अनुच्छेद लेखन | class 12th | Important question Hindi कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन

अनुच्छेद लेखन

किसी विषय से संबंद्ध महत्तवपूर्ण बातों का सार एक अनुच्छेद में सुंदर ढंग से उपस्थित कर देना “अनुच्छेद लेखन” कहलाता है। अनुच्छेद और निबंध में काफी अंतर होता है। जैसे:

  • 1. निबंध में किसी विषय को विस्तार में प्रयुक्त किया जाता है जबकि अनुच्छेद में विषय का सार लिखा जाता है।
  • 2. निबंध में हर बिंदु को अलग-अलग पैरा में लिखा है जबकि अनुच्छेद में केवल एक ही पैरा में लिखा जाता है।
  • 3. निबंध में उदाहरण, सूक्तियाँ, उद्धरण आदि का समावेश होता है, जबकि अनुच्छेद में प्रायः ऐसा नहीं होता।
  • 4. निबंध के शब्दों की मात्रा अनुच्छेद से बहुत अधिक होती है।

अनुच्छेद लिखने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
विषय से संबंधित सभी बातों को एकत्र कर लीजिए। मुख्य सामग्री को प्रमुख बिंदुओं में बाँट लीजिए। तत्पश्चात् उन्हें संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। विषय के अनावश्यक विस्तार तथा पक्ष-विपक्ष की विवेचना से बचना चाहिए। वाक्य छोटे व प्रभावशाली हों। भाषा सरल और सुगम होनी चाहिए। आरंभ में बिना भूमिका बाँधे सीधे विषय पर आ जाना चाहिए। सभी प्रमुख बिंदुओं का समावेश होना चाहिए। लेखन करते समय वाक्यों में तारतम्य बना रहना चाहिए। अनुच्छेद में अनेक पैरा नहीं बनाना चाहिए। केवल एक ही पैरा में लिखना चाहिए।

उदाहरण स्वरूप कुछ अनुच्छेद आगे दिए जा रहे हैं:

सच्चा मित्र

यदि हम किसी से कोई सहायता न माँगें तो सारी दुनिया ऐसा दर्शाएगी जैसे कि वह हमारी मित्र है। पर, जैसे ही हम किसी के सामने मदद के लिए हाथ पसारते हैं, तो कोई भी मदद के लिए नहीं आता। विपत्ति के समय हमें अकेला रहना पड़ता है। संपन्नता में तो हमारे कई मित्र बन जाते हैं, परंतु संकट की घड़ी में सही मित्रों की पहचान होती है। दरअसल, सच्चा मित्र वही है, जो संकट के समय काम आए। जो व्यक्ति कठिनाई के वक्त हमारी सहायता करता है, वही सच्चा मित्र है, बाकी सब मतलब के यार हैं। सच्चा मित्र हमें आफत में फंसा देखकर भाग नहीं सकता। वह हरसंभव उपाय करेगा। इसलिए तो किसी ने कहा है- सच्चा मित्र वही है जो संकट के समय काम आए।

वसंत ऋतु

वर्षा यदि ऋतुओं की रानी है तो वसंत “ऋतुराज” है। ऋतुराज वसंत फाल्गुन, चैत्र एवं वैशाख मास में आता है। वसंत अत्यंत सौंदर्ययुक्त ऋतु है। इस समय न अधिक गर्मी होती है, और न अधिक सर्दी। वसंत की सुहावनी वायु मन को आनंदित कर देती है। वृक्षों के सूखे पत्ते झड़ जाते हैं। प्रकृति नए-नए वस्त्र धारण करके, नूतन श्रृंगार करके एक दूल्हन की भाँति सजधज कर आती है। भाँति-भाँति के सुगंधित पुष्पों पर भौरे गूंजने लगते हैं। सरसों के खेतों को देखकर प्रतीत होता है मानो प्रकृति ने पीली चादर ओढ़ ली है। वास्तव में देखा जाए तो वसंत मौज-मस्ती, मादकता तथा सौंदर्य की ऋतु है। इस ऋतु में भ्रमण करने से अजीब आनंद मिलता है। इसी ऋतु में वसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाता है। वसंत ऋतु का प्रारंभ ही वसंत पंचमी से होता है। कहते हैं, इसी दिन ज्ञान की देवी सरस्वती का जन्म हुआ था। अतः वसंत पंचमी के दिन धूमधाम से सरस्वती देवी की पूजा-अर्चना विद्यार्थी लोग करते हैं।

प्रदूषण

आज के युग को विज्ञान का युग कहा जाता है। आज मनुष्य ने पृथ्वी, आकाश तथा जल पर अपना आधिपत्य जमा लिया है तथा अपनी सुविधाओं के लिए अनेक मशीनों एवं आविष्कारों को जन्म दिया है। जनसंख्या वृद्धि के कारण वनों की कटाई तेजी से हुई है और वहाँ उद्योग-धंधों का विस्तार हुआ है। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया है। वर्षा, जलवायु तथा भूमि पर इसका दुष्प्रभाव पड़ा है। चिमनियों से निकलने वाले धुएँ बसों-ट्रकों आदि वाहनों से निकलने वाले धुएँ से वातावरण प्रदूषित हो गया है जिससे अनेक प्रकार के रोग हो रहे हैं। धुएँ में जहरीले पदार्थ होते हैं जो साँस के द्वारा हमारे शरीर में पहुँच जाते हैं। इसी प्रकार मिलों से बेकार हो जाने वाला पदार्थ नदियों में बहा दिया जाता है। इससे पानी प्रदूषित हो जाता है जिससे अनेक प्रकार के रोगों का जन्म होता है। प्रदूषण की समस्या अत्यंत भयंकर समस्या है। वनों की कटाई पर रोक लगाई जानी चाहिए तथा वृक्षारोपण पर बल दिया जाना चाहिए। इससे प्रदूषण कम होता जाएगा क्योंकि वृक्ष दूषित वायु को स्वच्छ वायु में परिवर्तित करते हैं। हम सबका यह कर्तव्य है कि वृक्ष लगाएँ।

आत्म सम्मान

मानव जीवन में आत्मसम्मान या स्वाभिमान का बहुत अधिक महत्त्व है। आत्म सम्मान में अपने व्यक्ति को अधिक-से-अधिक सशक्त एवं प्रतिष्ठित बनाने की भावना निहित होती है। इससे शक्ति, साहस, उत्साह आदि गुणों का जन्म होता है; जो जीवन की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। आत्मसम्मान की भावना से पूर्ण व्यक्ति संघर्षों की परवाह नहीं करता है और हर विषम परिस्थिति से टक्कर लेता है। आत्मसम्मानी व्यक्ति धर्म, सत्य, न्याय और नीति के पथ का अनुगमन करता है। ऐसे व्यक्ति में राष्ट्र के प्रति सच्ची निष्ठा होती है। चूँकि आत्मसम्मानी व्यक्ति अपनी अथवा दूसरों की आत्मा का हनन करना पसंद नहीं करता, इसलिए वह ईर्ष्या-द्वेष जैसी भावनाओं से मुक्त होकर मानव-मात्र को अपने परिवार का सदस्य मानता है। निश्छल हृदय होने के कारण वह आसुरी वृत्तियों से सर्वथा मुक्त होता है। उसमें ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति, विश्वास एवं निष्ठा होती है, जिससे उसकी आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है। जीवन को सरस और मधुर बनाने के लिए आत्मसम्मान रसायन-तुल्य है।

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अपठित काव्यांश | class 12th |  Hindi Unseen Passages अपठित बोधअपठित Important question

अपठित काव्यांश या अपठित पद्यांश किसे कहते हैं?

परीक्षा में ऐसे काव्यांशों को प्रस्तुत किया जाता है जो पाठ्य पुस्तक से बाहर से लिए गए होते हैं। अर्थात छात्र ने अभी तक इन काव्यांशों का अध्ययन नहीं किया होता बल्कि वह पहली बार उस काव्यांश को पढ़ रहा होता है। ऐसे काव्यांश पर आधारित प्रश्न परीक्षा में पूछ कर छात्र की कविता के भाव और अर्थ को समझने की क्षमता को परखा कर मूल्याङ्कन किया जाताहै।
यद्यपि यह काव्यांश छात्र ने पहले कभी नहीं पढ़ा होता किन्तु थोड़े अभ्यास के साथ परीक्षा में जाने से विद्यार्थी काव्यांश के सभी प्रश्नों के अच्छे उत्तर लिख सकता है।

अपठित काव्यांश प्रश्न हल करने की विधि

अपठित काव्यांश पर आधारित प्रश्न हल करते समय निनलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

  • विद्यार्थी कविता को मनोयोग से पढ़ें, ताकि उसका अर्थ समझ में आ जाए। यदि कविता कठिन है, तो उसे बार-बार पढ़ें, ताकि भाव स्पष्ट हो सके।
  • कविता के अध्ययन के बाद उससे संबंधित प्रश्नों को ध्यान से पढ़िए।
  • प्रश्नों के अध्ययन के बाद कविता को दुबारा पहिए तथा उन पंक्तियों को बुनिए, जिनमें प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हों।
  • जिन प्रश्नों के उत्तर सीधे तौर पर मिल जाएँ उन्हें लिखिए।
  • कुछ प्रश्न कठिन या सांकेतिक होते हैं। उनका उत्तर देने के लिए कविता का भाव तत्व समझिए।
  • प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट होने चाहिए।
  • प्रश्नों के उत्तर की भाषा सहज व सरल होनी चाहिए।
  • उत्तर अपने शब्दों में लिखिए।
  • प्रतीकात्मक व लाक्षणिक शब्दों के उत्तर एक से अधिक शब्दों में दीजिए। इससे उत्तरों की स्पष्टता बढ़ेगी।

Class 12 Hindi अपठित काव्यांश with answers

  1. निम्नलिखित काव्यांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

अपने नहीं अभाव मिटा पाया जीवन भर

पर औरों के सभी भाव मिटा सकता हैं।

तूफानोंभूचालों की भयप्रद छाया में,

मैं ही एक अकेला हूँ जो गा सकता हैं।

 मेरे में की संज्ञा भी इतनी व्यापक है,

इसमें मुझसे अगणित प्राणी  जाते हैं।

मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है।

में खंडहर को फिर से महल बना सकता है।

 जबजब भी मैंने खंडहर आबाद किए हैं,

प्रलय मेध भूधाल देख मुझको शरमाए।

में मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या 

अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।

उपरोक्त अपठित काव्यांश पर प्रश्न :

(उपर्युक्त काव्यपंक्तियों में किसका महत्व प्रतिपादित किया गया है?

(स्वर्ग के प्रति मजदूर की विरक्ति का क्या कारण है?

(किन कठिन परिस्थितियों में उसने अपनी निर्भयता प्रकट की है।

(मेरे मैं की संज्ञा भी इतनी व्यापक हैइसमें मुझ से अगणित प्राणी  जाते हैं।

उपर्युक्त पंक्तियों का भाय स्पष्ट कर लिखिए।

(अपनी शक्ति और क्षमता के प्रति उसने क्या कहकर अपना आत्मविश्वास प्रकट किया है?

अपठित काव्यांश पर प्रश्नों के उत्तर :

(क) उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में मजदूर की शक्ति का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

 (ख) मजदूर निर्माता है । वह अपनी शक्ति से धरती पर स्वर्ग के समान सुंदर बस्तियों बना सकता है। इस कारण उसे स्वर्ग से विरक्ति है।

 (ग) मज़दूर ने तूफानों व भूकंप जैसी मुश्किल परिस्थितियों में भी घबराहट प्रकट नहीं की है। वह हर मुसीबत का सामना करने को तैयार रहता है।

 (घ) इसका अर्थ यह है कि मैं सर्वनाम शब्द श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा है। कवि कहना चाहता है कि मजदूर वर्ग में संसार के सभी क्रियाशील प्राणी भा जाते हैं।

 (ड) मज़दूर ने कहा है कि वह खंडहर को भी आबाद कर सकता है। उसकी शक्ति के सामने भूचाल, प्रलय व बादल भी झुक जाते हैं।

Class 12 Hindi अपठित काव्यांश with answers

  1. निम्नलिखित काव्यांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,

मृत्यु एक है विश्रामस्थल।

जीव जहाँ से फिर चलता है,

धारण कर नस जीवन संबल।

मृत्यु एक सरिता हैजिसमें

श्रम से कातर जीव नहाकर

 फिर नूतन धारण करता है,

काया रूपी वस्त्र बहाकर।

सच्चा प्रेम वही है जिसकी –

तृप्ति आत्मबलि पर ही निर्भर

त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,

करो प्रेम पर प्राण निछावर 

उपरोक्त अपठित काव्यांश पर प्रश्न :

(कवि ने मृत्यु के प्रति निर्भय बने रहने के लिए क्यों कहा है?

(मृत्यु को विश्रामस्थल क्यों कहा गया है?

(कवि ने मृता की तुलना किससे और क्यों की है?

(मृत्यु रूपी सरिता में नहाकर जीव में क्या परिवर्तन  जाता है?

(सध्ये प्रेम की बया विशेषता बताई गई है और उसे कब निष्प्राण कहा गया है?

अपठित काव्यांश पर प्रश्नों के उत्तर :

(क) मृत्यु के बाद मनुष्य फिर नया रूप लेकर कार्य करने लगता है, इसलिए कवि ने मृत्यु के प्रति निर्भय होने को कहा है।

 (ख) कवि ने मृत्यु को विश्राम स्थल की संज्ञा दी है। कवि का कहना है कि जिस प्रकार मनुष्य चलते-चलते थक जाता है और विश्राम- स्थल पर रुककर पुनः ऊर्जा प्राप्त करता है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद जीव नए जीवन का सहारा लेकर फिर से चलने लगता है।

 (ग) कवि ने मृत्यु की तुलना सरिता से की है, क्योंकि जिस तरह धका व्यक्ति नदी में स्नान करके अपने गीले वस्त्र त्यागकर सूखे वस्त्र पहनता है, उसी तरह मृत्यु के बाद मानव नया शरीर रूपी वस्त्र धारण करता है।

 (घ) मृत्यु रूपी सरिता में नहाकर जीत ना शरीर धारण करता है तथा पुराने शरीर को त्याग देता है।

 (ङ) सध्या प्रेम दह है, जो आत्मबलिदान देता है। जिस प्रेम में त्याग नहीं होता, वह निष्प्राण होता है।

Class 12 Hindi अपठित काव्यांश with answers

  1. निम्नलिखित काव्यांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

जीवन एक कुआ है।

अधाह– अगम

सबके लिए एक सा वृत्ताकार।

जो भी पास जाता है,

सहज ही तृप्तिशांतिजीवन पाता है

मगर छिद्र होते हैं जिसके पात्र में

रस्सीडोर रखने के बाद भी,

हर प्रयत्न करने के बाद भी

यह यहाँ प्यासाकाप्यासा रह जाता है।

मेरे मनतूने भीबारबार

बड़ी बड़ी रसियाँ बटी

रोजरोज कुएँ पर गया

 तरहतरह घड़े को चमकाया,

पानी में डुबायाउतराया

लेकिन तू सदा ही –

प्यासा गयाप्यासा ही आया 

और दोध तूने दिया

कभी तो कुएं को

कभी पानी को

कभी सब को

मगर कभी जॉचा नहीं खुद को

परखा नहीं पड़े की तली को 

चीन्हा नहीं उन असंख्य छिद्रों को

और मूढ़ अब तो खुद को परख देख।

उपरोक्त अपठित काव्यांश पर प्रश्न :

(कविता में जीवन को कुआँ क्यों कहा गया हैकैसा व्यक्ति कुएँ के पास जाकर भी प्यासा रह जाता है।

(कवि का मन सभी प्रकार के प्रयासों के उपरांत भी प्यासा क्यों रह जाता है।

(और तूने दोष दिया……कभी सबकों का आशय क्या है।

(यदि किसी को असफलता प्राप्त हो रही हो तो उसे किन बातों की जाँचपरख करनी चाहिए?

