Chapter 15 चार्ली चैप्लिन यानी हम सब | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 15

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब पाठ का सारांश

‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब लेखक विष्णु खरे द्वारा रचित रचना है। इसमें लेखक ने हास्य फिल्मों के महान अभिनेता और निर्देशक चार्ली चैप्लिन के कला पक्ष की कुछ मूलभूत विशेषताओं को रेखांकित किया है। लेखक की दृष्टि में करुणा और हास्य के तत्वों । का मेल चार्ली की सर्वोत्तम विशेषता रही है। चार्ली चैप्लिन दुनिया के महान हास्य कलाकार थे। 75 वर्षों में उनकी कला दुनिया के सामने है।

उनकी कला दुनिया की पाँच पीड़ियों को मंत्रमुग्ध कर चुकी है। आज चार्ली समय, भूगोल और संस्कृतियों से खिलवाड़ करता हुआ। भारत को भी अपनी कला से हँसा रहा है। पश्चिमी देशों के साथ-साथ विकासशील देशों में भी चाली की प्रसिद्धि दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। चार्ली की फ़िल्में बुद्धि की अपेक्षा भावनाओं पर टिकी हुई हैं। उनकी ‘मेट्रोपोलिस’, ‘दी कैबिनेट ऑफ डॉक्टर कैलिगारी’, ‘द रोवंथ सील’, लास्ट इयर इन मारिएनबाड’, ‘द सैक्रिफाइस’ जैसी फिल्में दर्शकों से एक उच्चतर अहसास की माँग करती हैं। चाली की फ़िल्मों। का एक विशेष गुण यह है कि उनकी फ़िल्मों को पागलखाने के मरीज, विकल मस्तिष्क लोग तथा आइन्सटाइन जैसे महान प्रतिभा वाले लोग एक साथ रसानंद के साथ देख सकते हैं। चार्ली ने फ़िल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया; साथ ही दर्शकों की वर्ण व्यवस्था तथा वर्ग को भी तोड़ा।

चार्ली एक परित्यक्ता तथा दसरे दर्जे की स्टेज अभिनेत्री का बेटा था, जिसे गरीबी, समाज तथा माँ के पागलपन से संघर्ष करना पड़ा। अपनी नानी की तरफ से वे खानाबदोशों से जुड़े हुए थे, जबकि पिता की ओर से वे यहूदी थे। दरअसल सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, बल्कि कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है। चार्ली चैप्लिन की कलाकारी से हँसने वाले लोग मैल ओटिंगर या जेम्स एजी की अत्यंत सारगर्भित समीक्षाओं से सरोकार नहीं रखते।

म चाली की कलाकारी को चाहने वाले लोग उन्हें समय और भूगोल से काटकर देखते हैं, इसलिए उनकी महानता ज्यों-की-त्यों बनी। हुई है। चार्ली ने अपने जीवन में बुद्धि की अपेक्षा भावना को बेहतर माना है। यह बचपन की घटनाओं का प्रभाव था। एक बार जब वे बीमार हुए थे, तब उनकी माँ ने उन्हें बाइबल से ईसा मसीह का जीवन पढ़कर सुनाया था। ईसा के सूली पर चढ़ने के प्रकरण तक: “आते-आते माँ और चाली दोनों रोने लगे।

यही भावनात्मक प्रभाव उनके जीवन पर सदा बना रहा। भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र में अनेक रस हैं। जीवन हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, राग-विराग का सामंजस्य है। ये जीवन में सदा आते-जाते रहते हैं। लेकिन करुणा और हास्य का वह सामंजस्य भारतीय परंपरा के साहित्य में नहीं मिलता, जो चैप्लिन की कलाकारी में दिखाई देता है। किसी भी समाज में अमिताभ बच्चन या दिलीप कुमार जैसे दो-चार लोग ही होते हैं, जिनका नाम लेकर ताना दिया जाता है। लेकिन किसी भी व्यक्ति को परिस्थितियों।

का औचित्य देखते हुए चार्ली या जानी वॉकर कह दिया जाता है। दरअसल मनुष्य स्वयं ईश्वर या नियति का विदूषक, कलाउन जोकर या ‘साइड-किक है। गांधी और नेहरू भी चार्ली से प्रभावित थे। को मोर राजकपूर की ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ फिल्मों से पहले फ़िल्मी नायकों पर हँसने की तथा स्वयं नायकों के अपने पर हँसने की परंपरा नहीं थी। दिलीप कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी आदि महान कलाकार भी किसी-न-किसी रूप में चाली से प्रेरित हैं। – चार्ली की अधिकांश फ़िल्में मानवीय हैं। सवाक पर्दे पर अनेक महान हास्य कलाकार हुए, लेकिन वे चार्ली की सार्वभौमिकता तक नहीं पहुँच सके। जहाँ चार्ली का चिर-युवा होना या बच्चों जैसा दिखना एक विशेषता ही है। उनकी सर्वोत्तम विशेषता है कि वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते।

चाली की महानता केवल पश्चिम में ही नहीं है, बल्कि भारत में भी उनका महत्त्व है। चैप्लिन का भारत में महत्व यह है कि वह ‘अंग्रेजों जैसे’ व्यक्तियों पर हँसने का अवसर देते हैं। चार्ली स्वयं पर सबसे अधिक तब हँसता है, जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्म-विश्वास से लबरेज, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ, अपने ‘वज्रादपि कठोराणि’ अथवा ‘मृदुनि कुसुमादपि’ क्षण में दिखलाता है। भारतीय लोगों के जीवन के अधिकांश हिस्सों में वे चाली के ही टिली होते हैं, जिसके रोमांस हमेशा पंक्चर होते हैं, मूलतः हम सब । चाली है, क्योंकि हम सुपरमैन नहीं बन सकते। सत्ता, शक्ति, बुद्धिमत्ता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्ष में जब हम आईना देखते हैं तो चेहरा चार्ली-चाली हो जाता है।

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब लेखक परिचय

लेखक-परिचय जीवन-परिचय-आधुनिक हिंदी-साहित्य की समकालीन कविता और आलोचना में विष्णु खरे एक विशिष्ट लेखक हैं। इनका जन्म सन् 1940 ई० में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा नामक स्थान पर हुआ था। प्रतिभा के आधार पर ही इन्हें रघुवीर सहाय सम्मान से पुरस्कृत किया गया। इसके अतिरिक्त इन्हें दिल्ली के हिंदी अकादमी पुरस्कार, शिखर सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, फिनलैंड के राष्ट्रीय सम्मान नाइट ऑफ़ दि ऑर्डर ऑफ़ दि व्हाइट रोज़ से सुशोभित किया जा चुका है। यह महान साहित्यकार अपनी कुशलता के बल पर निरंतर हिंदी साहित्य रूपी वृक्ष को अभिसिंचित कर रहा है।
Class 12 Hindi Aroh Chapter 15 Summary चार्ली चैप्लिन यानी हम सब

रचनाएँ-विष्णु खरे बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं। इन्होंने अनेक विधाओं में लेखन किया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

कविता संग्रह-खुद अपनी आँख से, एक गैर रूमानी समय में, सबकी आवाज़ के पर्दे में, पिछला बाकी आदि।
आलोचना-आलोचना की पहली किताब।
सिने आलोचना-सिनेमा पढ़ने के तरीके।
अनुवाद-मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ (टी०एस० इलियट), यह चाक समय (अॅतिला-योझेफ), कालेवाला (फिनलैंड का राष्ट्रकाव्य)।साहित्यिक विशेषताएँ -.विष्णु खरे हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार हैं। इन्होंने हिंदी जगत को अत्यंत गहन विचारपरक काव्य प्रदान किया है।

इसके साथ-साथ इन्होंने अनेक आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। इन्होंने विश्व साहित्य का गहन अध्ययन किया है, जो इनके रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में विशेष रूप से दिखाई देता है। ये सिनेमा जगत के गहन जानकार हैं और वे सतत सिनेमा की विधा पर गंभीर लेखन कर रहे हैं। 1971-73 के विदेश प्रवास के दौरान इन्होंने तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग के प्रतिष्ठित फ़िल्म क्लब की सदस्यता प्राप्त करके संसार की सैकड़ों श्रेष्ठ फ़िल्में देखीं। ये साहित्य जगत के एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने फ़िल्मों । को समय, समाज और विचारधारा के आलोक में देखा तथा इतिहास, संगीत, अभिनय, निर्देशन की बारीकियों के सिलसिले में उनका ।

विश्लेषण किया। इन्होंने सिनेमा लेखन को वैचारिक गरिमा और गंभीरता देने का सफ़र शुरू किया है। अपने लेखन के माध्यम से इन्होंने हिंदी के उस अभाव को थोड़ा भरने में सफलता पाई है, जिसके बारे में उन्होंने अपनी एक किताब की भूमिका में लिखा है-“यह ठीक है कि अब भारत में भी सिनेमा के महत्व और शास्त्रीयता को पहचान लिया गया है और उसके सिद्धांतकार भी उभर आए हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश जितना गंभीर काम हमारे सिनेमा पर यूरोप और अमेरिका में हो रहा है, शायद उसका शतांश भी हमारे यहाँ नहीं है। हिंदी में सिनेमा के सिद्धांतों पर शायद ही कोई अच्छी मूल पुस्तक हो।

हमारा लगभग पूरा समाज अभी भी सिनेमा जाने या देखने को एक हल्के अपराध की तरह देखता है।” भाषा-शैली-विष्णु खरे ने अपने साहित्य लेखन के लिए शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली को अपनाया है। इनकी भाषा भावानुकूल और सरल-सरस है। तत्सम शब्दावली का प्रचुर प्रयोग है। इसके साथ-साथ तद्भव, उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी तथा साधारण बोलचाल की भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इन्होंने विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया है, जिसमें वर्णनात्मक, विवरणात्मक व चित्रात्मक शैलियाँ प्रमुख हैं। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग के कारण इनकी भाषा में विशेष निखार आ गया है।

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Chapter 14 पहलवान की ढोलक | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

पहलवान की ढोलक Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 14

पहलवान की ढोलक पाठ का सारांश

‘पहलवान की ढोलक’ फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित एक श्रेष्ठ कहानी है। फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। प्रस्तुत कहानी उनकी एक आंचलिक कहानी है, जिसमें उन्होंने भारत पर इंडिया के छा जाने की समस्या को प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। यह व्यवस्था बदलने के साथ लोक कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है।

श्यामनगर के समीप का एक गाँव सरदी के मौसम में मलेरिया और हैजे से ग्रस्त था। चारों ओर सन्नाटे से युक्त बाँस-फूस । की झोंपड़ियाँ खड़ी थीं। रात्रि में घना अंधेरा छाया हुआ था। चारों ओर करुण सिसकियों और कराहने की आवाजें गूंज रही थीं।। सियारों और पेचक की भयानक आवाजें इस सन्नाटे को बीच-बीच में अवश्य थोड़ा-सा तोड़ रही थीं। इस भयंकर सन्नाटे में कुत्ते । समूह बाँधकर रो रहे थे। रात्रि भीषणता और सन्नाटे से युक्त थी, लेकिन लुट्टन पहलवान की ढोलक इस भीषणता को तोड़ने का प्रयास कर रही थी। इसी पहलवान की ढोलक की आवाज इस भीषण सन्नाटे से युक्त मृत गाँव में संजीवनी शक्ति भरा करती थी।

लुट्टन सिंह के माता-पिता नौ वर्ष की अवस्था में ही उसे छोड़कर चले गए थे। उसकी बचपन में शादी हो चुकी थी, इसलिए विधवा सास ने ही उसका पालन-पोषण किया। ससुराल में पलते-बढ़ते वह पहलवान बन गया था। एक बार श्यामनगर में एक मेला लगा। मेले के दंगल में लुट्टन सिंह ने एक प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को चुनौती दे डाली, जो शेर के बच्चे के नाम से जाना जाता था। श्यामनगर के राजा ने बहुत कहने के बाद ही लुट्टन सिंह को उस पहलवान के साथ लड़ने की आज्ञा दी, क्योंकि वह एक बहुत प्रसिद्ध पहलवान था।

लुट्टन सिंह ने ढोलक की ‘धिना-धिना, धिकधिना’, आवाज से प्रेरित होकर चाँद सिंह पहलवान को बड़ी मेहनत के बाद चित कर दिया। चाँद सिंह के हारने के बाद लुट्टन सिंह की जय-जयकार होने लगी और वह लुट्टन सिंह पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। राजा ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर उसे अपने दरबार में रख लिया। अब लुट्टन सिंह की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। लुट्टन सिंह पहलवान की पली भी दो पुत्रों को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई थी।

लट्टन सिंह अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बनाना चाहता था,इसलिए वह बचपन से ही उन्हें कसरत आदि करवाने लग गया। उसने बेटों को दंगल की संस्कृति का पूरा ज्ञान दिया। लेकिन दुर्भाग्य से Jएक दिन उसके वयोवृद्ध राजा का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात विलायत से नए महाराज आए। राज्य की गद्दी संभालते ही नए राजा साहब ने अनेक परिवर्तन कर दिए।

दंगल का स्थान घोड़ों की रेस ने ले लिया। बेचारे लुट्टन सिंह पहलवान पर कुठाराघात हुआ। वह हतप्रभ रह गया। राजा के इस रवैये को देखकर लुट्टन सिंह अपनी ढोलक कंधे में लटकाकर बच्चों सहित अपने गाँव वापस लौट आया। वह गाँव के एक किनारे पर झोपड़ी में रहता हुआ नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। गाँव के किसान व खेतिहर मजदूर भला क्या कुश्ती सीखते।

अचानक गाँव में अनावृष्टि अनाज की कमी, मलेरिया, हैजे आदि भयंकर समस्याओं का वज्रपात हुआ। चारों ओर लोग भूख, हैजे और मलेरिये से मरने लगे। सारे गाँव में तबाही मच गई। लोग इस त्रासदी से इतना डर गए कि सूर्यास्त होते ही अपनी-अपनी । झोंपडियों में घस जाते। रात्रि की विभीषिका और सन्नाटे को केवल लट्टन सिंह पहलवान की ढोलक की तान ही ललकारकर चुनौती देती थी। यही तान इस भीषण समय में धैर्य प्रदान करती थी। यही तान शक्तिहीन गाँववालों में संजीवनी शक्ति भरने का कार्य करती थी।

पहलवान के दोनों बेटे भी इसी भीषण विभीषिका के शिकार हुए। प्रातः होते ही पहलवान ने अपने दोनों बेटों को निस्तेज पाया। बाद में वह अशांत मन से दोनों को उठाकर नदी में बहा आया। लोग इस बात को सुनकर दंग रह गए। इस असह्य वेदना और त्रासदी से भी पहलवान नहीं टूटा।

रात्रि में फिर पहले की तरह ढोलक बजाता रहा; इससे लोगों को सहारा मिला, लेकिन चार-पाँच दिन बीतने के पश्चात जब रात्रि में ढोलक की आवाज सुनाई नहीं पड़ी, तो प्रात:काल उसके कुछ शिष्यों ने पहलवान की लाश को सियारों द्वारा खाया हुआ पाया। इस प्रकार प्रस्तुत कहानी के अंत में पहलवान भी भूख-महामारी की शक्ल में आई मौत का शिकार बन गया। यह कहानी हमारे समक्ष व्यवस्था की पोल खोलती है। साथ ही व्यवस्था के कारण लोक कलाओं के लुप्त होने की ओर संकेत भी करती है तथा हमारे सामने ऐसे । अनेक प्रश्न पैदा करती है कि यह सब क्यों हो रहा है?

