कवि परिचय
नागार्जुन
इनका जन्म बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में सन 1911 को हुआ था। इनकी आरंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में हुई, बाद में अध्यन के लिए बनारस और कलकत्ता गए। 1936 में वे श्रीलंका गए और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। दो साल प्रवास के बाद 1938 में स्वदेस लौट आये। घुमक्कड़ी और अक्खड़ स्वभाव के धनी स्वभाव के धनी नागार्जुन ने अनेक बार सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। सन 1998 में इनकी मृत्यु हो गयी।
यह दंतुरित मुसकान, फसल Class 10 Hindi कविता का सार ( Short Summary )
1. यह दंतुरित मुसकान
कवि अपने छोटे बच्चे की उस मुसकान को देख कर अपार प्रसन्न हैं जिसके मुँह में अभी छोटे-छोटे दाँत निकले हैं। कवि को उस की मुसकान जीवन का संदेश प्रतीत होती है। उस मुसकान के सामने कठोर से कठोर मन भी पिघल सकता है। उस की मुसकान तो किसी मृतक में भी नई जान फूंक सकती है। धूल-मिट्टी से सना हुआ नन्हा- सा बच्चा तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कमल का सुंदर-कोमल फूल तालाब छोड़ कर उसकी झोंपड़ी में खिल उठा हो। उसे छू कर तो पत्थर भी जल बन जाता है। उसे छू कर ही शेफालिका के फूल झड़ने लगते हैं। नन्हा-सा बच्चा कवि को नहीं पहचान पाया इसलिए एक टक उसकी तरफ देखता रहा। कवि मानता है कि उस बच्चे की मोहिनी छवि और उसके सुंदर दाँतों को वह उसकी माँ के कारण देख पाया था। वह माँ धन्य है और बच्चे की मुसकान भी धन्य है। वह स्वयं तो इधर-उधर जाने वाला प्रवासी था इसलिए उसकी पहचान नन्हे बच्चे के साथ नहीं हो सकी थी। जब उसकी माँ कहती तब वह कनखियों से कवि की ओर देखता और उसकी छोटे-छोटे दाँतों से सजी मुस्कान कवि के मन को मोह लेती थी।
2. फसल
फसलें हमारे जीवन की आधार हैं। ‘फरल’ शब्द सुनते ही हमारी आँखों के सामने खेतों में लहलहाती फसलें आ जाती हैं। फसल को पैदा करने के लिए न जाने कितने तत्त्व और कितने हाथों का परिश्रम लगता है। फसल प्रकृति और मनुष्य के आपसी सहयोग से ही संभव होती है। न जाने कितनी नदियों का पानी और लाखों-करोड़ों हाथों का परिश्रम इसे उत्पन्न करता है। खेतों की उपजाऊ मिट्टी इसे शक्ति देती है। सूर्य की किरणें इसे जीवन देती हैं और हवा इसे थिरकना सिखाती है। फसल अनेक दृश्य- अदृश्य शक्तियों के मिले-जुले बल के कारण उत्पन्न होती है।
यह दंतुरित मुसकान, फसल Class 10 Hindi कविता का सार ( Detailed Summary )
यह दंतुरित मुसकान- (Nagarjun Ki Kavita Yah Danturit Muskan)
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात….
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण, पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने एक दांत निकलते बच्चे की मधुर मुस्कान का मन मोह लेने वाला वर्णन किया है। कवि के अनुसार एक बच्चे की मुस्कान मृत आदमी को भी ज़िन्दा कर सकती है। अर्थात कोई उदास एवं निराश आदमी भी अपना गम भूलकर मुस्कुराने लगे। बच्चे घर के आँगन में खेलते वक्त खुद को गन्दा कर लेते हैं, धूल से सन जाते हैं, उनके गालों पर भी धूल लग जाती है।
कवि को यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो किसी तालाब से चलकर कमल का फूल उनकी झोंपड़ी में खिला हुआ है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर यह बालक किसी पत्थर को छू ले, तो वह भी पिघलकर जल बन जाए और बहने लगे। अगर वो किसी पेड़ को छू ले, फिर चाहे वो बांस हो या फिर बबूल, उससे शेफालिका के फूल ही झरेंगे।
अर्थात बच्चे के समक्ष कोई कोमल हृदय वाला इंसान हो, या फिर पत्थरदिल लोग। सभी अपने आप को बच्चे को सौंप देते हैं और वह जो करवाना चाहता है, वो करते हैं एवं उसके साथ खेलते हैं।
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- शिशु जब पहली बार कवि को देखता है, तो वह उसे पहचान नहीं पाता और कवि को एकटक बिना पलक झपकाए देखने लगता है। कुछ समय तक देखने के पश्चात् कवि कहता है – क्या तुम मुझे पहचान नहीं पाए हो? कितने देर तुम इस प्रकार बिना पलक झपकाए एकटक मुझे देखते रहोगे? कहीं तुम थक तो नहीं गए मुझे इस तरह देखते देखते? अगर तुम थक गए हो, तो मैं अपनी आँख फेर लेता हूँ, फिर तुम आराम कर सकते हो।
अगर हम इस मुलाकात में एक-दूसरे को पहचान नहीं पाए तो कोई बात नहीं। तुम्हारी माँ हमें मिला देगी और फिर मैं तुम्हें जी भर देख सकता हूँ। तुम्हारे मुख मंडल को निहार सकता हूँ। तुम्हारी इस दंतुरित मुस्कान का आनंद ले सकता हूँ।
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!
नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुत्र के बारे में बताता है कि उसके नए-नए दांत निकलना शुरु हुए हैं। कवि बहुत दिनों बाद अपने घर वापस लौटा है, इसलिए उसका पुत्र उसे पहचान नहीं पा रहा। आगे कवि लिखते हैं कि बालक तो अपनी मनमोहक छवि कारण धन्य है ही और उसके साथ उसकी माँ भी धन्य है, जिसने उसे जन्म दिया।
आगे कवि कहते हैं कि तुम्हारी माँ रोज तुम्हारे दर्शन का लाभ उठा रही है। एक तरफ मैं दूर रहने के कारण तुम्हारे दर्शन भी नहीं कर पाता और अब तुम्हें पराया भी लग रहा हूँ। एक तरह से यह ठीक भी है, क्योंकि मुझसे तुम्हारा संपर्क ही कितना है। यह तो तुम्हारी माँ की उँगलियाँ ही हैं, जो तुम्हें रोज मधुर-स्वादिष्ट भोजन कराती है। इस तरह तिरछी नज़रों से देखते-देखते जब हमारी आँख एक-दूसरे से मिलती है, मेरी आँखों में स्नेह देखकर तुम मुस्कुराने लगते हो। यह मेरे मन को मोह लेता है।
फसल – Nagarjun Ki Kavita Phasal
एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढ़ेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:
नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल किसी एक व्यक्ति के परिश्रम या फिर केवल जल या मिट्टी से नहीं उगती है। इसके लिए बहुत अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है। इसी के बारे में आगे लिखते हुए कवि ने कहा है कि एक नहीं दो नहीं, लाखों-लाखों नदी के पानी के मिलने से यह फसल पैदा होती है।
किसी एक नदी में केवल एक ही प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन जब कई तरह की नदियां आपस में मिलती हैं, तो उनमें सारे गुण आ जाते हैं, जो बीजों को अंकुरित होने में सहायता करते हैं और फसल खिल उठती है। ठीक इसी प्रकार, केवल एक या दो नहीं, बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों की मेहनत और पसीने से यह धरती उपजाऊ बनती है और उसमे बोए गए बीज अंकुरित होते हैं। खेतों में केवल एक खेत की मिट्टी नहीं बल्कि कई खेतों की मिट्टी मिलती है, तब जाकर वह उपजाऊ बनते हैं।
फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!
नागार्जुन की कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हमसे यह प्रश्न करता है कि यह फसल क्या है? अर्थात यह कहाँ से और कैसे पैदा होता है? इसके बाद कवि खुद इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि फसल और कुछ नहीं बल्कि नदियों के पानी का जादू है। किसानों के हाथों के स्पर्श की महिमा है। यह मिट्टियों का ऐसा गुण है, जो उसे सोने से भी ज्यादा मूल्यवान बना देती है। यह सूरज की किरणों एवं हवा का उपकार है। जिनके कारण यह फसल पैदा होती है।
अपनी इन पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल कैसे पैदा होती है? हम इसी अनाज के कारण ज़िन्दा हैं, तो हमें यह ज़रूर पता होना चाहिए कि आखिर इन फ़सलों को पैदा करने में नदी, आकाश, हवा, पानी, मिट्टी एवं किसान के परिश्रम की जरूरत पड़ती है। जिससे हमें उनके महत्व का ज्ञान हो।
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NCERT Solution – यह दंतुरित मुसकान, फसल
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