() ‘चीन्हा नहीं उन असंख्य छिद्रों को – यहाँ असंख्य छिद्रों के माध्यम से किस ओर संकेत किया गया है ?

अपठित काव्यांश पर प्रश्नों के उत्तर :

(क) कवि ने जीवन को कुआँ कहा है, क्योंकि जीवन भी कुएँ की तरह अथाह व अगम है। दोषी व्यक्ति कुएँ के पास जाकर भी प्यासा रह जाता है।

 (ख) कवि ने कभी अपना मूल्यांकन नहीं किया। वह अपनी कमियों को नहीं देखता। इस कारण वह सभी प्रकार के प्रयासों के बावजूद प्यासा रह जाता है।

 (ग) और तूने दोष दिया….कभी सबको का आशय है कि हम अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी मानते हैं।

 (घ) यदि किसी को असफलता प्राप्त हो तो उसे अपनी कमियों के बारे में जानना चाहए। उन्हें सुधार करके कार्य करने चाहिए।

 (ड) यहाँ असंख्य छिद्रों के माध्यम से मनुष्य की कमियों की ओर संकेत किया गया है।

Class 12 Hindi अपठित काव्यांश with answers

  1. निम्नलिखित काव्यांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

उम्र बहुत बाकी है लेकिनउग्र बहुत छोटी भी तो है

एक स्वप्न मोती का है तोएक स्वप्न रोटी भी तो है।

घुटनों में माथा रखने से पौरखर पार नहीं होता है।

सोया है विश्वास जगा लोहम सब को नदिया तरनी है।

तुम थोड़ा अवकाश निकालोतुमसे दो बातें करनी हैं।

 मन छोटा करने से मोटा काम नहीं छोटा होता है,

नेह कोष को खुलकर बाँटोकभी नहीं टोटा होता है,

आँसू वाला अर्थ  समझेतो सब ज्ञान व्यर्थ जाएंगे।

मत सच का आभास दमा लो शाश्वत आग नहीं मरनी है।

तुम थोड़ा अवकाश निकालीतुमसे दो बातें करनी हैं।

उपरोक्त अपठित काव्यांश पर प्रश्न :

(मशीनी युग में समय महँगा होने का क्या तात्पर्य है। इस कथन पर आपकी क्या राय है?

() ‘मोती का स्वप्न और ‘रोटी का स्वप्न से क्या तात्पर्य है दोनों किसके प्रतीक है?

(घुटनों में माधा रखने से पोखर पार नहीं होता है पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।

(मन और स्नेह के बारे में कवि क्या परामर्श दे रहा है और क्यों?

(सच का आभास क्यों नहीं दबाना चाहिए?

अपठित काव्यांश पर प्रश्नों के उत्तर : –

(क) इस युग में व्यक्ति समय के साथ बाँध गया है। उसे हर घंटे के हीसाब से मज़बूरी मिलती है । हमारी राय में यह बात सही है।

 (ख) ‘मोती का स्वप्न’ का तात्पर्य वैभवयुक्त जीवन की आकांक्षा से है तथा ‘रोटी का स्वप्न का तात्पर्य जीवन की मूल जरूरतों को पूरा करने से है। दोनों अमीरी व गरीबी के प्रतीक हैं।

 (ग) इसका भाव यह है कि मानव निष्क्रिय होकर आगे नहीं बढ़ सकता। उसे परिश्रम करना होगा तभी उसका विकास हो सकता है।

 (घ) गन के बारे में कवि का मानना है कि मनुष्य को हिम्मत रखनी चाहिए। हौसला खोने से कार्य या बाधा खत्म नहीं होती। ‘स्नेह भी बॉटने से कभी कम नहीं होता। कवि मनुष्य को मानवता के गुणों से युक्त होने के लिए कह रहा है।

 (ङ) सच का आभास इसलिए नहीं दबाना चाहिए, क्योंकि इससे वास्तविक समस्याएँ समाप्त नहीं हो जातीं।

Class 12 Hindi अपठित काव्यांश with answers

  1. निम्नलिखित काव्यांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

नदीन कंठ दो कि मैं नवीन गान गा सकू,

स्वतंत्र देश की नवीन आरती सजा सकें।

नदीन दृष्टि का नया विधान आज हो रहा,

नवीन आसमान में विहान आज हो रहा,

खुली दसों दिशा खुले कपाट ज्योतिद्वार के

विमुक्त राष्ट्र सूर्य भासमान आज हो रहा।

युगांत की व्यथा लिए अतीत आज रो रहा,

दिगंत में वसंत का भविष्य बीज बो रहा,

कुलीन जो उसे नहीं गुमान या गरूर है,

समर्थ शक्तिपूर्ण जो किसान या मजूर है।

भविष्य द्वार मुक्त से स्वतंत्र भाव से चलो,

मनुष्य बन मनुष्य से गले मिले चले चलो,

समान भाव के प्रकाशवान सूर्य के तले

समान रूपगंध फूलफूलसे खिले चलो।

 सुदीर्घ क्रांति झेलखेल की ज्वलंत भाग से

स्वदेश बल सँजो रहा की थकान खो रहा।

प्रबुद्ध राष्ट्र को नवीन वंदना सुना सकू,

नवीन बीन दो कि मैं अगीत गान गा सकें!

नए समाज के लिए नदीन नींव पड़ चुकी,

नए मकान के लिए नवीन ईट गढ़ चुकी,

सभी कुटुंब एककौन पाराकौन दूर है।

नए समाज का हरेक व्यक्ति एक नूर है।

पुराण पथ में खड़े विरोध वैर भाव के

त्रिशूल को दले थलोबबूल को मले थलो।

प्रवेशपर्व है स्वदेश का नवीन वेश में

मनुष्य बन मनुष्य से गले मिलो चले चलो।

नवीन भाव दो कि मैं नवीन गान गा सकू,

नवीन देश की नवीन अर्चना सुना सकू!”

उपरोक्त अपठित काव्यांश पर प्रश्न :

(कवि नई आवाज की आवश्यकता क्यों महसूस कर रहा है।

(नए समाज का हरेक व्यक्ति एक नूर हैआशय स्पष्ट कीजिए।

(कवि मनुष्य को क्या परामर्श दे रहा है?

(कवि किस नवीनता की कामना कर रहा है।

(किसान और कुलीन की क्या विशेषता बताई गई है?

अपठित काव्यांश पर प्रश्नों के उत्तर : –

(क) कवि नई आवाज की आवश्यकता इसलिए महसूस कर रहा है, ताकि वह स्वतंत्र देश के लिए नए गीत गा सके तथा नई आरती सजा सके।

 (ख) इसका भाशय यह है कि स्वतंत्र भारत का हर व्यक्ति प्रकाश के गुणों से युक्त है। उसके विकास से भारत का विकास है।

 (ग) कवि मनुष्य को परामर्श दे रहा है कि आजाद होने के बाद हमें अन्य मैत्रीभाव से आगे बढ़ना है। सूर्य व फूलों के समान समानता का भाव अपनाना है।

 (घ) कवि कामना करता है कि देशवासियों को वैर विरोध के भावों को भुनाना चाहिए। उन्हें मनुष्यता का भाव अपनाकर सौहाद्रता से आगे बढ़ना चाहिए।

 (ङ) किसान समर्थ व शक्तिपूर्ण होते हुए भी समाज के हित में कार्य करता है तथा कुलीन वह है, जो घमंड नहीं दिखाता।

Class 12 Hindi अपठित काव्यांश with answers

  1. निम्नलिखित काव्यांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

जिसमें स्वदेश का मान भरा

आजादी का अभिमान भरा

जो निर्भय पथ पर बढ़ आए

गौ महाप्रलय में मुस्काए 

 अंतिम दम हो रहे है?

दे दिए प्राणपर नहीं हटे।

जो देशराष्ट्र की वेदी पर

देकर मस्तक हो गए अमर

ये रक्त तिलक भारत ललाट!

 उनको मेरा पहला प्रणाम !

फिर वे जो ऑधी बन भीषण

कर रहे भाज दुश्मन से रण

बाणों के पवि संधान बने 

जो चालामुखहिमवान बने

हैं टूट रहे रिपु के गढ़ पर

बाधाओं के पर्वत चकर

जो न्यायनीति को अर्पित हैं।

भारत के लिए समर्पित हैं।

कीर्तित जिससे यह भरा धाम

उन दीरों को मेरा प्रणाम

 श्रद्धानत कवि का नमस्कार

दुर्लभ है छंदप्रसून हार

इसको बस वे ही पाते हैं।

जो चढे काल पर आते हैं।

हुम्कृति से विश्व काँपते हैं।

पर्वत का दिल दहलाते हैं।

रण में त्रिपुरांतक बने शर्व

कर ले जो रिपु का गर्व खर्च

जो अग्निपुत्रत्यागीअक्राम

उनको अर्पित मेरा प्रणाम!!!

उपरोक्त अपठित काव्यांश पर प्रश्न :

(कवि किन वीरों को प्रणाम करता है?

(कवि ने भारत के माधे का लाल चंदन किन्हें कहा है।

(दुश्मनों पर भारतीय सैनिक किस तरह वार करते हैं?

(काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।

(कवि की श्रद्धा किन वीरों के प्रति है।

अपठित काव्यांश पर प्रश्नों के उत्तर : –

(क) कवि इन वीरों को प्रणाम करता है, जिनमें देश का मान भरा है तथा जो साहस और निडरता से अंतिम दम तक देश के लिए संघर्ष करते हैं।

 (ख) कवि ने भारत के माधे का लाल चंदन (तिलक) उन वीरों को कहा है, जिन्होंने देश की वेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

 (ग) दुश्मनों पर भारतीय सैनिक शॉधी की तरह भीषण वार करते हैं तथा आग उगलते हुए उनके किलों को तोड़ देते हैं।

 (घ) शीर्षक: वीरों को मेरा प्रणाम

 (ङ) कवि की श्रद्धा उन वीरों के प्रति है, जो मृत्यु से नहीं घबराते, अपनी हुंकार से विश्व को कैंपा देते हैं तथा जिनके साहस और वीरता की कीर्ति धरती पर फैली हुई है।

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अपठित गद्यांश | class 12th |  Hindi Unseen Passages अपठित बोधअपठित Important question

 Class 12 Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश

अपठित-बोध क्या है?
‘अपठित’ शब्द ‘पठित’ में ‘अ’ उपसर्ग लगाने से बना है, जिसका अर्थ होता है-जिसे पहले न पढ़ा गया हो। ‘अपठित-बोध’ गद्य अथवा पद्य (काव्य) दोनों ही रूपों में हो सकता है। इन्हीं गद्यांशों या काव्यांशों पर प्रश्न पूछे जाते हैं, जिससे विद्यार्थियों की अर्थग्रहण-क्षमता का आकलन किया जा सके।

अपठित-बोध हल करते समय आने वाली कठिनाइयाँ
अपठित-बोध पहले से न पढ़ा होने के कारण इस पर आधारित प्रश्नों को हल करने में विद्यार्थी परेशानी महसूस करते हैं। कुछ विद्यार्थी अपठित का भाव या अर्थग्रहण किए बिना अनुमान के आधार पर उत्तर लिखना शुरू कर देते हैं। इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। कुछ विद्यार्थी प्रश्नों के उत्तर के रूप में अपठित की कुछ पंक्तियाँ उतार देते हैं। चूँक वे अपठित का अर्थ समझे बिना ऐसा करते हैं, इसलिए न तो उत्तर देने की यह सही विधि है और न उत्तर सही होने की गारंटी। ऐसे में अपठित को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए। अपठित का कोई अंश, वाक्य या शब्द-विशेष समझ में न आए तो भी घबराना या परेशान नहीं होना चाहिए। अपठित के भाव और प्रमुख विचारों को समझ लेने से भी प्रश्नों का उत्तर सरलता से दिया जा सकता है।

अपठित गद्यांश की आवश्यकता क्यों?
अपठित गद्यांश को पढ़ने, समझने और हल करने से अर्थग्रहण की शक्ति का विकास होता है। इससे किसी गद्यांश के विचारों और भावों को अपने शब्दों में बाँधने की दक्षता बढ़ती है। इसके अलावा भाषा पर गहन पकड़ बनती है।

अपठित गव्यांश पर पूछे जाने वाले प्रश्न
अपठित गद्यांश से संबंधित विविध प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनके उत्तर विद्यार्थी को देने होते हैं। इसमें अर्थग्रहण तथा कथ्य से संबंधित प्रश्नों के उत्तर के अलावा गद्यांश में आए कुछ कठिन शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि का अर्थ भी पूछा जाता है। इसके अंतर्गत वाक्य, रचनांतरण, शीर्षक-संबंधी प्रश्नों के अलावा किसी वाक्य या वाक्यांश का आशय स्पष्ट करने के लिए भी कहा जा सकता है।

कैसे हल करें अपठित गद्यांश
अपठित-गद्यांश के अंतर्गत पूछे जाने वाले प्रश्न दिए गए अंशों पर आधारित होते हैं। अत: इनका उत्तर भी हमें गद्यांश के आधार पर देना चाहिए, अपने व्यक्तिगत सोच-विचार पर नहीं। इसके अलावा इन प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान देना चाहिए :

