा स्त्रियों के लिए शिक्षा संप्रदान तत्पुरुष
    ग्राम-ग्राम प्रत्येक गाँव तक अव्ययीभाव समास

23. प्रकृति वैज्ञानिक और कवि दोनों की ही उपास्या है। दोनों ही उससे निकटतम संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। वैज्ञानिक प्रकृति के बाहय रूप का अवलोकन करता है और सत्य की खोज करता है, परंतु कवि बाहय रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादात्म्य स्थापित करता है। वैज्ञानिक प्रकृति की जिस वस्तु का अवलोकन करता है, उसका सूक्ष्म निरीक्षण भी करता है।

चंद्र को देखकर उसके मस्तिष्क में अनेक विचार उठते हैं। इसका तापक्रम क्या है, कितने वर्षों में यह पूर्णत: शीतल हो जाएगा। ज्वार-भाटे पर इसका क्या प्रभाव होता है, किस प्रकार और किस गति से यह सौर-मंडल में परिक्रमा करता है और किन तत्वों से इसका निर्माण हुआ है।

वह अपने सूक्ष्म निरीक्षण और अनवरत चिंतन से इसको एक लोक ठहराता है और उस लोक में स्थित ज्वालामुखी पर्वतों तथा जीवनधारियों की खोज करता है। इसी प्रकार वह एक प्रफुल्लित पुष्प को देखकर उसके प्रत्येक अंग का विश्लेषण करने को तैयार हो जाता है। उसका प्रकृति-विषयक अध्ययन वस्तुगत होता है। उसकी दृष्टि में विश्लेषण और वर्गविभाजन की प्रधानता रहती है।

वह सत्य और वास्तविकता का पुजारी होता है। कवि की कविता भी प्रत्यक्षावलोकन से प्रस्फुटित होती है। वह प्रकृति के साथ अपने भावों का संबंध स्थापित करता है। वह उसमें मानव-चेतना का अनुभव करके उसके साथ अपनी आतरिक भावनाओं का समन्वय करता है। वह तथ्य और भावना के संबंध पर बल देता है। वह नग्न सत्य का उपासक नहीं होता। उसका वस्तु-वर्णन हृदय की प्रेरणा का परिणाम होता है, वैज्ञानिक की भाँति मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया नहीं।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) प्रकृति के उपासक किन्हें कहा गया है? वे यह उपासना किस रूप में करते हैं?
(ग) प्रकृति के प्रति कवि तथा वैज्ञानिक के दृष्टिकोणों में क्या भिन्नता है?
(घ) वैज्ञानिक द्वारा पुष्प को देखने से उसके स्वभाव की किस विशेषता का ज्ञान होता है?
(ड) चाँद के अवलोकन संबंधी कवि एवं वैज्ञानिक के दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।
(च) कवि जब प्रकृति का प्रत्यक्षावलोकन करता है, तब कविता प्रकट होती है।-स्पष्ट कीजिए।
(छ) गद्यांश के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखिए।
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. उपसर्ग और मूल शब्द बताइए-प्रस्फुटित, संबंध।
  2. “कवि प्रकृति के बाहय रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादाम्य स्थापित करता है।”-मिश्र वाक्य में बदलिए।

उत्तर –

(क) शीर्षक-प्रकृति, कवि और वैज्ञानिक। अथवा, कवि और वैज्ञानिक दृष्टि में प्रकृति।
(ख) प्रकृति के उपासक वैज्ञानिक और कवि को कहा गया है। ये दोनों ही यह उपासना करने के क्रम में प्रकृति के करीब जाते हैं और उससे निकटतम संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
(ग) प्रकृति के प्रति कवि और वैज्ञानिक के दृष्टिकोणों में यह अंतर है कि वैज्ञानिक प्रकृति के बाहय रूप का सूक्ष्म हुआ सत्य की खोज करता है। इसके विपरीत, कवि प्रकृति के बाहय रूप को देखकर खुश होता है और प्रकृति के साथ अपने मनोभावों का तादात्म्य स्थापित करता है।
(घ) वैज्ञानिक जब किसी खिले फूल को देखता है, तो उसके प्रत्येक अंग का विश्लेषण करता है। उसका प्रकृति विषयक अध्ययन वस्तुगत होता है। वह सूक्ष्म दृष्टि से उसका निरीक्षण करता है। इससे पता चलता है कि वह सत्य और वास्तविकता का पुजारी होता है।
(ड) कवि एवं वैज्ञानिक दोनों ही चाँद को देखते हैं, पर उनके दृष्टिकोणों में अंतर होता है। कवि चाँद के बाहय रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादात्म्य स्थापित करता है जबकि वैज्ञानिक चाँद का सूक्ष्म निरीक्षण कस्ते हुए उसके तापमान , ज्वार-भाटे पर प्रभाव, उसकी गति, सौरमंडल की परिक्रमा तथा उसके तत्त्वों को खोजता फिरता है।
(च) कवि जब प्रकृति का प्रत्यक्षावलोकन करता है तो वह उसके साथ भावों का तादात्म्य स्थापित करता है। उसे प्रकृति में मानव-चेतना की अनुभूति होती है और वह उसके साथ अपने भावों को संबद्ध करता है। इस प्रकार से तथ्य और भावों पर बल देने से कविता प्रकट होती है।
(छ) गद्यांश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की निम्नलिखित विशेषताओं का ज्ञान होता है

  1. वैज्ञानिक तथ्यों पर बल देता है, भावना पर नहीं।
  2. वैज्ञानिक सत्य का अन्वेषक होता है।
  3. वैज्ञानिक द्वारा किया गया वस्तु का वर्णन मस्तिष्क की उपज होती है, हृदय की नहीं।
  4. वैज्ञानिक किसी वस्तु का अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण करता है।

(ज)

  1. शब्द उपसर्ग मूल शब्द
    प्रस्फुटित प्र स्फुटित
    संबंध सम् बंध
  2. जब कवि प्रकृति के बाहय रूप पर मुग्ध होता है तब वह भावों का तादाम्य स्थापित करता है।

24. मृत्युजय और संघमित्र की मित्रता पाटलिपुत्र के जन-जन की जानी बात थी। मृत्युंजय जन-जन द्वारा ‘धन्वंतरि’ की उपाधि से विभूषित वैद्य थे और संघमित्र समस्त उपाधियों से विमुक्त ‘भिक्षु’। मृत्युजय चरक और सुश्रुत को समर्पित थे तो संघमित्र बुद्ध के संघ और धर्म को।

प्रथम का जीवन की संपन्नता और दीर्घायुष्य में विश्वास था तो द्रवितीय का जीवन के निराकरण और निर्वाण में। दोनों ही दो विपरीत तटों के समान थे, फिर भी उनके मध्य बहने वाली स्नेह-सरिता उन्हें अभिन्न बनाए रखती थी। यह आश्चर्य है, जीवन के उपासक वैद्यराज को उस निर्माण के लोभी के बिना चैन ही नहीं था, पर यह परम आश्चर्य था कि समस्त रोगों को मलों की तरह त्यागने में विश्वास रखने वाला भिक्षु भी वैद्यराज के मोह में फेंस अपने निर्वाण को कठिन-से-कठिनतर बना रहा था।

वैद्यराज अपनी वार्ता में संघमित्र से कहते-निर्वाण (मोक्ष) का अर्थ है आत्मा की मृत्यु पर विजय। संघमित्र हँसकर कहते-देह द्वारा मृत्यु पर विजय मोक्ष नहीं है। देह तो अपने-आप में व्याधि है। तुम देह की व्याधियों को दूर करके कष्टों से छुटकारा नहीं दिलाते, बल्कि कष्टों के लिए अधिक सुयोग जुटाते हो। देह व्याधि से मुक्ति तो भगवान की शरण में है।

वैद्यराज ने कहा-मैं तो देह को भगवान के समीप जीते जी बने रहने का माध्यम मानता हूँ। पर दृष्टियों का यह विरोध उनकी मित्रता के मार्ग में कभी बाधक नहीं हुआ। दोनों अपने कोमल हास और मोहक स्वर से अपने-अपने विचारों को प्रस्तुत करते रहते।

प्रश्न –

(क) मृत्युजय कौन थे? उनकी विचारधारा क्या थी?
(ख) जीवन के प्रति संघमित्र की दृष्टि को समझाइए।
(ग) लक्ष्य-भिन्नता होते हुए भी दोनों की गहन निकटता का क्या कारण था?
(घ) दोनों को ‘दो विपरीत तट’ क्यों कहा गया है?
(ड) देह के विषय में संघमित्र ने किस बात पर बल दिया है?
(च) देह-व्याधि के निराकरण के बारे में संघमित्र की अवधारणा के विषय में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
(छ) विचारों की भिन्नता/विपरीतता के होते हुए भी दोनों के संबंधों की मोहकता और मधुरता क्या संदेश देती है?
(ज) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक सुझाइए।
(झ) उपसर्ग, मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए
समर्पित अथवा विभूषित
(ञ) रचना की दृष्टि से वाक्य का प्रकार बताइए—
‘प्रथम का जीवन की संपन्नता और दीर्घायुष्य में विश्वास था तो द्रवितीय का जीवन के निराकरण और निर्वाण में।”

उत्तर –

(क) मृत्युजय लोगों के बीच ‘धनवंतरि’ वैद्य के नाम से लोकप्रिय थे। उनकी विचारधारा यह थी कि लोगों का जीवन सुखी एवं संपन्न हो। “वे नीरोगी तथा दीर्घायु होकर स्वस्थ जीवन का लाभ उठाएँ।
(ख) संघमित्र बौद्ध धर्म के प्रचारक भिक्षु थे। उनकी विचारधारा पर महात्मा बुद्ध का प्रभाव था। वे जीवन के निराकरण और निर्वाण में विश्वास रखते हैं। वे बुराइयों से दूर रहकर सादगी से जीवन जीते हुए निर्वाण प्राप्त करने की जीवन का लक्ष्य मानते थे।
(ग) लक्ष्य भिन्नता होते हुए भी दोनों की गहन निकटता का कारण था-मनुष्यमात्र के कल्याण की उच्च एवं पवित्र भावना।
(घ) दोनों को ‘दो विपरीत तट’ इसलिए कहा गया है क्योंकि मृत्युंजय जीवन को नीरोग बनाकर आनंदपूर्वक जीने और दीर्घायु रहकर भोग-उपभोग का आनंद उठाने को महत्व देते थे जबकि संघमित्र सादगीपूर्वक जीने तथा निर्वाण प्राप्त करने को महत्व देते थे। इस प्रकार दोनों के सिद्धांत एकदम विपरीत थे।
(ड) देह (शरीर) के विषय में संघमित्र ने बल दिया है कि देहरूपी व्याधि से मुक्ति पाना है तो ईश्वर की शरण में जाना ही होगा।
(च) देह व्याधि के निराकरण के बारे संघमित्र की अवधारणा थी कि बिना ईश्वर की शरण में गए इससे मुक्ति नहीं पाई जा सकती। ऐसा वे बौद्ध भिक्षु होने और बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण कहते थे। मेरा विचार ऐसा नहीं है। मैं देह को व्याधि नहीं मानता, बल्कि स्वस्थ रहकर अच्छे कर्म करने और प्रभु के निकट जाने का साधन मानता हूँ।
(छ) विचारों की भिन्नता या विपरीतता होते हुए भी दोनों के संबंधों की मोहकता और मधुरता यह संदेश देती है कि हमें स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहते हुए सादगीपूर्वक जीना चाहिए और मानवता के लिए कल्याणकारी कार्य करना चाहिए तथा अच्छे कर्मों के माध्यम से प्रभु की निकटता पाने का प्रयास करना चाहिए।
(ज) शीर्षक-जीवन के प्रति मृत्युंजय और संघमित्र के दृष्टिकोण।
(झ) शब्द उपसर्ग मूल शब्द प्रत्यय
समर्पित सम् अर्पण इत
विभूषित वि भूषण इत
(ञ) संयुक्त वाक्य।

25. बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने पिता के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी।

महाभारत में देश के प्राय: अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफ्त हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।

जिंदगी की दो ही सूरतें हैं। एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश कुरे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली का जाल बुन रहीं हो, तब भी वह पीछे को गाँव न हटाए। दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती है जहाँ न तो जीत हँसती है और न कमी हार के रोने की आवाज सुनाई देती डै।

इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते है, वे जिंदगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी जिन्दगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनंद नहीं है? अगर रास्ता आगे की निकल रहा डो तो फिर असली मजा तो पाँव बढाते जाने में ही है।

साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिलकुल निडर, बिलकुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है।

अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न ही अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धम बनाते हैं।

प्रश्न –

(क) गद्यांश में अकबर का उदाहरण क्यों दिया गया है?
(ख) पांडवों की विजय का क्या कारण था?
(ग) आशय स्पष्ट कीजिए “जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई देती है।”
(घ) साहस की जिंदगी को सबसे बड़ी ज़िंदगी क्यों कहा गया है?
(ड) दुनिया की असली ताकत किसे कहा गया है और क्यों?
(च) क्रांतिकारियों के क्या लक्षण हैं?
(छ) ज़िंदगी की कौन-सी सूरत आपको अच्छी लगती है और क्यों?
(ज) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(झ) ‘निडर” और ‘बेखौफ़’ में प्रयुक्त उपसर्ग बताइए।
(ञ) मिश्र वाक्य में बदलिए-‘साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है।”

उत्तर –

(क) गद्यांश में अकबर का उदाहरण विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेने और उन पर विजय पाने के लिए दिया गया है। अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था जहाँ सुख-सुविधा के साधन न थे, फिर भी वह मात्र तेरह वर्ष की अल्पायु में अपने पिता के दुश्मन को हराने में सफल रहा था। वह संकटों में पल-बढ़कर बड़ा हुआ था।
(ख) पांडवों की विजय इसलिए हुई क्योंकि उन्होंने वनवास की कठिनाइयों को सफलतापूर्वक सहन किया था और लाक्षागृह की जानलेवा मुसीबत को जीतने में सफल रहे थे।
(ग) “जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई देती है”-का आशय यह है कि बहुत से लोग बँधे-बँधाए रास्ते पर जिंदगी जीते हैं। वे जिस हाल में होते हैं उसी हाल में खुशी महसूस करते हैं। वे इस अनेक खरा नाहीं उताते। इन लोगों को उपाधियों न तो खुश कर पाती हैं और न असाफलता दुखी करती है।
(घ) साहस की जिंदगी को सबसे बड़ी जिंदगी इसलिए कहा गया है क्योंकि ऐसी जिंदगी जीवन-पर्थ पर चलते हुए जोखिम उठाने का साहस करती है। साहस से भरी जिंदगी निडर होती है। इसी निडरता के कारण वह आगे ही आगे बढ़ती जाती है, चाहे उसके साथ चलने वाला कोई हो या न हो।
(ड) दुनिया की असली ताकत उस मनुष्य को कहा गया है जो जीवन-पथ पर आगे बढ़ते हुए जनमत की उपेक्षा करके अपना अलग लक्ष्य बनाता है। वह दूसरों की परवाह नहीं करता कि लोग उसकी आलोचना करेंगे या शु,ऐसे लोग मानता के कल्याण के लिए कुछ नया करजते हैं और वे इसों के लिए मार्गर्शक बना जाते हैं।
(च) क्रांतिकारी लोग अपने उद्देश्य की तुलना दूसरों से नहीं करते और दूसरों का साथ पाने की प्रतीक्षा किए बिना मार्ग पर बढ़ जाते हैं।
(छ) मुझे जिंदगी की पहली सूरत पसंद है जिसमें आदमी बड़े-से-बड़े उद्देश्य को पाने के लिए कोशिश करता रहता है। उस उद्देश्य को पाने के लिए निरंतर प्रयास करता रहता है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों पर विजय पाते हुए लक्ष्य की प्राप्ति करता है। ऐसा करते हुए भी यदि सफलता हाथ नहीं लगती तो वह असफलता से घबराकर अपने कदम वापस नहीं खींचता।
(ज) शीर्षक-साहस की जिंदगी।
(झ) निडर – नि (उपसर्ग)
बेखौफ़ – बे (उपसर्ग)
(ञ) साहस की जो जिंदगी होती है वही सबसे बड़ी जिंदगी होती है।

26. विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं जिनकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान पर शोषक तथा वही दूसरे स्थान पर शोषित होता है। चूँकि जब बात उपभोक्ता संरक्षण की हो तब पहला प्रश्न यह उठता है कि उपभोक्ता किसे कहते हैं? या उपभोक्ता की परिभाषा क्या है?

सामान्यत: उस व्यक्ति या व्यक्ति-समूह को ‘उपभोक्ता’ कहा जाता है जो सीधे तौर पर किन्हीं भी वस्तुओं अथवा सेवाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में शोषण का शिकार अवश्य होते हैं।

हमारे देश में ऐसे अशिक्षित, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से दुर्बल, अशक्त लोगों की भीड़ है जो शहर की मलिन बस्तियों में, फुटपाथ पर, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे झोंपड़ी डालकर अथवा किसी भी अन्य तरह से अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश की समाजोपयोगी ऊध्र्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं, जिन्हें आधुनिक सफ़ेदपोशों, व्यापारियों, नौकरशाहों एवं तथाकथित बुद्धजीवी वर्ग ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण इन्हीं की देन है।

‘उपभोक्ता’ शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादकता व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है जबकि इसके क्षेत्र में वस्तुएँ एवं सेवाएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिनके अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, वकील सभी आई सबानेशषणके क्षेत्रमेंजकर्तमान बनाए वे वास्ता में निजबुकऑफ़ वर्ल्ड किईसा मेंदर्डक ने लायक ह।

प्रश्न –

(क) गद्यांश का समुचित शीर्षक लिखिए।
(ख) ‘विषमता’ शब्द से मूल शब्द तथा प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
(ग) “ऊध्र्वमुखी योजनाओं से वंचित है”-वाक्य का आशय समझाइए।
(घ) ‘विषमता शोषण की जननी है”-कैसे? स्पष्ट कीजिए।
(ड) ‘समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यत: शोषण उतना ही अधिक होगा।” वाक्य-भेद लिखिए।
(च) ‘उपभोक्ता शोषण’ से क्या आशय है? इसकी सीमाएँ कहाँ तक हैं?
(छ) देश की समाजोपयोगी योजनाओं से कौन-सा वर्ग वंचित रह जाता है और क्यों?
(ज) ‘उपभोक्ता’ किसे कहते हैं? उपभोक्ता शोषण का मुख्य कारण क्या है?
(झ) सामान्यत: शोषण का दोषी किसे कहा जाता है और क्यों?

