अनुच्छेद लेखन class 12th Hindi कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन notes

Class 12 Hindi अनुच्छेद लेखन

हिंदी साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधाओं में एक है-अनुच्छेद लेखन। यह अपने मन के भाव-विचार अभिव्यक्त करने की विशिष्ट विधा है जिसके माध्यम से हम संबंधित विचारों को ‘गागर में सागर’ की तरह व्यक्त करते हैं। अनुच्छेद निबंध की तुलना में आकार में छोटा होता है, पर यह अपने में पूर्णता समाहित किए रहता है। इस विधा में बात को घुमा-फिराकर कहने के बजाए सीधे-सीधे मुख्य बिंदु पर आ जाते हैं। इसमें भूमिका और उपसंहार दोनों को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता है। इसी तरह कहावतों, सूक्तियों और अनावश्यक बातों से भी बचने का प्रयास किया जाता है। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनावश्यक बातों को छोड़ते-छोड़ते हम मुख्य अंश को ही न छोड़ जाए और विषय आधा-अधूरा-सा लगने लगे।

अनुच्छेद लेखन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –

  • विषय का आरंभ मुख्य विषय से करना चाहिए।
  • वाक्य छोटे-छोटे, सरल तथा परस्पर संबद्ध होने चाहिए।
  • भाषा में जटिलता नहीं होनी चाहिए।
  • पुनरुक्ति दोष से बचने का प्रयास करना चाहिए।
  • विषय के संबंध में क्या, क्यों, कैसे प्रश्नों के उत्तर इसी क्रम में देकर लिखने का प्रयास करना चाहिए।

निबंध की भाँति ही अनुच्छेदों को मुख्यतया चार भागों में विभाजित कर सकते हैं –

  1. वर्णनात्मक अनुच्छेद
  2. भावात्मक अनुच्छेद
  3. विचारात्मक अनुच्छेद
  4. विवरणात्मक अनुच्छेद

उदाहरण

मिट्टी तेरे रूप अनेक

संकेत बिंदु –

  • सामान्य धारणा
  • कल्याणकारी रूप
  • मानव शरीर की रचना के लिए आवश्यक
  • बच्चों के लिए मिट्टी।
  • जीवन का आधार

प्रायः जब किसी वस्तु को अत्यंत तुच्छ बताना होता है तो लोग कह उठते हैं कि यह तो मिट्टी के भाव मिल जाएगी। लोगों की धारणा मिट्टी के प्रति भले ही ऐसी हो परंतु तनिक-सी गहराई से विचार करने पर यह धारणा गलत साबित हो जाती है। समस्त जीवधारियों यहाँ तक पेड़-पौधों को भी यही मिट्टी शरण देती है। आध्यात्मवादियों का तो यहाँ तक मानना है कि मानव शरीर निर्माण के लिए जिन तत्वों का प्रयोग हुआ है उनमें मिट्टी भी एक है।

जब तक शरीर ज़िंदा रहता है तब तक मिट्टी उसे शांति और चैन देती है और फिर मृत शरीर को अपनी गोद में समाहित कर लेती है। पृथ्वी पर जीवन का आधार यही मिट्टी है, जिसमें नाना प्रकार के फल, फ़सल और अन्य खाद्य वस्तुएँ पैदा होती हैं, जिसे खाकर मनुष्य एवं अन्य प्राणी जीवित एवं हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। यह मिट्टी कीड़े-मकोड़े और छोटे जीवों का घर भी है। यह मिट्टी विविध रूपों में मनुष्य और अन्य जीवों का कल्याण करती है। विभिन्न देवालयों को नवजीवन से भरकर कल्याणकारी रूप दिखाती है। मिट्टी का बच्चों से तो अटूट संबंध है। इसी मिट्टी में लोटकर, खेल-कूदकर वे बड़े होते हैं और बलिष्ठ बनते हैं। मिट्टी के खिलौनों से खेलकर वे अपना मनोरंजन करते हैं। वास्तव में मिट्टी हमारे लिए विविध रूपों में नाना ढंग से उपयोगी है।

आज की आवश्यकता-संयुक्त परिवार

संकेत बिंदु –

  • एकल परिवार का बढ़ता चलन
  • एकल परिवार और वर्तमान समाज
  • संयुक्त परिवार की
  • आवश्यकता
  • बुजुर्गों की देखभाल
  • एकाकीपन को जगह नहीं।

समय सतत परिवर्तनशील है। इसका उदाहरण है-प्राचीनकाल से चली आ रही संयुक्त परिवार की परिपाटी का टूटना और एकल परिवार का चलन बढ़ते जाना। शहरीकरण, बढ़ती महँगाई, नौकरी की चाहत, उच्च शिक्षा, विदेशों में बसने की प्रवृत्ति के कारण एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके अलावा बढ़ती स्वार्थ वृत्ति भी बराबर की जिम्मेदार है। इन एकल परिवारों के कारण आज बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, माता-पिता के लिए दुष्कर होता जाता है। जिस एकल परिवार में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते हों, वहाँ यह और भी दुष्कर बन जाता है। आज समाज में बढ़ते क्रेच और उनमें पलते बच्चे इसका जीता जागता उदाहरण हैं।

प्राचीनकाल में यह काम संयुक्त परिवार में दादा-दादी, चाचा-चाची, ताई-बुआ इतनी सरलता से कर देती थी कि बच्चे कब बड़े हो गए पता ही नहीं चल पाता था। संयुक्त परिवार हर काल में समाज की ज़रूरत थे और रहेंगे। भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार और भी महत्त्वपूर्ण हैं। बच्चों और युवा पीढ़ी को रिश्तों का ज्ञान संयुक्त परिवार में ही हो पाता है। यही सामूहिकता की भावना, मिल-जुलकर काम करने की भावना पनपती और फलती-फूलती है।

एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आने की भावना संयुक्त परिवार में ही पनपती है। संयुक्त परिवार बुजुर्गं सदस्यों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। परिवार के अन्य सदस्य उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं जिससे उन्हें बुढ़ापा कष्टकारी नहीं लगता है। संयुक्त परिवार व्यक्ति को अकेलेपन का शिकार नहीं होने देते हैं। आपसी सुख-दुख बाँटने, हँसी-मजाक करने के साथी संयुक्त परिवार स्वत: उपलब्ध कराते हैं। इससे लोग स्वस्थ, प्रसन्न और हँसमुख रहते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग-मनुष्यता के लिए खतरा

संकेत बिंदु –

  • ग्लोबल वार्मिंग क्या है?
  • समस्या का समाधान।
  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण
  • ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव

गत एक दशक में जिस समस्या ने मनुष्य का ध्यान अपनी ओर खींचा है, वह है-ग्लोबल वार्मिंग। ग्लोबल वार्मिंग का सीधा-सा अर्थ है है-धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि। यद्यपि यह समस्या विकसित देशों के कारण बढ़ी है परंतु इसका नुकसान सारी धरती को भुगतना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारणों के मूल हैं—मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताएँ और उसकी स्वार्थवृत्ति।

मनुष्य प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में शामिल होकर पर्यावरण को अंधाधुंध क्षति पहँचा रहा है। कल-कारखानों की स्थापना, नई बस्तियों को बसाने, सड़कों को चौड़ा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की गई है। इससे पर्यावरण को दोतरफा नुकसान हुआ है तो इन गैसों को अपनाने वाले पेड़-पौधों की कमी से आक्सीजन, वर्षा की मात्रा और हरियाली में कमी आई है। इस कारण वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक ओर धरती की सुरक्षा कवच ओजोन में छेद हुआ है तो दूसरी ओर पर्यावरण असंतुलित हुआ है। असमय वर्षा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सरदी-गरमी की ऋतुओं में भारी बदलाव आना ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रभाव है। इससे ध्रुवों पर जमी बरफ़ पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है जिससे एक दिन प्राणियों के विनाश का खतरा होगा, अधिकाधिक पौधे लगाकर उनकी देख-भाल करनी चाहिए तथा प्रकृति से छेड़छाड़ बंद कर देना चाहिए। इसके अलावा जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करना होगा। आइए इसे आज से शुरू कर देते हैं, क्योंकि कल तक तो बड़ी देर हो जाएगी।

नर हो न निराश करो मन को

संकेत बिंदु –

  • आत्मविश्वास और सफलता
  • आशा से संघर्ष में विजय
  • कुछ भी असंभव नहीं
  • महापुरुषों की सफलता का आधार।

मानव जीवन को संग्राम की संज्ञा से विभूषित किया है। इस जीवन संग्राम में उसे कभी सुख मिलता है तो कभी दुख। सुख मन में आशा एवं प्रसन्नता का संचार करते हैं तो दुख उसे निराशा एवं शोक के सागर में डुबो देते हैं। इसी समय व्यक्ति के आत्मविश्वास की परीक्षा होती है। जो व्यक्ति इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना विश्वास नहीं खोता है और आशावादी बनकर संघर्ष करता है वही सफलता प्राप्त करता है। आत्मविश्वास के बिना सफलता की कामना करना दिवास्वप्न देखने के समान है।

मनुष्य के मन में यदि आशावादिता नहीं है और वह निराश मन से संघर्ष करता भी है तो उसकी सफलता में संदेह बना रहता है। कहा भी गया है कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। मन में जीत के प्रति हमेशा आशावादी बने रहना जीत का आधार बन जाता है। यदि मन में आशा संघर्ष करने की इच्छा और कर्मठता हो तो मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी उसी प्रकार विजय प्राप्त करता है जैसा नेपोलियन बोनापार्ट ने।

इसी प्रकार निराशा, काम में हमें मन नहीं लगाने देती है और आधे-अधूरे मन से किया गया कार्य कभी सफल नहीं होता है। संसार के महापुरुषों ने आत्मविश्वास, दृढनिश्चय, संघर्षशीलता के बल पर आशावादी बनकर सफलता प्राप्त की। अब्राहम लिंकन हों या एडिसन, महात्मा गांधी हों या सरदार पटेल सभी ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशावान रहे और अपना-अपना लक्ष्य पाने में सफल रहे। सैनिकों के मन में यदि एक पल के लिए भी निराशा का भाव आ जाए तो देश को गुलाम बनने में देर न लगेगी। मनुष्य को सफलता पाने के लिए सदैव आशावादी बने रहना चाहिए।

सबको भाए मधुर वाणी

संकेत बिंदु –

  • मधुर वाणी सबको प्रिय
  • मधुर वाणी एक औषधि
  • मधुरवाणी का प्रभाव
  • मधुर वाणी की प्रासंगिकता।

मधुर वाणी की महत्ता प्रकट करने वाला एक दोहा है –

कोयल काको दुख हरे, कागा काको देय।
मीठे वचन सुनाए के, जग अपनो करि लेय।।

यूँ तो कोयल और कौआ दोनों ही देखने में एक-से होते हैं परंतु वाणी के कारण दोनों में जमीन आसमान का अंतर हो जाता है। दोनों पक्षी किसी को न कुछ देते हैं और न कुछ लेते हैं परंतु कोयल मधुर वाणी से जग को अपना बना लेती है और कौआ अपनी कर्कश वाणी के कारण भगाया जाता है। कोयल की मधुर वाणी कर्ण प्रिय लगती है और उसे सब सुनने को इच्छुक रहते हैं। यही स्थिति समाज की है। समाज में वे लोग सभी के प्रिय बन जाते हैं जो मधुर बोलते हैं जबकि कटु बोलने वालों से सभी बचकर रहना चाहते हैं।

मधुर वाणी औषधि के समान होती है जो सुनने वालों के तन और मन को शीतलकर देती है। इससे लोगों को सुखानुभूति होती है। इसके विपरीत कटुवाणी उस तीखे तीर की भाँति होती है जो कानों के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश करती है और पूरे शरीर को कष्ट पहुँचाती है। कड़वी बोली जहाँ लोगों को ज़ख्म देती है वहीं मधुर वाणी वर्षों से हुए मन के घाव को भर देती है। मधुर वाणी किसी वरदान के समान होती है जो सुनने वाले को मित्र बना देती है। मधुर वाणी सुनकर शत्रु भी अपनी शत्रुता खो बैठते हैं।

इसके अलावा जो मधुर वाणी बोलते हैं उन्हें खुद को संतुष्टि और सुख की अनुभूति होती है। इससे व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावी एवं आकर्षक बन जाता है। इससे व्यक्ति के बिगड़े काम तक बन जाते हैं। कोई भी काल रहा हो मधुर वाणी का अपना विशेष महत्त्व रहा है। इस भागमभाग की जिंदगी में जब व्यक्ति कार्य के बोझ, दिखावा और भौतिक सुखों को एकत्रकर पाने की होड़ में तनावग्रस्त होता जा रहा है तब मधुर वाणी का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। हमें सदैव मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए।

बच्चों की शिक्षा में माता-पिता की भूमिका

संकेत बिंदु –

  • शिक्षा और माता-पिता
  • शिक्षा की महत्ता
  • उत्तरदायित्व
  • शिक्षाविहीन नर पशु समान।

संस्कृत में एक श्लोक है –

माता शत्रु पिता वैरी, येन न बालो पाठिता।
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये वको यथा।।

अर्थात वे माता-पिता बच्चे के लिए शत्रु के समान होते हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं देते। ये बच्चे शिक्षितों की सभा में उसी तरह होते हैं जैसे हंसों के बीच बगुला। एक बच्चे के लिए परिवार प्रथम पाठशाला होती है और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक। माता-पिता यहाँ अभी अपनी भूमिका का उचित निर्वाह तो करते हैं पर जब बच्चा विद्यालय जाने लायक होता है तब कुछ मातापिता उनके शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान नहीं देते हैं और अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। ऐसे में बालक जीवन भर के लिए निरक्षर हो जाता है। मानव जीवन में शिक्षा की विशेष महत्ता एवं उपयोगिता है। शिक्षा के बिना जीवन अंधकारमय हो जाता है।

कभी वह साहूकारों के चंगुल में फँसता है तो कभी लोभी दुकानदारों के। उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। वह समाचार पत्र, पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि का लाभ नहीं उठा पाता है। उसे कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ऐसे में माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ ही उनकी शिक्षा की भली प्रकार व्यवस्था करें। कहा गया है कि विद्याविहीन नर की स्थिति पशुओं जैसी होती है, बस वह घास नहीं खाता है। शिक्षा से ही मानव सभ्य इनसान बनता है। हमें भूलकर भी शिक्षा से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।

जीवन में सरसता लाते त्योहार

संकेत बिंदु –

  • त्योहारों का देश भारत
  • नीरसता भगाते त्योहार
  • त्योहारों के लाभ
  • त्योहारों पर महँगाई का असर।

भारतवासी त्योहार प्रिय होते हैं। यहाँ त्योहार ऋतुओं और भारतीय महीनों के आधार पर मनाए जाते हैं। साल के बारह महीनों में शायद ही कोई ऐसा महीना हो जब त्योहार न मनाया जाता हो। चैत महीने में राम नवमी मनाने से त्योहारों का जो सिलसिला शुरू होता है, वह बैसाखी, गंगा दशहरा मनाने के क्रम में नाग पंचमी, तीज, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, दशहरा, दीपावली, क्रिसमस, लोहिड़ी से आगे बढ़कर वसंत पंचमी तथा होली पर ही आकर रुकती है। इसी बीच पोंगल, ईद जैसे त्योहार भी अपने समय पर मनाए जाते हैं।

त्योहार थके हारे मनुष्य के मन में उत्साह का संचार करते हैं और खुशी एवं उल्लास से भर देते हैं। वे लोगों को बँधी-बँधाई जिंदगी को अलग ही ढर्रे पर ले जाते हैं। इससे जीवन की ऊब एवं नीरसता गायब हो जाती है। त्योहार मनुष्य को मेल-मिलाप का अवसर देते हैं। इससे लोगों के बीच की कटुता दूर होती है। त्योहार लोगों में सहयोग और मिल-जुलकर कर रहने की प्रेरणा देते हैं। एकता बढ़ाने में त्योहारों का विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय में त्योहार अपना स्वरूप खोते जा रहे हैं। इनको महँगाई ने बुरी तरह से प्रभावित किया है। इसके अलावा त्योहारों पर बाज़ार का असर पड़ा है। अब प्रायः बाज़ार में बिकने वाले सामानों की मदद से त्योहारों को जैसे-तैसे मना लिया जाता है। इसका कारण लोगों की व्यस्तता और समय की कमी है। त्योहार हमारी संस्कृति के अंग हैं। हमें त्योहारों को मिल-जुलकर हर्षोल्लास से मनाना चाहिए।

जीना मुश्किल करती महँगाई
अथवा
दिनोंदिन बढ़ती महँगाई

संकेत बिंदु –

  • महँगाई और आम आदमी पर प्रभाव
  • कारण
  • महँगाई रोकने के उपाय
  • सरकार के कर्तव्य।

महँगाई उस समस्या का नाम है, जो कभी थमने का नाम नहीं लेती है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के साथ ही गरीब वर्ग को जिस समस्या ने सबसे ज़्यादा त्रस्त किया है वह महँगाई ही है। समय बीतने के साथ ही वस्तुओं का मूल्य निरंतर बढ़ते जाना महँगाई कहलाता है। इसके कारण वस्तुएँ आम आदमी की क्रयशक्ति से बाहर होती जाती हैं और ऐसा व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ तक पूरा नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति में कई बार व्यक्ति को भूखे पेट सोना पड़ता है।

महँगाई के कारणों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसे बढ़ाने में मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही कारण जिम्मेदार हैं। मानवीय कारणों में लोगों की स्वार्थवृत्ति, लालच अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति, जमाखोरी और असंतोष की भावना है। इसके अलावा त्याग जैसे मानवीय मूल्यों की कमी भी इसे बढ़ाने में आग में घी का काम करती है। सूखा, बाढ़ असमय वर्षा, आँधी, तूफ़ान, ओलावृष्टि के कारण जब फ़सलें खराब होती हैं तो उसका असर उत्पादन पर पड़ता है।

इससे एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति पैदा होती है और महँगाई बढ़ती है। महँगाई रोकने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों का उदय होना आवश्यक है ताकि वे अपनी आवश्यकतानुसार ही वस्तुएँ खरीदें। इसे रोकने के लिए जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाना आवश्यक है। महँगाई रोकने के लिए सरकारी प्रयास भी अत्यावश्यक है। सरकार को चाहिए कि वह आयात-निर्यात नीति की समीक्षा करे तथा जमाखोरों पर कड़ी कार्यवाही करें और आवश्यक वस्तुओं का वितरण रियायती मूल्य पर सरकारी दुकानों के माध्यम से करें।

समाचार-पत्र एक : लाभ अनेक
अथवा
समाचार-पत्र : ज्ञान और मनोरंजन का साधन

संकेत बिंदु –

  • जिज्ञासा पूर्ति का सस्ता एवं सुलभ साधन
  • रोज़गार का साधन
  • समाचार पत्रों के प्रकार
  • जानकारी के साधन।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अपने समाज और आसपास के अलावा देश-दुनिया की जानकारी के लिए जिज्ञासु रहता है। उसकी इस जिज्ञासा की पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है-समाचार-पत्र, जिसमें देश-विदेश तक के समाचार आवश्यक चित्रों के साथ छपे होते हैं। सुबह हुई नहीं कि शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में समाचार पत्र विक्रेता घर-घर तक इनको पहुँचाने में जुट जाते हैं। कुछ लोग तो सोए होते हैं और समाचार-पत्र दरवाज़े पर आ चुका होता है। अब समाचार पत्र अत्यंत सस्ता और सर्वसुलभ बन गया है।

समाचार पत्रों के कारण लाखों लोगों को रोजगार मिला है। इनकी छपाई, ढुलाई, लादने-उतारने में लाखों लगे रहते हैं तो एजेंट, हॉकर और दुकानदार भी इनसे अपनी जीविका चला रहे हैं। इतना ही नहीं पुराने समाचार पत्रों से लिफ़ाफ़े बनाकर एक वर्ग अपनी आजीविका चलाता है। छपने की अवधि पर समाचार पत्र कई प्रकार के होते हैं।

प्रतिदिन छपने वाले समाचार पत्रों को दैनिक, सप्ताह में एक बार छपने वाले समाचार पत्रों को साप्ताहिक, पंद्रह दिन में छपने वाले समाचार पत्र को पाक्षिक तथा माह में एक बार छपने वाले को मासिक समाचार पत्र कहते हैं। अब तो कुछ शहरों में शाम को भी समाचार पत्र छापे जाने लगे हैं। समाचार पत्र हमें देशदुनिया के समाचारों, खेल की जानकारी मौसम तथा बाज़ार संबंधी जानकारियों के अलावा इसमें छपे विज्ञापन भी भाँति-भाँति की जानकारी देते हैं।

सबसे प्यारा देश हमारा
अथवा
विश्व की शान-भारत

संकेत बिंदु –

  • भौगोलिक स्थिति
  • प्राकृतिक सौंदर्य
  • विविधता में एकता की भावना
  • अत्यंत प्राचीन संस्कृति।

सौभाग्य से दुनिया के जिस भू-भाग पर मुझे जन्म लेने का अवसर मिला दुनिया उसे भारत के नाम से जानती है। हमारा देश एशिया महाद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित है। यह देश तीन ओर समुद्र से घिरा है। इसके उत्तर में पर्वतराज हिमालय हैं, जिसके चरण सागर पखारता है। इसके पश्चिम में अरब सागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी है। चीन, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि इसके पड़ोसी देश हैं। हमारे देश का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। हिमालय की बरफ़ से ढंकी सफ़ेद चोटियाँ भारत के सिर पर रखे मुकुट में जड़े हीरे-सी प्रतीत होती हैं। यहाँ बहने वाली गंगा-यमुना, घाघरा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ इसके सीने पर धवल हार जैसी लगती हैं।

चारों ओर लहराती हरी-भरी फ़सलें और वृक्ष इसका परिधान प्रतीत होते हैं। यहाँ के जंगलों में हरियाली का साम्राज्य है। भारत में नाना प्रकार की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यहाँ विभिन्न जाति-धर्म के अनेक भाषा-भाषी रहते है। यहाँ के परिधान, त्योहार मनाने के ढंग और खान-पान व रहन-सहन में खूब विविधता मिलती है। यहाँ की जलवायु में भी विविधता का बोलबाला है, फिर भी इस विविधता के मूल में एकता छिपी है। देश पर कोई संकट आते ही सभी भारतीय एकजुट हो जाते हैं।

हमारे देश की संस्कृति अत्यंत प्राचीन और समृद्धिशाली है। परस्पर एकता, प्रेम, सहयोग और सहभाव से रहना भारतीयों की विशेषता रही है। ‘अतिथि देवो भवः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना भारतीय संस्कृति का आधार है। हमारा देश भारत विश्व की शान है जो अपनी अलग पहचान रखता है। हमें अपने देश पर गर्व है।

सुरक्षा का आवरण : ओजोन
अथवा
पृथ्वी का रक्षक : अदृश्य ओजोन

संकेत बिंदु –

  • ओजोन परत क्या है?
  • मनुष्य की प्रगति और ओजोन परत
  • ओजोन नष्ट होने का कारण
  • ओजोन बचाएँ जीवन बचाएँ।

मनुष्य और प्रकृति का अनादिकाल से रिश्ता है। प्रकृति ने मनुष्य की सुरक्षा के लिए अनेक साधन प्रदान किए हैं। इनमें से एक है-ओजोन की परत। पृथ्वी पर जीवन के लिए जो भी अनुकूल परिस्थितियाँ हैं, उन्हें बनाए और बचाएँ रखने में ओजोन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पृथ्वी पर चारों ओर वायुमंडल का उसी तरह रक्षा करता है जिस तरह बरसात से हमें छाते बचाते हैं। इसे पृथ्वी का रक्षा कवच भी कहा जाता है। मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्य होता गया त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गईं। बढ़ती जनसंख्या की भोजन और आवास संबंधी आवश्यकता के लिए उसने वनों की अंधाधुंध कटाई की जिससे धरती पर कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ी। कुछ और विषाक्त गैसों से मिलकर कार्बन डाईऑक्साइड ने इस परत में छेद कर दिया जिससे सूर्य की पराबैगनी किरणें धरती पर आने लगीं और त्वचा के कैंसर के साथ अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ गया। इन पराबैगनी किरणों को धरती पर आने से ओजोन की परत रोकती है। ओजोन की परत नष्ट करने में विभिन्न प्रशीतक यंत्रों में प्रयोग की जाने वाली क्लोरो प्लोरो कार्बन का भी हाथ है। यदि पृथ्वी पर जीवन बनाए रखना है तो हमें ओजोन परत को बचाना होगा। इसके लिए धरती पर अधिकाधिक पेड़ लगाना होगा तथा कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन कम करना होगा।

भ्रष्टाचार का दानव
अथवा
भ्रष्टाचार से देश को मुक्त बनाएँ

संकेत बिंदु –

  • भ्रष्टाचार क्या है?
  • देश के लिए घातक
  • भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव
  • लोगों की भूमिका।

भ्रष्टाचार दो शब्दों ‘भ्रष्ट’ और ‘आचार’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-नैतिक एवं मर्यादापूर्ण आचारण से हटकर आचरण करना। इस तरह का आचरण जब सत्ता में बैठे लोगों या कार्यालयों के अधिकारियों द्वारा किया जाता है तब जन साधारण के लिए समस्या उत्पन्न हो जाती है। पक्षपात करना, भाई-भतीजावाद को प्रश्रय देना, रिश्वत माँगना, समय पर काम न करना, काम करने के बदले अनुचित माँग रख देना, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। भ्रष्टाचार समाज और देश के लिए घातक है।

दुर्भाग्य से आज हमारे समाज में इसकी जड़ें इतनी गहराई से जम चुकी हैं कि इसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं रह गया है। भ्रष्टाचार के कारण देश की मानमर्यादा कलंकित होती है। इसे किसी देश के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। भ्रष्टाचार के कारण ही आज रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी, चोरबाज़ारी, मिलावट, भाई-भतीजावाद, कमीशनखोरी आदि अपने चरम पर हैं। इससे समाज में विषमता बढ़ रही है। लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है और विकास का मार्ग अवरुद्ध होता जा रहा है।

इसके कारण सरकारी व्यवस्था एवं प्रशासन पंगु बन कर रह गए हैं। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों को प्रगाढ़ करना चाहिए। इसके लिए नैतिक शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। लोगों को अपने आप में त्याग एवं संतोष की भावना मज़बूत करनी होगी। यद्यपि सरकारी प्रयास भी इसे रोकने में कारगर सिद्ध होते हैं पर लोगों द्वारा अपनी आदतों में सुधार और लालच पर नियंत्रण करने से यह समस्या स्वतः कम हो जाएगी।

भारतीय नारी की दोहरी भूमिका
अथवा
कामकाजी स्त्रियों की चुनौतियाँ

संकेत बिंदु –

  • प्राचीनकाल में नारी की स्थिति
  • वर्तमान में नौकरी की आवश्यकता
  • दोहरी भूमिका और चुनौतियाँ
  • सुरक्षा और सोच में बदलाव की आवश्यकता।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह परिवर्तन समय के साथ स्वतः होता रहता है। मनुष्य भी इस बदलाव से अछूता नहीं है। प्राचीन काल में मनुष्य ने न इतना विकास किया था और न वह इतना सभ्य हो पाया था। तब उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं। ऐसे में पुरुष की कमाई से घर चल जाता था और नारी की भूमिका घर तक सीमित थी। उसे बाहर जाकर काम करने की आवश्यकता न थी। वर्तमान समय में मनुष्य की आवश्यकता इतनी बढ़ी हुई है कि इसे पूरा करने के लिए पुरुष की कमाई अपर्याप्त सिद्ध हो रही है और नारी को नौकरी के लिए घर से बाहर कदम बढ़ाना पड़ा। आज की नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लगभग हर क्षेत्र में काम करती दिखाई देती हैं।

आज की नारी दोहरी भूमिका का निर्वाह कर रही है। घर में उसे खाना पकाने, घर की सफ़ाई, बच्चों की देखभाल और उनकी शिक्षा का दायित्व है तो वह कार्यालयों के अलावा खेल, राजनीति साहित्य और कला आदि क्षेत्रों में उतनी ही कुशलता और तत्परता से कार्य कर रही है। वह दोनों जगह की ज़िम्मेदारियों की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकारती हुई आगे बढ़ रही है और दोहरी भूमिका का निर्वहन कर रही है। वर्तमान में नारी द्वारा घर से बाहर आकर काम करने पर सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होने लगी है। कुछ लोगों की सोच ऐसी बन गई है कि वे ऐसी स्त्रियों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी स्त्रियों को प्रायः कार्यालय में पुरुष सहकर्मियों तथा आते-जाते कुछ लोगों की कुदृष्टि का सामना करना पड़ता है। इसके लिए समाज को अपनी सोच में बदलाव लाने की आवश्यकता है।

बढ़ती जनसंख्या : प्रगति में बाधक
अथवा
समस्याओं की जड़ : बढ़ती जनसंख्या

संकेत बिंदु –

  • जनसंख्या वृद्धि बनी समस्या
  • संसाधनों पर असर
  • वृद्धि के कारण
  • जनसंख्या रोकने के उपाय।

किसी राष्ट्र की प्रगति के लिए जनसंख्या एक महत्त्वपूर्ण संसाधन होती है, पर जब यह एक सीमा से अधिक हो जाती है तब यह समस्या का रूप ले लेती है। जनसंख्या वृद्धि एक ओर स्वयं समस्या है तो दूसरी ओर यह अनेक समस्याओं की जननी भी है। यह परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति पर बुरा असर डालती है। जनसंख्या वृद्धि के साथ देश के विकास की स्थिति ‘ढाक के तीन पात वाली’ बनकर रह जाती है।

प्रकृति ने लोगों के लिए भूमि वन आदि जो संसाधन प्रदान किए हैं, जनाधिक्य के कारण वे कम पड़ने लगते हैं तब मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ शुरू कर देता है। वह अपनी बढ़ी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों का विनाश करता है। इससे प्राकृतिक असंतुलन का खतरा पैदा होता है जिससे नाना प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के लिए हम भारतीयों की सोच काफ़ी हद तक जिम्मेदार है। यहाँ की पुरुष प्रधान सोच के कारण घर में पुत्र जन्म आवश्यक माना जाता है।

भले ही एक पुत्र की चाहत में छह, सात लड़कियाँ क्यों न पैदा हो जाएँ पर पुत्र के बिना न तो लोग अपना जन्म सार्थक मानते हैं और न उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती दिखती है। इसके अलावा अशिक्षा, गरीबी और मनोरंजन के साधनों का अभाव भी जनसंख्या वृद्धि में योगदान देता है। जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए लोगों का इसके दुष्परिणामों से अवगत कराकर जन जागरूकता फैलाई जानी चाहिए। सरकार द्वारा परिवार नियोजन के साधनों का मुफ़्त वितरण किया जाना चाहिए तथा ‘जनसंख्या वृद्धि’ को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।

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अपठित काव्यांश | class 12th | quick revision notes Hindi Unseen Passages अपठित बोध

Class 12 Hindi Unseen Passages अपठित काव्यांश

अपठित काव्यांश वे काव्यांश हैं जिनका अध्ययन हिंदी की पाठ्यपुस्तक में नहीं किया गया है। इन काव्यांशों के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों की भावग्रहण क्षमता को विकसित करना है।

अपठित काव्यांश हल करने की विधि :

  • सर्वप्रथम काव्यांश का दो-तीन बार अध्ययन करें ताकि उसका अर्थ व भाव समझ में आ सके।
  • तत्पश्चात् काव्यांश से संबंधित प्रश्नों को ध्यान से पढ़िए।
  • प्रश्नों के पढ़ने के बाद काव्यांश का पुनः अध्ययन कीजिए ताकि प्रश्नों के उत्तर से संबंधित पंक्तियाँ पहचानी जा सकें।
  • प्रश्नों के उत्तर काव्यांश के आधार पर ही दीजिए।
  • प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट होने चाहिए।
  • उत्तरों की भाषा सहज व सरल होनी चाहिए।

गत वर्षों के पूछे गए प्रश्न

निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. शांति नहीं तब तक, जब तक
सुख-भाग न सबका सम हो।
नहीं किसी को बहुत अधिक हो
नहीं किसी को कम हो।
स्वत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जाएँ।
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जिएँ या कि मिट जाएँ?
न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिले, तो लड़ के
तेजस्वी छीनते समय को,
जीत, या कि खुद मर के।
किसने कहा पाप है? अनुचित
स्वत्व-प्राप्ति-हित लड़ना?
उठा न्याय का खड्ग समर में
अभय मारना-मरना?

प्रश्नः
(क) कवि के अनुसार शांति के लिए क्या आवश्यक शर्त है?
(ख) तेजस्वी किस प्रकार समय को छीन लेते हैं ?
(ग) न्यायोचित अधिकार के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए?
(घ) कृष्ण युधिष्ठिर को युद्ध के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं ?
उत्तरः
(क) कवि के अनुसार, शांति के लिए आवश्यक है कि संसार में संसाधनों का वितरण समान हो।

(ख) अपने अनुकूल समय को तेजस्वी जीतकर छीन लेते हैं।

(ग) न्यायोचित अधिकार के लिए मनुष्य को संघर्ष करना पड़ता है। अपना हक माँगना पाप नहीं है।

(घ) कृष्ण युधिष्ठिर को युद्ध के लिए इसलिए प्रेरित कर रहे हैं ताकि वे अपने हक को पा सकें, अपने प्रति अन्याय को खत्म कर सकें।

2. नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर

वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा

धूलि-धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,

रात-सा दिन हो गया फिर
रात आई और काली,

लग रहा था अब न होगा,
इस निशा का फिर सवेरा,

रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण

किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुसकान फिर-फिर

नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर

प्रश्नः
(क) आँधी तथा बादल किसके प्रतीक हैं ? इनके क्या परिणाम होते हैं ?
(ख) कवि निर्माण का आह्वान क्यों करता है?
(ग) कवि किस बात से भयभीत है और क्यों?
(घ) उषा की मुसकान मानव-मन को क्या प्रेरणा देती है?
उत्तरः
(क) आँधी और बादल विपदाओं के प्रतीक हैं। जब विपदाएँ आती हैं तो उससे जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। मानव मन का उत्साह नष्ट हो जाता है।

(ख) कवि निर्माण का आह्वान इसलिए करता है ताकि सृष्टि का चक्र चलता रहे। निर्माण ही जीवन की गति है।

(ग) विपदाओं के कारण चारों तरफ निराशा का माहौल था। कवि को लगता था कि निराशा के कारण निर्माण कार्य रुक जाएगा।

(घ) उषा की मुसकान मानव में कार्य करने की इच्छा जगाती है। वह मानव को निराशा के अंधकार से बाहर निकालती है।

3. पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश कया कभी मरेगा मारे?
लहू गर्म करने को रक्खो मन में ज्वलित विचार,
हिंसक जीव से बचने को चाहिए किंतु तलवार ।
एक भेद है और जहाँ निर्भय होते नर-नारी
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बातों में बिजली होती, होते दिमाग में गोले।
जहाँ लोग पालते लहू में हालाहल की धार
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में हुई नहीं तलवार?