  1. दिए गए गद्यांश को दो-तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए।
  2. इस समय जिन प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँ, उन्हें रेखांकित कर लेना चाहिए।
  3. अब बचे हुए एक-एक प्रश्न का उत्तर सावधानीपूर्वक खोजना चाहिए।
  4. प्रश्नों के उत्तर सदैव अपनी ही भाषा में लिखना चाहिए।
  5. भाषा सरल, सुबोध, बोधगम्य तथा व्याकरण-सम्मत होनी चाहिए।
  6. प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर ही देने चाहिए।
  7. प्रश्न जिस काल या प्रारूप में दिया हो, उत्तर भी उसी के अनुरूप देना चाहिए। दिए गए अवतरण के अंश को बिलकुल उसी रूप में नहीं उतारना चाहिए।
  8. कुछ शब्दों के एक से अधिक अर्थ होते हैं। ऐसे में व्याकरणिक प्रश्नों के उत्तर देते समय अवतरण में वर्णित प्रसंग को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए।
  9. पर्यायवाची, विलोम तथा अर्थ संबंधित उत्तर सावधानी से देना चाहिए।
  10. प्रश्नों के उत्तर में अनावश्यक विस्तार करने से बचना चाहिए, फिर भी एक अंक और दो अंक के प्रश्नों के उत्तरों में शब्द-सीमा का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।

शीर्षक-संबंघी प्रश्न का उत्तर कैसे दें?
शीर्षक-संबंधी प्रश्न का उत्तर देते समय गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए तथा मूल भाव या कथ्य समझने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए :

  1. शीर्षक कम-से-कम शब्दों में लिखना चाहिए।
  2. शीर्षक का चुनाव गद्यांश से ही संबंधित होना चाहिए।
  3. शीर्षक पढ़कर ही गद्यांश के मूलभाव का अनुमान लगाया जाना चाहिए।

अपठित गदूयांश (हल सहित)

निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यान से पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में लिखिए :

1. ‘दाँत’- इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी-सी छोटी-छोटी हड्डियों में भी उस चतुर कारीगर ने वह कौशल दिखलाया है कि किसके मुँह में दाँत हैं जो पूरा वर्णन कर सके। मुख की सारी शोभा और सभी भोज्य पदार्थों का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक, भूर तथा बरौनी आदि की छवि लिखने में बहुत रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछ्छिए तो इन्हीं की शोभा से सबकी शोभा है। जब दाँतों के बिना पोपला-सा मुँह निकल आता है और चियुक एवं नासिक एक में मिल जाती हैं, उस समय सारी सुधराई मिट्टी में मिल जाती है। कवियों ने इनकी उपमा हीरा, मोती, माणिक से दी है, यह बहुत ठीक है।

यह वह अंग है, जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस एवं काव्यशास्त्र के नवों रस का आधार है। खाने का मज़ा इन्ही से है। इस बात का अनुभव यदि आपको न हो तो किसी वृद्ध से पूछ देखिए। केवल सतुआ चाटने के और रोटी को दूध में तथा दाल में भिगोकर गले के नीचे उतारने के सिवाय दुनिया भर की चीजों के लिए वह तरस कर ही रह जाता होगा। सच है दाँत बिना जब किसी काम के न रहें तब पुछे कौन? शंकराचार्य का यह पद महामंत्र है “अंगं गलितं पलितं मुंड दशनविहीन जातं तुंडम्” आदि। एक कहावत भी है –
“दाँत खियाने, खुर घिसे, पीठ बोझ नहिं लेइ,
ऐसे बूढ़े बैल को कौन बाँध भुस देई।”
आपके दाँत हाथी के दाँत तो हैं नहीं कि मरने पर भी किसी के काम आएँगे। आपके दाँत तो यह शिक्षा देते हैं कि जब तक हम अपने स्थान, अपनी जाति (दंतावली) और अपने काम में दृढ़ हैं, तभी तक हमारी प्रतिष्ठा है। यहाँ तक कि बड़े-बड़े कवि हमारी प्रशंसा करते हैं। पर मुख से बाहर होते ही एक अपावन, घृणित और फेंकने वाली हड्डी हो जाते हैं। गाल और होंठ दाँतों का परदा हैं। जिसके परदा न रहा अर्थात् स्वजातित्व की गैरतदारी न रही, उनकी निर्लज्ज जिंदगी व्यर्थ है। ऐसा ही हम उन स्वार्थ के अंधों के हक में मानते हैं जो रहे हमारे साथ, बने हमारे साथ ही, पर सदा हमारे देश-जाति के अहित ही में तत्पर रहते हैं। उनके होने का हमें कौन सुख? दुखती दाढ़ की पीड़ा से मुक्ति उसके उखड़वाने में ही है। हम तो उन्हीं की जै-जै कार करेंगे जो अपने देशवासियों से दाँत काटी रोटी का बत्ताव रखते हैं।

प्रश्न :
(क) कैसे कह सकते हैं कि दाँतों का निर्माण चतुर कारीगर ने किया है और इन्हीं की शोभा से सारी शोभा है? 2
(ख) कवियों ने दाँतों की उपमा किन वस्तुओं से दी है? उपमा का कारण भी स्पष्ट कीजिए।
(ग) भोजन के आनंद में दाँतों का क्या योगदान है? इसे समझने के लिए किसी वृद्ध के पास जाना क्यों जरूरी बताया है?
(घ) दाँतों की प्रतिष्ठा कब तक है? मुँह के बाहर होते ही उनके साथ भिन्न व्यवहार क्यों होता है? 2
(ङ) शंकराचार्य के कथन और एक अन्य कहावत के द्वारा लेखक क्या समझाना चाहता है?
(च) गाल और होंठ दाँतों का परदा कैसे हैं? उस परदे से क्या शिक्षा मिलने की बात कही गई है? 2
(छ) दाँतों की चर्चा में देश का अहित करने वालों का उल्लेख क्यों किया गया है? लेखक के अनुसार उनसे कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए?
(ज) इस गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक सुझाइए। (अधिकतम 5 शब्द)
उत्तर :
(क) दाँतों का निर्माण चतुर कारीगर यानी ईश्वर ने किया है। इसी के कारण हम भोज्य पदार्थों का स्वाद ले पाते हैं तथा हमारे चेहरे का सौंदर्य कायम रहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इन्हीं की शोभा से सारी शोभा है।

(ख) कवियों ने दाँतों की उपमा हीरा, मोती तथा माणिक से दी है, क्योंकि स्वस्थ तथा सुगठित दाँत इन्हीं की तरह शोभित होते हैं। साथ ही इनकी अनुपस्थिति चेहरे का सारा सौंदर्य बिगाड़ देती है।

(ग) दाँतों के कारण ही हम भोजन के छहों रसों का आनंद ले पाते हैं। ये हमें खाने का मज़ा देते हैं। इसे समझने के लिए किसी वृद्ध के पास जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि उसे भोजन करने की दोनों स्थितियों का अनुभव होता है, जो दाँतों के साथ और दाँतों के बिना किया जाता है।

(घ) दाँतों की प्रतिष्ठा तभी तक है, जब तक वे अपने स्थान पर मजबूती के साथ कायम रहते हैं तथा अपना काम बखूबी करते रहते हैं। मुँह से बाहर होते ही उनके साथ भिन्न व्यवहार इसलिए होता है, क्योंकि उस स्थिति में वे अपना काम कर पाने में अक्षम हो जाते हैं।

(ङ) शंकराचार्य के कथन तथा कहावत के द्वारा लेखक यह समझाना चाहता है कि अपने काम में अक्षम हो जाने पर किसी का भी महत्व कम हो जाता है तथा वह भार-सा हो जाता है।

(च) जैसे परदे के पीछे अच्छी – बुरी चीजें छुप जाती हैं तथा उनका शील बना रहता है, उसी तरह गाल और होंठ अपने पीछे दाँतों को छिपाए रखते हैं, उन्हें सहारा देते हैं तथा उनके परदे का काम करते हैं। इससे यही शिक्षा मिलती है कि इनसान को उनका कभी भी अहित नहीं करना चाहिए, जिनके साथ वह बात-व्यवहार रखता है।

(छ) देश का अहित करने वाले हमारे साथ रहते हैं, मगर हमारा भला नहीं सोचते। वैसी ही जैसे तकलीफ़ देने वाला दाढ़ अन्य दाढ़ों के साथ ही होता है, मगर शरीर को तकलीफ़ देता है, अपना उचित काम नहीं करता है। लेखक के अनुसार हमें उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम पीड़ा देने वाले दाढ़ के साथ करते हैं।

(ज) शीर्षक : दाँतों के बहाने।

2. जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तक़ाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता, अर्थात् अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला क्रदम है, इसके बिना मानव-मात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक ख़याल ही बना रह गया है, की ओर क़दम नहीं बढ़ाए जा सकते।

पहले क़दम की कसौटी यह है कि वह दूसरे क़दम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता। बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है, जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रूकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धमों, संप्रदायों और यहाँ तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएँ यहीं से पैदा होती हैं, जिनका आरंभ तो मानवतावादी तक़ाज़ों से होता है और अमल में वे मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं, जिसके हित की चिंता को सर्वोपरि मानकर ये चलते हैं।

सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्वी हितों से होना अवश्यंभावी है। अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और ये पहले से रहे हैं। सांप्रदायिकता ऐसी कि संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय साप्रदायिक संगठनों को पहले कभी जन-समर्थन नहीं मिल।।

प्रश्न :
(क) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) जिन लेखों को हम पढ़ते हैं, वे कैसे लिखे जाते हैं? इसका क्या परिणाम होता है?
(ग) किस अर्थ में सांप्रदायिकता को अच्छी बात कहा गया है?
(घ) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव के क्या परिणाम होते हैं?
(ङ) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से क्या तात्पर्य है? इनसे टकराव की स्थिति कब पैदा होती है?
(च) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-समर्थन क्यों नहीं मिला?
(छ) ‘संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय’-इसे स्वयं लेखक ने कैसे समझाया है?
(ज) ‘सांप्रदायिकता’ शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय अलग कीजिए।
(झ) (i) ‘तकाज़ा, दायरा’ तथा (ii) ‘असंतोष, समर्थन’ शब्द उत्पत्ति (स्रोत) की दृष्टि से किन भेदों के अंतर्गत आते हैं?
उत्तर:
(क) शीर्षक : सांप्रदायिकता के खतरे।

(ख) जिन लेखों को हम पढ़े हैं, वे किसी राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लाभ-हानि को सोचकर लिखे जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये लेख निष्पक्ष नही होते। ये किसी पक्ष-विशेष के फायद् के लिए लिखे जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये लेख किसी वर्ग विशेष के लिए हितकर होते हैं, जबकि दूसरे के लिए पूरी तरह व्यर्थ बन जाते हैं।

(ग) सांप्रदायिकता के वशीभूत होकर मनुष्य अपने संप्रदाय का चितन करता है। इससे व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता को त्यागकर आग कदम बढ़ाता है तथा मानव-मात्र की हित-चिता की ओर बढ़ता है, जिसके लिए वह अब तक सिर्फ़ सोचता था।

(घ) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव का परिणाम यह होता है कि इससे एक ऐसी पंगुता जन्म लेती है, जिससे हमारी प्रगति रुकती है और हम जाने-अनजाने दूसरों की प्रगति में बाधक बनते हैं। यहीं से धर्म, संप्रदाय की संकीर्णता पनपने लगती है।

(ङ) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से तात्पर्य ऐसे समुदाय से है, जिसे अवसर की कमी के कारण पिछड़ जाना पड़ा। इस अवसर की कमी के कारण यह अभावग्रस्त वर्ग प्रगति करने के स्थान पर पिछड़ता जाता है। अपने अस्तित्व पर आए खतरे को टालने के लिए वह संघर्ष करता है, जिससे अन्य वर्ग के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

(च) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-जन का समर्थन इसलिए नहीं मिला, क्योंकि भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है, जिसमें समाज जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय आदि के आधार पर छिन्न-भिन्न नहीं हो पाया।

(छ) ‘संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय’ को समझाते हुए लेखक कहना चाहता है कि समाज में धार्मिक आधार पर संप्रदाय तो है ही, पर इसके अलावा भी अन्य संप्रदाय भी पनपकर अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। इनका आधार मुख्यतया अर्थ (धन) है, जिससे एक वर्ग बहुत धनी है, तो दूसरा अत्यंत निर्धन। इसके ऊँच-नीच में बँटा – संप्रदाय भी है, जो लोगों की असंतुष्टि का कारण है।

(ज) सांप्रदाघिकता : उपसर्ग-सम्, प्रत्यय-इक, ता।

(झ) (i) तक़ाजा, दायरा-आगत या विदेशी शब्द।
(ii) असंतोष, समर्थन-तत्सम शब्द।

3. आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विद्धध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईष्य्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस-बीस हताहत होते हैं, लाखो-करोड़ो की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।

कबीर हिंदु-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद् नहीं मानते। भेद् केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल, धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हुदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है, जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों-पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावे का विरोध किया।

समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून-से-न्यून हों। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पांति के भेद में विश्वास नहीं रखा। सदाचार ही संतों के लिए महत्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म-निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया।

प्रश्न :
(क) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) क्या कारण है कि कबीर छह सौ साल बाद भी प्रासंगिक लगते हैं?
(ग) किस समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है और क्यों?
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के क्या दुष्परिणाम होते हैं?
(ङ) मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार कैसे बलशाली बनते हैं?
(च) कबीर ने किन माध्यमों का विरोध किया और क्यों?
(ङ) समाज में एकरूपता कैसे लाई जा सकती है?
(ज) ‘सांप्रदायिकता’ शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय चुनिए।
(झ) ‘कबीर ने समाज में व्याप्त बाहयाडंबरों का कड़ा विरोध किया।’ इस वाक्य को मिश्र वाक्य में बद्लकर लिखिए।
(उ) गद्यांश में से शब्दों के उस जोड़े (शब्द-युग्म) को चुनकर लिखिए, जिसके दोनों शब्द परस्पर विलोम हों।
उत्तर :
(क) शीर्षक : सांप्रदायिकता-एक प्रसुप्त ज्वालामुखी।
(ख) छह सौ साल बाद भी कबीर के प्रासंगिक लगने का कारण यह है कि कबीर ने छह सौ साल पहले ही समाज में व्याप्त जिस सांप्रदायिकता की समस्या की ओर ध्यान खींचा था, वही सांप्रदायिकता आज भी अपना भयंकर रूप दिखाकर देश के सद्भाव को खराब कर जाती है।
(ग) जाति, धर्म, भाषागत ईष्ष्या, द्वेष, बैर आदि के कारण होने वाले दंगों तथा लड़ाई-झगड़े को ज्वालामुखी कहा गया है, क्योंकि सांप्रदायिकता किसी सोए हुए भयंकर ज्वालामुखी की तरह समय-असमय भड़क उठती है और हमारी एकता को तार-तार कर देती है।
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं :

  1. समाज में अनेक लोग असमय मारे जाते हैं।
  2. लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट होती है।
  3. विकास की गति रुक जाती है।
  4. भय, कष्ट और अशांति का वातावरण बन जाता है।

(ङ) हमारा समाज भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर बँटा हुआ है। इसके अलावा समाज अमीर-गरीब, ऊँच-नीच वर्गों में भी बँटा हुआ है, जिससे आपसी समरसता की जगह ईष्य्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती है। ये दुर्गुण मनुष्य में भेदभाव के विचार बलशाली बनाते हैं।
(च) कबीर ने राम-रहीम तक पहुँचने के लिए प्रयुक्त माध्यमों-पूजा, नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि का विरोध किया है। यह विरोध इसलिए किया जाता है, क्योंकि इससे समाज वर्गों एवं संप्रदायों में बंटता है, जिससे सामाजिक एकता खंडित होती है और समाज में एकरूपता नहीं आ पाती है।
(छ) समाज में एकरूपता लाने के लिए सबसे पहले आवश्यक है कि भाषा, जाति, धर्म जैसे कारक प्रश्न जो भेदभाव – पैदा करते हैं, उनका सही रूप लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए, ताकि ये एकता बढ़ाने का साधन बन सकें। इसके अलावा धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता को हतोत्साहित करने से एकरूपता लाई जा सकती है।
(ज) सांप्रदायिकता : उपसर्ग-सम्, प्रत्यय-इक, ता।
(झ) कबीर ने उन बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया, जो समाज में व्याप्त थे।
(ञ) समय-असमय।

4. हिंदी या उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी रुचि रखने वाला भी मुंशी प्रेमचंद को न जाने – ऐसा हो ही नहीं सकता, यह मेरा दृढ़ विश्वास है। सफलता के उच्च शिखरों को छूने के बावजूद प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे। उनके स्वभाव में दिखावा या अहंकार ढूँढ़ने वालों को निराश ही होना पड़ेगा। प्रेमचंद का जीवन अनुशासित था। मुँह-अँधेरे उठ जाना उनकी आदत थी। करीब एक घंटे की सैर के बाद (जो प्रायः स्कूल परिसर में ही वे लगा लिया करते थे) वे अपने ज़रूरी काम सुबह-सवेरे ही निपटा लेते थे। अपने अधिकांश काम वे स्वयं करते।

उनका मानना था कि जिस आदमी की हथेली पर काम करने के छाले-गट्टे न हों, उसे भोजन का अधिकार कैसे मिल सकता है? प्रेमचंद कर्मठता के प्रतीक थे। घर में झाड़-बुहारी कर देना, पत्नी बीमार हो तो चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोना आदि काम करने में भला कैसी शर्म! लिखने के लिए उन्हें प्रातःकाल प्रिय था, पर दिन में भी जब अवसर मिले, उन्हें मेज़ पर देखा जा सकता था। वे वक्त के बड़े पाबंद थे। वे समय पर स्कूल पहुँचकर बच्चों के सामने अपना आदर्श रखना चाहते थे।

समय की बरबादी को वे सबसे बड़ा गुनाह मानते थे। उनका विचार था कि वक्त की पाबंदी न करने वाला इंसान तरक्की नहीं कर सकता और ऐसे इंसानों की कौम भी पिछड़ी रह जाती है। ‘कौम’ से उनका आशय समाज और देश से था। इतने बड़े लेखक होने के बावजूद घमंड उन्हें छू तक नहीं गया था। उन्होंने अपना सारा जीवन कठिनाइयों से जूझते हुए बिताया।

प्रश्न :
(क) प्रेमचंद कौन थे? लेखक का प्रेमचंद के बारे में क्या दृढ़ विश्वास है?
(ख) आशय स्पष्ट कीजिए-प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे।
(ग) प्रेमचंद की प्रातःकालीन दिनचर्या क्या थी?
(घ) प्रेमचंद के मत में भोजन का अधिकार किसे नहीं है? क्यों?
(ङ) कैसे कह सकते हैं कि प्रेमचंद कर्मठता के प्रतीक थे?
(च) समयपालन के बारे में प्रेमचंद की मान्यताओं पर टिप्पणी कीजिए।
(छ) उक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) वाक्य प्रयोग कीजिए-मुँह-अँधेरे।
(झ) संयुक्त वाक्य में बदलिए-उन्होंने अपना सारा जीवन कठिनाइयों से जूझते हुए बिताया।
(ञ) प्रत्यय अलग कीजिए-पाबंदी, कर्मठता।
उत्तर :
(क) प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के महान एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे, जिन्हें ‘उपन्यास-सम्राट’ भी कहा जाता है। उनके बारे में लेखक का दृढ़ विश्वास यह है कि हिंदी या उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी भी रुचि रखने वाला व्यक्ति प्रेमचंद को ज़रूर जानता है। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य-प्रेमियों तक पहुँच गए थे।
(ख) ‘प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे’-का आशय यह है कि प्रेमचंद ने अपने लेखन से सफलता की अनेक ऊँचाइयों को छुआ था। इतनी सफलता मिलने पर भी प्रेमचंद में ज़रा भी घमंड न आया और न उनके स्वभाव में कोई दिखावा ही आ सका। वे महान साहित्यकार होते हुए भी बनावटीपन से सदैव दूर रहे।
(ग) प्रेमचंद प्रात: तड़के उठ जाते थे। वे स्कूल परिसर में एक घंटा सैर करते थे। वे अपने ज्ररूरी काम तथा लेखन भी सवेरे ही निपटा लेते थे।
(घ) प्रेमचंद के मत में भोजन का अधिकार उसे नहीं है, जिसकी हथेलियों में परिश्रम करने के प्रमाण न मौजूद हों। ऐसा इसलिए कि स्वयं प्रेमचंद बहुत ही परिश्रमी थे जो समय का पल भी नहीं गँवाते थे। वे अत्यंत कर्मठ एवं परिश्रमी व्यक्ति थे। वे चाहते थे कि अपनी रोटी के लिए हर व्यक्ति परिश्रम करे।
(ङ) प्रेमचंद अपने अधिकांश काम स्वयं ही करते थे। वे किसी काम को छोटा समझे बिना करते थे। घर में झाडू-बुहारी कर देना, पत्नी बीमार हो तो चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोने जैसे काम करने में कोई शर्म नहीं महसूस करते थे, जो उनकी कर्मठता का प्रतीक है।
(च) प्रेमचंद समय पर स्कूल पहुँचकर बच्चों के सामने आदर्श रखना चाहते थे। वे समय की बरबादी को गुनाह मानते थे तथा किसी जाति या समाज के पीछे रह जाने का कारण लोगों द्वारा समय की महत्ता जाने बिना समय बरबाद करने को मानते थे। वे समय के एक-एक पल का उपयोग करने के प्रबल पक्षधर थे।}
(छ) शीर्षक : समय के पाबंद-प्रेमचंद।
(ज) मुँह-अँधेरे-प्राचीन काल में ऋषि-मुनि मुँह-अँधेरे नदी की ओर स्नान करने के लिए जाते थे।
(झ) संयुक्त वाक्य-वे कठिनाइयों से जूझते रहे और इस तरह सारा जीवन बिताया।
(ञ) मूल शब्द – प्रत्यय
पाबंद – ई
कर्मठ – ता

5. जब मनुष्य जंगली था, वनमानुष जैसा, उसे नाखून की ज़रूरत थी अपनी जीवन-रक्षा के लिए। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाख़ून के बाद ही उनका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पकड़ना पड़ता था, नाख़न उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा। पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा। उसने हड्डियों के भी हथियार बनाए। इन हड्डियों के हथियारों में सबसे मज़बूत और सबसे ऐतिहासिक था देवताओं के राजा का वज्र जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था।

मनुष्य और आगे बढ़ा, उसने धातु के हथियार बनाए। जिनके पास लोहे के अस्त्र और शस्त्र थे, वे विजयी हुए। इतिहास आगे बढ़ा। पलीते वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बम-वर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा कर और आगे चल पड़ा है, पर प्रकृति मनुष्य को उस भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है। वह लाख वर्ष पहले के ‘नखदंतावलंबी’ जीव को उसकी असलियत बता रही है।

प्रश्न :
(क) प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्य को वनमानुष जैसा क्यों कहा गया है और तब उसे नाखून की ज़रूरत क्यों थी?
(ख) धीरे-धीरे मनुष्य ने पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालों का सहारा क्यों लिया?
(ग) दधीचि की हड्डियों से कौन-सा अस्त्र बना और वह किस उद्देश्य के लिए था?
(घ) किन अस्त्र-शस्त्रों ने किस तरह इतिहास को कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है?
(ङ) हथियारों की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होने पर भी प्रकृति उसके भीतर वाले अस्त्र को आज भी बढ़ाए जा रही है, क्यों?
(च) प्रस्तुत गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(छ) ‘वनमानुष’ समस्तपद का विग्रह कीजिए और समास का भेद भी बताइए।
(ज) ‘ऐतिहासिक’ शब्द से मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए।
(झ) ‘विजय’, ‘आवश्यक’-विलोम शब्द लिखिए।
(ज) ‘नखदंतावलंबी’ जीव किसे कहा गया है?
उत्तर :
(क) प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्य को वनमानुष जैसा इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह वन (जंगल) में रहता था। वह भोजन की तलाश में इधर-उधर भटकता था। उसके सारे कार्य-व्यवहार वनमानुषों जैसे थे। तब उसे आत्मरक्षा के लिए, प्रतिद्वंद्वियों को पकड़ने तथा शिकार फाड़ने के लिए नाख़ की ज़रूरत थी।
(ख) धीरे-धीरे मनुष्य ने पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालों का सहारा इसलिए लिया, क्योंकि वह अपने अंगों के अलावा बाहरी वस्तुओं का सहारा लेना चाहता था। पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालियों से वह दूर स्थित शिकार को मार सकता था।
(ग) द्धीचि की हड्डियों से देवताओं के राजा का वज्र बना। इस वज्र को बनाने का उद्देश्य था-असुरों के राजा वृत्तासुर नामक राक्षस को हराना। उसकी वीरता एवं पराक्रम के कारण देवता दानवों के साथ युद्ध में पराजय की कगार पर पहुँच चुके थे।
(घ) मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर बढ़ता गया, उसने हर क्षेत्र में प्रगति की। आत्मरक्षा के लिए बनाए जाने वाले हथियार भी इससे अछूते न थे। उसने लकड़ी और पत्थर के हथियारों का त्यागकर बंदूक, कारतूस, तोप, बमवर्षक वायुयान आदि बनाए, जो गलत हाथों में पड़ने पर मनुष्यता का विनाश कर सकते हैं। इतिहास में ऐसे उदाहरण हैं। इन अस्त्रों ने इतिहास को कलंकित किया है।
(ङ) हथियारों की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होने पर भी प्रकृति उसके भीतर वाले अस्त्र अर्थात नाख़ून को आज भी बढ़ाए जा रही है, क्योंकि ऐसा करके प्रकृति मनुष्य को यह असलियत बताती रहती है कि तुम वही मनुष्य हो जो लाख वर्ष पहले नाखूनों और दाँतों के सहारे जीवित रहते थे।
(च) शीर्षक : नाख़ून क्यों बढ़ते हैं?
(छ) वनमानुष – विग्रह-वन में रहने वाला मानुष (मनुष्य)।
समास का नाम-अधिकरण तत्पुरुष समास।
(ज) ऐतिहासिक : मूल शब्द-इतिहास, प्रत्यय-इक।
(झ) विजय × पराजय
आवश्यक × अनावश्यक
(ञ) नखदंतावलंबी जीव आदि मानव को कहा गया है, क्योंकि वह जंगल में रहते हुए नाख़ और दौतों को अस्त्र के रूप में प्रयोग करता था।

6. ज्ञान-राशि के संचित कोष ही का नाम साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखने वाली और निर्दोष होने पर भी, यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह, रूपवती भिखारिन की तरह, कदापि आद्रणीय नहीं हो सकती। उसकी शोभा, उसकी श्रीसंपन्नता, उसकी मान-मर्यादा उसके साहित्य पर ही अवलंबित रहती है। जाति-विशेष के उत्कर्षापकर्ष का, उसके उच्च-नीच भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संघटन का, उसके ऐतिहासिक घटना-चक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिबिब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रंथ-साहित्य ही में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सामाजिक सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य है।

जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उसके साहित्य रूपी आईने में ही मिल सकती है। इस आईने के सामने जाते ही हमें यह तत्काल मालूम हो जाता है कि अमुक जाति की जीवनी-शक्ति इस समय कितनी या कैसी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। आप भोजन करना बंद कर दीजिए या कम कर दीजिए, आपका शरीर क्षीण हो जाएगा और भविष्य-अचिरात् नाशोन्मुख होने लगेगा। इसी तरह आप साहित्य के रसास्वाद्न से अपने मस्तिष्क को वंचित कर दीजिए, वह निष्क्रिय होकर धीरे-धीरे किसी काम का न रह जाएगा। शरीर का खाद्य भोजन है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य। यदि हम अपने मस्तिष्क को निष्क्रिय और कालांतर में निर्जीव-सा नहीं कर डालना चाहते, तो हमें साहित्य का सतत सेवन करना चाहिए और उसमें नवीनता और पौष्टिकता लाने के लिए उसका उत्पाद्न भी करते रहना चाहिए।