पहलवान की ढोलक लेखक परिचय

जीवन-परिचय-फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी-साहित्य के प्रमुख आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। इनका जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार प्रांत के पूर्णिया वर्तमान में (अररिया) जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। वर्ष 1942 के भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में इन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। वर्ष 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने हेतु इन्होंने भरपूर योगदान दिया। वर्ष 1952-53 में ये बीमार हो गए। इनकी साहित्य साधना तथा राष्ट्रीय भावना देखकर सरकार ने इन्हें पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया।
Class 12 Hindi Aroh Chapter 14 Summary पहलवान की ढोलक

11 अप्रैल, सन् 1977 को पटना में इनका देहावसान हुआ। रचनाएँ-हिंदी कथा साहित्य में फणीश्वर नाथ रेणु का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंउपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे आदि। कहानी-तीसरी कसम, उफ मारे गए गुलफाम, पहलवान की ढोलक आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-आंचलिक कथा साहित्य में रेणु जी का महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने इस साहित्य में क्रांति उपस्थित की है। फणीश्वर ने साहित्य के अलावा राजनैतिक एवं सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय योगदान दिया। उनका ‘मैला आँचल’ गोदान के बाद दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास ने हिंदी जगत को एक नई दिशा प्रदान की। इसके पश्चात गाँव की भाषण-संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को उपन्यासों और कथा साहित्य के केंद्र में ला खड़ा किया।

लोकगीत, लोकोक्ति, लोकसंस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने परंपरा को तोड़कर अंचल को ही नायक बना डाला। इनके साहित्य में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जब संपूर्ण विकास शहर की ओर केंद्रित होता जा रहा था, तब ऐसे एकपक्षीय वातावरण में रेणु ने अपने साहित्य से आंचलिक समस्याओं और जीवन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। फणीश्वर के साहित्य में अंचल-विशेष की सामान्य समस्याओं, कुरीतियों व विषमताओं का सजीव अंकन हुआ है। इन्होंने गाँव का इतिहास, भूगोल, सामाजिक और राजनीतिक चक्र सभी की अभिव्यक्ति की है।

इन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से गाँव की आंतरिक वास्तविकताओं को प्रयत्न करने का सफल प्रयास किया है। इनके साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि रचनाकार एक गाँव-विशेष के माध्यम से पूरे देश की कहानी का चित्रण कर देता है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने व्यवस्था को बदलने के साथ-साथ लोककला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी का सजीव चित्रण किया है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने पुरानी व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था के आरोपित हो जाने का चित्रांकन किया है। फणीश्वर की लेखनी में गाँव की संस्कृति को सजीव बनाने की अद्भुत क्षमता है।

इनकी सजीवता को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो प्रत्येक पात्र वास्तविक जीवन जी रहा हो। पात्रों एवं परिवेश का इतना वास्तविक अत्यंत दुर्लभ है। रेणु जी हिंदी साहित्य में वे महान कथाकार हैं, जिन्होंने गद्य में भी संगीत पैदा कर दिया है। इन्होंने परिवेश का मानवीकरण करके उसे सजीव बना दिया है। भाषा-शैली-फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार हैं, अत: इन्होंने भाषा भी अंचल विशेष की अपनाई है। इन्होंने सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है।

इनकी भाषा सरल-स्वाभाविक बोलचाल की भाषा है। कहीं-कहीं अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा के भी दर्शन होते हैं। इनकी भाषा में अत्यंत गंभीरता है। अनेक स्थलों पर ग्रामीण एवं नगरीय भाषा का मिश्रण रूप भी दृष्टिगोचर होता है। प्रस्तुत कहानी की भाषा सरल, सरस व स्वाभाविक बोलचाल की है। इसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से इनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। पहलवान की ढोलक कहानी भाषा-शैली की दृष्टि से एक श्रेष्ठ कहानी है।

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Chapter 13 काले मेघा पानी दे | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

काले मेघा पानी दे Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 13

काले मेघा पानी दे पाठ का सारांश

‘काले मेघा पानी दे’ संस्मरण धर्मवीर भारती द्वारा रचित है। इसमें लोक-प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वन्द्व का सुंदर चित्रण हुआ है। विज्ञान का अपना तर्क है और विश्वास की अपनी सामर्थ्य। इसमें कौन कितना सार्थक है, यह प्रश्न पढ़े-लिखे समाज को उत्तेजित करता रहता है। इसी दुविधा को लेकर लेखक ने पानी के संदर्भ में असंग रचा है। लेखक ने अपने किशोरपन जीवन के इस संस्मरण में दिखलाया है कि अनावृष्टि दूर करने के लिए गाँव के बच्चों की इंद्रसेना द्वार-द्वार पानी मांगते चलती है। लेखक का तर्कशील किशोर मन भीषण सूखे में उस पानी को निर्मम बर्बादी के रूप में देखता है।

आषाढ़ के उन सूखे दिनों में जब चहुँ ओर पानी की कमी होती है ये इंद्रसेना गाँव की गलियों में जयकारे लगाते हुए पानी माँगते फिरती है। अभाव । के बावजूद भी लोग अपने-अपने घरों से पानी लेकर इन बच्चों को सिर से पैर तक तर कर देते हैं। आषाढ़ के इन दिनों में गाँव-शहर के सभी लोग गर्मी से परेशान त्राहिमाम कर रहे होते हैं तब ये मंडली ‘काले मेघा पानी दे’, के नारे लगाती हुई यहाँ-वहाँ घूम रही होती है।

अनावृष्टि के कारण शहरों की अपेक्षा गाँवों की हालत त्रासदपूर्ण हो जाती है। खेतों की मिट्टी सूख कर पत्थर हो जाती है। जमीन फटने लगती है। पशु प्यास के कारण मरने लगते हैं। लेकिन बारिश का कहीं नामोनिशान नहीं होता। बादल कहीं नज़र नहीं आते। ऐसे में लोग पूजा-पाठ कर हार जाते तो यह इंद्रसेना निकलती है। लेखक मानता है कि लोग अंधविश्वास के कारण पानी की कमी होते हुए भी पानी को बर्बाद कर रहे हैं। इस तरह के अंधविश्वासों से देश की बहुत क्षति होती है जिसके कारण हम अंग्रेजों से पिछड़ गए और उनके गुलाम बन गए हैं। लेखक वैसे तो इंद्रसेना की उमर का था लेकिन वह आर्यसमाजी संस्कारों से युक्त तथा कुमार-सुधार सभा का उपमंत्री था। अत: उसमें समाज सुधार का जोश अधिक था। : अंधविश्वासों से वह डटकर लड़ता था। लेखक को जीजी उसे अपने बच्चों से ज्यादा प्रेम करती थी। तीज-त्योहार, पूजा अनुष्ठानों को जिन्हें ।

लेखक अंधविश्वास मानता था, जीजी के कहने पर उसे सब कछ करना पड़ता था। इस बार जीजी के कहने पर भी लेखक ने मित्र-मंडली पर पानी नहीं डाला, जिससे वह नाराज हो गई। बाद में लेखक को समझा-बुझाकर उसने अनेक बातें कहीं। पानी फेंकना अंधविश्वास नहीं। यह तो हम उनको अर्घ्य चढ़ाते हैं, जिससे खुश होकर इंद्र हमें पानी देता है। उन्होंने बताया कि ऋषि-मुनियों ने दान को सबसे ऊँचा स्थान । 1 दिया है। जीजी ने लेखक के तर्कों को बार-बार काट दिया। अंत में लेखक को कहा कि किसान पहले पाँच-छह सेर अच्छा गेहूँ बीज रूप : में अपने खेत में बोता है, तत्पश्चात वह तीस-चालीस मन अनाज उगाता है। वैसे ही यदि हम बीज रूप में थोड़ा-सा पानी नहीं देंगे तो । बादल फ़सल के रूप में फिर हमें पानी कैसे देंगे?

व संस्मरण के अंत में लेखक की राष्ट्रीय चेतना का भाव मुखरित होता है कि हम आजादी मिलने के बावजूद भी पूर्णत: आजाद नहीं। हुए। हम आज भी अंग्रेजों की भाषा संस्कृति, रहन-सहन से आजाद नहीं हुए और हमने अपने संस्कारों को नहीं समझा। हम भारतवासी माँगें तो बहुत करते हैं लेकिन त्याग की भावना हमारे अंदर नहीं है। हर कोई भ्रष्टाचार की बात करता है लेकिन कभी नहीं देखता कि क्या | हम स्वयं उसका अंग नहीं बन रहे। देश की अरबों-खरबों की योजनाएं न जाने कहाँ गम हो जाती हैं? लेखक कहता है कि काले मेघा
खूब बरसते हैं लेकिन फूटी गगरी खाली रह जाती है, बैल प्यासे रह जाते हैं। न जाने यह स्थिति कब बदलेगी? लेखक ने देश की भ्रष्टाचार की समस्याओं के प्रति व्यंग्य व्यक्त किया है।

काले मेघा पानी दे लेखक परिचय

लेखक-परिचय जीवन परिचय धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं। उनका जन्म सन् 1926 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जनपद में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीव लाल वर्मा तथा माता का नाम श्रीमती चंदा देवी था। भारती जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए० हिंदी की परीक्षा पास की। तत्पश्चात वहीं से पी-एच०डी० की उपाधि भी प्राप्त की। 1960 ई० में ये ‘धर्मयुग’ पत्रिका के संपादक बने और मुंबई में रहने लगे।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 Summary काले मेघा पानी दे

सन् 1988 में धर्मयुग के संपादक पद से सेवानिवृत्त होकर फिर मुंबई में ही बस गए। सरकार ने इनको पद्म-श्री की उपाधि से अलंकृत किया। इसके बाद इनको व्यास सम्मान के साथ अनेक राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए। सन् 1997 ई० में ये नश्वर संसार को छोड़कर चले गए। रचनाएँ-धर्मवीर भारती जी का आजादी के बाद के साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान है। ये बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार माने जाते हैं। इन्होंने काव्य, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि अनेक विधाओं पर लेखनी चलाई है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

काव्य-संग्रह-कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, सपना अभी भी, ठंडा लोहा आदि।
उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता आदि।
कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान।
गीतिनाट्य-अंधायुग।
निबंध संग्रह-पश्यंती, कहनी-अनकहनी, मानव मूल्य और साहित्य, ठेले पर हिमालय। साहित्यिक विशेषताएँ-धर्मवीर भारती आधुनिक मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत साहित्यकार थे। भारती जी के लेखन की महत्वपूर्ण ।

विशेषता है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के मध्य उनकी भिन्न-भिन्न रचनाएँ लोकप्रिय हैं। वे मूलत: व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संकट एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिक उठा-पटक एवं उत्तरदायित्वों के बावजूद उनके साहित्य में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है।

मानवता उनके साहित्य का प्राण-तत्व है। ‘गुनाहों का देवता’ उनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है जिसमें एक सरस और भावपूर्ण प्रेम की अभिव्यक्ति है। दूसरा लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ है, जिस पर हिंदी में फ़िल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में लेखक ने प्रेम को केंद्र-बिंदु मानकर निम्नवर्ग की निराशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया है। ‘अंधायुग’ में स्वतंत्रता के पश्चात नष्ट होते जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्वयुद्ध की विभीषिका से त्रस्त मानवता और अमानवीयता का यथार्थ चित्रण है। भारती के साहित्य में आधुनिक युग की विसंगतियों, समस्याओं, मूल्यहीनता आदि का सुंदर चित्रण हुआ है।

प्रस्तुत संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ में भारती ने लोक-प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। इसमें दिखलाया गया है कि अनावृष्टि दूर करने के लिए गाँव के बच्चों की इंद्रसेना द्वार-द्वार पानी माँगते चलती है और लेखक का तर्कशील किशोरमन भीषण सूखे में उसे पानी की निर्मम बर्बादी के रूप में देखता है। भाषा-शैली-धर्मवीर भारती एक श्रेष्ठ कवि होने के साथ-साथ श्रेष्ठ गद्यकार भी हैं। उनके गद्य लेखन में सहजता और आत्मीयता है। वे बड़ी-से-बड़ी बात, की भी बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। लेखक ने मुख्यतः खड़ी बोली का सहज स्वाभाविक प्रयोग किया है। इनके साहित्य में अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के अतिरिक्त साधारण बोलचाल के शब्दों का समायोजन हुआ है।

प्रस्तुत संस्मरण की भाषा-शैली सहज, सरल, स्वाभाविक एवं प्रसंगानकल है, जिसमें खडी-बोली. उर्द, फ़ारसी. साधारण बोलचाल की भाषाओं के शब्दों का सटीक प्रयोग हुआ है। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। इन्होंने विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक, संस्मरणात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। शब्द-रचना अत्यंत श्रेष्ठ है। वस्तुतः धर्मवीर भारती आधुनिक युग के एक श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। उनका स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान है।

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Chapter 12 बाजार दर्शन | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

बाज़ार दर्शन Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 12

बाज़ार दर्शन पाठ का सारांश

‘बाजार दर्शन’ श्री जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें गहन वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का मणिकांचन संयोग देखा जा सकता है। यह निबंध उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद की मूल अंतर वस्तु को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी ने इस निबंध के माध्यम से अपने परिचित एवं मित्रों से जुड़े अनुभवों को चित्रित किया है कि बाजार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। उन्होंने यह भी बताया है कि अगर हम आवश्यकतानुसार बाजार का सदुपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं लेकिन अगर हम जरूरत से दूर बाजार की चमक-दमक में फंस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता। है। इन्हीं भावों को लेखक ने अनेक प्रकार से बताने का प्रयास किया है।

लेखक बताता है कि एक बार उसका एक मित्र अपनी प्रिय पत्नी के साथ बाजार में एक मामूली-सी वस्तु खरीदने हेतु गए थे लेकिन जब – वे लौटकर आए तो उनके हाथ में बहुत-से सामान के बंडल थे। इस समाज में असंयमी एवं संयमी दोनों तरह के लोग होते हैं। कुछ ऐसे जो बेकार खर्च करते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी संयमी होते हैं, जो फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। ऐसे लोग अपव्यय न करते हुए केवल आवश्यकतानुरूप खर्च करते हैं। ये लोग ही पैसे को जोड़कर गर्वीले बने रहते हैं। लेखक कहता है कि वह मित्र आवश्यकता से । ज्यादा सामान ले आए और उनके पास रेल टिकट के लिए भी पैसे नहीं बचे। लेखक उसे समझाता है कि वह सामान पर्चेजिंग पावर के ।