उत्तर –

(क) शीर्षक-उपभोक्ता शोषण।
(ख) उपसर्ग – वि मूल शब्द – सम प्रत्यय – ता।
(ग) ‘ऊध्र्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं”-वाक्य का आशय यह है कि समाज के एक वर्ग, जो अशिक्षित, सामाजिकआर्थिक रूप से कमजोर है तथा गंदे स्थानों पर रहता है, को उठाने के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं पर उसे उन योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता।
(घ) हमारे समाज में जहाँ अत्यंत गरीब, अनपढ़, लाचार और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़े लोग हैं, वहीं अत्यंत धनी, पढ़े-लिखे, शक्ति एवं साधन-संपन्न लोग भी हैं। इस प्रकार समाज में विषमता का बोलबाला है। यही ध औ साधना से सापना लोगोंकोंगोवाक अतिफ़याउलो हैं इसप्रका वपाता। शणक जननी है।
(ड) मिश्र वाक्य।
(च) ‘उपभोक्ता शोषण’ से तात्पर्य है-उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों से वंचित करना। इसकी सीमाएँ वस्तुओं के उत्पादन, उन तक पहुँचने और व्यापारियों द्वारा कम वस्तुएँ देने से लेकर डॉक्टर, इंजीनियर सफ़ेदपोश, नौकरशाह और बुद्धजीवियों की सोच तक हैं।
(छ) देश की समाजोपयोगी योजनाओं से गरीब, लाचार, अशिक्षित और कमजोर अर्थात वह वर्ग वंचित रह जाता है, जिसकी जरूरत उसे सर्वाधिक है। यह वर्ग इन योजनाओं से इसलिए वंचित रह जाता है क्योंकि हमारे समाज के कि सफ़ेदोश व्यापारी नकशह तथा तथाकथिता बुद्धजी वर्ग मल्कर आपास में बंरक्ट क लेते हैं।
(ज) ‘उपभोक्ता’ वह व्यक्ति होता है जो वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग करता है। उपभोक्ताओं के शोषण का कारण है-उनका जागरूक न होना तथा सफ़ेदपोश, व्यापारी, नौकरशाह और तथाकथित बुद्धजीवी वर्ग की नीयत में खोट होना, जिससे वे सारी योजनाओं को अपनी समझकर उनका अनुचित लाभ उठाते हैं।
(झ) सामान्यत: शोषण का दोषी उन लोगों को कहा जाता है, जिनके हाथों प्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ताओं को सेवाएँ प्रदान की जाती हैं। इस वर्ग में व्यापारी और उत्पादक आते हैं। यह वर्ग कभी कम मात्रा में वस्तुएँ देकर, कभी वस्तुओं का दाम अधिक वसूल करके शोषण करता है। इसके अलावा, उत्पादक जब उपभोक्ता वर्ग के श्रम से वस्तुएँ उत्पादित करता है तब उन्हें बहुत कम मजदूरी देकर प्रत्यक्ष रूप से शोषण करता है।

27. जो अनगढ़ है, जिसमें कोई आकृति नहीं, ऐसे पत्थरों से जीवन को आकृति प्रदान करना, उसमें कलात्मक संवेदना जगाना और प्राण-प्रतिष्ठा करना ही संस्कृति है। वस्तुत: संस्कृति उन गुणों का समुदाय है, जिन्हें अनेक प्रकार की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से मनुष्य प्राप्त करता है। संस्कृति का संबंध मुख्यत: मनुष्य की बुद्ध एवं स्वभाव आदि मनोवृत्तियों से है।

संक्षेप में, सांस्कृतिक विशेषताएँ मनुष्य की मनोवृत्तियों से संबंधित हैं और इन विशेषताओं का अनिवार्य संबंध जीवन के मूल्यों से होता है। ये विशेषताएँ या तो स्वयं में मूल्यवान होती हैं अथवा मूल्यों के उत्पादन का साधन। प्राय: व्यक्तित्व में विशेषताएँ साध्य एवं साधन दोनों ही रूपों में अर्थपूर्ण समझी जाती हैं। वस्तुत: संस्कृति सामूहिक उल्लास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। संस्कृति व्यक्ति की नहीं, समष्टि की अभिव्यक्ति है।

डॉ० संपूर्णानंद ने कहा है-“संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते हैं, जिसमें कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं पर दृष्टि निक्षेप करता है।” संक्षेप में वह समुदाय की चेतना बनकर प्रकाशमान होती है। यही चेतना प्राणों की प्रेरणा है और यही भावना प्रेम में प्रदीप्त हो उठती है। यह प्रेम संस्कृति का तेजस तत्व है, जो चारों ओर परिलक्षित होता है। प्रेम वह तत्व है, जो संस्कृति के केंद्र में स्थित है। इसी प्रेम से श्रद्धा उत्पन्न होती है, समर्पण जन्म लेता है और जीवन भी सार्थक लगता है।

प्रश्न –

(क) संस्कृति एक निष्प्राण पत्थर को किस प्रकार जीवंत बना सकती है?
(ख) संस्कृति का संबंध मनुष्य की मनोवृत्तियों से क्यों है?
(ग) व्यक्तित्व की विशेषताएँ किस रूप में मूल्यवान समझी जाती हैं?
(घ) संस्कृति समष्टि की अभिव्यक्ति क्यों है?
(ड) डॉ० संपूर्णानंद ने संस्कृति को किस प्रकार का दृष्टिकोण कहा है?
(च) संस्कृति किस तरह प्रकाशमान होती है?
(छ) प्रेम को संस्कृति का तेजस तत्व क्यों कहा गया है?
(ज) प्रेम से समर्पण किस प्रकार जन्म लेता है?
(झ) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। :
(अ) सामुदायिक चेतना को संस्कृति का प्राण क्यों कहा गया है?

उत्तर –

(क) संस्कृति एक निष्प्राण पत्थर को निम्नलिखित उपायों द्वारा जीवंत बना सकती है

  1. कलात्मक आकार प्रदान करके।
  2. उसमें संवेदना जगाकर। “

(ख) संक्कर्ष मानुयक मोतियों से इसिलए है क्योंकि मानुयक मोतियों शिवा गुण औरप्रयों से निर्मित होती हैं।
(ग) व्यक्तित्व की विशेषताएँ दो रूपों में मूल्यवान समझी जाती हैं

  1. साध्य रूप में
  2. साधन रूप में।

(घ) संस्कृति समष्टि की अभिव्यक्ति इसलिए है, क्योंकि यह सामूहिक उल्लास है।
(ड) डॉ० संपूर्णानंद ने संस्कृति को उस तरह का दृष्टिकोण कहा है, जिसमें कोई समुदाय जीवन की विशेष समस्याओं पर अपनी दृष्टि डालता है, उसे समझता है।
(च) संस्कृति किसी समुदाय की चेतना बन जाती है, इस प्रकार वह प्रकाशमान होती है।
(छ) प्रेम को संस्कृति का तेजस तत्व इसलिए कहा गया है, क्योंकि

  1. प्रेम के कारण ही आत्मा का विकास होता है।
  2. प्रेम के कारण ही जीवन सार्थक लगता है।

(ज) प्रेम चारों ओर फैलकर श्रद्धा एवं समर्पण को जन्म देता है।
(झ) शीर्षक-संस्कृति और समाज।
(ज) सामुदायिक चेतना को संस्कृति का प्राण इसलिए कहा गया है, क्योंकि चेतना प्रेरणा बनकर प्रेम में परिवर्तित हो जाती है और सामूहिकता उत्पन्न करती है।

28. राष्ट्र केवल जमीन का टुकड़ा ही नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत होती है जो हमें अपने पूर्वजों से परंपरा के रूप में प्राप्त होती है। जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी पराधीनता व्यक्ति की परतंत्रता की पहली सीढ़ी होती है। ऐसे ही स्वतंत्र राष्ट्र की सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्ति का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता तथा विकास के लिए काम करने की भावना ‘राष्ट्रीयता’ कहलाती है।

जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से धर्म, जाति, कुल आदि के आधार पर व्यवहार करता है तो उसकी दृष्टि संकुचित हो जाती है। राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है-देश को प्राथमिकता, भले ही हमें ‘स्व’ को मिटाना पड़े। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचंद्र बोस आदि के कार्यों से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े किंतु वे अपने निश्चय में अटल रहे। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए पारस्परिक सभी सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ राष्ट्रीय कही जा सकती हैं।

जब-जब भारत में फूट पड़ी, तब-तब विदेशियों ने शासन किया। चाहे जातिगत भेदभाव हो या भाषागत-तीसरा व्यक्ति उससे लाभ उठाने का अवश्य यत्न करेगा। आज देश में अनेक प्रकार के आदोलन चल रहे हैं। कहीं भाषा को लेकर संघर्ष हो रहा है तो कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर लोगों को निकाला जा रहा है जिसका परिणाम हमारे सामने है। आदमी अपने अह में सिमटता जा रहा है। फलस्वरूप राष्ट्रीय बोध का अभाव परिलक्षित हो रहा है।

प्रश्न –

(क) गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) ‘अस्तित्व’ एवं ‘अनिवार्य’ से प्रत्यय और उपसर्ग छाँटकर लिखिए।
(ग) “जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से धर्म, जाति, कुल आदि के आधार पर व्यवहार करता है तो उसकी दृष्टि संकुचित हो जाती है।” रचना के आधार पर वाक्य का प्रकार लिखिए।
(घ) ‘स्व’ से क्या तात्पर्य है? उसे मिटाना क्यों आवश्यक है?
(ड) आशय स्पष्ट कीजिए-“राष्ट्र केवल जमीन का टुकड़ा ही नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत भी है।”
(च) ‘राष्ट्रीयता’ से लेखक का क्या आशय है? गद्यांश में चर्चित दो राष्ट्रभक्तों के नाम लिखिए।
(छ) राष्ट्रीय बोध का अभाव किन-किन रूपों में दिखाई देता है?
(ज) राष्ट्र के उत्थान में व्यक्ति का क्या स्थान है? उदाहरण सहित लिखिए।
(झ) व्यक्तिगत स्वार्थ एवं राष्ट्रीय भावना परस्पर विरोधी तत्व हैं। कैसे? तर्क सहित उत्तर लिखिए।

उत्तर –

(क) शीर्षक-राष्ट्रीयता की भावना।
(ख) अस्तित्व—त्व (प्रत्यय)
अनिवार्य-अ (उपसर्ग)
(ग) मिश्र वाक्य।
(घ) ‘स्व’ का अर्थ है-स्वार्थ की भावना अर्थात् अपना हित पूरा करने में लगा रहना, जिसके कारण व्यक्ति दूसरों के हित के बारे में नहीं सोच पाता। इसे मिटाना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इसके कारण हम अन्य व्यक्तियों, समाज तथा राष्ट्र के हित के लिए कुछ नहीं सोच पाते और संकुचित दृष्टिकोण बना लेते हैं।
(ड) आशय-हमारा राष्ट्र, हम जहाँ रहते हैं, केवल जमीन का टुकड़ा भर नहीं है, बल्कि इससे हमारा पोषण होता है। यहाँ की परंपरा, रीति-रिवाज, मान्यताएँ सब हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। इन परंपराओं में हजारों वर्ष का अनुभव छिपा होता है। यह हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग भी होता है।
(च) ‘राष्ट्रीयता’ से लेखक का आशय है-जाति, धर्म, प्रांतीयता, भाषा आदि की सीमा संबंधी बाधाओं से ऊपर उठकर कार्य करना तथा राष्ट्रहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देना। गद्यांश में आए दो चर्चित देशभक्त हैं-

  1. महात्मा गांधी,
  2. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक।

(छ) राष्ट्रीय बोध का अभाव हमें अनेक रूपों में दिखाई देता है; जैसे

  1. किसी दूसरे व्यक्ति से उसके धर्म, जाति, कुल, भाषा के आधार पर व्यवहार करना।
  2. क्षेत्रीयता, सांप्रदायिकता जैसी कट्टरता रखना तथा अपने प्रांत, धर्म, संप्रदाय को सर्वोपरि समझते हुए दूसरे के प्रांत, धर्म, संप्रदाय को हीन समझना।

(ज) राष्ट्र के उत्थान में व्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है। व्यक्ति यदि अपने ‘स्व’ को मिटाकर देशहित को प्राथमिकता दे, दूसरे व्यक्ति के धर्म, भाषा, जाति, संप्रदाय का आदर करे और क्षेत्र के नाम पर मरने-मिटने की संकीर्ण भावना का त्याग कर दे तो राष्ट्र में सुख-शांति, भाई-चारा, सद्भाव बढ़ जाएगा और संघर्ष समाप्त होगा जिससे राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर हो जाएगा।
(झ) व्यक्तिगत स्वार्थ के वशीभूत होकर व्यक्ति ‘स्व’ की भावना से काम करता है। उसे अपना प्रांत, अपनी भाषा, धर्म नीतियाँ आदि के सामने दूसरे का कुछ हीन नजर आने लगता है। उसका दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। उसके विपरीति राष्ट्रीयता, राष्ट्र के सभी लोगों के धर्म, जाति, भाषा क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर कार्य करने का नाम है। इस प्रकार दोनों परस्पर विरोधी तत्व हैं।

स्वयं करें

निम्नलिखित गदयांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

1. ‘अनुशासन’ का अर्थ है-अपने को कुछ नियमों से बाँध लेना और उन्हीं के अनुसार कार्य करना। कुछ व्यक्ति अनुशासन की व्याख्या ‘शासन का अनुगमन’ करने के अर्थ में करते हैं, परंतु यह अनुशासन का संकुचित अर्थ है। व्यापक रूप में अनुशासन सुव्यवस्थित ढंग से उन आधारभूत नियमों का पालन ही है, जिनके द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के मार्ग में बाधक बने बिना व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सके।

अनुशासन में रहने का भी एक आनंद है, लेकिन आज व्यक्तियों में अनुशासनहीनता की भावना बढ़ रही है। समाचार-पत्रों में हमेशा यही पढ़ने को मिलता है कि आज अमुक नगर में दस दुकानें लूटी गई, बसों में आग लगा दी गई, दो गिरोहों में लाठियाँ चल गई आदि। ये बातें आए दिन पढ़ने को मिलती हैं। यदि किसी भी कर्मचारी को कोई गलत काम करने से रोका जाए, तो वह अपने साथियों से मिलकर काम बंद करा देगा। बहुत दिनों तक हड़तालें चलती रहेंगी। कारखानों और कार्यालयों में काम बंद हो जाएगा।

अनुशासन के अभाव में समाज में अराजकता और अशांति का साम्राज्य होता है। वन्य पशुओं में अनुशासन का कोई महत्व नहीं है, इसी कारण उनका जीवन अरक्षित, आतंकित एवं अव्यवस्थित रहता है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ जीवन में अनुशासन का महत्व भी बढ़ता गया। आज के वैज्ञानिक युग में तो अनुशासन के बिना मनुष्य का कार्य ही नहीं हो सकता। कुछ व्यक्ति सोचते हैं कि अब मानव सभ्य और शिक्षित हो गया है, उस पर किसी भी प्रकार के नियमों का बंधन नहीं होना चाहिए।

वह स्वतंत्र रूप से जो भी करे, उसे करने देना चाहिए। लेकिन यदि व्यक्ति को यह अधिकार दिया जाए तो चारों तरफ वन्य जीवन जैसी अव्यवस्था आ जाएगी। मानव, मानव ही है, देवता नहीं। उसमें सुप्रवृत्तियाँ और कुप्रवृत्तियाँ दोनों ही होती हैं। मानव सभ्य तभी तक रहता है, जब तक वह अपनी सुप्रवृत्तियों की आज्ञा के अनुसार कार्य करे। इसलिए मानव के पूर्ण विकास के लिए कुछ बंधनों और नियमों का होना आवश्यक है।

अनुशासनबद्धता मानव-जीवन के मार्ग में बाधक नहीं, अपितु उसको पूर्ण उन्नति तक पहुँचाने के लिए अनुकूल अवसर प्रदान करती है। अनुशासन के बिना तो मानव-जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

विद्यार्थी जीवन में तो अनुशासन का बहुत महत्व है। आज अनुशासनहीनता के कारण साल में छह महीने विश्वविद्यालयों में हड़तालें हो जाती हैं। तोड़-फोड़ करना तो विद्यार्थी का कर्तव्य बन गया है। छोटी-छोटी बातों में मारपीट हो जाती है।अत: हर मनुष्य का कर्तव्य है कि अनुशासन का उल्लंघन न करे। यह विचित्र होते हुए भी कितना सत्य है कि अनुशासन एक प्रकार का बंधन है, परंतु मनुष्य को स्वच्छद रूप से अपने अधिकारों का पूरा सदुपूयोग करने का अवसर भी प्रदान करता है। वह एक ओर बंधन है, तो दूसरी ओर मुक्ति भी।

प्रश्न –

(क) मानव-विकास के लिए अनुशासन क्यों आवश्यक है?
(ख) वन्य जीव असुरक्षित क्यों होते हैं? इसका क्या परिणाम होता है?
(ग) विद्यार्थी-जीवन में अनुशासन का महत्व क्यों है?
(घ) “अनुशासनहीनता देश की प्रगति में बाधक सिद्ध होती है।” स्पष्ट कीजिए।
(ड) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(च) “मानव, मानव ही है, देवता नहीं।” स्पष्ट कीजिए।
(छ) ‘अनुशासन एक ओर बंधन है, तो दूसरी ओर मुक्ति।।” स्पष्ट कीजिए।
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. “अनुशासन के अभाव में समाज में अराजकता और अशांति का साम्राज्य होता है।” मिश्र वाक्य में बदलिए।
  2. विलोम शब्द लिखिए-बंधन, शिक्षित। .

2. ‘हम कमजोर वर्गों का उत्थान करना चाहते हैं। इसके लिए हम कुछ विशेष योजनाएँ बनाएँ। उन योजनाओं के कार्यान्वयन से उनकी हालत सुधर जाएगी।’ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘करो पहिले, कहो पीछे’ वाले आहवान को ताक पर रखकर दिए जाने वाले ऐसे आश्वासन पिछले सात दशकों से हम हर सत्ताधारी पार्टी के कर्णधारों के मुँह से सुनते आ रहे हैं।

हर पार्टी ने अपने शासनकाल में कई प्रकार के बहुसूत्रीय कार्यक्रम भी बनाए, जिनके तहत करोड़ों रुपये का प्रावधान किया गया। सरकार स्वयं जानती है कि ऐसी रकम का बहुत थोड़ा अंश कमजोर वर्गों तक पहुँच पाता है। शेष रकम बीच में मध्यस्थ राजनेताओं, ठेकेदारों और हाकिमों की जेब में चली जाती है। जैसे जीर्ण पाइप लाइन से बहता पानी बीच-बीच में छेदों से होकर चू जाता है।

पूर्व प्रधानमंत्रियों और अन्य कर्णधारों के नामों पर चलाई गई इन महत्वाकांक्षी योजनाओं के कार्यान्वयन के बाद भी हमारे समाज के कमजोर वगों के सदस्यों की निरंतर वृद्ध ही होती आ रही है, कमी नहीं। वे गरीबी की रेखा से नीचे धंसे जा रहे हैं, उभरते नहीं।

‘कमजोर’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है, कम जोर। यानी जिस वर्ग के सदस्यों में जोर कम है, वह वर्ग कमजोर परिवार और समूह नए ढंग से विद्योपार्जन से विमुख रहे हैं या विद्या से वंचित रह गए हैं, वे नीचे गिरते गए हैं, भले ही उन्होंने किसी सीधे या कुत्सित मार्ग से थोड़ा-बहुत धन अर्जित किया हो। विद्याविहीन के हाथ आया धन वैसे ही निरुपयोगी है, जैसे बंदर के हाथ आया पुष्पहार।

इसलिए जो भी राजनीतिक दल भारतीय समाज के कमजोर वर्ग में उत्थान की शक्ति भर देना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि जहाँ आवश्यक व संभव हो, उदारमना उद्योगपतियों और औद्योगिक उपक्रमों का यथोचित सहयोग लेते हुए ऐसा वातावरण बनाएँ, जिससे कमजोर वर्ग का हर बालक-बालिका, हर किशोर अपनी बौद्धक क्षमता के अनुरूप, अपनी जन्मजात रुचि के अनुरूप कोई-न-कोई जीवनोपयोगी विद्या अर्जित कर सके। ‘विदयाधनं सर्वधनात् प्रधानम्’ जीवन भर सीखते रहने की अभिलाषा पा सके।

विद्योपार्जन के लिए अक्षर ज्ञान अनिवार्य है या नहीं? इस पर शिक्षाविदों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि बिना अक्षरज्ञान पाए भी ज्ञान-ग्रहण किया जा सकता है। वे कबीर जैसे ज्ञानियों का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने कलम-दवात हाथ से छुए बिना उच्च कोटि का ज्ञान पाया। पर ये तो कुछ अपवाद मात्र हैं। साधारण नियम नहीं। अक्षर को ज्ञान-भंडार की कुंजी मानते हैं तो कमजोर वर्गों का उत्थान करने की इच्छा रखने वाले राजनैतिक ऐसी योजनाएँ बनाएँ, जो कमजोर वर्ग को निरक्षरता से और अशिक्षा से मुक्त कर सकें।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) नेताओं के कौन-से आश्वासन लोग सुनते आ रहे हैं? इन नेताओं और गांधी जी की कार्यशैली में क्या अंतर था?
(ग) जनता के विकास के लिए जारी पैसा सही रूप में जनकल्याण के कार्य में क्यों नहीं लग पाता?
(घ) महत्वाकांक्षी योजनाएँ गरीबों के उत्थान में कितनी कारगर सिद्ध हुई?
(ड) ‘विद्याधन सर्वधनात् प्रधानम्’ का अर्थ बताइए तथा जीवन के लिए इसकी उपयोगिता लिखिए।
(च) गद्यांश में ‘पूँजी’ किसे कहा गया है? कमजोर वर्गों का उत्थान करने में आप इसे कितना सहायक मानते हैं?
(छ) राजनीतिक दल समाज के कमजोर वर्गों का उत्थान कैसे कर सकते हैं? इस वर्ग के लिए योजनाएँ बनाते समय क्या ध्यान रखना चाहिए?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. पर्याय लिखिए-हाकिम, उदारमना।
  2. “जीर्ण पाइप लाइन से बहता पानी बीच-बीच में छेदों से होकर चू जाता है” मिश्र वाक्य में बदलिए।

3. मुझे लगता है ‘बरसात’ के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था, तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट-संगीत में अपना जमाना था। परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दिखपड़ते हैं। जैसे प्रसिद्ध सितारवादक विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत आगे निकल गए।

मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारण चित्रपट-संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दिखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है, वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता, तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता।

लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चारण। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों की आस द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक-दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना कठिन है, परंतु लता के साथ यह बात अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है।

ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे खुद यह बात नहीं जैचती। मेरा अपना मत है कि लता ने करुण रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है। बजाय इसके, मुग्ध श्रृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय के गाने लता ने बड़ी उत्कटता से गाए हैं। मेरी दृष्टि से उसके गायन में एक और कमी है, तथापि यह कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना। लता का गाना सामान्यत: ऊँची पट्टी में रहता है। गाने में संगीत दिग्दर्शक लता से अधिकाधिक ऊँची पट्टी में गवाते हैं और इससे अकारण ही चिल्लवाते हैं।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) ‘कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दिखते हैं।” लेखक ने चमत्कार किसे कहा है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
(ग) चित्रपट-संगीत की दुनिया में लता का योगदान स्पष्ट कीजिए।
(घ) लता के गाने की विशेषताएँ गद्यांश के आधार पर लिखिए।
(ड) लेखक को लता के गायन में कौन-सी विशिष्टता और कौन-सी कमजोरी नजर आती है? लिखिए।
(च) लता के गानों पर क्या दोष लगाया जाता है? लेखक उनका खंडन कैसे करता है?
(छ) लेखक संगीत निर्देशक होता, तो क्या करता? और क्यों?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. पित होता है कि शेंगें शद विलोनहते हो एक दूसे में लिजते हैं-उपवाक्य औरउक बताइए।
  2. उपसर्ग/प्रत्यय पृथक करके मूल शब्द लिखिए-निर्मलता, अत्यंत।

4. एक ओर नारी उत्पीड़न को रोकने के उद्देश्य से नए कानून बनाए जा रहे हैं। दूसरी ओर नारी उत्पीड़न की अत्यंत क्रूर घटनाओं का खुलासा होता जा रहा है। अभी की बात है, केरल की ‘संध्या’ नामक सत्रह-वर्षीय टेलीविजन सीरियलों एवं विज्ञापन अभिनेत्री के साथ हुए उत्पीड़नकी करुण कथा मलयालम समाचार-पत्र ‘मातृभूमि’ के कुछ अंकों में आई है। समाचारों का संक्षेप यही है कि संध्या एक हफ़्ते पूर्व घर से गायब हो गई थी। उससे विवाह करने का वचन देकर कोई युवक उसे भगा ले गया था।

रास्ते में उसे कई स्थानों पर पुरुषों का उत्पीड़न सहना पड़ा। पुलिस ने कुछ व्यक्तियों से पूछताछ की, पर अपराधियों को पकड़ नहीं पाई। लड़की ने संत्रस्त होकर अपने ही घर में खुदकुशी कर डाली। स्थानीय नेताओं ने माँग की कि चूँकि उसकी मृत्यु संदेहास्पद परिस्थिति में हुई है, इसलिए इस घटना की जाँच की जानी चाहिए। राज्य सरकार ने क्राइम ब्रांच द्वारा घटना की जाँच कराने का निर्णय लिया है।

अब विस्तार से जाँच होगी। संभव है, अपराधियों को कैद करने में पुलिस कामयाब होगी। यह भी संभव है कि यदि अपराधियों में कोई राजनेता या अन्य वी०आई०पी० भी जुड़े हों, तो जाँच-कर्मियों को पूरी सफलता न मिले। जो भी हो सत्रह वर्ष की छोटी आयु में ही एक भारतीय नारी को पुरुषों के क्रूर उत्पीड़नों के कारण अपनी जीवनलीला समाप्त करनी पड़ी। यह हमारे लिए शर्म और ग्लानि की बात है।

इस प्रकरण को एक दूसरी दृष्टि से भी देखने का प्रयत्न करें। हमारे समाज में कन्याओं के विवाह के लिए अठारह वर्ष की आयु ही उचित मानी जाती है। उससे पहले विवाह करना शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से और सामाजिक हित की दृष्टि से आपत्तिजनक माना जाता है। ऐसी स्थिति में सत्रह वर्ष की एक कन्या के मन में विवाह का मोह उत्पन्न हो जाए और विवाह का वचन मात्र मिलने पर, विवाह के पूर्व किसी पुरुष के साथ घर से निकल पड़ने के लिए प्रेरित हो जाए, तो इसके लिए हम किसे दोषी ठहराएँ?

क्या हमारा समाज बालिकाओं को उचित जीवन-मूल्यों का संदेश देने में असफल हो रहा है? अब इसी मामले पर एक और दृष्टि से भी विचार करें। क्या हमारी औपचारिक शिक्षा हमारी किशोरियों में कोई ऐसा मूल्य स्थापित करती है, जो उन्हें इस प्रकार के प्रलोभन में फस जाने के लिए प्रेरित करता है?

इसी उधेड़बुन में मैंने एक कहानी-संग्रह पढ़ना प्रारंभ किया। कहानी-संग्रह का नाम है ‘कथा धारा’ जो यशस्वी कथाकार मार्कडेय द्वारा संपादित है और केरल विश्वविद्यालय की बी०ए० परीक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।

उसमें संकलित एक कहानी पर मेरी नजर पड़ी। शीर्षक है-‘यही सच है”। लेखिका हैं-मन्नू भंडारी। कहानी की नायिका दीपा एक शोध छात्रा है, जो अपने नए प्रेमी संजय के बारे में सोचती है-“संजय अपने बताए हुए समय से घंटे दो घंटे देरी करके आता है …….उसी क्षण से प्रतीक्षा करने लगती हूँ……… किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाती ’ संजय, विवाह के पहले कोई लड़की किसी को इन सबका अधिकार नहीं देती………पर मैंने दिया…….तुम्हारा मेरा प्यार ही सच है……..वही नायिका कुछ ही दिन बाद अपने पुराने प्रेमी निशीथ के साथ टैक्सी में यात्रा करती है तो सोचती है–”जितनी द्रुत गुी टैक्स चीज रहा है मुनेलता हैउन द्वागत से मैंभ बीज रहा हैं.अनुक्त अवात दियाओं की ओर।
” तो यह भी सच है कि ऐसी पाठ्य-सामग्री हमारी किशोरियों को अवांछित दिशा की ओर खींच सकती है।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) ‘मातृभूमि’ क्या है? उसमें किसका जिक्र है?
(ग) शिक्षा और मूल्यों में क्या संबंध हैं? हमारी शिक्षा इसमें कितनी सफल हो रही है?
(घ) क्राइम ब्रांच द्वारा जाँच कराने के निर्णय से भी लेखिका के मन में क्या-क्या आशंकाएँ उठ रही हैं और क्यों?
(ड) भारतीय समाज में कन्या के विवाह की आयु 18 वर्ष क्यों मानी गई है?
(च) जाँचकर्मियों की जाँच की राह में कौन-कौन-सी बाधाएँ आती हैं?
(छ) ‘यही सच है” जैसी कहानियाँ किशोर छात्र-छात्राओं के पाठ्यक्रम हेतु आप कितना उपयुक्त समझते हैं? अपने विचार लिखिए।
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. “ऐसी पाठ्य-सामग्री हमारी किशोरियों को अवांछित दिशा की ओर खींच सकती है।”-मिश्र वाक्य में बदलिए।
  2. पर्यायवाची लिखिए-निशीथ, संत्रस्त। .

5. परिश्रम को सफलता की कुंजी माना गया है। जीवन में सफलता पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है। कहा भी है-उद्योगी पुरुषसिंह को लक्ष्मी वरण करती है। जो भाग्यवादी हैं, उन्हें कुछ नहीं मिलता। वे हाथ-पर-हाथ धरे रह जाते हैं। अवसर उनके सामने से निकल जाता है। भाग्य कठिन परिश्रम का ही दूसरा नाम है।

प्रकृति को ही देखिए। सारे जड़-चेतन अपने कार्य में लगे रहते हैं। चींटी को भी पल-भर चैन नहीं। मधुमक्खी जाने कितनी लंबी यात्रा कर बूंद-बूंद मधु जुटाती है। मुरगे को सुबह बाँग लगानी ही है। फिर मनुष्य को बुद्ध मिली है, विवेक मिला है। वह निठल्ला बैठे, तो सफलता की कामना करना व्यर्थ है।

विश्व में जो देश आगे बढ़े हैं, उनकी सफलता का रहस्य कठिन परिश्रम ही है। जापान को दूसरे विश्व-युद्ध में मिट्टी में मिला दिया गया था। उसकी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। दिन-रात जी-तोड़ श्रम करके वह पुन: विश्व का प्रमुख औद्योगिक देश बन गया। चीन को शोषण से मुक्ति भारत से देर में मिली, वह भी श्रम के बल पर आज भारत से आगे निकल गया है। जर्मनी ने भी युद्ध की विभीषिकाएँ झेलीं, पर श्रम के बल पर सँभल गया। परिश्रम का महत्व वे जानते हैं, जो स्वयं अपने बल पर आगे बढ़े हैं। संसार के अनेक महापुरुष परिश्रम के प्रमाण हैं। कालिदास, तुलसी, टैगोर और गोकीं परिश्रम से ही अमर हुए। संसार के इतिहास में अनेक चमकते सितारे केवल परिश्रम के ही प्रमाण हैं।

बड़े-बड़े धन-कुबेर निरंतर श्रम से ही असीम संपत्ति के स्वामी बने हैं। फ़ोर्ड साधारण मैकेनिक था। धीरू भाई अंबानी शिक्षक थे। लगन और दृढ़ संकल्प परिश्रम को सार्थक बना देते हैं। गरीबी के साथ परिश्रम जुड़ जाए, तो सफलता मिलती है और अमीरी के साथ श्रमहीनता या निठल्लापन आ जाए, तो असफलता मुँह बाये खड़ी रहती है।

भारतीय कृषक के परिश्रम का ही फल है कि देश में हरित क्रांति हुई। अमेरिका के सड़े गेहूँ से पेट भरने वाला देश आज गेहूँ का निर्यात कर रहा है। कल-कारखाने रात-दिन उत्पादन कर रहे हैं। हमारे वस्त्र के बाजारों में . बिकते हैं। उन्नत औद्योगिक देश भी हमसे वैज्ञानिक उपकरण खरीद रहे हैं। किसी क्षेत्र में हम पिछड़े हैं, तो उसका कारण है, यहाँ परिश्रम का अभाव। विद्यार्थी जीवन तो परिश्रम की पहली पाठशाला है। यहाँ से परिश्रम की आदत पड़ जाए तो ठीक, अन्यथा जाने कहाँ-कहाँ की ठोकरें खानी पड़े। एडीसन से किसी ने कहा-आपकी सफलता का कारण आपकी प्रतिभा है। एडीसन ने झटपट सुधारा-प्रतिभा के माने एक औस बुद्ध और एक टन परिश्रम।

प्रश्न –

(क) परिश्रम के संदर्भ में प्रकृति से कौन-कौन-से उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं?
(ख) परिश्रम के बल पर कौन-कौन-से देश किस प्रकार आगे बढ़ गए हैं?
(ग) भारत किस प्रकार उन्नति कर रहा है?
(घ) परिश्रम द्वारा विद्यार्थी किस प्रकार सफलता प्राप्त कर सकता है?
(ड) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(च) ‘भाग्य कठिन परिश्रम का दूसरा नाम है।”-स्पष्ट कीजिए।
(छ) एडीसन ने अपनी सफलता का श्रेय किसे दिया और कैसे?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. श्रमहीनता, औद्योगिक-इन शब्दों के मूल शब्द और प्रत्यय अलग-अलग लिखिए।
  2. विलोम बताइए—भाग्यवादी, कठिन।

6. तेजी से बदलते हुए हमारे जीवन-मूल्यों का एक दुखद परिणाम यह है कि यदि बस में कोई बूढ़ा किसी-न-किसी प्रकार धक्का खाकर चढ़ भी जाए, तो किसी सीट पर बैठ नहीं पाएगा। करीब आधी से अधिक सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। उन सीटों पर तो उनका मौलिक अधिकार है ही, पर शेष सीटों पर भी वे कब्जा कर लेती हैं। बची-खुची सारी सीटों पर या तो किशोर छात्राएँ या युवक और मध्य वयस्क यात्री अपना अधिकार जमा लेंगे। बेचारे बूढ़ों को खड़े-खड़े यात्रा करनी होगी।

केरल जैसे कुछ राज्यों में हर बस में बाई तरफ की एक सीट विकलांग लोगों के लिए आरक्षित होती है और एक सीट सीनियर सिटीजन के लिए। कोई विकलांग यात्री आ जाए, तो कंडक्टर आरक्षित सीट पर उसे तुरंत बैठा लेगा। पर कोई बूढ़ा यात्री आ जाए, तो कंडक्टर अनदेखी करता है। बूढ़ों के लिए आरक्षित सीट पर बैठा किशोर या युवक हटने का नाम भी नहीं लेता।

अभी हाल ही की बात है। सुबह आठ बजे मैं घर से निकला। एक पुस्तक खरीदने रेलवे स्टेशन के पास तक बस से जाना था। डीजल-पेट्रोल के दाम में हुई वृद्ध के अनुपात में बस-भाड़े में वृद्ध करने की माँग को लेकर निजी बस सेवाएँ हड़ताल पर थीं। अत: सरकारी परिवहन निगम की बसों में यात्रियों की भरमार थी।

घर के निकट के बस स्टॉप पर आधे घंटे तक इंतजार करने पर भी मैं किसी बस में चढ़ नहीं पाया। सभी के दरवाजों से छात्र लटके हुए जा रहे थे। फिर एक किलोमीटर चलकर दूसरे बस डिपो पहुँचा। वहाँ भी यात्रियों की बड़ी भीड़ थी। किसी-न-किसी तरह एक बस में घुस गया। पिछले आधे भाग में स्त्रियाँ बैठी थीं और अगले भाग में किशोर युवक और मध्य वयस्क पुरुष। बूढ़ों के लिए आरक्षित सीट पर एक हट्टा-कट्टा जवान बैठा था। देखते-देखते यात्री इतने घुस आए कि खड़े रहने तक की जगह नहीं मिल रही थी। बस चलने लगी तो मुझे लगा कि साँस लेना भी कठिन लग रहा है। मैं यात्रियों से बुरी तरह घिर गया था।

मेरा सिर पसीने से तर होने लगा। लगा कि मेरी सारी मांसपेशियाँ शिथिल हो रही हैं। हथेलियाँ ठडी हो रही थीं। मेरे बाएँ हाथ में एक थैला था। वह हाथ से छूट गया। मुझे लगा कि मैं अब गिर जाऊँगा। एक महिला ने मेरी विवशता समझ ली और मुझे बैठने को थोड़ी जगह दी।

रेलवे स्टेशन का स्टॉप आ गया। मैं किसी प्रकार से उतर पड़ा। सामने जो पी०सी०ओ० था, उसके सामने पहुँचकर मैंने काउंटर पर बैठी महिला से अनुरोध किया-मुझे चक्कर आ रहा है। जरा फ़र्श पर लेटने दें। कहते-कहते मैं फ़र्श पर चित्त लेट गया। महिला घबरा गई और पास की दुकान से दो पुरुषों को बुला लिया। करीब दस मिनट तक मैं वैसे ही पड़ा रहा। सोचा-अंतिम घड़ी आ गई है। भगवान की कृपा से थोड़ी देर बाद मेरी शिथिलता जाती रही। मित्रो, बूढ़े यात्रियों को बस में बैठने दें, ताकि उन्हें मेरे जैसी विपदा न भोगनी पड़े।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) विकलांग और बूढ़ों के प्रति कंडक्टर का व्यवहार कैसा होता है?
(ग) लेखक को सरकारी बस में यात्रा क्यों करनी पड़ी? उसकी यह यात्रा कैसी रही?
(घ) बसों में बूढ़ों को खड़े-खड़े यात्रा क्यों करनी पड़ती है?
(ड) लेखक बस में चढ़ पाने में असमर्थ क्यों था? उसे सीट न मिल पाने से समाज की किस मानसिकता का बोध होता है?
(च) महिलाएँ बस में अपने मौलिक अधिकार का किस प्रकार दुरुपयोग करती हैं?
(छ) घबराई महिला ने पास की दुकान से लोगों को क्यों बुला लिया होगा?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. गद्यांश से एक मुहावरा छाँटकर अर्थ लिखिए और वाक्य-प्रयोग कीजिए।
  2. आरक्षित, मौलिक शब्दों में से उपसर्ग और प्रत्यय पृथक कीजिए तथा मूल शब्द लिखिए।

7. भारतीय समाज में नारी की स्थिति सचमुच विरोधाभासपूर्ण रही है। संस्कृति पक्ष से उसे ‘शक्ति’ माना गया है तो लोकपक्ष से उसे ‘अबला’ कहा गया है। सदियों के संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि उन्हें न तो कुछ वर्षों की शैक्षणिक प्रगति खोद सकती है, न कुछेक आंदोलनों से उन्हें हिलाया जा सकता है। अत: स्थिति पूर्ववत ही बनी रहती है। यह स्थिति कई मामलों में अब भी उलझी हुई है और दिशा अस्पष्ट है, क्योंकि यहाँ हर प्रश्न को पश्चिमी आईने में देखा गया।

तटस्थ समाजशास्त्रीय दृष्टि इस बारे में नहीं रही। हमारे यहाँ विभिन्न समाजों में स्त्रियों की स्थिति और प्रगति बहुत कुछ स्थानीय, सामुदायिक व जातीय परंपराओं पर आधारित है। एक ही धर्म और एक ही भौगोलिक स्थिति के भीतर (केरल में) कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में स्त्री ही मुखिया है और उसे अधिकार प्राप्त हैं, कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में भी उनका सम्मान नहीं रहा, तो कहीं पितृसत्तात्मक परिवार में भी उनकी स्थिति सम्मानजनक रही।

समाजशास्त्रीय दृष्टि इन विभिन्नताओं को रेखांकित करती है। हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हम पश्चिमी देशों के अंधानुकरण को अपनी प्रगति मान बैठे हैं। ‘वीमेंसलिब’ का अतिवाद पश्चिमी देशों को परिवारवाद की ओर लौटा रहा है। तीसरी दुनिया के हमारे जैसे देश बुनियादी समस्याएँ भूल आगे होकर उसी मुक्ति आंदोलन को अपनाने की होड़ में लगे हैं।

यह सब दिशाहीन यात्रा है। स्थानीय और राष्ट्रीय परंपराओं और स्थितियों के अनुरूप कोई लक्ष्य, कोई स्पष्ट दिशा निर्धारित किए बिना, बिना इस बात पर गंभीरता से विचार किए कि ‘स्त्रीवाद’ का अर्थ परिवार तोड़ना या सामाजिक विघटन लाना नहीं है और न ही आजाद होने का मतलब यह है कि औरत औरत न रहे, हम अपने यहाँ इस आदोलन को चला रहे हैं।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) भारत में नारी की स्थिति में सुधार क्यों नहीं हो पाया?
(ग) हमारे देश में नारी मुक्ति आंदोलन की दिशा अभी तक स्पष्ट क्यों नहीं हो पाई?
(घ) समाज में नारी की स्थिति सुधारने के लिए जो-जो आंदोलन चलाए जा रहे हैं, उनमें किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
(ड) “एक ही स्थिति में नारी की स्थितियाँ अलग-थलग हैं।”-स्पष्ट कीजिए।
(च) गद्यांश में दिशाहीन यात्रा किसे कहा गया है? और क्यों?
(छ) लेखक ने अपना दुर्भाग्य किसे कहा है, और क्यों?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. तटस्थ, आईना-पर्यायवाची लिखिए।
  2. स्थानीय, विघटन-विपरीतार्थक लिखिए। .