प्रश्न :
(क) “सब तरह के भावों को प्रकट करने वाली ………… आदरणीय नहीं हो सकती”-कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ख) किसी भी जाति-विशेष का ग्रंथ-साहित्य उसकी किन-किन परिस्थितियों को दर्शाता है और क्यों?
(ग) ‘साहित्य के सतत सेवन और उसके उत्पादन’ से लेखक का क्या तात्पर्य है और यह क्यों ज़रूरी है?
(घ) साहित्य को ‘आईना’ क्यों कहा गया है? विवेचन कीजिए।
(ङ) “शरीर का खाद्य भोजन है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य।” लेखक के इस कथन से क्या तात्पर्य है?
(च) साहित्य के रसास्वादन से मस्तिष्क को वंचित करने का क्या परिणाम होने का अंदेशा है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) विलोम शब्द लिखिए :
क्षीण, उत्कर्ष
(इ) एक उपसर्ग या एक प्रत्यय अलग कीजिए :
भोजनीय, अभाव, अवलंबित, प्रतिबिंब
(ञ) ‘वह निष्क्रिय होकर धीरे-धीरे किसी काम का न रह जाएगा।’ इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए।
उत्तर :
(क) “सब तरह के भावों ……….. सकती” का आशय यह है कि भले ही भाषा में भावों को प्रकट करने की योग्यता हो या भाषा एकदम शुद्ध हो, परंतु उसको आदर तभी मिलता है जब उस भाषा का अपना साहित्य हो, नहीं तो उसकी दशा रूपवती भिखारिन-जैसी होती है।
(ख) किसी भी जाति-विशेष का ग्रंथ-साहित्य उस जाति के फलने-फूलने तथा नष्ट होने, उसके अच्छे-बुरे विचारों को, उसके धार्मिक विचारों को, उस समाज की अच्छी-बुरी घटनाओं को तथा राजनैतिक परिस्थितियों को दर्शाता है, क्योंकि साहित्य का समाज से घनिष्ठ संबंध होता है।
(ग) ‘साहित्य के सतत सेवन’ का तात्पर्य है-साहित्य का लगातार अध्ययन करते रहना तथा ‘उसके उत्पादन’ से तात्पर्य है-साहित्यिक रचनाएँ। यह इसलिए आवश्यक है ताकि हमारा मस्तिष्क अपनी जाति या समाज के बारे में चिंतनशील बना रहे और हम उसके उत्थान और विकास के लिए सजग होकर चिंतनशील बने रहें।
(घ) जिस प्रकार आईने के सामने खड़े होने पर अपने चेहरे का यथार्थ पता चल जाता है, उसी प्रकार साहित्य के आईने से हमें पता चल जाता है कि समाज की विभिन्न जातियों की जीवन-शक्ति इस समय कैसी और कितनी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। अतः साहित्य को, आईना कहा गया है।
(ङ) जिस प्रकार शरीर को जीवित रखने, बढ़ने तथा अन्य क्रियाओं के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मस्तिष्क को सक्रिय तथा सोच-विचार करने योग्य बनाए रखने के लिए साहित्य की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में हमारे मस्तिष्क की वही दशा होगी, जो भोजन के अभाव में शरीर की हो जाती है।
(च) साहित्य के रसास्वादन से मस्तिष्क को वंचित रखने से यह अंदेशा होता है कि मस्तिष्क धीरे-धीरे निष्क्रिय होकर अनुपयोगी बन जाएगा।
(छ) शीर्षक : ‘साहित्य की उपयोगिता’ अथवा ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’
(ज) विलोम : क्षीण सुदृढ़ उत्कर्ष अपकर्ष
(झ) भोजनीय : प्रत्यय-ईय
अभाव : उपसर्ग-अ
अवलंबित : उपसर्ग-अव प्रत्यय-इत
प्रतिबिंब : उपसर्ग-प्रति।
(ज) वह निष्क्रिय होगा और किसी काम का नहीं रह जाएगा।

7. मधुर वचन वह रसायन है जो पारस की भाँति लोहे को भी सोना बना देता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी उसके वश में हो, उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करने लगते हैं। व्यक्ति का मधुर व्यवहार पाषाण-हृदयों को भी पिघला देता है। कहा भी गया है-“तुलसी मीठे वचन ते, जग अपनो करि लेत।”

निस्संदेह मीठे वचन औषधि की भाँति श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा व वेदना को हर लेते हैं। मीठे वचन सभी को प्रिय लगते हैं। कभी-कभी किसी मृदुभाषी के मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखा उसे उबार लेते हैं, उसमें जीवन-संचार कर देते हैं; उसे सांत्वना और सहयोग देकर यह आश्वासन देते हैं कि वह व्यक्ति अकेला व असहाय नहीं, अपितु सारा समाज उसका अपना है, उसके सुख-दुख का साथी है। किसी ने सच कहा है”मधुर वचन है औषधि, कटुक वचन है तीर।”

मधुर वचन श्रोता को ही नहीं, बोलने वाले को भी शांति और सुख देते हैं। बोलने वाले के मन का अहंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है। उसका मन स्वच्छ और निर्मल बन जाता है। वह अपनी विनम्रता, शिष्टता एवं सदाचार से समाज में यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान प्राप्त करता है। उसके कार्यों से उसे ही नहीं, समाज को भी गौरव और यश प्राप्त होता है और समाज का अभ्युत्थान होता है। इसके अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईर्ष्या-द्व्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। जिस समाज में सौहार्द्र नहीं, सहानुभूति नहीं, किसी दुखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं, वह समाज कैसा? वह तो नरक है।

प्रश्न :
(क) मधुर वचन निराशा में डूबे व्यक्ति की सहायता कैसे करते हैं?
(ख) मधुर वचन को ‘औषधि’ की संज्ञा क्यों दी गई है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) मधुर वचन बोलने वाले को क्या लाभ देते हैं?
(घ) समाज के अभ्युत्थान में मधुर वचन अपनी भूमिका कैसे निभाते हैं?
(ङ) मधुर वचन की तुलना पारस से क्यों की गई है?
(च) लेखक ने कैसे समाज को नरक कहा है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज ) विलोम शब्द लिखिए : श्रोता, सम्मान।
(झ) उपसर्ग या प्रत्यय अलग कीजिए : विनम्र, सदाचारी।
(ञ) मिश्र वाक्य में बदलिए-बोलने वाले के मन का अंकार और दंभ सहज ही विनिष्ट हो जाता है।
उत्तर :
(क) मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखाते हैं। ऐसे वचन उसे निराशा से बचा लेते हैं तथा सांत्वना एवं सहयोग देते हैं। ये वचन उस व्यक्ति में जीवन-संचार करके यह बताते हैं कि वह अकेला एवं असहाय नहीं है। समाज उसकी मदद के लिए तैयार खड़ा है।

(ख) मधुर वचन हर किसी को सुनने में अच्छे लगते हैं और व्यक्ति की वेदना, व्यथा एवं उसकी पीड़ा हर लेते हैं तथा उसे आराम पहुँचाते हैं। मधुर वचन सुनकर व्यक्ति अपना दुख-दर्द भूल जाता है, इसलिए इसे औषधि की संज्ञा दी गई है।

(ग) जो मधुर वचन बोलते हैं, मधुर वचन उन्हें –

  1. सुख और शांति देते हैं।
  2. सहज ही दंभ और अहंकार विहीन बना देते हैं।
  3. यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान दिलाते हैं।
  4. मन से निर्मल और स्वच्छ बनाते हैं।

(घ) मधुर वचनों से विनम्रता, शिष्टता, सदाचार आदि मानव-मूल्य पुष्पित-पल्लवित होते हैं। इन मूल्यों के अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईष्प्या-द्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। इस प्रकार मधुर वचन समाज के अभ्युत्थान में अपनी भूमिका निभाते हैं।
(ङ) जिस प्रकार पारस पत्थर का स्पर्श पाकर हर तरह का लोहा सोना बन जाता है और उसकी उपयोगिता एवं मूल्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार मधुर वचन के प्रभाव से अन्य मनुष्यों की निकटता एवं मित्रता मिलती है तथा पशु-पक्षी भी मित्र बन जाते हैं। मधुर वचन बोलने वाले सम्मान पाने के साथ ही सबके प्रिय बन जाते हैं। इसलिए मधुर वचन की तुलना पारस से की गई
(च) लेखक ने उस समाज को नरक कहा है, जहाँ पारस्परिक कलह, ईष्प्या-द्वेष, वैमनस्य का बोलबाला होता है तथा सौहार्द्र, सहानुभूति तथा किसी दुखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं होता है एवं मधुर वचन न बोलकर अंकारी बने रहते हैं।
(छ) शीर्षक : मधुर वचन है औषधि।
(ज) विलोम शब्द :
श्रोता × वक्ता।
सम्मान × अपमान।
(झ) विनम्र : उपसर्ग – वि, मूल शब्द – नम्र
सदाचारी : मूल शब्द – सदाचार, प्रत्यय – ई
(ब) मिश्र वाक्य : जो मधुर वचन बोलते हैं, उनके मन का अहंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है।

8. आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़ूरी हो गया है कि लोग दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें; उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है, क्योंक यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।

स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे। उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के बीच संबाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज और स्वाभाविक मानते थे। स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुदुध थे। वे कहा करते थे-यदि सभी मानव एक ही धर्म मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।

प्रश्न :
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) टापू किसे कहते हैं? ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
(ग) “भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़र्वरी है।” क्या ज़रूरी है और क्यों?
(घ) स्वामी विवेकानंद को ‘अपने समय से बहुत आगे’ क्यों कहा गया है?
(ङ) स्वामी जी के मतानुसार सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी और क्यों?
(च) भारत में साथ-साथ रह रहे किन्हीं चार धर्मों और मतों के नाम लिखिए।
(ङ) गद्यांश से ‘अनु-‘ और ‘सम्-‘ उपसर्ग वाले दो-द्रो शब्द चुनकर लिखिए।
(ज) मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए-स्थापित, नैतिक।
(इ) ‘यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।’ इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए।
(उ) समास का नाम लिखिए-पूजा-पद्धति, मत-मतांतर।
(ट) अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-प्राणघातक, अनुष्ठान।
उत्तर :

(क) शीर्षक : भारत में विविध धर्मों की महत्ता।
(ख) ‘टापू’ समुद्र के बीच कहीं भी उभरा हुआ वह भू-भाग होता है जो ज़मीन जैसा होता है, परंतु चारों ओर से जल से घिरे होने के कारण उसका संपर्क अन्य स्थानों से कटा होता है। टापू की तरह जीने का आशय है-समाज से अलग-थलग रहकर जीना तथा अन्य पंथों-मतों के बारे में जानने-समझने का प्रयास न करना।
(ग) भारत जैसे देश में यह और भी ज़रूरी है कि लोग परस्पर संबंध बनाकर रखें। वे एक-दूसरे को जानें-समझें, उनकी आवश्यकताओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं को समझकर महत्व दें तथा लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले विधिन्न धर्मों का सम्मान करें। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंक भारत एक धर्म, मत या विचारधारा का देश नही है।
(घ) स्वामी विवेकानंद् को अपने समय से बहुत आगे इसलिए कहा गया है, क्योंकि उन्होंने अपनी बुद्धि और विवेक से यह बात बहुत पहले समझ लिया था कि भारत में एक धर्म, मत या एक विचारधारा का चल पाना कठिन है। वे सभी के बीच मेलजोल की आवश्यकता समझ गए थे।
(ङ) स्वामी विवेकानंद् के मतानुसार सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब होगी कि जब सभी मनुष्य एक ही धर्म मानने लगें, एक जैसी पूजा-पद्धति अपना लें और एक समान नैतिकता का पालन करने लगें। इससे हमारा धार्मिक और आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा जो हमारी संस्कृति के लिए घातक होगा।
(च) भारत में साथ-साथ रह रहे चार धर्म हैं – (i) हिंदू धर्म, (ii) मुस्लिम धर्म, (iii) सिख धर्म और (iv) इसाई धर्म। चार मत हैं – (i) वैष्णव मत, (ii) शैव मत, (iii) आर्यसमाजी मत और (iv) निंबार्क मत।
(छ) ‘अनु’ उपसर्ग वाले शब्द -अनुष्ठान, अनुपालन।
‘सम्’ उपसर्ग वाले शब्द-संभव, संप्रदाय, संवाद, सम्मान (कोई दो)।
(ज) स्थापित : मूल शब्द-स्थापन, प्रत्यय-इत।
नैतिक : मूल शब्द-नीति, प्रत्यय-इक।
(झ) संयुक्त वाक्य : यह देश न किसी एक धर्म का है और न किसी एक मत या विचारधारा का।
(ज) पूजा-पद्धति : विग्रह-पूजा की पद्धति, समास-तत्पुरुष समास।
मत-मतांतर : विग्रह-मत और मतांतर, समास-द्वंद्व समास।
(ञ) वाक्य-प्रयोग : प्राणघातक-नक्सलवादियों ने सैनिकों पर प्राणघातक हमला कर दिया।
अनुष्ठान-वर्षा होने की संभावना न देख ग्रामीणों ने धार्मिक अनुष्ठान करने का मन बनाया।

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Chapter 4 डायरी के पन्ने | class 12th | Important Questions Hindi Vitan

डायरी के पन्ने (अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न)

प्रश्न 1:
ऐन-फ्रैंक का परिवार सुरक्षित स्थान पर जाने से पहले किस मनोदशा से गुज़र रहा था और क्यों? ऐसी ही परिस्थितियों से आपको दो-चार होना पड़े तो आप क्या करेंगे?

उत्तर –

द्वितीय विश्व-युद्ध के समय हॉलैंड के यहूदी परिवारों को जर्मनी के प्रभाव के कारण बहुत सारी अमानवीय यातनाएँ सहनी पड़ीं। लोग अपनी जान बचाने के लिए परेशान थे। ऐसे कठिन समय में जब ऐन फ्रैंक के पिता को ए०एस०ए० के मुख्यालय से बुलावा आया तो वहाँ के यातना शिविरों और काल-कोठरियों के दृश्य उन लोगों की आँखों के सामने तैर गए। ऐन फ्रैंक और उसका परिवार घर के किसी सदस्य को नियति के भरोसे छोड़ने के पक्ष में न था। वे सुरक्षित और गुप्त स्थान पर जाकर जर्मनी के शासकों के अत्याचार से बचना चाहते थे। उस समय ऐन के पिता यहूदी अस्पताल में किसी को देखने गए थे। उनके आने की प्रतीक्षा की घड़ियाँ लंबी होती जा रही थीं।

दरवाजे की घंटी बजते ही लगता था कि पता नहीं कौन आया होगा। वे भय एवं आतंक के डर से दरवाजा खोलने से पूर्व तय कर लेना चाहते थे कि कौन आया है? वे घंटी बजते ही दरवाजे से उचककर देखने का प्रयास करते कि पापा आ गए कि नहीं। इस प्रकार ऐन फ्रैंक का परिवार चिंता, भय और आतंक के साये में जी रहा था। यदि ऐसी ही परिस्थितियों से हमें दो-चार होना पड़ता तो मैं अपने परिवार वालों के साथ उस अचानक आई आपदा पर विचार करता और बड़ों की राय मानकर किसी सुरक्षित स्थान पर जाने का प्रयास करता। इस बीच सभी से धैर्य और साहस बनाए रखने का भी अनुरोध करता।

प्रश्न 2:
हिटलर ने यहूदियों को जातीय आधार पर निशाना बनाया। उसके इस कृत्य को आप कितना अनुचित मानते हैं? इस तरह का कृत्य मानवता पर क्या असर छोड़ता है? उसे रोकने के लिए आप क्या उपाय सुझाएँगे?