अनुपात में लेकर आया है। – बाजार जो पूर्ण रूप से सजा-धजा होता है। वह ग्राहकों को अपने आकर्षण से आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूट ले। ग्राहक सब कुछ भूल जाएँ और बाजार को देखें। बाजार का आमंत्रण मूक होता है जो प्रत्येक के हृदय में इच्छा जगाता है और यह मनुष्य को असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए बेकार बना देता है। लेखक एक और अन्य मित्र के माध्यम से बताते हैं कि ये मित्र बाजार में दोपहर से पहले गए लेकिन संध्या के समय खाली हाथ वापिस आए।

उन्होंने खाली हाथ आने का यह कारण बताया कि वह सब कुछ खरीदना चाहता था इसीलिए इसी चाह में वह कुछ भी खरीदकर नहीं लाया। बाज़ार में जाने पर इच्छा घेर लेती है जिससे मन में दुख प्रकट होता है। या बाजार के रूप सौंदर्य का ऐसा जादू जो आँखों के रास्ते हृदय में प्रवेश करता है और चुंबक के समान मनुष्य को अपनी तरफ आकर्षित करता है। जेब भरी हो तो बाजार में जाने पर मनुष्य निर्णय नहीं कर पाता कि वह क्या-क्या सामान खरीदे क्योंकि उसे सभी सामान आरामसुख देनेवाले प्रतीत होते हैं लेकिन जादू का असर उतरते ही मनुष्य को फैंसी चीज़ों का आकर्षण कष्टदायक प्रतीत होने लगता है तब वह : दुखी हो उठता है।

मनुष्य को बाजार में मन को भरकर जाना चाहिए क्योंकि जैसे गरमी की लू में यदि पानी पीकर जाएँ तो लू की तपन व्यर्थ हो जाती है। । वैसे ही मन लक्ष्य से भरा हो तो बाजार का आकर्षण भी व्यर्थ हो जाएगा। आँख फोड़कर मनुष्य लोभ से नहीं बच सकता क्योंकि ऐसा: करके वह अपना ही अहित करता है। संसार का कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं है क्योंकि मनुष्य में यदि पूर्णता होती तो वह परमात्मा से अभिन्न महाशून्य बन जाता। अत: अपूर्ण होकर ही हम मनुष्य हैं।

सत्य ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हममें गहरा करता है तथा सत्य कर्म | सदा इस अपूर्णता की स्वीकृत के साथ होता है।  लेखक एक चूर्ण बेचनेवाले अपने भगत पड़ोसी के माध्यम से कहते हैं कि उन्हें चूर्ण बेचने का कार्य करते बहुत समय हो गया है। लोग : उन्हें चूर्ण के नाम से बुलाते हैं। यदि वे व्यवसाय अपनाकर चूर्ण बेचते तो अब तक मालामाल हो जाते लेकिन वे अपने चूर्ण को अपने-आप ।

पेटी में रखकर बेचते हैं और केवल छह आने की कमाई होने पर बाकी चूर्ण बच्चों को मुफ्त बाँट देते हैं। लेखक बताते हैं कि इस सेठ भगत पर बाजार का जादू थोड़ा-सा भी नहीं चलता। वह जादू से दूर पैसे से निर्मोही बन मस्ती में अपना कार्य करता रहता है। । एक बार लेखक सड़क के किनारे पैदल चला जा रहा था कि एक मोटर उनके पास से धूल उड़ाती गुजर गई। उनको ऐसा लगा कि : – यह मुझपर पैसे की व्यंग्यशक्ति चलाकर गई हो कि उसके पास मोटर नहीं है। लेखक के मन में भी आता है कि उसने भी मोटरवाले। – माँ-बाप के यहाँ जन्म क्यों नहीं लिया। लेकिन यह पैसे की व्यंग्यशक्ति उस चूर्ण बेचनेवाले व्यक्ति पर नहीं चल सकती। – जी लेखक को बाजार चौक में मिले। बाजार पूरा सजा हुआ था लेकिन उसका आकर्षण भगत जी के मन को नहीं भेद सका।

वे बड़े स्टोर चौक बाजार से गुजरते हुए एक छोटे-से पंसारी की दुकान से अपनी ज़रूरत का सामान लेकर चल पड़ते हैं। उनके लिए चाँदनी चौक का – आमंत्रण व्यर्थ दिखाई पड़ता है क्योंकि अपना सामान खरीदने के बाद सारा बाजार उनके लिए व्यर्थ हो जाता है। लेखक अंत में स्पष्ट करता है कि बाजार को सार्थकता वही मनुष्य देता है जो अपनी चाहत को जानता है। लेकिन जो अपनी इच्छाओं को नहीं जानते वे तो अपनी पर्चेजिंग पावर के गर्व में अपने धन से केवल एक विनाशक और व्यंग्य शक्ति ही बाजार को देते हैं। ऐसे मनुष्य । न तो बाज़ार से कुछ लाभ उठा सकते हैं और न बाजार को सत्य लाभ दे सकते हैं। ऐसे लोग सद्भाव के हास में केवल कोरे ग्राहक का । व्यवहार करते हैं। सद्भाव से हीन बाजार मानवता के लिए विडंबना है और ऐसे बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीति का शास्त्र है।

बाज़ार दर्शन लेखक परिचय

लेखक-परिचय जीवन परिचय-श्री जैनेंद्र कुमार हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार हैं। उनको मनोवैज्ञानिक कथाधारा का प्रवर्तक माना जाता है। इसके साथ-साथ वे एक श्रेष्ठ निबंधकार भी हैं। उनका जन्म सन् 1905 ई० को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज नामक स्थान पर हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल में हुई। उन्होंने वहीं पढ़ते हुए दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा हेतु प्रवेश लिया लेकिन गांधी जी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी और वे गाँधी जी के साथ असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 12 Summary बाज़ार दर्शन

वे गांधी जी से अत्यधिक प्रभावित हुए। गांधी जी के जीवन-दर्शन का प्रभाव उनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। सन् 1984 ई० में उनकी साहित्य सेवा-भावना के कारण उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भारत-भारती सम्मान से सुशोभित किया। उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवाओं के कारण पद्मभूषण से अलंकृत किया।

सन् 1990 ई० में ये महान साहित्य सेवी संसार से विदा हो गए। रचनाएँ-जैनेंद्र कुमार जी एक कथाकार होने के साथ प्रमुख निबंधकार भी थे। उन्होंने उच्च कोटि के निबंधों की भी रचना की है। हिंदी कथा-साहित्य को उन्होंने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैउपन्यास-परख, अनाम स्वामी, सुनीता, कल्याणी, त्याग-पत्र, जयवर्धन, मुक्तिबोध, विवर्त। कहानी-संग्रह-वातायन, एक रात, दो चिड़िया, फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाजेब।

निबंध-संग्रह-जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, संस्मरण, इतस्ततः, प्रस्तुत प्रश्न, सोच-विचार, समय और हम। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी कथा-साहित्य में प्रेमचंद के पश्चात जैनेंद्र जी प्रतिष्ठित कथाकार माने जाते हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों का विषय भारतीय गाँवों की अपेक्षा नगरीय वातावरण को बनाया है। उन्होंने नगरीय जीवन की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का चित्रण किया है।

इनके परख, सुनीता, त्याग-पत्र, कल्याणी में नारी-पुरुष के प्रेम की समस्या का मनोवैज्ञानिक धरातल पर अनूठा वर्णन किया है। जैनेंद्र जी ने अपनी कहानियों में दार्शनिकता को अपनाया है। कथा-साहित्य में उन्होंने मानव मन का विश्लेषण किया है।

यद्यपि जैनेंद्र का दार्शनिक विवेचन मौलिक है लेकिन निजीपन के कारण पाठक में ऊब उत्पन्न नहीं करता। इनकी कहानियों में जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का उल्लेख किया गया है। उन्होंने समाज, धर्म, राजनीति, अर्थनीति, दर्शन, संस्कृति, प्रेम आदि विषयों का प्रतिपादन किया है तथा सभी विषयों से संबंधित प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास किया है।

जैनेंद्र जी का साहित्य गांधीवादी चेतना से अत्यंत प्रभावित है जिसका सुष्ठु एवं सहज उपयोग उन्होंने अपने साहित्य में किया है। उन्होंने गाँधीवाद को हृदयंगम करके सत्य, अहिंसा, आत्मसमर्पण आदि सिद्धांतों का अनूठा चित्रण किया है। इससे उनके कथा-साहित्य में राष्ट्रीय चेतना का भाव भी मुखरित होता है। लेखक ने अपने समाज में फैली कुरीतियों शोषण, अत्याचार आदि समस्याओं का डटकर विरोध किया है।

भाषा-शैली-जैनेंद्र जी एक मनोवैज्ञानिक कथाकार हैं। उनकी कहानियों की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज एवं भावानुकूल है। उनके निबंधों में भी सहज, सरल एवं स्वाभाविक भाषा-शैली को अपनाया गया है। उनके साहित्य में संक्षिप्त कथानक, संवाद, भावानुकूल भाषा-शैली आदि विशेषताएँ सर्वत्र विद्यमान हैं। ‘बाजार दर्शन’ जैनेंद्र जी का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें गहन वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का मणिकांचन संयोग दृष्टिगोचर होता है। यह लेखक का एक विचारात्मक निबंध है जिसमें उन्होंने रोचक कथात्मक शैली का प्रयोग किया है। उनकी भाषा सहज, सरल, प्रसंगानुकूल है।

लेखक ने खड़ी बोली के साथ उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी, साधारण बोलचाल की भाषाओं का प्रयोग किया है। तत्सम प्रधान | शब्दावली के साथ तद्भव शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। जैसे

(i) अंग्रेज़ी-बंडल, एनर्जी, पर्चेजिंग पावर आदि।
(ii) उर्दू-फ़ारसी-बाजार, करतब, फ़िजूल, शैतान, खूब, हरज, मालूम, नाचीज़, मोहर आदि।
(iii) तत्सम-अतुलित, परिमित, कृतार्थ, अपूर्णता, आशक्त, लोकप्रिय आदि।
(iv) तद्भव-आँख, सामान, सच्चा आदि।

लेखक ने अपने निबंध में विचारात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक आदि शैलियों का प्रयोग किया है। उनकी संक्षिप्त संवाद-शैली अत्यंत रोचक एवं प्रभावपूर्ण है। जैसे

मैंने पूछा-कहाँ रहे?
बोले-बाजार देखते रहे।
मैंने कहा-बाजार को क्या देखते रहे?
बोले-क्यों? बाजार!
तब मैंने कहा-लाए तो कुछ नहीं!
बोले-हाँ, पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या?

वस्तुतः जैनेंद्र कुमार जी हिंदी साहित्यकार के श्रेष्ठ निबंधकार थे। उनका हिंदी साहित्य में विशेष योगदान है जिसके फलस्वरूप वे एक विशिष्ट स्थान के योग्य हैं। उनका ‘बाजार दर्शन’ भाषा-शैली की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण निबंध है।

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Chapter 11 भक्तिन | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

भक्तिन Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 11

भक्तिन पाठ का सारांश

भक्तिन महादेवी वर्मा जी का प्रसिद्ध संस्मळणात्मक रेखाचित्र है जो ‘स्मृति की रेखाओं में संकलित है। इसमें महादेवी जी ने अपनी सेविका। भक्तिन के अतीत एवं वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का चित्रण किया है। लेखिका के घर में काम करने से पहले भक्तिन । ने कैसे एक संघर्षशील, स्वाभिमानी और कर्मशील जीवनयापन किया। वह कैसे पितृसत्तात्मक मान्यताओं और उसके छल-छद्मपूर्ण समाज में अपने और अपनी बेटियों की हक की लड़ाई लड़ती रही तथा हार कर कैसे जिंदगी की राह पूरी तरह बदल लेने के निर्णय तक पहुंची। इन सबका इस पाठ में अत्यंत संवेदनशील चित्रण हुआ है।

लेखिका ने इस पाठ में आत्मीयता से परिपूर्ण भक्तिन के द्वारा स्त्री-अस्मिता की संघर्षपूर्ण आवाज उठाने का भी प्रयास किया है। भक्तिन का शरीर दुबला-पतला है। उसका कद छोटा है। बह ऐतिहासिक सी गाँव के प्रसिद्ध अहीर सूरमा की इकलौती बेटी है। उसकी माता का नाम धन्या गोपालिका है। उसका वास्तविक नाम लछमिन अर्थात लक्ष्मी है। भक्तिन नाम तो बाद में लेखिका ने अपने घर में नौकरानी रखने के बाद रखा था। भक्तिन एक दृढ़ संकल्प, ईमानदार, जिज्ञासु और बहुत समझदार महिला है। वह विमाता की ममता की। छाया में पली-बढ़ी। पाँच वर्ष की छोटी-सी आयु में उसके पिता ने इसका विवाह हँडिया ग्राम के एक संपन्न गोपालक के छोटे बेटे के।

साथ कर दिया। नौ वर्ष की आयु में सौतेली माँ ने इसका गौना कर ससुराल भेज दिया। भक्तिन अपने पिता से बहुत प्रेम करती थी लेकिन उसकी विमाता उससे ईर्ष्या किया करती थी। उसके पिता की मृत्यु का समाचार उसकी विमाता ने बहुत दिनों के बाद भेजा फिर उसकी सास ने भी रोने-पीटने को अपशकुन समझ कुछ नहीं बताया। अपने मायके जाने पर उसे अपने पिता की दुखद मृत्यु का समाचार मिला।

भक्तिन लेखक परिचय

लेखिका-परिचय जीवन-परिचय-महादेवी वर्मा आधुनिक हिंदी साहित्य के छायावाद की प्रमुख स्तंभ हैं। इनका जन्म सन् 1907 ई० में उत्तर प्रदेश के फ़र्रुखाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम गोबिंद प्रसाद वर्मा था तथा इनकी माता हेमरानी एक भक्त हृदय महिला थीं। बचपन से ही महादेवी जी के मन पर भक्ति का प्रभाव पड़ा। इनकी शिक्षा इंदौर तथा प्रयाग में हुई। इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से एम०ए० संस्कृत की परीक्षा पास की। ये प्रयाग महिला विद्यापीठ के प्राचार्या पद पर भी कार्यरत रहीं। महादेवी जी आजीवन अध्ययन-अध्यापन कार्य में लीन रहीं। 1956 ई० में भारत सरकार ने इनको पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने इनको भारत-भारती सम्मान प्रदान किया। सन 1983 ई० में ‘यामा’ संग्रह पर इनको ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 11 Summary भक्तिन

इनकी साहित्य-सेवा को देखते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय ने उनको डी०लिट् की उपाधि से अलंकृत किया। अंततः सन् 1987 ई० में ये महान साहित्य-सेवी अपना महान साहित्य संसार को सौंपकर चिरनिद्रा में लीन हो गई। रचनाएँ -महादेवी वर्मा जी एक महान साहित्य सेवी थीं। ये बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार मानी जाती हैं। इन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से अनेक साहित्यिक विधाओं का विकास किया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