प्रश्नः
(क) कलम किस बात की प्रतीक है?
(ख) तलवार की आवश्यकता कहाँ पड़ती है?
(ग) लहू को गरम करने से कवि का क्या आशय है?
(घ) कैसे व्यक्ति को तलवार की आवश्यकता नहीं होती?
उत्तरः
(क) कलम क्रांति पैदा करने का प्रतीक है। वह वैचारिक क्रांति लाती है।

(ख) तलवार की आवश्यकता हिंसक पशुओं से बचने के लिए होती है अर्थात् अन्यायी को समाप्त करने के लिए इसकी ज़रूरत होती है।

(ग) इसका अर्थ है-क्रांतिकारी विचारों से मन में जोश व उत्साह का बनाए रखना।

(घ) वे व्यक्ति जिनमें अंदर जोश है, वैचारिक शक्ति है, उन्हें तलवार की ज़रूरत नहीं होती।

4. यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल, कितना निर्मल
हिमगिरि के हिम से निकल-निकल,
यह विमल दूध-सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल, छल-छल,

तन का चंचल मन का विह्वल
यह लघु सरिता का बहता जल।

ऊँचे शिखरों से उतर-उतर
गिर-गिर, गिरि की चट्टानों पर,
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर
दिनभर, रजनी-भर, जीवन-भर

धोता वसुधा का अंतस्तल
यह लघु सरिता का बहता जल।

हिम के पत्थर वो पिघल-पिघल,
बन गए धरा का वारि विमल,
सुख पाता जिससे पथिक विकल
पी-पी कर अंजलि भर मृदुजल

नित जलकर भी कितना शीतल
यह लघु सरिता का बहता जल।

कितना कोमल कितना वत्सल
रे जननी का वह अंतस्तल,
जिसका यह शीतल करुणाजल
बहता रहता युग-युग अविरल

गंगा, यमुना, सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल।

प्रश्नः
(क) वसुधा का अंतस्तल धोने में जल को क्या-क्या करना पडता है?
(ख) जल की तुलना दूध से क्यों की गई है?
(ग) आशय स्पष्ट कीजिए-‘तन का चंचल मन का विह्वल’
(घ) ‘रे जननी का वह अंतस्तल’ में जननी किसे कहा गया है?
उत्तरः
(क) वसुधा का अंतस्तल धोने के लिए जल ऊँचे पर्वतों से उतरकर पर्वतों की चट्टानों पर गिरकर कंकड़-कंकड़ों पर पैदल चलते हुए दिन-रात जीवन पर्यंत कार्य करता है।

(ख) हिम के पिघलने से जल बनता है जो शुद्ध व पवित्र होता है। दूध को भी पवित्र व शुद्ध माना जाता है। अतः जल की तुलना दूध से की गई है।

(ग) इसका मतलब है कि जिस प्रकार शरीर में मन चंचल अपने भावों के कारण हर वक्त गतिशील रहता है, उसी तरह छोटी नदी का जल भी हर समय गतिमान रहता है।

(घ) इसमें भारत माता को जननी कहा गया है।

5. यह जीवन क्या है ? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।

कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे।
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे।

निर्झर में गति है जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है।
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है।

बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता।

लहरें उठती हैं, गिरती हैं, नाविक तट पर पछताता है,
तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है।

निर्झर कहता है बढ़े चलो! देखो मत पीछे मुड़कर,
यौवन कहता है बढ़े चलो! सोचो मत क्या होगा चल कर।

चलना है केवल चलना है! जीवन चलता ही रहता है,
रुक जाना है मर जाना है, निर्झर यह झरकर कहता है।

प्रश्नः
(क) जीवन की तुलना निर्झर से क्यों की गई है?
(ख) जीवन और निर्झर में क्या समानता है ?
(ग) जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए?
(घ) ‘तब यौवन बढ़ता है आगे!’ से क्या आशय है?
उत्तरः
(क) जीवन व निर्झर में समानता है क्योंकि दोनों में मस्ती होती है तथा दोनों ही सुख-दुख के किनारों के बीच चलते हैं।

(ख) जीवन की तुलना निर्झर से की गई है क्योंकि जिस तरह निर्झर विभिन्न बाधाओं को पार करते हुए निरंतर आगे चलता रहता है, उसी प्रकार जीवन भी बाधाओं से लड़ते हुए आगे बढ़ता है।

(ग) जीवन का उद्देश्य सिर्फ चलना है। रुक जाना उसके लिए मृत्यु के समान है।

(घ) इसका आशय है कि जब जीवन में विपरीत परिस्थितियाँ आती हैं तो आम व्यक्ति रुक जाता है, परंतु युवा शक्ति आगे बढ़ती है। वह परिणाम की परवाह नहीं करती।

6. आँसू से भाग्य पसीजा है, हे मित्र कहाँ इस जग में?
नित यहाँ शक्ति के आगे, दीपक जलते मग-मग में।
कुछ तनिक ध्यान से सोचो, धरती किसती हो पाई ?
बोलो युग-युग तक किसने, किसकी विरुदावलि गाई ?
मधुमास मधुर रुचिकर है, पर पतझर भी आता है।
जग रंगमंच का अभिनय, जो आता सो जाता है।
सचमुच वह ही जीवित है, जिसमें कुछ बल-विक्रम है।
पल-पल घुड़दौड़ यहाँ है, बल-पौरुष का संगम है।
दुर्बल को सहज मिटाकर, चुपचाप समय खा जाता,
वीरों के ही गीतों को, इतिहास सदा दोहराता।
फिर क्या विषाद, भय चिंता जो होगा सब सह लेंगे,
परिवर्तन की लहरों में जैसे होगा बह लेंगे।

प्रश्नः
(क) ‘रोने से दुर्भाग्य सौभाग्य में नहीं बदल जाता’ के भाव की पंक्तियाँ छाँटकर लिखिए।
(ख) समय किसे नष्ट कर देता है और कैसे?
(ग) इतिहास किसे याद रखता है और क्यों?
(घ) ‘मधुमास मधुर रुचिकर है, पर पतझर भी आता है’ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
(क) ये पंक्तिया हैं आँसू से भाग्य पसीजा है, हे मित्र, कहाँ इस जग में  नित यहाँ शक्ति के आगे, दीपक जलते मग-मग में।

(ख) समय हमेशा कमजोर व्यवस्था को चुपचाप नष्ट कर देता है। दुर्बल तब समय के अनुसार स्वयं को बदल नहीं पाता तथा प्रेरणापरक कार्य नहीं करता।

(ग) इतिहास उन्हें याद रखता है जो अपने बल व पुरुषार्थ के आधार पर समाज के लिए कार्य करते हैं। प्रेरक कार्य करने वालों को जनता याद रखती है।

(घ) इसका अर्थ है कि अच्छे दिन सदैव नहीं रहते। मानव के जीवन में पतझर जैसे दुख भी आते हैं।

7. तरुणाई है नाम सिंधु की उठती लहरों के गर्जन का,
चट्टानों से टक्कर लेना लक्ष्य बने जिनके जीवन का।
विफल प्रयासों से भी दूना वेग भुजाओं में भर जाता,
जोड़ा करता जिनकी गति से नव उत्साह निरंतर नाता।
पर्वत के विशाल शिखरों-सा यौवन उसका ही है अक्षय,
जिनके चरणों पर सागर के होते अनगिन ज्वार साथ लय।
अचल खड़े रहते जो ऊँचा, शीश उठाए तूफ़ानों में,
सहनशीलता दृढ़ता हँसती जिनके यौवन के प्राणों में।
वही पंथ बाधा को तोड़े बहते हैं जैसे हों निर्झर,
प्रगति नाम को सार्थक करता यौवन दुर्गमता पर चलकर।

प्रश्नः
(क) कवि ने किसका आह्वान किया है और क्यों?
(ख) तरुणाई की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है?
(ग) मार्ग की रुकावटों को कौन तोड़ते हैं और कैसे?
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए-‘जिनके चरणों पर सागर के होते अनगिन ज्वार साथ लय।’
उत्तरः
(क) कवि ने युवाओं का आह्वान किया है क्योंकि उनमें उत्साह होता है और वे संघर्ष क्षमता से युक्त होते हैं।

(ख) तरुणाई की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख कवि ने किया है-उत्साह, कठिन परिस्थितियों का सामना करना, हार से निराश न होना, दृढ़ता, सहनशीलता आदि।

(ग) मार्ग की रुकावटों को युवा शक्ति तोड़ती है। जिस प्रकार झरने चट्टानों को तोड़ते हैं, उसी प्रकार युवा शक्ति अपने पंथ की रुकावटों को खत्म कर देती है।

(घ) इसका अर्थ है कि युवा शक्ति जनसामान्य में उत्साह का संचार कर देती है।

8. अचल खड़े रहते जो ऊँचा शीश उठाए तूफानों में,
सहनशीलता, दृढ़ता हँसती जिनके यौवन के प्राणों में।
वही पंथ बाधा तो तोड़े बहते हैं जैसे हों निर्झर,
प्रगति नाम को सार्थक करता यौवन दुर्गमता पर चलकर।
आज देश की भावी आशा बनी तुम्हारी ही तरुणाई,
नए जन्म की श्वास तुम्हारे अंदर जगकर है लहराई।
आज विगत युग के पतझर पर तुमको नव मधुमास खिलाना,
नवयुग के पृष्ठों पर तुमको है नूतन इतिहास लिखाना।
उठो राष्ट्र के नवयौवन तुम दिशा-दिशा का सुन आमंत्रण,
जागो, देश के प्राण जगा दो नए प्रात का नया जागरण।
आज विश्व को यह दिखला दो हममें भी जागी तरुणाई,
नई किरण की नई चेतना में हमने भी ली अंगड़ाई।

प्रश्नः
(क) मार्ग की रुकावटों को कौन तोड़ता है और कैसे?
(ख) नवयुवक प्रगति के नाम को कैसे सार्थक करते हैं ?
(ग) “विगत युग के पतझर’ से क्या आशय है?
(घ) कवि देश के नवयुवकों का आह्वान क्यों कर रहा है?
उत्तरः
(क) मार्ग की रुकावटों को वीर तोड़ता है। वे अपने उत्साह, संघर्ष, सहनशीलता व वीरता से पथ की बाधाओं को दूर करते हैं।

(ख) नवयुवक प्रगति के नाम को दुर्गम रास्तों पर चलकर सार्थक करते हैं।

(ग) इसका आशय है कि पिछले कुछ समय से देश में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हो पा रहा है।

(घ) कवि देश के नवयुवकों का आह्वान इसलिए कर रहा है क्योंकि उनमें नए, कार्य करने का उत्साह व क्षमता है। वे नए इतिहास को लिख सकते हैं। उन्हें देश में नया उत्साह जगाना है।

9. मैंने गढ़े
ताकत और उत्साह से
भरे-भरे
कुछ शब्द
जिन्हें छीन लिया मठाधीशों ने
दे दिया उन्हें धर्म का झंडा
उन्मादी हो गए
मेरे शब्द
तलवार लेकर
बोऊँगी उन्हें मिटाने लगे
अपना ही वजूद
फिर रचे मैंने
इंसानियत से लबरेज
ढेर सारे शब्द
नहीं छीन पाएगा उन्हें
छीनने की कोशिश में भी
गिर ही जाएँगे कुछ दाने
और समय आने पर
फिर उगेंगे वे
अबकी उन्हें अगवा कर लिया
सफ़ेदपोश लुटेरों ने
और दबा दिया उन्हें
कुर्सी के पाये तले
असहनीय दर्द से चीख रहे हैं
मेरे शब्द और वे
कर रहे हैं अट्टहास
अब मैं गर्दैगी
निराई गुड़ाई और
खाद-पानी से
लहलहा उठेगी फ़सल
तब कोई मठाधीश
कोई लुटेरा
एक बार
दो बार
बार-बार
लगातार उगेंगे
मेरे शब्द

प्रश्नः
(क) ‘मठाधीशों’ ने उत्साह भरे शब्दों को क्यों छीना होगा?
(ख) आशय समझाइए-कुर्सी के पाये तले दर्द से चीख रहे हैं
(ग) कवयित्री किस उम्मीद से शब्दों को बो रही है?
(घ) ‘और वे कर रहे हैं अट्टहास’ में ‘वे’ शब्द किनके लिए प्रयुक्त हुआ है?
उत्तरः
(क) मठाधीशों ने उत्साह भरे शब्दों को छीन लिया ताकि वे धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए उनका इस्तेमाल कर सके।

(ख) इसका आशय है कि सत्ता ने इंसानियत के शब्दों को कैद कर लिया। वे मुक्ति चाहते हैं, परंतु सत्ता उन्हें अपने हितों के लिए इस्तेमाल करती है।

(ग) कवयित्री अपने शब्दों को बो रही है ताकि इन शब्दों को कोई लूट या कब्जा न कर सके। जब इनकी फ़सल उग जाएगी तो ये चिरस्थायी हो जाएँगे।

(घ) ‘वे’ शब्द सफ़ेदपोश लुटेरों के लिए है।

10. खुल कर चलते डर लगता है
बातें करते डर लगता है
क्योंकि शहर बेहद छोटा है।
ऊँचे हैं, लेकिन खजूर से
मुँह है इसीलिए कहते हैं,
जहाँ बुराई फूले-पनपे-
वहाँ तटस्थ बने रहते हैं,
नियम और सिद्धांत बहुत
दंगों से परिभाषित होते हैं-
जो कहने की बात नहीं है,
वही यहाँ दुहराई जाती,
जिनके उजले हाथ नहीं हैं,
उनकी महिमा गाई जाती
यहाँ ज्ञान पर, प्रतिभा पर,
अवसर का अंकुश बहुत कड़ा है-
सब अपने धंधे में रत हैं
यहाँ न्याय की बात गलत है
क्योंकि शहर बेहद छोटा है।
बुद्धि यहाँ पानी भरती है,
सीधापन भूखों मरता है-
उसकी बड़ी प्रतिष्ठा है,
जो सारे काम गलत करता है।
यहाँ मान के नाप-तौल की,
इकाई कंचन है, धन है-
कोई सच के नहीं साथ है
यहाँ भलाई बुरी बात है।
क्योंकि शहर बेहद छोटा है।

प्रश्नः
(क) कवि शहर को छोटा कहकर किस ‘छोटेपन’ को अभिव्यक्त करना चाहता है ?
(ख) इस शहर के लोगों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
(ग) आशय समझाइए
‘बुद्धि यहाँ पानी भरती है,
सीधापन भूखों मरता है’
(घ) इस शहर में असामाजिक तत्व और धनिक क्या-क्या प्राप्त करते हैं ?
उत्तरः
(क) कवि ने शहर को छोटा कहा है क्योंकि यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। व्यक्तियों के स्वार्थ में डूबे होने के कारण हर जगह अन्याय स्थापित हो रहा है।

(ख) इस शहर के लोग संवेदनहीन, स्वार्थी, डरपोक, अन्यायी का गुणगान करने वाले व निरर्थक प्रलाप करने वाले हैं।

(ग) इस पंक्ति का आशय है कि यहाँ विद्वान व समझदार लोगों को महत्त्व नहीं दिया जाता। सरल स्वभाव का व्यक्ति अपना जीवन निर्वाह भी नहीं कर सकता।

(घ) इस शहर में असामाजिक तत्व दंगों से अपना शासन स्थापित करते हैं तथा नियम बनाते हैं। धनिक अवैध कार्य करके धन कमाते हैं।

11. जाग रहे हम वीर जवान,
जियो, जियो ऐ हिंदुस्तान!
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल।
हम प्रहरी ऊँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं,
हम हैं शांति-दूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीरप्रसू माँ की आँखों के, हम नवीन उजियाले हैं,
गंगा, यमुना, हिंद महासागर के हम ही रखवाले हैं।
तन, मन, धन, तुम पर कुर्बान,
जियो, जियो ऐ हिंदुस्तान!
हम सपूत उनके, जो नर थे, अनल और मधु के मिश्रण,
जिनमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन।
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में, उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर।
हम उन वीरों की संतान,
जियो, जियो ऐ हिंदुस्तान!

प्रश्नः
(क) ‘नवीन भारत’ से क्या तात्पर्य है?
(ख) उस पंक्ति को उद्धृत कीजिए जिसका आशय है कि भारतीय बाहर से चाहे कठोर दिखाई पड़ें, उनका हृदय कोमल होता है।
(ग) ‘हम उन वीरों की संतान’-उन पूर्वज वीरों की कुछ विशेषताएँ लिखिए।
(घ) ‘वीरप्रसू माँ’ किसे कहा गया है? क्यों?
उत्तरः
(क) ‘नवीन भारत’ से तात्पर्य है-आज़ादी के पश्चात् निरंतर विकसित होता भारत।

(ख) उक्त भाव को व्यक्त करने वाली पंक्ति है-जितना कठिन खड्ग था कर में, उतना ही अंतर कोमल।

(ग) कवि ने पूर्वज वीरों की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं

  1. इनकी वीरता से संसार भयभीत था।
  2. वीरों में आग व मधु का मेल था।
  3. वीरों में तेज था, परंतु वे कोमल भावनाओं से युक्त थे।

(घ) ‘वीरप्रसू माँ’ से तात्पर्य भारतमाता से है। भारतमाता ने देश का मान बढ़ाने वाले अनेक वीर दिए हैं।

12. देखो प्रिये, विशाल विश्व को आँख उठाकर देखो,
अनुभव करो हृदय से यह अनुपम सुषमाकर देखो।
यह सामने अथाह प्रेम का सागर लहराता है,
कूद पड़ें, तैरूँ इसमें, ऐसा जी में आता है।

रत्नाकर गर्जन करता है मलयानिल बहता है,
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिय! भरा रहता है।

इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के,
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के॥
निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा,
कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा।

लाने को निज पुण्यभूमि पर लक्ष्मी की असवारी,
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी॥

प्रश्नः
(क) कवि अपनी प्रेयसी से क्या देखने का अनुरोध कर रहा है और क्यों?
(ख) समुद्र को ‘रत्नाकर’ क्यों कहा जाता है ?
(ग) विशाल सागर को देखने पर कवि के मन में क्या इच्छाएँ जगती हैं ?
(घ) काव्यांश के आधार पर सूर्योदय का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तरः
(क) कवि अपनी प्रेयसी से विशाल विश्व को देखने का अनुरोध कर रहा है क्योंकि वह विश्व की सुंदरता का अनुभव उसे कराना चाहता है।

(ख) समुद्र को ‘रत्नाकर’ इसलिए कहा गया है क्योंकि इसके अंदर संसार के कीमती खनिज-पदार्थ, रत्न आदि मिलते हैं।

(ग) विशाल सागर को देखकर कवि के मन में इसमें कूदकर तैरने की इच्छा उत्पन्न होती है।

(घ) कवि कहता है कि समुद्र के तल पर सूर्य आधा निकला है जो लक्ष्मी के सोने के मंदिर का चमकता कंगूरा जैसा लगता है जैसे, लक्ष्मी की सवारी को लाने के लिए सागर ने सोने की सड़क बना दी हो।

13. तुम नहीं चाहते थे क्या
फूल खिलें
भौरे गूंजें
तितलियाँ उड़ें?
नहीं चाहते थे तुम
शरदाकाश
वसंत की हवा
मंजरियों का महोत्सव
कोकिल की कुहू, हिरनों की दौड़?
तुम्हें तो पसंद थे भेड़िये
भेड़ियों-से धीरे-धीरे जंगलाते आदमी
समूची हरियाली को धुआँ बनाते विस्फोट!
तुमने ही बना दिया है सबको अंधा-बहरा
आकाशगामी हो गए सब
कोलाहल में डूबे, वाणी-विहीन
अब भी समय है
बाकी है भविष्य अभी
खड़े हो जाओ अँधेरों के खिलाफ
वेद-मंत्रों से ध्याता,
पहचानो अपनी धरती
अपना आकाश!

प्रश्नः
(क) आतंकी विस्फोटों के क्या-क्या परिणाम होते हैं ?
(ख) आतंकवादियों को धरती के कौन-कौन से रूप नहीं लुभाते?
(ग) आशय स्पष्ट कीजिए
‘तुम्हें तो पसंद थे भेडिये
भेड़ियों से धीरे-धीरे जंगलाते आदमी’
(घ) ‘अब भी समय है’ कहकर कवि क्या अपेक्षा करता है?
उत्तरः
(क) आतंकी विस्फोटों के निम्नलिखित परिणाम होते हैं-हरियाली का नष्ट होना, जीवधारियों की शांति भंग होना, विनाशक शकि तयों का प्रबल होना।

(ख) आतंकवादियों को-धरती पर फूल खिलना, भौरों का गुंजन, तितलियाँ उड़ना, वसंती हवा, मंजरियों का उत्सव, हिरनों की दौड़, कोयल का गाना आदि पसंद नहीं है।

(ग) इसका अर्थ है कि आतंकवादियों को धूर्त व हत्यारी प्रकृति के लोग पसंद होते हैं। ऐसे लोगों की बढ़ती संख्या से जंगलीपन बढ़ता जाता है।

(घ) ‘अब भी समय है’ कहकर कवि यह अपेक्षा करता है कि आतंकी अपना बहुत कुछ खो चुके हैं, परंतु अभी सुधरने का समय है। वे इन प्रकृतियों के खिलाफ खड़े होकर समाज को बचा सकते हैं।

14. ‘सर! पहचाना मुझे ?’
बारिश में भीगता आया कोई
कपड़े कीचड़-सने और बालों में पानी।
बैठा। छन-भर सुस्ताया। बोला, नभ की ओर देख-
‘गंगा मैया पाहुन बनकर आई थीं’
झोंपड़ी में रहकर लौट गईं-
नैहर आई बेटी की भाँति
चार दीवारों में कुदकती-फुदकती रहीं
खाली हाथ वापस कैसे जातीं!
घरवाली तो बच गईं-
दीवारें ढहीं, चूल्हा बुझा, बरतन-भाँडे-
जो भी था सब चला गया।
प्रसाद-रूप में बचा है नैनों में थोड़ा खारा पानी
पत्नी को साथ ले, सर, अब लड़ रहा हूँ
ढही दीवार खड़ी कर रहा हूँ
कादा-कीचड़ निकाल फेंक रहा हूँ।’
मेरा हाथ जेब की ओर जाते देख
वह उठा, बोला-‘सर पैसे नहीं चाहिए।
जरा अकेलापन महसूस हुआ तो चला आया
घर-गृहस्थी चौपट हो गई पर
रीढ़ की हड्डी मज़बूत है सर!
पीठ पर हाथ थपकी देखकर
आशीर्वाद दीजिए-
लड़ते रहो।’

प्रश्नः
(क) बाढ़ की तुलना मायके आई हुई बेटी से क्यों की गई है?
(ख) ‘सर’ का हाथ जेब की ओर क्यों गया होगा?
(ग) आगंतुक ‘सर’ के घर क्यों आया था?
(घ) कैसे कह सकते हैं कि आगंतुक स्वाभिमानी और संघर्षशील व्यक्ति है?
उत्तरः
(क) बाढ़ की तुलना मायके आई हुई बेटी से इसलिए की है क्योंकि शादी के बाद बेटी अचानक आकर मायके से बहुत कुछ सामान लेकर चली जाती है। इसी तरह बाढ़ भी अचानक आकर लोगों की जमापूँजी लेकर ही जाती है।

(ख) ‘सर’ का हाथ जेब की ओर इसलिए गया होगा ताकि वह बाढ़ में अपना सब कुछ गँवाए हुए व्यक्ति की कुछ आर्थिक सहायता कर सके।

(ग) आगंतुक ‘सर’ के घर आर्थिक मदद माँगने नहीं आया था। वह अपने अकेलेपन को दूर करने आया था। वह ‘सर’ से संघर्ष करने की क्षमता का आशीर्वाद लेने आया था।

(घ) आगंतुक के घर का सामान बाढ़ में बह गया। इसके बावजूद वह निराश नहीं था। उसने मकान दोबारा बनाना शुरू किया। उसने ‘सर’ से आर्थिक सहायता लेने के लिए भी इनकार कर दिया। अतः हम कह सकते हैं कि आगंतुक स्वाभिमानी और संघर्षशील व्यक्ति है।

15. स्नायु तुम्हारे हों इस्पाती।

देह तुम्हारी लोहे की हो, स्नायु तुम्हारे हों इस्पाती,
युवको, सुनो जवानी तुममें आए आँधी-सी अर्राती।

जब तुम चलो चलो ऐसे
जैसे गति में तूफान समेटे।
हो संकल्प तुम्हारे मन में।
युग-युग के अरमान समेटे।

अंतर हिंद महासागर-सा, हिमगिरि जैसी चौड़ी छाती।

जग जीवन के आसमान में
तुम मध्याह्न सूर्य-से चमको
तुम अपने पावन चरित्र से
उज्ज्व ल दर्पण जैसे दमको।

साँस-साँस हो झंझा जैसी रहे कर्म ज्वाला भड़काती।

जनमंगल की नई दिशा में ‘
तुम जीवन की धार मोड़ दो
यदि व्यवधान चुनौती दे तो
तुम उसकी गरदन मरोड़ दो।

ऐसे सबक सिखाओ जिसको याद करे युग-युग संघाती।
स्नायु तुम्हारे हों इस्पाती।

प्रश्नः
(क) युवकों के लिए फ़ौलादी शरीर की कामना क्यों की गई है?
(ख) किसकी गरदन मरोड़ने को कहा गया है और क्यों?
(ग) बलिष्ठ युवकों की चाल-ढाल के बारे में क्या कहा गया है?
(घ) युवकों की तेजस्विता के बारे में क्या कल्पना की गई है?
उत्तरः
(क) युवकों के लिए फ़ौलादी शरीर की कामना इसलिए की गई है ताकि उनमें उत्साह का संचार रहे। उनकी गति में तूफान व संकल्पों में युग-युग के अरमान समा जाएँ।

(ख) कवि ने व्यवधान की गरदन मरोड़ने को कहा है क्योंकि उसे सबक सिखाने की ज़रूरत है। उसे ऐसे सबक को लंबे समय तक याद रखना होगा।

(ग) बलिष्ठ युवकों की चाल-ढाल के बारे में कवि कहता है कि उन्हें तूफान की गति के समान चलना चाहिए। उनका मन हिंद महासागर के समान गहरा व सीना हिमालय जैसा चौड़ा होना चाहिए।

(घ) युवकों की तेजस्विता के बारे में कवि कल्पना करता है कि वे संसार के आसमान में दोपहर के सूर्य के समान चमकें। वे अपने पवित्र चरित्र से उज्ज्वल दर्पण के समान दमकने चाहिए।

16. नए युग में विचारों की नई गंगा कहाओ तुम,
कि सब कुछ जो बदल दे, ऐसे तूफ़ाँ में नहाओ तुम।

अगर तुम ठान लो तो आँधियों को मोड़ सकते हो
अगर तुम ठान लो तारे गगन के तोड़ सकते हो,
अगर तुम ठान लो तो विश्व के इतिहास में अपने-
सुयश का एक नव अध्याय भी तुम जोड़ सकते हो,

तुम्हारे बाहुबल पर विश्व को भारी भरोसा है-
उसी विश्वास को फिर आज जन-जन में जगाओ तुम।

पसीना तुम अगर इस भूमि में अपना मिला दोगे,
करोड़ों दीन-हीनों को नया जीवन दिला दोगे।
तुम्हारी देह के श्रम-सीकरों में शक्ति है इतनी-
कहीं भी धूल में तुम फूल सोने के खिला दोगे।

नया जीवन तुम्हारे हाथ का हल्का इशारा है
इशारा कर वही इस देश को फिर लहलहाओ तुम।

प्रश्नः
(क) यदि भारतीय नवयुवक दृढ़ निश्चय कर लें, तो क्या-क्या कर सकते हैं ?
(ख) नवयुवकों से क्या-क्या करने का आग्रह किया जा रहा है?
(ग) युवक यदि परिश्रम करें, तो क्या लाभ होगा?
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए
‘कहीं भी धूल में तुम फूल सोने के खिला दोगे।’
उत्तरः
(क) यदि भारतीय नवयुवक दृढ़ निश्चय कर लें तो वे विपदाओं का रास्ता बदल सकते हैं, वे विश्व के इतिहास को बदल सकते है, असंभव कार्य को संभव कर सकते हैं तथा अपने यश का नया अध्याय जोड़ सकते हैं।

(ख) कवि नवयुवकों से आग्रह करता है कि वे नए विचार अपनाकर जनता को जाग्रत कर तथा उनमें आत्मविश्वास का भाव जगाएँ।

(ग) युवक यदि परिश्रम करें तो करोड़ों दीन-हीनों को नया जीवन मिल सकता है।

(घ) इस पंक्ति का अर्थ है कि युवकों में इतनी कार्यक्षमता है कि वे कम साधनों के बावजद विकट स्थितियों में भी समाज को अधिक दे सकते हैं।

17. महाप्रलय की अग्नि साथ लेकर जो जग में आए
विश्वबली शासन का भय जिनके आगे शरमाए
चले गए जो शीश चढ़ाकर अर्घ्य दिया प्राणों का
चलें मज़ारों पर हम उनकी, दीपक एक जलाएँ।
टूट गईं बंधन की कड़ियाँ स्वतंत्रता की बेला
लगता है मन आज हमें कितना अवसन्न अकेला।
जीत गए हम, जीता विद्रोही अभिमान हमारा।
प्राणदान से क्षुब्ध तरंगों को मिल गया किनारा।
उदित हुआ रवि स्वतंत्रता का व्योम उगलता जीवन,
आज़ादी की आग अमर है, घोषित करता कण-कण।
कलियों के अधरों पर पलते रहे विलासी कायर,
उधर मृत्यु पैरों से बाँधे, रहा जूझता यौवन।
उस शहीद यौवन की सुधि हम क्षण भर को न बिसारें,
उसके पग-चिहनों पर अपने मन में मोती वारें।

प्रश्नः
(क) कवि किनकी मज़ारों पर दीपक जलाने का आह्वान कर रहा है और क्यों?
(ख) ‘टूट गईं बंधन की कड़ियाँ’-कवि किस बंधन की बात कर रहा है?
(ग) ‘विश्वबली शासन’ किसे कहा है? क्यों?
(घ) शहीद किसे कहते हैं ? शहीदों के बलिदान से हमें क्या प्राप्त हुआ?
उत्तर
(क) कवि शहीदों की मज़ारों पर दीपक जलाने का आह्वान कर रहा है क्योंकि उन शहीदों ने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया था।

(ख) ‘टूट गई बंधन की कड़ियाँ’ पंक्ति में कवि ने पराधीनता के बंधन की बात कही है।

(ग) “विश्वबली शासन’ से तात्पर्य है- ब्रिटिश शासन। कवि ने विश्वबली शासन इसलिए कहा है क्योंकि उस समय दुनिया के बड़े हिस्से पर अंग्रेज़ों का शासन था।

(घ) शहीद वे हैं जो क्रांति की ज्वाला लेकर आते हैं तथा देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं। वे मृत्यु से भी नहीं घबराते। शहीदों के बलिदान से हमें आज़ादी मिली।

अन्य उदाहरण (हल सहित)

1. एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं
फटी मिट्टी से।
छायाएँ मानव जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूटकर
बिखर गए हों
दसों दिशा में
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त।
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटी लंबी हो-होकर
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं।
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।

प्रश्नः
(क) क्षितिज से न उगकर नगर के बीचों-बीच बरसने वाला ‘वह सूरज’ क्या था?
(ख) वह दुर्घटना कब कहाँ, घटी थी?
(ग) उसे ‘कुछ क्षण का उदय-अस्त’ क्यों कहा गया है?
(घ) ‘मानव ही, सब भाप हो गए’ कथन का क्या आशय है?
उत्तरः
(क) क्षितिज से न उगकर नगर के बीचों-बीच बरसने वाला वह सूरज अमेरिका द्वारा जापान पर गिराया गया अणुबम था।

(ख) वह दुर्घटना दूसरे विश्वयुद्ध के अंत में जापान के हिरोशिमा नगर में हुई।

(ग) परमाणु बम विस्फोट अचानक हुआ था और कुछ ही क्षणों में सब कुछ नष्ट हो गया था।

(घ) इसका अर्थ है कि प्रचंड गरमी के कारण मनुष्य नष्ट हो गए। वे राख बन गए थे।

2. कलम आज उनकी जय बोल
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रहीं लू लपट दिशाएँ
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल।
कलम आज उनकी जय बोल॥
अंध चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बिचारा।
साक्षी हैं जिनकी महिमा के
सूर्य, चंद्र, भूगोल, खगोल।
कलम आज उनकी जय बोल।

प्रश्नः
(क) स्वाधीनता संग्राम के शहीदों के सिंहनाद से आज भी धरती क्यों डोल जाती है?
(ख) ‘क्या जाने इतिहास बिचारा’ कहकर कवि इतिहास को युग का दर्पण क्यों नहीं मानता?
(ग) स्वाधीनता के वीर बलिदानियों की महिमा के साक्षी सूर्य, चंद्र, भूगोल और खगोल क्यों बताए गए हैं?
(घ) कलम से किनकी जय बोलने का आग्रह किया गया है और क्यों?
उत्तरः
(क) आज भी स्वाधीनता के शहीदों की वीरगाथा रोमांचित कर देती है। उनके सिंहनाद से आज भी पृथ्वी काँप जाती है। विदेशी सत्ता उसका ताप नहीं सह पाईं।

(ख) कवि की मान्यता है कि इतिहास में स्वार्थ-प्रेरित कुछेक लोगों का वर्णन मिलता है। सच्चे वीरों के वृत्तांत इतिहास में नहीं मिलते। इतिहास युग का दर्पण नहीं है। इसीलिए इतिहास को बेचारा व अनजाना कहा है।

(ग) स्वतंत्रता के शहीदों के चश्मदीद गवाह सूरज, चाँद, ज़मीन और आकाश इसलिए बताए गए हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य देखा है और वे इतिहास की भाँति अँधे नहीं हैं।

(घ) कवि चाहता है कि लेखनी उन बलिदानी वीरों की जय-जयकार करे, जिन्होंने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर प्राण निछावर कर दिए और उनके बलिदान की आग से आज भी अंग्रेज़ी सत्ता थर्राती है।

3. वैराग्य छोड़ बाहों की विभा सँभालो,
चट्टानों की छाती से दूध निकालो।
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएँ तोड़ो,
पीयूष-चंद्रमाओं को पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल-शिखरों पर सोम पियो रे।
योगियों नहीं, विजयी के सदृश जियो रे।

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,
मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।
दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है,
मरता है जो एक ही बार मरता है।

तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे,
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे।

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है,
बाहरी वस्तु यह नहीं, भीतरी गुण है।
नत हुए बिना जो अशनि-घात सहती है,
स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है।

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे।
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे॥

प्रश्नः
(क) कवि भारतीय युवकों को ऐसा जीवन जीने को क्यों कहता है, जो योगियों जैसा नहीं, वरन् पराक्रमी वीरों जैसा हो?
(ख) कवि के अनुसार किन परिस्थितियों में मृत्यु की चिंता नहीं करनी चाहिए?
(ग) स्वतंत्रता को ‘बाहरी वस्तु न कह कर भीतरी गुण’ क्यों कहा गया है? स्पष्ट कीजिए।
(घ) इस काव्यांश का मूल रूप क्या है? स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है।
उत्तरः
(क) कवि भारतीय युवकों को पराक्रमी वीरों जैसा जीवन जीने के लिए कहता है क्योंकि पराक्रमी व्यक्तियों से दूसरे राष्ट्र भयभीत रहेंगे तथा देश की स्वाधीनता सुरक्षित रहेगी। योगी जैसे जीवन वाले व्यक्ति देश की रक्षा नहीं कर सकते।

(ख) कवि के अनुसार, आत्मसम्मान की प्राप्ति रक्षा के लिए यदि मृत्यु भी स्वीकार करनी पड़े तो चिंता नहीं करनी चाहिए।

(ग) कवि का मानना है कि प्राकृतिक रूप से मानव स्वतंत्र रहने का आदी होता है। कोई भी व्यक्ति पराधीन नहीं रहना चाहता। यह गुण जन्मजात होता है। यह बाहरी गुण नहीं है।

(घ) इस काव्यांश का मूल स्वर वैराग्य भाव त्यागकर पराक्रमी बनकर रहने का है। पराक्रमी व्यक्ति अपनी व देश की स्वाधीनता को कायम रख सकता है।

4. काँधे धरी यह पालकी
है किस कन्हैयालाल की?
इस गाँव से उस गाँव तक
नंगे बदन, फेंटा करो,
बारात किसकी ढो रहे?
किसकी कहारी में फँसे?