8. वीरता की अभिव्यक्ति अनेक प्रकार से होती है। लड़ना-मरना, खून बहाना, तोप-तलवार के सामने न झुकना ही नहीं, कर्ण की भाँति याचक को खाली हाथ न लौटाना या बुद्ध की भाँति गूढ़ तत्वों की खोज में सांसारिक सुख त्याग देना भी वीरता ही है। वीरता तो एक अंत:प्रेरणा है। वीरता देश-काल के अनुसार संसार में जब भी प्रकट हुई, तभी अपना एक नया रूप लेकर आई और लोगों को चकित कर गई। वीर कारखानों में नहीं ढलते, न खेतों में उगाए जाते हैं। वे तो देवदार के वृक्ष के समान जीवन रूपी वन में स्वयं उगते हैं, बिना किसी के पानी दिए, बिना किसी के दूध पिलाए बढ़ते हैं। वीर का दिल सबका दिल और उसके विचार सबके विचार हो जाते हैं। उसके संकल्प सबके संकल्प हो जाते हैं। औरतों और समाज का हृदय वीर के हृदय में धड़कता है।

प्रश्न –

(क) वीरता की अभिव्यक्ति किन-किन रूपों में हो सकती है?
(ख) आशय स्पष्ट कीजिए-‘वीर कारखानों में नहीं ढलते।”
(ग) वीरों की तुलना देवदार के वृक्ष से क्यों की गई है?
(घ) गद्यांश में कर्ण और बुद्ध का उल्लेख क्यों किया गया है?
(ड) गद्यांश में स्थापित मानदंडों के आधार पर क्या गांधी जी को वीर माना जा सकता है? पक्ष या विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
(च) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(छ) वीर के संकल्प सबके संकल्प क्यों बन जाते हैं?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. पर्यायवाची बताइए-याचक, गूढ़।
  2. ‘विचार, और हृदय’ शब्दों में ‘इक’ प्रत्यय लगाकर शब्द बनाइए।

9. संसार में दो अचूक शक्तियाँ हैं-वाणी और कर्म। कुछ लोग वचन से संसार को राह दिखाते हैं और कुछ लोग कर्म से। शब्द और आचार दोनों ही महान शक्तियाँ हैं। शब्द की महिमा अपार है। विश्व में साहित्य, कला, विज्ञान, शास्त्र सब शब्द-शक्ति के प्रतीक प्रमाण हैं। पर कोरे शब्द व्यर्थ होते हैं, जिनका आचरण न हो। कर्म के बिना वचन की, व्यवहार के बिना सिद्धांत की कोई सार्थकता नहीं है।

निस्संदेह शब्द-शक्ति महान है, पर चिरस्थायी और सनातनी शक्ति तो व्यवहार है। महात्मा गांधी ने इन दोनों की कठिन और अद्भुत साधना की थी। महात्मा जी का संपूर्ण जीवन इन्हीं दोनों से युक्त था। वे वाणी और व्यवहार में एक थे। जो कहते थे, वही करते थे। यही उनकी महानता का रहस्य है। कस्तूरबा ने शब्द की अपेक्षा कृति की उपासना की थी, क्योंकि कृति का उत्तम व चिरस्थायी प्रभाव होता है।

‘बा’ ने कोरी शाब्दिक, शास्त्रीय, सैद्धांतिक शब्दावली नहीं सीखी थी। वे तो कर्म की उपासिका थीं। उनका विश्वास शब्दों की अपेक्षा कमों में था। वे जो कहा करती थीं, उसे पूरा करती थीं। वे रचनात्मक कर्मों को प्रधानता देती थीं। इसी के बल पर उन्होंने अपने जीवन में सार्थकता और सफलता प्राप्त की थी।

प्रश्न –

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) सज्जन व्यक्ति संसार के लिए क्या-क्या करते हैं? और कैसे?
(ग) गांधी जी महान क्यों थे?
(घ) संसार की कौन-सी अचूक शक्तियाँ हैं? इनमें एक के बिना दूसरी अधूरी क्यों है?
(ड) कस्तूरबा के व्यक्तित्व की किन-किन विशेषताओं को आप अपनाना चाहेंगे?
(च) कस्तूरबा ने किसकी उपासना की और क्यों?
(छ) ‘कर्म के बिना वचन की, व्यवहार के बिना सिद्धांत की कोई सार्थकता नहीं है”-स्पष्ट कीजिए।
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. ‘साहित्य’ और ‘प्रमाण’ शब्दों के विशेषण बनाकर लिखिए।
  2. प्रत्यय बताइए-सार्थकता, शाब्दिक।

10. वैज्ञानिक प्रयोग की सफलता ने मनुष्य की बुद्ध का अपूर्व विकास कर दिया है। द्रवितीय महायुद्ध में एटम-बम की शक्ति ने कुछ क्षणों में ही जापान की अजेय शक्ति को पराजित कर दिया। इस शक्ति की युद्धकालीन सफलता ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी देशों को ऐसे शस्त्रास्त्रों के निर्माण की प्रेरणा दी कि सभी भयंकर और सर्वविनाशकारी शस्त्र बनाने लगे।

अब सेना को पराजित करने तथा शत्रु-देश पर पैदल सेना द्वारा आक्रमण करने के लिए शस्त्र-निर्माण के स्थान पर देश का विनाश करने की दिशा में शस्त्रास्त्र बनने लगे हैं। इन हथियारों का प्रयोग होने पर शत्रु-देशों की अधिकांश जनता और संपत्ति थोड़े समय में ही नष्ट की जा सकेगी। चूँकि ऐसे शस्त्रास्त्र प्राय: सभी स्वतंत्र देशों के संग्रहालयों में कुछ-न-कुछ आ गए हैं, अत: युद्ध की स्थिति में उनका प्रयोग भी अनिवार्य हो जाएगा।

अत: दुनिया का सर्वनाश या अधिकांश नाश, तो अवश्य हो ही जाएगा। इसीलिए नि:शस्त्रीकरण की योजनाएँ बन रही हैं। शस्त्रास्त्रों के निर्माण में जो दिशा अपनाई गई, उसी के अनुसार आज इतने उन्नत शस्त्रास्त्र बन गए हैं, जिनके प्रयोग से व्यापक विनाश आसन्न दिखाई पड़ता है। अब भी परीक्षणों की रोकथाम तथा बने शस्त्रों के प्रयोग को रोकने के मार्ग खोजे जा रहे हैं। इन प्रयासों के मूल में एक भयंकर आतंक और विश्व-विनाश का भय कार्य कर रहा है।

प्रश्न –

(क) इस गद्यांश का मूल कथ्य संक्षेप में लिखिए।
(ख) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ग) बड़े-बड़े देश आधुनिक विनाशकारी हथियार क्यों बना रहे हैं?
(घ) आधुनिक युद्ध भयंकर व विनाशकारी क्यों होते हैं?
(ड) ‘नि:शस्त्रीकरण’ से क्या तात्पर्य है? इसके लिए योजनाएँ क्यों बनाई जा रही हैं?
(च) एटम-बम के आविष्कार से विश्व-विनाश का भय दिखने लगा है। इसमें विज्ञान का कितना दोष है?
(छ) शस्त्रास्त्र निर्माता राष्ट्रों के दृष्टिकोण में अब क्या परिवर्तन आ गया है? इसके कारण क्या-क्या हैं?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

  1. “वैज्ञानिक प्रयोग की सफलता ने मनुष्य की बुद्ध का अपूर्व विकास कर दिया है।”-मिश्र वाक्य में परिवर्तित कीजिए।
  2. विलोम बताइए-विकास, अनिवार्य। ,·
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Chapter 4 डायरी के पन्ने | Ncert solution for class 12th hindi Vitan

डायरी के पन्ने Class 12 Hindi Vitan NCERT Books Solutions

अभ्यास-प्रश्न

प्रश्न 1. “यह साठ लाख लोगों की तरफ से बोलने वाली एक आवाज है। एक ऐसी आवाज, जो किसी संत या कवि की नहीं, बल्कि एक साधारण लड़की की है।” इल्या इहरनबुर्ग की इस टिप्पणी के सन्दर्भ में ऐनी फ्रैंक की डायरी के पठित अंशो पर विचार करें।

ऐनी फ्रैंक की डायरी में उनके निजी जीवन का वर्णन नहीं किया गया है बल्कि साठ लाख यहूदियों पर अत्याचार किए गए थे; उनकी यह जीती जागती कहानी हैं। यह लड़की न तो कोई संत थी, न ही कोई कवि; बल्कि हिटलर के अत्याचारों द्वारा भूमिगत रहने वाले परिवार की एक आम सदस्य थी। उस समय यहूदी लोग फटे पुराने कपड़े और घिसे पिटे जूते पहनकर समय काट रहे थे। राशन की बहुत कमी रहती थी और बिजली का कोटा निर्धारित था। जब कोई हवाई आक्रमण होता था तो बेचारे कांप जाते थे। इसलिए यह कहना उचित है कि डायरी के पन्ने में वर्णित कहानी किसी एक परिवार की नहीं बल्कि साठ लाख लोगों की कहानी है।

प्रश्न 2. “काश, कोई तो होता जो मेरी भावनाओं को गंभीरता से समझ पाता। अफसोस, ऐसा व्यक्ति मुझे अब तक नहीं मिला-।” क्या आपको लगता है कि एन के इस कथन में आप उसके डायरी लेखन का कारण छिपा है?

यह सच्चाई है कि लेखक अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए कविता, कहानी या कोई लेख लिखता है। परंतु अगर उसे कोई गंभीर श्रोता नहीं मिले तो वह किसी कल्पित पात्र अथवा पाठकों के लिए अपनी अभिव्यक्ति करता है। ऐनी फ्रैंक के सामने भी यही स्थिति थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि भूमिगत आवास में क्या करें? वह बाहर की प्रकृति को देखना चाहती थी परंतु यह वर्जित था। उसकी भावनाओं को और उसकी बातों को सुनने वाला कोई नहीं था। इसलिए उसने अपने उद्गार इस डायरी में व्यक्त किए हैं।

प्रश्न 3. “प्रकृति-प्रदत-प्रजनन शक्ति के उपयोग का अधिकार बच्चे पैदा करें या न करें अथवा कितने बच्चे पैदा करें- इस की स्वतंत्रता स्त्री से छीनकर हमारी विश्व-व्यवस्था ने न सिर्फ स्त्री को व्यक्तित्व विकास के अनेक अवसरों से वंचित किया है बल्कि जनाधिक्य की समस्या भी पैदा की है।” ऐन की डायरी के 13 जून 1944 के अंश में व्यक्त विचारों के संदर्भ में इस कथन का औचित्य ढूँढें।

एन का विचार है कि पुरुष शारीरिक दृष्टि से सक्षम होता है और नारियाँ कमजोर होती है। इसलिए पुरुष नारियों पर शासन करते हैं। बच्चे को जन्म देते समय नारी जो पीड़ा व व्यथा भोगती है। वह युद्ध में घायल हुए सैनिकों से कम नहीं है। सच्चाई तो यह है कि नारी अपनी बेवकूफी के कारण अपमान व उपेक्षा को सहन करती रहती है। परंतु नारियों को समाज में उचित सम्मान मिलना चाहिए। उनका अभिप्राय यह नहीं है कि महिलाएँ बच्चों को जन्म देना बंद कर दे; प्रकृति चाहती है कि महिलाएँ बच्चों को जन्म दे। समाज में औरतों का योगदान विशेष महत्त्व रखता है अतः स्त्रियों को भी उचित सम्मान मिलना चाहिए।

प्रश्न 4. “ऐन की डायरी अगर एक ऐतिहासिक दौर का जीवंत दस्तावेज है तो साथ ही उसके निजी सुख-दुख और भावनात्मक उथल-पुथल का भी। इन पृष्ठों में दोनों का फर्क मिट गया है।” इस कथन पर विचार करते हुए अपनी सहमति और असहमति तर्कपूर्वक व्यक्त करें।

डायरी-लेखक जब अपने जीवन का वर्णन करता है तब वह अपने आसपास के वातावरण पर भी प्रकाश डालता है। एन एक सामान्य लड़की है। वह कोई साहित्यकार नहीं है। फिर भी उसने अपने निजी सुख-दुख और भावनात्मक उथल पुथल का संवेदनात्मक वर्णन किया है। वे भूमिगत होकर अभावमय और कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे थे। लेकिन एन तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करती है। जैसे अज्ञातवास जाने के कारण आवास में जर्मनों के डर के कारण दिन-रात अंधकार में छिपकर रहना, ब्रिटेन द्वारा हालैंड को मुक्त कराने का प्रयास करना, प्रतिदिन वायुयानों द्वारा बारूद की वर्षा करना आदि तत्कालीन ऐतिहासिक दौर के जीवंत दस्तावेज भी कहे जा सकते हैं। एन ने निजी जीवन की व्यथा के साथ-साथ ऐतिहासिक तथ्यों का यदा कदा वर्णन किया है जिससे दोनों का अंतर मिट गया है।

प्रश्न 5. ऐन ने अपनी डायरी ‘किट्टी’ (एक निर्जीव गुड़िया) को संबोधित चिट्ठी की शक्ल में लिखने की जरूरत क्यों महसूस की होगी?

आठ सदस्य अज्ञातवास में रह रहे हैं। इनमें से ऐनी सबसे छोटी आयु की लड़की थी। परंतु आठ सदस्यों में से कोई भी उसकी भावनाओं को नहीं समझता था। भूमिगत आवास में से बाहर निकलना संभव नहीं था। उसकी माँ केवल उपदेश देती थी। मिस्टर वानदान और मिसेज़ वानदान उसकी हर बात की नुक्ताचीनी करते रहते थे। यही बातचीत उसकी डायरी के पन्ने बन गए। किट्टी को संबोधित करके डायरी लिखना उसकी मजबूरी थी।

डायरी के पन्ने

अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1:

ऐन-फ्रैंक का परिवार सुरक्षित स्थान पर जाने से पहले किस मनोदशा से गुज़र रहा था और क्यों? ऐसी ही परिस्थितियों से आपको दो-चार होना पड़े तो आप क्या करेंगे?

उत्तर –

द्रवितीय विश्व-युद्ध के समय हॉलैंड के यहूदी परिवारों को जर्मनी के प्रभाव के कारण बहुत सारी अमानवीय यातनाएँ सहनी पड़ीं। लोग अपनी जान बचाने के लिए परेशान थे। ऐसे कठिन समय में जब ऐन फ्रैंक के पिता को ए०एस०ए० के मुख्यालय से बुलावा आया तो वहाँ के यातना शिविरों और काल-कोठरियों के दृश्य उन लोगों की आँखों के सामने तैर गए। ऐन फ्रैंक और उसका परिवार घर के किसी सदस्य को नियति के भरोसे छोड़ने के पक्ष में न था। वे सुरक्षित और गुप्त स्थान पर जाकर जर्मनी के शासकों के अत्याचार से बचना चाहते थे। उस समय ऐन के पिता यहूदी अस्पताल में किसी को देखने गए थे। उनके आने की प्रतीक्षा की घड़ियाँ लंबी होती जा रही थीं।

दरवाजे की घंटी बजते ही लगता था कि पता नहीं कौन आया होगा। वे भय एवं आतंक के डर से दरवाजा खोलने से पूर्व तय कर लेना चाहते थे कि कौन आया है? वे घंटी बजते ही दरवाजे से उचककर देखने का प्रयास करते कि पापा आ गए कि नहीं। इस प्रकार ऐन फ्रैंक का परिवार चिंता, भय और आतंक के साये में जी रहा था। यदि ऐसी ही परिस्थितियों से हमें दो-चार होना पड़ता तो मैं अपने परिवार वालों के साथ उस अचानक आई आपदा पर विचार करता और बड़ों की राय मानकर किसी सुरक्षित स्थान पर जाने का प्रयास करता। इस बीच सभी से धैर्य और साहस बनाए रखने का भी अनुरोध करता।

प्रश्न 2:

हिटलर ने यहूदियों को जातीय आधार पर निशाना बनाया। उसके इस कृत्य को आप कितना अनुचित मानते हैं? इस तरह का कृत्य मानवता पर क्या असर छोड़ता है? उसे रोकने के लिए आप क्या उपाय सुझाएँगे?

उत्तर –

हिटलर जर्मनी का क्रूर एवं अत्याचारी शासक था। उसने जर्मनी के यहूदियों को जातीयता के आधार पर निशाना बनाया। किसी जाति-विशेष को जातीय कारणों से ही निशाना बनाना अत्यंत निंदनीय कृत्य है। यह मानवता के प्रति अपराध है। इस घृणित एवं अमानवीय कृत्य को हर दशा में रोका जाना चाहिए, भले ही इसे रोकने के लिए समाज को अपनी कुर्बानी देनी पड़े। हिटलर जैसे अत्याचारी शासक मनुष्यता के लिए घातक हैं। इन लोगों पर यदि समय रहते अंकुश न लगाया गया तो लाखों लोग असमय और अकारण मारे जा सकते हैं। उसका यह कार्य मानवता का विनाश कर सकता है। अत: उसे रोकने के लिए नैतिक-अनैतिक हर प्रकार के हथकंडों का सहारा लिया जाना चाहिए। इस प्रकार के अत्याचार को रोकने के लिए मैं निम्नलिखित सुझाव देना चाहूँगा।

पीड़ित लोगों के साथ समस्या पर विचार-विमर्श करना चाहिए।

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हिंसा का जवाब हिंसा से देकर उसे शांत नहीं किया जा सकता, इसलिए इसका शांतिपूर्ण हल खोजने का प्रयास करना चाहिए।

अहिंसात्मक तरीके से काम न बनने पर ही हिंसा का मार्ग अपनाने के लिए लोगों से कहूँगा।

मैं लोगों से कहूँगा कि मृत्यु के डर से यूँ बैठने से अच्छा है, अत्याचारी लोगों से मुकाबला किया जाए। इसके लिए संगठित होकर मुकाबला करते हुए मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए।

हिंसा के खिलाफ़ विश्व जनमत तैयार करने का प्रयास करूंगा ताकि विश्व हिटलर जैसे अत्याचारी लोगों के खिलाफ़ हो जाए और उसकी निंदा करते हुए उसके कुशासन का अंत करने में मदद करे।

प्रश्न 3:

ऐन फ्रैंक ने यातना भरे अज्ञातवास के दिनों के अनुभव को डायरी में किस प्रकार व्यक्त किया है? आपके विचार से लोग डायरी क्यों लिखते हैं?

उत्तर –

द्रवितीय विश्व-युद्ध के समय जर्मनी ने यहूदी परिवारों को अकल्पनीय यातना सहन करनी पड़ी। उन्होंने उन दिनों नारकीय जीवन बिताया। वे अपनी जान बचाने के लिए छिपते फिरते रहे। ऐसे समय में दो यहूदी परिवारों को गुप्त आवास में छिपकर जीवन बिताना पड़ा। इन्हीं में से एक ऐन फ्रैंक का परिवार था। मुसीबत के इस समय में फ्रैंक के ऑफ़िस में काम करने वाले इसाई कर्मचारियों ने भरपूर मदद की थी। ऐन फ्रैंक ने गुप्त आवास में बिताए दो वर्षों के समय के जीवन को अपनी डायरी में लिपिबद्ध किया है। फ्रैंक की इस डायरी में भय, आतंक, भूख, प्यास, मानवीय संवेदनाएँ, घृणा, प्रेम, बढ़ती उम्र की पीड़ा, पकड़े जाने का डर, हवाई हमले का डर, बाहरी दुनिया से अलग-थलग रहकर जीने की पीड़ा, युद्ध की भयावह पीड़ा और अकेले जीने की व्यथा है।

इसके अलावा इसमें यहूदियों पर ढाए गए जुल्म और अत्याचार का वर्णन किया गया है। मेरे विचार से लोग डायरी इसलिए लिखते हैं क्योंकि जब उनके मन के भाव-विचार इतने प्रबल हो जाते हैं कि उन्हें दबाना कठिन हो जाता है और वे किसी कारण से दूसरे लोगों से मौखिक रूप में उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते तब वे एकांत में उन्हें लिपिबद्ध करते हैं। वे अपने दुख-सुख, व्यथा, उद्वेग आदि लिखने के लिए प्रेरित होते हैं। उस समय तो वे अपने दुख की अभिव्यक्ति और मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए लिखते हैं पर बाद में ये डायरियाँ महत्वपूर्ण दस्तावेज बन जाती हैं।

प्रश्न 4:

‘डायरी के पन्ने’ की युवा लेखिका ऐन फ्रैंक ने अपनी डायरी में किस प्रकार दवितीय विश्व-युद्ध में यहूदियों के उत्पीड़न को झेला? उसका जीवन किस प्रकार आपको भी डायरी लिखने की प्रेरणा देता है, लिखिए।

उत्तर –

ऐन फ्रैंक ने अपनी डायरी में इतिहास के सबसे दर्दनाक और भयप्रद अनुभव का वर्णन किया है। यह अनुभव उसने और उसके परिवार ने तब झेला जब हॉलैंड के यहूदी परिवारों को जर्मनी के प्रभाव के कारण अकल्पनीय यातनाएँ सहनी पड़ीं। ऐन और उसके परिवार के अलावा एक अन्य यहूदी परिवार ने गुप्त तहखाने में दो वर्ष से अधिक समय का अज्ञातवास बिताते हुए जीवन-रक्षा की। ऐन ने लिखा है कि 8 जुलाई, 1942 को उसकी बहन को ए०एस०एस० से बुलावा आया, जिसके बाद सभी गुप्त रूप से रहने की योजना बनाने लगे।

यह उनके जीवन कर । दिन में घर के परदे हटाकर बाहर नहीं देख सकते थे। रात होने पर ही वे अपने आस-पास के परदे देख सकते थे। वे ऊल-जुलूल हरकतें करके दिन बिताने पर विवश थे। ऐन ने पूरे डेढ़ वर्ष बाद रात में खिड़की खोलकर बादलों से लुका-छिपी करते हुए चाँद को देखा था। 4 अगस्त, 1944 को किसी की सूचना पर ये लोग पकड़े गए। सन 1945 में ऐन की अकाल मृत्यु हो गई। इस प्रकार उन्होंने यहूदियों के उत्पीड़न को झेला। ऐन फ्रैंक का जीवन हमें साहस बनाए रखते हुए जीने की प्रेरणा देता है और प्रेरित करता है कि अपने जीवन और आस-पास की घटनाओं को हम लिपिबद्ध करें।

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Chapter 3 अतीत में दबे पाँव | Ncert solution for class 12th hindi Vitan

अतीत में दबे पाँव Class 12 Hindi Vitan NCERT Books Solutions

अभ्यास-प्रश्न

प्रश्न 1. सिंधु-सभ्यता साधन-संपन्न थी, पर उसमें भव्यता का आडंबर नहीं था। कैसे?

