Stri siksha ke virodh kurtuko ka khandan class 10 summary
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लेखक परिचय
महावीर प्रसाद दिवेदी
इनका जन्म सन 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने के कारण स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होने रेलवे में नौकरी कर ली। बाद में नौकरी से इस्तीफा देकर सन 1903 में प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती का संपादन शुरू किया तथा 1920 तक उससे जुड़े रहे। सन 1938 में इनका देहांत हो गया।
स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Class 10 Hindi पाठ का सार ( Short Summary )
इस पाठ में लेखक ने स्त्री शिक्षा के महत्व को प्रसारित करते हुए उन विचारों का खंडन किया है। लेखक को इस बात का दुःख है आज भी ऐसे पढ़े-लिखे लोग समाज में हैं जो स्त्रियों का पढ़ना गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। विद्वानों द्वारा दिए गए तर्क इस तरह के होते हैं, संस्कृत के नाटकों में पढ़ी-लिखी या कुलीन स्त्रियों को गँवारों की भाषा का प्रयोग करते दिखाया गया है। शकुंतला का उदहारण एक गँवार के रूप में दिया गया है जिसने दुष्यंत को कठोर शब्द कहे। जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक वो गँवारों की भाषा थी। इन सब बातों का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं की क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नही बोल सकती। बुद्ध से लेकर महावीर तक ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिए हैं तो क्या वो गँवार थे। लेखक कहते हैं की हिंदी, बांग्ला भाषाएँ आजकल की प्राकृत हैं। जिस तरह हम इस ज़माने में हिंदी, बांग्ला भाषाएँ पढ़कर शिक्षित हो सकते हैं उसी तरह उस ज़माने में यह अधिकार प्राकृत को हासिल था। फिर भी प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का सबूत है यह बात नही मानी जा सकती।
जिस समय नाट्य-शास्त्रियों ने नाट्य सम्बन्धी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत नही थी। इसलिए उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और अन्य लोगों और स्त्रियों की भाषा प्राकृत कर दिया। लेखक तर्क देते हुए कहते हैं कि शास्त्रों में बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा मिलती है किन्तु उनके सिखने सम्बन्धी पुस्तक या पांडुलिपि नही मिलतीं उसी प्रकार प्राचीन समय में नारी विद्यालय की जानकारी नही मिलती तो इसका अर्थ यह तो नही लगा सकते की सारी स्त्रियाँ गँवार थीं। लेखक प्राचीन काल की अनेकानेक शिक्षित स्त्रियाँ जैसे शीला, विज्जा के उदारहण देते हुए उनके शिक्षित होने की बात को प्रामणित करते हैं। वे कहते हैं की जब प्राचीन काल में स्त्रियों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने की आजादी थी तब यह मत कैसे दिया जा सकता है की उन्हें शिक्षा नही दी जाती थी। लेखक कहते हैं मान लीजिये प्राचीन समय में एक भी स्त्री शिक्षित नही थीं, सब अनपढ़ थीं उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता ना समझी गयी होगी परन्तु वर्तमान समय को देखते हुए उन्हें अवश्य शिक्षित करना चाहिए।
लेखक पिछड़े विचारधारावाले विद्वानों से कहते हैं की अब उन्हें अपने पुरानी मान्यताओं में बदलाव लाना चाहिए। जो लोग स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए पुराणों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्ध का तिरेपनवां अध्याय पढ़ना चाहिए जिसमे रुक्मिणी हरण की कथा है। उसमे रुक्मिणी ने एक लम्बा -चौड़ा पत्र लिखकर श्रीकृष्ण को भेजा था जो प्राकृत में नहीं था। वे सीता, शकुंतला आदि के प्रसंगो का उदहारण देते हैं जो उन्होंने अपने पतियों से कहे थे। लेखक कहते हैं अनर्थ कभी नही पढ़ना चाहिए। शिक्षा बहुत व्यापक शब्द है, पढ़ना उसी के अंतर्गत आता है। आज की माँग है की हम इन पिछड़े मानसिकता की बातों से निकलकर सबको शिक्षित करने का प्रयास करें। प्राचीन मान्यताओं को आधार बनाकर स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करना अनर्थ है।