यह कर्ज पुश्तैनी अभी किस्तें हज़ारों साल की।
काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की?

इस पाँव से उस पाँव पर,
ये पाँव बेवाई फटे।
काँधे धरा किसका महल?
हम नींव पर किसकी डटे?

यह माल ढोते थक गई तकदीर खच्चर हाल की।
काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की?

फिर एक दिन आँधी चली
ऐसी कि पर्दा उड़ गया।
अंदर न दुलहन थी न दूल्हा
एक कौवा उड़ गया…

तब भेद आकर यह खुला हमसे किसी ने चाल की
काँधे धरी यह पालकी लाला अशर्फीलाल की।

प्रश्नः
(क) ‘खच्चर हाल’ शब्द का अर्थ स्पष्ट कर बताइए कि यहाँ इस शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है?
(ख) “यह कर्ज़ पुश्तैनी… साल की” काव्य-पंक्ति में समाज की किस कुरीति पर चोट की गई है और क्यों?
(ग) क्रांति की आँधी ने एक दिन कौन-सा भेद खोल दिया?
(घ) ‘लाला अशफ़ीलाल’ और ‘पालकी ढोने वाले’ समाज के किन वर्गों के प्रतीक हैं ?
उत्तरः
(क) ‘खच्चर’ एक पशु हैं जो जीवन भर खराब दशाओं में भार ढोता है। इसी तरह पालकी ढोने वाले तमाम उम्र दूसरों का बोझ ढोते है तथा बदले में उन्हें कोई सुख नहीं मिलता।

(ख) इस पंक्ति में, कवि ने कर्ज की समस्या को बताया है। समाज का एक बड़ा तबका महाजनी ऋण से दबे रहते हैं तथा उनकी कई पीढ़ियाँ इस कर्ज को चुकाने में गुज़र जाती है।

(ग) क्रांति की आँधी ने एक दिन पालकी ढोने वालों को यह भेद बताया कि इसमें दुल्हा व दुल्हन नहीं थी। इसमें पूँजीपति थे जो उनका शोषण कर रहे थे।

(घ) ‘लाला अशर्फीलाल’ पूँजीपति वर्ग तथा ‘पालकी ढोने वाले’ समाज के शोषित वर्ग के प्रतीक हैं जो सदियों से पूँजीपतियों की मार झेल रहे हैं।

5. बहुत दिनों से आज मिली है साँझ अकेली-साथ नहीं हो तुम ।

पेड़ खड़े बाहें फैलाए
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूली-साथ नहीं हो तुम।

कुलबुल-कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह-चहचह भीड़-भीड़ में

धुन अलबेली-साथ नहीं हो तुम।

ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमड़ी धारा, जैसी मुझ पर –
बीती, झेली-साथ नहीं हो तुम
साँझ अकेली-साथ नहीं हो तुम।

प्रश्नः
(क) ‘तुम’ कौन है? उसके बिना साँझ कैसी लग रही है और क्यों?
(ख) सूर्यास्त के पूर्व का दृश्य कैसा है ?
(ग) किस ध्वनि को ‘अलबेली’ कहा है और क्यों?
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए – ‘जैसी मुझ पर बीती, झेली’।
उत्तरः
(क) ‘तुम’ कवि की प्रेमिका है। प्रेमिका के बिना साँझ अच्छी नहीं लग रही है क्योंकि साँझ के सौंदर्य का महत्त्व प्रेमिका के बिना नष्ट हो जाता है।

(ख) सूर्यास्त के पूर्व पेड़ ऐसे खड़े मिलते हैं मानो बाहें फैलाए हुए हैं, चरवाहे घर लौट रहे हैं, पक्षियों के घरों में चहचहाहट है तथा झरने ऊँचे स्वर में गा रहे होते हैं।

(ग) सायंकाल के समय पक्षियों के झुंडों से आने वाली आवाज़ को ‘अलबेली’ कहा गया है क्योंकि उसमें मिलन की व्याकुलता होती है।

(घ) इसका अर्थ है कि सांझ के समय मौसम सुहावना व मस्त है। प्रकृति व मानव की हर क्रिया मिलन की तरफ बढ़ रही है, परंतु कवि अकेला है। उसे प्रेमिका की कमी खल रही है। वह इस पीड़ा को सहन कर रहा है।

6. स्वातंत्र्य उमंगों की तरंग, नर में गौरव की ज्वाला है,
स्वातंत्र्य रूह की ग्रीवा में अनमोल विजय की माला है,
स्वातंत्र्य-भाव नर को अदम्य, वह जो चाहे कर सकता है,
शासन की कौन बिसात, पाँव विधि की लिपि पर धर सकता है।

जिंदगी वहीं तक नहीं, ध्वजा जिस जगह विगत युग में गाड़ी,
मालूम किसी को नहीं अनागत नर की दुविधाएँ सारी,
‘सारा जीवन नप चुका’ कहे जो, वह दासता-प्रचारक है,
नर के विवेक का शत्रु, मनुज की मेधा का संहारक है।

रोटी उसकी जिसका अनाज, जिसकी ज़मीन, जिसका श्रम है,
अब कौन उलट सकता स्वतंत्रता का सुसिद्ध सीधा क्रम है।
आज़ादी है अधिकार परिश्रम का पुनीत फल पाने का,
आज़ादी है अधिकार शोषणों की धज्जियाँ उड़ाने का।

प्रश्नः
(क) कवि ने मनुष्य पर स्वतंत्रता का प्रभाव किन रूपों में लक्षित किया है?
(ख) कवि दासता फैलाने वाला किसे मानता है और क्यों?
(ग) कवि के मत में स्वतंत्रता का सीधा क्रम क्या है?
(घ) स्वतंत्रता हमें क्या-क्या अधिकार देती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
(क) कवि ने मनुष्य पर स्वतंत्रता का प्रभाव निम्नलिखित रूपों में लक्षित किया है-

  1. स्वातंत्र्य उमंगों की तरंग
  2. गौरव की ज्वाला, आत्मा के गले में अनमोल विजय की माला, नर का अदम्य भाव जिससे वह कुछ भी कर सकता है।

(ख) कवि दासता फैलाने वाला उसे मानता है जो हमेशा यह कहते रहते हैं कि मनुष्य संपूर्णता को प्राप्त कर चुका है तथा इससे आगे कुछ भी नहीं है। इससे मानव की विकास प्रक्रिया बाधित होती है।

(ग) कवि के मत में स्वतंत्रता का सीधा क्रम यह है कि जो व्यक्ति मेहनत करता है, भोजन पर हक भी उसी का है।

(घ) स्वतंत्रता हमें निम्नलिखित अधिकार देती है

  1. परिश्रम का फल पाने का अधिकार।
  2. शोषण का विरोध करने का अधिकार।

7. जीवन का अभियान दान-बल से अजस्र चलता है,
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है।
और दान में रोकर या हँस कर हम जो देते हैं,
अहंकारवश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।
देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समाएँ,
रहें डालियाँ स्वस्थ कि उनमें नये-नये फल आएँ।
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक, मृत्यु से पहले ही मरना है।
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं ?
गिरने से उसको सँभाल, क्यों रोक नहीं लेते हैं ?
जो नर आत्मदान से अपना जीवन घट भरते हैं,
वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरते हैं।
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकाने वाला।

प्रश्नः
(क) भाव स्पष्ट कीजिए-उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है।
(ख) दान को ‘जीवन का झरना’ क्यों कहा गया है?
(ग) देय वस्तुओं के प्रति मोह रखना आत्मघात कैसे है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
(घ) वे कौन से मनुष्य हैं जो मर कर भी नहीं मरते? उनके चरित्र की विशेषताएँ बताइए।
उत्तरः
(क) इसका अर्थ है कि हम निस्स्वार्थ भाव से जितना अधिक दूसरों को स्नेह देंगे, उतना ही हमारा यश फैलता जाएगा।

(ख) दान को जीवन का झरना कहा गया है क्योंकि जिस प्रकार झरना बिना किसी भेदभाव के सबको जल देता है, उसी प्रकार दान करना भी जीवन का महान कार्य है। दान न करने से जीवन रुक जाता है तथा नाश को प्राप्त करना है।

(ग) कवि कहता है कि वृक्ष फलों को इसलिए देते हैं कि उनकी डालियाँ स्वस्थ रहें तथा नए-नए फल आएँ। यदि वे ऐसा न करें तो फल सड़ जाएगा तथा उसमें कीड़े हो जाएँगे जो पेड़ को भी नष्ट कर देंगे। अतः दी हुई वस्तु पर मोह नहीं दिखाना चाहिए।

(घ) वे व्यक्ति जो दूसरों के लिए अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं, वे मृत्यु को प्राप्त करके भी अमर रहते हैं। उनके कार्य सदैव याद किए जाते हैं।

8. जहाँ भूमि पर पड़ा कि
सोना धंसता, चाँदी धंसती,
धंसती ही जाती पृथ्वी में
बड़ों-बड़ों की हस्ती।

शक्तिहीन जो हुआ कि
बैठा भू पर आसन मारे,
खा जाते हैं उसको
मिट्टी के ढेले हत्यारे!

मातृभूमि है उसकी, जिसको
उठ जीना होता है,
दहन-भूमि है उसकी, जो
क्षण-क्षण गिरता जाता है।

भूमि खींचती है मुझको
भी, नीचे धीरे-धीरे
किंतु लहराता हूँ मैं नभ पर
शीतल-मंद-समीरे।

काला बादल आता है
गुरु गर्जन स्वर भरता है,
विद्रोही-मस्तक पर वह
अभिषेक किया करता है।

विद्रोही हैं हमीं, हमारे
फूलों में फल आते,
और हमारी कुरबानी पर,
जड़ भी जीवन पाते।

प्रश्नः
(क) ‘विद्रोही हैं हमीं’-पेड़ अपने आप को विद्रोही क्यों मानते हैं ?
(ख) ‘धंसती ही जाती पृथ्वी में बड़ों-बड़ों की हस्ती’-काव्य-पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) इस काव्यांश में कवि ने किसे ‘मातृभूमि’ के लिए उपयुक्त और किसे ‘दहन-भूमि’ के योग्य बताया है ?
(घ) काला बादल किसका अभिषेक किया करता है और क्यों?
उत्तरः
(क) पेड़ स्वयं को विद्रोही मानते हैं क्योंकि इनके फूलों में भी फल आते हैं। दूसरे शब्दों में, पेड़ त्याग व समर्पण करते हैं।

(ख) इसका अर्थ है कि संसार में कोई भी व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली, धनी, सुंदर आदि हो, उसका अभिमान सदा नहीं रहता। अंत में, सबको इस संसार से जाना पड़ता है तथा वे सभी अन्य लोगों की तरह मिट्टी में ही मिल जाते हैं।

(ग) कवि ने ‘मातृभूमि’ उन लोगों के लिए उपयुक्त बताई है जिनमें संघर्ष करने की क्षमता होती है तथा ‘दहनभूमि’ के योग्य उन व्यक्तियों को बताया है जो क्षण-क्षण गिरते जाते हैं।

(घ) काला बादल विद्रोही व क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्ति का अभिषेक करता है क्योंकि बादल स्वयं गर्जना करके विद्रोह का परिचय देता है।

9. जिसकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,
जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;

शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होंने नहीं स्वाद हलाहल का;

जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;

जिनको सहारा नहीं-भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किये वे ही आत्मबल का।

उसकी सहिष्णुता, क्षमा का है महत्त्व ही क्या,
करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है?

करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे,
ले न सकता जो वैरियों से प्रतिकार है?

सहता प्रहार कोई विवश कदर्प जीव
जिसकी नसों में नहीं पौरुष की धार है;

करुणा, क्षमा है क्लीव जाति के कलंक घोर,
क्षमता क्षमा की शूरवीरों का सिंगार है।

प्रश्नः
(क) किसकी सहनशीलता और क्षमा को महत्त्वहीन माना गया है और क्यों?
(ख) लहू में अनल का वेग होने से क्या तात्पर्य है?
(ग) कवि के अनुसार आत्मबल का भरोसा किन्हें रहता है ?
(घ) शूरवीरों का श्रृंगार किसे माना गया है और क्यों?
उत्तरः
(क) कवि ने उन लोगों की सहनशीलता और क्षमा को महत्त्वहीन माना है जो आरामपरस्त हैं, भाग्यवादी हैं, स्वाभिमानी नहीं हैं तथा जो अत्याचार का विरोध नहीं करते। इन लोगों में प्रहार करने की शक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति किसी को क्षमा नहीं करने में सक्षम नहीं होते।

(ख) इसका अर्थ है-अत्याचार, विद्रोह आदि को देखकर प्रतिकार का भाव न उठना। ऐसे व्यक्तियों को कायर माना जाता है जो कभी प्रतिरोध भाव को व्यक्त नहीं करते।

(ग) कवि का मत है कि आत्मबल का भरोसा वही लोग करते हैं जिनकी भुजाओं में ताकत नहीं है। वे अन्याय का प्रतिकार नहीं कर पाते।

(घ) शूरवीरों का श्रृंगार क्षमा करने की क्षमता है। इसका कारण यह है कि शूरवीर ही किसी को क्षमा कर सकता है। कमज़ोर व्यक्ति प्रतिरोध न करने के कारण क्षमा करने का अधिकारी नहीं होता।

10. किस भाँति जीना चाहिए किस भाँति मरना चाहिए,
सो सब हमें निज पूर्वजों से याद करना चाहिए।
पद-चिह्न उनके यत्नपूर्वक खोज लेना चाहिए,
निज पूर्व गौरव-दीप को बुझने न देना चाहिए।

आओ मिलें सब देश-बांधव हार बनकर देश के,
साधक बनें सब प्रेम से सुख शांतिमय उद्देश्य के।
क्या सांप्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता, अहो,
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो॥

प्राचीन हो कि नवीन, छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं-यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ, वैसी व्यवस्था ठीक है॥

मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा,
हे सब स्वदेशी बंधु, उनके दुःखभागी हो सदा।
देकर उन्हें साहाय्य भरसक सब विपत्ति व्यथा हरो,
निज दुख से ही दूसरों के दुख का अनुभव करो॥

प्रश्नः
(क) हमें अपने अतीत के गौरव को बनाए रखने के लिए क्या करना होगा?
(ख) कवि को यह विश्वास क्यों है कि सांप्रदायिकता हमारी एकता को भंग नहीं कर सकती?
(ग) रूढ़ियों को त्यागने की बात कवि ने क्यों कही है?
(घ) ‘मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा’-कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
(क) कवि कहता है कि हमें अपने अतीत के गौरव को बनाए रखने के लिए पूर्वजों के द्वारा सुझाए गए मार्गों का अनुसरण करना चाहिए। इस तरह हम पुराने गौरव को बचाए रख सकेंगे।

(ख) कवि कहता है कि जिस प्रकार विभिन्न तरह के फूल एक माला में बँधकर रहते हैं, उसी प्रकार भारत में अनेक धर्मों के लोग मिल-जुलकर रह सकते हैं। इस तरीके से कवि को विश्वास है कि सांप्रदायिकता हमारी एकता को भंग नहीं कर सकती।

(ग) रूढियाँ समय के बदलने पर विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं। कवि रूढ़ियों को त्यागने की बात कहता है क्योंकि ये हर युग में प्रासांगिक नहीं होती। हमें विवेकपूर्वक कार्य करने चाहिए।

(घ) इसका अर्थ है कि मनुष्य को देश विकास या देशप्रेम की केवल बातें नहीं करनी चाहिए। देश-कल्याण के लिए सार्थक प्रयास भी करने चाहिए। कवि व्यावहारिकता पर बल देता है।

11. इन दिनों छटपटा रहा है वह
अच्छी लगने वाली बातों के अलावा
और सब कुछ तो हो रहा है
इन दिनों वाले समय में
यह आखिरी तनाव
यह आखिरी पीड़ा
यह अंतिम कुंठा
यह अंतिम भूख
पर कहाँ?
जाते हैं सिलसिले
बढ़ी जाती है बेक़रारी
गुज़र जाते हैं दिन-पर-दिन
अनचीन्हे-से
भीड़ के विस्फोट में गुम होने से पहले
आएगा क्या, कोई, ऐसा दिन एक
उसका अपने वाला भी?
उसका अपने वाला भी?
उसका अपने वाला भी?
अथ से इति तक
अच्छी लगने वाली हो उसे
उस दिन भी हवा वैसे ही चले
वैसे ही चले दुनिया भी
लोग भी वही करें चले
रोटियाँ भी वैसे ही पकें
जैसा वह चाहे
जैसा वह कहे।

प्रश्नः
(क) कवि की छटपटाहट का कारण क्या है?
(ख) कवि कैसे दिन की प्रतीक्षा में है?
(ग) ‘अथ से इति तक’ का तात्पर्य बताइए।
(घ) भाव स्पष्ट कीजिए- “अच्छी लगने वाली बातों के अलावा और सब कुछ तो हो रहा है।”
उत्तरः
(क) कवि की छटपटाहट का कारण यह है कि आजकल अच्छी लगने वाली बातों के अलावा सब कुछ हो रहा है अर्थात् दुख देने वाली बातें व कार्य हो रहे हैं।
(ख) कवि ऐसे दिन की प्रतीक्षा में है. जिसमें शुरू से लेकर अंत तक अच्छी लगने वाली घटनाएँ हों।

(ग) इसका अर्थ है-प्रारंभ से समाप्ति तक।

(घ) इसका अर्थ है कि समाज में पीड़ा, कुंठा, भूख, तनाव आदि उच्चतम स्तर पर है। आम व्यक्ति को अच्छी लगने वाली बातें नहीं होती।

12. भीड़ जा रही थी
मैंने सुनी पदचापें,
बड़ा शोर था पर एक आहट ने मुझे पुकारा
वह शायद तुम्हारी थी।
अकेलेपन के, कुंठाओ के जालों को तोड़कर
हो गया खड़ा
और अब विश्वास है मुझे
मैं कुछ बनूँगा
मैं कुछ कर गुज़रूँगा
किंतु अपनी मुट्ठी-भर योग्यताओं के बल पर नहीं,
तुम्हारे विश्वास के बल पर
तुम्हारी आशाओं के बल पर
तुम्हारी शुभ कामनाओं के बल पर।
मेरे मित्र!
आहट ने मुझसे कहा
बैठे क्यों हो?
तुम भी चलो, चलना ही तो जीवन है।
तब मैं
शायद यह साथ रहे न रहे हमेशा
मैं जानता हूँ-रह भी नहीं सकता
पड़ेगा बिछुड़ना
जाना पड़ेगा दूर
फिर भी मेरे साथ रहेगी तुम्हारी स्मृति
जो देती रहेगी मुझे सहारा, नव उत्साह!
और मैं जब भी बढ़ाऊँगा क़दम किसी सफलता की ओर
तो मेरा हृदय अवश्य कहेगा एक बात
धन्यवाद मित्र, धन्यवाद मित्र, धन्यवाद!

प्रश्नः
(क) कवि को कुछ बनने, कुछ कर गुज़रने का विश्वास किसने प्रदान किया?
(ख) तीन बार ‘धन्यवाद’ कहने से अर्थ में क्या विशेषता आ गई है?
(ग) मित्र के साथ न रहने पर कवि को किस बात का भरोसा है ?
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए–’तुम भी चलो, चलना ही तो जीवन है’।
उत्तरः
(क) कवि को कुछ बनने, कुछ कर गुज़रने का विश्वास उसके मित्र ने प्रदान किया।

(ख) कवि ने तीन बार ‘धन्यवाद’ किया है। इससे पता चलता है कि मित्र की प्रेरणा से कवि में उत्साह जगा है। वह अपनी हार्दिकतरीके से आभार व्यक्त करना चाहता है।

(ग) मित्र के साथ न रहने पर कवि को भरोसा है कि उस समय दोस्त की स्मृति उसके साथ रहेंगी जो सदैव उसमें उत्साह पैदा करती रहेगी।

(घ) इसका अर्थ है कि निरंतर चलना ही जीवन है। मनुष्य को स्वयं भी आगे बढ़ना चाहिए तथा दूसरों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देनी चाहिए।

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अपठित गद्यांश | class 12th | quick revision notes Hindi Unseen Passages अपठित बोध

Class 12 Hindi Unseen Passages अपठित गद्यांश

वह गद्यांश जिसका अध्ययन हिंदी की पाठ्यपुस्तक में नहीं किया गया है अपठित गद्यांश कहलाता है। परीक्षा में इन गद्यांशों से विद्यार्थी की भावग्रहण क्षमता का मूल्यांकन किया जाता है।

अपठित गद्यांश को हल करने संबंधी आवश्यक बिंदु

  • विद्यार्थी को गद्यांश ध्यान से पढ़ना चाहिए ताकि उसका अर्थ स्पष्ट हो सके।
  • तत्पश्चात् गद्यांश से संबंधित प्रश्नों का अध्ययन करें।
  • फिर इन प्रश्नों के संभावित उत्तर गद्यांश में खोजें।
  • प्रश्नों के उत्तर गद्यांश पर आधारित होने चाहिए।
  • उत्तरों की भाषा सहज, सरल व स्पष्ट होनी चाहिए।

( गत वर्षों में पूछे गए प्रश्न )

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए

1. संवाद में दोनों पक्ष बोलें यह आवश्यक नहीं। प्रायः एक व्यक्ति की संवाद में मौन भागीदारी अधिक लाभकर होती है। यह स्थिति संवादहीनता से भिन्न है। मन से हारे दुखी व्यक्ति के लिए दूसरा पक्ष अच्छे वक्ता के रूप में नहीं अच्छे श्रोता के रूप में अधिक लाभकर होता है। बोलने वाले के हावभाव और उसका सलीका, उसकी प्रकृति और सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को पल भर में बता देते हैं। संवाद से संबंध बेहतर भी होते हैं और अशिष्ट संवाद संबंध बिगाड़ने का कारण भी बनता है। बात करने से बड़े-बड़े मसले, अंतर्राष्ट्रीय समस्याएँ तक हल हो जाती हैं।

पर संवाद की सबसे बड़ी शर्त है एक-दूसरे की बातें पूरे मनोयोग से, संपूर्ण धैर्य से सुनी जाएँ। श्रोता उन्हें कान से सुनें और मन से अनुभव करें तभी उनका लाभ है, तभी समस्याएँ सुलझने की संभावना बढ़ती है और कम-से-कम यह समझ में आता है कि अगले के मन की परतों के भीतर है क्या? सच तो यह है कि सुनना एक कौशल है जिसमें हम प्रायः अकुशल होते हैं। दूसरे की बात काटने के लिए, उसे समाधान सुझाने के लिए हम उतावले होते हैं और यह उतावलापन संवाद की आत्मा तक हमें पहुँचने नहीं देता।

हम तो बस अपना झंडा गाड़ना चाहते हैं। तब दूसरे पक्ष को झुंझलाहट होती है। वह सोचता है व्यर्थ ही इसके सामने मुँह खोला। रहीम ने ठीक ही कहा था-“सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय।” ध्यान और धैर्य से सुनना पवित्र आध्यात्मिक कार्य है और संवाद की सफलता का मूल मंत्र है। लोग तो पेड़-पौधों से, नदी-पर्वतों से, पशु-पक्षियों तक से संवाद करते हैं। राम ने इन सबसे पूछा था क्या आपने सीता को देखा?’ और उन्हें एक पक्षी ने ही पहली सूचना दी थी। इसलिए संवाद की अनंत संभावनाओं को समझा जाना चाहिए।

प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-संवाद : एक कौशल।

प्रश्नः 2.
‘संवादहीनता’ से क्या तात्पर्य है ? यह स्थिति मौन भागीदारी से कैसे भिन्न है?
उत्तरः
संवादहीनता से तात्पर्य है-बातचीत न होना। यह स्थिति मौन भागीदारी से बिलकुल अलग है। मौन भागीदारी में एक बोलने वाला होता है। संवादहीनता में कोई भी पक्ष अपनी बात नहीं कहता।

प्रश्नः 3.
भाव स्पष्ट कीजिए- “यह उतावलापन हमें संवाद की आत्मा तक नहीं पहुँचने देता।”
उत्तरः
इसका भाव यह है कि बातचीत के समय हम दूसरे की बात नहीं सुनते। हम अपने सुझाव उस पर थोपने की कोशिश करते हैं। इससे दूसरा पक्ष अपनी बात को समझा नहीं पाता और हम संवाद की मूल भावना को खत्म कर देते हैं।

प्रश्नः 4.
दुखी व्यक्ति से संवाद में दूसरा पक्ष कब अधिक लाभकर होता है? क्यों?
उत्तरः
दुखी व्यक्ति से संवाद में दूसरा पक्ष तब अधिक लाभकर होता है जब वह अच्छा श्रोता बने। दुखी व्यक्ति अपने मन की बात कहकर अपने दुख को कम करना चाहता है। वह दूसरे की नहीं सुनना चाहता।

प्रश्नः 5.
सुनना कौशल की कुछ विशेषताएँ लिखिए।
उत्तरः
सुनना कौशल की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) एक-दूसरे की बात पूरे मनोयोग से सुननी चाहिए।
(ख) श्रोता उन्हें सुनकर मनन करें।
(ग) सही ढंग से सुनने से ही समस्या सुलझ सकती है। .

प्रश्नः 6.
हम संवाद की आत्मा तक प्रायः क्यों नहीं पहुँच पाते?
उत्तरः
हम संवाद की आत्मा तक प्रायः इसलिए पहुँच नहीं पाते क्योंकि हम अपने समाधान देने के लिए उतावले होते हैं। इससे हम दूसरे की बात को समझ नहीं पाते।

प्रश्नः 7.
रहीम के कथन का आशय समझाइए।
उत्तरः
रहीम का कहना है कि लोग बात सुन लेते हैं, पर उन्हें बाँटता कोई नहीं। कहने का तात्पर्य है कि आम व्यक्ति अपनी ही बात कहना चाहता है।

2. जब समाचार-पत्रों में सर्वसाधारण के लिए कोई सूचना प्रकाशित की जाती है तो उसको विज्ञापन कहते हैं। यह सूचना नौकरियों से संबंधित हो सकती है, खाली मकान को किराये पर उठाने के संबंध में हो सकती है या किसी औषधि के प्रचार से संबंधित हो सकती है। कुछ लोग विज्ञापन के आलोचक हैं। वे इसे निरर्थक मानते हैं। उनका मानना है कि यदि कोई वस्तु यथार्थ रूप में अच्छी है तो वह बिना किसी विज्ञापन के ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाएगी जबकि खराब वस्तुएँ विज्ञापन की सहायता पाकर भी भंडाफोड़ होने पर बहुत दिनों तक टिक नहीं पाएँगी, परंतु लोगों कि यह सोच ग़लत है।

आज के युग में मानव का प्रचार-प्रसार का दायरा व्यापक हो चुका है। अत: विज्ञापनों का होना अनिवार्य हो जाता है। किसी अच्छी वस्तु की वास्तविकता से परिचय पाना आज के विशाल संसार में विज्ञापन के बिना नितांत असंभव है। विज्ञापन ही वह शक्तिशाली माध्यम है जो हमारी ज़रूरत की वस्तुएँ प्रस्तुत करता है, उनकी माँग बढ़ाता है और अंततः हम उन्हें जुटाने चल पड़ते हैं। यदि कोई व्यक्ति या कंपनी किसी वस्तु का निर्माण करती है, उसे उत्पादक कहा जाता है। उन वस्तुओं और सेवाओं को ख़रीदने वाला उपभोक्ता कहलाता है। इन दोनों को जोड़ने का कार्य विज्ञापन करता है।

वह उत्पादक को उपभोक्ता के संपर्क में लाता है तथा माँग और पूर्ति में संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न करता है। पुराने ज़माने में किसी वस्तु की अच्छाई का विज्ञापन मौखिक तरीके से होता था। काबुल का मेवा, कश्मीर की ज़री का काम, दक्षिण भारत के मसाले आदि वस्तुओं की प्रसिद्धि मौखिक रूप से होती थी। उस समय आवश्यकता भी कम होती थी तथा लोग किसी वस्तु के अभाव की तीव्रता का अनुभव नहीं करते थे। आज समय तेज़ी का है। संचार-क्रांति ने जिंदगी को गति दे दी है। मनुष्य की. आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं। इसलिए विज्ञापन मानव-जीवन की अनिवार्यता बन गया है।

प्रश्नः 1.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-विज्ञापन का महत्त्व।

प्रश्नः 2.
विज्ञापन किसे कहते हैं ? वह मानव जीवन का अनिवार्य अंग क्यों माना जाता है?
उत्तरः
समाचार पत्रों में सर्वसाधारण के लिए प्रकाशित सूचना विज्ञापन कहलाती है। विज्ञापन के जरिए लोगों की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं तथा मानव का प्रचार-प्रसार का दायरा व्यापक हो चुका है। इसलिए वह मानव जीवन का अनिवार्य अंग माना जाता है।

प्रश्नः 3.
उत्पादक किसे कहते हैं ? उत्पादक-उपभोक्ता संबंधों को विज्ञापन कैसे प्रभावित करता है?
उत्तरः
वस्तु का निर्माण करने वाला व्यक्ति या कंपनी को उत्पादक कहा जाता है। विज्ञापन उत्पादक व उपभोक्ता को संपर्क में लाकर माँग व पूर्ति में संतुलन स्थापित करने का कार्य करता है।

प्रश्नः 4.
किसी विज्ञापन का उद्देश्य क्या होता है? जीवन में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तरः
विज्ञापन का उद्देश्य वस्तुओं को प्रस्तुत करके माँग बढ़ाना है। इसके कारण ही हम खरीददारी करते हैं।

प्रश्नः 5.
पुराने समय में विज्ञापन का तरीका क्या था? वर्तमान तकनीकी युग ने इसे किस प्रकार प्रभावित किया है?
उत्तरः
पुराने ज़माने में विज्ञापन का तरीका मौखिक था। उस समय आवश्यकता कम होती थी तथा वस्तु के अभाव की तीव्रता भी कम थी। आज तेज़ संचार का युग है। इसने मानव की ज़रूरत बढ़ा दी है।

प्रश्नः 6.
विज्ञापन के आलोचकों के विज्ञापन के संदर्भ में क्या विचार हैं?
उत्तरः
विज्ञापन के आलोचक इसे निरर्थक मानते हैं। उनका कहना है कि अच्छी चीज़ स्वयं ही लोकप्रिय हो जाती हैं जबकि खराब वस्तुएँ विज्ञापन का सहारा पाकर भी लंबे समय नहीं चलती।

प्रश्नः 7.
आज की भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में विज्ञापन का महत्त्व उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तरः
आज मानव का दायरा व्यापक हो गया है। उसके पास अधिक संसाधन है। विज्ञापन ही अपनी ज़रूरत पूरी कर सकता है।

3. राष्ट्र केवल ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत होती है जो हमें अपने पूर्वजों से परंपरा के रूप में प्राप्त होती है। जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी पराधीनता व्यक्ति की परतंत्रता की पहली सीढ़ी होती है। ऐसे ही स्वतंत्र राष्ट्र की सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्ति का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता तथा विकास के लिए काम करने की भावना राष्ट्रीयता कहलाती है।

जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से धर्म, जाति, कुल आदि के आधार पर व्यवहार करता है तो उसकी दृष्टि संकुचित हो जाती है। राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है-देश को प्राथमिकता, भले ही हमें ‘स्व’ को मिटाना पड़े। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचन्द्र बोस आदि के कार्यों से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े किंतु वे अपने निश्चय में अटल रहे। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए पारस्परिक सभी सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ राष्ट्रीय कही जा सकती हैं।

जब-जब भारत में फूट पड़ी, तब-तब विदेशियों ने शासन किया। चाहे जातिगत भेदभाव हो या भाषागत-तीसरा व्यक्ति उससे लाभ उठाने का अवश्य यत्न करेगा। आज देश में अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। कहीं भाषा को लेकर संघर्ष हो रहा है तो कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर लोगों को निकाला जा रहा है जिसका परिणाम हमारे सामने है। आदमी अपने अहं में सिमटता जा रहा है। फलस्वरूप राष्ट्रीय बोध का अभाव परिलक्षित हो रहा है।