सिंधु सभ्यता के नगर नियोजित था। यहाँ की खुदाई में मिले काँसे के बर्तन, चाक पर बने मिट्टी के बर्तन, उन पर की गई चित्रकारी, चौपड़ की गोटियाँ कंघी, तांबे का दर्पण, मनके के हार, सोने के आभूषण आदि यह सिद्ध करते हैं कि सिंधु सभ्यता साधन संपन्न थी। उनके भंडार हमेशा अनाज से भरे रहते थे। साधन संपन्न होने के बावजूद इस सभ्यता में भव्यता का आडम्बर नहीं था। न ही वहाँ कोई भव्य प्रसाद, न ही कोई मंदिर, राजा का मुकुट, नाव, मकान और कमरे भी छोटे थे। इसलिए यह कहना सर्वथा उचित है कि सिंधु सभ्यता साधन संपन्न थी। उसमें भव्यता का आडम्बर नहीं था।

प्रश्न 2. ‘सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था।’ ऐसा क्यों कहा गया?

उस काल के मनुष्यों की दैनिक प्रयोगों की वस्तुओं को देखकर यह प्रतीत होता है कि सिंधु घाटी के लोग कला प्रिय थे। वहाँ पर धातु तथा मिट्टी की मूर्तियाँ मिली है। वनस्पति, पशु पक्षियों की छवियाँ मुहरे, आभूषण, खिलौने, तांबे के बर्तन तथा सुघड़ लिपि भी प्राप्त हुई है। यहाँ भव्य मंदिर, स्मारकों के कोई अवशेष नहीं मिले। ऐसा कोई चित्र या मूर्ति प्राप्त नहीं हुई जिससे पता चले कि ये लोग प्रभुत्व तथा आडंबर प्रिय हो। इसलिए यह कहना उचित होगा कि सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है जो राज-पोषित या धर्म पोषित न होकर समाज-पोषित था।

प्रश्न 3. पुरातत्व के किन चिह्नों के आधार पर आप सकते हैं कि- “सिंधु सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी।”

मोहनजोदड़ो के अजायबघर में जिन वस्तुओं तथा कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया है, उनमें औजार तो है परंतु हथियार नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि मोहनजोदड़ो हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक संपूर्ण सिंधु सभ्यता में किसी भी जगह हथियार के अवशेष नहीं मिले। इससे पता चलता है कि वहाँ कोई राजतंत्र नहीं था। इस सभ्यतामें सत्ता का कोई केंद्र नहीं था। यह सभ्यता स्वतः अनुशासन थी, ताकत के बल पर नहीं। यहाँ के लोग अपनी सोच समझ के अनुसार ही अनुशासित थे।

प्रश्न 4. ‘यह सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी फूटी सीढ़ी अब आपको कहीं नहीं ले जाती; वे आकाश की तरफ अधूरी रह जाती है। लेकिन उन अधूरे पायदान पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर है, वहाँ से आप इतिहास को नहीं उसके पार झाँक रहे हैं।’ इस कथन के पीछे लेखक का क्या आशय है?

पुरातत्व वेत्ताओं का विचार है कि मोहनजोदड़ो की सभ्यता 5000 वर्ष पुरानी है। मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिली टूटी फूटी सीढ़ियों पर पैर रखकर हम किसी छत पर नहीं पहुँच सकते परंतु जब हम इन सीढ़ियों पर पैर रखते हैं तो हमें गर्व होता है कि हमारी सभ्यता उस समय सुसंस्कृत तथा उन्नत सभ्यता थी। जबकि शेष संसार में उन्नति का सूरज अभी उगा भी नहीं था। हम इतिहास के पार देखते हैं कि इस सभ्यता के विकास में एक लंबा समय लगा होगा। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता संसार की शिरोमणि सभ्यता थी।

प्रश्न 5. टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समयों का भी दस्तावेज होते हैं-इस कथन का भाव स्पष्ट कीजिए।

मोहनजोदड़ो हड़प्पा के टूटे-फूटे खण्डरों को देखने से हमारे मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि आज से 5000 वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों की सभ्यता कितनी विकसित तथा साधन संपन्न थी। ये खंडर हमें सिंधु घाटी सभ्यता और संस्कृति से परिचित कराते हैं। हमारे मन में इन खण्डरों को देखकर धारना बनती है कि यहाँ हजारों साल पहले कितनी चहल-पहल रही होगी और लोगों के मन में कितनी सुख शांति रही होगी। काश! हम भी उनके पद चिन्हों का अनुसरण कर पाते। ये खण्डर हमारी प्राचीन सभ्यता के प्रमाण हैं जिन्हें हम कभी नहीं भुला सकते।

प्रश्न 6. इस पाठ में एक ऐसे स्थान का वर्णन है जिसे बहुत कम लोगों ने देखा होगा, परंतु इससे आपके मन में उस नगर की एक तसवीर बनती है। किसी ऐसे ऐतिहासिक स्थल, जिसको आपने नज़दीक से देखा हो, का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए। (परीक्षोपयोगी नहीं है)

चारमीनार

इस बार की छुट्टियों में देखा हुआ हैदराबाद शहर का चारमीनार हमेशा यादों में बसा रहेगा। हैदराबाद शहर प्राचीन और आधुनिक समय का अनोखा मिश्रण है जो देखने वालों को 400 वर्ष पुराने भवनों की भव्‍यता के साथ आपस में सटी आधुनिक इमारतों का दर्शन कराता है।

चार मीनार 1591 में शहर के मोहम्‍मद कुली कुतुब शाह द्वारा बनवाई गई बृहत वास्‍तुकला का एक नमूना है।

शहर की पहचान मानी जाने वाली चार मीनार चार मीनारों से मिलकर बनी एक चौकोर प्रभावशाली इमारत है। यह स्‍मारक ग्रेनाइट के मनमोहक चौकोर खम्‍भों से बना है, जो उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशाओं में स्थित चार विशाल आर्च पर निर्मित किया गया है। यह आर्च कमरों के दो तलों और आर्चवे की गैलरी को सहारा देते हैं। चौकोर संरचना के प्रत्‍येक कोने पर एक छोटी मीनार है। ये चार मीनारें हैं, जिनके कारण भवन को यह नाम दिया गया है। प्रत्‍येक मीनार कमल की पत्तियों के आधार की संरचना पर खड़ी है। इस तरह चारमीनार को देखकर हुई अनुभूति एक स्वप्न को साकार होने जैसी थी।

प्रश्न 7. नदी, कुएँ, स्नानघर और बेजोड़ निकासी व्यवस्था को देखते हुए लेखक पाठकों से प्रश्न पूछता है कि क्या हम सिंधु घाटी सभ्यता को जल- संस्कृति कह सकते हैं? आपका जवाब लेखक के पक्ष में है या विपक्ष में? तर्क दीजिए।

मोहनजोदड़ो सिंधु नदी के समीप बसा था। नगर में लगभग 700 कुँए थे। प्रत्येक घर में स्नान घर व जल निकासी की व्यवस्था थी। अतः लेखक द्वारा सिंधु घाटी सभ्यता को ‘जल संस्कृति’ कहना उचित है। इस संदर्भ में निम्नलिखित प्रमाण दिए जा सकते हैं:

क) यहाँ जल निकासी की व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि आज भी विकसित नगरों में ऐसी व्यवस्था उपलब्ध नहीं है।

ख) प्रत्येक नाली पक्की ईंटों से निर्मित थी और ईंटो से ढकी थी।

ग) आज के नगरों तथा कस्बों में बदबू और गंदे नाले देखे जा सकते हैं।

प्रश्न 8. सिंधु घाटी सभ्यता का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिला है। सिर्फ अवशेषों के आधार पर ही धारणा बनाई है। इस लेख में मोहनजोदड़ो के बारे में जो धारणा व्यक्त की गई है, क्या आपके मन में इससे कोई भिन्न धारणा या भाव भी पैदा होता है? इन संभावनाओं पर कक्षा में समूह-चर्चा करें।

सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में हमें लिखित प्रमाण नहीं मिला हमें केवल अवशेषों के आधार पर अवधारणा बनानी पड़ी है जोकि तथ्यहीन नहीं है। खुदाई के दौरान सुघड़ लिपि मिली है जिसे भली प्रकार से समझा नहीं जा सकता। फिर भी अवशेषों के आधार पर व्यक्त की गई धारणा से हम असहमत नहीं है। निश्चय ही यह संस्कृति अबतक की प्राचीन समृद्ध संस्कृति है जो आज की मानव सभ्यता के लिए दिग्दर्शक बनी हुई है।

अतीत में दबे पाँव

अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1:

मुअनजो-दड़ो सभ्यता में औजार तो मिले हैं, पर हथियार नहीं। यह देखकर आपको कैसा लगा? मनुष्य के लिए हथियारों को आप कितना महत्वपूर्ण समझते हैं, स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

मुअनजो-दड़ो सभ्यता के अजायबघर में जो अवशेष रखे हैं, उनमें औजार बहुतायत मात्रा में हैं, पर हथियार नहीं। इस सभ्यता में उस तरह हथियार नहीं मिलते हैं, जैसा किसी राजतंत्र में मिलते हैं। दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले विभिन्न उपकरण और वस्तुएँ मिलती हैं। इन वस्तुओं में महल, उपासना स्थल, मूर्तियाँ, पिरामिड आदि के अलावा विभिन्न प्रकार के हथियार मिलते हैं, परंतु इस सभ्यता में हथियारों की जगह औजारों को देखकर लगा कि मनुष्य ने अपने जीने के लिए पहले औजार बनाए।

ये औजार उसकी आजीविका चलाने में मददगार सिद्ध होते रहे होंगे। मुअनजो-दड़ो में हथियारों को न देखकर अच्छा लगा क्योंकि मनुष्य ने अपने विनाश के साधन नहीं बनाए थे। इन हथियारों को देखकर मन में युद्ध, मार-काट, लड़ाई-झगड़े आदि के दृश्य साकार हो उठते हैं। इनका प्रयोग करने वालों के मन में मानवता के लक्षण कम, हैवानियत के लक्षण अधिक होने की कल्पना उभरने लगती है। मनुष्य के लिए हथियारों का प्रयोग वहीं तक आवश्यक है, जब तक उनका प्रयोग वह आत्मरक्षा के लिए करता है। यदि मनुष्य इनका प्रयोग दूसरों को दुख पहुँचाने के लिए करता है तो हथियारों का प्रयोग मानवता के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है। मनुष्य के जीवन में हथियारों की आवश्यकता न पड़े तो बेहतर है। हथियारों का प्रयोग करते समय मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता, वह पशु बन जाता है।

प्रश्न 2:

ऐतिहासिक महत्त्व और पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कुछ समस्याएँ उठ खडी होती हैं जो इनके अस्तित्व के लिए खतरा है। ऐसी किन्हीं दो मुख्य समस्याओं का उल्लेख करते हुए उनके निवारण के उपाय भी सुझाइए।

उत्तर –

ऐतिहासिक महत्त्व और पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्व रखने वाले स्थानों का संबंध हमारी सभ्यता और संस्कृति से होता है। इन स्थानों पर उपलब्ध वस्तुएँ हमारी विरासत या धरोहर का अंग होती हैं। ये वस्तुएँ आने वाली पीढी की तत्कालीन सभ्यता से परिचित कराती हैं। यहाँ विविध प्रकार की बहुमूल्य वस्तुएँ भी होती है जो आकर्षण का केद्र होती हैं। इनमें सोने…चाँदी के सिक्के, मूर्तियाँ, आभूषण तथा तत्कालीन लोगों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले आभूषण, रत्नजड़ित वस्तुएँ या अन्य महँगी धातुओं से बनी वस्तुएँ होती है जो उस समय को समृद्धि की कहानी कहती हैं। मेरी दृष्टि में इन स्थलों पर दो मुख्य समस्याएँ उत्पन्न दुई हैं…एक है चोरी की और दूसरी उन स्थानों पर अतिक्रमण और अवैध कब्जे की। ये दोनों ही समस्याएँ इन स्थानों के अस्तित्व के लिए खतरा सिद्ध हुई हैं। लोगों का यह नैतिक दायित्व होना चाहिए कि वे इनकी रक्षा करें। जिन लोगों को इनकी रक्षा का दायित्व सौंपा गया है, उनकी जिम्मेदारी तो और भी बढ़ जाती है। दुर्भाग्य से ऐसे लोग भी चोरी की घटनाओं में शामिल पाए जाते हैं। वे निजी स्वार्थ और लालच के कारण अपना नैतिक दायित्व एवं कर्तव्य भूल जाते हैं। इसी प्रकार लोग उन स्थानों के आस–पास अस्थायी या स्थायी घर बनाकर कब्जे करने लगे है जो उनके सौंदर्य पर ग्रहण है। यह कार्य सुरक्षा अधिकारियों की मिली–भगत से होता है और बाद में सीमा पार कर जाता है।

ऐसे स्थानों की सुरक्षा के लिए सरकार को सुरक्षा–व्यवस्था कडी करनी चाहिए तथा लोगों को नैतिक संस्कार दिए जाने चाहिए। इसके अलावा इन घटनाओं में संलिप्त लोगों के पकड़े जाने पर कड़े दंड की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि ऐसी घटना की पुनरावृत्तियों से बचा जा सके।

प्रश्न 3:

सिंधु घाटी सभ्यता को ‘जल–सभ्यता’ कहने का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताइए कि वर्त्तमान में जल–संरक्षण क्यों आवश्यक हो गया है और इसके लिए उपाय भी सुझाइए।

उत्तर –

सिंधु घाटी की सभ्यता में नदी, कुएँ, स्नानागार और तालाब तो बहुतायत मात्रा में मिले ही है, वहाँ जल–निकासी की उत्तम व्यवस्था के प्रमाण भी मिले हैं। इस कारण इस सभ्यता को ‘जल–सभ्यता‘ कहना अनुचित नहीं है। इसके अलावा यह सभ्यता नदी के किनारे बसी थी। मोहनजोदड़ो के निकट सिंधु नदी बहती थी। यहाँ पीने के जल का मुख्य स्रोत कुएँ थे। यहाँ मिले कुओं की संख्या सात सौ से भी अधिक है। मुअनजो–दड़ो में एक जगह एक पंक्ति में आठ स्नानाघर है जिनके द्वार एक–दूसरे के सामने नहीं खुलते। यहाँ जल के रिसाव को रोकने का उत्तम प्रबंध था। इसके अलावा, जल की निकासी के लिए पक्की नालियों और नाले बने हैं। ये प्रमाण इस सभ्यता को ‘जल–सभ्यता‘ सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।

वर्तमान में विश्व की जनसंख्या तेज़ गति से बढी है, जिससे जल की माँग भी बही है। पृथ्वी पर तीन–चौथाई भाग में जल जरूर है, पर इसका बहुत थोडा–सा भाग ही पीने के योग्य है।मनुष्य स्वार्थपूर्ण गतिविधियों से जल को दूषित एवं बरबाद कर रहा है। अतः जल–संरक्षण की आवश्यकता बहुत ज़रूरी हो गई है। जल–संरक्षण के लिए –

*. जल का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

*. जल को दूषित करने से बचने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।

*. अधिकाधिक वृक्षारोपण करना चाहिए।

*. फ़ैक्टरियों तथा घरों का दूषित एवं अशुद्ध जल नदी-नालों तथा जल-स्रोतों में नहीं मिलने देना चाहिए।

*. नदियों तथा अन्य जल-स्रोतों को साफ़-सुथरा रखना चाहिए ताकि हमें स्वच्छ जल प्राप्त हो सके।

प्रश्न 4:

‘अतीत में दबे पाँव’ में सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़े नगर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की नगर-योजनाओं से किस प्रकार भिन्न है? उदाहरण देते हुए लिखिए।

उत्तर –

‘अतीत में दबे पाँव’ नामक पाठ में लेखक ने वर्णन किया है कि सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़े नगर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की नगर-योजनाओं से इस प्रकार भिन्न थी कि यहाँ का नगर-नियोजन बेमिसाल एवं अनूठा था। यहाँ की सड़कें चौड़ी और समकोण पर काटती हैं। कुछ ही सड़कें आड़ी-तिरछी हैं। यहाँ जल-निकासी की व्यवस्था भी उत्तम है। इसके अलावा, इसकी अन्य विशेषताएँ निम्नलिखित थी…

*. यहाँ सुनियोजित ढंग से नगर बसाए गए थे।

*. नगर निवासी की व्यवस्था उत्तम एवं उत्कृष्ट थी।

*. यहाँ की मुख्य सड़कें अधिक चौड़ी तथा गलियाँ सँकरी थीं।

*. मकानों के दरवाजे मुख्य सड़क पर नहीं खुलते थे।

*. कृषि को व्यवसाय के रूप में लिया जाता था।

*. हर जगह एक ही आकार की पक्की ईटों का प्रयोग होता था।

*. सड़क के दोनों ओर ढँकी हुई नालियाँ मिलती थीं।

*. हर नगर में अन्न भंडारगृह और स्नानागार थे।

*. यहाँ की मुख्य और चौड़ी सड़क के दोनों ओर घर हैं, जिनका पृष्ठभाग सड़क की ओर है।

इस प्रकार मुअनजो-दड़ो की नगर योजना अपने-आप में अनूठी मिसाल थी।

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Chapter 2 जूझ | Ncert solution for class 12th hindi Vitan

NCERT Solutions for Class 12 Hindi Vitan Chapter 2 जूझ

अभ्यास-प्रश्न

प्रश्न 1. ‘जूझ’ शीर्षक के औचित्य पर विचार करते हुए यह स्पष्ट करें कि क्या यह शीर्षक कथा नायक की किसी केंद्रीय चारित्रिक विशेषता को उजागर करता है?

इस पाठ का शीर्षक ‘जूझ’ संपूर्ण कथा नायक का बिंदु है। जिसका अर्थ है- संघर्ष। कथानायक आनंद इस पाठ में हमें आदि से अंत तक संघर्ष करते दिखाई देता है। पाठशाला जाने के लिए आनंद को एक लंबे संघर्ष का सामना करना पड़ा। प्रवेश लेने के पश्चात अपने अस्तित्व के लिए आनंद को जूझना पड़ा। तब कहीं जाकर वह कक्षा मॉनिटर बना। उसने कवि बनने के लिए भी निरंतर संघर्ष किया। वह कागज के टुकड़ों पर अथवा पत्थर की शिला पर या भैंस की पीठ पर कविता लिखा करता। उसके संघर्ष में मराठी अध्यापक न०वा० सौंदलगेकर के साथ उपन्यास का यह शीर्षक कथानायक की संघर्षमय प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है। अतः यह शीर्षक उचित है।

प्रश्न 2. स्वयं कविता रच लेने का आत्मविश्वास लेखक के मन में कैसे पैदा हुआ?