स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Class 10 Hindi पाठ का सार ( Detailed Summary )
स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतकों का खंडन’ निबंध के लेखक ‘महावीर प्रसाद दविवेदी’ हैं। लेखक का यह निबंध उन लोगों की चेतना जागृत करने के लिए है जो स्त्री शिक्षा को व्यर्थ मानते थे। उन लोगों के अनुसार शिक्षित स्त्री समाज के विघटन का कारण बनती है। इस निबंध की एक विशेषता यह है कि परंपरा का हिस्सा सड़-गल चुका है, उसे बेकार मानकर छोड़ देने की बात कही गई है।
लेखक के समय में कुछ ऐसे पढ़े-लिखे लोग थे जो स्त्री शिक्षा को घर और समाज दोनों के लिए हानिकारक मानते थे। इन लोगों का काम समाज में बुराइयों और अनीतियों को समाप्त करना था स्त्री शिक्षा के विरोध में ये लोग अपने कुछ तर्क प्रस्तुत करते हैं उनके अनुसार प्राचीन भारत में संस्कृत कवियों के नाटकों में कुलीन स्त्रियां गँंवार भाषा का प्रयोग करती थीं। इसलिए उस समय भी स्त्रियों को पढ़ाने का चलन नहीं था कम पढ़ी-लिखी शकुंतला ने दुष्यंत से ऐसे कटु वचन बोले कि अपना सत्यानाश कर लिया। यह उसके पढ़े-लिखे होने का फल था उस समय स्त्रियों को पढ़ाना समय बर्बाद करना समझा जाता था लेखक ने इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर दिया है। नाटकों में स्त्रियों का संस्कृत न बोलना उनका अनपढ़ होना सिद्ध नहीं करता। वाल्मीकि की रामायण में जब बंदर संस्कृत बोल सकते हैं तो उस समय स्त्रियां संस्कृत क्यों नहीं बोल सकती थीं ऋषि पत्नियों की भाषा गैवारों जैसी नहीं हो सकती। कालिदास और भवभूति के समय तो आम लोग भी संस्कृत भाषा बोलते थे । इस बात का कोई स्पष्ट सबूत नहीं है कि उस समय बोलचाल की भाषा प्राकृत नहीं थी। प्राकृत भाषा में बात करना अनपढ़ होना नहीं था। प्राकृत उस समय की प्रचलित भाषा थी इसका प्रमाण बौद्धों और जैनों के हज़ारों ग्रंथों से मिलता है। भगवान् बुद्ध के सभी उपदेश प्राकृत भाषा में मिलते हैं। बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा ग्रंथ त्रिपिटक प्राकृत भाषा में है। इसलिए प्राकृत बोलना और लिखना अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। गाथा-सप्तशती, सेतुबंध-महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रंथ प्राकृत भाषा में हैं। यदि इनको लिखने वाले अनपढ़ थे तो आज के सभी अखबार संपादक अनपढ़ हैं। वे अपनी-अपनी प्रचलित भाषा में आववार छापते हैं। जिस तरह हम बांग्ला, मराठी, हिंदी बोल, पढ़ और लिखकर स्वयं को विद्वान् समझते हैं उसी तरह उस समय पाली, मगधी, महाराष्ट्री, शोरसैनी आदि भाषाएं पढ़कर वे लोग सभ्य और शिक्षित हो सकते थे। जिस भाषा का चलन होता है वही बोली जाती है और उसी भाषा में साहित्य मिलता है।
उस समय के आचार्यों के नाट्य संबंधी नियमों के आधार पर पढ़े-लिखे होने का ज्ञान नहीं हो सकता जब ये नियम बने थे उस समय संस्कृत सर्वसाधारण की बोलचाल भाषा नहीं थी। इसीलिए उच्च पात्रों से नाटकों में संस्कृत और स्त्रियों एवं अन्य पात्रों से प्राकृत भाषा का प्रयोग करवाया था। उस समय स्त्रियों के लिए विद्यालय थे या नहीं इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है परंतु इसके आधार पर हम स्त्रियों को अनपढ़ और असभ्य नहीं मान सकते। कहा जाता है कि उस समय विमान होते थे जिससे एक द्वीपांतरों से अन्य द्वीपों तक जाया जा सकता था। परंतु हमारे शास्त्रों में इसके बनाने की विधि कहीं नहीं दी गई है। इससे उस समय जहाज़ होने की बात से इन्कार तो नहीं करते अपितु गर्व ही करते हैं। फिर यह कहाँ का न्याय है कि उस समय की स्त्रियों को शास्त्रों के आधार पर मूर्ख, असभ्य और अनपढ़ बता दिया जाए। हिंदू लोग वेदों की रचना को ईश्वरकृत रचना मानते हैं। ईश्वर ने भी मंत्रों की रचना स्त्रियों से कराई है। प्राचीन भारत में ऐसी कई स्त्रियां हुई हैं जिन्होंने बड़े-बड़े पुरुषों से शास्त्रार्थ किया और उनके हाथों सम्मानित हुई हैं। बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक में सैंकड़ों स्त्रियों की पद्य रचना लिखी हुई है। उन स्त्रियों को सभी प्रकार के काम करने की इजाजत थी तो उन्हें पढ़ने-लिखने से क्यों रोका जाता स्त्री शिक्षा विरोधियों की ऐसी बातें समझ में नहीं आतीं।