काव्य-संग्रह-दीपशिखा, यामा, नीहार, नीरजा, रश्मि, सांध्यगीत।
संस्मरण और रेखाचित्र-अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार।
निबंध-संग्रह-शृंखला की कड़ियाँ, आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर, क्षणदा।
आलोचना-विभिन्न काव्य-संग्रहों की भूमिकाएँ, हिंदी का विवेचनात्मक गद्य।
संपादन-चाँद, आधुनिक कवि काव्यमाला आदि।

साहित्यिक विशेषताएँ-महादेवी वर्मा जी आधुनिक हिंदी-साहित्य की मौरा मानी जाती हैं। ये छायावाद की महान कवयित्री हैं लेकिन काव्य के साथ-साथ गद्य में भी उनका बहुत योगदान रहा है। ये एक साहित्य-सेवी और समाज-सेवी दोनों रूपों में प्रसिद्ध हैं। इनका पद्य साहित्य जितना अधिक आत्मकेंद्रित है, गद्य साहित्य उतना ही समाजकेंद्रित है। महादेवी वर्मा के गद्य साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) समाज का यथार्थ चित्रण-महादेवी वर्मा जी ने अपने गद्य साहित्य में समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया है। काव्य में जहाँ इन्होंने अपने सुख-दुख, वेदना आदि का चित्रण किया है वहीं गद्य में समाज के सुख-दुख, गरीबी, शोषण आदि का यथार्थ वर्णन किया है। इनके रेखाचित्रों एवं संस्मरणों में समाज में फैली गरीबी, कुरीतियों, जाति-पाति, भेदभाव, धर्म-संप्रदायवाद आदि विसंगतियों का यथार्थ के धरातल पर अंकन हुआ है। वे एक समाज-सेवी लेखिका थीं। अत: आजीवन साहित्य-सेवा के साथ-साथ
समाज का उद्धार करने में भी लगी रहीं।

(ii) निम्न वर्ग के प्रति सहानुभूति-महादेवी जी एक कोमल हृदय लेखिका थीं। इनके जीवन पर महात्मा बुद्ध, विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ आदि के विचारों का गहन प्रभाव पड़ा जिसके कारण इनकी निम्न वर्ग के प्रति गहन सहानुभूति रही है। इनके गद्य साहित्य में समाज के पिछड़े वर्ग के अत्यंत मार्मिक चित्र चित्रित हैं। उन्होंने समाज के उच्च वर्ग द्वारा उपेक्षित कहे जानेवाले लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की है। यही कारण है कि उन्होंने अपने गद्य साहित्य में अधिकांश पात्र निम्न वर्ग से ग्रहण किए हैं।

(iii) मानवेतर प्राणियों के प्रति प्रेम-भावना-महादेवी जी केवल मानव-प्रेमी नहीं थीं बल्कि अन्य प्राणियों से भी उनका गहन लगाव था। उन्होंने अपने घर में भी कुत्ते, बिल्ली, गाय, नेवला आदि को पाला हुआ था। इनके रेखाचित्रों एवं संस्मरणों में इन मानवेतर प्राणियों के प्रति इनका गहन प्रेम और संवेदना झंकृत होती है। जैसेलूसी के लिए सभी रोए परंतु जिसे सबसे अधिक रोना चाहिए था, वह बच्चा तो कुछ जानता ही न था। एक दिन पहले उसकी आँखें खुली थीं, अत: माँ से अधिक वह दूध के अभाव में शोर मचाने लगा। दुग्ध चूर्ण से दूध बनाकर उसे पिलाया, पर रजाई में भी वह माँ के पेट की उष्णता खोजता और न पाने पर रोता चिल्लाता रहा। अंत में हमने उसे कोमल ऊन और अधबुने स्वेटर की
डलिया में रख दिया, जहाँ वह माँ के सामीप्य सुख के भ्रम में सो गया।

(iv) करुणा एवं प्रेम-भावना का चित्रण-महादेवी वर्मा जी के गद्य साहित्य की मूल संवेदना करुणा एवं प्रेम है। इनके साहित्य पर बुद्ध की करुणा एवं दुखवाद का गहन प्रभाव पड़ा है। यही कारण है कि इनके गद्य साहित्य में मानव एवं मानवेतर प्राणियों के प्रति करुणा एवं प्रेम भावना अत्यंत सजीव हो उठी है।

(v) समाज सुधार की भावना-महादेवी जी एक समाज-सेवी भावना से ओत-प्रोत महिला थीं। इनके जीवन पर बुद्ध, विवेकानंद आदि विचारकों का बहुत प्रभाव पड़ा जिसके कारण इनकी वृत्ति समाज-सेवा की ओर उन्मुख हो गई थी। इन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों, विसंगतियों, विडंबनाओं आदि को उखाड़ने के भरपूर प्रयास किए हैं। इन्होंने अपने गद्य साहित्य में नारी शिक्षा का भरपूर समर्थन किया है तथा नारी शोषण, बाल-विवाह आदि बुराइयों का खुलकर खंडन किया है।

(vi) वात्सल्य भावना का चित्रण-महादेवी वर्मा के गद्य साहित्य में वात्सल्य रस का अनूठा चित्रण हुआ है। इनको मानव ही नहीं मानवेतर प्राणियों से भी वत्सल प्रेम था। वे अपने घर में पाले हुए कुत्ते, बिल्लियों, नेवला, गाय आदि प्राणियों की एक माँ के समान सेवा करती थीं। यही प्रेम और सेवा-भावना उनके रेखाचित्र और संस्मरणों में भी अभिव्यक्त हुई है। लूसी नामक कुतिया की मृत्यु होने पर लेखिका एक माँ की तरह बिलख-बिलख कर रो पड़ी थी।

(vii) भाषा-शैली-महादेवी वर्मा जी एक श्रेष्ठ कवयित्री होने के साथ-साथ कुशल लेखिका भी थीं। काव्य के साथ इनका गद्य साहित्य अत्यंत उत्कृष्ट है। इनके गद्य साहित्य की भाषा तत्सम-प्रधान शब्दावली से युक्त खड़ी बोली है जिसमें अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, तद्भव तथा साधारण बोलचाल की भाषाओं के शब्दों का समायोजन हुआ है। इनकी भाषा अत्यंत सहज, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। महादेवी वर्मा ने अपने निबंधों, रेखाचित्रों और संस्मरणों में अनेक शैलियों को स्थान दिया है। इनके गद्य साहित्य में भावनात्मक, समीक्षात्मक, संस्मरणात्मक, इतिवृत्तात्मक, व्यंग्यात्मक आदि अनेक शैलियों का रूप दृष्टिगोचर होता है।

मर्म स्पर्शिता इनके गद्य की प्रमुख विशेषता है। वर्मा जी ने भाव प्रधान रेखाचित्रों को भी इतिवृत्तात्मक शिल्प से मंडित किया है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के कारण इनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। कहीं-कहीं अलंकारयुक्त शैली का प्रयोग भी हुआ है। वहाँ इनकी भाषा में अधिक प्रवाहमयता और सजीवता उत्पन्न हो गई है। इनकी भाषा पाठक के विषय से तारतम्य स्थापित कर उसके हृदय पर अमिट छाप छोड़ देती है। वस्तुत: महादेवी वर्मा जी प्रतिष्ठित कवयित्री होने के साथ महान लेखिका भी थीं। उनका गद्य हिंदी-साहित्य में विशेष स्थान रखता है। संभवतः भाषा-शैली की दृष्टि से प्रस्तुत पाठ उत्कृष्ट है।

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Chapter 10 छोटा मेरा खेत, बगुलों के पंख | class 12th | Quick Revision Notes Hindi Aroh

छोटा मेरा खेत, बगुलों के पंख Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 10

छोटा मेरा खेत, बगुलों के पंख कविता का सारांश

‘छोटा मेरा खेत’ कविता उमाशंकर जोशी द्वारा रचित उनके काव्य-संग्रह ‘निशीथ’ से संकलित है। प्रस्तुत कविता में कवि ने कवि-कर्म को खेती के रूप में प्रस्तुत किया है। कागज़ का चौकोर पन्ना कवि को एक चौकोर खेत के समान प्रतीत होता है। इस खेत में किसी अंधड़ अर्थात भावनात्मक आँधी के आने से किसी क्षण एक बीज बोया जाता है। यह बीज रचना, विचार और अभिव्यंजना का हो सकता है जो मूलरूप कल्पना का सहारा लेकर विकसित होता है और इस प्रक्रिया में स्वयं गल जाता है।

उससे शब्दों के अंकुर निकलते हैं और अंतत: कृति एक । पूर्ण स्वरूप ग्रहण करती है। साहित्यिक कृति से जो अलौकिक रस-धारा प्रस्फुटित होती है, वह उस क्षण में होने वाली रोपाई का परिणाम है लेकिन उससे प्रस्फुटित रस-धारा अनंतकाल तक चलने वाली कटाई से कम नहीं होती है। कवि स्पष्ट कहता है कि खेत में पैदा अन्न तो । कुछ समय पश्चात समाप्त हो सकता है, लेकिन साहित्य से जिस रस-धारा की प्राप्ति होती है, वह अनंतकाल तक समाप्त नहीं होती।

बगुलों के पंख कविता का सारांश

‘बगुलों के पंख’ कविता ‘उमाशंकर जोशी’ द्वारा रचित उनके सुप्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘निशीथ’ से संग्रहित है। यह प्रकृति-सौंदर्य से परिपूर्ण कविता है। इस कविता में कवि ने सौंदर्य का अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करने के लिए एक युक्ति का सहारा लिया है और सौंदर्य के चित्रात्मक वर्णन के साथ-साथ अपने मन पर पड़ने वाले उसके प्रभाव का भी सुंदर चित्रण किया है। कवि आकाश में छाए काले-काले बादलों में पंक्ति बनाकर उड़ते हुए सुंदर-सुंदर बगुलों के पंखों को देखता है। वे कजरारे बादलों के ऊपर तैरती संध्या की उज्ज्वल सफ़ेद काया के समान प्रतीत होते हैं। कवि का मन इस अत्यंत सुंदर तथा नयनाभिराम दृश्य को देखकर उसी में डूब जाता है। वह इस माया से अपने को बचाने की सिफारिश करता है। लेकिन वह दृश्य इतना सुंदर है कि उसकी आत्मा तक को अपने अंदर समेट लेता है। कवि उससे चाहकर भी बच नहीं पाता।

छोटा मेरा खेत, बगुलों के पंख कवि परिचय

जीवन परिचय-उमाशंकर जोशी बीसवीं सदी के गुजराती काव्य के प्रमुख कवि एवं निबंधकार माने जाते हैं। इनका जन्म सन 1911 ई० में गुजरात में हुआ था। 1988 में इनका निधन हो गया। रचनाएँ-जोशी जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार माने जाते हैं। उन्होंने कविता, निबंध, कहानी आदि अनेक विधाओं पर सफल लेखनी चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

Class 12 Hindi Aroh Chapter 10 Summary छोटा मेरा खेत, बगुलों के पंख

(i) एकांकी-विश्व-शांति, गंगोत्री, निशीथ, प्राचीना, आतिथ्य, वसंत वर्षा, महाप्रस्थान, अभिज्ञा।
(ii) कहानी-सापनाभारा, शहीद।
(iii) उपन्यास-श्रावणी मेणो, विसामो।
(iv) निबंध-पारकांजण्या।
(v) संपादन-गोष्ठी, उघाड़ीबारी, क्लांत कवि, म्हारासॉनेट, स्वजप्रयाण।
(vi) अनुवाद-अभिज्ञानशाकुंतलम्,

उत्तररामचरितम्। साहित्यिक विशेषताएँ-जोशी जी ने बीसवीं शताब्दी की गुजराती कविता को नई दिशा प्रदान की है। उनकी कविता में नया स्वर है। और नई यंत्रियाँ हैं। वे परंपरा से जुड़कर भारतीय जीवन-मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं। वे भारतीय रंगों से पूरी तरह रंगे हुए हैं। कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से पाठक को प्रकृति के विभिन्न रंगों से परिचित कराया है। उन्होंने प्रकृति को नई शैली के माध्यम से व्यक्त किया है।

उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है और उन्हें विकसित होने में सहायता दी है। इनका संबंध भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई से भी रहा है, इसलिए उनके विचारों की छाप इनकी कविता पर स्पष्ट रूप से है। उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान कई बार जेल-यात्रा भी की थी। जोशी छायावादी काव्यधारा से गहरे प्रभावित हैं। गुजराती होने के कारण इन्होंने प्रादेशिकता के प्रभाव को अपनी कविता में प्रस्तुत किया है।

इन्होंने मानवतावाद, सौंदर्य और प्रकृति चित्रण पर विशेष रूप से लेखनी चलाई है। अपनी भावना-प्रधान कविता में इन्होंने कल्पना को इस प्रकार संयोजित किया है कि विचार मानव-जीवन के लिए ठोस आधार के रूप में प्रस्तुत हो पाने में समर्थ सिद्ध हुए हैं-कल्पना के | रसायनों को पी बीज गल गया नि:शेष, शब्द के अंकुर फूटे, पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष। इनकी कविता में प्रगतिवादी काव्यधारा का सीधा प्रभाव नहीं है पर मानवी जीवन की पीड़ा से ये निश्चित रूप से प्रभावित हुए हैं। इन्हें समाज ने प्रभावित कर कविता लिखने की प्रेरणा दी थी।

छोटा मेरा खेत चौकोना
कागज़ का एक पन्ना,
कोई अंधड़ कहीं से आया
क्षण का बीज वहाँ बोया गया।

इनकी कविता में खड़ी बोली की प्रधानता है जिसमें तत्पस और तद्भव शब्दों का सहज समन्वित प्रयोग किया गया है। अलंकारों की योजना आयास है।

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Chapter 9 रुबाइयाँ, गज़ल | class 12th | Quick Revision Notes Hindi Aroh

रुबाइयाँ, गज़ल Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 9

 रुबाइयाँ, गज़ल कविता का सारांश

‘रुबाइयाँ’ फ़िराक गोरखपुरी द्वारा रचित काव्य है जो उनके काव्य-संग्रह ‘गुले नगमा’ से संग्रहित है। इस कविता में कवि ने वात्सल्य रस का अनूठा चित्रण प्रस्तुत किया है। यह वात्सल्य भावना से ओत-प्रोत कविता है। माँ अपने चाँद के टुकड़े को अपने आँगन में खड़ी । होकर अपने हाथों में झुला रही है। माँ अपने नन्हें बच्चे को अपने आँचल में भरकर बार-बार हवा में उछाल देती है जिससे नन्हें बच्ची । की हँसी सारे वातावरण में गूंज उठती है। माँ अपने बच्चे को निर्मल जल से नहलाती है।

उसके उलझे बालों को कंघी से संवारती है। बच्चा भी माँ को बड़े प्यार से देखता है जब माँ अपनी गोदी में लेकर उसे कपड़े पहनाती है। दीवाली के अवसर पर संध्या होते ही घर पुते और सजे हुए दिखते हैं। घरों में चीनी मिट्टी के चमकते खिलौने सुंदर मुख पर नई चमक ला देते हैं। माँ प्रसन्न होकर अपने नन्हें बच्चे द्वारा बनाए मिट्टी के घर में दीपक जलाती है। बच्चा अपने आँगन में ठिनक रहा है।