लेखक मराठी भाषा के अध्यापक न०वा० सौंदलगेकर से अधिक प्रभावित हुआ। उन्हें लय, छंद, यति-गति आरोह-अवरोह का उचित ज्ञान था। जिसका कथानायक पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। जब लेखक को पता चला कि अध्यापक ने अपने घर के दरवाजे पर लगी ‘मालती’ नामक लता पर कविता लिखी है तब उसे अनुभव हुआ कि कवि भी अन्य मनुष्यों के समान ही हाड-मास, क्रोध-लोभ आदि प्रवृत्तियों का दास होता है। कथानायक ने ‘मालती’ लता देखी थी और उस पर लिखी कविता को पढ़ा था। इसके बाद उसे महसूस हुआ कि वह अपने गाँव के तथा आसपास के अनेक दृश्यों पर कविता लिख सकता है। शीघ्र ही वह तुकबंदी करने लगा और अध्यापक ने भी उसका उत्साह बढ़ाया। उसके मन में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि वह भी कवि बन सकता है।

प्रश्न 3. श्री सौंदलगेकर के अध्यापन की उन विशेषताओं को रेखांकित करें जिन्होंने कविताओं के प्रति लेखक के मन में रुचि जगाई।

श्री न०वा० सौंदलगेकर लेखक की कक्षा में मराठी पढ़ाते थे। वे बड़े सुरीले कण्ठ से कविता सुनाया करते थे। उन्हें छंद, यति-गति, आरोह-अवरोह का समुचित ज्ञान था. वे प्राय: कविता गाकर सुनाया करते थे। कवितागान के समय उनके चेहरे पर भावों के अनुकूल हाव-भाव देखे जा सकते थे। श्री न०वा० सौंदलगेकर ने लेखक की तुकबंदी का अनेक बार संशोधन किया तथा बार-बार उसे प्रोत्साहित भी किया करते। वे लेखक को यह भी बताते कि कविता की भाषा कैसी होनी चाहिए, संस्कृत भाषा का प्रयोग कविता के लिए किस प्रकार होता है, और छंद की जाति कैसे पहचानी जाए। इस प्रकार न०वा० सौंदलगेकर कथानायक को कविता लिखने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते रहते। जिससे लेखक भी कविता लेखन में रुचि लेने लगा।

प्रश्न 4. कविता के प्रति लगाव से पहले और उसके बाद अकेलेपन के प्रति लेखक की धारणा में क्या बदलाव आया?

कविता के प्रति लगाव से पहले कथानायक को ढोर चराते समय, खेत में पानी लगाते समय, कोई दूसरा काम करते समय अकेलापन अत्यधिक खटकता था। परंतु अब अकेलापन उसे खटकता नहीं है। कविता लिखते समय वह अपने आप से खेलता था। इस अकेलेपन के कारण वह ऊँची आवाज में कविता का गान करता था। कभी-कभी वह कविता पाठ करते समय अभिनय भी करता था और थुई-थुई करके नाचता भी था।

प्रश्न 5. आपके ख्याल से पढ़ाई लिखाई के संबंध में लेखक और दत्ता जी राव का रवैया सही था या लेखक के पिता का? तर्क सहित उत्तर दें।

हमारे विचार से पढ़ाई लिखाई के संबंध में दत्ताजी राव का रवैया सही था और लेखक के पिता का रवैया गलत था। लेखक का सोचना भी सही था कि पढ़-लिख कर कोई नौकरी मिल जाएगी और चार पैसे हाथ में आने से कोई व्यापार किया जा सकता है। इसी प्रकार दत्ता जी राव का रवैया सही ठहराया जा सकता है। उन्होंने ही लेखक के पिता को धमकाया तथा लेखक को पढ़ने के लिए पाठशाला भिजवाया। परंतु आज के हालात को देखते हुए आज का पढ़ा लिखा व्यक्ति वैज्ञानिक खेती करके अच्छे पैसे कमा सकता है और समाज के निर्माण में योगदान दे सकता है।

प्रश्न 6. दत्ताजी राव से पिता पर दबाव डलवाने के लिए लेखक और उसकी माँ को एक झूठ का सहारा लेना पड़ा। यदि झूठ का सहारा न लेना पड़ता तो आगे का घटनाक्रम क्या होता? अनुमान लगाएँ।

कथानायक और उसकी माँ दत्ताजी राव के पास इसलिए गए थे ताकि वे लेखक के पिता पर दबाव डालकर पाठशाला भिजवा सके। यदि लेखक की माँ यह झूठ नहीं बोलती तो लेखक के पिता बहुत नाराज हो जाते और माँ बेटे की खूब पिटाई करते। इसी प्रकार लेखक ने झूठ न बोला होता कि “पिता को बुलाने आया हूँ, उन्होंने अभी खाना नहीं खाया” तब लेखक वहाँ जा नहीं पाता और पिता बेटे पर झूठे आरोप लगाकर दत्ताजी राव को चुप करवा लेता। लेखक जीवनभर पढ़ाई न कर पाता और कोल्हू के समान खेत में पिसता रहता।

जूझ

अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1:

लेखक के दादा का पढ़ाई के प्रति जो दृष्टिकोण था उसे आप कितना उपयुक्त पाते हैं? ऐसे लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव लाने के लिए आप क्या प्रयास कर सकते हैं?

उत्तर –

लेखक चाहता था कि वह भी अन्य बच्चों के साथ पाठशाला जाए, पढ़ाई करे और अच्छा आदमी बने। पाठशाला जाने के लिए उसका मन तड़पता था, पर उसके दादा का पढ़ाई के प्रति दृष्टिकोण स्वस्थ न था। वे चाहते थे कि लेखक पढ़ाई करने की बजाय खेती में काम करे और जानवरों को चराए। किसी दिन खेत में काम करने के लिए न जाने पर वे लेखक को बुरी तरह डाँटते। एक बार वे लेखक से कह रहे थे, “हाँ, यदि नहीं आया किसी दिन तो देख, गाँव में जहाँ मिलेगा, वही कुचलता हूँ कि नहीं, तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बालिस्टर नहीं होने वाला है तू?” बच्चे को पढ़ाई से विमुख करने वाला, बच्चों की शिक्षा में बाधक बनने वाला ऐसा दृष्टिकोण किसी भी कोण से उपयुक्त नहीं है। ऐसे लोगों का दृष्टिकोण बदलने के लिए मैं निम्नलिखित प्रयास करूंगा –

लेखक के दादा जैसे लोगों को शिक्षा का महत्त्व बताऊँगा।

शिक्षा से वंचित बच्चे मजदूर बनकर रह जाते हैं। यह बात उन्हें समझाऊँगा।

शिक्षा व्यक्ति के जीविकोपार्जन में साधन का कार्य करती है। इस तथ्य से उन्हें अवगत कराऊँगा।

पढ़े-लिखे सभ्य लोगों के उन्नत जीवन का उदाहरण ऐसे लोगों के सामने प्रस्तुत करूंगा।

प्रश्न 2:

आज भी समाज को दत्ता जी राव जैसे व्यक्तित्व की आवश्यकता है। इससे आप कितना सहमत हैं और क्यों? यदि आप दत्ता जी राव की जगह होते तो क्या करते?

उत्तर –

दत्ता जी राव नेक दिल, उदार एवं गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे बच्चों एवं महिलाओं से विशेष स्नेह करते थे। वे हरेक व्यक्ति की सहायता करते थे। लेखक और उसकी माँ ने जब उनको अपनी पीड़ा बताई तो शिक्षा के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण रखने वाले दत्ता राव जी ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया और लेखक के दादा को बुलवाया। जब वे राव जी के पास गए तो उन्होंने बच्चे को स्कूल न भेजने के लिए दादा जी को खूब डाँटा-फटकारा। उन्होंने बच्चे का भविष्य खराब करने की बात कहकर बच्चे को स्कूल भेजने का वायदा ले लिया और स्कूल न भेजने पर लेखक को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लेने की बात कही। राव जी की डाँट से लेखक के दादा कुछ न कह सके और पढ़ाई के लिए स्वीकृति दे दी। इसके बाद लेखक स्कूल जाने लगा। आज भी बहुत-से बच्चे विभिन्न कारणों से स्कूल का मुँह देखने से वंचित हो जाते हैं या पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। ऐसे बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने के लिए राव जी जैसे व्यक्तित्व की आज भी आवश्यकता है। इससे मैं पूर्णतया सहमत हूँ। इसका कारण यह है कि इससे बच्चे पढ़-लिखकर योग्य और समाजोपयोगी नागरिक बन सकेंगे। वे पढ़-लिखकर देश की उन्नति में अपना योगदान दे सकेंगे। यदि मैं दत्ता जी राव की जगह होता तो लेखक को स्कूल भेजने के लिए हर संभव प्रयास करता और फिर भी उसके दादा उसे स्कूल भेजने के लिए न तैयार होते तो मैं लेखक को अपने पास रखकर पढ़ाता और उसकी हर संभव मदद करता।

प्रश्न 3:

सौंदलगेकर के व्यक्तित्व ने लेखक को किस प्रकार प्रभावित किया? आप उनके व्यक्तित्व की कौन-कौन-सी विशेषताएँ अपनाना चाहेंगे?

उत्तर –

सौंदलगेकर एक अध्यापक थे जो लेखक के गाँव में मराठी पढ़ाया करते थे। वे कविताओं को बहुत अच्छी तरह से पढ़ाते थे और कथ्य में खो जाते थे। उनके सुरीले कंठ से निकली कविता और भी सुरीली हो जाती थी। उन्हें मराठी के अलावा अंग्रेजी कविताएँ भी जबानी याद थीं। वे स्वयं कविता की रचना करते थे और छात्रों को सुनाया करते थे। लेखक उनकी इस कला और कविता सुनाने की शैली से बहुत प्रभावित हुआ। इससे पहले लेखक कवियों को किसी दूसरी दुनिया का जीव मानता था पर सौंदलगेकर से मिलने के बाद जाना कि इतनी अच्छी कविता लिखने वाले भी हमारे-उसके जैसे मनुष्य ही होते हैं। अब लेखक को लगा कि वह भी उनकी जैसी कविता गाँव, खेत आदि से जुड़े दृश्यों पर बना सकता है। वह भैंस चराते-चराते फसलों और जानवरों पर तुकबंदी करने लगा। वह राह चलते तुकबंदी करता और उसे लिखकर अध्यापक को दिखाता। बाद में निरंतर अभ्यास से वह कविता लिखना सीख गया। इस प्रकार लेखक को सौंदलगेकर के व्यक्तित्व ने बहुत प्रभावित किया और उसमें कविता-लेखन की रुचि उत्पन्न कर दी। मैं सौंदलगेकर के व्यक्तित्व की अपने कार्य के प्रति समर्पित रहने, दूसरों को प्रोत्साहित करने, यथासंभव दूसरों की मदद करने जैसी विशेषताएँ अपनाना चाहूँगा।

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Chapter 1 सिल्वर वैडिंग | Ncert solution for class 12th hindi Vitan

NCERT Solutions for Class 12 Hindi Vitan Chapter 1 सिल्वर वेडिंग 

अभ्यास-प्रश्न

प्रश्न 1. यशोधर बाबू की पत्नी समय के साथ ढल सकने में सफल होती है लेकिन यशोधर बाबू असफल रहते हैं। ऐसा क्यों?

यशोधर बाबू और उनकी पत्नी दोनों ही आधुनिक सोच से बहुत दूर है परंतु यशोधर बाबू की पत्नी अपने बच्चों को साथ देते देते आधुनिका हो गई है। जब वह विवाह के बाद ससुराल में आई थी तो घर में उनके ताऊजी और ताई जी की चलती थी। इसीलिए वह अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूरा ना कर सकी। अतः अब वह अपनी इच्छाओं को अपने बच्चों के माध्यम से पूरा करती है। परंतु यशोधर बाबू एक परंपरावादी व्यक्ति हैं। नए जमाने की सुविधाएँ जैसे गैस, फ्रीज, टीवी आदि को अच्छा नहीं मानते। सच्चाई तो यह है कि वे समय के साथ ढल नहीं पाते और बार-बार किशनदा के संस्कारों को याद करते हैं।

प्रश्न 2. पाठ में ‘जो हुआ होगा’ वाक्य की आप कितनी अर्थ छवियाँ खोज सकते हैं?

‘जो हुआ होगा’ वाक्यांश का पाठ में अपने एक बार प्रयोग हुआ है। पहली बार इसका प्रयोग तब हुआ जब यशोधर बाबू ने किशनदा के किसी जाति भाई से उनकी मृत्यु का कारण पूछा। उत्तर में उसने कहा था ‘जो हुआ होगा’ अर्थात पता नहीं क्या हुआ? किशनदा ने भी इस वाक्य का प्रयोग किया है। किशनदा इस वाक्य का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि “भाऊ, सभी लोग इसी ‘जो हुआ होगा’ से ही मरते हैं। गृहस्थ हो; ब्रह्मचारी हो; गरीब हो या अमीर हो; मरते ‘जो हुआ होगा’ से ही हैं। शुरू में और आखिर में सब अकेले ही होते हैं। बस अपना नियम अपना हुआ।” भाव यह है कि बच्चे जब अपने माता-पिता की उपेक्षा करने लगते हैं तो माता-पिता अकेले ही रह जाते हैं।

प्रश्न 3. ‘समहाउ इम्प्रोपर’ वाक्यांश का प्रयोग यशोधर बाबू लगभग हर वाक्य के प्रारंभ में तकिया कलाम की तरह करते हैं। इस वाक्यांश का उनके व्यक्तित्व और कहानी की कथ्य से क्या संबंध बनता है?

‘समहाउ इम्प्रोपर’ यशोधर बाबू का तकिया कलाम है। इसका अर्थ है कि ‘फिर भी यह अनुचित है’ उदाहरण के रूप में सिल्वर वेडिंग के लिए वे अपने अधिनस्थ कर्मचारियों को ₹30 चाय पानी के लिए देते हैं। परंतु इसे वे ‘समहाउ इम्प्रोपर’ ही कहते हैं। यही नहीं भी अपने साधारण पुत्र को असाधारण वेतन मिलने को भी ‘समहाउ इम्प्रोपर’ कहते हैं। यह वाक्यांश कहानी के मूल कथ्य से जुड़ा हुआ है। लेखक यह बताना चाहता है कि प्रत्येक पुरानी पीढ़ी नवीन परिवर्तनों को अनुचित मानती है। लेखक इस पाठ द्वारा कहना चाहता है कि यदि लोग अपने बच्चों के साथ सम्मान पूर्वक जीना चाहते हैं तो उन्हें नए परिवर्तनों को स्वीकारना पड़ेगा। अन्यथा उनकी हालत यशोधर बाबू जैसी हो जाएगी।

प्रश्न 4. यशोधर बाबू की कहानी को दिशा देने में किशनदा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आपके जीवन को दिशा देने में किसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा और कैसे? (परीक्षोपयोगी नहीं है)

यशोधर बाबू की कहानी को दिशा देने में किशनदा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। मेरे जीवन को दिशा देने में मेरी बड़ी बहन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वे पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद सभी में हमेशा आगे रहती थी। उन्हें देखकर मुझे भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी। वे समय-समय पर मुझे मार्गदर्शन भी देती रही।

प्रश्न 5. वर्तमान समय में परिवार की संरचना, स्वरूप से जुड़े आपके अनुभव इस कहानी से कहाँ तक सामंजस्य बिठा पाते हैं?

आधुनिक युग में संयुक्त परिवार प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है। प्रायः परिवार छोटे बनते जा रहे हैं। बेटे अपनी आय को स्वयं खर्चना चाहते हैं। और इस प्रकार पुरानी तथा नई पीढ़ी के बीच दरार उत्पन्न हो गई है। परंतु सामंजस्य के द्वारा इस समस्या का हल निकाल सकते हैं। पुराने लोगों को थोड़ा आधुनिक बनना पड़ेगा और नए को पुराना। आज के बच्चे आधुनिक युग की सुख-सुविधाओं को पाना चाहते हैं तो उन्हें यशोधर बाबू जैसे पिता को अपमानित नहीं करना चाहिए। इसके साथ-साथ यशोधर बाबू के समान एक पिता को अधिक परंपरावादी होना भी अच्छा नहीं है। दोनों पक्षों में सामंजस्य स्थापित करने से आधुनिक युग को सफल बनाया जा सकता है।

प्रश्न 6. निम्नलिखित में से किसे आप कहानी की मूल संवेदना कहेंगे/ कहेंगी और क्यों? क) हाशिए पर धकेले जाते मानवीय मूल्य ख) पीढ़ी का अंतराल ग) पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव

इस कहानी में मानवीय मूल्यों को हाशिए पर धकेले जाते हुए दिखाया गया है। उदाहरण के रूप में यशोधर बाबू के बच्चे भाईचारा व रिश्तेदारी का ध्यान नहीं रखते और न ही बुजुर्गों का उचित सम्मान करते हैं। इस कहानी में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी देखा जा सकता है। यशोधर बाबू तो आधुनिक बन नहीं पाते परंतु उनकी पत्नी आधुनिक बन गई है। परंतु गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कहानी की मूल संवेदना पीढ़ी का अंतराल है। उदाहरण के लिए बच्चे यशोधर बाबू के लिए गाउन इसलिए लाते हैं ताकि वे फटा हुआ पुलोवर पहनकर समाज में उनकी बेइज्जती न कराएँ। बच्चों को अपने मान सम्मान की तो चिंता है, परंतु वे अपने पिता की मनःस्थिति को नहीं समझ पाते। अतः ‘पीढ़ी का अंतराल’ इस कहानी की मुख्य समस्या है।

प्रश्न 7. अपने घर और विद्यालय के आस-पास हो रहे उन बदलावों के बारे में लिखे जो सुविधाजनक और आधुनिक होते हुए भी बुजुर्गों को अच्छे नहीं लगते। अच्छा न लगने के क्या कारण होंगे?

आज का युग वैज्ञानिक है। प्रतिदिन नए-नए आविष्कार हो रहें हैं। अधिकांश अविष्कार मानव को सुविधाएँ देने में अत्यधिक सहायक है। आज प्रत्येक घर में बिजली के पंखे, ए०सी०, रसोई गैस के चूल्हे, टेलीफोन, इंटरनेट आदि अनेक ऐसी वस्तु है जो लोगों के जीवन को सुविधाजनक बना रही है। लेकिन हमारे बड़े बूढ़े अभी तक पुरानी बातों को याद करते हैं। वे प्रायः कहते रहते हैं कि चूल्हे की रोटी का कोई मुकाबला नहीं है। उनका कहना है कि फ्रिज के कारण हम बासी भोजन करते हैं। मोबाइल का अधिक प्रयोग युवा को बिगाड़ रहा है। इंटरनेट के दुरुपयोग के कारण लोग चरित्रहीन बन गए हैं। यद्यपि सच्चाई यह है कि बुजुर्गों के विचार पुराने हो सकते हैं परंतु आधुनिक सुविधाओं का अधिक प्रयोग हमारी जीवनशैली को जटिल बनाता जा रहा है।

प्रश्न 8. यशोधर बाबू के बारे में आपकी क्या धारणा बनती है? दिए गए तीन कथनों में से आप जिसके समर्थन में हैं, अपने अनुभवों और सोच के आधार पर उनके लिए तर्क दीजिए-क) यशोधर बाबू के विचार पूरी तरह से पुराने हैं और वे सहानुभूति के पात्र नहीं है।ख) यशोधर बाबू में एक तरह का द्वंद्व है जिसके कारण उन्हें नया कभी-कभी खींचता तो है परंतु पुराना छोड़ता नहीं इसलिए उन्हें सहानुभूति के साथ देखने की जरूरत है।ग) यशोधर बाबू एक आदर्श व्यक्तित्व है। और नई पीढ़ी द्वारा उनके विचारों का अपनाना ही उचित है।

यशोधर बाबू एक द्वंदग्रस्त व्यक्ति है। कभी-कभी नया उन्हें अपनी ओर खींचता है परंतु पुराना उनसे छूटता नहीं। वे स्वयं यह निर्णय नही ले पाते कि नवीन मूल्यों को अपनाना चाहिए अथवा पुराने मूल्यों से चिपका रहना चाहिए। इसलिए हमें उनके बारे में सहानुभूति से सोचना चाहिए। मेरे नाना जी प्रायः नई वस्तु की आलोचना करते रहते हैं। एक बार हमने घर में ए०सी० लगवाया। नाना जी इस सुविधा का विरोध किया। परंतु अगले ही दिन वे ए०सी० ठंडी हवा में काफी देर तक सोते रहे। इसी प्रकार यशोधर बाबू का द्वंद्व भी स्वाभाविक है। हमें घर के बड़े-बुजुर्गों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए तथा उनकी उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिए।

सिल्वर वैडिंग

अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1:

यशोधर बाबू पुरानी परंपरा को नहीं छोड़ पा रहे हैं। उनके ऐसा करने को आप वर्तमान में कितना प्रासंगिक समझते हैं?