उत्तर –

हिटलर जर्मनी का क्रूर एवं अत्याचारी शासक था। उसने जर्मनी के यहूदियों को जातीयता के आधार पर निशाना बनाया। किसी जाति-विशेष को जातीय कारणों से ही निशाना बनाना अत्यंत निंदनीय कृत्य है। यह मानवता के प्रति अपराध है। इस घृणित एवं अमानवीय कृत्य को हर दशा में रोका जाना चाहिए, भले ही इसे रोकने के लिए समाज को अपनी कुर्बानी देनी पड़े। हिटलर जैसे अत्याचारी शासक मनुष्यता के लिए घातक हैं। इन लोगों पर यदि समय रहते अंकुश न लगाया गया तो लाखों लोग असमय और अकारण मारे जा सकते हैं। उसका यह कार्य मानवता का विनाश कर सकता है। अत: उसे रोकने के लिए नैतिक-अनैतिक हर प्रकार के हथकंडों का सहारा लिया जाना चाहिए। इस प्रकार के अत्याचार को रोकने के लिए मैं निम्नलिखित सुझाव देना चाहूँगा।

# पीड़ित लोगों के साथ समस्या पर विचार-विमर्श करना चाहिए।

# हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हिंसा का जवाब अहिंसा से देकर उसे शांत नहीं किया जा सकता है, इसलिए इसका शांतिपूर्ण हल खोजने का प्रयास करना चाहिए।

# अहिंसात्मक तरीके से काम न बनने पर ही हिंसा का मार्ग अपनाने के लिए लोगों से कहूँगा।

# मैं लोगों से कहूँगा कि मृत्यु के डर से यूँ बैठने से अच्छा है, अत्याचारी लोगों से मुकाबला किया जाए। इसके लिए संगठित होकर मुकाबला करते हुए मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए।

# हिंसा के खिलाफ़ विश्व जनमत तैयार करने का प्रयास करूँगा ताकि विश्व हिटलर जैसे अत्याचारी लोगों के खिलाफ़ हो जाए और उसकी निंदा करते हुए उसके कुशासन का अंत करने में मदद करे।

प्रश्न 3:
ऐन फ्रैंक ने यातना भरे अज्ञातवास के दिनों के अनुभव को डायरी में किस प्रकार व्यक्त किया है? आपके विचार से लोग डायरी क्यों लिखते हैं?

उत्तर –

द्वितीय विश्व-युद्ध के समय जर्मनी ने यहूदी परिवारों को अकल्पनीय यातना सहन करनी पड़ी। उन्होंने उन दिनों नारकीय जीवन बिताया। वे अपनी जान बचाने के लिए छिपते फिरते रहे। ऐसे समय में दो यहूदी परिवारों को गुप्त आवास में छिपकर जीवन बिताना पड़ा। इन्हीं में से एक ऐन फ्रैंक का परिवार था। मुसीबत के इस समय में फ्रैंक के ऑफ़िस में काम करने वाले इसाई कर्मचारियों ने भरपूर मदद की थी। ऐन फ्रैंक ने गुप्त आवास में बिताए दो वर्षों के समय के जीवन को अपनी डायरी में लिपिबद्ध किया है। फ्रैंक की इस डायरी में भय, आतंक, भूख, प्यास, मानवीय संवेदनाएँ, घृणा, प्रेम, बढ़ती उम्र की पीड़ा, पकड़े जाने का डर, हवाई हमले का डर, बाहरी दुनिया से अलग-थलग रहकर जीने की पीड़ा, युद्ध की भयावह पीड़ा और अकेले जीने की व्यथा है।

इसके अलावा इसमें यहूदियों पर ढाए गए जुल्म और अत्याचार का वर्णन किया गया है। मेरे विचार से लोग डायरी इसलिए लिखते हैं क्योंकि जब उनके मन के भाव-विचार इतने प्रबल हो जाते हैं कि उन्हें दबाना कठिन हो जाता है और वे किसी कारण से दूसरे लोगों से मौखिक रूप में उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते तब वे एकांत में उन्हें लिपिबद्ध करते हैं। वे अपने दुख-सुख, व्यथा, उद्वेग आदि लिखने के लिए प्रेरित होते हैं। उस समय तो वे अपने दुख की अभिव्यक्ति और मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए लिखते हैं पर बाद में ये डायरियाँ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन जाती हैं।

प्रश्न 4:
‘डायरी के पन्ने’ की युवा लेखिका ऐन फ्रैंक ने अपनी डायरी में किस प्रकार द्वितीय विश्व-युद्ध में यहूदियों के उत्पीड़न को झेला? उसका जीवन किस प्रकार आपको भी डायरी लिखने की प्रेरणा देता है, लिखिए।

उत्तर –

ऐन फ्रैंक ने अपनी डायरी में इतिहास के सबसे दर्दनाक और भयप्रद अनुभव का वर्णन किया है। यह अनुभव उसने और उसके परिवार ने तब झेला जब हॉलैंड के यहूदी परिवारों को जर्मनी के प्रभाव के कारण अकल्पनीय यातनाएँ सहनी पड़ीं। ऐन और उसके परिवार के अलावा एक अन्य यहूदी परिवार ने गुप्त तहखाने में दो वर्ष से अधिक समय का अज्ञातवास बिताते हुए जीवन-रक्षा की। ऐन ने लिखा है कि 8 जुलाई, 1942 को उसकी बहन को ए०एस०एस० से बुलावा आया, जिसके बाद सभी गुप्त रूप से रहने की योजना बनाने लगे।

वह दिन में घर के परदे हटाकर बाहर नहीं देख सकते थे। रात होने पर ही वे अपने आस-पास देख सकते थे। वे ऊल-जुलूल हरकतें करके दिन बिताने पर विवश थे। ऐन ने पूरे डेढ़ वर्ष बाद रात में खिड़की खोलकर बादलों से लुका-छिपी करते हुए चाँद को देखा था। 4 अगस्त, 1944 को किसी की सूचना पर ये लोग पकड़े गए। 1945 में ऐन की अकाल मृत्यु हो गई। इस प्रकार उन्होंने यहूदियों के उत्पीड़न को झेला। ऐन फ्रैंक का जीवन हमें साहस बनाए रखते हुए जीने की प्रेरणा देता है और प्रेरित करता है कि अपने जीवन और आस-पास की घटनाओं को हम लिपिबद्ध करें।

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Chapter 3 अतीत में दबे पाँव | class 12th | Important Questions Hindi Vitan

अतीत में दबे पाँव (अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न)

प्रश्न 1:
मुअनजो-दड़ो सभ्यता में औजार तो मिले हैं, पर हथियार नहीं। यह देखकर आपको कैसा लगा? मनुष्य के लिए हथियारों को आप कितना महत्वपूर्ण समझते हैं, स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

मुअनजो-दड़ो सभ्यता के अजायबघर में जो अवशेष रखे हैं, उनमें औजार बहुतायत मात्रा में हैं, पर हथियार नहीं। इस सभ्यता में उस तरह हथियार नहीं मिलते हैं, जैसा किसी राजतंत्र में मिलते हैं। दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले विभिन्न उपकरण और वस्तुएँ मिलती हैं। इन वस्तुओं में महल, उपासना स्थल, मूर्तियाँ, पिरामिड आदि के अलावा विभिन्न प्रकार के हथियार मिलते हैं, परंतु इस सभ्यता में हथियारों की जगह औजारों को देखकर लगा कि मनुष्य ने अपने जीने के लिए पहले औजार बनाए।

ये औजार उसकी आजीविका चलाने में मददगार सिद्ध होते रहे होंगे। मुअनजो-दड़ो में हथियारों को न देखकर अच्छा लगा क्योंकि मनुष्य ने अपने विनाश के साधन नहीं बनाए थे। इन हथियारों को देखकर मन में युद्ध, मार-काट, लड़ाई-झगड़े आदि के दृश्य साकार हो उठते हैं। इनका प्रयोग करने वालों के मन में मानवता के लक्षण कम, हैवानियत के लक्षण अधिक होने की कल्पना उभरने लगती है। मनुष्य के लिए हथियारों का प्रयोग वहीं तक आवश्यक है, जब तक उनका प्रयोग वह आत्मरक्षा के लिए करता है। यदि मनुष्य इनका प्रयोग दूसरों को दुख पहुँचाने के लिए करता है तो हथियारों का प्रयोग मानवता के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है। मनुष्य के जीवन में हथियारों की आवश्यकता न पड़े तो बेहतर है। हथियारों का प्रयोग करते समय मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता, वह पशु बन जाता है।

प्रश्न 2:
ऐतिहासिक महत्त्व और पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कुछ समस्याएँ उठ खडी होती हैं जो इनके अस्तित्व के लिए खतरा है। ऐसी किन्हीं दो मुख्य समस्याओं का उल्लेख करते हुए उनके निवारण के उपाय भी सुझाइए।

उत्तर –

ऐतिहासिक महत्त्व और पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्व रखने वाले स्थानों का संबंध हमारी सभ्यता और संस्कृति से होता है। इन स्थानों पर उपलब्ध वस्तुएँ हमारी विरासत या धरोहर का अंग होती हैं। ये वस्तुएँ आने वाली पीढी की तत्कालीन सभ्यता से परिचित कराती हैं। यहाँ विविध प्रकार की बहुमूल्य वस्तुएँ भी होती है जो आकर्षण का केद्र होती हैं। इनमें सोने…चाँदी के सिक्के, मूर्तियाँ, आभूषण तथा तत्कालीन लोगों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले आभूषण, रत्नजड़ित वस्तुएँ या अन्य महँगी धातुओं से बनी वस्तुएँ होती है जो उस समय को समृद्धि की कहानी कहती हैं। मेरी दृष्टि में इन स्थलों पर दो मुख्य समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं…एक है चोरी की और दूसरी उन स्थानों पर अतिक्रमण और अवैध कब्जे की। ये दोनों ही समस्याएँ इन स्थानों के अस्तित्व के लिए खतरा सिद्ध हुई हैं। लोगों का यह नैतिक दायित्व होना चाहिए कि वे इनकी रक्षा करें। जिन लोगों को इनकी रक्षा का दायित्व सौंपा गया है, उनकी जिम्मेदारी तो और भी बढ़ जाती है। दुर्भाग्य से ऐसे लोग भी चोरी की घटनाओं में शामिल पाए जाते हैं। वे निजी स्वार्थ और लालच के कारण अपना नैतिक दायित्व एवं कर्तव्य भूल जाते हैं। इसी प्रकार लोग उन स्थानों के आस–पास अस्थायी या स्थायी घर बनाकर कब्जे करने लगे है जो उनके सौंदर्य पर ग्रहण है। यह कार्य सुरक्षा अधिकारियों की मिली–भगत से होता है और बाद में सीमा पार कर जाता है।

ऐसे स्थानों की सुरक्षा के लिए सरकार को सुरक्षा–व्यवस्था कडी करनी चाहिए तथा लोगों को नैतिक संस्कार दिए जाने चाहिए। इसके अलावा इन घटनाओं में संलिप्त लोगों के पकड़े जाने पर कड़े दंड की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि ऐसी घटना की पुनरावृत्तियों से बचा जा सके।

प्रश्न 3:
सिंधु घाटी सभ्यता को ‘जल–सभ्यता’ कहने का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताइए कि वर्त्तमान में जल–संरक्षण क्यों आवश्यक हो गया है और इसके लिए उपाय भी सुझाइए।

उत्तर –

सिंधु घाटी की सभ्यता में नदी, कुएँ, स्नानागार और तालाब तो बहुतायत मात्रा में मिले ही है, वहाँ जल–निकासी की उत्तम व्यवस्था के प्रमाण भी मिले हैं। इस कारण इस सभ्यता को ‘जल–सभ्यता‘ कहना अनुचित नहीं है। इसके अलावा यह सभ्यता नदी के किनारे बसी थी। मोहनजोदड़ो के निकट सिंधु नदी बहती थी। यहाँ पीने के जल का मुख्य स्रोत कुएँ थे। यहाँ मिले कुओं की संख्या सात सौ से भी अधिक है। मुअनजो–दड़ो में एक जगह एक पंक्ति में आठ स्नानाघर है जिनके द्वार एक–दूसरे के सामने नहीं खुलते। यहाँ जल के रिसाव को रोकने का उत्तम प्रबंध था। इसके अलावा, जल की निकासी के लिए पक्की नालियों और नाले बने हैं। ये प्रमाण इस सभ्यता को ‘जल–सभ्यता‘ सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।

वर्तमान में विश्व की जनसंख्या तेज़ गति से बढी है, जिससे जल की माँग भी बढ़ी है। पृथ्वी पर तीन–चौथाई भाग में जल जरूर है, पर इसका बहुत थोडा–सा भाग ही पीने के योग्य है।मनुष्य स्वार्थपूर्ण गतिविधियों से जल को दूषित एवं बरबाद कर रहा है। अतः जल–संरक्षण की आवश्यकता बहुत ज़रूरी हो गई है। जल–संरक्षण के लिए –

# जल का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

# जल को दूषित करने से बचने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।

# अधिकाधिक वृक्षारोपण करना चाहिए।

# फ़ैक्टरियों तथा घरों का दूषित एवं अशुद्ध जल नदी-नालों तथा जल-स्रोतों में नहीं मिलने देना चाहिए।

# नदियों तथा अन्य जल-स्रोतों को साफ़-सुथरा रखना चाहिए ताकि हमें स्वच्छ जल प्राप्त हो सके।

प्रश्न 4: 
‘अतीत में दबे पाँव’ में सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़े नगर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की नगर-योजनाओं से किस प्रकार भिन्न है? उदाहरण देते हुए लिखिए।

उत्तर –

‘अतीत में दबे पाँव’ नामक पाठ में लेखक ने वर्णन किया है कि सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़े नगर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की नगर-योजनाओं से इस प्रकार भिन्न थी कि यहाँ का नगर-नियोजन बेमिसाल एवं अनूठा था। यहाँ की सड़कें चौड़ी और समकोण पर काटती हैं। कुछ ही सड़कें आड़ी-तिरछी हैं। यहाँ जल-निकासी की व्यवस्था भी उत्तम है। इसके अलावा, इसकी अन्य विशेषताएँ  निम्नलिखित थी… 

# यहाँ सुनियोजित ढंग से नगर बसाए गए थे।

# नगर निवासी की व्यवस्था उत्तम एवं उत्कृष्ट थी।

# यहाँ की मुख्य सड़कें अधिक चौड़ी तथा गलियाँ सँकरी थीं।

# मकानों के दरवाजे मुख्य सड़क पर नहीं खुलते थे।

# कृषि को व्यवसाय के रूप में लिया जाता था।

# हर जगह एक ही आकार की पक्की ईंटों का प्रयोग होता था।

# सड़क के दोनों ओर ढँकी हुई नालियाँ मिलती थीं।

# हर नगर में अन्न भंडारगृह और स्नानागार थे।

# यहाँ की मुख्य और चौड़ी सड़क के दोनों ओर घर हैं, जिनका पृष्ठभाग सड़क की ओर है। 

इस प्रकार मुअनजो-दड़ो की नगर योजना अपने-आप में अनूठी मिसाल थी।

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Chapter 2 जूझ | class 12th | Important Questions Hindi Vitan

जूझ (अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न)

प्रश्न 1:
लेखक के दादा का पढ़ाई के प्रति जो दृष्टिकोण था उसे आप कितना उपयुक्त पाते हैं? ऐसे लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव लाने के लिए आप क्या प्रयास कर सकते हैं?