वह ठिनकता हुआ चाँद को देखकर उस पर : मोहित हो जाता है। बच्चा चंद्रमा को माँगने की हठ करता है तो माँ दर्पण में उसे चाँद उतारकर दिखाना चाहती है। रक्षा-बंधन एक रस का बंधन है। सावन मास में आकाश में हल्के-हल्के बादल छाए हुए हैं। राखी के कच्चे धागों पर लगे लच्छे बिजली के समान चमकते हैं। कवि कहता है कि सावन का जो संबंध घटा से है, घटा का जो संबंध बिजली से है, वही संबंध भाई का बहन से है। इसी बिजली के समान चमकते लच्छेदार कच्चे धागे को बहन अपने भाई की कलाई में बाँधती है।

 रुबाइयाँ, गज़ल कवि परिचय

कवि-परिचय जीवन-परिचय-फ़िराक गोरखपुरी उर्दू-फ़ारसी के महान शायर थे। उनका जन्म 28 अगस्त, 1896 ई० को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उनका मूल नाम रघुपति सहाय फ़िराक था। उन्होंने रामकृष्ण की कहानियों से अपनी शिक्षा की शुरुआत की। बाद में अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण की। 1917 ई० में डिप्टी कलक्टर के पद पर नियुक्त गए लेकिन स्वराज आंदोलन से प्रेरित होकर 1918 ई० में पद त्याग दिया। 1920 ई० में इन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया जिसके कारण इन्हें डेढ़ वर्ष की जेल भी हुई। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक के पद पर कार्य किया।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 9 Summary रुबाइयाँ, गज़ल

उन्हें ‘गुले नगमा’ के लिए साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। अंततः सन् 1983 में ये अपनी महान शायरी संसार को सौंप कर स्वर्ग सिधार गए। रचनाएँ-गोरखपुरी जी ने शायरी के क्षेत्र में नए विषयों का पदार्पण कर प्राचीन समय से चली आ रही परंपरा को तोड़ा। अनेक नए विषयों की खोज कर उन्होंने अनेक रुबाइयाँ, गज़ले आदि लिखीं। इनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ निम्नलिखित हैंगुले नगमा, बज्मे जिंदगी, रंग-ए-शायरी, उर्दू गजल, गोई आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-फ़िराक गोरखपुरी उर्दू साहित्य के महान शायर माने जाते हैं। इनकी शायरी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) नवीन विषयों का चित्रण-उर्दू शायरी का साहित्य रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है। फ़िराक गोरखपुरी और नजीर आदि । साहित्यकारों ने इस परंपरा को तोड़ा। फिराक ने परंपरागत भाव-बोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नए विषयों से जोड़ा। उन्होंने उर्दू शायरी को रहस्य, रूमानियत और शास्त्रीयता से बाहर निकालकर सामाजिक दुख-दर्द के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया।

(ii) वैयक्तिकता का चित्रण-फ़िराक गोरखपुरी ने उर्दू शायरी में व्यक्तिगत अनुभूति की ओर मोड़ा और उन्होंने अपनी शायरी के । माध्यम से अपने सुख-दुखों का चित्रण किया, जैसे

तेरे गप का पासे अदब है कुछ दुनिया का ख्याल भी है।
सबसे छिपा के दर्द के मारे चुपके-चुपके रोते हैं।

(iii) शृंगार वर्णन-गोरखपुरी की शायरी में श्रृंगार रस का भी चित्रण हुआ है। इनकी शायरी में श्रृंगार के दोनों पक्षों अर्थात संयोग और । वियोग का वर्णन मिलता है लेकिन संयोग की अपेक्षा विरहावस्था का अधिक चित्रण हुआ है। इनके साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के। वियोग पक्ष की सजीव एवं मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।

ऐसे में त याद आए है अंजुमने भय में रिन्दों को।
रात गये गर्दू पै फरिश्ते बाबे गुनह जग खोले हैं।

(iv) वात्सल्य रस का चित्रण-गोरखपुरी की शायरी में वात्सल्य रस की अनुपम अभिव्यक्ति हुई है। वात्सल्य रस का चित्रण करते हुए ऐसा लगता है मानो कवि एक माँ का हृदय पा गया हो। माँ का बच्चे के प्रति प्रेम तथा अपने नन्हें बच्चे के प्रति माँ की वात्सल्य अनुभूतियों का सजीव अंकन किया है। कवि वात्सल्य रस की छोटी-से-छोटी अनुभूति का भी सजीव वर्णन किया है। नहला के छलके-छलके निर्मल जल से उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके किस प्यार से देखता है बच्चा मुँह को जन घटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े।

(v) भारतीय संस्कृति का अनूठा चित्रण-फ़िराक गोरखपुरी एक शायर होने से पहले एक सच्चे भारतीय थे। वे हिंदू-मुस्लिम आदि | संकीर्णताओं से दूर एक मानव थे, इसीलिए उन्होंने धार्मिक और सामाजिक सहिष्णुता पर बल दिया। उन्होंने भारतीय संस्कृति, तीज-त्योहार आदि का अनूठा चित्रण किया है। गोरखपुरी ने अपनी रुबाइयों में दीवाली, रक्षा-बंधन आदि त्योहारों की सजीव अभिव्यक्ति की है। जैसे

रक्षा-बंधन की सुबह रस की पुतीली
छायी है घटा गगन की हलकी-हलकी
बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे
भाई के है बाँधती चमकती गखी॥

(vi) देशभक्ति की भावना-फ़िराक गोरखपुरी एक सच्चे देशभक्त थे। सन् 1920 ई० में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के कारण वे जेल भी गए थे। यही देशभक्ति की भावना उनके साहित्य में भी दृष्टिगोचर होती है। उन्होंने अपनी शायरी के माध्यम से भारतीय समाज को जागृत करने का प्रयास किया है।

(vi) प्रकृति चित्रण-गोरखपुरी जी प्रकृति से भी प्रेम करते थे जो उनके अनूठे प्रकृति सौंदर्य में देखने को मिलता है। उन्होंने अपने | साहित्य में वसंत ऋतु, बाग, उद्यान, टिमटिमाते तारे, फूलों की महक आदि का सजीव और मनोहारी चित्रण किया है। नौरस गुंचे पंखड़ियों की नाजुक गिरहें खोले हैं या उड़ जाने को रंगों बू गुलशन में पर तोले हैं। तारे आँखें झपकावे हैं ज़र्रा-जर्रा सोये हैं तुम भी सुना हो यारो ! शब में सन्नाटे कुछ बोले हैं।

(vi) भाषा-शैली-गोरखपुरी जी उर्दू के श्रेष्ठ शायर हैं। उन्होंने अपनी शायरी को अभिव्यंजना प्रदान करने के लिए नई भाषा और नए शब्द-भंडार का प्रयोग किया है। इन्होंने अपनी भाषा में उर्दू, फारसी, साधारण बोलचाल, खड़ी हिंदी बोली आदि का प्रयोग किया है। ये लाक्षणिक प्रयोगों और चुस्त मुहावरों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भी ‘मौर और गालिब’ की तरह कहने की शैली को साधकर। साधारण मनुष्य के रूप में अपनी बात कही है।

(ix) अलंकार-छंद का चित्रण-फ़िराक ने अपनी शायरी में शब्दालंकार तथा अर्थालंकार दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। इनकी शायरी में अनुप्रास, पदमैत्री, स्वरमैत्री, उपमा, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, संदेह आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः फ़िराक गोरखपुरी शायरी-साहित्य के संसार में चमकता हुआ सितारा थे। उनका उर्दू शायरी में महान योगदान है।

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Chapter 8 कवितावली (उत्तर कांड से), लक्ष्मण-मूच्छ और राम का विलाप | class 12th | Quick Revision Notes Hindi Aroh

कवितावली (उत्तर कांड से), लक्ष्मण-मूच्छ और राम का विलाप Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 8

कवितावली (उत्तर कांड से), लक्ष्मण-मूच्छ और राम का विलाप कविता का सारांश

(i) कवितावली (उत्तर-कांड से) प्रसंग में कवि ने अपने समय का यथार्थ चित्रण किया है। कवि का कथन है कि समाज में किसान, बनिए, भिखारी, भाट, नौकर-चाकर, चोर आदि सभी की स्थिति अत्यंत दयनीय है। समाज का उच्च और निम्न वर्ग धर्म-अधर्म का प्रत्येक कार्य करता है। यहाँ तक कि लोग अपने पेट की खातिर अपने बेटा-बेटी को बेच रहे हैं।

पेट की आग संसार की सबसे बड़ी पीड़ा है। समाज में किसान के पास करने को खेती नहीं, भिखारी को भीख नहीं मिलती। व्यापारी के पास व्यापार नहीं तथा नौकरों के पास करने के लिए कोई कार्य नहीं। समाज में चारों ओर बेकारी, भूख, गरीबी और अधर्म का बोलबाला है। अब तो ऐसी अवस्था में दीन-दुखियों की रक्षा करनेवाले श्री राम ही कृपा कर सकते हैं। अंत में कवि समाज में फैली जाति-पाति और छुआछूत का भी – खंडन करते हैं।

(ii) ‘लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप’ प्रसंग लोक-नायक तुलसीदास के श्रेष्ठ महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के लंकाकांड से लिया गया । है। प्रस्तुत प्रसंग में कवि ने लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने के पश्चात उनकी मूर्छा-अवस्था तथा राम के विलाप का कारुणिक चित्र प्रस्तुत किया है। यहाँ कवि ने शोक में डूबे राम के प्रलाप तथा हनुमान जी का संजीवनी बूटी लेकर आने की घटना का सजीव अंकन किया है।

कवि ने करुण रस में वीर रस का अनूठा मिश्रण किया है। लक्ष्मण-मूर्छा के पश्चात हनुमान जी जब संजीवनी बूटी लेकर लौट रहे थे तो भरत ने उन्हें राक्षस समझकर तीर मारा था, जिससे वे मूर्च्छित हो गए थे। भरत जी ने उन्हें स्वस्थ कर अपने बाण पर बैठाकर राम जी के पास जाने के लिए कहा था। हनुमान जी भरत जी का गुणगान करते हुए प्रस्थान कर गए थे। उधर श्री रामचंद्र जी लक्ष्मण को हृदय से लगा विलाप कर रहे हैं।

वे एकटक हनुमान जी के आने की प्रतीक्षा में हैं। श्री रामचंद्र अपने अनुज लक्ष्मण को नसीहतें दे रहे हैं कि आप मेरे लिए माता-पिता को छोड़ यहाँ जंगल में चले आए। जिस प्रेम के कारण तुमने सब कुछ त्याग दिया आज वही प्रेम मुझे दिखाओ। श्री राम जी लक्ष्मण को संबोधन कर कह रहे हैं कि हे भाई! जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी अत्यंत दीन होता है और मणि के बिना साँप दीन हो जाता है उसी प्रकार आपके बिना भी मेरा जीवन भी अत्यंत दीन एवं असहाय हो जाएगा। राम सोच रहे हैं कि वह अयोध्या में क्या मुँह लेकर जाएंगे। अयोध्यावासी तो यही समझेंगे कि नारी के लिए राम ने एक भाई को गवाँ दिया। समस्त संसार में अपयश फैल जाएगा।

माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को मेरे हाथ में यह सोचकर सौंपा था कि मैं सब प्रकार से उसकी रक्षा करूँगा। श्री राम जी के सोचते-सोचते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। वे ! फूट-कूटकर रोने लगे। हनुमान के संजीवनी बूटी ले आने पर श्री राम अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने हनुमान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। वैद्य ने तुरंत लक्ष्मण का उपचार किया जिससे लक्ष्मण को होश आ गया। राम ने अपने अनुज को हृदय से लगाया। इस दृश्य को देख राम-सेना के सभी सैनिक बहुत प्रसन्न हुए।

हनुमान जी ने पुनः वैद्य को उनके निवास स्थान पर पहुंचा दिया। रावण इस वृत्तांत को सुनकर अत्यधिक उदास हो उठा और व्याकुल होकर कुंभकरण के महल में गया। कुंभकरण को जब रावण ने जगाया तो वह यमराज के समान शरीर धारण कर उठ खड़ा हुआ। रावण ने उसके समक्ष अपनी संपूर्ण कथा का बखान किया। साथ ही हनुमान जी के रण-कौशल और बहादुरी का परिचय भी दिया कि उसने अनेक असुरों का संहार कर दिया है।

कवितावली (उत्तर कांड से), लक्ष्मण-मूच्छ और राम का विलाप  कवि परिचय

गोस्वामी तुलसीदास हिंदी-साहित्य के भक्तिकाल की सगुणधारा की रामभक्ति शाखा के मुकुट शिरोमणि माने जाते हैं। इन्होंने अपनी महान रचना रामचरितमानस के द्वारा केवल राम-काव्य को ही समृद्ध नहीं किया बल्कि मानस के द्वारा तत्कालीन समाज का भी मार्गदर्शन किया है। अतः तुलसीदास जी एक भक्त होने के साथ-साथ लोकनायक भी थे।
Class 12 Hindi Aroh Chapter 8 Summary कवितावली (उत्तर कांड से), लक्ष्मण-मूच्छ और राम का विलाप
गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म-स्थान, तिथि एवं परिवार के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने इनका जन्म सोरों में भाद्रपद शुक्ल एकादशी मंगलवार वि० संवत 1589 माना है। जार्ज ग्रियर्सन भी इनका जन्म संवत सेंगर 1589 को ही मानते हैं। शिव सिंह द्वारा रचित ‘शिव सिंह सरोज’ ग्रंथ में इनका जन्म संवत 1583 स्वीकार किया है। बेणीमाधव द्वारा रचित ‘गुसाईं चरित’ के आधार पर तुलसीदास का जन्म विक्रमी संवत 1554 माना जाता है। इनका जन्म श्रावण शुक्ला सप्तमी को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था। इनके जन्म के संबंध में ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध हैं

पंद्रह सौ चौवन विषै कालिंदी के तीर।
पाउल मुक्ला सप्तमी तुलसी धरे सरीर॥

इनके पिता का नाम पंडित आत्मा राम तथा माता का नाम हुलसी था। जन्म के समय वे रोए नहीं, बल्कि उन्होंने राम नाम टच्चारण किया । जिससे उनका नाम-राम बोला पड़ गया। अशुभ मुहूर्त में जन्म लेने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें त्याग दिया। जन्म के तीन दिन । बाद ही इनकी माता का देहांत हो गया। बाद में मुर्निया नामक दासी में इनका पालन-पोषण किया लेकिन इसकी मृत्यु के पश्चात इन्हें द्वार-द्वार भीख माँगकर पेट भरना पड़ा। बाबा नरहरिदास ने इनकी दयनीय दशा पर दया कर इन्हें अपने आश्रम में रख लिया तथा इन्हें पढ़ाया-लिखाया। गुरु जी ने इनका नाम तुलसी रख दिया था। इनकी-विद्वत्ता से प्रभावित होकर पंडित दीनबंधु पाठक ने अपनी कन्या रत्नावली से इनका विवाह कर दिया था। तुलसी को अपनी पत्नी से अगाध प्रेम था।