उत्तर –

यशोधर बाबू पुरानी पीढ़ी के प्रतीक हैं। वे रिश्ते–नातों के साथ–साथ पुरानी परंपराओं से अपना विशेष जुड़ाव महसूस करते हैं। वे पुरानी परंपराओं को चाहकर भी नहीं छोड़ पाते। यद्यपि वे प्रगति के पक्षधर है, फिर भी पुरानी परंपराओं के निर्वहन में रुचि लेते हैं। यशोधर बाबू किशनदा को अपना मार्गदर्शक मानते हैं और उन्हीं के बताए–सिखाए आदर्शों में जीना चाहते हैं। आपसी मेलजोल बढाना, रिश्तों को गर्मजोशी से निभाना, होली के आयोजन के लिए उत्साहित रहना, रामलीला का आयोजन करवाना; उनका स्वभाव बन गया है। इससे स्पष्ट है कि वे अपनी परंपराओं से अब भी जुड़े हैं। यद्यपि उनके बच्चे आधुनिकता के पक्षधर होने के कारण इन आदतों पर नाक–भी सिकोड़ते है, फिर भी यशोधर बाबू उन्हें निभाते आ रहे हैं। इसके लिए उन्हें अपने घर में टकराव झेलना पड़ता है।

यशोधर बाबू जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों को परंपरा से मोह बना होना स्वाभाविक है। उनका यह मोह अचानक नहीं समाप्त हो सकता। उनका ऐसा करना वर्तमान में भी प्रासंगिक है, क्योकि पुरानी परंपराएँ हमारी संस्कृति का अंग होती हैं। इन्हें एकदम से त्यागना किसी समाज के लिए शुभ लक्षण नहीं है। हाँ, यदि पुरानी परंपराएँ रूढ़ि बन गई हों तो उन्हें त्यागने में ही भलाई होती है। युवा पीढ़ी में मानवीय मूल्यों को प्रगाढ़ बनाने में परंपराएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अत: मैं इन्हें वर्तमान में भी प्रासंगिक समझता हूँ।

प्रश्न 2:

यशोधर बाबू के बच्चे युवा पीढी और नई सोच के प्रतीक हैं। उनका लक्ष्य प्रगति करना है। आप उनकी सोच और जीवन–शैली को भारतीय संस्कृति के कितना निकट पाते हैं?

उत्तर –

यशोधर बाबू जहाँ पुरानी पीढी के प्रतीक और परंपराओं की निभाने में विश्वास रखने वाले व्यक्ति है, वहींं उनके बच्चे की सोच एकदम अलग है। वे युवा पीढी और नई सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे आधुनिकता में विश्वास रखते हुए प्रगति की राह पर आगे बढ़ रहे है। वे अपने पिता की अपेक्षा एकाएक खूब धन कमा रहे है और उच्च पदों पर आसीन तो हो रहै है, किंतु परिवार से, समाज से, रिश्तेदारिओं से, परंपराओं से वे विमुख हो रहे हैं। वे प्रगति को अंधी दोड़ में शामिल होकर जीवन से किनारा कर बैठे है। प्रगति को पाने के लिए उन्होंने प्रेम, सदभाव, आत्मीयता, परंपरा, संस्कार से दूरी बना ली है। वे प्रगति और सुख को अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठे हैं। इस प्रगति ने उम्हें मानसिक स्तर पर भी प्रभावित किया है, जिससे वे अपने पिता जी को ही पिछडा, परंपरा को व्यर्थ की वस्तु और मानवीय संबंधों की बोझ मानने लगे हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार यह लक्ष्य से भटकाव है।

भारतीय संस्कृति में भौतिक सुखों अपेक्षा सबके कल्याण की कामना की गई है। इस संस्कृति में संतुष्टि को महत्ता दी गई है। प्रगति की भागदौड़ से सुख तो माया जा सकता है पर संतुष्टि नहीं, इसलिए उनके बच्चे की सोच और उनकी जीवन–शैली भारतीय संस्कृति के निकट नहीं पाए जाते। इसका कारण यह है कि भौतिक सुखों को ही इस पीढी ने परम लक्ष्य मान लिया है।

प्रश्न 3:

यशोधर बाबू और उनके बच्चों के व्यवहार एक–दूसरे से मेल नहीं खाते हैं। दोनोंं में से आप किसका व्यवहार अपनाना चाहेंगे और क्यों ?

यशोधर बाबू पुरानी पीढ़ी के प्रतीक और पुरानी सोच वाले व्यक्ति हैँ। वे अपनी परंपरा के प्रबल पक्षधर हैं। वे रिश्ते–नातों और परंपराओं को बहुत महत्त्व देते है और मानवीय मूल्यों को बनाए रखने के पक्ष में हैं। उनकी सोच भारतीय संस्कृति के अनुरूप है। वे परंपराओं को निभाना जाते है तथा इनके साथ ही प्रगति भी चाहते हैं। इसके विपरीत, यशोधर बाबू के बच्चे रिश्ते–नातों और परंपराओं की उपेक्षा करते हुए प्रगति की अंधी दौड़ में शामिल हैं। वे परंपराओं और रिश्तों की बलि देकर प्रगति करना चाहते हैं। इससे उनमें मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है। वे अपने पिता को ही पिछड़ा, उनके विचारों को दकियानूसी और पुरातनपंथी मानने लगे हैँ। उनकी निगाह में भौतिक सुख ही सर्वापरि है। इस तरह दोनों के विचारों में द्वंद्व और टकराव है।

यदि मुझे दोनों में से किसी के व्यवहार को अपनाना पडे तो मैं यशोधर बाबू के व्यवहार को अपनाना चाहूँगा, पर कुछ सुधार के साथ इसका कारण यह है कि यशोधर बाबू के विचार हमें भारतीय संस्कृति के निकट ले जाते हैं। मानव–जीवन में रिश्ते-नातों तथा संबंधों का बहुत महत्त्व है। प्रगति से हम भौतिक सुख तो पा सकते है, पर संतुष्टि नहीं। यशोधर बाबू के विचार और व्यवहार हमे संतुष्टि प्रदान करते हैं। मैं प्रगति और परंपरा दोनों के बीच संतुलन बनाते हुए व्यवहार करना चाहूँगा।

प्रश्न 4:

सामान्यतया लोग अपने बच्चों की आकर्षक आय पर गर्व करते है, पर यशोधर बाबू ऐसी आय को गलत मानते है। आपके विचार से इसके क्या कारण हो सकते हैं? यदि आप यशोधर बाबू की जगह होते तो क्या करते?

उत्तर –

यदि पैसा कमाने का साधन मर्यादित है तो उससे होने वाली आय पर सभी को गर्व होता है। यह आय यदि बच्चों की हो तो यह गर्वानुभूति और भी बढ जाती है। यशोधर बाबू की परिस्थितियाँ इससे हटकर थी। वे सरकारी नौकरी करते थे, जहाँ उनका वेतन बहुत धीरे–धीरे बढ़ा था। उनका वेतन जितना बढ़ता था, उससे अधिक महँगाई बढ़ जाती थी। इस कारण उनकी आय में हुई वृद्धि का असर उनके जीवन–स्तर को सुधार नहीं पता था। नौकरी की आय के सहारे वे गुजारा करते थे। समय का चक्र घूमा और यशोधर बाबू के बच्चे किसी बडी विज्ञापन कंपनी में नौकरी पाकर रातों–रात मोटा वेतन कमाने लगे। यशोधर बाबू को इतनी मोटी तनख्वाह का रहस्य समझ में नहीं आता था। इसलिए वे समझते थे कि इतनी मोटी तनख्वाह के पीछे कोई गलत काम अवश्य किया जा रहा है। उन्होंने सारा जीवन कम वेतन में जैसै–तैसे गुजारा था, जिससे इतनी शान–शौकत्त को पचा नहीं पा रहे हैं। यदि मैं यशोधर की जगह होता तो बच्चे की मोटी तनख्वाह पर शक करने की बजाय वास्तविकता जानने का प्रयास करता और अपनी सादगी तथा बच्ची की तड़क–भड़क–भरी जिदगी के बीच सामंजस्य बनाकर खुशी–खुशी जीवन बिताने का प्रयास करता।

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Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज | Ncert solution for class 12th hindi Aroh

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा Class 12 Hindi Aroh NCERT Solutions

अभ्यास-प्रश्न

प्रश्न 1. जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही रूप न मानने के पीछे आंबेडकर ने क्या तर्क हैं?

लेखक जाति प्रथा और श्रम विभाजन का ही एक रूप इसलिए नहीं मानता क्योंकि यह विभाजन स्वाभाविक नहीं है। फिर यह मानव की रुचि पर भी आधारित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें व्यक्ति की क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है। जन्म से पूर्व ही मनुष्य के लिए श्रम-विभाजन करना पूर्णतया अनुचित है। जाति प्रथा आदमी को आजीवन एक व्यवसाय से जोड़ देती है। यहाँ तक कि मनुष्य को भूखा मरना पड़ा तो भी वह अपना पेशा नहीं बदल सकता। यह स्थिति समाज के लिए भयावह है।

प्रश्न 2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी और भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती जा रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?

जाति प्रथा किसी भी आदमी को अपनी रूचि के अनुसार पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती। मनुष्य को केवल पैतृक पेशा ही अपनाना पड़ता है। भले ही वह दूसरे पेशे में पारंगत ही क्यों न हो। आज उद्योग धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में लगातार विकास हो रहा है। जिससे कभी-कभी भयानक परिवर्तन हो जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को पेशा न बदलने दिया जाए तो वह बेरोजगारी और भुखमरी का शिकार हो जाएगा। आज भले ही समाज में जाति प्रथा है, लेकिन इसके बाद भी कोई मजबूरी नहीं है कि वह अपने पैतृक व्यवसाय को छोड़कर नए पेशे को न अपना सके। आज जो लोग पैतृक व्यवसाय से जुड़े हैं, वे अपनी इच्छा से जुड़े हुए हैं।

प्रश्न 3. लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?

लेखक का कहना है कि दासता केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कह सकते, दासता की अन्य स्थिति यह भी है कि जिसके अनुसार कुछ लोगों को अन्य लोगों द्वारा निर्धारित किए गए व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। जाति प्रथा के सम्मान समाज में ऐसे लोगों का वर्ग भी है जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी पेशे को अपनाना पड़ता है उदाहरण के लिए सफाई करने वाले कर्मचारी इसी प्रकार के कहे जा सकते हैं।

प्रश्न 4. शारीरिक वंश परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकारी की दृष्टि से मनुष्य में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?

डॉ आंबेडकर यह जानते हैं कि शारीरिक वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकारी की दृष्टि में से लोगों में आसमानता हो सकती है परंतु फिर भी वे समता के व्यवहार्य सिद्धांत को अपनाने की सलाह देते हैं। इस संदर्भ में लेखक ने यह तर्क दिया है कि यदि हमारा समाज अपने सदस्यों का अधिकतम प्रयोग प्राप्त करना चाहता है तो उसे समाज के सभी लोगों को आरंभ से ही समान अवसर और समान व्यवहार प्रदान करना होगा। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी समता का विकास करने का उचित अवसर मिलना चाहिए।

प्रश्न 5. सही में आँबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन- सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या आप इससे सहमत हैं?

इस बात को लेकर हम लेखक से पूरी तरह सहमत हैं। कारण यह है कि कुछ लोग उच्च वंश में उत्पन्न होने के फलस्वरूप उत्तम व्यवहार के अधिकारी बन जाते हैं। लेकिन हम गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि इसमें उनका अपना कोई योगदान नहीं है। मनुष्य के कार्य और उनके परिजनों के फलस्वरुप ही उसकी महानता का निर्णय होना चाहिए और मनुष्य के प्रयत्नों की सही जाँच तब हो सकती है, जब सभी को समान अवसर प्राप्त हो। उदाहरण के रूप में सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों का पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के साथ मुकाबला नहीं किया जा सकता। आठ जातिवाद का उन्मूलन किया जाए और सभी को समान सुविधाएँ प्रदान की जाए।

प्रश्न 6. आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे।

आदर्श समाज में तीसरे तत्व ‘भ्रातृता’ पर विचार करते समय लेखक ने अलग से स्त्रियों का उल्लेख नहीं किया परंतु लेखक ने समाज की बात कही है और समाज से स्त्रियाँ अलग नहीं होती। बल्कि स्त्री और पुरुष दोनों से ही समाज बनता है। अतः आदर्श समाज में स्त्रियों को सम्मिलित किया गया है अथवा नहीं, यह सोचना ही व्यर्थ है। ‘भ्रातृता’ भले ही संस्कृतनिष्ट शब्द है परन्तु यह अधिक प्रचलित नहीं है। यदि इसके स्थान पर ‘एकता’ शब्द का प्रयोग होता तो वह उचित होता।

श्रम-विभाजन और जाति प्रथा

अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1.

आबेडकर की कल्पना का समाज कैसा होगा?

उत्तर –

आंबेडकर का आदर्श समाज स्वातंत्रता, समता व भाईचारे पर आधारित होगा। सभी को विकास के समान अवसर मिलेंगे तथा जातिगत भेदभाव का नामोनिशान नहीं होगा। सामाज में कार्य करने वाले को नाम्मान मिलेगा।

प्रश्न 2:

मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर होती है?

उत्तर –

मनुष्य की क्षमता निम्नलिखित बातों पर निर्भर होती है –

1. जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन अस्वाभाविक है।

2. शारीरिक वंश परंपरा के आधार पर।

3. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की प्रतिक्षा, शिक्षा, जानार्गन आदि उपाधिों के लाभ पर।

4. मनुष्य के अपने प्रयत्न पर।

प्रश्न 3:

लेखक ने जाति-प्रथा की किन किन बुराइयों का वर्णन किया है।

लेखक ने जाति-प्रथा की निम्नलिखित बुराइयों का वर्णन किया है –

1. यह अमिक-विभाजन भी करती है।

2.मह श्रमिकों में ऊँच-नीच का स्तर तय करती है।

3. यह जन्म के आधार पर पेशा तय करती है।

4. यह मनुष्य को सदैव एक व्यवसाय में बांध देती है भले ही वह पेशा अनुपयुक्त व अपर्याप्त हो।

5.यह संकट के समय पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती. चाहे व्यक्ति भूखा मर जाए।

6. जाति-प्रया के कारण धोपे गए व्यवसाप में व्यक्ति रुचि नहीं लेता।

प्रश्न 4:

लेखक की दृष्टि में लोकतंत्र क्या है?

उत्तर –

लेखक ती दृष्टि में लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है। वस्तुतः यह सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति और समाज के समिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

प्रश्न 5:

आर्थिक विकास के लिए जाति-प्रथा कैसे बाधक है?

उत्तर –

भारत में जाति-प्रथा के कारण व्यक्ति को जन्म के आधार पर मिला पेवा ही अपनाना पड़ता है। उसे विकास के समान अवसर नहीं मिलते। जबरदस्ती थोपे गए पेशे में उनकी असचि हो जाती है और ये काम को टालने या कामचोरी करने लगते हैं। वे एकाग्रता से कार्य नहीं करते। इस प्रवृत्ति से आर्थिक हानि होती है और उद्योगों का विकास नहीं होता।

प्रश्न 6:

डॉ अबेडकर समता को कैसी वस्तु मानते हैं तथा क्यों?

उत्तर –

डॉ. आंबेडकर समता को कल्पना की वस्तु मानते हैं। उनका मानना है कि हर व्यक्ति समान नहीं होता। वह जन्म से ही । सामाजिक स्तर के हिसाब से तथा अपने प्रयत्नों के कारण भिन्न और असमान होता है। पूर्ण समता एक काल्पनिक स्थिति है, परंतु हर व्यक्ति को अपनी समता को विकसित करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए।

प्रश्न 7:

जाति और श्रम-विभाजन में बुनियादी अतर क्या है? श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा के आधार पर उत्तर दीजिए।

उत्तर –

जाति मौर श्रम विभाजन में दुनियादी अंतर यह है कि-

1. जाति-विभाजन, श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का भी विभाजन करती है।

2. सभ्य समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है परंतु श्रमिकों के वर्गों में विभाजन आवश्यक नहीं है।

3. जाति विभाजन में श्रग विभाजन पा पेशा चुनने की छूट नहीं होती जबकि श्रग विभाजन में ऐसी फूट हो सकती है।

4. जाति-प्रथा विपरीत परिस्थितियों में भी रोजगार बदलने का अवसर नहीं देती, जबकि अम-विभाजना में व्यक्ति ऐसा कर सकता है।

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Chapter 17 शिरीष के फूल | Ncert solution for class 12th hindi Aroh

शिरीष के फूल Class 12 Hindi Aroh NCERT Books Solutions

शिरीष के फूल

अभ्यास-प्रश्न

प्रश्न 1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?

अवधूत सुख-दुख की परवाह न करते हुए हमेशा हर पल हर हाल में प्रसन्न रहता है। वह भीषण कठिनाई और कष्टों में भी जीवन की एकरूपता बनाए रखता है। शिरीष के वृक्ष भी उसी कालजयी अवधूत के समान है। आसपास फैली हुई गर्मी, ताप और लू में भी वह हमेशा पुष्पित और सरस रहता है। उसका पूरा शरीर फूलों से लदा हुआ बड़ा सुंदर दिखता है। इसीलिए लेखक ने शिरीष को अवधूत कहा है। शिरीष भी मानो अवधूत के समान मृत्यु और समय पर विजय प्राप्त करके लहराता रहता है।

प्रश्न 2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है- प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

हृदय की कोमलता को बचाने के लिए कभी-कभी व्यवहार में कठोरता लाना आवश्यक हो जाता है। इस संदर्भ में नारियल का उदाहरण ले सकते हैं जो बाहर से कठोर होता है और अंदर से कोमल। शिरीष का फूल भी अपनी सुरक्षा को बनाए रखने के लिए बाहर से कठोर हो जाता है। यद्यपि परवर्ती कवियों ने शिरीष को देखकर यही कहा था कि इसका तो सब कुछ कोमल है। परंतु इसके फूल बड़े मजबूत होते हैं। नए फूल, पत्ते आने पर अपने स्थान को नहीं छोड़ते। अतः अंदर की कोमलता को बनाए रखने के लिए कठोर व्यवहार भी जरूरी है।

प्रश्न 3. द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन स्थितियों में अविचल रहकर जीजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।

निश्चय से आज का जीवन अनेक कठनाइयों से घिरा हुआ है। कदम-कदम पर कोलाहल व संघर्ष से घिरा हुआ हैं। लेकिन द्विवेदी जी ने हमें इन स्थितियों से अविचलित रहकर जिजीविशु बने रहने की शिक्षा दी है। शिरीष का फूल भयंकर गर्मी और लू में अनासक्ति योगी के समान विचलित खड़ा रहता है। और विषम परिस्थितियों में भी वे अपने जीवन जीने की इच्छा नहीं छोड़ता। आज हमारे देश में चारों ओर भ्रष्टाचार, अत्याचार फैला हुआ है। यह सब देखकर हमें निराश नहीं होना चाहिए बल्कि हमें स्थिर और शांत रहकर जीवन के संघर्षों का सामना करना चाहिए।

प्रश्न 4. “हाय वह अवधूत आज कहाँ है।” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देहबल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?