प्रश्नः 1.
गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
शीर्षक-राष्ट्र और राष्ट्रीयता।

प्रश्नः 2.
‘स्व’ से क्या तात्पर्य है, उसे मिटाना क्यों आवश्यक है?
उत्तरः
‘स्व’ से तात्पर्य है-अपना। केवल अपने बारे में सोचने वाले व्यक्ति की दृष्टि संकुचित होती है। वह राष्ट्र का विकास नहीं कर सकता। अतः ‘स्व’ को मिटाना आवश्यक है।

प्रश्नः 3.
आशय स्पष्ट कीजिए-“राष्ट्र केवल ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत भी है।”
उत्तरः
इसका अर्थ है कि राष्ट्र केवल ज़मीन का टुकड़ा नहीं है। वह व्यक्तियों से बसा हुआ क्षेत्र है जहाँ पर संस्कृति है, विचार है। वहाँ जीवनमूल्य स्थापित हो चुके होते हैं।

प्रश्नः 4.
राष्ट्रीयता से लेखक का क्या आशय है ? गद्यांश में चर्चित दो राष्ट्रभक्तों के नाम लिखिए।
उत्तरः
राष्ट्रीयता से लेखक का आशय है कि देश के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता व विकास के लिए काम करने की भवना होना। लेखक ने महात्मा गांधी व सुभाषचन्द्र बोस का नाम लिया है।

प्रश्नः 5.
राष्ट्रीय बोध को अभाव किन-किन रूपों में दिखाई देता है?
उत्तरः
आज देश में अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं, कहीं भाषा के नाम पर तो कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर। इसके कारण व्यक्ति अपने अहं में सिमटता जा रहा है। अतः राष्ट्रीय बोध का अभाव दिखाई दे रहा है।

प्रश्नः 6.
राष्ट्र के उत्थान में व्यक्ति का क्या स्थान है? उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तरः
राष्ट्र के उत्थान में व्यक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जब व्यक्ति अपने अहं को त्याग कर देश के विकास के लिए कार्य करता है तो देश की प्रगति होती है। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचन्द्र बोस आदि के कार्यों से देश आजाद हुआ।

प्रश्नः 7.
व्यक्तिगत स्वार्थ एवं राष्ट्रीय भावना परस्पर विरोधी तत्व हैं। कैसे? तर्क सहित उत्तर लिखिए।
उत्तरः
व्यक्तिगत स्वार्थ एवं राष्ट्रीय भावना परस्पर विरोधी तत्व हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण मनुष्य अपनी जाति, धर्म, क्षेत्र आदि के बारे में सोचता है, देश के बारे में नहीं। राष्ट्रीय भावना में ‘स्व’ का त्याग करना पड़ता है। ये दोनों प्रवृत्तियाँ एक साथ नहीं हो सकतीं।

4. भारत प्राचीनतम संस्कृति का देश है। यहाँ दान पुण्य को जीवनमुक्ति का अनिवार्य अंग माना गया है। जब दान देने को धार्मिक कृत्य मान लिया गया तो निश्चित तौर पर दान लेने वाले भी होंगे। हमारे समाज में भिक्षावृत्ति की ज़िम्मेदारी समाज के धर्मात्मा, दयालु व सज्जन लोगों की है। भारतीय समाज में दान लेना व दान देना-दोनों धर्म के अंग माने गए हैं। कुछ भिखारी खानदानी होते हैं क्योंकि पुश्तों से उनके पूर्वज धर्म स्थानों पर अपना अड्डा जमाए हुए हैं।

कुछ भिखारी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं जो देश में छोटी-सी विपत्ति आ जाने पर भीख का कटोरा लेकर भ्रमण के लिए निकल जाते हैं। इसके अलावा अनेक श्रेणी के और भी भिखारी होते हैं। कुछ भिखारी परिस्थिति से बनते हैं तो कुछ बना दिए जाते हैं। कुछ शौकिया भी। इस व्यवसाय में आ गए हैं। जन्मजात भिखारी अपने स्थान निश्चित रखते हैं। कुछ भिखारी अपनी आमदनी वाली जगह दूसरे भिखारी को किराए पर देते हैं। आधुनिकता के कारण अनेक वृद्ध मज़बूरीवश भिखारी बनते हैं।

गरीबी के कारण बेसहारा लोग भीख माँगने लगते हैं। काम न मिलना भी भिक्षावृत्ति को जन्म देता है। कुछ अपराधी बच्चों को उठा ले जाते हैं तथा उनसे भीख मँगवाते हैं। वे इतने हैवान हैं कि भीख माँगने के लिए बच्चों का अंग-भंग भी कर देते हैं। भारत में भिक्षा का इतिहास बहुत पुराना है। देवराज इंद्र व विष्णु श्रेष्ठ भिक्षुकों में थे। इंद्र ने कर्ण से अर्जुन की रक्षा के लिए उनके कवच व कुंडल ही भीख में माँग लिए। विष्णु ने वामन अवतार लेकर भीख माँगी।

धर्मशास्त्रों ने दान की महिमा का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जिसके कारण भिक्षावृत्ति को भी धार्मिक मान्यता मिल गई। पूजा-स्थल, तीर्थ, रेलवे स्टेशन, बसस्टैंड, गली-मुहल्ले आदि हर जगह भिखारी दिखाई देते हैं। इस कार्य में हर आयु का व्यक्ति शामिल है। साल-दो साल के दुध मुँहे बच्चे से लेकर अस्सी-नब्बे वर्ष के बूढ़े तक को भीख माँगते देखा जा सकता है। भीख माँगना भी एक कला है, जो अभ्यास या सूक्ष्म निरीक्षण से सीखी जा सकती है।

अपराधी बाकायदा इस काम की ट्रेनिंग देते हैं। भीख रोकर, गाकर, आँखें दिखाकर या हँसकर भी माँगी जाती है। भीख माँगने के लिए इतना आवश्यक है कि दाता के मन में करुणा जगे। अपंगता, कुरूपता, अशक्तता, वृद्धावस्था आदि देखकर दाता करुणामय होकर परंपरानिर्वाह कर पुण्य प्राप्त करता है।

प्रश्नः 1.
गद्यांश का समुचित शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-भिक्षावृत्ति एक व्यवसाय।

प्रश्नः 2.
“भारत में भिक्षा का इतिहास प्राचीन है”-सप्रमाण सिद्ध कीजिए।
उत्तरः
भारत में भिक्षावृत्ति का इतिहास पुराना है। देवराज इंद्र व विष्णु श्रेष्ठ भिक्षुकों में हैं। इंद्र ने अर्जुन की रक्षा के लिए कर्ण से कवच व कुंडल की भिक्षा माँगी जबकि विष्णु ने वामन अवतार में भीख माँगी। धर्मशास्त्रों से भिक्षावृत्ति को धार्मिक मान्यता मिली।

प्रश्नः 3.
“भीख माँगना एक कला है”-इस कला के विविध रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
भीख माँगना एक कला है जो अभ्यास व सूक्ष्म निरीक्षण से सीखी जाती है। रोकर, गाकर, आँखें दिखाकर या हँसकर, अपंगता, अशक्तता आदि के जरिए दूसरे के मन में करुणा जगाकर भीख माँगी जाती है।

प्रश्नः 4.
समाज में भिक्षावृत्ति बढ़ाने में हमारी मान्यताएँ किस प्रकार सहायक होती हैं ?
उत्तरः
भिक्षावृत्ति बढ़ाने में हमारी धार्मिक मान्यताएँ सहायक हैं। भारत में दान देना व लेना दोनों धर्म के अंग माने गए हैं। दान-पुण्य को जीवनमुक्ति का अनिवार्य अंग माना गया है। अतः भिक्षुकों का होना लाजिमी है।

प्रश्नः 5.
भिखारी व्यवसाय के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
भिखारी व्यवसाय में कुछ भिखारी खानदानी हैं जो कई पीढियों से धर्मस्थानों पर अपना अड्डा जमाए हुए हैं। कुछ अंतर्राष्ट्रीय भिखारी हैं जो देश में छोटी-सी विपत्ति आने पर भीख माँगने विदेश चले जाते हैं। कुछ परिस्थितिवश तथा कुछ अपराधियों द्वारा बना दिए जाते हैं। कुछ शौकिया भिखारी भी होते हैं।

प्रश्नः 6.
भिखारी दाता के मन में किस भाव को जगाते हैं और क्यों?
उत्तरः
भिखारी अपनी अशक्तता, कुरूपता, अपंगता, वृद्धावस्था आदि के जरिए दाता के मन में करुणाभाव जगाते हैं ताकि वे दान देकर अपनी परंपरा का निर्वाह कर सकें।

प्रश्नः 7.
आपके विचार से भिक्षावृत्ति से कैसे छुटकारा पाया जा सकता है?
उत्तरः
मेरे विचार से भिक्षावृत्ति से छुटकारा तभी मिल सकता है जब उसे धर्म के प्रभाव से अलग किया जाएगा। कानून व सामाजिक आंदोलन भी सहायक हो सकते हैं।

5. सभी मनुष्य स्वभाव से ही साहित्य-स्रष्टा नहीं होते, पर साहित्य-प्रेमी होते हैं। मनुष्य का स्वभाव ही है सुंदर देखने का। घी का लड्डू टेढ़ा भी मीठा ही होता है, पर मनुष्य गोल बनाकर उसे सुंदर कर लेता है। मूर्ख-से-मूर्ख हलवाई के यहाँ भी गोल लड्डू ही प्राप्त होता है; लेकिन सुंदरता को सदा-सर्वदा तलाश करने की शक्ति साधना के द्वारा प्राप्त होती है। उच्छृखलता और सौंदर्य-बोध में अंतर है। बिगड़े दिमाग का युवक परायी बहू-बेटियों के घूरने को भी सौंदर्य-प्रेम कहा करता है, हालाँकि यह संसार की सर्वाधिक असुंदर बात है।

जैसा कि पहले ही बताया गया है, सुंदरता सामंजस्य में होती है और सामंजस्य का अर्थ होता है, किसी चीज़ का बहुत अधिक और किसी का बहुत कम न होना। इसमें संयम की बड़ी ज़रूरत है। इसलिए सौंदर्य-प्रेम में संयम होता है, उच्छृखलता नहीं। इस विषय में भी साहित्य ही हमारा मार्ग-दर्शक हो सकता है। जो आदमी दूसरों के भावों का आदर करना नहीं जानता उसे दूसरे से भी सद्भावना की आशा नहीं करनी चाहिए। मनुष्य कुछ ऐसी जटिलताओं में आ फँसा है कि उसके भावों को ठीक-ठीक पहचानना हर समय सुकर नहीं होता।

ऐसी अवस्था में हमें मनीषियों के चिंतन का सहारा लेना पड़ता है। इस दिशा में साहित्य के अलावा दूसरा उपाय नहीं है। मनुष्य की सर्वोत्तम कृति साहित्य है और उसे मनुष्य पद का अधिकारी बने रहने के लिए साहित्य ही एकमात्र सहारा है। यहाँ साहित्य से हमारा मतलब उसकी सब तरह ही सात्त्विक चिंतन-धारा से है।

प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-साहित्य और सौंदर्य-बोध। .

प्रश्नः 2.
साहित्य स्रष्टा और साहित्य प्रेमी से क्या तात्पर्य है?
उत्तरः
साहित्य स्रष्टा वे व्यक्ति होते हैं जो साहित्य का सृजन करते हैं। साहित्य प्रेमी साहित्य का आस्वादन करते हैं।

प्रश्नः 3.
लड्डू का उदाहरण क्यों दिया गया है?
उत्तरः
लेखक ने लड्डू का उदाहरण मनुष्य के सौंदर्य प्रेम के संदर्भ में दिया है। लड्डू की तासीर मीठी होती है चाहे वह गोल हो या टेढ़ा-मेढ़ा परंतु मनुष्य उन्हें गोल बनाकर उसके सौंदर्य को बढ़ा देता है।

प्रश्नः 4.
उच्छृखलता और सौंदर्य-बोध में क्या अंतर है?
उत्तरः
उच्छंखलता में नियमों का पालन नहीं होता, जबकि सौंदर्य बोध में संयम होता है।

प्रश्नः 5.
लेखक ने संसार की सबसे बुरी बात किसे माना है और क्यों?
उत्तरः
लेखक ने संसार की सबसे बुरी बात परायी बहू-बेटियों को घूरना बताया है क्योंकि यह सौंदर्य बोध के नाम पर उच्छृखलता है।

प्रश्नः 6.
जीवन में संयम की ज़रूरत क्यों है?
उत्तरः
जीवन में संयम की ज़रूरत है क्योंकि संयम से ही सामंजस्य का भाव उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य दूसरों की भावना का आदर कर सकता है।

प्रश्नः 7.
हमें विद्वानों के चिंतन की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
उत्तरः
हमें विद्वानों के चिंतन की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि जीवन की जटिलताओं में फँसने के कारण हम दूसरे के भावों को सही से नहीं समझ पाते। साहित्य ही इस समस्या का समाधान है।

6. बड़ी कठिन समस्या है। झूठी बातों को सुनकर चुप हो कर रहना ही भले आदमी की चाल है, परंतु इस स्वार्थ और लिप्सा के जगत में जिन लोगों ने करोड़ों के जीवन-मरण का भार कंधे पर लिया है वे उपेक्षा भी नहीं कर सकते। ज़रा सी गफलत हुई कि सारे संसार में आपके विरुद्ध ज़हरीला वातावरण तैयार हो जाएगा। आधुनिक युग का यह एक बड़ा भारी अभिशाप है कि गलत बातें बड़ी तेजी से फैल जाती हैं।

समाचारों के शीघ्र आदान-प्रदान के साधन इस युग में बड़े प्रबल हैं, जबकि धैर्य और शांति से मनुष्य की भलाई के लिए सोचने के साधन अब भी बहुत दुर्बल हैं। सो, जहाँ हमें चुप होना चाहिए, वहाँ चुप रह जाना खतरनाक हो गया है। हमारा सारा साहित्य नीति और सच्चाई का साहित्य है। भारतवर्ष की आत्मा कभी दंगा-फसाद और टंटे को पसंद नहीं करती परंतु इतनी तेज़ी से कूटनीति और मिथ्या का चक्र चलाया जा रहा है कि हम चुप नहीं बैठ सकते।

अगर लाखों-करोड़ों की हत्या से बचना है तो हमें टंटे में पड़ना ही होगा। हम किसी को मारना नहीं चाहते पर कोई हम पर अन्याय से टूट पड़े तो हमें ज़रूर कुछ करना पड़ेगा। हमारे अंदर हया है और अन्याय करके पछताने की जो आदत है उसे कोई हमारी दुर्बलता समझे और हमें सारी दुनिया के सामने बदनाम करे यह हमसे नहीं सहा जाएगा। सहा जाना भी नहीं चाहिए। सो, हालत यह है कि हम सच्चाई और भद्रता पर दृढ़ रहते हैं और ओछे वाद-विवाद और दंगे-फसादों में नहीं पड़ते। राजनीति कोई अजपा-जाप तो है नहीं।

यह स्वार्थों का संघर्ष है। करोड़ों मनुष्यों की इज्जत और जीवन-मरण का भार जिन्होंने उठाया है वे समाधि नहीं लगा सकते। उन्हें स्वार्थों के संघर्ष में पड़ना ही पड़ेगा और फिर भी हमें स्वार्थी नहीं बनना है।

प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-अन्याय का प्रतिकार।

प्रश्नः 2.
लेखक ने किसे कठिन समस्या माना है और क्यों?
उत्तरः
लेखक ने बताया है कि अफवाहों के दौर में शांत रहना बहुत कठिन है क्योंकि राजनीति अफवाहों के जरिए दंगे करवाती है। ऐसी स्थिति में संघर्ष अनिवार्य है।

प्रश्नः 3.
आधुनिक युग का अभिशाप किसे माना गया है और क्यों?
उत्तरः
आधुनिक युग का अभिशाप गलत बातों का तेजी से फैलना है क्योंकि गलत बात का प्रचार संचार साधन तेज़ी से करते हैं और भलाई के साधन सीमित है।

प्रश्नः 4.
चुप रहना कब खतरनाक होता है, कैसे?
उत्तरः
लेखक का मानना है कि गलत प्रचार पर चुप रहना खतरनाक होता है क्योंकि दंगा-फसाद आदि से लाखों की हत्या हो सकती है। अतः उनका विरोध करना अनिवार्य हो जाता है।

प्रश्नः 5.
भारतवर्ष की कोई एक विशेषता गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
भारतवर्ष की विशेषता है कि वह दंगा-फसाद व टंटे को पसंद नहीं करता। वह स्वार्थ को दूर रखता है, परंतु अन्यायी को नष्ट करता है।

प्रश्नः 6.
लेखक ने संघर्ष करना क्यों आवश्यक माना है?
उत्तरः
लेखक ने संघर्ष को आवश्यक माना है, क्योंकि जन की हानि से बचने के लिए दुष्टों का अंत करना अनिवार्य है।

प्रश्नः 7.
आशय स्पष्ट कीजिए :
‘राजनीति कोई अजपा-जाप तो है नहीं।’
उत्तरः
इसका अर्थ है कि राजनीति सब कुछ नहीं है। यह स्वार्थों का संघर्ष है।

7. विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं जिसकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान पर शोषक तथा वही दूसरे स्थान पर शोषित होता है चूँकि जब बात उपभोक्ता संरक्षण की हो तब पहला प्रश्न यह उठता है कि उपभोक ता किसे कहते हैं? या उपभोक्ता की परिभाषा क्या है? सामान्यतः उस व्यक्ति या व्यक्ति समूह को उपभोक्ता कहा जाता है जो सीधे तौर पर किन्हीं भी वस्तुओं अथवा सेवाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में शोषण का शिकार अवश्य होते हैं।

हमारे देश में ऐसे अशिक्षित, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से दुर्बल अशक्त लोगों की भीड है जो शहर की मलिन बस्तियों में, फुटपाथ पर, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे झोंपड़ी डालकर अथवा किसी भी अन्य तरह से अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देशों की समाजोपायोगी उर्ध्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं, जिन्हें आधुनिक सफ़ेदपोशों, व्यापारियों, नौकरशाहों एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण इन्हीं की देन है।

उपभोक्ता शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादकता व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है जबकि इसके क्षेत्र में वस्तुएँ एवं सेवाएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिनके अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, वकील सभी आते हैं। इन सबने शोषण के क्षेत्र में जो कीर्तिमान बनाए हैं वे वास्तव में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज कराने लायक हैं।

प्रश्नः 1.
द्यांश का समुचित शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
शीर्षक-उपभोक्ता शोषण।

प्रश्नः 2.
‘ऊर्ध्वमुखी योजनाओं से वंचित है’-वाक्य का आशय समझाइए।
उत्तरः
इस वाक्य का आशय है कि भारत में गरीब व अधिकारहीन लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है। अत: वे शोषण के शिकार होते हैं। इस कारण वे देश के विकास के लिए बनी योजनाओं के लाभों से वंचित रहते है।

प्रश्नः 3.
विषमता शोषण की जननी है’-कैसे? स्पष्ट कीजिए
उत्तरः
विषमता के कारण शोषण का जन्म होता है। समाज में धन, सत्ता, धर्म आदि के आधार पर लोग बँटे हुए है। समर्थ व्यक्ति दूसरे का शोषण कर स्वयं को बड़ा दर्शाता है। हर व्यक्ति एक जगह शोषक है दूसरी जगह शोषित।

प्रश्नः 4.
उपभोक्ता शोषण से क्या आशय है? इसकी सीमाएँ कहाँ तक हैं ?
उत्तरः
वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करने वाला उपभोक्ता होता है। व्यापारी, उत्पादक, सेवा प्रदाता वर्ग उपभोक्ता को गुमराह कर ठगते है। इस शोषण में डॉक्टर, अफसर, दुकानदार, कंपनियाँ, वकील आदि सभी शामिल है।

प्रश्नः 5.
देश की समाजोपयोगी योजनाओं से कौन-सा वर्ग वंचित रह जाता है और क्यों?
उत्तरः
देश की समाजोपयोगी योजनाओं से अशिक्षित, सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग वंचित रह जाता है क्योंकि वे सिर्फ जीवनयापन तक ही सोचते हैं। योजनाओं के लाभ अफसर, व्यवसायी व नेता लोग मिलकर खा जाते हैं।

प्रश्नः 6.
उपभोक्ता किसे कहते हैं ? उपभोक्ता शोषण का मुख्य कारण क्या है?
उत्तरः
जो वस्तुओं व सेवाओं का उपभोग करें, उसे उपभोक्ता कहते है। अज्ञानता, अशक्तता आदि के कारण उपभोक्ता शोषित होता है।

प्रश्नः 7.
सामान्यतः शोषण का दोषी किसे कहा जाता है और क्यों?
उत्तरः
सामान्यतः शोषण का दोषी सफेदपोश राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, व्यापारियों व तथाकथित बुद्धिजीवियों को माना जाता है क्योंक वे अपने सामर्थ्य के बल पर सरकारी योजनाओं के लाभ स्वयं ले लेते हैं।

8. लोकतंत्र के तीनों पायों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का अपना-अपना महत्त्व है, किंतु जब प्रथम दो अपने मार्ग या उद्देश्य के प्रति शिथिल होती हैं या संविधान के दिशा-निर्देशों की अवहेलना होती है, तो न्यायपालिका का विशेष महत्त्व हो जाता है। न्यायपालिका ही है जो हमें आईना दिखाती है, किंतु आईना तभी उपयोगी होता है, जब उसमें दिखाई देने वाले चेहरे की विद्रूपता को सुधारने का प्रयास हो। सर्वोच्च न्यायालय के अनेक जनहितकारी निर्णयों को कुछ लोगों ने न्यायपालिका की अतिसक्रियता माना, पर जनता को लगा कि न्यायालय सही है। राजनीतिक चश्मे से देखने पर भ्रम की स्थिति हो सकती है।

प्रश्न यह है कि जब संविधान की सत्ता सर्वोपरि है, तो उसके अनुपालन में शिथिलता क्यों होती है। राजनीतिक-दलगत स्वार्थ या निजी हित आड़े आ जाता है और यही भ्रष्टाचार को जन्म देता है। हम कसमें खाते हैं जनकल्याण की और कदम उठाते हैं आत्मकल्याण के। ऐसे तत्वों से देश को, समाज को सदा खतरा रहेगा। अतः जब कभी कोई न्यायालय ऐसे फैसले देता है, जो समाज कल्याण के हों और राजनीतिक ठेकेदारों को उनकी औकात बताते हों, तो जनता को उसमें आशा की किरण दिखाई देती है। अन्यथा तो वह अंधकार में जीने को विवश है ही।

प्रश्नः 1.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-लोकतंत्र और न्यायपालिका।

प्रश्नः 2.
लोकतंत्र में न्यायपालिका कब विशेष महत्त्वपूर्ण हो जाती है? क्यों?
उत्तरः
लोकतंत्र में न्यायपालिका तब महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब विधायिका और कार्यपालिका अपने मार्ग या उद्देश्य के प्रति शिथिल होती है या संविधान के दिशानिर्देशों की अवहेलना होती है।

प्रश्नः 3.
आईना दिखाने का तात्पर्य क्या है? और न्यायपालिका कैसे आईना दिखाती है?
उत्तरः
‘आईना दिखाने’ से तात्पर्य है-असलियत बताना। न्यायपालिका अपने निर्णयों से कार्यपालिका व विधायिका को उनकी सीमाओं व कर्तव्यों का स्मरण कराती है।

प्रश्नः 4.
‘चेहरे की विद्रूपता’ से क्या तात्पर्य है और यह संकेत किनके प्रति किया गया है?
उत्तरः
इसका तात्पर्य है कि चेहरे पर ओढ़ा हुआ कुटिल उपहास। कार्यपालिका व विधायिका जनकल्याण के नाम कार्य करके अपने हित साधती हैं।

प्रश्नः 5.
भ्रष्टाचार का जन्म कब और कैसे होता है?
उत्तरः
भ्रष्टाचार का जन्म तब होता है जब राजनीतिक दल स्वार्थ या निजी हित के चक्कर में जनकल्याण के नाम पर आत्मकल्याण के कार्य करते हैं।

प्रश्नः 6.
जनता को आशा की किरण कहाँ और क्यों दिखाई देती है ?
उत्तरः
जनता को आशा की किरण न्यायपालिका से दिखाई देती है क्योंकि न्यायालय ही समाज कल्याण के फैसले लेकर राजनीतिक ठेकेदारों को उनकी औकात बताते हैं।

प्रश्नः 7.
आशय स्पष्ट कीजिए  –
‘अन्यथा तो वह अंधकार में जीने को विवश है ही।’
उत्तरः
इसका अर्थ है कि जनता न्यायालय के निर्णयों से ही कुछ लाभ ले पाती है अन्यथा भ्रष्टाचार के कारण उन्हें सदैव हानि ही होती है।

9 बड़ी चीजें संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने पिता के दुश्मन को परास्त कर दिया था, जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे, मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है।

आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से पैदा होते हैं। जिंदगी की दो ही सूरतें हैं। एक तो आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली या जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पाँव न हटाए-दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए, जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती हैं, जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज़ सुनाई देती है।

इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं वे जिंदगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी जिंदगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनंद नहीं है? अगर रास्ता आगे ही निकल रहा हो, तो फिर असली मज़ा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है। साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिलकुल निडर, बिलकुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं।

जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।

प्रश्नः 1.
गद्यांश में अकबर का उदाहरण क्यों दिया गया है?
उत्तरः
गद्यांश में लेखक अकबर के उदाहरण के माध्यम से बताना चाहता है कि अकबर ने छोटी उम्र में दुश्मनों को परास्त किया कयोंकि उसने संकटों को झेला था।

प्रश्नः 2.
पांडवों की विजय का क्या कारण था?
उत्तरः
पांडवों की विजय का कारण था क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था।

प्रश्नः 3.
साहस की जिंदगी को सबसे बड़ी जिंदगी क्यों कहा गया है?
उत्तरः
साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है क्योंकि वह बिलकुल निडर व बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य कभी तमाशे की परवाह नहीं करते।

प्रश्नः 4.
दुनिया की असली ताकत किसे कहा गया है और क्यों ?
उत्तरः
दुनिया की असली ताकत वे आदमी हैं जो जनमत की उपेक्षा करके जीते हैं। ऐसे लोग नए रास्तों पर चलकर मनुष्यता को प्रकाश देते हैं।

प्रश्नः 5.
क्रांतिकारियों के क्या लक्षण हैं ?
उत्तरः
क्रांतिकारी अपने अड़ोस-पड़ोस के अनुसार कार्य नहीं करते। वे उनसे अपनी तुलना भी नहीं करते।

प्रश्नः 6.
जिंदगी की कौन-सी सूरत आपको अच्छी लगती है और क्यों?
उत्तरः
हमें ज़िंदगी की वह सूरत अच्छी लगती है जिसमें हम मकसद के लिए कोशिश करें और विपरीत स्थिति में भी पीछे न हो।

प्रश्नः 7.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
शीर्षक-साहस और जिंदगी।

10. जो अनगढ़ है, जिसमें कोई आकृति नहीं, ऐसे पत्थरों से जीवन को आकृति प्रदान करना, उसमें कलात्मक संवेदना जगाना और प्राण-प्रतिष्ठा करना ही संस्कृति है। वस्तुतः संस्कृति उन गुणों का समुदाय है, जिन्हें अनेक प्रकार की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से मनुष्य प्राप्त करता है। संस्कृति का संबंध मुख्यतः मनुष्य की बुद्धि एवं स्वभाव आदि मनोवृत्तियों से है। संक्षेप में सांस्कृतिक विशेषताएँ मनुष्य की मनोवृत्तियों से संबंधित हैं और इन विशेषताओं का अनिवार्य संबंध जीवन के मल्यों से होता है।

ये विशेषताएँ या तो स्वयं में मूल्यवान होती हैं अथवा मूल्यों के उत्पादन का साधन। प्रायः व्यक्तित्व में विशेषताएँ साध्य एवं साधन दोनों ही रूपों में अर्थपूर्ण समझी जाती हैं। वस्तुतः संस्कृति सामूहिक उल्लास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। संस्कृति व्यक्ति की नहीं, समष्टि की अभिव्यक्ति है। डॉ० संपूर्णानंद ने कहा है-“संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते हैं, जिसमें कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं पर दृष्टि निक्षेप करता है” संक्षेप में वह समुदाय की चेतना बनकर प्रकाशमान होती है।

यही चेतना प्राणों की प्रेरणा है और यही भावना प्रेम में प्रदीप्त हो उठती है। यह प्रेम संस्कृति का तेजस तत्व है, जो चारों ओर परिलक्षित होता है। प्रेम वह तत्व है, जो संस्कृति के केंद्र में स्थित है। इसी प्रेम से श्रद्धा उत्पन्न होती है, समर्पण जन्म लेता है और जीवन भी सार्थक लगता है।

प्रश्नः 1.
संस्कृति एक निष्प्राण पत्थर को किस प्रकार जीवंत बना सकती है?
उत्तरः
संस्कृति एक कलाकार की भाँति अपनी संवेदना जगाकर व जीवन को कलात्मक आकार देकर एक निष्प्राण पत्थर को जीवंत बना सकती है।

प्रश्नः 2.
संस्कृति का संबंध मनुष्य की मनोवृत्तियों से क्यों है ? व्यक्तित्व की विशेषताएँ किस रूप में मूल्यवान समझी जाती हैं ?
उत्तरः
संस्कृति का संबंध मनुष्य की मनोवृत्तियों से इसलिए है क्योंकि मनोवृत्तियाँ शिक्षा, गुण तथा प्रयत्नों से निर्मित होती हैं। व्यक्तित्व की विशेषताएँ साध्य एवं साधन-दोनों ही रूपों में मूल्यवान समझी जाती है।

प्रश्नः 3.
संस्कृति समष्टि की अभिव्यक्ति क्यों है? वह किस तरह प्रकाशमान होती है?
उत्तरः
संस्कृति समष्टि की अभिव्यक्ति है क्योंकि यह सामूहिक उल्लास प्रदान करती है। संस्कृति समुदाय की चेतना बनकर प्रकाशमान होती है।

प्रश्नः 4.
डॉ० संपूर्णानंद ने संस्कृति को किस प्रकार का दृष्टिकोण कहा है?
उत्तरः
डॉ० संपूर्णानंद ने संस्कृति को सामूहिक दृष्टिकोण कहा है जिनसे कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं को देखता है।

प्रश्नः 5.
प्रेम को संस्कृति का तेजस तत्व क्यों कहा गया?
उत्तरः
संस्कृति को प्रेम का तेजस तत्व कहा गया है क्योंकि प्रेम संस्कृति का केंद्र बिंदु है जिसकी चमक चारों ओर परिलक्षित होती है। प्रेम से ही श्रद्धा उत्पन्न होती है जिससे समर्पण जन्म लेता है।

प्रश्नः 6.
इस अनुच्छेद का उपयुक्त शीर्षक होगा।
उत्तरः
शीर्षक-संस्कृति का महत्त्व।

प्रश्नः 7.
सामुदायिक चेतना को संस्कृति का प्राण क्यों कहा गया है?
उत्तरः
सामुदायिक चेतना को संस्कृति का प्राण कहा गया है क्योंकि यही चेतना प्रेरणा बनकर तथा प्रेम की भावना में परिवर्तित होकर प्रकाशित हो उठी है।

11 मृत्युंजय और संघमित्र की मित्रता पाटलिपुत्र के जन-जन की जानी बात थी। मृत्युंजय जन-जन दवारा ‘धन्वंतरि’ की उपाधि से विभूषित वैद्य थे और संघमित्र समस्त उपाधियों से विमुक्त ‘भिक्षु’। मृत्युंजय चरक और सुश्रुत को समर्पित थे, तो संघमित्र बुद्ध के संघ और धर्म को। प्रथम का जीवन की संपन्नता और दीर्घायुष्य में विश्वास था तो द्वितीय का जीवन के निराकरण और निर्वाण में। दोनों ही दो विपरीत तटों के समान थे, फिर भी उनके मध्य बहने वाली स्नेह-सरिता उन्हें अभिन्न बनाए रखती थी।

यह आश्चर्य है, जीवन के उपासक वैद्यराज को उस निर्वाण के लोभी के बिना चैन ही नहीं था, पर यह परम आश्चर्य था कि समस्त रोगों को मलों की तरह त्यागने में विश्वास रखने वाला भिक्षु भी वैद्यराज के मोह में फँस अपने निर्वाण को कठिन से कठिनतर बना रहा था। वैद्यराज अपनी वार्ता में संघमित्र से कहते–निर्वाण (मोक्ष) का अर्थ है-आत्मा की मृत्यु पर विजय। संघमित्र हँसकर कहते-देह द्वारा मृत्यु पर विजय मोक्ष नहीं है। देह तो अपने आप में व्याधि है।

तुम देह की व्याधियों को दूर करके कष्टों से छुटकारा नहीं दिलाते, बल्कि कष्टों के लिए अधिक सुयोग जुटाते हो। देह व्याधि से मुक्ति तो भगवान की शरण में है। वैद्यराज ने कहा-मैं तो देह को भगवान के समीप जीते ही बने रहने का माध्यम मानता हूँ। पर दृष्टियों का यह विरोध उनकी मित्रता के मार्ग में कभी बाधक नहीं हुआ। दोनों अपने कोमल हास और मोहक स्वर से अपने-अपने विचारों को प्रस्तुत करते रहते।

प्रश्नः 1.
मृत्युंजय कौन थे? उनकी विचारधारा क्या थी?
उत्तरः
मृत्युंजय पाटलिपुत्र में धन्वंतरि की उपाधि से विभूषित वैद्य थे। उनकी विचारधारा जीवन की संपन्नता व दीर्घायुता से संबंधित थी।

प्रश्नः 2.
जीवन के प्रति संघमित्र की दृष्टि को समझाइए।
उत्तरः
संघमित्र बुद्ध के संघ व धर्म को समर्पित थे। वे जीवन के निराकरण व निर्णय में विश्वास रखते थे।

प्रश्नः 3.
लक्ष्य-भिन्नता होते हुए भी दोनों की गहन निकटता का क्या कारण था?
उत्तरः
लक्ष्य भिन्नता होते हुए भी दोनों में गहन निकटता थी क्योंकि दोनों मनुष्य मात्र के कल्याण की उच्च व पवित्र भावना से परिपूर्ण थे।