तुलसीदास की राम साधना का श्रेय बहुत हद तक उनकी पत्नी रत्नावली को दिया जाता है। माना जाता है कि एक बार अपनी पत्नी के मादक चले जाने पर तुलसीदास जी पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गए। इस पर पत्नी को बहुत संकोच हुआ तो वे उनको फटकार लगाते हुए बोली

लाज न आवत आपको दौरे आयहु साथ।
धिक्-धिक ऐसे प्रेम को कहाँ कहाँ हाँ नाथ ॥
अस्थि चर्ममय देह मम, तासौं ऐसी प्रीति।
होती जो श्री राम महं, होति न तो भवभीति॥

पत्नी की इस फटकार से वे बहुत लज्जित हुए और उनके हृदय में संसार के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गई। इसके पश्चात उन्होंने वैराग्य ले • लिया तथा प्रभु-भक्ति में लीन हो गए। जीवन के अंतिम दिनों में इनको बहुत कष्ट भोगना पड़ा तथा श्रावण शुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत 0 1680 में इनका देहांत हो गया। इनकी मृत्यु के संबंध में यह दोहा प्रसिद्ध है

संवत् सौलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर॥

रचनाएँ—-नागरी प्रचारिणी सभा काशी (वाराणसी) ने तुलसी साहित्य को ‘तुलसी ग्रंथावली’ के नाम से प्रकाशित किया है। इसके अनुसार तुलसी के ० नाम से लिखे ग्रंथों की संख्या 37 बताई जाती है लेकिन विद्वानों ने इनके केवल 12 ग्रंथों को ही प्रामाणिक माना है शेष अन्य ग्रंथ दूसरे कवियों ने लिखकर उनके नाम से प्रकाशित कर दिए होंगे। तुलसी जी द्वारा लिखे गए 12 प्रामाणिक ग्रंथ-रामचरितमानस, वैराग्य संदीपनी, रामलला नहछू, ० बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, कृष्ण गीतावली और विनय-पत्रिका हैं।

तुलसी के नाम से प्रचारित रचनाओं में-अंकावली बजरंग बाण, भरत-मिलाप, हनुमान चालीसा, हनुमान पंचक, हनुमान बाहुक, गीता भाषा, छप्पय रामायण आदि ग्रंथों का उल्लेख किया जाता है। परंतु विद्वान उन्हें तुलसी की रचनाएँ नहीं मानते। तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली तथा गीतावली विशेष लोकप्रिय हैं। ‘रामचरित’ तो उनकी कीर्ति का आधार स्तंभ है।

हिंदुस्तान के प्रत्येक हिंदू घर में ‘रामचरितमानस’ की एक प्रति अवश्य मिलती है। इसे उत्तर भारत की बाइबिल माना जाता है। हिंदू घरानों में इसको पवित्र ग्रंथ मानकर इसकी पूजा की जाती है। भक्तगण इसकी चौपाइयों का मुक्त कंठ से गान करते हैं। यह महाकाव्य भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में लोकप्रिय है। विनय-पत्रिका साधारण जनता में इतना लोकप्रिय नहीं है जितना कि भक्तों तथा दार्शनिकों में प्रसिद्ध है। कवितावली और गीतावली अपने मधुर, सरस गीतों के कारण जनता में काफी लोकप्रिय हैं।

इन सभी ग्रंथों में तुलसी जी ने राम के चरित्र का ही अंकन किया है। विनय-पत्रिका तुलसी की अंतिम रचना मानी जाती है। यह तुलसी का प्रार्थना ग्रंथ है। साहित्यिक विशेषताएँ-तुलसीदास जी रामभक्ति धारा के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं। इन्होंने अपनी रामभक्ति के माध्यम से भारतीय जनमानस में नवीन चेतना जागृत की है। इनका साहित्य लोकमंगल की भावना से परिपूर्ण है। इनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) राम का स्वरूप-तुलसी के काव्य का आदर्श राम हैं। इन्होंने अपने काव्य में राम को विष्णु का अवतार मानकर उनके निर्गुण
और सगुण दोनों रूपों की आराधना की है। ये कहते हैं

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम-नाम का मरम है आना॥

तुलसी जी राम को धर्म का उद्धार करनेवाला तथा अधर्म का नाश करनेवाला मानते हैं। इनके राम एक ओर तो अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र है तो दूसरी ओर घट-घट में रहने वाले निर्गुण ब्रह्म। इन्होंने राम के चरित्र में शील, शक्ति और सौंदर्य का अनूठा समन्वय प्रस्तुत किया है।

(ii) विषय की व्यापकता-तुलसी-साहित्य में भाव विविधता उनकी प्रमुख विशेषता है। इन्होंने अपने काव्य में जीवन के विविध रूपों को यथार्थ अभिव्यक्ति प्रदान की हैं। रामचरितमानस में राम-जन्म से लेकर राम के राजतिलक की संपूर्ण कथा को सात कांडों में प्रस्तुत किया है। इन्होंने राम-कथा में विविध प्रसंगों के माध्यम से राजनैतिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के आदर्शों को समाज के समक्ष प्रस्तुत कर खंडित हिंदू समाज को केंद्रित किया है। मानस के उत्तर काव्य में कलियुग के प्रकोप का वर्णन आज भी समसामयिक है तथा हमारा मार्गदर्शन करता है।

(iii) लोकमंगल की भावना-तुलसी जी सच्चे लोकनायक थे। इनकी समस्त भक्ति-भावना लोक-कल्याण की भावना पर ही टिकी हुई है। लोक-कल्याण हेतु ही इन्होंने समन्वय की स्थापना की है। इनका समस्त काव्य आदर्श समाज की स्थापना का संदेश देता है। तुलसी काव्य में आदर्श ही आदर्श है। मानस में कवि ने कौशल्या को आदर्श माता, राम को आदर्श पुत्र, सीता को आदर्श पत्नी, भरत और लक्ष्मण को आदर्श भाई, हनुमान को आदर्श सेवक, सुग्रीव को आदर्श मित्र तथा राजतिलक के बाद राम को एक आदर्श राजा के रूप में ।प्रस्तुत किया है। इस प्रकार तुलसी ने आदर्श गृहस्थ, आदर्श समाज और आदर्श राज्य की कल्पना को साकार रूप प्रदान किया है।

(iv) समन्वय की भावना–तुलसीदास का काव्य लोक-कल्याण तथा समन्वय की विराट भावना से ओत-प्रोत है। समकालीन युग संक्रमण का युग था। समस्त हिंदू जाति सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से पतन की ओर जा रही थी लोगों के मन से धार्मिक भावना समाप्त हो रही थी। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, नफ़रत, नास्तिकता आदि बुरी भावनाएँ बढ़ती जा रही थीं। ढोंगी-साधु संन्यासियों का बोलबाला था। ऐसी विकट परिस्थितियों का मुकाबला करने हेतु तुलसी जी ने समन्वय की भावना का सहारा लिया। इन्होंने सर्वप्रथम धार्मिक संकीर्णताओं को मिटाने के लिए शैवों एवं वैष्णवों में समन्वय स्थापित किया। इसके बाद इन्होंने लोक और शास्त्र, गृहस्थ और वैराग्य, भक्ति और ज्ञान, निर्गुण और सगुण, भाषा और संस्कृत, शील, शक्ति और सौंदर्य आदि में अनूठा समन्वय स्थापित करने का सफल प्रयास किया। ज्ञान की श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए तुलसी ने कहा है

कहहिं संतमुनि वेद पुराना।
नहिं कछु दुर्लभ ज्ञान समाना॥

(v) प्रबंध कौशल-काव्य-कला की दृष्टि से तुलसी रचित ‘रामचरितमानस’ हिंदी साहित्य का श्रेष्ठतम प्रबंध काव्य है। इस महाकाव्य में कवि ने समस्त काव्य शास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए संपूर्ण रामजीवन का अनूठा चित्रण किया है। मानस में राम-सीता का प्रथम-दर्शन, राम वनगमन, दशरथ-मृत्यु, भरत मिलाप, सीताहरण, लक्ष्मण मूर्छा आदि अनेक मार्मिक प्रसंगों की भी सजीवता से रचना हुई है। इस प्रकार प्रबंधकार के रूप में तुलसी जी एक सफल कवि हैं।

(vi) भक्ति भावना- तुलसी की भक्ति दास्यभाव की भक्ति पर आधारित है। इनकी भक्ति संत कबीरदास आदि निर्गुण संतों की भांति | ज्ञान और योग से परिपूर्ण भावना से युक्त रहस्यमयी नहीं है। इनकी भक्ति सीधी-सादी, सरल एवं सहज है। तुलसी के राम संसार | के कण-कण में समाए हुए हैं। वे सभी को सुलभ हैं।। तुलसीदास जी की भक्ति सेवक-सेव्य भाव पर आधारित आदर्श भक्ति है। उन्होंने रामानुजाचार्य के सिद्धांत विशिष्ट वैतवाद को अपनी भक्ति का आधार बनाया है।

यहाँ जीव ब्रह्म का ही अंश है। इनकी भक्ति लोक संग्रह की भावना से ओत-प्रोत है। इन्होंने राम में शील, शक्ति और सौंदर्य का गुणगान करते हुए लोक-कल्याण की कामना की है। तुलसी ने श्री राम को सर्वगुण संपन्न तथा स्वयं को अत्यंत तुच्छ, दीन-हीन माना है। यही भावना उनकी भक्ति में व्यक्त हुई है

राम सो बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो?
राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो?

(vi) चरित्र-चित्रण-तुलसीदास जी का चरित्र-चित्रण अत्यंत उदात्त एवं श्रेष्ठ है। इस दृष्टि से इनकी तुलना संसार के श्रेष्ठ कवियों के साथ की जा सकती है। इनके पात्र जहाँ देखने में लौकिक हैं, जनसाधारण की भाँति दिखाई देते हैं, वहाँ उनमें अलौकिक गुण भी होते है। तलसी का चरित्र आदर्शवादी है जो निरंतर समाज को प्रेरणा देते हैं। इनके रामचरितमानस में कौशल्या एक आदर्श माँ, श्री राम आदर्श पुत्र, सीता आदर्श पत्नी, लक्ष्मण-भरत आदर्श भाई, हनुमान आदर्श सेवक, सुग्रीव आदर्श मित्र है।

इनके साथ-साथ गुरु वशिष्ट जी, अंगद, शबरी आदि ऐसे श्रेष्ठ पात्र हैं जो संसार को शिक्षा देते रहते है। तुलसी जी ने अपने साहित्य में मनुष्य-देवता, नर-नारी, पशु-पक्षी, श्रेष्ठ-अधम आदि सभी पात्रों का सहज स्वाभाविक चित्रण किया है जैसे जनकपुर में सीता स्वयंवर | के समय लक्ष्मण के जोश का सजीव चित्रण किया है

जनक वचन सुनि सब नर-नारी। देखि जान किहि भए दुखारी।
भाखे लखन कुटिल भाई भौहे। रदपुट फरकत नयन हरिसहि ॥

(viii) प्रकृति-चित्रण- तुलसी साहित्य में प्रकृति का भी अनूठा चित्रण हुआ है। इन्होंने कहीं-कहीं पंचवटी, चित्रकूट, वन, जंगल, नदी, पर्वत, पशु-पक्षी आदि का सजीव एवं सुंदर चित्रण किया है। इनका बाह्य प्रकृति की अपेक्षा अंतः प्रकृति-चित्रण में मन अधिक रमा है। इन्होंने प्रकृति के आलंबन रूप का सुंदर एवं सजीव चित्रण किया है।

(ix) काव्य रूप- तुलसी जी रामभक्ति के श्रेष्ठ कवि हैं। इन्होंने गीति, प्रबंध एवं मुक्तक तीनों काव्य-रूपों का प्रयोग करके अपने साहित्य का चित्रण किया है। रामचरितमानस हिंदी-साहित्य का श्रेष्ठ प्रबंध काव्य है। इसमें कवि ने सात कांडों में श्री रामचंद्र जी के संपूर्ण जीवन का अनूठा वर्णन किया है। इसी प्रकार गीतावली, कवितावली, दोहावली आदि भी श्रेष्ठ ग्रंथ है। पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामलला नहछू आदि उनके श्रेष्ठ मुक्तक काव्य हैं।

(x) भाषा-शैली-तुलसीदास जी एक महान विद्वान थे। उन्होंने अपने साहित्य की रचना अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं में की है। उन्होंने दोनों भाषाओं का सुंदर प्रयोग कर श्रेष्ठ साहित्य सृजन किया है। रामचरितमानस में अवधी तथा विनय पत्रिका आदि में ब्रज भाषा का सुंदर प्रयोग हुआ है। अवधी भाषा में तत्सम शब्दावली का प्रचुर प्रयोग हुआ है। इसके साथ-साथ उन्होंने भोजपुरी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, फ़ारसी आदि भाषाओं का भी प्रयोग किया है।

(xi) अलंकार- तुलसी काव्य में अलंकारों का सफल एवं सुंदर प्रयोग हुआ है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि उनके प्रिय अलंकार है।। सांगरूपक चित्रण तो इनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इसके साथ-साथ अनुप्रास, विभावना, विरोधाभास, वक्रोक्ति, पदमैत्री, स्वरमैत्री | आदि अलंकारों का भी सुंदर एवं सजीव चित्रण किया है। अनुप्रास की छया तो सर्वत्र दिखाई देती है। रूपक अलंकार का सुंदर उदाहरण द्रष्टव्य है

उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विकसे संत सरोज सब लोचन हर्षित भंग।

(xii) छंद-कवि की द-योजना अत्यंत श्रेष्ठ है। इन्होंने अपनी काव्य-भाषा में वर्णिक और मात्रिक दों का सुंदर अंकन किया है। तुलसी जी ने दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, छप्पय, बरवै, पद, कुंडलियाँ आदि छंदों का सुंदर प्रयोग किया है।

(xiii) रस- तुलसीदास जी को रस सिद्ध कवि कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। उन्होंने अनेक भावों एवं रसों का सुंदर एवं सजीव चित्रांकन
किया है। इनके काव्य में भक्ति की प्रधानता होने के कारण शांत रस की सर्वत्र अभिव्यंजना है। शृंगार रस का भी सुंदर चित्रण मिलता
है लेकिन वह मर्यादा से परिपूर्ण है। कवि ने श्रृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों की सजीव एवं मार्मिक अभिव्यक्ति की है। सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उनका संपूर्ण काव्य आदर्श, लोक-कल्याण एवं समन्वय की भावना से ओत-प्रोत हैं। वे सच्चे अर्थों में लोकनायक थे।

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Chapter 7 बादल राग | class 12th | Quick Revision Notes Hindi Aroh