अवधूत आत्मबल का प्रतीक है। वे आत्मा की साधना में लीन रहते हैं। लेखक ने कबीर, कालिदास महात्मा गाँधी को अवधूत कहा है। परंतु आज के बड़े-बड़े संन्यासी देहबल, धनबल, मायाबल करने में लगे हुए हैं। लेखक का यह कहना सर्वथा उचित है कि आज भारत में सच्चे आत्मबल वाले संन्यासी नहीं रहे। लेखक यह भी स्पष्ट करना चाहता है कि आत्मबल की अपेक्षा देहबल को महत्त्व देने के कारण ही हमारे सामने सभ्यता का अंत हो चुका है।

प्रश्न 5. कवि(साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय एक आवश्यक है। ऐसा विचार कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विचार पूर्वक समझाएँ।

कवि अथवा साहित्यकार समाज में सर्वोपरि स्थान रखता है। उससे ऊँचे आदर्शों की अपेक्षा की जाती है। एक सच्चा कवि अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता होने के कारण कठोर व शुष्क नीतिज्ञ बन जाता है। परंतु कवि के पास विदग्ध प्रेमी का हृदय भी होना चाहिए जिससे वह नियम व मानदण्डों को महत्त्व न दें। साहित्यकारों में दोनों विपरीत गुणों का होना आवश्यक है। तुलसीदास, कालिदास आदि महान कवि थे। उन्होंने जहाँ एक और मर्यादाओं का समुचित पालन किया, वहीं दूसरी ओर वे मधुरता के रस में डूबे रहे। जो साहित्यकार इन दोनों का निर्वाह कर सकता है। वहीं साहित्यकार हो सकता है।

प्रश्न 6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

काल सर्वग्रासी और सर्वनाशी है वह सबको अपना ग्रास बना लेता है। काल की मार से बचते हुए दीर्घजीवी वही हो सकता है जो अपने व्यवहार में समय के साथ परिवर्तन लाता है। आज समय और समाज बदल चुका है। शिरीष के वृक्ष का उदाहरण इसी तथ्य को प्रमाणित करता है। वह अग्नि, लू तथा तपन के साम्राज्य में भी स्वयं को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेता है और प्रसन्न होकर फलता फूलता रहता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने व्यवहार में जड़ता को त्यागकर स्थितियों के अनुसार गतिशील बन जाता है वही दीर्घजीवी होकर जीवन का रस भोग सकता है।

प्रश्न 7. आशय स्पष्ट कीजिए क) दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहे तो काल देवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।

जीवनशक्ति और काल रूपी अग्नि का निरंतर संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता। जो लोग अज्ञानी हैं वे समझते हैं कि जहाँ पर बने हैं वहाँ देर तक बने रहेंगे तो काल देवता की मार से बच जाएँगे, परंतु उनकी यह सोच गलत है। यदि यमराज की मार से बचना है तो मनुष्य को हिलते डुलते रहना चाहिए, स्थान बदलते रहना चाहिए। ऐसा करने से काल की मार से बचा जा सकता है।

ख) जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? मैं कहता हूँ कि कवि बनना है तो मेरे दोस्तों, तो फक्कड़ बनो।

जो कवि अपने कविकर्म में लाभ-हानि सुख-दुख यश-अपयश की परवाह न करके जीवन यापन करता है। वही सच्चा कवि कहलाता है। इसके विपरीत जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता, मस्त मौला नहीं बन सकता, बल्कि जो अपनी कविता के परिणाम, लाभ हानि के चक्कर में फँस जाता है; वह सच्चा कवि नहीं कहा जा सकता है। लेखक का विचार है कि सच्चा कवि वही है जो मस्तमौला है। जिसे न तो सुख-दुख, न लाभ-हानि की चिंता है।

ग) फल हो या पेड़ वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अंगुली है। वह इशारा है।

कोई फल का पेड़ अपने आप में समाप्त नहीं है बल्कि वह तो एक ऐसी अँगुली है जो किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए इशारा कर रही है। वह पेड़, फल हमें यह बताने का प्रयास करता है कि उसको उत्पन्न करने वाली या बनाने वाली कोई और शक्ति है। हमें उसे जानने का प्रयास करना चाहिए।

शिरीष के फूल

अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1:

कालिदास ने शिरीष की कोमलता और दविवेदी जी ने उसकी कठोरता के विषय में क्या कहा है ? “शिरीष के फुल पाठ के आधार पर बताए।

उत्तर –

कालिदास और संस्कृत साहित्य ने शिरीष को बहुत कोमल माना है। कालिदास का कथन है कि ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलयं शिरीष पुष्यं न पुनः पतन्निणाम्-शिरीष पुष्य केवल भैरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिलकुल नहीं। लेकिन इससे हजारों प्रसाद विवेदी सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि इसे कोमल मानना भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते, तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन पर जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है तब भी शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं।

प्रश्न 2:

शिरीष के अवधूत रूप के कारण लेखक को किस महात्मा की यद् आती है और क्यों?

उत्तर –

शिरीष के अवधूत रूप के कारण लेखक हजारी प्रसाद द्रविवेदी को हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आती है। शिरीष तरु वधूत है, क्योंकि वह बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू सत्र में शांत बना रहता है और पुष्पित पल्लवित होता रहता है। इसी प्रकार महात्मा गांधी भी मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खराबे के बवंडर के बीच स्थिर रह सके थे। इस समानता के कारण लेखक को गांधी जी की याद आ । जाती है, जिनके व्यक्तित्व ने समाज को सिखाया कि आत्मबल, शारीरिक बल से कहीं ऊपर की चीज है। आत्मा की शक्ति है। जैसे शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल, इतना कठोर हो सका है, वैसे ही महात्मा गांधी भी कठोर-कोमल व्यक्तित्व वाले थे। यह वृक्ष और वह मनुष्य दोनों ही अवधूत हैं।

प्रश्न 3:

शिरीष की तीन ऐसी विशेषताओं का उल्लेख कोजिए जिनके कारण आचार्य हजारी प्रसाद दविवेद ने उसे ‘कलणारी अवधूत कहा है।

उत्तर –

आचार्य हजारी प्रसाद विवेदी ने शिरीष को ‘कालजयी अवधूत’ कहा है। उन्होंने उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं –

1. वह संन्यासी की तरह कठोर मौसम में जिंदा रहता है।

2, वह भीषण गरमी में भी फूलों से लदा रहता है तथा अपनी सरसता बनाए रखता है।

3. वह कठिन परिस्थितियों में भी घुटने नहीं टेकता।

4. वह संन्यासी की तरह हर स्थिति में मस्त रहता है।

प्रश्न 4:

लेखक ने शिरीष के माध्यम से कि दवदव को व्यक्त किया है?

उत्तर –

लेखक ने शिरीष के पुराने फलों की अधिकार-लिप्सु लड़खड़ाहट और नए पत्ते-फलों द्वारा उन्हें धकियाकर बाहर निकालने में साहित्य, समाज व राजनीति में पुरानी त नयी पीढ़ी के द्वंद्व को बताया है। वह स्पष्ट रूप से पुरानी पीढ़ी व हम सब में नएपन के स्वागत का साहस देखना चाहता है।

प्रश्न 5:

कालिदास-कृत शकुंतला के सौंदर्य-वर्णन को महत्व देकर लेखक ‘सौंदर्य को स्त्री के एक मूल्य के रूप में स्थापित करता प्रतीत होता हैं। क्या यह सत्य हैं? यदि हों, तो क्या ऐसा करना उचित हैं?

उत्तर –

लेखक ने शकुंतला के रौंदर्य का वर्णन करके उसे एक स्त्री के लिए आवश्यक तत्व स्वीकार किया है। प्रकृति ने स्त्री को कोमल भावनाओं से मुक्त बनाया है। स्त्री को उसके सौंदर्य से ही अधिक गाना गया है, न कि शक्ति से। यह तथ्य आज भी उतना ही सत्य है। स्त्रियों का अलंकारों व वस्त्रों के प्रति आकर्षण भी यह सिद्ध करता है। यह उचित भी है क्योंकि स्त्री प्रकृति की सुकोमल रचना है। अतः उसके साथ छेड़छाड़ करना अनुचित है।

प्रश्न 6:

ऐसे दुमदारों से तो लडूरे भले-इसका भाच स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

लेखक कहता है कि दुमदार अर्थात सजीला पक्षी कुछ दिनों के लिए सुंदर नृत्य करता है, फिर दुम गवाकर कुरूप हो जाता है। यहाँ लेखक मोर के बारे में कह रहा है। वह बताता है कि सौंदर्य क्षणिक नहीं होना चाहिए। इससे अच्छा तो पूँछ केटा पक्षी ही ठीक है। उसे कुरुप होने की दुर्गति तो नहीं झेलनी पड़ेगी।

प्रश्न 7:

विज्जिका ने ब्रहमा, वाल्मीकि और व्यास के अतिरिक्त किसी को कवि क्यों नहीं माना है?

उत्तर –

कर्णाट राज की प्रिया विज्जिका ने केवल तीन ही को कवि माना है-ब्रहमा, वाल्मीकि और व्यास को। ब्रहमा ने वेदों की रचना की जिनमें ज्ञान की अथाह राशि है। वाल्मीकि ने रामायण की रचना की जो भारतीय संस्कृति के मानदंडों को बताता है। व्यास ने महाभारत की रचना की, जो अपनी विशालता व विषय-व्यापकता के कारण विश्व के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्यों में से एक है। भारत के अधिकतर साहित्यकार इनसे प्रेरणा लेते हैं। अन्य साहित्यकारों की रचनाएँ प्रेरणास्रोत के रूप में स्थापित नहीं हो पाई। अतः उसने किसी और व्यक्ति को कवि नहीं माना

शिरीष के फूल

पठित गद्यांश

निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –

प्रश्न 1:

जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दायें-बायें, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निधूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फुल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्यध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भॉति। कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक ठ। पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंड के खंड ‘दिन दस फूला फूलिक, संखड़ गया पलारा!’ ऐसे दुमदारों से तो लैंडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के भागमन के साथ लहक उठता है, भाषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है।

प्रश्न

1, लेखक कहाँ बैठकर लिख रहा है? वहाँ कैसा वातावरण हैं?

2. लेखक शिरीष के फूल की क्या विशेषता बताता हैं?

3. कबीरदास को कौन-से फूल पसंद नहीं थे तथा क्यों?

4, शिरीष किस ऋतु में लहकता है?

उत्तर –

1. लेखक शिरीष के पेड़ों के समूह के बीच में बैठकर लिख रहा है। इस समय जेठ माह की जलाने वाली धूप पड़ रही है तथा सारी धरती अग्निकुंड की भाँति बनी हुई है।

2, शिरीष के फूल की यह विशेषता है कि भयंकर गरमी में जहाँ अधिकतर फूल खिल नहीं पाते, वहाँ शिरीष नीचे से ऊपर तव फूलों से लदा होता है। ये फूल लंबे समय तक रहते हैं।

3, कबीरदास को पलास (ढाक के फूल पसंद नहीं थे क्योंकि वे पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलते हैं तथा फिर अंखड़ हो जाते हैं। उनमें जीवन-शक्ति कम होती है। कदीरदात को अल्पायु वाले कमजोर फूल पसंद नहीं थे।

4, शिरीष वसंत ऋतु आने पर लहक उठता है तथा आषाढ़ के महीने से इसमें पूर्ण मस्ती होती है। कभी-कभी वह उमस भरे शादों मास तक भी फूलता है।

प्रश्न 2:

मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्धात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत देंठ भी नहीं हैं। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल जरूर पैदा करते हैं।

प्रश्न:

1, अवधूत किसे कहते हैं? शिरीष को कालजयी अवधूत क्यों कहा गया है?

2. ‘नितांत 3 से यहाँ क्या तात्पर्य है? लेखक स्वयं को नितांत ठेंठ क्यों नहीं मानता ?

३. शिरीष जीवन की अजेयता का मंत्र कैसे प्रचारित करता रहता है?

4. आशय स्पष्ट कीजिए-‘मन रम गया तो भरे भादों में भी नियति कुलता रहता है।

उत्तर –

1. ‘अवधूत वह है जो सांसारिक मोहमाया से ऊपर होता है। वह संन्यासी होता है। लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है।

योंकि वह कठिन परिस्थितियों में भी फलता फूलता रहता है। भयंकर गरमी, लू, उमस आदि में भी शिरीष का पे फूलों से लदा हुआ मिलता है।

2. ‘निति हुँठ’ का अर्थ है-रसहीन होना। लेखक स्वयं को प्रकृति-प्रेमी व भावुक मानता है। उसका मन भी शिरीष के फूलों को देखकर तरंगित होता है।

3. शिरीष के पेड़ पर फूल भयंकर गरमी में आते हैं तथा लंबे समय तक रहते हैं। उमस में मानव बेचैन हो जाता है तथा लू से शुष्कता आती है। ऐसे समय में भी शिरीष के पेड़ पर फूल रहते हैं। इस प्रकार वह अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचारित करता है।

4, इसका अर्थ यह है कि शिरीष के पेड़ वसंत ऋतु में फूलों से लद जाते हैं तथा आषाढ़ तक मसा रहते हैं। आगे मौसम की स्थिति में बड़ा फेरबदल न हो तो भादों की उमस व गरमी में भी ये फूलों से लदे रहते हैं।

प्रश्न 3:

शिरीष के फूले की कोमलता देखकर परवती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं। कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धक्रियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली मुष्प-पन्न से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह ख ड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आत#2368; हैं, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।

प्रश्न

1. शिरीष के नए फल और पत्तों का पुराने फलों के प्रति व्यवहार संसार में किस रूप में देखने को मिलता है?

2, किसे आधार मानकर बाद के कवियों को परवर्ती कहा गया है ? उनकी समझ में क्या भूल थी ?

3. शिरीष के फूलों और फलों के स्वभाव में क्या अंतर हैं?

4. शिरीष के फूलों और आधुनिक नेताओं के स्वभाव में लेखक को क्या समय दिखाई पड़ता है?

उत्तर –

1. शिरीष के नए फल व पत्ते नवीनता के परिचायक हैं तथा पुराने फल प्राचीनता के नयी पीढ़ी प्राचीन रूढ़िवादिता को धकेलकर नव- निर्माण करती है। यही संसार का नियम है।

2. कालिदास को भाधार मानकर बाद के कवियों को परवर्ती कहा गया है। उन्होंने भी भूल से शिरीष के फूलों को कोमल मान लिया।

3, शिरीष के फूल बेहद कोमल होते हैं, जबकि फल अत्यधिक मजबूत होते हैं। ये तभी अपना स्थान छोड़ते हैं अब नए फल और पत्ते मिलकर उन्हें धकियाकर बाहर नहीं निकाल देते।

4, लेखक को शिरीष के फलों व आधुनिक नेताओं के स्वभाव में अडिगता तथा कुर्सी के मोह को समानता दिखाई पड़ती है। ये दोनों तभी स्थान छोड़ते हैं जब उन्हें धकियाया जाता है।

प्रश्न 4:

मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य है। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी-धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरास झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हैं कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है। सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहे तो कालदेवता की। आँख बचा जाऐंगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!

प्रश्न:

1. जीवन का सत्य वया हैं?

2. शिरीष के फूलों को देखकर लेखक क्या कहता हैं?

3, महाकाल के कोई चलाने से क्या अभिप्राय है?

4. मुर्ख व्यक्ति क्या समझते हैं ?

उत्तर –

1. जीवन का सत्य है वृद्धावस्था व मृत्यु। ये दोनों जगत के अतिपरिचित व अतिप्रामाणिक सत्य हैं। इनसे कोई बच नहीं सकता।

2, शिरीष के फूलों को देखकर लेखक कहता है कि इन्हें फूलते ही यह समझ लेना चाहिए कि झड़ना निश्चित है।

3. इसका अर्थ यह है कि यमराज निरंतर कोड़े बरसा रहा है। समय-समय पर मनुष्य को कष्ट मिलते रहते हैं, फिर भी मनुष्य जीना चाहता है।

4, मूर्ख व्यक्ति समझते हैं कि वे जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो मृत्यु से बच जाएँगे। वे समय को धोखा देने की कोशिश करते हैं।

प्रश्न 5:

एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधों का देना। जब धरती और भासमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आ याम मा रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह इस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस पता है। जरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर तू के समय इतने कमल तनुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस धाएँ निकली हैं। कबीर बहुत कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और देपरवाह, पर सरस और मादक। कालिदास भी जस अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्ड़ाना मरूती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के भनासक्त भनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझगया, वह भी क्या कवि है?

प्रश्न:

1. लेखक ने शिरीष को क्या संज्ञा दी है तथा क्यों ?

2. ‘अवधूतों के मुंह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं?-आशय स्पष्ट कीजिए।

3. कबीरदास पर लेखक ने क्या टिप्पणी की है ?

4. कदीरदास पर लेखक ने क्या टिप्पणी की हैं?

उत्तर –

1. लेखक ने शिरीष को अवधूत की संज्ञा दी है क्योंकि शिरीष भी कठिन परिस्थितियों में मस्ती से जीता है। उसे संसार में किसी से मोह नहीं है।

2. लेखक कहता है कि अवधूत जटिल परिस्थितियों में रहता है। फक्कड़पन, मस्ती व अनासक्ति के कारण ही वह सरस रचना कर सकता है।

3. कालिदास को लेखक ने ‘अनासक्त योगी कहा है। उन्होंने मेघदूत’ जैसे सरस महाकाव्य की रचना की है। बाहरी सुख-दुख से दूर होने वाला व्यक्ति ही ऐसी रचना कर सकता है।

4. कबीरदास शिरीष के समान मा, फक्कड़ व सरस थे। इसी कारण उन्होंने संसार को सरस रचनाएँ दीं।

प्रश्न 6:

कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, वे मजाक व अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी लंद बना लेता हूँ तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे-तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहुदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था-‘वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाह्या!’ में तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हैं। अब इस शिरीष के पूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय में वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला हैं। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह रहकर उनका मन खीझ उठता था। 3हैं कहीं-न-कह। का ठूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंलता के कानों में वे उस शिरीष पुष्य को देना भूल गए हैं, जिसके करार गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।

प्रश्न

1. लेखक कालिदास को श्रेष्ठ कवी वयों मानता है?

2. भाम कवि व कालिदास में क्या अंतर हैं?

3. ‘शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी”-आशय स्पष्ट करें।

4. दुष्यंत वे खीझने का क्या कारन था ? अंत में उसे क्या समझ में आया?

उत्तर –

1, लेखक ने कालिदास को श्रेष्ठ कवि माना है कि कालिदास के शब्दों व अर्थों में साथ है। वे अनासक्त योगी की तरह रियर प्रज्ञता व विदग्ध प्रेमी का हृदय भी पा चुके थे। श्रेष्ठ कवि के लिए यह गुण आवश्यक है।

2. ओम कवि शब्दों की लय, तुक व छेद से संतुष्ट होता है, परंतु विषय की गहराई पर ध्यान नहीं देता है। हालांकि अकालिदास कविता के बाहरी तत्र्यों में विशेषज्ञ तो थे ही, वे विषय में डूबकर लिखते थे।

3. लेखक का मानना है कि शकुंतला सुंदर थी, परंतु देखने वाले की दृष्टि में सौंदर्यबोध होना बहुत जरूरी है। कालिदास की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही शकुंतला का सौंदर्य निखरकर भाया है। यह कवि की कल्पना का चमत्कार है।

4, दुष्यंत ने शकुंतला का चित्र बनाया था, परंतु उन्हें उसमें संपूर्णता नहीं दिखाई दे रही थी। काफी देर बाद उनकी समझ में आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहनाए धे, गले में मृणाल का हार पहनाना भी शेष था।

प्रश्न 7:

कालिदास सौंदर्य के बाहय आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृषीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि ये अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति भाधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-‘राजधान का सिंहद्वार कितना हीं अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यहीं बताना उसका कर्तव्य है। फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।

प्रश्न:

1. कालिदास की रौंदर्य दूष्टि के बारे में बताइए।

2, कालिदास की समानता आधुनिक काल के किन कवियों से दिखाई गाई ?

3. रवींद्रनाथ ने राजोद्यान के सिंहद्वार के बारे में क्या लिखा हैं?

4. फूलों या पेडों से हमें क्या प्रेरणा मिलती हैं?

उत्तर –

1, कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि सूक्ष्म व संपूर्ण थी। वे सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके अंदर के सौंदर्य को प्राप्त करते थे। वे दुख या सुख-दोनों स्थितियों से अपना भाव-रस निकाल लेते थे।

2, कालिदास की समानता आधुनिक काल के कवियों सुमित्रानंदन पंत व रवींद्रनाथ टैगोर से दिखाई गई है। इन स में अनासक्त भाय है। तटस्थता के कारण ही ये कविता के साथ न्याय कर पाते हैं।

3, रवींद्रनाथ ने एक जगह लिखा है कि राजोद्यान का सिंहद्धार कितना ही गगनचुंबी वयों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर धयों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर हीं सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद हीं है, यहीं बताना उसका कर्तव्य है।

4. फूलों या पैड़ों से हमें जीवन की निरंतरता की प्रेरणा मिलती है। कला की कोई सीमा नहीं होती। पुष्य या पेड़ अपने सौंदर्य से यह बताते हैं कि यह सौंदर्य अंतिम नहीं है। इससे भी अधिक सुंदर हो सकता है।

प्रश्न 8:

शिरीष तरु सचमुच पक्के भवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से शो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा वयों संभव हुआ है? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है।

प्रश्न

1. शिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत से क्यों की गई है? यह वृक्ष लेखक में किस प्रकार की भावना जाता है ?

2. चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें क्या प्रेरणा दे रहा हैं?

3. गद्यांश में देश के ऊपर के किस बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया है?

4, अपने देश का एक बूढ़ा कौन था ? ऊसे बूढे और शिरीष में समानता का आधार लेखक ने क्या मन है ?

उत्तर –

1. अवधूत से तात्पर्य अनासक्त योगी से है। जिस तरह योगी कठिन परिस्थितियों में भी मस्त रहता है, उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भयंकर गर्मी, जगस में भी फुला रहता है। यह वृक्ष मनुष्य को हर परिस्थिति में संघर्षशील, जुझारू व रारा बनने की भावना गाता

2. चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें प्रेरणा देता है कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए तथा हर परिस्थिति में मस्त रहना चाहिए।

3. इस गद्यांश में देश के ऊपर से सांप्रदायिक दंगों, खून-खराबा, मार-पीट, लूटपाट रूपी बवंडर के गुजरने की और संकेत किया गया है।

4, ‘अपने देश का एक बूढ़ा महात्मा गांधी है। दोनों में गजब की सहनशक्ति है। दोनों ही कठिन परिस्थितियों में सहण भाय से रहते हैं। इसी कारण दोनों समान हैं।

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