प्रश्नः 4.
दोनों को दो विपरीत तट क्यों कहा है ?
उत्तरः
दोनों के सिद्धांत अलग-अलग थे। मृत्युंजय जीवन को निरोग बनाकर आनंदपूर्वक जीने व दीर्घायु रहकर उपभोग का आनंद उठाने के समर्थक थे जबकि संघमित्र सादे जीवन एवं निर्वाण प्राप्ति के समर्थक थे, अत: दोनों को विपरीत तट कहा गया।

प्रश्नः 5.
देह-व्याधि के निराकरण के बारे में संघमित्र की अवधारणा के विषय में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
देह व्याधि के निराकरण के बारे में संघमित्र की अवधारणा से मैं सहमत नहीं हूँ। देह व्याधि नहीं है। स्वस्थ रहकर अच्छे कर्म करके प्रभु के निकट जाया जा सकता है। संन्यास धर्म मानव विकास में बाधक है।

प्रश्नः 6.
विचारों की भिन्नता/विपरीतता के होते हुए भी दोनों के संबंधों की मोहकता और मधुरता क्या संदेश देती है?
उत्तरः
विचारों की भिन्नता या विपरीतता होते हुए भी दोनों में मधुरता थी। यह संदेश देती है कि मानव के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए।

प्रश्नः 7.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक सुझाइए।
उत्तरः
शीर्षक-मित्रता का सूत्र है स्नेह।

12. वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं औद्योगिक प्रगति के पूर्व के मनोरंजन एवं आज के युग में उपलब्ध मनोरंजन में तथा इससे संबंधित हमारी आवश्यकताओं एवं अभिरुचि में बहुत अधिक अंतर आ गया है। पहले मनोरंजन का उद्देश्य मात्र मनोरंजन होता था और यह प्रक्रिया धार्मिक एवं सामाजिक भावों से संलग्न थी। ऐसा मनोरंजन व्यक्तित्व के गठन एवं स्वस्थ दृष्टिकोण के उन्नयन में सहायक होता था किंतु आज इसका महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ‘अर्थप्राप्ति’ हो गया है।

संभवतः इसी कारण मनोरंजन का स्वरूप पूर्णतः बदल गया है। आधुनिक परिवेश में मनोरंजन का जो भी रूप उपलब्ध है, वह हमारे व्यक्तित्व के गठन पर कुठाराघात करता है, आदर्शों को झुठलाता है, अस्वस्थ अभिरुचि एवं दृष्टिकोण को प्रोत्साहन देता है या जीवन के सब्जबाग दिखाता है जो जीने योग्य नहीं है। यह रूप व्यक्ति, समाज और विशेषकर हमारी भावी पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है।

मनोरंजन से संबद्ध विभिन्न संस्थाएँ–अभद्र सिनेमा नृत्यशालाएँ, फ़ैशन परेड आदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति एवं समाज के जीवन को विकृत कर रहे हैं। बड़े-बड़े नगरों की नृत्यशालाओं एवं नाइट क्लबों में मनोरंजन के नाम पर जो गतिविधियाँ संपन्न होती हैं वे तथाकथित आधुनिक एवं प्रगतिशील विचारधारा से भले ही समर्थित हों, किंतु स्वस्थ भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार तो वे पश्चिमी देशों की अंधी नकल ही हैं।

इनके समर्थक यह भूल जाते हैं कि उनका मानसिक गठन, संस्कार, रीति-रिवाज तथा जीवन-पद्धति पश्चिमी देशों से एकदम भिन्न है। इस प्रकार देश में मनोरंजन के नाम पर जो भी भौंडापन उपलब्ध है-वह विघटन का स्रोत है, विकारों का जनक है एवं क्षयग्रस्त जीवन का पर्याय है।

प्रश्नः 1.
वैज्ञानिक प्रगति से पूर्व और बाद के मनोरंजन के स्वरूप और हमारी सोच में मूल अंतर क्या है?
उत्तरः
वैज्ञानिक प्रगति से पूर्व और बाद के मनोरंजन के स्वरूप और हमारी सोच में यह मूल परिवर्तन आया है कि पहले मनोरंजन का उद्देश्य केवल मनोरंजन था, परंतु आज इसका उद्देश्य धन कमाना भी हो गया है।

प्रश्नः 2.
वैज्ञानिक युग से पहले और बाद के मनोरंजन के रूप-परिवर्तन का क्या कारण है ?
उत्तरः
वैज्ञानिक युग से पहले और बाद के मनोरंजन के साथ परिवर्तन का कारण यह है कि पहले मनोरंजन की प्रक्रिया धार्मिक व सामाजिक भावों से युक्त होती थी, परंतु आज धन का प्रभाव बढ़ गया है।

प्रश्नः 3.
आधुनिक मनोरंजन जीवन को कैसे प्रभावित कर रहा है ?
उत्तरः
आधुनिक मनोरंजन आदर्शों को झुठलाकर अस्वस्थ अभिरुचि व दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है। यह ऐसे जीवन के सब्जबाग दिखाता है जो जीने योग्य नहीं है।

प्रश्नः 4.
कैसे कहा जा सकता है कि मनोरंजन का एक विशेष स्वरूप भावी पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है?.
उत्तरः
आज मनोरंजन से संबद्ध अनेक संस्थाएँ जैसे; अभद्र सिनेमा, नृत्यशालाएँ, फैशन परेड आदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति व समाज के जीवन को विकृत कर रहे हैं। अस्वस्थ अभिरुचि व दृष्टिकोण को बढ़ाने वाला यह मनोरंजन भावी पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है।

प्रश्नः 5.
पश्चिमी देशों का अंधानुकरण किसे कहा है और क्यों?
उत्तरः
लेखक कहता है कि महानगरों की नृत्यशालाएँ, नाइटक्लब, पश्चिमी देशों का अंधानुकरण है। इनमें मनोरंजन के नाम गलत गतिविधियाँ संपन्न होती हैं।

प्रश्नः 6.
मनोरंजन के नाम पर ‘भौंडापन’ किसे कहा गया है? उसके क्या परिणाम हुए हैं?
उत्तरः
मनोरंजन के नाम पर भौंडापन अभद्र सिनेमा, फैशन परेड, नाइटक्लब, नृत्यशालाओं द्वारा प्रस्तुत गतिविधियों में दिखता है। इनका गठन, संस्कार, रीतिरिवाज तथा जीवन पद्धति भारत से अलग है। यह भौंडापन विघटन का स्रोत है, विकारों का जनक है तथा क्षयग्रस्त जीवन का स्रोत है।

प्रश्नः 7.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-मनोरंजन पर पाश्चात्य प्रभाव।

13. भविष्य की दुनिया पर ज्ञान और ज्ञानवानों का अधिकार होगा। इसलिए शैक्षिक नीतियों को उन मूलभूत संरचनात्मक परिवर्तनों का अभिन्न अंग होना चाहिए जिनके बिना नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था सपना मात्र रह जाएगी। इसका लक्ष्य उन भाग्यवादी विचारों का सफाया होना चाहिए जो यह प्रचारित करते हैं कि निर्धनता प्रकृति की देन है और यह कि अभावग्रस्त लोगों को उसी तरह निर्धनता को सहना चाहिए जैसे कि प्राकृतिक आपदाओं को। उन लोगों की बदधि ठीक करनी चाहिए जो निर्धनता की खोखली आध्यात्मिकता में आत्मतोष ढूँढ़ते हैं और उनको भी जो समृद्धि को उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन का अर्थ और उद्देश्य देखते हैं।

नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के निर्माण में शिक्षा को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। जब तक इन भविष्यवादी प्रतिमानों की इस भयंकर सीमा को दूर नहीं किया जाता, दुनिया दो नहीं, तीन भागों में बँटकर रह जाएगी जिसकी ओर यूनेस्को के एक अध्ययन ने ध्यान दिलाया है : “सबसे नीचे प्राथमिक (बेसिक) शिक्षा और वंशगत कार्य तथा निर्वाहमूलक श्रमवाले देश होंगे; बीच में व्यावसायिक शिक्षा सहित माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक के, कुछ साधारण छंटाई-सफ़ाई (प्रोसेसिंग) करने वाले देश होंगे तथा सबसे ऊपर वे देश होंगे जहाँ हर व्यक्ति किसी विश्वविद्यालय का स्नातक होगा और विशालकाय वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी आधारवाले अत्यंत शोधमूलक उदयोगों में कार्य कर रहा होगा।”

आधुनिक युग की त्रासदी यह है कि तीसरी दुनिया इस समय भी तीसरी और चौथी दुनियाओं में बँटती चली जा रही है और विकासशील देश अल्पविकसित और अल्पतमविकसित देशों में बँट रहे हैं। असमानता को फैलाने की इस प्रक्रिया में दुर्भाग्य से शिक्षाप्रणाली महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।

प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-शिक्षा प्रणाली और असमानता।

प्रश्नः 2.
नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कब सपना मात्र रह जाएगी?
उत्तरः
नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था तब सपना मात्र रह जाएगी जब तक शैक्षिक नीतियों को मूलभूत संरचनात्मक परिवर्तन का अभिन्न अंग नहीं बना दिया जाएगा।

प्रश्नः 3.
शिक्षा के क्षेत्र में भाग्यवादी विचार क्या प्रचारित करते हैं?
उत्तरः
शिक्षा के क्षेत्र में भाग्यवादी यह प्रचार करते हैं कि निर्धनता प्रकृति की देन है। गरीब लोगों को निर्धनता उसी तरह सहन करनी चाहिए जैसे कि प्राकृतिक आपदाओं को सहन करते हैं।

प्रश्नः 4.
लेखक किन लोगों की बुद्धि ठीक करने की बात करता है? क्यों?
उत्तरः
लेखक उन लोगों की बुद्धि ठीक करने की बात करता है जो निर्धनता की खोखली आध्यात्मिकता में आत्मतोष ढूँढ़ते हैं और उनको भी जो समृद्धि को उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन का अर्थ और उद्देश्य देखते हैं।

प्रश्नः 5.
भविष्यवादी प्रतिमानों को ठीक न करने का मुख्य परिणाम क्या होगा?
उत्तरः
भविष्यवादी प्रतिमानों को ठीक न करने का मुख्य परिणाम यह होगा कि दुनिया दो नहीं तीन भागों में बँटकर रह जाएगी।

प्रश्नः 6.
यूनेस्को ने अपने अध्ययन में क्या आशंका जताई है?
उत्तरः
यूनेस्को ने आशंका जताई कि सबसे नीचे प्राथमिक शिक्षा और वंशगत कार्य तथा निर्वाहमूलक श्रमवाले देश होंगे, बीच में व्यावसायिक शिक्षा सहित माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक के कुछ साधारण छंटाई-सफ़ाई करने वाले देश होंगे तथा सबसे ऊपर वे देश होंगे जहाँ हर व्यक्ति स्नातक होगा तथा विशालकाय वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी आधारवाले शोधमूलक उद्योगों में कार्य कर रहा होगा।

प्रश्नः 7.
आधुनिक युग की त्रासदी किसे कहा गया है? क्यों?
उत्तरः
आधुनिक युग की त्रासदी यह है कि तीसरी दुनिया भी तीसरी व चौथी दुनिया में बँट रही है क्योंकि शिक्षा प्रणाली को वे अपना नहीं रहे हैं।

14. जर्मनी के सुप्रसिद्ध विचारक नीत्शे ने, जो विवेकानंद का समकालीन था, घोषणा की कि ‘ईश्वर मर चुका है।’ नीत्शे के प्रभाव में यह बात चल पड़ी कि अब लोगों को ईश्वर में दिलचस्पी नहीं रही। मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में विज्ञान और बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं-यह स्वामी विवेकानंद को स्वीकार नहीं था। उन्होंने धर्म को बिलकुल नया अर्थ दिया। स्वामी जी ने माना कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है।

उन्होंने साधुओं-पंडितों, मंदिर-मस्जिद, गिरजाघरों-गोंपाओं की इस परंपरागत सोच को नकार दिया कि धार्मिक जीवन का उद्देश्य संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष-प्राप्ति की कामना है। उनका कहना है कि ईश्वर का निवास निर्धन-दरिद्र-असहाय लोगों में होता है, क्योंकि वे ‘दरिद्र-नारायण’ हैं। ‘दरिद्र नारायण’ शब्द ने सभी आस्थावान स्त्री-पुरुषों में कर्तव्य-भावना जगाई कि ईश्वर की सेवा का अर्थ दीन-हीन प्राणियों की सेवा है।

अन्य किसी भी संत-महात्मा की तुलना में स्वामी विवेकानंद ने इस बात पर ज़्यादा बल दिया कि प्रत्येक धर्म गरीबों की सेवा करे और समाज के पिछड़े लोगों को अज्ञान, दरिद्रता और रोगों से मुक्त करने के उपाय करे। ऐसा करने में स्त्री-पुरुष, जाति-संप्रदाय, मत-मतांतर या पेशे-व्यवसाय से भेदभाव न करें। परस्पर वैमनस्य या शत्रुता का भाव मिटाने के लिए हमें घृणा का परित्याग करना होगा और सबके प्रति प्रेम और सहानुभूति का भाव जगाना होगा।

प्रश्नः 1.
नीत्शे कौन था? उसने क्या घोषणा की थी?
उत्तरः
नीत्शे जर्मनी का सुप्रसिद्ध विचारक था। उसने घोषणा की थी कि ईश्वर मर चुका है। उसका अस्तित्व नहीं है।

प्रश्नः 2.
नीत्शे की घोषणा के पीछे क्या सोच थी?
उत्तरः
नीत्शे की घोषणा के पीछे यह सोच थी कि मानवीय प्रवृत्ति को संचालित करने में विज्ञान व बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

प्रश्नः 3.
धर्म के बारे में स्वामी विवेकानंद ने क्या विचार दिया? इसका क्या आशय था?
उत्तरः
धर्म के बारे में स्वामी विवेकानंद का विचार था कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है। उन्होंने संन्यास, मोक्ष पाना जैसी अवधारणाओं को नकार दिया।

प्रश्नः 4.
पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य क्या माना गया था?
उत्तरः
पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष प्राप्ति की कामना है।

प्रश्नः 5.
‘दरिद्र-नारायण’ से क्या आशय है? इस शब्द से लोगों में क्या भावना जाग्रत हुई?
उत्तरः
दरिद्र-नारायण का आशय है-गरीबों का रक्षक भगवान। इस शब्द से लोगों में यह भावना जागी कि ईश्वर की सेवा का अर्थ दीन-हीन प्राणियों की सेवा है।

प्रश्नः 6.
आपसी भेदभाव मिटाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
उत्तरः
आपसी भेदभाव मिटाने के लिए हमें घृणा का त्याग करके सबके प्रति प्रेम और समानुभूति का भाव जगाना होगा।

प्रश्नः 7.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-सच्चा धर्म।

15. आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़रूरी हो गया है कि लोग एक-दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है, क्योंकि यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है। स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे।

उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के बीच संवाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज़ और स्वाभाविक मानते थे। स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे। वे कहा करते थे, “यदि सभी मानव एक ही धर्म को मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें, तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।”

प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-भारतीय धर्म और संवाद।

प्रश्नः 2.
टापू किसे कहते हैं ? ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तरः
‘टापू’ समुद्र के मध्य उभरा भू-स्थल होता है जिसके चारों तरफ जल होता है। वह मुख्य भूमि से अलग होता है। ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का अभिप्राय है-समाज की मुख्य धारा से कटकर रहना।

प्रश्नः 3.
‘भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है।’ क्या जरूरी है और क्यों?
उत्तरः
भारत में अनेक धर्म, मत व संप्रदाय है। अतः यहाँ एक-दूसरे को जानना, ज़रूरत समझना तथा इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझना होगा। सभी लोगों को दूसरे के धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों-अनुष्ठानों को सम्मान देना चाहिए।

प्रश्नः 4.
स्वामी विवेकानंद को ‘अपने समय से बहुत आगे’ क्यों कहा गया है?
उत्तरः
स्वामी विवेकानंद को अपने समय से बहुत आगे कहा गया है क्योंकि वे जानते थे कि भारत में एक धर्म, मत या विचारधारा नहीं चल सकती। उनमें संवाद होना अनिवार्य है।

प्रश्नः 5.
स्वामी जी के मत में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी और क्यों?
उत्तरः
स्वामी जी के मत में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति वह होगी जब सभी व्यक्ति एक धर्म, पूजा-पद्धति व नैतिकता का अनुपालन करने लगेंगी। इससे यहाँ धार्मिक व आध्यात्मिक विकास रुक जाएगा।

प्रश्नः 6.
भारत में साथ-साथ रह रहे किन्हीं चार धर्मों और मतों के नाम लिखिए।
उत्तरः
भारत में साथ-साथ रहे चार धर्म है-हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई । चार मत है-शैव, वैश्णव, निम्बार्क व आर्य समाजी मत।

प्रश्नः 7.
‘यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।’-उपर्युक्त वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए।
उत्तरः
यह देश न किसी एक धर्म का है और न किसी मत या विचारधारा का।

6. साहित्य का जीवन के साथ गहरा संबंध है। साहित्यकार अपनी पैनी दृष्टि से देखता है और संवेदनशील मन से उसको अभिव्यक्त करता है। चारों ओर देखे गए सत्य और भोगे हुए यथार्थ को कभी कल्पना के रंग में रंगकर, तो कभी ज्यों-कात्यों पाठक के सामने प्रस्तुत कर देता है। साहित्यकार में सौंदर्य को देखने और परखने की अदभुत शक्ति होती है। मनोरम दृश्यों के सौंदर्य और मुग्ध कर देने वाले स्वरों की मधुरता से वह अकेले ही आनंदमग्न नहीं होना चाहता। वह दूसरों को भी आनंदमग्न करने के लिए सदा आतुर रहता है। साहित्यकार जब समाज को अपने मन की बात सुनाता है, तो साहित्यकार और समाज का संबंध स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

समाज की रूढ़ियों और विद्रूपताओं को उजागर कर वह जनमानस को जाग्रत करता है। उन्हें बताता है कि जो कुछ पुराना है, वह सोना ही हो-यह आवश्यक नहीं। हमें जकड़ने वाली, पीछे धकेलने वाली रूढ़ियों से छुटकारा पाना होगा। इस प्रकार साहित्यकार समाज का पथ-प्रदर्शक भी है और पथ-निर्माता भी। वह समाज को परिवर्तन और क्रांति के लिए भी तैयार करता है। यह सत्य है कि अनेक साहित्यिक रचनाएँ क्रांति की आधारशिला रखने में समर्थ हुई हैं। इसलिए साहित्य को केवल मनोरंजन की वस्तु मानना अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर सूर्य को नकारना है।

प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-साहित्यकार और समाज।

प्रश्नः 2.
साहित्यकार की दृष्टि और मन के लिए प्रयुक्त विशेषणों का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
साहित्यकार की दृष्टि के लिए ‘पैनी’ व मन के लिए ‘संवेदनशील’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। साहित्यकार समाज की हर घटना का सूक्ष्मता से विश्लेषण करके उसे मानवीय भावनाओं के अनुरूप अभिव्यक्त करता है।

प्रश्नः 3.
साहित्यकार सत्य को पाठक के समक्ष कैसे रहता है?
उत्तरः
साहित्यकार अपने आसपास के सत्य को कभी यथार्थ रूप में अभिव्यक्त करता है तो कभी कल्पना के रंग में भरकर प्रस्तुत करता है।

प्रश्नः 4.
साहित्यकार और समाज का संबंध कब दिखाई पड़ता है?
उत्तरः
जब साहित्यकार घटनाओं से उद्वेलित होकर मन की बात समाज को सुनाता है, तब साहित्यकार और उस समाज का संबंध प्रत्यक्ष हो जाता है।

प्रश्नः 5.
साहित्यकार को समाज का पथ-निर्माता और पथ-प्रदर्शक क्यों कहा गया है?
उत्तरः
“साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक व पथ निर्माता है क्योंकि वह समाज की कमियों को उजागर करता है। वह पुरानी रूढ़ियों को गलत बताता है। साथ ही वह नए विचार व सिद्धांत भी समाज के सामने रखता है।

प्रश्नः 6.
आशय स्पष्ट कीजिए ‘अपनी आँख पर पट्टी बाँधकर सूर्य को नकारना।’
उत्तरः
इसका अर्थ है-जानबूझकर सत्य को नकारना। लेखक कहता है कि आँख पर पट्टी बाँधने से सूर्य के अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता। इसी तरह साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है। यह समाज को राह दिखलाता है।

प्रश्नः 7.
साहित्यकार समाज को परिवर्तन और क्रांति के लिए कैसे तैयार करता है?
उत्तरः
साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के सामने रूढ़ियों का नकारापन साबित करता है। वह जनमानस को संघर्ष के लिए तैयार करता है तथा नए विचार अपनाने की सलाह देता है।

17. कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत होती है। उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ और हर आदमी चोर दिखाई पड़ता है। लोगों की ऐसी मनःस्थिति बनाने में मीडिया का भी हाथ है। माना कि बुराइयों को उजागर करना मीडिया का दायित्व है, पर उसे सनसनीखेज़ बनाकर 24 x 7 चैनलों में बार-बार प्रसारित कर उनकी चाहे दर्शक-संख्या (TRP) बढ़ती हो, आम आदमी इससे अधिक शंकालु हो जाता है और यह सामान्यीकरण कर डालता है कि सभी ऐसे हैं।

आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है। ऐसे अधिकारी हैं, जो अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं। ऐसे नेता भी हैं, जो अपने हित की अपेक्षा जनहित को महत्त्व देते हैं। वे मीडिया-प्रचार के आकांक्षी नहीं हैं। उन्हें कोई इनाम या प्रशंसा के सर्टीफ़िकेट नहीं चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कोई विशेष बात नहीं कर रहे, बस कर्तव्यपालन कर रहे हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों से समाज बहुत-कुछ सीखता है।

आज विश्व में भारतीय बेईमानी या भ्रष्टाचार के लिए कम, अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धि-पराक्रम के लिए अधिक जाने जाते हैं। विश्व में अग्रणी माने जाने वाले देश का राष्ट्रपति बार-बार कहता सुना जाता है कि हम भारतीयों-जैसे क्यों नहीं बन सकते। और हम हैं कि अपने को ही कोसने पर तुले हैं! यदि यह सच है कि नागरिकों के चरित्र से समाज और देश का चरित्र बनता है, तो क्यों न हम अपनी सोच को सकारात्मक और चरित्र को बेदाग बनाए रखने की आदत डालें।

प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-मीडिया का चरित्र निर्माण में योगदान।

प्रश्नः 2.
लेखक ने क्यों कहा है कि कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत है?
उत्तरः
लेखक कहता है कि कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत है। ऐसा उनकी नकारात्मक विचारधारा के कारण होता है। उन्हें हर जगह बुराई दिखाई देती है।

प्रश्नः 3.
लोगों की सोच को बनाने-बदलने में मीडिया की क्या भूमिका है?
उत्तरः
मीडिया लोगों की सोच को बनाने-बदलने में विशेष भूमिका अदा करती है। वे अच्छाई को बार-बार बताकर आम आदमी की मन:स्थिति को बदल देते हैं।

प्रश्नः 4.
अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल क्या करते हैं ? उसका आम नागारिक पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तरः
अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल बुराइयों को सनसनीखेज बनाकर उसे लगातार प्रसारित करते हैं। इससे लोगों के मन में संदेह उत्पन्न हो जाता है।

प्रश्नः 5.
‘आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है’-पक्ष या विपक्ष में अपनी ओर से दो तर्क दीजिए।
उत्तरः
यह सही है कि आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है। अनेक अधिकारी व नेता अपने कर्तव्य के आगे भ्रष्टाचार की नहीं सुनते। ये प्रचार से दूर रहते हैं।

प्रश्नः 6.
आज दुनिया में भारतीय किन गुणों के लिए जाने जाते हैं? किसी संपन्न देश के राष्ट्रपति का अपने नागारिकों से भारतीयों जैसा बनने के लिए कहना क्या सिद्ध करता है?
उत्तरः
दुनिया में भारतीय अपने मेहनत, लगन व पराक्रम के लिए प्रसिद्ध हैं। किसी विकसित देश के राष्ट्रपति द्वारा अपने नागरिकों को भारतीयों जैसे बनने की प्रेरणा देना यह सिद्ध करता है कि भारतीय कर्तव्यनिष्ठ हैं।

प्रश्नः 7.
लेखक भारतीय नागरिकों से क्या अपेक्षा करता है?
उत्तरः
लेखक भारतीय नागरिकों से अपने देश के प्रति सकारात्मक सोच रखने व बेदाग चरित्र की अपेक्षा रखता है।

18. यह संतोष और गर्व की बात है कि देश वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षेत्र में आशातीत प्रगति कर रहा है। विश्व के समृद्ध अर्थव्यवस्था वाले देशों से टक्कर ले रहा है और उनसे आगे निकल जाना चाहता है, किंतु इस प्रगति के उजले पहलू के साथ एक धुंधला पहलू भी है, जिससे हम छुटकारा चाहते हैं। वह है नैतिकता का पहलू। यदि हमारे हृदय में सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और मानवीय भावनाएँ नहीं हैं; देश के मान-सम्मान का ध्यान नहीं है; तो सारी प्रगति निरर्थक होगी। आज यह आम धारणा है कि बिना हथेली गर्म किए साधारण-सा काम भी नहीं हो सकता। भ्रष्ट अधिकारियों और भ्रष्ट जनसेवकों में अपना घर भरने की होड़ लगी है।

उन्हें न समाज की चिंता है, न देश की। समाचार-पत्रों में अब ये रोज़मर्रा की घटनाएँ हो गई हैं। लोग मान बैठे हैं कि यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है, जब कि यह सच नहीं है। नैतिकता मरी नहीं है, पर प्रचार अनैतिकता का हो रहा है। लोगों में यह धारणा घर करती जा रही है कि जब बड़े लोग ही ऐसा कर रहे हैं, तो हम क्यों न करें? सबसे पहले तो इस सोच से मुक्ति पाना ज़रूरी है और उसके बाद यह संकल्प कि भ्रष्टाचार से मुक्त समाज बनाएँगे। उन्हें बेनकाब करेंगे, जो देश के नैतिक चरित्र को बिगाड़ रहे हैं।

प्रश्नः 1.
देशवासियों के लिए गर्व की बात क्या है ?
उत्तरः
देशवासियों के लिए गर्व की बात है कि देश वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षेत्रों में प्रगति कर रहा है।

प्रश्नः 2.
देश की आशातीत प्रगति से जुड़ा धुंधला पक्ष क्या है?
उत्तरः
देश की आशातीत प्रगति के साथ धुंधला पक्ष यह है कि हम नैतिकता से पीछा छुड़वाना चाहते हैं।

प्रश्नः 3.
नैतिक चरित्र से लेखक का क्या आशय है ?
उत्तरः
नैतिक चरित्र से लेखक का आशय है-सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और मानवीय संवेदनाओं का पालन करना।

प्रश्नः 4.
देश की प्रगति कब निरर्थक हो सकती है?
उत्तरः
देश की प्रगति उस समय निरर्थक हो जाती है जब हम सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा व मानवीय भावनाओं से दूर भागते है।

प्रश्नः 5.
‘नैतिकता मरी नहीं है’-पक्ष या विपक्ष में अपने विचार 4-5 वाक्यों में लिखिए।
उत्तरः
विपक्ष : यह बात सही है कि भारत में नैतिकता मरी नहीं है। प्रशासन, नेताओं, धर्मगुरुओं आदि के आचरण से यह सिद्ध नहीं होता कि नैतिकता खत्म हो गई। पक्ष : आज भी समाज में अनेक अफसर, नेता, धर्मगुरु यहाँ तक कि आम आदमी के अंदर मानवीय भावनाएँ हैं। वे अपने कर्तव्य का पालन करते हैं समाज में अव्यवस्था को रोकते हैं।

प्रश्नः 6.
समाज अनैतिक पहलू से कैसे मुक्ति पा सकता है?
उत्तरः
समाज अनैतिक पहलू से तभी मुक्ति पा सकता है जब वह अनैतिकता के प्रसार की सोच से मुक्त होगा। वह भ्रष्टाचार समाप्त करने के संकल्प से ही नैतिक चरित्र को बनाए रख सकेगा।

प्रश्नः 7.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-नैतिकता और अनैतिकता का द्वंद्व।

19. जो समाज को जीवन दे, उसे निर्जीव कैसे माना जा सकता है? जलस्रोत में जीवन माना गया और समाज ने उसके चारों ओर अपने जीवन को रचा। जिसके साथ जितना निकट का संबंध, जितना स्नेह, मन उसके उतने ही नाम रख लेता है। देश के अलग-अलग राज्यों में, भाषाओं में, बोलियों में तालाब के कई नाम हैं। बोलियों के कोश में, अनेक व्याकरण के ग्रंथों में, पर्यायवाची शब्दों की सूची में तालाब के नामों का एक भरा-पूरा परिवार देखने को मिलता है। डिंगल भाषा के व्याकरण का एक ग्रंथ हमीर नाम-माला तालाबों के पर्यायवाची नाम तो गिनाता ही है, साथ ही उनके स्वभाव का भी वर्णन करते हुए, तालाबों को धरम सुभाव कहता है।

गड़ा हुआ धन सबको नहीं मिलता, लेकिन सबको तालाब से जोड़कर देखने के लिए भी समाज में कुछ मान्यताएँ रही हैं। अमावस और पूनों, इन दो दिनों को कारज यानी अच्छे और वह भी सार्वजनिक कामों का दिन माना गया है। इन दोनों दिनों में निजी काम से हटने और सार्वजनिक कामों से जुड़ने का विधान रहा है। किसान अमावस और पूनों को अपने खेत में काम नहीं करते थे। उस समय का उपयोग वे अपने क्षेत्र के तालाब आदि की देखरेख व मरम्मत में लगाते थे। समाज में श्रम भी पूँजी है और उस पूँजी को निजी हित के साथ सार्वजनिक हित में भी लगाते थे। श्रम के साथ-साथ पूँजी का अलग से प्रबंध किया जाता रहा है।

इस पूँजी की ज़रूरत प्रायः ठंड के बाद, तालाब में पानी उतर जाने पर पड़ती है। जब गरमी का मौसम सामने खड़ा होता है और यही सबसे अच्छा समय है, तालाब की किसी बड़ी टूट-फूट पर ध्यान देने का। वर्ष की बारह पूर्णिमाओं में से ग्यारह पूर्णिमाओं को श्रमदान के लिए रखा जाता रहा है पर पूस मास की पूनों पर तालाब के लिए धान या पैसा एकत्र किए जाने की परंपरा रही है। सार्वजनिक तालाबों में तो सबका श्रम और पूँजी लगती ही थी, निहायत निजी किस्म के तालाबों में भी सार्वजनिक स्पर्श आवश्यक माना जाता रहा है। तालाब बनने के बाद उसे इलाके के सभी सार्वजनिक स्थलों से थोड़ी-थोड़ी मिट्टी लाकर तालाब में डालने का चलन आज भी मिलता है।

तालाबों में प्राण है। प्राण प्रतिष्ठा का उत्सव बड़ी धूमधाम से होता था। कहीं-कहीं तालाबों का पूरी विधि के साथ विवाह भी होता था। छत्तीसगढ़ में यह प्रथा आज भी जारी है। विवाह से पहले तालाब का उपयोग नहीं हो सकता। न तो उससे पानी निकालेंगे और न उसे पार करेंगे। विवाह में क्षेत्र के सभी लोग, सारा गाँव पाल पर उमड़ आता है। आसपास के मंदिरों में मिट्टी लाई जाती है, गंगाजल आता है और इसी के साथ अन्य पाँच या सात कुओं या तालाबों का जल मिलाकर विवाह पूरा होता है। इन तालाबों के दीर्घ जीवन का एक ही रहस्य था-ममत्व। यह मेरा है, हमारा है।

ऐसी मान्यता के बाद रख-रखाव जैसे शब्द छोटे लगने लगेंगे। घरमेल यानी सब घरों के मेल से तालाब का काम होता था। सबका मेल तीर्थ है। जो तीर्थ न जा सके, वे अपने यहाँ तालाब बनाकर ही पुण्य ले सकते हैं। तालाब बनाने वाला पुण्यात्मा है, महात्मा है। जो तालाब बचाए, उसकी भी उतनी ही मान्यता मानी गई है। इस तरह तालाब एक तीर्थ है। यहाँ मेले लगते हैं और इन मेलों में जुटने वाला समाज तालाब को अपनी आँखों में, मन में बसा लेता है। तालाब समाज के मन में रहा है और कहीं-कहीं तो उसके तन में भी। बहुत से वनवासी-समाज गुदने में तालाब, बावड़ी भी गुदवाते हैं।

गुदनों के चिहनों में पशु-पक्षी, फल आदि के साथ-साथ सहरिया समाज में सीता बावड़ी और साधारण बावड़ी के चिह्नों भी प्रचलित हैं। सहरिया शबरी को अपना पूर्वज मानते हैं। सीता जी से विशेष संबंध है। इसलिए सहरिया अपनी पिडंलियों पर सीता बावड़ी बहुत चाव से गुदवाते हैं। जिसके मन में, तन में तालाब रहा हो, वह तालाब को केवल पानी के एक गड्ढे की तरह नहीं देख सकेगा। उसके लिए तालाब एक जीवंत परंपरा है, परिवार है और उसके कई संबंध, संबंधी हैं। तालाब का लबालब भर जाना भी एक बड़ा उत्सव बन जाता है। समाज के लिए इससे बड़ा और कौन-सा प्रसंग होगा कि तालाब की अपरा चल निकलती है।

भुज (कच्छ) के सबसे बड़े तालाब हमीरसर के घाट में बनी हाथी की एक मूर्ति अपना चलने की सूचक है। जब-जब इस मूर्ति को छू लेता तो पूरे शहर में खबर फैल जाती थी। शहर तालाब के घाटों पर आ जाता। कम पानी का इलाका इस घटना को एक त्यौहार में बदल देता। भुज के राजा घाट पर आते, पूरे शहर की उपस्थिति में तालाब की पूजा करते और पूरे भरे तालाब का आशीर्वाद लेकर लौटते। तालाब का पूरा भर जाना, सिर्फ एक घटना नहीं, आनंद है, मंगल सूचक है, उत्सव है, महोत्सव है। वह प्रजा और राजा को घाट तक ले आता था। कोई भी तालाब अकेला नहीं है।