बादल राग Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 7

बादल राग कविता का सारांश

बादल राग’ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की ओजपूर्ण कविता है जो उनके सुप्रसिद्ध काव्य-संग्रह अनामिका से संकलित है। निराला जी साम्यवादी चेतना से प्रेरित कवि माने जाते हैं। उन्होंने अपने काव्य में शोषक वर्ग के प्रति घृणा, शोषित वर्ग के प्रति गहन सहानुभूति । और करुणा के भाव अभिव्यक्त किए हैं। इस कविता में कवि ने बादल को क्रांति और विप्लव का प्रतीक मानकर उसका आहवान किया – है। किसान और जनसामान्य की आकांक्षाएँ बादल को नव-निर्माण के राग के रूप में पुकार रही हैं।

बादल पृथ्वी पर मँडरा रहे हैं। वायु रूपी सागर पर इनकी छाया वैसे ही तैर रही है जैसे अस्थिर सुखों पर दुखों की छाया मँडराती रहती – है। वे पूँजीपति अर्थात शोषक वर्ग के लिए दुख का कारण हैं। कवि बादलों को संबोधित करते हुए कहता है कि वे शोषण करनेवालों । के हृदयों पर क्रूर विनाश का कारण बनकर बरसते हैं। उनके भीतर भीषण क्रांति और विनाश की माया भरी हुई है। युद्ध रूपी नौका के – समान बादलों में गरजने-बरसने की आकांक्षा है, उमंग है।

युद्ध के समान उनकी भयंकर नगाड़ों रूपी गर्जना को सुनकर मिट्टी में दबे हुए बीज अंकुरित होने की इच्छा से मस्ती में भरकर सिर उठाने लगते हैं। बादलों के क्रांतिपूर्ण उद्घोष में ही अंकुरों अर्थात निम्न वर्ग । का उद्धार संभव है। इसलिए कवि उनका बार-बार गरजने और बरसने का आह्वान करता है। बादलों के बार-बार बरसने तथा उनकी । बज्र रूपी तेज हुँकार को सुनकर समस्त संसार भयभीत हो जाता है। लोग घनघोर गर्जना से आतंकित हो उठते हैं। बादलों की वन रूपी

हुँकार से उन्नति के शिखर पर पहुँचे सैकड़ों-सैकड़ों वीर पृथ्वी पर गिरकर नष्ट हो जाते हैं। गगन को छूने की प्रतियोगिता रखने वाले लोग अर्थात सुविधाभोगी पूँजीपति वर्ग के लोग नष्ट हो जाते हैं। लेकिन उसी बादल की वज्र रूपी हुँकार से मुक्त विनाशलीला में छोटेछोटे पौधों के समान जनसामान्य वर्ग के लोग प्रसन्नता से भरकर मुसकराते हैं। वे क्रांति रूपी बादलों से नवीन जीवन प्राप्त करते हैं। शस्य-श्यामल हो उठते हैं। वे छोटे-छोटे पौधे हरे-भरे होकर हिल-हिलकर, खिल-खिलकर हाथ हिलाते हुए अनेक प्रकार के संकेतों से बादलों को बुलाते रहते हैं। क्रांति रूपी स्वरों से छोटे पौधे अर्थात निम्न वर्ग का जनसामान्य ही शोभा प्राप्त करता है। समाज के ऊँचे-ऊँचे भवन महान नहीं होते। वे तो वास्तव में आतंक और भय के निवास होते हैं।

ऊँचे भवनों में रहनेवाले पूँजीपति वर्ग के ऊँचे लोग सदा : भयभीत रहते हैं। जैसे बाढ़ का प्रभाव कीचड़ पर होता है। वैसे ही क्रांति का अधिकांश प्रभाव बुराई रूपी कीचड़ या शोषक वर्ग पर ही – होता है। निम्न वर्ग के प्रतीक छोटे पौधे रोग-शोक में सदा मुसकराते रहते हैं। इन पर क्रांति का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। शोषक वर्ग ने निम्न वर्ग का शोषण करके अपने खजाने भरे हैं लेकिन उन्हें फिर.भी संतोष नहीं आता।

उनकी इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होती लेकिन वे – क्रांति से गर्जना सुनकर अपनी प्रेमिकाओं की गोद में भय से काँपते रहते हैं। कवि क्रांति के दूत बादलों का आह्वान करता है कि वह जर्जर और शक्तिहीन गरीब किसानों व जनसामान्य की रक्षा करें। पूँजीपतियों ने इनका सारा खून निचोड़ लिया है। अब उनका शरीर हाड़ मात्र ही रह गया है। इसलिए कवि ने बादलों को ही क्रांति के द्वारा उन्हें नवजीवन प्रदान करने का आह्वान किया है।

बादल राग कवि परिचय

नाधन परिचय-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ आधुनिक हिंदी साहित्य के छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। छायावाद युगीन कवियों में महाप्राण निराला जी सदैव अनूठे रहे हैं। हिंदी साहित्य में इनकी प्रतिभा निराली है। ये वास्तव में संघर्षशील प्राणी थे। इनका जन्म सन् 1899 ई० में बंगाल के मेदिनीपुर जिले में हुआ था। इनके पिता का नाम पं० रामसहाय त्रिपाठी था जो उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के गाँव गठाकोला के रहनेवाले थे।
Class 12 Hindi Aroh Chapter 7 Summary बादल राग
बाद में आजीविका उपार्जन हेतु मेदिनीपुर में आकर बस गए थे। निराला के तीन वर्ष की अवस्था में ही उनकी माता जी का देहावसान हो गया था। इनकी अधिकांश शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगाली आदि साहित्य का गहन अध्ययन किया था। चौदह वर्ष की आयु में ही इनका विवाह मनोहरा देवी से हो गया था। इनकी पत्नी अत्यंत सुशील, सुसंस्कृत, सौम्य एवं साहित्य-प्रेमी महिला थीं।

इनकी पत्नी पुत्र रामकृष्ण और पुत्री सरोज को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई थीं। कुछ समय बाद इनके पिता तथा चाचा जी का भी स्वर्गवास हो गया। परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनका जीवन अनेक अभावों एवं विपत्तियों से पीड़ित रहा किंतु इन्होंने कभी हार नहीं मानी। इसके बाद इन्होंने महिषादल रियासत में नौकरी की, किंतु कुछ कारणों से वहाँ से त्याग-पत्र देकर चले गए। कुछ समय तक रामकृष्ण मिशन कलकत्ता के पत्र समन्वय का संपादन किया, बाद में ‘मतवाला’ पत्रिका का संपादन करने लगे।

सन 1935 ई० में इनकी पुत्री सरोज का भी निधन हो गया। पुत्री के निधन से निराला जी को गहन शोक हुआ। इसी से प्रेरित हो इन्होंने ‘सरोज स्मृति’ शोक गीत लिखा। पुत्री के निधन से वे अत्यंत दुखी रहने लगे, फिर बीमार हो गए। धीरे-धीरे इनका शरीर बीमारियों से जर्जर हो गया था और अंत में 15 अक्तूबर, सन् 1961 ई० को इलाहाबाद में ये अपना नश्वर शरीर त्याग कर परलोक सिधार गए थे। निराला जी का व्यक्तित्व निराला था। ये अत्यंत स्वाभिमानी, कर्मठ, अध्ययनशील, प्रकृति-प्रेमी एवं त्यागी पुरुष थे। वे एक संगीत-प्रेमी साहित्यकार थे। रचनाएँ… निराला जी बहुमुखी प्रतिभासंपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने गद्य-पद्य की अनेक विधाओं पर सफल लेखनी चलाई है। . उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

(i) काव्य-अनामिका, परिमल, गीतिका, बेला, नए पत्ते, अणिमा, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, सरोज-स्मृति, राम की शक्तिपूजा, राग-विराग, अर्चना, आराधना आदि।
(ii) उपन्यास-अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरुपमा, चोटी की पकड़, काले कारनामे, चमेली आदि।
(iii) कहानी-संग्रह-चतुरी चमार, सुकुल की बीवी, लिली सखी।
(iv) रेखाचित्र-कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिह।
(v) निबंध-संग्रह-प्रबंध पद्य, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, प्रबंध परिचय एवं रवि कविता कानन।
(vi) जीवनियाँ-ध्रुव भीष्म तथा राणा प्रताप।
(vii) अनुवाद-आनंद पाठ, कपाल कुंडला, चंद्रशेखर, दुर्गेशनंदिनी, रजनी, देवी चौधरानी, राधारानी, विषवृक्ष, कृष्णकांत का दिल,

युगलांगुलीय, राजा सिंह, महाभारत आदि। माहित्यिक विशेषताएँ-निराला जी छायावादी काव्यधारा के आधार स्तंभ हैं। इनके काव्य में छायावाद के अतिरिक्त प्रगतिवादी तथा
प्रयागवादी काव्य की विशेषताएँ भी परिलक्षित होती हैं। इनके व्यक्तित्व के साथ-साथ इनकी लेखनी भी अत्यंत निराली है तथा इनका – साहित्य भी निराला है। इनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ अनलिखित हैं

(i) वैयक्तिकता-छायावादी कवियों के समान निराला के काव्य में वैयक्तिकता की सफल अभिव्यक्ति हुई है। ‘अपरा’ की अनेक
कविताओं में इन्होंने अपनी आंतरिक अनुभूतियों तथा व्यक्तिगत सुख-दुख को चित्रण किया है। जूही की कली, हिंदी के सुमनों के प्रति, मैं अकेला, राम की शक्ति पूजा, विफल वासना, स्नेह निर्झर बह गया है, सरोज स्मृति आदि अनेक कविताओं में इनकी व्यक्तिगत भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति हुई है। ‘सरोज स्मृति’ तो निराला जी के संपूर्ण जीवन का शोक गीत है। वे कहते हैं

दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज जो नहीं कहीं।

(ii) निराशा, वेदना, दुख एवं करुणा का चित्रण-निराशा, वेदना, दुख एवं करुणा छायावाद की प्रमुख विशेषताएँ हैं। छायावादी कवि वेदना एवं दुख को जीवन का सर्वस्व एवं उपकारक मानते हैं। निराला जी ने वेदना, करुणा एवं दुखवाद को कई प्रकार से चित्रित किया है। इसका मूल हेतु जीवन की निराशा है

दिए हैं मैंने जगत को फूल-फल।
किया है अपनी प्रभा से चकित-चल;
यह अनश्वर था सकल पल्लवित पल
ठाठ जीवन का वही जो ढह गया है।

(iii) प्रगतिवादी चेतना-निराला जी प्रगतिवादी चेतना से ओत-प्रोत कवि थे। इन्होंने अपने साहित्य में पूँजीपति वर्ग के प्रति आक्रोश ।
एवं दीन-हीन गरीब के प्रति सहानुभूति की भावना व्यक्त की है। कुकुरमुत्ता, वह तोड़ती पत्थर, भिक्षुक आदि ऐसी ही कविताएँ हैं, जिनमें कवि की प्रगतिवादी चेतना के दर्शन होते हैं। ‘भिक्षुक’ कविता में वे एक भिखारी की दयनीय करुण दशा का चित्रण करते हुए कहते हैं

वह आतादो
टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता
पेट-पीठ, दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठीभर दाने को भूख मिटाने को
मुँह-फटी पुरानी झोली को फैलाता
वह आता

(v) विद्रोह की भावना-निराला जी विद्रोही प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। यही विद्रोह इनके काव्य में भी अभिव्यक्त हुआ है। निराला जं.
अन्य छायावादी कवियों की अपेक्षा कहीं अधिक विद्रोही एवं स्वच्छंदता प्रेमी रहे थे। ये तो आजीवन संघर्ष ही करते रहे। इनकी बादल राग, कुकुरमुत्ता आदि अनेक कविताओं में विद्रोह की भावना अभिव्यक्त हुई है। ‘कुकुरमुत्ता’ में वे पूँजीपति वर्ग के प्रतीक गुलाब के प्रति विद्रोह करते हुए कहते हैं
अबे !
सुन बे, गुलाब
भूल मत गर पाई खुशबू रंगो आब;
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतराता है कैपिटेलिस्ट!

इतना ही नहीं बादल राग में वे क्रांति के प्रतीक बादलों का आह्वान करते हुए कहते हैं

तुझे बुलाता कृषक अधीर
ए विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार॥
हाड़-मात्र ही है आधार
ऐ जीवन के पारावार!

(v) प्रकृति-चित्रण-छायावादी कवियों का प्रकृति से अन्यतम संबंध रहा है। प्रकृति पर चेतना का आरोप तथा मानवीकरण करना
छायावाद की प्रमुख विशेषता रही है। निराला जी भी इससे अछूते नहीं हैं। इन्होंने भी प्रकृति पर चेतना का आरोप करके प्रकृति का अनूठा चित्रण किया है। बादल राग कविता में प्रकृति का मानवीकरण करते हुए कवि कहते हैं

हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार
शस्य अपार,
हिल-हिल
खिल-खिल,
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।’

निराला की दृष्टि में बादल प्रपात यमुना-सभी कुछ चेतना है। वे यमुना से पूछते हैं

तू किस विस्मृत की वीणा से, उठ-उठकर कातर झंकार।
उत्सुकता से उकता-उकता, खोल रही स्मृति के दृढ़ द्वार?

(vi) देश-प्रेम की भावना-निराला जी के हृदय में देश-प्रेम की उदात्त भावना भरी हुई थी। इनको अपने देश, समाज तथा संस्कृति से गहन प्रेम था। देश के सांस्कृतिक पतन को देखकर निराला जी अत्यंत दुखी हो जाते हैं। इन्होंने स्पष्ट कहा है कि हमारे देश के भाग्य के आकाश को विदेशी शासक रूपी राहू ने ग्रस लिया है। उनकी इच्छा है कि किसी भी तरह देश का भाग्योदय हो जिससे भारत का जन-जन आनंद विभोर हो उठे। भारती वंदना, जागो फिर एक बार, तुलसीदास, छत्रपति शिवाजी का पत्र, राम की शक्ति पूजा आदि ऐसी अनेक कविताओं से निराला जी की देशभक्ति की भावना अभिव्यक्त हुई है। जैसे

सोचो तुम,
उठती है, नग्न तलवार जब स्वतंत्रता की,
कितने ही भावों से
याद दिलाकर दुख दारुण परतंत्रता का
फूंकती स्वतंत्रता निजमंत्र से जब व्याकुल कान
कौन वह समेरू, जो रेणु-रेणु न हो जाए।”

निराला जी भारत की परतंत्रता को मिटाने के लिए भारत के प्रत्येक निवासी को युद्धभूमि में आने के लिए ललकारते हैं। ‘जागो फिर एक बार कविता’ में ऐसी ही ललकार है।
यह तेरी रण-तरी भरी आकांक्षाओं से, धन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर उर में पृथ्वी के, आशाओं से नवजीवन की; ऊँचा कर सिर, ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल!”

