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राजस्थान की रजत बूँदें (अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न)
प्रश्न 1:
कुंई की निर्माण प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए।
उत्तर –
मरुभूमि में कुंई के निर्माण का कार्य चेलवांजी यानी चेजार करते हैं। वे खुदाई व विशेष तरह की चिनाई करने में दक्ष होते हैं। कुंई बनाना एक विशिष्ट कला है। चार-पाँच हाथ के व्यास की कुंई को तीस से साठ-पैंसठ हाथ की गहराई तक उतारने वाले चेजारो कुशलता व सावधानी के साथ पूरी ऊँचाई नापते हैं। चिनाई में थोड़ी-सी भी चूक चेजारो के प्राण ले सकती है। हर दिन थोड़ी-थोड़ी खुदाई होती है, डोल से मलवा निकाला जाता है और फिर आगे की खुदाई रोककर अब तक हो चुके काम की चिनाई की जाती है ताकि मिट्टी धँसे नहीं।
बीस-पच्चीस हाथ की गहराई तक जाते-जाते गर्मी बढ़ती जाती है और हवा भी कम होने लगती है। तब ऊपर से मुट्ठी-भरकर रेत तेजी से नीचे फेंकी जाती है ताकि ताजा हवा नीचे जा सके और गर्म हवा बाहर आ सके। चेजार सिर पर काँसे, पीतल या किसी अन्य धातु का एक बर्तन टोप की तरह पहनते हैं ताकि ऊपर से रेत, कंकड़-पत्थर से उनका बचाव हो सके। किसी-किसी स्थान पर ईट की चिनाई से मिट्टी नहीं रुकती तब कुंई को रस्से से बाँधा जाता है। ऐसे स्थानों पर कुंई खोदने के साथ-साथ खींप नामक घास का ढेर लगाया जाता है। खुदाई शुरू होते ही तीन अंगुल मोटा रस्सा बनाया जाता है।
एक दिन में करीब दस हाथ की गहरी खुदाई होती है। इसके तल पर दीवार के साथ सटाकर रस्से का एक के ऊपर एक गोला बिछाया जाता है और रस्से का आखिरी छोर ऊपर रहता है। अगले दिन फिर कुछ हाथ मिट्टी खोदी जाती है और रस्से की पहली दिन जमाई गई कुंडली, दूसरे दिन खोदी गई जगह में सरका दी जाती है। बीच-बीच में जरूरत होने पर चिनाई भी की जाती है। कुछ स्थानों पर पत्थर और खींप नहीं मिलते। वहाँ पर भीतर की चिनाई लकड़ी के लंबे लट्ठों से की जाती है लट्ठे अरणी, बण, बावल या कुंबट के पेड़ों की मोटी टहनियों से बनाए जाते हैं। इस काम के लिए सबसे अच्छी लकड़ी अरणी की है, परंतु इन पेड़ों की लकड़ी न मिले तो आक तक से भी काम किया जाता है। इन पेड़ों के लट्ठे नीचे से ऊपर की ओर एक-दूसरे में फँसाकर सीधे खड़े किए जाते हैं। फिर इन्हें खींप की रस्सी से बाँधा जाता है। यह बँधाई कुंडली का आकार लेती है। इसलिए इसे साँपणी कहते हैं। खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही काम रुक जाता है और इस क्षण नीचे धार लग जाती है। चेजारो ऊपर आ जाते हैं कुंई बनाने का काम पूरा हो जाता है।
प्रश्न 2:
कुंई का मुँह छोटा क्यों रखा जाता है? स्पष्ट करें?