वह भरे-पूरे जल परिवार का एक सदस्य है। उसमें सबका पानी है और उसका पानी सबमें है-ऐसी मान्यता रखने वालों ने एक तालाब सचमुच ऐसे ही बना दिया था। जगन्नाथपुरी के मंदिर के पास बिंदुसागर में देश भर के हर जल स्रोत का नदियों और समुद्रों तक का पानी मिला है। दूर-दूर से, अलग-अलग दिशाओं से पुरी आने वाले भक्त अपने साथ अपने क्षेत्र का थोड़ा सा पानी ले आते हैं और उसे बिंदुसागर में अर्पित कर देते हैं। देश की एकता की परीक्षा की इस घड़ी में बिंदुसागर राष्ट्रीय एकता का सागर कहला सकता है। बिंदुसागर जुड़े भारत का प्रतीक है।

प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-सार्वजनिक जीवन : तालाब अथवा तालाब और हमारा जीवन, (अन्य शीर्षक भी स्वीकार्य हो सकता है)।

प्रश्नः 2.
अमावस्या और पूर्णिमा के संबंध में लोगों की क्या मान्यता है ? किसान इन दिनों में क्या करते हैं ?
उत्तरः
अमावस्या और पूर्णिमा को सार्वजनिक कामों का दिन माना गया है। इन दोनों दिनों में व्यक्ति अपने निजी कामों से हटकर सार्वजनिक कामों से स्वयं को जोड़ता है। इस दिन किसान अपने खेतों में काम नहीं करते थे, वे उस समय का उपयोग अपने क्षेत्र के तालाबों की देखरेख और मरम्मत में करते थे।

प्रश्नः 3.
तालाब को तीर्थ क्यों माना गया है ?
उत्तरः
तालाब को तीर्थ इसलिए माना गया क्योंकि तालाब सब घरों के मिले-जुले प्रयासों से बनता था, उसकी देखभाल भी सभी करते थे। सबका मेल ही तीर्थ है। जो तीर्थ जाने में असमर्थ हो वह तालाब को बनाने का कार्य और देखभाल का कार्य करता था।

प्रश्नः 4.
तन-मन के साथ तालाब से जुड़े व्यक्ति के लिए तालाब पानी का गड्ढा मात्र क्यों नहीं है?
उत्तरः
तालाब समाज के तन-मन में बसा रहा है। लोग उसे तीर्थ के समान महत्त्व देकर उसकी देखभाल करते रहे हैं और वनवासी समाज तो शरीर पर तालाब और बावड़ी गुदवाते रहे हैं। इस तरह तालाब तन-मन में बसा हुआ है। इसलिए वह एक पानी का गड्ढा मात्र नहीं, एक जीवंत परंपरा है, एक परिवार है।

प्रश्नः 5.
“तालाब का पूरा भर जाना सिर्फ एक घटना नहीं, महोत्सव है।” कैसे?
उत्तरः
तालाब का पूरा भर जाना महोत्सव की अनुभूति देता है। जल जीवन का पर्याय है। इसलिए भारत में भरे-पूरे तालाब की पूजा की जाती है। प्रजा से राजा तक घाट पर आकर पूजा करते हैं और पूरे भरे तालाब का आशीर्वाद लेकर घर जाते हैं।

प्रश्नः 6.
“कोई भी तालाब अकेला नहीं है”-इस कथन पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तरः
कोई भी तालाब नहीं होता-अर्थात् उस तालाब के जल में अनेक जल स्रोतों का जल . मिला होता है। इस तरह वह भरे-पूरे जल परिवार का सदस्य होता है। सब लोगों का मिला-जुला प्रयास उसकी देखभाल करता है। इस तरह पूरे समाज का संबंध तालाब से होता है। सबका जल उसमें समाया होता है और समाज के सब लोगों का संबंध उस तालाब से होता है।

प्रश्नः 7.
लेखक ने बिंदुसागर को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक क्यों माना है?
उत्तरः
बिंदुसागर राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। वह भारत के सभी जल स्रोतों, नदियों, समुद्रों का मिला हुआ रूप है। दूर-दूर से और सभी दिशाओं से आने वाले भक्त अपने साथ अपने क्षेत्र का थोड़ा-सा जल लाते हैं और बिंदुसागर को अर्पित करते हैं। इस प्रकार बिंदुसागर भारत की एकता और अखण्डता का प्रतीक माना गया है।

20. विधाता-रचित इस सृष्टि का सिरमौर है मनुष्य। उसकी कारीगरी का सर्वोत्तम नमूना ! इस मानव को ब्रह्मांड का लघु रूप मानकर भारतीय दार्शनिकों ने ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्मांडे’ की कल्पना की थी। उनकी यह कल्पना मात्र कल्पना नहीं थी, प्रत्युत यथार्थ भी थी क्योंकि मानव-मन में जो विचारणा के रूप में घटित होता है, उसी का कृति रूप ही तो सृष्टि है। मन तो मन, मानव का शरीर भी अप्रतिम है।

देखने में इससे भव्य, आकर्षक एवं लावण्यमय रूप सृष्टि में अन्यत्र कहाँ है? अद्भुत एवं अदवितीय है मानव-सौंदर्य! साहित्यकारों ने इसके रूप-सौंदर्य के वर्णन के लिए कितने ही अप्रस्तुतों का विधान किया है और इस सौंदर्य-राशि से सभी को आप्यायित करने के लिए अनेक काव्य सृष्टियाँ रच डाली हैं, साहित्यशास्त्रियों ने भी इसी मानव की भावनाओं का विवेचन करते हुए अनेक रसों का निरूपण किया है। परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाए तो मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र से उपमित किया जा सकता है।

जिस प्रकार यंत्र के एक पुर्जे में दोष आ जाने पर सारा यंत्र गड़बड़ा जाता है, बेकार हो जाता है उसी प्रकार मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों में से यदि कोई एक अवयव भी बिगड़ जाता है तो उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। इतना ही नहीं, गुर्दे जैसे कोमल एवं नाजुक हिस्से के खराब हो जाने से यह गतिशील यंत्र एकाएक अवरुद्ध हो सकता है, व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। एक अंग के विकृत होने पर सारा शरीर दंडित हो, वह कालकवलित हो जाए-यह विचारणीय है।

यदि किसी यंत्र के पुर्जे को बदलकर उसके स्थान पर नया पुर्जा लगाकर यंत्र को पूर्ववत सुचारु एवं व्यवस्थित रूप से क्रियाशील बनाया जा सकता है तो शरीर के विकृत अंग के स्थान पर नव्य निरामय अंग लगाकर शरीर को स्वस्थ एवं सामान्य क्यों नहीं बनाया जा सकता? शल्य-चिकित्सकों ने इस दायित्वपूर्ण चुनौती को स्वीकार किया तथा निरंतर अध्यवसाय पूर्णसाधना के अनंतर अंग-प्रत्यारोपण के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सके।

यहाँ यह ध्यातव्य है कि मानव-शरीर हर किसी के अंग को उसी प्रकार स्वीकार नहीं करता, जिस प्रकार हर किसी का रक्त उसे स्वीकार्य नहीं होता। रोगी को रक्त देने से पूर्व रक्त-वर्ग का परीक्षण अत्यावश्यक है, तो अंग-प्रत्यारोपण से पूर्व ऊतकपरीक्षण अनिवार्य है। आज का शल्य-चिकित्सक गुर्दे, यकृत, आँत, फेफड़े और हृदय का प्रत्यारोपण सफलता पूर्वक कर रहा है। साधन-संपन्न चिकित्सालयों में मस्तिष्क के अतिरिक्त शरीर के प्रायः सभी अंगों का प्रत्यारोपण संभव हो गया है।

प्रश्नः 1.
उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-मानव अंग प्रत्यारोपण।

प्रश्नः 2.
मानव को सृष्टि का लघु रूप क्यों कहा गया है?
उत्तरः
मानव को सृष्टि का लघु रूप माना गया है क्योंकि मानव-मन में जो घटित होता है, वही सृष्टि में घटित होता है।

प्रश्नः 3.
वैज्ञानिक दृष्टि में किसका अभाव होता है?
उत्तरः
वैज्ञानिक दृष्टि में भावना का अभाव होता है।

प्रश्नः 4.
मानव शरीर को ‘मशीन’ की संज्ञा क्यों दी गई है?
उत्तरः
मानव शरीर को मशीन की संज्ञा दी गई है क्योंकि अवयव रूपी पुों के विकृत होने से शरीर निष्क्रिय हो जाता है।

प्रश्नः 5.
शल्य चिकित्सक का मुख्य ध्येय बताइए।
उत्तरः
शल्य चिकित्सकों का मूल ध्येय शल्य चिकित्सा द्वारा मानव को चिरायु प्रदान करना है।

प्रश्नः 6.
अंग-प्रत्यारोपण की सफलता का रहस्य क्या है?
उत्तरः
अंग प्रत्यारोपण की सफलता का रहस्य शल्य चिकित्सकों द्वारा दायित्वपूर्ण चुनौती स्वीकार करना है।

प्रश्नः 7.
विलोम बताइए-यथार्थ, मृत्यु
उत्तरः
कल्पना, जीवन।

21. शिक्षा के क्षेत्र में पुनर्विचार की आवश्यकता इतनी गहन है कि अब तक बजट, कक्षा, आकार, शिक्षक-वेतन और पाठ्यक्र आदि के परंपरागत मतभेद आदि प्रश्नों से इतनी दूर निकल गई है कि इसको यहाँ पर विवेचित नहीं किया जा सकता। द्वितीय तरंग दूरदर्शन तंत्र की तरह (अथवा उदाहरण के लिए धूम्र भंडार उद्योग) हमारी जनशिक्षा प्रणालियाँ बड़े पैमाने पर प्रायः लुप्त हैं। बिलकुल मीडिया की तरह शिक्षा में भी कार्यक्रम विविधता के व्यापक विस्तार और नये मार्गों की बहुतायत की आवश्यकता है।

केवल आर्थिक रूप से उत्पादक भूमिकाओं के लिए ही निम्न विकल्प पद्धति की जगह उच्च विकल्प पद्धति को अपनाना होगा यदि नई थर्ड वेव सोसायटी में शिष्ट जीवन के लिए विद्यालयों में लोग तैयार किए जाते हैं। शिक्षा और नई संचार प्रणाली के छह सिद्धांतों-पारस्परिक क्रियाशीलता, गतिशीलता, परिवर्तनीयता, संयोजकता, सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकरण के बीच बहुत ही कम संबंध खोजे गए हैं।

अब भी भविष्य की शिक्षा पद्धति और भविष्य की संचार प्रणाली के बीच संबंध की उपेक्षा करना उन शिक्षार्थियों को धोखा देना है जिनका निर्माण दोनों से होना है।। सार्थक रूप से शिक्षा की प्राथमिकता अब मात्र माता-पिता, शिक्षकों एवं मुट्ठी भर शिक्षा सुधारकों के लिए ही नहीं है, बल्कि व्यापार के उस आधुनिक क्षेत्र के लिए भी प्राथमिकता में है जब से वहाँ सार्वभौम प्रतियोगिता और शिक्षा के बीच संबंध को स्वीकारने वाले नेताओं की संख्या बढ़ रही है।

दूसरी प्राथमिकता कंप्यूटर वृद्धि, सूचना तकनीक और विकसित मीडिया के त्वरित सार्वभौमिकरण की है। कोई भी राष्ट्र 21वीं सदी के इलेक्ट्रॉनिक आधारिक संरचना, एंब्रेसिंग कंप्यूटर्स, डाटा संचार और अन्य नवीन मीडिया के बिना 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था का संचालन नहीं कर सकता। इसके लिए ऐसी जनसंख्या की आवश्यकता है जो इस सूचनात्मक आधारिक संरचना से परिचित हो, ठीक उसी प्रकार जैसे कि समय के परिवहन तंत्र और कारों, सड़कों, राजमार्गों, रेलों से सुपरिचित है।

वस्तुतः सभी के टेलीकॉम इंजीनियर अथवा कंप्यूटर विशेषज्ञ बनने की ज़रूरत नहीं है, जैसा कि सभी के कार मैकेनिक होने की आवश्यकता नहीं है, परंतु संचार प्रणाली का ज्ञान कंप्यूटर, फैक्स और विकसित दूर संचार को सम्मिलित करते हुए उसी प्रकार आसान और मुफ्त होना चाहिए जैसा कि आज परिवहन प्रणाली के साथ है। अतः विकसित अर्थव्यवस्था चाहने वाले लोगों का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए कि सर्वव्यापकता के नियम की क्रियाशीलता को बढ़ाया जाए-वह है, यह निश्चित करना कि गरीब अथवा अमीर सभी नागरिकों को मीडिया की व्यापक संभावित पहुँच से अवश्य परिचित कराया जाए।

अंततः यदि नई अर्थव्यवस्था का मूल ज्ञान है तब सतही बातों की अपेक्षा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लोकतांत्रिक आदर्श सर्वोपरि राजनीतिक प्राथमिकता बन जाता है।

प्रश्नः 1.
उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-शिक्षा पर पुनर्विचार की ज़रूरत।

प्रश्नः 2.
लेखक का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तरः
इस अंश में लेखक ज्ञान, अर्थव्यवस्था और संचार माध्यमों के बीच नए गठबंधन के लिए तर्क प्रस्तुत करना चाहता है।

प्रश्नः 3.
इस गद्यांश का मूल विषय क्या है?
उत्तरः
इस गद्यांश का मूल विषय शिक्षा, सूचना-तकनीक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।

प्रश्नः 4.
सर्वव्यापकता का अर्थ बताइए।
उत्तरः
सर्वव्यापकता के सिद्धांत का अर्थ है-सभी के लिए माध्यमों की उपलब्धि।

प्रश्नः 5.
शिक्षा की प्राथमिकता किन-किन के लिए है?
उत्तरः
शिक्षा की प्राथमिकता माता-पिता, शिक्षकों, शिक्षा सुधारकों, व्यापार के आधुनिक क्षेत्रों में है।

प्रश्नः 6.
आज कैसी संचार प्रणाली का ज्ञान होना चाहिए।
उत्तरः
आज ऐसी संचार प्रणाली का ज्ञान होना आवश्यक है जो व्यावहारिक कार्य जैसे कंप्यूटर, फैक्स आदि कर सके।

प्रश्नः 7.
लेखक किस राजनीतिक प्राथमिकता की बात करता है?
उत्तरः
लेखक का मानना है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी सर्वोपरि राजनीतिक प्राथमिकता होनी चाहिए।

22. भारत एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। इस राष्ट्र के दक्षिण में स्थित कन्याकुमारी से लेकर उत्तर में कश्मीर तक विस्तृत-भू-भाग है। यह भू-भाग अनेक राज्यों के मध्य बँटा हुआ है। यहाँ अनेक धर्मानुयायी तथा भाषा-भाषी लोग रहते हैं। संपूर्ण राष्ट्र का एक ध्वज, एक लोकसभा, एक राष्ट्रचिह्न तथा एक ही संविधान है। इन सभी से मिलकर राष्ट्र का रूप बनता है। देश जब अंग्रेजों के अधीन था तब देश के प्रत्येक भाषा-भाषी तथा धर्म का अवलंबन करने वाले ने देश को स्वतंत्र कराने का प्रयत्न किया था।

उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलने वाले स्वाधीनता आंदोलन में भी भाग लिया था। इसी के परिणामस्वरूप हमारा देश 15 अगस्त, 1947 में स्वतंत्र हुआ। इस स्वतंत्र देश का संविधान बना और वह 26 जनवरी, 1950 में लागू हुआ। इस संविधान के लागू होने के पश्चात् हमारा देश गणतंत्र कहलाया। 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस तथा 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस हमें क्रमश: इसी दिन की याद दिलाते हैं। भारत की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता अनेकता में एकता है।

यहाँ विभिन्न धर्म, जाति तथा संप्रदाय के लोग रहते हैं। इन सभी लोगों की बोली और भाषा भी भिन्न है। भौगोलिक दृष्टि से देखें, तो यहाँ पर कहीं ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं, तो कहीं समतल मैदान। कहीं उपजाऊ भूमि है, तो कहीं रेगिस्तान। दक्षिण में हिंद महासागर लहलहा रहा है। प्राचीन काल में जब यातायात के साधन विकसित हुए थे, तब यह विविधता स्पष्ट रूप से झलकती थी। आधुनिक काल में एक-से-एक द्रुतगामी यातायात के साधन बन चुके हैं, जिससे देश की यह भौगोलिक सीमा सिकुड़ गई है।

अब एक भाग से दूसरे भाग में हम शीघ्र ही पहुँच सकते हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें, तो संपूर्ण देश में एक अद्भुत समानता दिखाई पड़ती है। सारे देश में विभिन् देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इन सब में प्रायः एक-सी पूजा पद्धति चलती है। सभी धार्मिक लोगों में व्रत-त्योहारों को मानने की एक-सी प्रवृत्ति है। वेद, रामायण और महाभारत आदि ग्रंथों पर सारे देश में विपुल साहित्य की रचना की गई। जब इस्लाम धर्म आया, तो उसके भी अनुयायी सारे देश में फैल गए।

इसी प्रकार ईसाई धर्मावलंबी संपूर्ण देश में पाए जाते हैं। इससे सारा देश वस्तुतः एक ही सूत्र में बँधा हुआ है। भारतीय संस्कृति में ढले प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पहचान है। इस पहचान के कारण इस देश के लोग एक-दूसरे से अपना भिन्न अस्तित्व रखते हैं। विभिन्न प्रकार के रहन-सहन तथा पहनावे के होने पर भी सारा देश वस्तुतः एक ही है। यह सांस्कृतिक एकता ही वस्तुतः इस देश की यह शक्ति है, जिससे इतना बड़ा देश एक सूत्र में बँधा हुआ है।

विविधता में एकता की इस विशेषता पर सभी भारतीय गर्व करते हैं तथा इस पर संसार दंग है। राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए हैं। अनेक महापुरुषों तथा नेताओं ने इस प्रकार के अवसरों पर जनता से आग्रह किया और जनता में एक प्रकार की जागृति भी आई, किंतु स्थायी न रह सकी। महात्मा गांधी का जीवन राष्ट्रीय एकता से ओत-प्रोत था। उनका समूचा जीवन राष्ट्रीय एकता का ज्वलंत उदाहरण था।

महात्मा गांधी तो कभी-कभी एक मास का उपवास भी करते थे। “हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई” के नारे लगाए जाते थे। अंत में महात्मा जी के बलिदान का एकमात्र आधार ‘राष्ट्रीय एकता’ ही था। इस दिशा में श्री नेहरू के प्रयत्नों को भी भुलाया नहीं जा सकता। यह बात दूसरी है कि स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। शनैः शनैः भावात्मक एकता का विकास हुआ। इस समय पृथकतावादी विचारधारा पनप रही है। हमें ऐसी विचारधारा को समाप्त करना चाहिए।

समस्त राज्य, संघ, गणराज्य भारत के अभिन्न अंग हैं। समस्त महामानवों, नेताओं, राजनीति के पंडितों तथा महान साहित्यकारों को जनता में भारतीयता कूट-कूटकर भरनी चाहिए। यह प्रयत्न निस्संदेह राष्ट्रीय एकता में सहायक होगा। प्रत्येक भारतीय को संकीर्ण विचारधारा का परित्याग कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तभी हमारी राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण बनी रह सकती है, जो आज की एक महत्त्वपूर्ण अपेक्षा है।

प्रश्नः 1.
राष्ट्र का निर्माण कौन-सी चीजें मिलकर करती हैं?
उत्तरः
भारत एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहाँ अनेक धर्मानुयायी तथा भाषा-भाषी लोग रहते हैं। एक ध्वज, एक लोकसभा, एक राष्ट्रचिह्न तथा एक संविधान मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते हैं।

प्रश्नः 2.
किसके परिणामस्वरूप देश 15 अगस्त, 1947 में स्वतंत्र हुआ था?
उत्तरः
हमारा देश जब अंग्रेजों के आधीन था। तब प्रत्येक भाषा-भाषी तथा धर्म का अवलंबन करने वाले न देश को स्वतंत्र करने का प्रयत्न किया था। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलने वाले स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया था। इसी परिणामस्वरूप हमारा देश 15 अगस्त, 1947 में स्वतंत्र हुआ था।

प्रश्नः 3.
भारत की उल्लेखनीय विशेषता क्या है?
उत्तरः
भारत की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता अनेकता में एकता है। भारत में विभिन्न धर्म, जाति तथा समुदाय के लोग रहते हैं। इन सभी लोगों की बोली तथा भाषा भी भिन्न है। यहाँ पर कहीं उपजाऊ भूमि है, तो कहीं रेगिस्तान, कहीं ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं, तो कहीं समतल मैदान।

प्रश्नः 4.
देश की भौगोलिक सीमा किस प्रकार सिकुड़ गई प्रतीत होती है?
उत्तरः
आधुनिक काल में द्रुतगामी यातायात बन गए हैं, जिसके कारण हम एक भाग से दूसरे भाग में शीघ्र ही पहुँच सकते हैं। इसी कारण देश की भौगोलिक सीमा सिकुड़ गई प्रतीत होती है।

प्रश्नः 5.
भारत में अनेकता में एकता कैसे है?
उत्तरः
भारतीय संस्कृति में ढले प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पहचान है। इस पहचान के कारण इस देश के लोग एक-दूसरे से अपना अलग अस्तित्व रखते हैं। विभिन्न प्रकार का रहन-सहन तथा पहनावा, यह सांस्कृतिक एकता इस देश की वह शक्ति है, जिससे इतना बड़ा देश एक सूत्र में बँधा हुआ है। यही अनेकता में एकता है। सभी भारतीय इस पर गर्व करते हैं।

प्रश्नः 6.
हमारी राष्ट्रीय एकता कैसे अक्षुण्ण बनी रह सकती है?
उत्तरः
यदि प्रत्येक भारतीय संकीर्ण विचारधारा का परित्याग कर व्यापक दृष्टिकोण अपना ले, तभी हमारी राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण बनी रह सकती है। यह आज की एक महत्त्वपूर्ण अपेक्षा है।

प्रश्नः 7.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
7. शीर्षक–’राष्ट्रीय एकता’।

23. सिने जगत के अनेक नायक-नायिकाओं, गीतकारों, कहानीकारों और निर्देशकों को हिंदी के माध्यम से पहचान मिली है। यही कारण है कि गैर-हिंदी भाषी कलाकार भी हिंदी की ओर आए हैं। समय और समाज के उभरते सच को परदे पर पूरी अर्थवत्ता में धारण करने वाले ये लोग दिखावे के लिए भले ही अंग्रेजी के आग्रही हों, लेकिन बुनियादी और ज़मीनी हक़ीकत यही है कि इनकी पूँजी, इनकी प्रतिष्ठा का एकमात्र निमित्त हिंदी ही है।

लाखों करोड़ों दिलों की धड़कनों पर राज करने वाले ये सितारे हिंदी फ़िल्म और भाषा के सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं। ‘छोटा परदा’ ने आम जनता के घरों में अपना मुकाम बनाया तो लगा हिंदी आम भारतीय की जीवन-शैली बन गई। हमारे आद्यग्रंथों-रामायण और महाभारत को जब हिंदी में प्रस्तुत किया गया तो सड़कों का कोलाहल सन्नाटे में बदल गया। ‘बुनियाद’ और ‘हम लोग’ से शुरू हुआ सोप ऑपेरा का दौर हो या सास-बहू धारावाहिकों का, ये सभी हिंदी की रचनात्मकता और उर्वरता के प्रमाण हैं।

‘कौन बनेगा करोड़पति’ से करोड़पति चाहे जो बने हों, पर सदी के महानायक की हिंदी हर दिल की धड़कन और हर धड़कन की भाषा बन गई। सुर और संगीत की प्रतियोगिताओं में कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, असम, सिक्किम जैसे गैर-हिंदी क्षेत्रों के कालाकारों ने हिंदी गीतों के माध्यम से पहचान बनाई। ज्ञान गंभीर ‘डिस्कवरी’ चैनल हो या बच्चों को रिझाने-लुभाने वाला ‘टॉम ऐंड जेरी’-इनकी हिंदी उच्चारण की मिठास और गुणवत्ता अद्भुत, प्रभावी और ग्राह्य है। धर्म-संस्कृति, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान-सभी कार्यक्रम हिंदी की संप्रेषणीयता के प्रमाण हैं।

प्रश्नः 1.
उपर्युक्त अवतरण के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक- मनोरंजन व हिंदी।

प्रश्नः 2.
गैर-हिंदी भाषी कलाकारों के हिंदी सिनेमा में आने के दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
गैर-हिंदी भाषी कलाकारों के हिंदी सिनेमा में आने के दो कारण हैं-(क) प्रतिष्ठा मिलना (ख) अत्यधिक धन मिलना।

प्रश्नः 3.
छोटा परदा से क्या तात्पर्य है ? इसका आम जन-जीवन की भाषा पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तरः
‘छोटा परदा’ से तात्पर्य दूरदर्शन से है। इसका आम जनजीवन की भाषा पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। इसके माध्यम से हिंदी का प्रसार हुआ।

प्रश्नः 4.
आशय स्पष्ट कीजिए-सड़कों का कोलाहल सन्नाटे में बदल गया।
उत्तरः
इसका आशय है कि जब दूरदर्शन पर रामायण व महाभारत को सीरियलों के रूप में दिखाया जाता था तो आम व्यक्ति अपने सभी काम छोड़कर इन कार्यक्रमों को देखता था। यह दूरदर्शन के आम आदमी पर प्रभाव को दिखाता है।

प्रश्नः 5.
कुछ बहुप्रचलित और लोकप्रिय धारावाहिकों के उल्लेख से लेखक क्या सिद्ध करना चाहता है ?
उत्तरः
कुछ बहुप्रचलित तथा लोकप्रिय धारावाहिकों के उल्लेख से लेखक सिद्ध करना चाहता है कि इन धारावाहिकों की लोकप्रियता का कारण हिंदी था।

प्रश्नः 6.
‘सदी का महानायक’ से लेखक का संकेत किस फ़िल्मी सितारे की ओर है?
उत्तरः
‘सदी का महानायक’ से लेखक का संकेत अमिताभ बच्चन की ओर है।

प्रश्नः 7.
फ़िल्म और टी०वी० ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में क्या भूमिका निभाई है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तरः
फ़िल्म व टी०वी० ने हिंदी को जन-जन में लोकप्रिय बनाया। इससे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिला तथा हिंदी में कार्य बढ़ा।

24. राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा भी एक प्रमुख तत्व है। मानव समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं बाधित नहीं करतीं। इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक सम्पर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं। मानव-समुदाय को एक जीवित-जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यकि तत्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त मानसिक वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है।

मनुष्यों के विविध समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं, विचारधाराएँ हैं, संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है। साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदर्शों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं एवं विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व संभव है? वस्तुतः ज्ञानराशि एवं भावराशि का अपार संचित कोश जिसे साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है। अतः इस संबंध में वैमत्य की किंचित् गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने एवं समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अतः राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है।

प्रश्नः 1.
उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-राष्ट्रीयता और भाषा तत्व।

प्रश्नः 2.
भाषा के बारे में मानव समुदाय क्या सोचता है?
उत्तरः
मानव समुदाय भाषा को अपनी संवेदनाओं, भावनाओं व विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य साधन मानता है।

प्रश्नः 3.
भाषा तत्व के बिना किसका अस्तित्व संभव नहीं है?
उत्तरः
भाषा तत्व के अभाव में मानवीय संवेदनाओं का अस्तित्व संभव नहीं है।

प्रश्नः 4.
साहित्य की परिभाषा के लिए उपयुक्त पदबंध बताइए।
उत्तरः
ज्ञानराशि एवं भावराशि का संचित कोश।।

प्रश्नः 5.
राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा-तत्व क्यों आवश्यक है?
उत्तरः
राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व आवश्यक है क्योंकि वह मानव समुदाय में एकानुभूति और विचार ऐक्य का साधन है।

प्रश्नः 6.
भाषागत वैविध्य के बावजूद राष्ट्रीय भावना का विकास कैसे संभव है ?
उत्तरः
भाषागत वैविध्य के बावजूद राष्ट्रीय भावना का विकास तभी संभव है जब एक संपर्क भाषा विकसित की जाए।

प्रश्नः 7.
‘भाषा बहता नीर’ से क्या आशय है ?
उत्तरः
‘भाषा बहता नीर’ का अर्थ है-सरल प्रवाहमयी भाषा।

25. आप एक ऐसे मुल्क में हैं, जहाँ करोड़ों युवा बसते हैं। इनमें से कई बेरोज़गार हैं, तो कई कोई छोटा-मोटा काम-धंधा कर रहे हैं। ये सब पैसा कमाने की ख्वाहिश रखते हैं, ताकि ये सभी अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी को चला सकें और भविष्य को बेहतर बना सकें। ऐसे लोगों से आप यह उम्मीद कैसे रख सकती है कि वे समाजसेवा के कार्यों में रुचि लेंगे? यह उन कई मुश्किल सवालों में से एक है, जिनका सामना शिक्षाविद सूसन स्ट्रॉड को भारत में करना पड़ा। उन्होंने अमेरिका में ‘राष्ट्रीय युवा सेवा संगठन, अमेरिका’ की स्थापना की है।

सूसन का मकसद युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल एक रणनीति के तहत राष्ट्रीय विकास, लोकतंत्र को बढ़ावा देने और बेरोज़गारी की समस्या से निपटने के लिए करना है, लेकिन क्या विकासशील देशों के युवा मुफ्त में वह काम करना चाहेंगे? क्या ये लोग अपनी पढ़ाई या कैरियर को दरकिनार कर न्यूनतम वेतन पर ऐसी किसी मुहिम से जुड़ेंगे? प्रोत्साहन कहाँ है? इसके जवाब में सुश्री स्ट्रॉड कहती हैं, “मैं सोचती हूँ कि ऐसे कुछ तरीके हैं, जिनसे भारत जैसे बेरोज़गारी से जूझ रहे देशों में भी युवाओं की सेवाएँ ली जा सकती है।

” यह पिछले साल नवंबर में दिल्ली में हुए स्वयंसेवी प्रयासों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन के सम्मेलन में मानद अतिथि थीं। वह कहती हैं, “युवाओं के लिए रोजगार प्राप्ति में उनके पास नौकरी का कोई पूर्व अनुभव न होना एक सबसे बड़ी बाधा होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमने कई साल पहले दक्षिण अफ्रीका में ऐसे बेरोज़गार युवाओं के लिए कुछ कार्यक्रम शुरू किए, जो राजनीतिक संघर्षों में सक्रिय रहे। ये युवा स्कूलों से बाहर हो चुके थे और रोज़गार के मौके भी गँवा चुके थे।

हमने इनके लिए कुछ कार्यक्रम तैयार किए। मिसाल के तौर पर हमने उन्हें अश्वेतों के इलाकों में कम कीमत के मकान बनाने के काम से जोड़ा। वहाँ इन्होंने भवन निर्माण के गुर सीखे और जाना कि एक टीम के रूप में कैसे काम किया जाता है। इस तरह ये लोग एक हुनर में माहिर हुए और रोज़गार पाने के दावेदार बने।” नौकरियों से जुड़े बहुत से प्रशिक्षण कार्यक्रम अमूमन किसी खास कौशल के विकास पर केंद्रित होते हैं, लेकिन सेवा संबंधी कार्यक्रम इनसे कुछ बढ़कर होते हैं।

इनमें शामिल लोग, ज़्यादा उपयोगी और पहल करने वाले नागरिक होते हैं। स्ट्रॉड के मुताबिक, इनकी यह खासियत इनमें समाज के प्रति एक ज़िम्मेदारी और प्रतिबद्धता का अहसास भरती है। युवाओं के लिए चलाए जाने वाले सेवा संबंधी कार्यक्रमों के जरिए, उन्हें उपयोगी परियोजनाओं से जोड़ा जा सकता है और इसके एवज में कुछ पैसा भी दिया जा सकता है। वे कहती हैं, “ज़रा 1930 के दशक के मंदी के दौर के अपने देश को याद कीजिए। राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी० रूजवेल्ट ने संरक्षण कार्यक्रम चलाए।

उन्होंने देश के युवाओं को, खासकर बेरोजगारों को कई तरह के कामों से जोड़ दिया। इसका इन युवाओं और पूरे देश को जबर्दस्त फायदा हुआ।” स्ट्रॉड बताती हैं, “इन युवाओं को उनके काम के बदले में पैसा दिया जाता था, जिसका एक हिस्सा उन्हें अपने परिवारों को देना होता था। अगर आप अमेरिका के किसी राष्ट्रीय उद्यान में जाएंगे, तो आपको पता चलेगा कि इन लोगों ने कितनी समृद्ध विरासत का निर्माण किया था। इन युवाओं ने अमेरिका के ज़्यादातर राष्ट्रीय उद्यानों का सृजन किया और वहाँ लाखों पेड़ लगाए।

” ऐसे ही प्रयासों की सबसे ताजा मिसाल है ‘अमेरिका’, इसके जरिए हर साल 75 हजार युवाओं को रोजगार दिया जाता है और इनमें से ज़्यादातर बीस से तीस आयु-वर्ग के होते हैं। कई तो बस अभी हाईस्कूल से निकले ही होते हैं, तो कई स्कूल छोड़ चुके होते हैं और कई पी०एच०डी० भी होते हैं। सूसन बताती हैं कि आइडिया यह होता है कि “लोग छात्रवृत्ति पाते हैं, जो न्यूनतम वेतन से कम होती है। इसके बदले ये युवा देश के सबसे विपन्न इलाकों में एक या दो साल तक कई तरह के काम करते हैं।

” स्ट्रॉड स्पष्ट करती हैं, “इसमें दो राय नहीं कि इस पैसे से ये अमीर नहीं हो सकते, पर इतना ज़रूर है कि इससे इनका खर्चा आराम से चल जाता है। साल के आखिर में इन युवाओं को 4,725 डॉलर का एक वाउचर दिया जाता है, जिसे ये सिर्फ़ शिक्षा या प्रशिक्षण की फीस चुकाने या कॉलेज का ऋण अदा करने के लिए ही इस्तेमाल कर सकते हैं।” इन युवाओं में बहुत-से मिसिसिपी और लुइसियाना में राहत का काम कर चुके हैं, जहाँ तूफ़ान कैटरीना ने भारी तबाही मचाई थी।