(vii) मानवतावादी जीवन-दर्शन-मानवता एक ऐसी विराट भावना है जिसमें सृष्टि के प्रत्येक प्राणी का हित-चिंतन किया जाता
है। रवींद्रनाथ टैगोर, टॉलस्टाय, महात्मा गांधी आदि महानुभावों ने मानव की वंदना की और इस प्रकार एक नवीन मानवतावादी जीवन-दर्शन का उदय और विकास हुआ। अन्य छायावादी कवियों की भाँति निराला के काव्य में भी इस मानवतावादी जीवन-दर्शन।
की अभिव्यक्ति हुई है। वह तोड़ती पत्थर, बादल राग, भिक्षुक आदि अनेक कविताओं में कवि की इसी भावना के दर्शन होते हैं। __ ‘बादल राग’ कविता में निराला जी कहते हैं

विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
अट्टालिका नहीं है हे, आतंक भवन।”

(viii) रहस्यवादी भावना-छायावाद के अन्य कवियों की भाँति निराला के साहित्य में रहस्यवादी भावना का चित्रण हुआ है। इन्होंने
अपनी इस भावना को जिज्ञासा तथा कौतूहल के रूप में अभिव्यक्त किया है। तुम और मैं, यमुना के प्रति आदि कविताओं में निराला की रहस्य-भावना स्पष्ट झलकती है, जैसे

लहरों पर लहरों का चंचल नाच, याद नहीं था करना इसकी जाँच।
अगर पूछता कोई तो वह कहती, उसी तरह हँसती पागल हँसी होती
जब जीवन की प्रथम उमंग, जा रही मैं मिलने के लिए।”

(ix) नारी के विविध एवं नवीन रूपों का चित्रण-छायावादी कवियों की नारी के प्रति सम्मानजनक भावना है। इन्होंने बदलती।
परिस्थितियों में नारी को विविध रूपों में देखा है। नारी के प्रति इनके हृदय में गहन सहानुभूति है। कहीं वह जीवन की सहचरी एवं प्रेयसी है और कहीं प्रकृति में व्याप्त होकर अलौकिक भावों से अभिभूत करती हुई दिखाई देती है। कवि कहीं नारी के दिव्य दर्शन । की झलक पाते हैं और कहीं नारी को लक्ष्य करके प्रेमोन्माद की अस्फुट मनोवृत्ति का चित्रण करते हैं। निराला जी के साहित्य में भी नारी के इन्हीं विविध रूपों का चित्रण हुआ है। इनकी ‘अपरा’ की कई कविताओं में नारी के विविध रूपों का चित्रण मिलता है। वह प्रेयसी भी है और प्रेरणा शक्ति भी है। समस्त प्रकृति उसी का स्वरूप है। ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता में निराला जी एक। नारी के प्रति अपार सहानुभूति प्रकट करते हैं

वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर।
वह तोड़ती पत्थर॥

(x) नवीन मुक्तक छंद का प्रयोग-निराला जी मुक्तक छंद के प्रणेता हैं। हिंदी-साहित्य को यह इनकी अद्वितीय देन है। निराला जी ने सदियों से चली आ रही परंपरा को तोड़कर मुक्तक छंद में काव्य-रचना की। निराला के अनुसार मनुष्य की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग होना। निराला जी ने मुक्तक छंद का निर्भयतापूर्वक प्रयोग किया है। इसके बाद साहित्य में इसी छंद का प्रचलन हो गया है। जुही की कली, पंचवटी प्रसंग, छत्रपति शिवाजी का पत्र, । जागो फिर एक बार आदि मुक्तक छंद की प्रसिद्ध कविताएँ हैं।

(xi) भाषा-शैली-निराला जी ने हिंदी-साहित्य को नवीन भाव, नवीन भाषा और नवीन मुक्तक छंद प्रदान किए हैं। इन्होंने अपने बुद्धि-कौशल के बल पर हिंदी को अनेक उपहार भेंट किए हैं। जो प्रखरता और विद्रोह उनके व्यक्तित्व में था वही प्रखरता और विद्रोह उनकी भाषा में भी दृष्टिगोचर होता है। निराला जी ने अपने साहित्य में शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया है । जिसमें तत्सम, तद्भव, विदेशी आदि भाषाओं के शब्दों का मेल है। कोमल कल्पना के अनुरूप इन्होंने कोमलकांत पदावली का प्रयोग किया है। कोमलता, संगीतात्मकता, शब्दों की मधुर योजना, भाषा का लाक्षणिक प्रयोग, चित्रात्मकता आदि इनकी भाषा की विशेषताएँ हैं।

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Chapter 6 उषा | class 12th | Quick Revision Notes Hindi Aroh

Chapter 6 उषा Summary Notes Class 12 Hindi Aroh

उषा कविता का सारांश

कवि ने ‘उषा’ कविता में सुबह-सवेरे सूर्य के निकलने से पहले को प्राकृतिक शोभा का सुंदर चित्रण किया है। आकाश का गहरा नीलापन सफ़ेद शंख के समान दिखाई देने लगता है। आकाश का रंग ऐसा लगता है जैसे किसी गृहिणी ने राख से चौका लीप-पोत दिया हो जो अभी गीला है। उसका रंग गहरा है। जैसे ही सूर्य कुछ ऊँचा उठता है और उसकी लाली फैलती है तो ऐसे प्रतीत होने लगता है जैसे केसर से युक्त काली सिल को किसी ने धो दिया है या उसपर लाल खड़िया चाक मल दी हो। नीले आकाश में सूर्य ऐसे शोभा देने लगता है जैसे कोई सुंदरी नीले जल से बाहर आती हुई रह-रहकर अपने गोरेपन की आभा बिखेर रही हो। जब सूर्य पूर्व दिशा में दिखाई देने लगता है तो उसका जादुई प्रभाव समाप्त हो जाता है।

उषा कवि परिचय

जीवन-परिचय-शमशेर बहादुर सिंह हिंदी-साहित्य की नई कविता के प्रमुख कवि माने जाते हैं। इनका ० अज्ञेय के तार सप्तक में महत्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म13 जनवरी, सन 1911 ई० को उत्तराखंड 0 के देहरादून जिले के एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा देहरादून के एक स्कूल में हुई। हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा गोंडा से प्राप्त की। इन्होंने बी० ए० तथा एम० ए० पूर्वाद्ध की उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रहण की। इनकी प्रारंभ से ही चित्रकला में अधिक रुचि थी जिसका प्रयोग इन्होंने अपनी रचनाओं में किया है। इन्होंने दो वर्ष तक सुमित्रानंदन पंत के ‘रूपाभ पत्र’ में कार्य किया।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 5 Summary सहर्ष स्वीकारा है 

इसके बाद ये ‘कहानी’ और ‘नया साहित्य’ आदि पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मंडल में रहे। ये दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में कोश से संबंधित कार्य भी करते रहे। तत्पश्चात विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में ‘प्रेमचंद सृजन’ पीठ के अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे। सन 1977 ई० में ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ काव्य-संग्रह पर इन्हें ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से अलंकृत किया गया। इन्हें साहित्य की उत्कृष्टता के लिए ‘कबीर सम्मान’ सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया।

अंततः सन 1993 ई० में दिल्ली में ये अपना महान साहित्य-हिंदी जगत को सौंपकर चिरनिद्रा में लीन हो गए। प्रमुख रचनाएँ-शमशेर बहादुर सिंह हिंदी साहित्य के एक श्रेष्ठ प्रगतिशील कवि माने जाते हैं। इन्होंने अनेक विधाओं पर सफल लेखनीचलाई है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

(i) काव्य-संग्रह-चुका भी हूँ नहीं मैं, कुछ कविताएँ, कुछ और कविताएँ इतने पास अपने, बात बोलेगी, काल तुमसे होड़ है मेरी।
(ii) संपादन-उर्दू-हिंदी कोश।।
(iii) निबंध-संग्रह-दोआब।
(iv) कहानी-संग्रह-प्लाट का मोर्चा।

साहित्यिक विशेषताएँ-शमशेर जी हिंदी के सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि हैं। बौद्धिक स्तर पर इन पर मार्क्सवादी विचारों का गहन । प्रभाव है। ये विचारों के स्तर पर प्रगतिशील तथा शिल्प के स्तर पर प्रयोगधर्मी कवि हैं। इनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित

(i) गरीबी का सजीव चित्रण-शमशेर जी ने अपने काव्य में समाज में फैली गरीबी का सजीव चित्रण किया है। गरीबी के कारण समाज की दयनीय दशा के प्रति इन्होंने गहन चिंता व्यक्त की है। गरीबी रूपी दानव ने संपूर्ण समाज को घेर लिया है जिसके कारण जनता बुद्धिहीन हो गई। इन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से बताया है कि समाज में घर-घर मजदूरी करनेवाले मजदूरों की दुर्दशा त्रासदपूर्ण है। घर-घर मजदूरी करनेवाले मजदूर का पूरा परिवार घर-घर मजदूरी करने पर मजबूर है। कवि ने समाज में बढ़ रही इस त्रासदी पर गहन चिंता व्यक्त की है।

दैन्य दानव; काल
भीषण; कर स्थिति; कंगाल
बुद्धि घर मजूर।
दैन्य दानव, कृर स्थिति।
कंगाल बुद्धि; मजूर घर भर।

(ii) देशभक्ति की भावना-शमशेर हिंदी साहित्य के एक सजग साहित्यकार थे। इनके हृदय में अपने देश के प्रति गहन प्रेम था। इन्होंने अपने काव्य में अपने देश तथा संस्कृति का अनूठा चित्रण किया है। इनकी अनेक कविताएँ भारतीय जनता को स्वतंत्रता के प्रति जागृत करने का आह्वान करती हैं। कवि ने भारतीय जनता को अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए एकजुट रहने का संदेश दिया है। वे कहते हैं, हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए एकता की भावना को बनाए रखना चाहिए। इनकी अनेक कविताएँ ऐसे ही भारतीय जनता का आहवान करती प्रतीत होती हैं

एक जनता का-अमर वर
एकता का स्वर।
अन्यथा स्वातंत्र्य इति।

(iii) सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण-शमशेर जी यथार्थवादी भावना से ओत-प्रोत कवि माने जाते हैं। इन्होंने अपने काव्य में |
यथार्थ की भावभूमि का सहारा लेकर वर्णन किया है। यही कारण है कि इनकी कविताओं में समकालीन समाज के जन-जीवन का यथार्थ चित्रण मिलता है। इन्होंने समाज की उठा-पटक, ईष्या-द्वेष, ग़रीबी, लाचारी, शोषण आदि की यथार्थ अभिव्यंजना की है। इनका एक यथार्थवादी चित्र द्रष्टव्य है

सींग और नाखून
लोहे के बख्तर कंधों पर।
सीने में सुराख हड्डी का।
आँखों में घास काई की नमी।
एक मुस्दा हाथ
पाँव पर टिका
उलटी कलम थामे
तीन तसलों में कमर का घाव सड़ चुका है
जड़ों का भी कड़ा जाल
हो चुका पत्थर।

(iv) प्रगतिवादी चेतना-शमशेर जी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित कवि हैं। इसलिए इनके साहित्य में प्रगतिवादी चेतना का प्रतिपादन भी हुआ है। इनकी अनेक कविताओं पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का गहन प्रभाव दिखाई देता है। इन्होंने अपने साहित्य में शोषक | वर्ग की खुलकर निंदा की है तथा शोषित समाज के प्रति विशेष सहानुभूति प्रकट की है। इन्होंने शोषण का शिकार झेल रहे। दीन-हीन समाज के प्रति गहरी संवेदना अभिव्यक्त की है।

(v) प्रकृति चित्रण-शमशेर जी का मन प्रकृति-वर्णन में खूब रमा है। इनका जन्म ही प्रकृति के आँचल में हुआ था। अतः प्रकृति से | इनका बचपन से लगाव था। इन्होंने प्रकृति-सौंदर्य को बहुत नजदीक से देखा है इसीलिए इनके काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का अनूठा | चित्रण हुआ है। इन्होंने अनेक कविताओं में प्रकृति में अनेक सुंदर और मनोहारी चित्र बिखरे हैं। चित्रकला में विशेष रुचि होने | के कारण इनके प्राकृतिक चित्र अत्यंत सजीव बन पड़े हैं। इन्होंने अनेक कविताओं में बाग-बगीचों, पहाड़ों, झरनों और नदियों के सुंदर-सुंदर बिंब प्रस्तुत किए हैं’उषा’ कविता में कवि ने प्रात:कालीन वातावरण का सजीव चित्रण किया है

प्रातः नभ था-बहुन नीला, शंख जैसे
भोर का नभ,
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है।)
बहुत काली सिल
जग से लाल केसर मे
कि जैसे धुल गई हो।
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने।

(vi) रहस्यवादी भावना-शमशेर जी एक प्रयोगधर्मी कवि हैं, अतः इन्होंने अपने साहित्य में अनेक नए-नए प्रयोग किए हैं। कहीं-कहीं। इनके ऊपर छायावाद का प्रभाव दिखाई देता है। इनके ‘राग’ नामक संग्रह में इनकी रहस्यवादी भावना का चित्रांकन हुआ है। ‘बात बोलेगी’ कविता के माध्यम से इन्होंने वस्तुनिष्ठ सत्य की वकालत की है तथा सत्य क्या है; दुःख क्या है; विडंबना क्या है आदि अनेक रहस्यों का उद्घाटन भी किया है। जैसे

बात बोलेगी;
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें
सत्य का रुख;
समय का रुख है:
अभय जनता को
सत्य ही सुख है,
सत्य ही सुख।

(vii) भाषा-शैली-शमशेर जी कविताएँ जहाँ एक ओर अत्यंत बोधगम्य तथा सरल हैं तो दूसरी ओर नितांत जटिल भी हैं। कवि पर। उर्दू शायरी का भी प्रभाव देखा जा सकता है जिसके कारण उन्होंने संज्ञा और विशेषण से अधिक सर्वनामों, क्रियाओं, अव्ययों और मुहावरों पर बल दिया है। शमशेर जी की प्रवृत्ति सदा ही वस्तुपरकता को उसके मार्मिक रूप में ग्रहण करने की रही है, इसीलिए उनकी काव्य-अनुभूति बिंब ही नहीं बल्कि बिंबलोक की है।

इनके काव्य में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद तथा नई कविता के तत्व घुल-मिलकर इनके भाव और भाषा को उजला रूप प्रदान करते हैं। चित्रकला, संगीत और कविता इनकी सर्जनात्मकता को नया रंग देते हैं। इनकी भाषा सरल, सुबोध, साहित्यिक खड़ी बोली है जिसमें तत्सम, तद्भव, अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं की। शब्दावली का प्रयोग हुआ है। इनकी शैली भावपूर्ण है। इसके साथ-साथ चित्रात्मक, वर्णनात्मक शैलियों का प्रयोग भी किया है। मुहावरों के प्रयोग से इनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है।

(viii) अलंकार, छंद और बिंब-शमशेर जी के काव्य में शब्द और अर्थ दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया गया है। इन्होंने अपनी कविताओं में अनुप्रास, यमक, श्लेष, पदमैत्री, मानवीकरण, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है। उत्प्रेक्षा अलंकार का उदाहरण द्रष्टव्य है

नील जल में या
किसी की गौर, सिलमिल देह जैसे
हिल रही हो।
और —
जादू टूटता है उस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।

इन्होंने अपने काव्य के लिए मुक्तक छंद का प्रयोग किया है। इनकी बिंब-योजना अत्यंत सार्थक एवं सटीक है। इनके शब्द-चित्र अत्यंत सजीव हैं।

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