उत्तर –
कुंई का मुँह छोटा रखा जाता है। इसके तीन कारण प्रमुख हैं
1. रेत में जमी नमी से पानी की बूंदें धीरे-धीरे रिसती हैं। दिनभर में एक कुंई में मुश्किल से दो-तीन घड़े पानी जमा होता है। कुंई के तल पर पानी की मात्रा इतनी कम होती है कि यदि कुंई का व्यास बड़ा हो तो कम मात्रा का पानी ज्यादा फैल जाएगा। ऐसी स्थिति में उसे ऊपर निकालना संभव नहीं होगा। छोटे व्यास की कुंई में धीरे-धीरे रिस कर आ रहा पानी दो-चार हाथ की ऊँचाई ले लेता है।
2. कुंई के व्यास का संबंध इन क्षेत्रों में पड़ने वाली तेज गर्मी से भी है। व्यास बड़ा हो तो कुंई के भीतर पानी ज्यादा फैल जाएगा और भाप बनकर उड़ने से रोक नहीं पाएगा।
3. कुंई को और उसके पानी को साफ रखने के लिए उसे ढककर रखना जरूरी है। छोटे मुँह को ढकना सरल होता है। कुंई पर लकड़ी के ढक्कन, खस की पट्टी की तरह घास-फूस या छोटी-छोटी टहनियों से बने ढक्कनों का प्रयोग किया जाता है।
प्रश्न 3:
‘राजस्थान में जल संग्रह के लिए बनी कुंई किसी वैज्ञानिक खोज से कम नहीं है।” स्पष्ट करें।
उत्तर –
यह बात बिल्कुल सही है कि राजस्थान में जल संग्रह के लिए बनी कुंई किसी वैज्ञानिक खोज से कम नहीं है। मरुभूमि में चारों तरफ अथाह रेत है। वर्षा भी कम होती है। भूजल खारा होता है। ऐसी स्थिति में जल की खोज, उसे निकालना आदि सब कुछ वैज्ञानिक तरीके से हो सकता है। मरुभूमि के भीतर खड़िया की पट्टी को खोजने में भी पीढ़ियों का अनुभव काम आता है। जिस स्थान पर वर्षा का पानी एकदम न बैठे, उस स्थान पर खड़िया पट्टी पाई जाती है। कुंई के जल को पाने के लिए मरुभूमि के समाज ने खूब मंथन किया तथा अनुभवों के आधार पर पूरा शास्त्र विकसित किया।
कुंई खोदने में वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई जाती है। चेजारो के सिर पर धातु का बर्तन उसे चोट से बचाता है। ऊपर से रेत फेंकने से ताजा हवा नीचे जाती है तथा गर्म हवा बाहर निकलती है, फिर कुंई की चिनाई भी पत्थर, ईट, खींप की रस्सी या अरणी के लट्ठों से की जाती है। यह खोज आधुनिक समाज को चमत्कृत करती है।
प्रश्न 4 :कुंई की खुदाई किससे की जाती है?
उत्तर –
कुंई का व्यास बहुत कम होता है। इसलिए इसकी खुदाई फावड़े या कुल्हाड़ी से नहीं की जा सकती। बसौली से इसकी खुदाई की जाती है। यह छोटी डंडी का छोटे फावड़े जैसा औजार होता है जिस पर लोहे का नुकीला फल तथा लकड़ी का हत्था लगा होता है।
प्रश्न 5:
कुंई की खुदाई के समय ऊपर जमीन पर खड़े लोग क्या करते हैं?
उत्तर –
कुंई की खुदाई के समय गहराई बढ़ने के साथ-साथ गर्मी बढ़ती जाती है। उस गर्मी को कम करने के लिए ऊपर जमीन पर खड़े लोग बीच-बीच में मुट्ठी भर रेत बहुत जोर के साथ नीचे फेंकते हैं। इससे ऊपर की ताजी हवा नीचे की तरफ जाती है और गहराई में जमा दमघोंटू गर्म हवा ऊपर लौटती है। इससे चेलवांजी को गर्मी से राहत मिलती है।
प्रश्न 6:
खड़िया पत्थर की पट्टी कहाँ चलती है?
उत्तर –
मरुभूमि में रेत का विस्तार व गहराई अथाह है। यहाँ अधिक वर्षा भी भूमि में जल्दी जमा हो जाती है। कहीं-कहीं मरुभूमि में रेत की सतह के नीचे प्राय: दस-पंद्रह हाथ से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की एक पट्टी चलती है। यह पट्टी लंबी-चौड़ी होती है, परंतु रेत में दबी होने के कारण दिखाई नहीं देती।
प्रश्न 7:
खड़िया पत्थर की पट्टी का क्या फायदा है?
उत्तर –
खड़िया पत्थर की पट्टी वर्षा के जल को गहरे खारे भूजल तक जाकर मिलने से रोकती है। ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र में बरसा पानी भूमि की रेतीली सतह और नीचे चल रही पथरीली पट्टी के बीच अटक कर नमी की तरह फैल जाता है।
प्रश्न 8:
खड़िया पट्टी के अलग-अलग क्या नाम हैं?