स्ट्रॉड का मानना है कि स्वयंसेवी संगठन और व्यक्ति विशेष अपनी ऊर्जा और विचारों से विभिन्न योजनाओं को साकार कर सकते हैं, उन्हें कम करने और उसे फैलाने दीजिए। “यदि आप वाकई ऐसा कुछ करना चाहते हैं, जिससे ज़्यादा-से-ज्यादा युवाओं की जिंदगी प्रभावित हो, तो इसके लिए आपको ज़्यादा-से-ज्यादा जन संसाधनों की व्यवस्था करनी होगी।” वे कहती हैं, “भारत में भी युवाओं के लिए कई कार्यक्रम हैं।

यहाँ एन०सी०सी० है और राष्ट्रीय सेवा योजना भी है, जिससे पूरे देश में पाँच हजार स्वयं सेवक जुड़े हुए हैं, लेकिन वे सवाल करती हैं कि इस योजना से सिर्फ पाँच हजार युवा ही क्यों जुड़े हुए हैं, दस लाख क्यों नहीं? क्या इसे समाज की ज़रूरतों और रोजगार से जोड़ा गया? युवाओं को इससे जोड़ने की मुहिम क्यों नहीं छेड़ी जाती? इस देश में गांधीवादी परंपराएँ हैं, दान और उदारता की भावना है, जिनके दम पर बड़े पैमाने पर सेवा संबंधी कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।”

प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तरः
शीर्षक-बेरोज़गारों के लिए रोज़गार/रोज़गार के लिए सूसन की भूमिका।

प्रश्नः 2.
भारत में करोड़ों युवाओं की कैसी स्थिति है?
उत्तरः
भारत में करोड़ों युवाओं में से कई तो बेरोज़गार हैं तो कई कोई छोटा-मोटा धंधा कर रहे हैं। ये सभी पैसा कमाने की इच्छा रखते हैं, ताकि भविष्य में जी सकें।

प्रश्नः 3.
शिक्षाविद् सूसन स्ट्रॉड को भारत में क्या सामना करना पड़ा?
उत्तरः
शिक्षाविद् सूसर स्ट्रॉड को भारत में कई मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ा।

प्रश्नः 4.
सूसन युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल कैसे करती हैं?
उत्तरः
सूसन युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल एक रणनीति के तहत राष्ट्रीय विकास, लोकतंत्र को बढ़ावा देने और बेरोज़गारी की समस्या से निपटने के लिए करती हैं।

प्रश्नः 5.
अफ्रीका में बेरोजगार युवाओं के लिए किस तरह के कार्यक्रम तैयार किए गए?
उत्तरः
अफ्रीका में बेरोजगार युवाओं को अश्वेतों के इलाके में कम कीमत के मकान बनाने के कार्यक्रम से जोड़ा गया। इससे इन्होंने भवन निर्माण के गुर सीखे तथा टीम के रूप में काम करना सीखा।

प्रश्नः 6.
युवाओं को उपयोगी परियोजनाओं के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है?
उत्तरः
युवाओं को सेवा संबंधी कार्यक्रमों के माध्यम से उपयोगी परियोजनाओं से जोड़ा जा सकता है तथा इसके एवज में इन्हें कुछ पैसा भी दिया जा सकता है।

प्रश्नः 7.
अमेरिका में युवाओं ने राष्ट्रीय उद्यानों का सृजन कैसे किया?
उत्तरः
अमेरिका में युवाओं ने ज़्यादातर राष्ट्रीय उद्यानों का सृजन लाखों की संख्या में पेड़ लगाकर किया। वहाँ इस तरीके से हर साल 75 हजार युवाओं को रोजगार दिया जाता है। इन युवाओं की आयु बीस से तीस साल तक होती है।

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Chapter 4 डायरी के पन्ने | class 12th | quick revision summary notes hindi Vitan

डायरी के पन्ने Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 4

डायरी के पन्ने पाठ का सारांश

ऐन फ्रैंक की डायरी ‘ऐन फ्रैंक द्वारा रचित ‘डायरी’ विधा को एक सशक्त कृति है। यह डायरी दवितीय विश्व युद्ध के समय यहदियों पर ढाए गए जुल्मों और मानसिक यातनाओं का जीवंत दस्तावेज़ है। यहूदी समुदाय ऐसा समुदाय था जिसे द्वितीय विश्व युद्ध में सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़े। उन्हें गुप्त तहखानों में लंबे-लंबे अरसे तक गुजर-बसर करना पड़ा। वहाँ उन्हें भूख, गरीबी, बीमारी, शारीरिक एवं मानसिक पीड़ाओं को सहते हुए पशुओं जैसा जीवन जीना पड़ा। जर्मनी के नाजियों के शिकंजे में फंसकर उन्हें अनेक अमानवीय यातनाओं से दो-चार होना पड़ा।

ऐन फ्रैंक की डायरी दो यहूदी परिवारों के अज्ञातवास की व्यथा-कथा है। एक था फ्रैंक परिवार, जिसमें माता-पिता और उनकी दो बेटियाँ मार्गोट और ऐन थीं। मार्गोट की उम्र सोलह साल और ऐन की आयु तेरह साल की थी। उनके साथ दूसरा परिवार था वान दान दंपती और उनका सोलह वर्षीय बेट पीटर। उनके साथ आठवाँ व्यक्ति था मिस्टर डसेल। इस आठ सदस्यीय परिवार की फ्रैंक साहब के कार्यालय में काम करने वाले ईसाई कर्मचारियों ने मानवीय स्तर पर मदद की थी।

ऐन ने इसी अज्ञातवास को कलमबद्ध किया। इस डायरी में भय, आतंक, बीमारी, भूख, प्यास, मानवीय संवेदनाएँ, प्रेम, घृणा, हवाई हमले का डर, पकड़े जाने का भय, बढ़ती उम्र की तकलीफें, सपने, कल्पनाएँ, बाहरी दुनिया से डरने की पीड़ा, मानसिक एवं शारीरिक आवश्यकताएं हंसी-मजाक, युद्ध की पीड़ा और अकेलेपन का दर्द सब कुछ लिपिबद्ध है। यह पीडाजन्य स्थितियों को दर्ज करती डायरी 2 जून, 1942 से शुरू होकर 1 अगस्त, 1944 के बीच लिखी गई है।

4 अगस्त, 1944 को किसी व्यक्ति की सूचना पर इन आठ लोगों को पकड़ लिया जाता है। सौभाग्य से यह डायरी पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ी, वरना तो यह डायरी कहीं गुम होकर रह जाती। 1945 में ऐन की असमय मृत्यु के पश्चात उनके पिता ओरो फ्रैंक ने इसे 1947 में प्रकाशित करवाया। ऐन ने यह डायरी चिट्ठियों के माध्यम से लिखी थीं। ये चिटूठियाँ ऐन ने उपहार के रूप में मिली गडिया ‘किकी’ को संबोधित करके लिखी थीं।

8 जुलाई, सन 1942 दिन बुधवार को अपनी प्यारी किकी को संबोधित करके लिखी चिट्ठी में ऐन बताती है कि वह रविवार की दोपहर थी। मैं बाल्कनी में धूप से अलसाई-सी बैठी थी इसलिए मुझे दरवाजे की घंटी की आवाज सुनाई दी। वहाँ मेरी बड़ी बहन मार्गोट भी थी। वह गुस्से में दिख रही थी, क्योंकि युद्ध के दिनों में पापा को ए० एस० एस० से बुलाने का नोटिस मिला था। माँ उस समय पापा के बिजनेस पार्टनर मिस्टर वान दान को देखने गई हुई थी। यह सुनकर मैं हैरान रह गई थी। यह सब कोई जानता है कि ए० एस० एस० के बुलाने का अर्थ है कि यातना और बंद कोठरियों, परंतु हम सभी इस बात के लिए राजी नहीं थे कि पापा बंद कोठरी में यातनाएँ सहें।

इसलिए हम सभी ने यह निर्णय लिया कि सभी पापा के कार्यालय और उससे सटे गोदाम में अज्ञातवासी के रूप में रहेंगे। इसलिए हम सबने अपने दैनिक जीवन की जरूरतों के लिए आवश्यक सामान थैलों में भरा और पापा के कार्यालय के कमरों में रहने लगे। वहाँ चारों ओर अव्यवस्था तथा फाइलें और अलमारियों का साम्राज्य था। थोड़ा बहुत ठीक करके हम सब वहाँ हँसी-मजाक, रूठना-मनाना, जोक सुनना-सुनाना और बहसों आदि में समय व्यतीत करने लगे। दिन का उजाला हमारे लिए दूर की बात थी। रात के अंधेरे में दिन कटते थे। वहाँ एक-एक सप्ताह के लिए बिजली गुल हो जाती थी। चार बजते ही अंधेरा छा जाता था।

यह समय हम ऊल-जलूल की हरकतें करते गुजारते थे। हम पहेलियाँ बुझाते थे, अंधेरे में व्यायाम करते, अंग्रेजी और फ्रैंच में बातचीत करते तथा किताबों की समीक्षा किया करते थे। अब मैने समय गुजारने का नया तरीका ढूंढ़ निकाला था। मैंने दूरबीन लगाकर पड़ोसियों के रोशनी वाले कमरों में झाँकना शुरू किया। दिन में पर्दे नहीं हटा सकते थे परंतु रात के अंधेरे में पर्दे हटा दिए जाते थे। हमारे पड़ोसी बड़े दिलचस्प लोग थे। जब मैंने अपने पड़ोसियों को दूरबीन से देखा तो पाया कि कोई खाना खा रहा था, कोई फ़िल्म बना रहा था, तो सामने वाले घर में एक दंत चिकित्सक एक सहमी हुई बुढ़िया के दाँतों से जूझ रहा था।

मिस्टर डसेल बच्चों के साथ खूब आनंदपूर्ण रहते थे और उन्हें खूब प्यार करते थे। वे एक अनुशासन-प्रिय व्यक्ति थे और अनुशासन । पर लंबे-लंबे भाषण दिया करते थे। ये भाषण उबाऊ और नींद लाने वाले होते थे। मैं उनके भाषणों को केवल सुनने का अभिनय किया करती थी। वे मेरी इन सभी बातों को मम्मी को बताया करते और मम्मी मुझे खूब डाँटा करती थी फिर मुझे मिसेज वान अपने पास बुलाया करती थी। यह बात ऐन ने किकी को शनिवार 26 नवंबर, 1942 की चिट्ठी में लिखी थी।

शुक्रवार 19 मार्च, 1943 की चिट्ठी में ‘किकी’ को ऐन लिखती है कि हमें यह सुनकर निराशा हुई कि टर्की अभी युद्ध में शामिल नहीं हुआ है। यह भी खबर थी कि एक केंद्रीय मंत्री का बयान आया कि जल्द ही टर्की यह तटस्थता खत्म कर देगा और अखबार बेचने वाला चिल्ला रहा था कि ‘टर्की इंग्लैंड के पक्ष में और भी अनेक उत्साहवर्धक अफवाहें सुनने को मिल रही थीं। हजार गिल्डर के नोट अवैध मुद्रा घोषित कर दिए गए थे। काला धंधा करने वालों के लिए यह एक बड़ा झटका था। ये लोग अब भूमिगत हो गए थे। पाँच सौ गिल्डर के नोट भी अब बेकार हो गए थे। मार्गोट मिस्टर डसेल की डच अध्यापिका बन गई थी। वह उनके पत्र ठीक किया करती थी। पापा ।

के मना करने के बाद मार्गोट ने यह कार्य बंद कर दिया था परंतु मुझे फिर लगने लगा कि वह मिस्टर डसेल को चिट्ठियाँ लिखना फिर शुरू कर रही थी। मिस्टर हिटलर की घायल सैनिकों से बातचीत हमने रेडियो के माध्यम से सुनी थी। यह एक करुणाजनक अनुभव था। – ऐन ‘किकी’ को लिखी एक चिट्ठी में जिक्र करती है कि मुझे पिछले सप्ताहों से परिवार के वृक्षों और वंशावली तालिकाओं में खासी रुचि हो गई थी। यह काम करने मैं इस नतीजे पर पहुंची कि एक बार तुम खोजना शुरू कर दो तो तुम्हें अतीत में गहरे और गहरे उतरना पड़ेगा। मेरे पास फ़िल्मी कलाकारों की तस्वीरों का एक अच्छा खासा संग्रह हो गया था।

मिस्टर कुगलर हर सोमवार मेरे लिए एक ‘सिनेमा म एंड थियेटर’ पत्रिका की प्रति अवश्य लाते थे। मैं फ़िल्म के मुख्य नायकों और नायिकाओं के नाम और समीक्षा फरटि से करती थी। जब मैं नई केश-सज्जा बनाकर बाहर निकलती तो मुझे यह अंदेशा पहले ही रहता था कि लोग मुझे टोककर कहेंगे कि मैं फलाँ फ़िल्म की स्टार की नकल कर रही है। जब मैं यह कहती कि यह मेरा अपना आविष्कार है तो लोग मेरा मजाक करते थे। जहाँ तक मेरे हेयर स्टाइल का। सवाल है यह आधे घंटे से अधिक टिक नहीं पाता था। मैं इससे बोर हो जाती और सबकी टिप्पणियाँ सुनते-सुनते मेरे कान पकने लगते।। मैं सीधे गुसलखाने में जाती और मेरे बाल फिर से उलझकर धुंधराले हो जाते थे।

ऐन फ्रैंक बुधवार 28 जनवरी, 1944 को एक चिट्ठी के माध्यम से अपनी प्यारी गुड़िया ‘किकी’ को बताती है कि जान और मिस्टर क्लीमेन भी अज्ञातवास में छुपे अथवा भूमिगत हो गए थे। लोगों के बारे में कहना और सुनना अच्छा लगता था। हम सभी उनकी बातों को। ध्यान से सुना करते थे। वह कहा करते थे कि ‘हमें उन सबकी तकलीफों से हमदर्दी है जो गिरफ्तार हो गए हैं और उन लोगों की खुशी में ! हमारी खुशी है जो कैद से आजाद हो गए हैं।

भूमिगत होना या अज्ञातवास चले जाना अब आम बात हो गई है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो छुपे लोगों को वित्तीय सहायता पहुँचाते हैं। यह बात हैरान कर देने वाली है कि ये लोग अपनी जान जोखिम में डाल करीदूसरों की मदद। करते हैं। इसमें सबसे बढ़िया उन लोगों का है जो आज तक हमारी मदद कर रहे हैं और हमें उम्मीद है कि हमें सुरक्षित किनारे तक ले जाएँगे। वे प्रतिदिन ऊपर हमारे पास आकर कारोबार और राजनीति की बातें करते थे। वे हमारे जन्मदिनों पर फूल और उपहार लेकर आते । थे। वे हमें हमेशा खुश रखने के लिए कोशिश करते रहते थे। वे सदैव अपनी बेहतरीन भावनाओं और प्यार से हमारे दिल को जीत लेते थे।

4. ऐन ‘किकी’ को संबोधन करते हुए कहती है कि कैबिनेट मंत्री बाल्के स्टीन ने लंदन से डच प्रसारण में कहा है कि युद्ध के बाद । युद्ध का वर्णन करने वाली डायरियों और पत्रों का संग्रह किया जाएगा। यह सुनते ही हर कोई मेरी डायरी को पाने के लिए उत्सुक था। ऐन सोचती है कि दस साल बाद जब लोगों को पता चलेगा कि हम किस प्रकार अज्ञातवास में जी रहे थे, शायद लोग चकित रह जाएंगे। हवाई हमले के समय औरतें बुरी तरह से डर जाती थीं। जब ब्रिटिश लड़ाकू जहाज 550 टन गोला बारूद बरसाते थे तो हमारे घर घास की पत्तियों की तरह काँप जाते थे। हमारे घरों में अनेक अजीब तरह की महामारियाँ फैल रही थीं।

चोरी-चकारी की घटनाएं लगातार बढ़ रही थीं। डच लोगों में अंगूठी पहनने का रिवाज खत्म हो गया था। आठ-दस वर्ष के छोटे बच्चे घरों की खिड़कियाँ तोड़कर घरों में घुस जाते । थे। उनको जो चीज़ हाथ लगती थी, उसे चुरा ले जाते थे। अगर आप अपने घर से पाँच मिनट के लिए बाहर चले गए तो आपका घर पूरी तरह से साफ़ हो चुका होता था। गली नुक्कड़ों पर बिजली से चलने वाली घड़ियाँ चोरी हो जाती थीं तथा सार्वजनिक टेलीफोनों और उनके पुर्जे अचानक गायब हो जाते थे। डच लोग भूखे रहते थे। पुरुषों को जर्मनी भेजा जा रहा था। घर में बच्चे बीमार थे और भूख से बेहाल थे। सब लोग फटे-पुराने कपड़े पहनते थे तथा फटे जूतों को पहनकर काम चला रहे थे। बिल्कुल जीवन दूभर हो गया था।

मंगलवार 11 अप्रैल, सन् 1944 के दिन लिखी डायरी में ऐन लिखती है कि शनिवार के कोई दो बजे तेज गोलाबारी शुरू हो गई थी। मशीनगनें आग बरसा रही थीं। रविवार के दिन पीटर और मैं दूसरी मंजिल पर सटे बैठे थे। हम छह बजे ऊपर गए और सवा सात बजे तक एक-दूसरे से सटकर बैठे रहे क्योंकि कुशन बहुत छोटा था। रेडियो पर बहुत ही खूबसूरत भोजाई संगीत बज रहा था। मुझे रात को बजने वाला राग बहुत भाता है। यह संगीत मेरी आत्मा की गहराइयों में उतरता चला जा रहा था।

चूंकि हम मिस्टर डसेल का कुशन ऊपर ले गए थे और इसी बात को लेकर मि० डसेल नाराज हो रहे थे इसलिए हम जल्दी से भागकर नीचे उतर आए थे। हमने मिस्टर डसेल के कुशन में कुछ ब्रुश डाल दिए। हम यह अंदाजा लगा रहे थे कि मिस्टर डसेल इस पर बैठेंगे तो खूब हँसेंगे परंतु मिस्टर डसेल अपने कमरे । में जाकर बैठ गए और फिर हमने कुशन में डाले ब्रुशों को बाहर निकाला। इस छोटे से प्रहसन पर हँसते-हँसते हमारा बुरा हाल हो रहा था।

लेकिन जल्द ही यह हँसी-मज़ाक डर में तबदील हो गई जब यह अंदाजा लगाया गया कि पुलिस के आने की आशंका है। सभी मर्द लोग इस बात को लेकर नीचे चले गए थे और औरतें डर से सहमी हुई थीं। फिर बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। देवी रात जब सभी मर्द एक बार । फिर नीचे गोदाम में गए तो सेंधमार अपने काम में लगे हुए थे। मर्दो को देखकर वे भाग गए थे। उनका यह प्रयास निष्फल कर दिया गया. था। यह घटना अपने आप में एक बड़ी मुसीबत थी।

13 जून, दिन मंगलवार, 1944 की चिट्ठी में ऐन ‘किकी’ को बताती है कि अब वह पंद्रह वर्ष की हो गई है। इस जन्मदिन पर सभी ने मुझे उपहार दिए थे। अब दुश्मन देशों के एक-दूसरे पर हमले तेज़ हो गए थे। बेहद खराब मौसम, लगातार वर्षा, तेज़ हवाएँ और समुद्र अपने पूरे उफान पर था। चर्चिल तथा अन्य अधिकारी उन गाँवों का दौरा कर रहे थे जिन पर ब्रिटिश सैनिकों ने कब्जा कर लिया तथा बाद के में मुक्त कर दिया था। चर्चिल एक जन्मजात बहादुर थे। वे टॉरपीड नाव में थे। इन्हीं टारपीड नावों के माध्यम से तटों पर गोलाबारी की जाती थीं। अगर ब्रिटिश ने जर्मनी के साथ संधि कर ली होती तो हालैंड और उसके पड़ोसी देशों के हालात खराब हो जाते। हालैंड जर्मनी 1 बन चुका होता और इस प्रकार उसका अंत भी हो सकता था।

ऐन अपनी निजी बात को सार्वजनिक करते हुए ‘किकी’ को कहती है कि “यह सच है कि पीटर मुझे प्यार करता है, गर्लफ्रेंड की। तरह नहीं बल्कि एक दोस्त की तरह। उसका स्नेह दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है लेकिन कोई रहस्यमयी ताकत हम दोनों को पीछे की तरफ खींचती है। मैं नहीं जानती कि वो कौन-सी शक्ति है।” ऐन पीटर के प्रेम में दीवानी है। वह स्वयं कहती है ‘अगर मैं उसके कमरे में एक-दो दिन के लिए न जा पाऊँ तो मेरी बुरी हालत हो जाती है, मैं उसके लिए तड़पने लगती हूँ।’

पीटर एक सच्चा, अच्छा और ईमानदार लड़का है लेकिन वह मुझे कई तरह से निराश करता है। वह शांतिप्रिय, सहज, सरल, सहनशील एवं आत्मीय व्यक्ति था। उसका । एक मिशन था कि वह उन सभी इल्जामों को गलत साबित कर सके जो उसके ऊपर लगे हुए थे। उसके मन में मेरे प्रति जो बात थी वह कहना चाहता था परंतु पता नहीं क्यों वह इसे अभिव्यक्त नहीं करना चाहता था। हम दोनों अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की बातें किया करते थे, परंतु वह चीज़ (प्रेम) जो हम दोनों के मन में थी उसकी बात कभी नहीं किया करते थे।

हम अपने प्रकृति प्रेम के बारे में ऐन कहती हैं कि वह प्रकृति को निहारना चाहती है और यही सोचकर उन स्मृतियों में खो जाती है। – जब नीला आकाश, पक्षियों की चहचहाने की आवाजें, चाँदनी रात और खिली कलियाँ उस पर जादू-सा कर देती थीं। अब ये सभी चीजें बीते जमाने की हो गई हैं। वह आगे कहती है-“आसमान, बादलों, चाँद और तारों की तरफ देखना मुझे शांति और आशा की भावना से । सरोबार कर देता है।”

उसके दिमाग में कुछ इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं जो उसे लगातार परेशान करते थे जैसे पुरुषों का औरतों पर शुरू। से शासन करना। सौभाग्य से शिक्षा, काम और प्रगति ने औरतों की आँखें खोल दी हैं। अब कई देशों में उन्हें बराबरी का दर्जा दिया जाता है। आधुनिक महिलाएँ अब स्वतंत्र होना चाहती हैं। वह चाहती है कि महिलाओं का पूरा सम्मान होना चाहिए। वह पुरुष की मानसिकता के बारे में कहती है कि “सैनिकों और युद्धों के वीरों का सम्मान किया जाता है, उन्हें अलंकृत किया जाता है, उन्हें अमर बना डालने । तक का शौर्य प्रदान किया जाता है, शहीदों को पूजा भी जाता है, लेकिन कितने लोग ऐसे हैं जो औरतों को भी सैनिक का दर्जा देते हैं ?”

लेखक श्री पोल दे क्रुइफ की ‘मौत के खिलाफ मनुष्य एक पुस्तक में जिक्र करते हुए वह कहती है कि आमतौर पर युद्ध में लड़ने वाले वीर सैनिक जितनी तकलीफ, पीड़ा, दर्द, बीमारी और यंत्रणा उठाते हैं उससे कहीं अधिक दर्द वे औरतें उठाती हैं जो बच्चे को जन्म देती हैं। जब बच्चा जनने के बाद औरत के शरीर का आकर्षण कम हो जाता है तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। लोग शायद ये। भूल जाते हैं कि औरत ही मानव जाति की निरंतरता बनाए रखती है।

वह लगातार संघर्ष करती है शायद इतना संघर्ष सारे सिपाही मिलकर भी नहीं करते। वह अंत में कहती है कि मैं कदापि यह नहीं चाहती कि औरतें बच्चे जनना बंद कर दें, परंतु मैं उन लोगों के खिलाफ हूँ जो समाज में औरतों के सौंदर्यमयी योगदान को महान नहीं मानते। वह आशा के साथ अपने कथन को समाप्त करती है कि अगली सदी । में औरतें ज्यादा सम्मान और सराहना की हकदार बनेंगी।

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Chapter 3 अतीत में दबे पाँव | class 12th | quick revision summary notes hindi Vitan

अतीत में दबे पाँव Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 3

अतीत में दबे पाँव पाठ का सारांश

“अतीत में दबे पाँव’ साहित्यकार ओम थानवी’ द्वारा विरचित एक यात्रा-वृतांत है। वे पाकिस्तान स्थित सिंधु घाटी सभ्यता के दो महानगरों। मोहनजोदड़ो (मुअनजोदड़ो) और हड़प्पा के अवशेषों को देखकर अतीत के सभ्यता और संस्कृति की कल्पना करते हैं। अभी तक जितने भी पुरातात्विक प्रमाण मिले उनको देखकर साहित्यकार अपनी कल्पना को साकार करने की चेष्टा करते हैं।

लेखक का मानना है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के दो सबसे पुराने और योजनाबद्ध तरीके से बसे शहर माने जाते हैं। वे मोहनजोदड़ो को ताम्रकाल का सबसे बड़ा शहर मानते हैं। लेखक के अनुसार मोहनजोदड़ो सिंधु घाटी सभ्यता का केंद्र है और शायद अपने जमाने की राजधानी जैसा। आज भी इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में सैर की जा सकती है। यह शहर अब भी वहीं है, जहाँ कभी था। आज भी वहाँ के टूटे घरों की रसोइयों में गंध महसूस की जा सकती है।

आज भी शहर के किसी सुनसान रास्ते पर खड़े होकर बैलगाड़ी की रुन-झुन की आवाजें सुनी जा सकती हैं। खंडहर बने घरों की टूटी सीढ़ियाँ अब चाहे कहीं न ले जाती हों, चाहे वे आकाश की ओर अधूरी रह गई हों, लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर यह अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर चढ़ गए हैं। वहाँ चढ़कर आप इतिहास को नहीं बल्कि उससे कहीं आगे देख रहे हैं।

मोहनजोदड़ो में सबसे ऊंचा चबूतरा बौद्ध स्तूप है। अब यह केवल मात्र एक टीला बनकर रह गया है। इस चबूतरे पर बौद्ध भिक्षुओं के कमर भी हैं। लेखक इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप मानते हैं। इसे देखकर रोमांचित होना स्वाभाविक है। यह स्तूपवाला चबूतरा शहर के एक खास हिस्से में स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं। ये ‘गढ़’ कभी-न-कभी राजसत्ता या धर्मसत्ता के केंद्र रहे होंगे ऐसा भी माना जा सकता है। इन शहरों की खुदाई से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाकी बड़ी इमारतें, सभा-भवन, ज्ञानशाला सभी अतीत की चीजें कही जा सकती है परंतु यह ‘गढ़ उस द्वितीय वास्तुकला कौशल के बाकी बचे नमूने हैं।

मोहनजोदड़ो शहर की संरचना नगर नियोजन का अनूठा प्रमाण है, उदाहरण है। यहाँ की सड़कें अधिकतर सीधी हैं या फिर आडी हैं। आज के वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज के नगरों के सेक्टर कुछ इसी नियोजन से मेल खाते हैं। आधुनिक परिवेश के इन सेक्टरवादी नागरिकों में रहन-सहन को लेकर नीरसता आ गई है। प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में खोया हुआ है, दुनियादारी के अपनत्व में उसे विश्वास नहीं रहा है।

मोहनजोदड़ो शहर में जो स्तूप मिला है उसके चबूतरे के गढ़ के पीछे ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। इस बस्ती के पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंध नदी बहती है। अगर इन उच्च वर्गीय बस्ती से दक्षिण की तरफ़ नजर दौड़ाएँ तो दूर तक खंडहर, टूटे-फूटे घर दिखाई पड़ते हैं। ये टूटे-फूटे घर शायद कारीगरों के रहे होंगे। चूकिनिम्न वर्ग के घर इतनी मजबूत सामग्री के नहीं बने होंगे शायद इसीलिए उनके अवशेष भी. उनकी गवाही नहीं देते अर्थात इस पूरे शहर में गरीब बस्ती कहाँ है उसके अवशेष भी नहीं मिलते। टीले की दाई तरफ़ एक लॉबी दिखती है। इसके आगे एक महाकुंड है। इस गली को इस धरोहर के प्रबंधकों ने ‘देव मार्ग’ कहा है।

यह महाकुंड चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। यह उस सभ्यता में सामूहिक स्नान के किसी अनुष्ठान का प्रतीक माना जा सकता है। इसकी गहराई रगत फुट है तथा उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ उतरती हैं। इस महाकुंड के तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं उत्तर में एक पंक्ति में आठ स्नानघर हैं। यह वास्तुकला का एक नमूना ही कहा जाएगा क्योंकि इन सभी स्नानघरों के मुँह एक-दूसरे के सामने नहीं खुलते। कुंड के तल में पक्की ईंटों का जमाव है ताकि कुंड का पानी रिस न सके और अशुद्ध पानी कुंड में न आ सके। कुंड में पानी भरने के लिए पास ही एक कुआँ है। कुंड से पानी बाहर निकालने के लिए नालियाँ बनी हुई हैं। ये नालियाँ पक्की ईंटों से बनी हैं तथा ईंटों से ढकी हुई भी हैं। पुरातात्विक वैज्ञानिकों का मानना है कि पानी निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले इतिहास में दूसरा नहीं है।

महाकुंड के उत्तर-पूर्व में एक बहुत लंबी इमारत के खंडहर बिखरे पड़े हैं। इस इमारत के बीचोंबीच एक खुला आँगन है। इसके तीन तरफ बरामदे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे भी होंगे। ये कमरे और बरामदे धार्मिक अनुष्ठानों में ज्ञानशालाओं का काम देते थे। इस दृष्टि से देखें तो इस इमारत को एक ‘धार्मिक महाविद्यालय’ कहा जा सकता है। गढ़ से थोड़ा आगे । कुछ छोटे टीलों पर बस्तियाँ हैं। इन बस्तियों को ‘नीचा नगर’ कहकर पुकारा जाता है।

– पूर्व में बसी बस्ती ‘अमीरों की बस्ती’ है। आधुनिक युग में अमीरों की बस्ती पश्चिम में मानी जाती है। यानि कि बड़े-बड़े घर, चौड़ी सड़कें, ज्यादा कुएँ। मोहनजोदड़ो में यह उलटा था। शहर के बीचोंबीच एक तैंतीस फुट चौड़ी लंबी सड़क है। मोहनजोदड़ो में बैलगाड़ी होने के प्रमाण मिले हैं शायद इस सड़क पर दो बैलगाड़ियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क बाजार तक जाती है। इस सड़क के दोनों ओर घर बसे हुए हैं। परंतु इन घरों की पीठ सड़कों से सटी हुई हैं। कोई भी घर सड़क पर नहीं खुलता। लेखक के अनुसार,
“दिलचस्प संयोग है कि चंडीगढ़ में ठीक यही शैली पचास साल पहने लू काबूजिए ने इस्तेमाल की।” चंडीगढ़ का कोई घर सड़क की ।

तरफ़ नहीं खुलता। मुख्य सड़क पहले सेक्टर में जाती है फिर आप किसी के घर जा सकते हैं। शायद चंडीगढ़ के वास्तुकार का—जिए ने यह सीख मोहनजोदड़ो से ही ली हों? ऐसा भी अनुमान लगाया जा सकता है। शहर के बीचोंबीच लंबी सड़कें और दोनों तरफ़ समांतर ढकी हुई नालियाँ हैं। बस्ती में ये नालियाँ इसी रूप में हैं। प्रत्येक घर में एक स्नानघर भी है। घर के अंदर से मैले पानी की नालियाँ बाहर हौदी तक आती हैं और फिर बड़ी नालियों में आकर मिल जाती हैं।

कहीं-कहीं वे खुली हो सकती हैं परंतु अधिकतर वे ऊपर से ढकी हुई हैं। इस प्रकार सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मोहनजोदड़ो के नागरिक स्वास्थ्य के प्रति कितने सचेत थे। शहर के कुएँ भी दूर से ही अपनी ओर प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान खींचते हैं। ये कुएँ पक्की-पक्की ईंटों के बने हुए हैं। पुरातत्व विद्वानों के अनुसार केवल मोहनजोदड़ो में ही सात सौ के लगभग कुएँ हैं। इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोदकर भू-जल तक पहुँची। लेखक यह भी प्रश्न उठाते हैं कि नदी, कुएँ, : कुंड स्नानघर और बेजोड़ पानी निकासी को क्या हम सिंधु घाटी की सभ्यता को जल संस्कृति कह सकते हैं।

मोहनजोदड़ो की बड़ी बस्ती में घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार से यह अर्थ लगाया जा सकता है कि यह दो मंजिला घर होगा। इन घरों की एक खास बात यह है कि सामने की दीवार में केवल प्रवेश द्वार है कोई खिड़की नहीं है। ऊपर की मंजिल में खिड़कियाँ हैं। कुछ बहुत बड़े घर भी हैं शायद इनमें कुछ लघु उद्योगों के कारखाने होंगे। ये सभी छोटे-बड़े घर एक लाइन में हैं। अधिकतर घर लगभग तीस गुणा तीस फुट के हैं। सभी घरों की वास्तुकला लगभग एक जैसी है। एक बहुत बड़ा घर है जिसमें दो आँगन और बीस कमरे हैं। इस घर को ‘मुखिया’ का घर कहा जा सकता है। घरों की खुदाई से एक दाढ़ीवाले याजक-नरेश’ और एक प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ की मूर्तियाँ भी मिली हैं।

‘नर्तकी’ की मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है। यहीं पर एक बड़ा घर भी है जिसे ‘उपासना केंद्र’ भी समझा जा सकता है। इसमें आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की मंजिल की ओर जाती हैं। ऊपर की मंजिल अब बिलकुल ध्वस्त हो चुकी है। नगर के पश्चिम में एक ‘रंगरेज का कारखाना’ भी मिला है जिसे अब सैलानी बड़े चाव से देखते हैं। घरों के बाहर कुछ कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। शायद ये कुएँ कर्मचारियों और कारीगरों के लिए घर रहे होंगे।

बड़े घरों में कुछ छोटे कमरे हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शहर की आबादी काफ़ी रही होगी। एक विचार यह भी हो सकता है कि ऊपर की मंजिल में मालिक और नीचे के घरों में नौकर-चाकर रहते होंगे। कुछ घरों में सीढ़ियाँ नहीं हैं शायद इन घरों में लकड़ी की सीढ़ी रही है जो बाद में नष्ट हो गई होगी। छोटे घरों की बस्ती में संकरी सीढ़ियाँ हैं। इन सीढ़ियों के पायदान भी ऊँचे हैं। शायद ऐसा जगह की कमी के कारण होता होगा।