उत्तर –

लेखक चाहता था कि वह भी अन्य बच्चों के साथ पाठशाला जाए, पढ़ाई करे और अच्छा आदमी बने। पाठशाला जाने के लिए उसका मन तड़पता था, पर उसके दादा का पढ़ाई के प्रति दृष्टिकोण स्वस्थ न था। वे चाहते थे कि लेखक पढ़ाई करने की बजाय खेती में काम करे और जानवरों को चराए। किसी दिन खेत में काम करने के लिए न जाने पर वे लेखक को बुरी तरह डाँटते। एक बार वे लेखक से कह रहे थे, “हाँ, यदि नहीं आया किसी दिन तो देख, गाँव में जहाँ मिलेगा, वही कुचलता हूँ कि नहीं, तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बालिस्टर नहीं होने वाला है तू?” बच्चे को पढ़ाई से विमुख करने वाला, बच्चों की शिक्षा में बाधक बनने वाला ऐसा दृष्टिकोण किसी भी कोण से उपयुक्त नहीं है। ऐसे लोगों का दृष्टिकोण बदलने के लिए मैं निम्नलिखित प्रयास करूंगा –

# लेखक के दादा जैसे लोगों को शिक्षा का महत्त्व बताऊँगा।

# शिक्षा से वंचित बच्चे मजदूर बनकर रह जाते हैं। यह बात उन्हें समझाऊँगा।

# शिक्षा व्यक्ति के जीविकोपार्जन में साधन का कार्य करती है। इस तथ्य से उन्हें अवगत कराऊँगा।

# पढ़े-लिखे सभ्य लोगों के उन्नत जीवन का उदाहरण ऐसे लोगों के सामने प्रस्तुत करूँगा।

प्रश्न 2:
आज भी समाज को दत्ता जी राव जैसे व्यक्तित्व की आवश्यकता है। इससे आप कितना सहमत हैं और क्यों? यदि आप दत्ता जी राव की जगह होते तो क्या करते? 

उत्तर
दत्ता जी राव नेक दिल, उदार एवं गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे बच्चों एवं महिलाओं से विशेष स्नेह करते थे। वे हरेक व्यक्ति की सहायता करते थे। लेखक और उसकी माँ ने जब उनको अपनी पीड़ा बताई तो शिक्षा के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण रखने वाले दत्ता राव जी ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया और लेखक के दादा को बुलवाया। जब वे राव जी के पास गए तो उन्होंने बच्चे को स्कूल न भेजने के लिए दादा जी को खूब डाँटा-फटकारा। उन्होंने बच्चे का भविष्य खराब करने की बात कहकर बच्चे को स्कूल भेजने का वायदा ले लिया और स्कूल न भेजने पर लेखक को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लेने की बात कही। राव जी की डाँट से लेखक के दादा कुछ न कह सके और पढ़ाई के लिए स्वीकृति दे दी। इसके बाद लेखक स्कूल जाने लगा। आज भी बहुत-से बच्चे विभिन्न कारणों से स्कूल का मुँह देखने से वंचित हो जाते हैं या पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। ऐसे बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने के लिए राव जी जैसे व्यक्तित्व की आज भी आवश्यकता है। इससे मैं पूर्णतया सहमत हूँ। इसका कारण यह है कि इससे बच्चे पढ़-लिखकर योग्य और समाजोपयोगी नागरिक बन सकेंगे। वे पढ़-लिखकर देश की उन्नति में अपना योगदान दे सकेंगे। यदि मैं दत्ता जी राव की जगह होता तो लेखक को स्कूल भेजने के लिए हर संभव प्रयास करता और फिर भी उसके दादा उसे स्कूल भेजने के लिए न तैयार होते तो मैं लेखक को अपने पास रखकर पढ़ाता और उसकी हर संभव मदद करता।

प्रश्न 3:
सौंदलगेकर के व्यक्तित्व ने लेखक को किस प्रकार प्रभावित किया? आप उनके व्यक्तित्व की कौन-कौन-सी विशेषताएँ अपनाना चाहेंगे?

उत्तर –

सौंदलगेकर एक अध्यापक थे जो लेखक के गाँव में मराठी पढ़ाया करते थे। वे कविताओं को बहुत अच्छी तरह से पढ़ाते थे और कथ्य में खो जाते थे। उनके सुरीले कंठ से निकली कविता और भी सुरीली हो जाती थी। उन्हें मराठी के अलावा अंग्रेजी कविताएँ भी जबानी याद थीं। वे स्वयं कविता की रचना करते थे और छात्रों को सुनाया करते थे। लेखक उनकी इस कला और कविता सुनाने की शैली से बहुत प्रभावित हुआ। इससे पहले लेखक कवियों को किसी दूसरी दुनिया का जीव मानता था पर सौंदलगेकर से मिलने के बाद जाना कि इतनी अच्छी कविता लिखने वाले भी हमारे-उसके जैसे मनुष्य ही होते हैं। अब लेखक को लगा कि वह भी उनकी जैसी कविता गाँव, खेत आदि से जुड़े दृश्यों पर बना सकता है। वह भैंस चराते-चराते फसलों और जानवरों पर तुकबंदी करने लगा। वह राह चलते तुकबंदी करता और उसे लिखकर अध्यापक को दिखाता। बाद में निरंतर अभ्यास से वह कविता लिखना सीख गया। इस प्रकार लेखक को सौंदलगेकर के व्यक्तित्व ने बहुत प्रभावित किया और उसमें कविता-लेखन की रुचि उत्पन्न कर दी। मैं सौंदलगेकर के व्यक्तित्व की अपने कार्य के प्रति समर्पित रहने, दूसरों को प्रोत्साहित करने, यथासंभव दूसरों की मदद करने जैसी विशेषताएँ अपनाना चाहूँगा।

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Chapter 1 सिल्वर वैडिंग | class 12th | Important Questions Hindi Vitan

सिल्वर वैडिंग (अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न)

प्रश्न 1:
यशोधर बाबू पुरानी परंपरा को नहीं छोड़ पा रहे हैं। उनके ऐसा करने को आप वर्तमान में कितना प्रासंगिक समझते हैं?

उत्तर –

यशोधर बाबू पुरानी पीढ़ी के प्रतीक हैं। वे रिश्ते–नातों के साथ–साथ पुरानी परंपराओं से अपना विशेष जुड़ाव महसूस करते हैं। वे पुरानी परंपराओं को चाहकर भी नहीं छोड़ पाते। यद्यपि वे प्रगति के पक्षधर है, फिर भी पुरानी परंपराओं के निर्वहन में रुचि लेते हैं। यशोधर बाबू किशनदा को अपना मार्गदर्शक मानते हैं और उन्हीं के बताए–सिखाए आदर्शों में जीना चाहते हैं। आपसी मेलजोल बढाना, रिश्तों को गर्मजोशी से निभाना, होली के आयोजन के लिए उत्साहित रहना, रामलीला का आयोजन करवाना; उनका स्वभाव बन गया है। इससे स्पष्ट है कि वे अपनी परंपराओं से अब भी जुड़े हैं। यद्यपि उनके बच्चे आधुनिकता के पक्षधर होने के कारण इन आदतों पर नाक–भी सिकोड़ते है, फिर भी यशोधर बाबू उन्हें निभाते आ रहे हैं। इसके लिए उन्हें अपने घर में टकराव झेलना पड़ता है।

यशोधर बाबू जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों को परंपरा से मोह बना होना स्वाभाविक है। उनका यह मोह अचानक नहीं समाप्त हो सकता। उनका ऐसा करना वर्तमान में भी प्रासंगिक है, क्योकि पुरानी परंपराएँ हमारी संस्कृति का अंग होती हैं। इन्हें एकदम से त्यागना किसी समाज के लिए शुभ लक्षण नहीं है। हाँ, यदि पुरानी परंपराएँ रूढ़ि बन गई हों तो उन्हें त्यागने में ही भलाई होती है। युवा पीढ़ी में मानवीय मूल्यों को प्रगाढ़ बनाने में परंपराएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अत: मैं इन्हें वर्तमान में भी प्रासंगिक समझता हूँ।

प्रश्न 2:
यशोधर बाबू के बच्चे युवा पीढी और नई सोच के प्रतीक हैं। उनका लक्ष्य प्रगति करना है। आप उनकी सोच और जीवन–शैली को भारतीय संस्कृति के कितना निकट पाते हैं?

उतार –

यशोधर बाबू जहाँ पुरानी पीढी के प्रतीक और परंपराओं की निभाने में विश्वास रखने वाले व्यक्ति है, वहींं उनके बच्चे की सोच एकदम अलग है। वे युवा पीढी और नई सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे आधुनिकता में विश्वास रखते हुए प्रगति की राह पर आगे बढ़ रहे है। वे अपने पिता की अपेक्षा एकाएक खूब धन कमा रहे है और उच्च पदों पर आसीन तो हो रहें हैं, किंतु परिवार से, समाज से, रिश्तेदारिओं  से, परंपराओं से वे विमुख हो रहे हैं। वे प्रगति को अंधी दौड़ में शामिल होकर जीवन से किनारा कर बैठे है। प्रगति को पाने के लिए उन्होंने प्रेम, सदभाव, आत्मीयता, परंपरा, संस्कार से दूरी बना ली है। वे प्रगति और सुख को अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठे हैं। इस प्रगति ने उन्हें मानसिक स्तर पर भी प्रभावित किया है, जिससे वे अपने पिता जी को ही पिछडा, परंपरा को व्यर्थ की वस्तु और मानवीय संबंधों की बोझ मानने लगे हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार यह लक्ष्य से भटकाव है।

भारतीय संस्कृति में भौतिक सुखों की अपेक्षा सबके कल्याण की कामना की गई है। इस संस्कृति में संतुष्टि को महत्ता दी गई है। प्रगति की भागदौड़ से सुख तो पाया जा सकता है पर संतुष्टि नहीं। इसलिए उनके बच्चे की सोच और उनकी जीवन–शैली भारतीय संस्कृति के निकट नहीं पाए जाते। इसका कारण यह है कि भौतिक सुखों को ही इस पीढी ने परम लक्ष्य मान लिया है।

प्रश्न 3:
यशोधर बाबू  और उनके बच्चों के व्यवहार एक–दूसरे से मेल नहीं खाते हैं। दोनोंं में से आप किसका व्यवहार अपनाना चाहेंगे और क्यों ?

यशोधर बाबू पुरानी पीढ़ी के प्रतीक और पुरानी सोच वाले व्यक्ति हैँ। वे अपनी परंपरा के प्रबल पक्षधर हैं। वे रिश्ते–नातों और परंपराओं को बहुत महत्त्व देते है और मानवीय मूल्यों को बनाए रखने के पक्ष में हैं। उनकी सोच भारतीय संस्कृति के अनुरूप है। वे परंपराओं को निभाना जाते है तथा इनके साथ ही प्रगति भी चाहते हैं। इसके विपरीत, यशोधर बाबू के बच्चे रिश्ते–नातों और परंपराओं की उपेक्षा करते हुए प्रगति की अंधी दौड़ में शामिल हैं। वे परंपराओं और रिश्तों की बलि देकर प्रगति करना चाहते हैं। इससे उनमें मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है। वे अपने पिता को ही पिछड़ा, उनके विचारों को दकियानूसी और पुरातनपंथी मानने लगे हैँ। उनकी निगाह में भौतिक सुख ही सर्वोपरि है। इस तरह दोनों के विचारों में द्वंद्व और टकराव है।

यदि मुझे दोनों में से किसी के व्यवहार को अपनाना पडे तो मैं यशोधर बाबू के व्यवहार को अपनाना चाहूँगा, पर कुछ सुधार के साथ। इसका कारण यह है कि यशोधर बाबू के विचार हमें भारतीय संस्कृति के निकट ले जाते हैं। मानव–जीवन में रिश्ते-नातों तथा संबंधों का बहुत महत्त्व है। प्रगति से हम भौतिक सुख तो पा सकते है, पर संतुष्टि नहीं। यशोधर बाबू के विचार और व्यवहार हमें संतुष्टि प्रदान करते हैं। मैं प्रगति और परंपरा दोनों के बीच संतुलन बनाते हुए व्यवहार करना चाहूँगा।

प्रश्न 4:
सामान्यतया लोग अपने बच्चों की आकर्षक आय पर गर्व करते है, पर यशोधर बाबू ऐसी आय को गलत मानते है। आपके विचार से इसके क्या कारण हो सकते हैं? यदि आप यशोधर बाबू की जगह होते तो क्या करते?

उत्तर –

यदि पैसा कमाने का साधन मर्यादित है तो उससे होने वाली आय पर सभी को गर्व होता है। यह आय यदि बच्चों की हो तो यह गर्वानुभूति और भी बढ जाती है। यशोधर बाबू की परिस्थितियाँ इससे हटकर थी। वे सरकारी नौकरी करते थे, जहाँ उनका वेतन बहुत धीरे–धीरे बढ़ा था। उनका वेतन जितना बढ़ता था, उससे अधिक महँगाई बढ़ जाती थी। इस कारण उनकी आय में हुई वृद्धि का असर उनके जीवन–स्तर को सुधार नहीं पता था। नौकरी की आय के सहारे वे गुजारा करते थे। समय का चक्र घूमा और यशोधर बाबू के बच्चे किसी बडी विज्ञापन कंपनी में नौकरी पाकर रातों–रात मोटा वेतन कमाने लगे। यशोधर बाबू को इतनी मोटी तनख्वाह का  रहस्य समझ में नहीं आता था। इसलिए वे समझते थे कि इतनी मोटी तनख्वाह के पीछे कोई गलत काम अवश्य किया जा रहा है। उन्होंने सारा जीवन कम वेतन में जैसै–तैसे गुजारा था, जिससे इतनी शान–शौकत्त को पचा नहीं पा रहे हैं। यदि मैं यशोधर की जगह होता तो बच्चे की मोटी तनख्वाह पर शक करने की बजाय वास्तविकता जानने का प्रयास करता और अपनी सादगी तथा बच्चों की तड़क–भड़क–भरी जिदगी के बीच सामंजस्य बनाकर खुशी–खुशी जीवन बिताने का प्रयास करता।

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Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज | class 12th | Important Questions Hindi Aroh

श्रम-विभाजन और जाति प्रथा (अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न)

प्रश्न 1.
आंबेडकर की कल्पना का समाज कैसा होगा?