उत्तर –
खड़िया पट्टी के कई स्थानों पर अलग-अलग नाम हैं। कहीं यह चारोली है तो कहीं धाधड़ी, धड़धड़ी, कहीं पर बिट्टू रो बल्लियो के नाम से भी जानी जाती है तो कहीं इस पट्टी का नाम केवल ‘खड़ी’ भी है।
प्रश्न 9:
कुंई के लिए कितने रस्से की जरूरत पड़ती है?
उत्तर –
लेखक बताता है कि लगभग पाँच हाथ के व्यास की कुंई में रस्से की एक ही कुंडल का सिर्फ एक घेरा बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लंबा रस्सा चाहिए। एक हाथ की गहराई में रस्से के आठ-दस लपेटे लग जाते हैं। इसमें रस्से की कुल लंबाई डेढ़ सौ हाथ हो जाती है। यदि तीस हाथ गहरी कुंई की मिट्टी को थामने के लिए रस्सा बाँधना पड़े तो रस्से की लंबाई चार हजार हाथ के आसपास बैठती है।
प्रश्न 10:
रेजाणीपानी की क्या विशेषता है? ‘रेजा’ शब्द का प्रयोग किसलिए किया जाता है?
उत्तर –
रेजाणीपानी पालरपानी और पातालपानी के बीच पानी का तीसरा रूप है। यह धरातल से नीचे उतरता है, परंतु पाताल में नहीं मिलता। इस पानी को कुंई बनाकर ही प्राप्त किया जाता है। ‘रेजा’ शब्द का प्रयोग वर्षा की मात्रा नापने के लिए किया जाता है। यह माप धरातल में समाई वर्षा को नापता है। उदाहरण के लिए यदि मरुभूमि में वर्षा का पानी छह अंगुल रेत के भीतर समा जाए तो उस दिन की वर्षा को पाँच अंगुल रेजा कहेंगे।
प्रश्न 11:
कुंई से पानी कैसे निकाला जाता है?
उत्तर –
कुंई से पानी चड़स के द्वारा निकाला जाता है। यह मोटे कपड़े या चमड़े की बनी होती है। इसके मुँह पर लोहे का वजनी कड़ा बँधा होता है। आजकल ट्रकों की फटी ट्यूब से भी छोटी चड़सी बनने लगी है। चडस पानी से टकराता है तथा ऊपर का वजनी भाग नीचे के भाग पर गिरता है। इस तरह कम मात्रा के पानी में भी वह ठीक तरह से डूब जाती है। भर जाने के बाद ऊपर उठते ही चड़स अपना पूरा आकार ले लेता है।
प्रश्न 12:
गहरी कुंई से पानी खींचने का क्या प्रबंध किया जाता है?
उत्तर –
गहरी कुंई से पानी खींचने के लिए उसके ऊपर घिरनी या चकरी लगाई जाती है। यह गरेडी, चरखी या फरेड़ी भी कहलाती है। ओड़ाक और चरखी के बिना गहरी व संकरी कुंई से पानी निकालना कठिन काम होता है। ओड़ाक और चरखी चड़सी को यहाँ-वहाँ टकराए बिना सीधे ऊपर तक लाती है। इससे वजन खींचने में भी सुविधा रहती है।
प्रश्न 13:
गोधूलि के समय कुंइयों पर कैसा वातावरण होता है?
उत्तर –
गोधूलि बेला में प्राय: पूरा गाँव कुंइयों पर आता है। उस समय-मेला सा लगता है। गाँव से सटे मैदान में तीस-चालीस कुंइयों पर एक साथ घूमती घिरनियों का स्वर गोचर से लौट रहे पशुओं की घंटियों और रंभाने की आवाज में समा जाता है। दो-तीन घड़े भर जाने पर डोल और रस्सियाँ समेट ली जाती हैं।
प्रश्न 14:
राजस्थान के रेत की विशेषता बताइए।
उत्तर –
राजस्थान में रेत के कण बारीक होते हैं। वे एक-दूसरे से चिपकते नहीं है। आमतौर पर मिट्टी के कण एक-दूसरे से चिपक जाते हैं तथा मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। इन दरारों से नमी गर्मी में वाष्प बन जाती है। रेत के कण बिखरे रहते हैं। अत: उनमें दरारें नहीं पड़तीं और अंदर की नमी अंदर ही रहती है। यह नमी ही कुंइयों के लिए पानी का स्रोत बनती है।
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