अत्रि की पत्नी, मंडन मिश्र की पत्नी, गार्गी आदि जैसी विदुषी नारियों ने अपने पांडित्य से उस समय के बड़े बड़े आचार्य को भी मात दे दी थी। तो क्या वे स्त्रियों को कुछ बुरा परिणाम भुगतना पड़ा। यह सब उन लोगों की गढ़ी हुई कहानियाँ हैं जो स्त्रियों को अपने से आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकते। जिनका अहंकार स्त्री को दबाकर रखने से संतुष्ट होता है तो वे स्त्री को अपनी बराबरी का अधिकार कैसे दे सकते हैं। यदि उनकी बात भी ली जाए तो पुराने समय में स्त्रियों को पढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती थी परंतु आज बदलते समय के साथ स्त्री-शिक्षा अनिवार्य है। जब हम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए कई पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ दिया है तो इस पद्धति को हम क्यों नहीं तोड़ सकते ? यदि उन लोगों को पुराने समय में स्त्रियों को पढ़े होने का प्रमाण चाहिए तो श्री श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध में रुक्मिणी के हाथ का लिखा कृष्ण को पत्र बड़ी विद्वता भरा है। यह उसके पढ़े-लिखे होने का प्रमाण नहीं है क्या ? वे लोग भागवत की बात से इन्कार नहीं कर सकते। स्त्री-शिक्षा विरोधियों के अनुसार यदि स्त्रियों को पढ़ाने से कुछ बुरा घटित होता है तो पुरुषों के पढ़ने से तो उससे भी बुरा घटित होता है। समाज में होने वाले सभी बुरे कार्य पढ़े-लिखे पुरुषों की देन हैं तो क्या पाठशालाएँ, कॉलेज आदि बंद कर देने चाहिएं। शकुंतला का दुष्यंत का अपमान करना स्वाभाविक बात थी। एक पुरुष स्त्री से शादी करके उसे भूल जाए और उसका त्याग कर दे तो वह स्त्री चुप नहीं बैठेगी। वह अपने विरुद्ध किए अन्याय का विरोध तो करेगी यह कोई गलत बात नहीं थी। सीता जी तो शकुंतला से अधिक पवित्र मानी जाती हैं। उन्होंने भी अपने परित्याग के समय राम जी पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने सबके सामने अग्नि में कूद कर अपनी पवित्रता का प्रमाण दिया था फिर लोगों की बातें सुनकर उसे क्यों छोड़ दिया। यह राम जी के कुल पर कलंक लगाने वाली बात है। सीता जी तो शास्त्रों का ज्ञान रखने वाली थी फिर उन्होंने अपने विरुद्ध हुए अन्याय का विरोध अनपढ़ों की भांति क्यों दिखाया। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। जब मनुष्य अपने विरुद्ध हुए अन्याय के विरोध में आवाज उठाता है।
पढ़ने-लिखने से समाज में कोई भी अनर्थ नहीं होता। अनर्थ करने वाले अनपढ़ और पढ़े-लिखे दोनों तरह के हो सकते हैं। अनर्थ का कारण दुराचार और पापाचार है। स्त्रियाँ अच्छे-बुरे का ज्ञान कर सकें उसके लिए स्त्रियों को पढ़ाना आवश्यक है। जो लोग स्त्रियों को पढ़ने-लिखने से रोकते हैं उन्हें दंड दिया जाना चाहिए। स्त्रियों को अनपढ़ रखना समाज की उन्नति में रुकावट डालता है। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत है। उसमें सीखने योग्य सभी कार्य समाहित हैं तो पढ़ना-लिखना भी उसी के अंतर्गत आता है। यदि वर्तमान की शिक्षा-प्रणाली के कारण लड़कियों को पढ़ने-लिखने से रोका जाए तो ठीक नहीं है। इससे तो अच्छा है कि शिक्षा प्रणाली में सुधार लाया जाए। लड़कों की भी शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं है फिर स्कूल-कॉलेज क्यों बंद नहीं किए। दोहरे मापदंडों से समाज का हित नहीं हो सकता। यदि विचार करना है तो स्त्री-शिक्षा के नियमों पर विचार करना चाहिए उन्हें कहाँ पढ़ाना चाहिए, कितनी शिक्षा देनी चाहिए, किससे शिक्षा दिलानी चाहिए। परंतु यह कहना कि स्त्री-शिक्षा में दोष है यह पुरुषों के अहंकार को सिद्ध करता है, अहंकार को बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा लेना उचित नहीं है।
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NCERT Solution –स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन
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