उत्तर-

आंबेडकर का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता व भाईचारे पर आधारित होगा। सभी को विकास के समान अवसर मिलेंगे तथा जातिगत भेदभाव का नामोनिशान नहीं होगा। सामाज में कार्य करने वाले को सम्मान मिलेगा।

प्रश्न 2:
मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर होती है?

उत्तर-

मनुष्य की क्षमता निम्नलिखित बातों पर निर्भर होती है –

1. जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन अस्वाभाविक है।

2. शारीरिक वंश परंपरा के आधार पर।

3. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की शिक्षा, ज्ञानार्जन आदि के लाभ पर।

4. मनुष्य के अपने प्रयत्न पर।

प्रश्न 3:
लेखक ने जाति-प्रथा की किन किन बुराइयों का वर्णन किया है।

लेखक ने जाति-प्रथा की निम्नलिखित बुराइयों का वर्णन किया है –

1. यह श्रमिक-विभाजन भी करती है।

2. यह श्रमिकों में ऊँच-नीच का स्तर तय करती है।

3. यह जन्म के आधार पर पेशा तय करती है।

4. यह मनुष्य को सदैव एक व्यवसाय में बांध देती है भले ही वह पेशा अनुपयुक्त व अपर्याप्त हो।

5.यह संकट के समय पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती. चाहे व्यक्ति भूखा मर जाए।

प्रश्न 4:
लेखक की दृष्टि में लोकतंत्र क्या है?

लेखक की दृष्टि में लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है। वस्तुतः यह सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति और समाज के समिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

प्रश्न 5:
आर्थिक विकास के लिए जाति-प्रथा कैसे बाधक है?

उत्तर-

भारत में जाति-प्रथा के कारण व्यक्ति को जन्म के आधार पर मिला पेशा ही अपनाना पड़ता है। उसे विकास के समान अवसर नहीं मिलते। जबरदस्ती थोपे गए पेशे में उनकी अरूचि हो जाती है और ये काम को टालने या कामचोरी करने लगते हैं। वे एकाग्रता से कार्य नहीं करते। इस प्रवृत्ति से आर्थिक हानि होती है और उद्योगों का विकास नहीं होता।

प्रश्न 6:
डॉ आंबेडकर समता को कैसी वस्तु मानते हैं तथा क्यों?

उत्तर-

डॉ. आंबेडकर समता को कल्पना की वस्तु मानते हैं। उनका मानना है कि हर व्यक्ति समान नहीं होता। वह जन्म से ही सामाजिक स्तर के हिसाब से तथा अपने प्रयत्नों के कारण भिन्न और असमान होता है। पूर्ण समता एक काल्पनिक स्थिति है, परंतु हर व्यक्ति को अपनी समता को विकसित करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए।

प्रश्न 7:
जाति और श्रम-विभाजन में बुनियादी अंतर क्या है? ‘श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा’ के आधार पर उत्तर दीजिए।

उत्तर-

जाति और श्रम विभाजन में बुनियादी अंतर यह है कि-

1. जाति-विभाजन, श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का भी विभाजन करती है।

2. सभ्य समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है परंतु श्रमिकों के वर्गों में विभाजन आवश्यक नहीं है।

3. जाति विभाजन में पेशा चुनने की छूट नहीं होती जबकि श्रम विभाजन में ऐसी छूट हो सकती है।

4. जाति-प्रथा विपरीत परिस्थितियों में भी रोजगार बदलने का अवसर नहीं देती, जबकि श्रम-विभाजन में व्यक्ति ऐसा कर सकता है।

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Chapter 17 शिरीष के फूल | class 12th | Important Questions Hindi Aroh

शिरीष के फूल (अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न)

प्रश्न 1:
कालिदास ने शिरीष की कोमलता और द्विवेदी जी ने उसकी कठोरता के विषय में क्या कहा है ? ‘शिरीष के फुल’ पाठ के आधार पर बताए।

उत्तर =

कालिदास और संस्कृत साहित्य ने शिरीष को बहुत कोमल माना है। कालिदास का कथन है कि ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलयं शिरीष पुष्पं न पुनः पतन्निणाम्-शिरीष पुष्प केवल भौरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिलकुल नहीं। लेकिन इससे हजारी प्रसाद द्विवेदी सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि इसे कोमल मानना भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते, तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन पर जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है तब भी शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं।

प्रश्न 2:
शिरीष के अवधूत रूप के कारण लेखक को किस महात्मा की याद आती है और क्यों?

उत्तर =

शिरीष के अवधूत रूप के कारण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी को हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आती है। शिरीष तरु अवधूत है, क्योंकि वह बाह्य परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू सत्र में शांत बना रहता है और पुष्पित पल्लवित होता रहता है। इसी प्रकार महात्मा गांधी भी मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खराबे के बवंडर के बीच स्थिर रह सके थे। इस समानता के कारण लेखक को गांधी जी की याद आ जाती है, जिनके व्यक्तित्व ने समाज को सिखाया कि आत्मबल, शारीरिक बल से कहीं ऊपर की चीज है। आत्मा की शक्ति है। जैसे शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल, इतना कठोर हो सका है, वैसे ही महात्मा गांधी भी कठोर-कोमल व्यक्तित्व वाले थे। यह वृक्ष और वह मनुष्य दोनों ही अवधूत हैं।

प्रश्न 3:
शिरीष की तीन ऐसी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए जिनके कारण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उसे ‘कालजयी’ अवधूत कहा है।

उत्तर –

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिरीष को ‘कालजयी अवधूत’ कहा है। उन्होंने उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं –

1. वह संन्यासी की तरह कठोर मौसम में जिंदा रहता है।

2, वह भीषण गरमी में भी फूलों से लदा रहता है तथा अपनी सरसता बनाए रखता है।

3. वह कठिन परिस्थितियों में भी घुटने नहीं टेकता।

4. वह संन्यासी की तरह हर स्थिति में मस्त रहता है।

प्रश्न 4:
लेखक ने शिरीष के माध्यम से किस द्वंद्व को व्यक्त किया है?

उत्तर =

लेखक ने शिरीष के पुराने फलों की अधिकार-लिप्सु लड़खड़ाहट और नए पत्ते-फलों द्वारा उन्हें धकियाकर बाहर निकालने में साहित्य, समाज व राजनीति में पुरानी त नयी पीढ़ी के द्वंद्व को बताया है। वह स्पष्ट रूप से पुरानी पीढ़ी व हम सब में नएपन के स्वागत का साहस देखना चाहता है।

प्रश्न 5:
कालिदास-कृत शकुंतला के सौंदर्य-वर्णन को महत्त्व देकर लेखक ‘सौंदर्य’ को स्त्री के एक मूल्य के रूप में स्थापित करता प्रतीत होता हैं। क्या यह सत्य हैं? यदि हाँ, तो क्या ऐसा करना उचित हैं?

उत्तर =

लेखक ने शकुंतला के सौंदर्य का वर्णन करके उसे एक स्त्री के लिए आवश्यक तत्व स्वीकार किया है। प्रकृति ने स्त्री को कोमल भावनाओं से युक्त बनाया है। यह तथ्य आज भी उतना ही सत्य है। स्त्रियों का अलंकारों व वस्त्रों के प्रति आकर्षण भी यह सिद्ध करता है। यह उचित भी है क्योंकि स्त्री प्रकृति की सुकोमल रचना है। अतः उसके साथ छेड़छाड़ करना अनुचित है।

प्रश्न 6:
ऐसे दुमदारों से तो लंडूरे भले-इसका भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

लेखक कहता है कि दुमदार अर्थात सजीला पक्षी कुछ दिनों के लिए सुंदर नृत्य करता है, फिर दुम गवाकर कुरूप हो जाता है। यहाँ लेखक मोर के बारे में कह रहा है। वह बताता है कि सौंदर्य क्षणिक नहीं होना चाहिए। इससे अच्छा तो पूँछ कटा पक्षी ही ठीक है। उसे कुरुप होने की दुर्गति तो नहीं झेलनी पड़ेगी।

प्रश्न 7:
विज्जिका ने ब्रहमा, वाल्मीकि और व्यास के अतिरिक्त किसी को कवि क्यों नहीं माना है?

उत्तर –

कर्णाट राज की प्रिया विज्जिका ने केवल तीन ही को कवि माना है-ब्रहमा, वाल्मीकि और व्यास को। ब्रहमा ने वेदों की रचना की, जिनमें ज्ञान की अथाह राशि है। वाल्मीकि ने रामायण की रचना की, जो भारतीय संस्कृति के मानदंडों को बताता है। व्यास ने महाभारत की रचना की, जो अपनी विशालता व विषय-व्यापकता के कारण विश्व के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्यों में से एक है। भारत के अधिकतर साहित्यकार इनसे प्रेरणा लेते हैं। अन्य साहित्यकारों की रचनाएँ प्रेरणास्रोत के रूप में स्थापित नहीं हो पाई। अतः उसने किसी और व्यक्ति को कवि नहीं माना।

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Chapter 16 नमक | class 12th | Important Questions Hindi Aroh

प्रश्न 1:
सिख बीवी के प्रति सफ़िया के आकर्षण का क्या कारण था? ‘नमक’ पाठ के आधार पर बताइए।

उत्तर

जब सफ़िया ने सिख बीवी को देखा, तो वह हैरान रह गई। बीवी का वैसा ही चेहरा था, जैसा सफ़िया की माँ का था। बिलकुल वही कद, वही भारी शरीर, वही छोटी छोटी चमकदार आँखें, जिनमें नेकी मुहब्बत और रहमदिली की रोशनी जगमगा रही थी। चेहरा खुली किताब जैसा था। बीवी ने वैसी ही सफ़ेद मलमल का दुपट्टा ओढ़ रखा था, जैसा सफ़िया की अम्मा मुहर्रम में ओढ़ा करती थीं, इसीलिए सफ़िया बीवी की तरफ बार-बार बड़े प्यार से देखने लगी। उसकी माँ तो बरस पहले मर चुकी थीं, पर यह कौन? उसकी माँ जैसी हैं, इतनी समानता कैसे है? यही सोचकर सफ़िया उनके प्रति आकर्षित हुई।

प्रश्न 2:
लाहौर और अमृतसर के कस्टम अधिकारियों ने सफ़िया के साथ कैसा व्यवहार किया?

उत्तर-

दोनों जगह के कस्टम अधिकारियों ने सफ़िया और उसकी नमक रूपी सद्भावना का सम्मान किया। केवल सम्मान ही नहीं, उसे यह भी जानकारी मिली कि उनमें से एक देहली को अपना वतन मानते हैं और दूसरे ढाका को अपना वतन कहते हैं। उन दोनों ने सफ़िया के प्रति पूरा सद्भाव दिखाया, कानून का उल्लंघन करके भी उसे नमक ले जाने दिया। अमृतसर वाले सुनील दास गुप्त तो उसका थैला उठाकर चले और उसके पुल पार करने तक वहीं पर खड़े रहे। उन अधिकारियों ने यह साबित कर दिया कि कोई भी कानून या सरहद प्रेम से ऊपर नहीं।

प्रश्न 3:
नमक की पुड़िया के संबंध में सफ़िया के मन में क्या द्वद्ध था? उसका क्या समाधान निकला?

उत्तर-

नमक की पुड़िया ले जाने के संबंध में सफ़िया के मन में यह द्वंद्व था कि वह नमक की पुड़िया को चोरी से छिपाकर ले जाए या कस्टम अधिकारियों को दिखाकर ले जाए। पहले वह इसे कीनुओं की टोकरी में सबसे नीचे रखकर कीनुओं से ढक लेती है। फिर वह निर्णय करती है कि वह प्यार के तोहफ़े को चोरी से नहीं ले जाएगी। वह नमक की पुड़िया को कस्टम वालों को दिखाएगी।

प्रश्न 4:
सफ़िया को अटारी में समझ ही नहीं आया कि कहाँ लाहौर खत्म हुआ और किस जगह अमृतसर शुरू हो गया, एसा क्यों? CBSE (Foreign), 2009

उत्तर-

अमृतसर व लाहौर दोनों की सीमाएँ साथ लगती हैं। दोनों की भौगोलिक संरचना एक जैसी है। दोनों तरफ के लोगों की भाषा एक है। एक जैसी शक्लें हैं तथा उनका पहनावा भी एक जैसा है। वे एक ही लहजे से बोलते हैं तथा उनकी गालियाँ भी एक जैसी ही हैं। इस कारण सफ़िया को अटारी में समझ ही नहीं आया कि कहाँ लाहौर खत्म हुआ और किस जगह अमृतसर शुरू हो गया।

प्रश्न 5:
नमक कहानी में क्या सन्देश छिपा हुआ है? स्पष्ट कीजिए।    (CBSE (Delhi), 2014)

उत्तर-

‘नमक’ कहानी में छिपा संदेश यह है कि मानचित्र पर एक लकीर मात्र खींच देने से वहाँ रहने वाले लोगों के दिल नहीं बँट जाते। जमीन बंटने से लोगों के आवागमन पर प्रतिबंध और पाबंदियाँ लग जाती हैं परंतु लोगों का लगाव अपने मूल स्थान से बना रहता है। पाकिस्तानी कस्टम अधिकारी द्वारा दिल्ली को तथा भारतीय कस्टम अधिकारी द्वारा ढाका को अपना वतन मानना इसका प्रमाण है।

प्रश्न 6:
‘नमक’ कहानी में ‘नमक’ किस बात का प्रतीक है? इस कहानी में ‘वतन’ शब्द का भाव किस प्रकार दोनों तरफ के लोगों को भावुक करता है?    (CBSE Sample Pape, 2015

उत्तर-

‘नमक’ कहानी में नमक भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद इन अलग-अलग देशों में रह रहे लोगों के परस्पर प्यार का प्रतीक है जो विस्थापित और पुनर्वासित होकर भी एक-दूसरे के दिलों से जुड़े हैं। इस कहानी में ‘वतन’ शब्द का भाव एक दूसरे को याद करके अतीत की मधुर यादों में खो देने का भाव उत्पन्न करके दोनों तरफ के लोगों को भावुक कर देता है। दोनों देशों के राजनीतिक संबंध अच्छे-बुरे जैसे भी हों, इससे उनका कुछ लेना-देना नहीं होता।

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