लेखक ने अपनी यात्रा के समय जब यह ध्यान दिया कि खिड़कियों और दरवाजों पर छज्जों के निशान नहीं हैं। गरम इलाकों में ऐसा होना आम बात होती है। शायद उस समय इस इलाके में इतनी कड़ी धूप न पड़ती हो। यह तथ्य भी पूरी तरह से स्थापित हो चुका है कि उस समय अच्छी खेती होती थी। यहाँ लोग खेतों की सिंचाई कुओं से करते थे। नहर के प्रमाण यहाँ नहीं मिलते शायद लोग वर्षा के पानी पर अधिक निर्भर रहते होंगे। बाद में वर्षा कम होने लगी हो और लोगों ने कुओं से अधिक पानी निकाला होगा। इस प्रकार भू-जल का स्तर काफ़ी नीचे चला गया हो। यह भी हो सकता है कि पानी के अभाव में सिंधु घाटी के वासी यहाँ से उजड़कर कहीं चले गए हों और सिंधु घाटी की समृद्ध सभ्यता इस प्रकार नष्ट हो गई हो। लेखक के इस अनुमान से इनकार नहीं किया जा सकता।

मोहनजोदड़ो के घरों और गलियों को देखकर तो अपने राजस्थान का भी खयाल हो आया। राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली । एक-सी है। मोहनजोदड़ो के घरों में टहलते हुए जैसलमेर के मुहाने पर बसे पीले पत्थरों के खूबसूरत गाँव की याद लेखक के जहन में ताजा हो आई। इस खूबसूरत गाँव में हरदम गरमी का माहौल व्याप्त है। गाँव में घर तो है परंतु घरों में लोग नहीं हैं। कहा जाता है कि कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा के साथ तकरार को लेकर इस गाँव के स्वाभिमानी नागरिक रातोंरात अपना घर-बार छोड़कर चले गए थे। बाद में इन घरों के दरवाजे, खिड़कियाँ लोग उठाकर ले गए थे। अब ये घर खंडहर में परिवर्तित हो गए हैं।

परंतु ये घर ढहे नहीं। इन घरों की खिड़कियों, दरवाजों और दीवारों को देखकर ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो। लोग चले गए लेकिन वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे वहाँ रोक लिया हो। जैसे सुबह गए लोग शाम को शायद वापस लौट आएँ।। मोहनजोदड़ो में मिली ठोस पहियोंवाली बैलगाड़ी को देखकर लेखक को अपने गाँव की बैलगाड़ी की याद आ गई जिसमें पहले दुल्हन । बैठकर ससुराल आया करती थी। बाद में इन गाड़ियों में आरेवाले पहिए और अब हवाई जहाज से उतरे हुए पहियों का प्रयोग होने लगा।

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Chapter 2 जूझ | class 12th | quick revision summary notes hindi Vitan

जूझ Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 2

जूझ पाठ का सारांश

‘जूझ’ मराठी के सुविख्यात कथाकार डॉ. आनंद यादव का बहुचर्चित एवं उल्लेखनीय आत्मकथात्मक उपन्यास है। इस पाठ में उपन्यास के कुछ अंश मात्र ही उद्धृत किए गए हैं। यह उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार (1990) से सम्मानित किया जा चुका है। ‘जूझ’ एक किशोर द्वारा भोगे हुए गवई (ग्रामीण) जीवन के खुरदरे यथार्थ और आंचलिक परिवेश की जीवंत गाथा है। अपने बचपन को याद करते हुए लेखक कहता है कि मेरा मन पाठशाला जाने के लिए बेचैन रहता था। परंतु मेरे पिता मुझे पाठशाला नहीं भेजना चाहते थे। वे स्वयं कोई काम न करके खेत का सारा काम मुझसे करवाते थे। इसलिए उन्हें मेरा पाठशाला जाना बिलकुल भी पसंद नहीं था।

एक दिन जब लेखक साथ कंडे थापने में अपनी माँ की सहायता कर रहा था तो वह अपनी माँ से पाठशाला जाने की इच्छा व्यक्त करता है। परंतु माँ भी आनंदा (लेखक) के पिता से बहुत डरती थी इसलिए वह अपने बेटे का खुला समर्थन नहीं कर सकी। लेखक स्वयं अपनी माँ से कहता है कि खेत के लगभग वे सभी काम खत्म हो गए जो मैं कर सकता था इसलिए तू मेरे पढ़ने की बात दत्ता जी राव सरकार से क्यों नहीं करती। चूंकि लेखक के पिता दत्ता जी राव के सामने नतमस्तक हो जाते थे और उनकी कोई भी बात मानने के लिए। बाध्य थे इसलिए लेखक को लगता है कि दत्ता जी राव ही मेरे पाठशाला का रास्ता खोल सकते हैं।

रात के समय माँ-बेटा दोनों दत्ता जी राव के घर अपनी फ़रियाद लेकर जाते हैं। माँ दत्ता जी राव को सब कुछ बता देती है कि वह (पिता) सारा दिन बाजार में रखमाबाई के पास गुजार देता है, और खेतों में काम आनंदा को करना पड़ता है। यह बात सुनकर दत्ता जी राव चिढ़ गए और उन्होंने लेखक के पिता को समझाने का आश्वासन देकर दोनों को घर भेज दिया।

दत्ता जी राव के बाड़े का बुलावा दादा (पिता जी) के लिए सम्मान की बात थी इसलिए बड़ी खुशी से दादा दत्ता जी राव के बाड़े में जाते हैं। आधे घंटे बाद बुलाने के बहाने लेखक भी वहीं चला जाता है। दत्ता जी राव लेखक को भी वहीं बैठा लेते हैं। बातचीत में दत्ता -जी राव लेखक से पूछते हैं, “कौन सी कक्षा में पढ़ता है रे तू?” लेखक कहता है, “जी पाँचवीं में पढ़ता था किंतु अब नहीं जाता हूँ। वार्तालाप में लेखक दत्ता जी राव को यह बता देता है कि मुझे पाठशाला दादा नहीं जाने देते। दत्ता जी ने दादा पर खूब गुस्सा किया। “तू लुगाई (पत्नी) और बच्चों को काम में जोत कर किस तरह खुद गाँवभर में खुले साँड की तरह घूमता है।”

अंत में दत्ता जी आनंदा (लेखक) को सुबह पाठशाला.जाने को कहते हैं। दादा मेरे (आनंद) के पाठशाला जाने पर मान तो गए परंतु पाठशाला ग्यारह बजे होती। है इसलिए दिन निकलते ही खेत पर हाजिर होने के बाद खेत से सीधे पाठशाला जाना, सवेरे पाठशाला जाने के लिए बस्ता खेत में ही ले आना, छुट्टी होते ही सीधा खेत में आना और जब खेत में काम अधिक हो तो पाठशाला से गैर-हाजिर भी हो जाना आदि आदेश भी देते. हैं। आनंदा दादा की सारी बातें मंजूर कर लेता है। उसका मन आनंद से उमड़ रहा था। परंतु दादा का मन आनंदा को पाठशाला भेजने के लिए अभी भी तैयार नहीं था। वे फिर कहते हैं, “हाँ। अगर किसी दिन खेत में नहीं आया तो गाँव में जहाँ मिलेगा। वहीं कुचलता हूँ कि नहीं-तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बलिस्टर नहीं होनेवाला है तू? आनंदा गरदन नीची करके खाना खाने ।

लगा था। अगले दिन आनंदा का पाठशाला में जाना फिर शुरू हो गया। वह गरमी-सरदी, हवा-पानी, भूख-प्यास आदि की बिलकुल भी परवाह नहीं करता था। खेतों के काम की चक्की में पिसते रहने से अब उसे छुटकारा मिल गया था। खेतों के काम की चक्की की अपेक्षा पाठशाला में मास्टर की छड़ी की मार आनंदा को अधिक अच्छी लगती थी। वह इस मार को भी मजे में सहन कर रहा था। गरमी की कड़क दोपहरी का समय पाठशाला की छाया में व्यतीत हो गया। आनंदा (लेखक) की पांचवीं कक्षा में उसके पहचान के दो ही लड़के थे। उसकी पहचान के सभी लड़के अगली कक्षा में चले गए थे। अपनी उम्र से कम उम्र के बच्चों के साथ कक्षा में बैठना आनंदा को बुरा लग रहा था। पुरानी पुस्तकों को वह लट्ठे के बने बस्ते में ले गया था। लेकिन वे अब पुरानी हो चुकी थीं।

आनंदा (लेखक) की कक्षा में एक शरारती लडका ‘चहवाण’ भी था। वह सदा आनंदा की खिल्ली उडाया करता था। वह उसके मैले गमछे को कक्षा में इधर-उधर फेंकने लगता है इतने में मास्टर जी आ गए और गमछा टेबल पर ही रह गया। आनंदा की धड़कन बढ़ गई और उसका दिल धक-धक करने लगा। पूछता से मास्टर को जब यह पता चला कि यह शरारत चहवाण ने की है तो वे उसे खूब लताड़ते हैं। लेखक के बारे में पूछने के बाद उन्होंने वामन पंडित की एक कविता पढ़ाई छुट्टी के बाद भी कई शरारती लड़कों ने उसकी धोती कई बार खींची थी। आनंदा का मन उदास हो गया क्योंकि कक्षा में कोई भी अपना नहीं था परंतु आनंदा ने पाठशाला जाना बंद नहीं किया।

पाठशाला में मंत्री नामक मास्टर जी गणित पढ़ाया करते थे। वे प्रायः छड़ी का प्रयोग नहीं करते थे बल्कि कमर में घुसा लगाते थे। शरारती बच्चे उनके सामने उधम नहीं मचा सकते थे। वसंत पाटिल नाम का एक लड़का शरीर से दुबला-पतला, किंतु बहुत होशियार था। उसके सवाल अकसर ठीक हुआ करते थे। कक्षा में उसका खूब सम्मान था। यह वसंत पाटिल आनंदा से उम्र में छोटा था। क्योंकि आनंदा ने पाठशाला छोड़कर ग़लती की थी परंतु फिर भी मास्टर जी को कक्षा की मॉनीटरी आनंदा को ही सौंपनी पड़ी। आनंदा अब पहले से ज्यादा पढ़ाई करने लगा था। हमेशा कुछ न कुछ पढ़ता रहता था।

अब गणित के सवाल उसकी समझ में आने लगे थे। वह वसंत पाटिल के साथ दूसरी तरफ़ से बच्चों के सवाल जाँचने लगा। फलस्वरूप आनंदा और वसंत पाटिल की दोस्ती जमने लगी थी। मास्टर जी अब लेखक को ‘आनंदा’ कहकर पुकारने लगे थे। आनंदा की मास्टरों के साथ आत्मीयता बढ़ गई और पाठशाला में उसका विश्वास भी बढ़ गया। पी पाठशाला में न० वा० सौंदलगेकर मराठी के मास्टर थे। जब वे मराठी में कोई कविता पढ़ाते तो स्वयं भी उसमें खूब रम जाते थे।

उनके पास सुरीला गला, छंद की बढ़िया चाल और रसिकता सब कुछ था। उन्हें मराठी की कविताओं के साथ अंग्रेजी की कविताएँ भी कंठस्थ थीं। वे कविता को सुनाते-सुनाते अभिनय भी किया करते थे। वे स्वयं भी कविता लिखा करते थे। जब मास्टर जी अपनी लिखी कोई कविता सुनाते थे तो आनंदा उन्हें तल्लीनता के साथ सुना करता था। वह अपनी आँखों और प्राणों की सारी शक्ति लगाकर दम रोककर मास्टर जी के हाव-भाव, चाल, गति और रस का आनंद लेता था।

जब आनंदा खेत में काम करता था तो भी मास्टर जी के हाव-भाव, यति-गति और आरोह-अवरोह के अनुसार ही गाया करता था। वह कविता गाने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगा था। पानी से क्यारियाँ कब भर जाती थीं उसे पता ही नहीं चलता था। पहले आनंदा को अकेलापन कचोटता था परंतु अब वह कविता गाकर अपने अकेलेपन को खत्म कर सकता था। अब वह अपने आप से ही खेलने लगा था बल्कि अब उसे अकेलापन अच्छा लगने लगा था क्योंकि अकेलेपन में वह कविताएँ गाकर नाचता भी था और अभिनय भी करता था।

अब वह कुछ अपनी भी कविताएँ बनाने लगा। एक बार तो मास्टर जी के कहने पर उसने बड़ी कक्षा के बच्चों के सामने कविता सुनाई थी। इस तरह आनंदा के अब कुछ नए पंख निकल आए थे। वह अपने मराठी-मास्टर के घर से काव्य-संग्रह लाकर पढ़ता था। अब आनंदा को भी लगने लगा था कि वह खेतों और गाँव के दृश्यों को देखकर कविता लिख सकता है। वह भैंस चराते धराते फ़सलों और जंगली फूलों पर तुकबंदी कर कविता लिखने लगा था। जब किसी रविवार को कोई कविता बन जाती तो सोमवार को मास्टर जी को दिखाता था। मास्टर जी आनंदा को शाबाशी दिया करते थे। मास्टर जी यह भी बताते थे कि भाषा, छंद, लय, अलंकार और शुद्ध लेखन कविता को सुंदर बना देते हैं। मास्टर जी की ये सभी बातें उसे मास्टर जी के और नजदीक ले आई। । अब वह शब्दों के नशे में डूबने लगा था।

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Chapter 1 सिल्वर वैडिंग | class 12th | quick revision summary notes hindi Vitan

सिल्वर वैडिंग Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 1

सिल्वर वैडिंग पाठ का सारांश

‘सिल्वर वैडिंग’ मनोहर श्याम जोशी की एक प्रमुख कहानी है। लेखक ने इस कहानी में सेक्शन ऑफिसर वी० डी० (यशोधर) पंत के चरित्र-चित्रण के माध्यम से आधुनिक पारिवारिक परिस्थितियों को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। यशोधर पंत अपने ऑफिस में आखिरी फाइल को लाल फीता बाँधकर अपनी घड़ी के अनुसार जिसमें पाँच बजकर तीस मिनट हो रहे हैं, आज की छुट्टी करते हैं। उनके नीचे काम करने वाले कर्मचारी उनकी वजह से पाँच बजने के बाद भी दफ्तर में बैठने के लिए मजबूर हैं। उनकी यह आदत है कि वे अपने कर्मचारियों की थकान दूर करने के लिए कोई मनोरंजक बात जरूरी करते हैं। यह आदत उन्हें अपने आदर्श कृष्णानंद (किशनदा) पांडे से परंपरा में मिली है।।

यशोधर पंत बहुत ही गंभौर, काम के प्रति ईमानदार और मिलनसार व्यक्ति हैं। कई बार छोटे कर्मचारियों द्वारा की गई ग़लत बात को भी वे हँसी में उड़ा देते हैं। दफ्तर की घड़ी में पाँच बजकर पच्चीस मिनट होते हैं तो वे दफ्तर के अन्य कर्मचारियों की सुस्ती पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि ‘आप लोगों को देखादेखी सेक्शन की घडी भी सुस्त हो गई है। इसी बात को लेकर वे बहस भी करते हैं और हँसते भी हैं। यह उनको ससुराल से शादी में मिली थी। बातों-बातों में यह पता चलता है कि यशोधर पंत की शादी 6 फरवरी, 1947 को हुई थी। सभी कर्मचारी यशोधर को शादी की बधाई देते हैं। एक कर्मचारी चहककर कहता है “मैनी हैप्पी रिटर्नज़ ऑफ़ द डे सर! आज तो आपका ‘सिल्वर वैडिंग’ है। शादी। के पच्चीस साल पूरे हो गए हैं।” सेक्शन के सभी कर्मचारियों की जिद्द पर यशोधर बाबू उन्हें दस-दस के तीन नोट निकालकर देते हैं परंतु इस चाय-पार्टी में स्वयं शामिल नहीं होते। उनका मानना है कि उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प करने में वक्त बर्बाद करना किशनदा की परंपरा के विरुद्ध है।

यशोधर पंत मूलतः अल्मोड़ा के रहने वाले हैं। उन्होंने वहीं के रेम्जे स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। मैट्रिक के पश्चात वे पहाड़ से उतरकर दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में उन्होंने किशनदा के घर पर शरण ली थी। किशनदा कुँवारे थे और पहाड़ से आए हुए कितने ही लड़के ठीक ठिकाना होने से पहले उनके यहाँ रह जाते थे। वहाँ वे सभी मिलकर पकाते और खाते थे। जिस समय यशोधर दिल्ली आये थे उस समय उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। जब तक नौकरी के लिए सही उम्र हो यशोधर किशनदा के यहाँ रसोइया बनकर रहे। बाद में किशनदा ने अपने ही नीचे यशोधर को नौकरी दिलवाई और दफ्तरी कार्य में उनका मार्गदर्शन किया।

आजकल यशोधर दफ्तर पैदल आने-जाने लगे हैं। उनके बच्चे नहीं चाहते थे कि उनके पिता साइकिल पर दफ्तर जाएँ क्योंकि उनके बच्चे अब आधुनिक युवा हो गए हैं। बच्चे चाहते हैं कि पिता जी स्कूटर ले लें। लेकिन पिता जी को स्कूटर निहायत बेहुदा सवारी मालूम होती है और कार वे अभी लेने की स्थिति में नहीं थे। दफ्तर से आते समय यशोधर बाबू प्रतिदिन बिरला मंदिर जाने लगे। वहीं उद्यान में बैठकर कोई प्रवचन सुनते तथा स्वयं भी प्रभु का ध्यान लगाने लगे। बच्चों और पत्नी को यह बात बहुत अखरती थी। सिद्धांत के धनी किशनदा की भाँति यशोधर बाबू भी इस आलोचना को अनसुना कर देते हैं। बिरला मंदिर से पहाड़गंज आते समय वे घर के लिए साग-सब्जी खरीद लाते हैं। किसी से अगर मिलना भी है तो वे इस समय मिलते हैं। घर वे आठ बजे से पहले नहीं पहुँचते। घर लौटते ।

समय उनकी निगाह उस स्थान पर पड़ती है जहाँ कभी किशनदा का तीन बेडरूम वाला क्वार्टर हुआ करता था और जिस पर इन दिनों एक छह मंजिला इमारत बनाई जा रही है। यशोधर बाबू को बहुत बुरा लगता है। यशोधर बाबू के घर देर से लौटने का बड़ा कारण यह है कि पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी और बच्चों से छोटी-छोटी बातों को लेकर अक्सर मतभेद होने लगा है और इसी वजह से वे अब घर जल्दी लौटना पसंद नहीं करते। जब बच्चे छोटे थे, तब वे उनकी पढ़ाई-लिखाई में मदद किया करते थे।

अब बड़ा लड़का भूषण एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी करने लगा है। उसे वहाँ डेढ़ हजार प्रति मासिक वेतन मिलता है जबकि यशोधर बाबू रिटायरमेंट पर पहुँचकर ही इतना वेतन पा सके हैं। दूसरा बेटा दूसरी बार आई०ए०एस० की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। यशोधर बाबू के लिए यह समझ सकना मुश्किल हो रहा है कि जब पिछले वर्ष उसका नाम ‘एलाइड

सर्विसिज’ की सूची में आया था, तब उसने ‘ज्वाइन’ करने से क्यों इंकार कर दिया था ? उनका तीसरा बेटा स्कालरशिप लेकर अमेरिका स चला गया है। उनकी एकमात्र बेटी को कोई भी वर पसंद नहीं आ रहा है तथा वह सभी प्रस्तावित वर अस्वीकार कर चुकी है। यशोधर बाबू अपने बच्चों की तरक्की से खुश तो हैं परंतु कभी-कभी उन्हें ऐसा भी अनुभव होता है कि यह खुशहाली भी किस काम की जो अपनों में भी परायापन पैदा कर देती है।

जब उनके बच्चे गरीब रिश्तेदारों की उपेक्षा करते हैं तो उन्हें बहुत बुरा लगता है। उनकी पत्नी अपने मूल संस्कारों से किसी तरह भी आधुनिक नहीं है फिर भी मातृसुलभ मजबूरी में उन्हें अपने बच्चों की नज़र में आधुनिक बनना पड़ा। पत्नी को यह मलाल है कि संस्कारों को निबाहने के कारण उन्हें परिवार के कार्यों के बोझ तले दबना पड़ा है। उसकी दृष्टि में ये सब पारिवारिक संस्कार अब ढोंग और ढकोसले हो गए हैं। यशोधर बाबू पत्नी की इसी आधुनिकता का कई बार मज़ाक भी उड़ा देते हैं, परंतु असल बात तो यह है कि तमाशा तो स्वयं उनका ही बन रहा है। कई बार यशोधर बाबू को लगता है कि वे भी किशनदा की तरह घर-गृहस्थी का यह सब बवाल छोड़कर जीवन को समाज के लिए समर्पित कर देते तो ज़्यादा अच्छा रहता।

उनको यह भी ध्यान है कि किशनदा का बुढ़ापा ज्यादा सुखी नहीं रहा। कुछ साल वे राजेंद्र नगर में किराए पर रहे और फिर अपने गाँव लौट गए जहाँ साल भर बाद उनकी मौत हो गई। जब यशोधर बाबू ने उनकी मृत्यु का कारण पूछा तो किसी ने यही जवाब दिया, “जो हुआ होगा।” यान पता नहीं क्या हुआ? यशोधर बाबू यह भी स्वीकार करते हैं कि उनके बीवी-बच्चे उनसे अधिक समझदार और सुलझे हुए हैं।

बच्चों को पिता जी की इस गलती का अफसोस है कि अब्बा ने डी० डी० ए० फ्लैट के लिए पैसा न भर कर बहुत बड़ी भूल की है परंतु यशोधर बाबू को किशनदा की यह उक्ति अधिक ठीक लगती है कि ‘मूर्ख लोग घर बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं।’ जब तक सरकारी नौकरी तब तक सरकारी क्वार्टर। रिटायर होने पर गाँव का पुश्तैनी घर। परंतु यशोधर बाबू का पुश्तैनी घर टूट-फूट कर खंडहर बन चुका होगा, यह भी वे खूब जानते हैं।

बिरला मंदिर में प्रवचन सुनते समय जब जनार्दन शब्द उनके कानों में पड़ा तो उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद आ गई। आजकल उनकी तबीयत ठीक नहीं है और वे उन्हें मिलने के लिए अहमदाबाद जाना चाहते हैं। जीजा जी का हाल-चाल जानना वे अपना कर्तव्य समझते हैं। बच्चों से भी वे ऐसी अपेक्षा रखते हैं कि वे भी पारिवारिकता के प्रति रुचि लें, परंतु पत्नी और बच्चों को यह बात मूर्खतापूर्ण लगती है। हद तो तब हो गई जब कमाऊ बेटे ने यहाँ कहा कि ‘आपको बुआ के यहाँ भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूंगा।’ जब भी यशोधर बाबू कोई काम करते थे तो किशनदा से सलाह ज़रूर लिया करते थे और वे अपेक्षा अपने बच्चों से भी रखते हैं, परंतु बच्चे कहते हैं “अब्बा, आप तो हद करते हैं, जो बात आप जानते ही नहीं आपसे क्यों पूछे?”

यशोधर बाबू को यह अनुभव होने लगा था कि बच्चे अब उनके अनुकूल नहीं सोचते। इसलिए बच्चों का यह प्रवचन सुनकर के सब्जी मंडी चले जाते हैं। वे सोचते जा रहे थे कि उन्हें भी अच्छा लगता अगर उनके बेटे बड़े होने पर अपनी ओर से यह प्रस्ताव रखते कि दूध लाना, राशन लाना, सी० जी० एच० एस० डिस्पेंसरी से दवा लाना, सदर बाजार जाकर दालें लाना, डिपो से कोयला लाना आदि ये सब काम आप छोड़ दें, अब हम कर दिया करेंगे। एक-दो बार उन्होंने बच्चों से कहा भी तो घर में कुहराम मच गया। बस तब से यशोधर बाबू ने यह सब कहना ही बंद कर दिया। जब से बेटा विज्ञापन कंपनी में लगा है, तब से बच्चे कहने लगे हैं, “बब्बा, हमारी समझ में यह नहीं आता कि इन सब कामों के लिए आप एक नौकर क्यों नहीं रख लेते।” कमाऊ बेटा तो नमक छिड़कते यह भी कहता है, “नौकर की तनख्वाह मैं दे दूंगा।”

यशोधर बाबू को अपने बेटे की यह बात चुभती है कि उसने अपनी नौकरी के रुपये कभी अपने पिता के हाथ पर नहीं रखे बल्कि एकाउंट ट्रांसफर द्वारा सीधा बैंक में चले जाते हैं। वे सोचते हैं कि अगर उसे ऐसा ही करना था तो क्या वह अपने पिता के साथ ज्वाइंट एकाउंट नहीं खोल सकता था। हद तो तब हो गई जब बेटे ने पिता के क्वार्टर को अपना बना लिया है।

वह अपना वेतन अपने ढंग से अपने घर पर खर्च करता है। कभी कारपेट, कभी पर्दे, कभी सोफासेट, कभी डनलप वाला डबल बेड और कभी सिंगार मेज़ घर में लाए जा रहे हैं। यह भी बेटे ने कभी नहीं कहा, “लीजिए पिता जी यह टी० वी० आपके लिए।” बल्कि यह कहता है कि ‘मेरा टी० वी० है समझे, इसे कोई छुआ न करे। घर में एक नौकर रखने की बात भी चल रही है। नौकर होगा तो इनका ही होगा और पत्नी सुनती है मगर नहीं सुनती। यही सब सोचते हुए वे खुदी हुई सड़कों और टूटे हुए क्वार्टरों के मलबे से पटे हुए रास्तों को पार करके उस क्वार्टर में पहुंचते हैं। बाहर बदरंग तख्ती में उसका नाम लिखा है-वाई० डी० पंत।

घर पहुँचते ही यशोधर बाबू को एक बार तो लगा कि वह किसी ग़लत जगह पर पहुंच गए हैं। घर के बाहर एक कार और कुछ स्कूटर, मोटर-साइकिलें खड़ी हैं। कुछ लोग विदा ले रहे हैं। बाहर बरामदे में काग़ज़ की झालरें और गुब्बारे लटक रहे थे। रंग-बिरंगी रोशनियाँ जल रही थी। फिर उन्हें अपना बेटा भूषण पहचान में आया जो अपने बॉस को विदा कर रहा था। उसकी पत्नी और बेटी भी कुछ मेमसाबों को विदा कर रही है। बेटी ने जीन और बिना बाजू का टॉप पहन रखा है। यशोधर बाबू ने उसे ऐसे कपड़ों से कई बार मना किया है, लेकिन वह इतनी जिद्दी है कि ऐसी ही वेश-भूषा को पहनती है और माँ भी उसी का ही साथ देती है।

जब कार वाले विदा हो गए तो यशोधर बाबू घर पहुंचे तो बड़े बेटे ने झिड़की-सी सुनाई-“बब्बा आप भी हद करते हैं, सिल्वर वैडिंग के दिन साढ़े आठ बजे घर पहुँचे। अभी तक मेरे बॉस आपकी राह देख रहे थे।” शर्मिली हँसी के साथ यशोधर बाबू बोले, “हम लोगों के यहाँ सिल्वर वैडिंग कब से होने लगी है।” “जब से तुम्हारा बेटा कमाने लगा है।” किसी रिश्तेदार ने कहा। यशोधर बाबू इस बात से भी खफा हैं कि घर में भूषण रिश्तेदारों के लिए व्हिस्की लाया है। जब भूषण अपने मित्रों को यशोधर बाबू का परिचय करवाता है है तो वे सभी उसे ‘मैनी हैप्पी रिटर्नज ऑफ द डे’ कहते हैं तो जवाब में यशोधर बाबू ‘बैंक्यू’ बोलते हैं। अब बच्चों ने विलायती परंपरा “केक काटने के लिए कहा। यशोधर बाबू को केक काटना बचकानी बात मालूम हुई। उन्होंने संध्या से पहले केक काटने से मना कर दिया।

और अपने कमरे में चले गए। शाम को पंद्रह मिनट वे संध्या करने में लगाते थे, परंतु आज पच्चीस मिनट लगा दिए। संध्या में बैठे-बैठे वे किशनदा के संस्कारों के बारे में सोचने लगा। पीछे आकर पत्नी झिड़कते हुए बोली, “क्या आज पूजा में ही बैठे रहोगे ?” यशोधर बाबू लाल गमछे में ही बैठक में चले गए। यह लाल गमछा पहनकर बैठक में आना बच्चों को असहज लग रहा था। खैर, बात उपहारों के पैकिट खोलने की चली तो भूषण सबसे बड़ा पैकिट खोलते हुए बोला, “इसे ले लीजिए। यह मैं आपके लिए लाया हूँ। ऊनी ड्रैसिंग गाउन है। आप सवेरे जब दूध लेने जाते हैं अब्बा, फटा फुलोवर पहन कर जाते हैं, जो बहुत बुरा लगता है।

आप इसे पहनकर ही जाया कीजिए।” थोड़ा न-नुकर करने के बाद यशोधर बाबू ने पहनते हुए कहा, “अच्छा तो यह ठहरा ड्रैसिंग गाउन।” उनकी आँखों में चमक सी आ गई। परंतु उन्हें यह बात चुभ गई कि उनका यह बेटा जो यह कह रहा है कि आप सवेरे दूध लाते समय इसे पहन लिया करें, वह यह नहीं कहता कि दूध मैं ला दिया करूँगा। इस ड्रेसिंग गाउन में यशोधर बाबू के अंगों में किशनदा उतर आए थे जिनकी मौत ‘जो हुआ होगा’ से हो गई थी।

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Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 18

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ बाबा भीमराव आंबेडकर के सुप्रसिद्घ भाषण एनीहिलेशन ऑफ कास्ट का हिंदी रूपांतर है जो लेखक ने जाति-पाति तोड़क मंडल (लाहौर) के सन 1936 ई० के वार्षिक सम्मेलन अध्यक्षीय भाषण के रूप में लिखा था, लेकिन इसकी क्रांतिकारी दृष्टि के कारण उस सम्मेलन को ही स्थगित कर दिया गया था। इस पाठ में लेखक ने जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का एक तरीका मानने की अवधारणा को निरस्त करते हुए केवल भावात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक उत्थान, सामाजिक व राजनैतिक संघटन और जीवनयापन के समस्त भौतिक पहलओं के ठोस परिप्रेक्ष्य में जातिवाद के समूल उच्छेदन की अनिवार्यता ठहराई है।

साथ ही लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना भी की है। यह विडंबना है कि हमारे समाज में आज भी जातिवाद के पोषकों की कोई कमी नहीं है। आधुनिक सभ्य समाज कार्यकशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दुसरा रूप है। लेखक ने श्रम-विभाजन को सभ्य समाज – के लिए आवश्यक माना है, लेकिन यह भी बताया है कि किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता। उन्होंने भारत की जाति-प्रथा के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि यहाँ जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि उन्हें एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच में भी बाँट देती है।

जाति-प्रथा पेशे का पूर्व निर्धारण कर देती है। इसके साथ मनुष्य को उसमें आजीवन बाँधे रखती है। आधुनिक युग में विकास के कारण भी व्यक्ति अपना पेशा नहीं बदल सकता। हिंदू धर्म में तो जाति-प्रथा किसी को भी उसके पैतृक पेशे के अलावा अन्य पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती, चाहे मनुष्य किसी कार्य में कितना ही दक्ष क्यों न हो। इसका सबसे बड़ा परिणाम यह है कि भारत में निरंतर बेरोजगारी बढ रही है। गरीबी और शोषण के साथ अरुचिपूर्ण कार्य करने की विवशता निरंतर गंभीर समस्या है।

समाज में जाति-प्रथा आर्थिक असहायता को भी पैदा करती है। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्मशक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ लेती है तथा मनुष्य को निष्क्रिय बना डालती है। लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना की है, जहाँ की व्यवस्था स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित होगी। उस समाज में इतनी गतिशीलता होगी, जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित होगा। समाज के सभी हितों में

सब का हिस्सा होगा। साथ ही लोगों को अपने हितों के प्रति सजग रहना पड़ेगा। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क बना रहेगा। लेखक ने । इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र बताया है। लेखक ने समाज में समता पर बल दिया है। हालाँकि राजनेता का समाज के प्रत्येक व्यक्ति की। आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर वांछित अलग-अलग व्यवहार संभव नहीं हो सकता, लेकिन मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता। समता काल्पनिक जगत की वस्तु के साथ व्यावहारिक और आवश्यक भी है। समता ही किसी राजनेता के व्यवहार की एकमात्र कसौटी है।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज लेखक परिचय

जीवन-परिचय-बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जी आधुनिक भारत के जननायक, विधिवेत्ता, धार्मिक चिंतक और महान साहित्यकार थे। वे भारतीय संविधान में निर्माता के रूप में विख्यात हैं। उनका जन्म 14 अप्रैल, सन् 1891 को मध्य प्रदेश के महु नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम श्री राम जी तथा माता का नाम भीमा बाई था। बचपन में उन्हें प्यार से भीम कहते थे। दो वर्ष की अल्पायु में ही आंबेडकर जी की माता का निधन हो गया।
Class 12 Hindi Aroh Chapter 18 Summary श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज
उनका लालन-पालन अपंग बुआ ने किया। इनके पिता जी फ़ौज में नौकरी करते थे। बाद में उनका तबादला सतारा में हो गया। यहीं आंबेडकर जी का बचपन व्यतीत हुआ। आंबेडकर जी ने प्रारंभिक शिक्षा सतारा में पूरी की। यहीं इन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। सन् 1907 में दसवीं परीक्षा पास करने के बाद इनका विवाह नौ वर्षीय रमा बाई के साथ हुआ।

1908 ई० में मुंबई के सुप्रसिद्ध कॉलेज एलिफिंस्टन में दाखिला लिया। 1912 ई० में बी०ए० की परीक्षा पास की। 1913 ई० में पिता जी की इच्छा से बड़ौदा में सेकेंड लेफ्टिनेंट की नौकरी ग्रहण की। लेकिन 15 दिन बाद ही इनके पिता जी की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात इन्होंने आगे पढ़ाई करने के विचार से यह नौकरी छोड़ दी। बड़ौदा नरेश ने कुछ विद्यार्थियों को उच्चशिक्षा हेतु अमेरिका भेजने का निश्चय किया और आंबेडकर का चुनाव तीन विद्यार्थियों में हो गया। इन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। 1916 ई० में ये वकालत करने के लिए लंदन चले गए। 21 अगस्त, 1917 ई० को ये छात्रवृत्ति अवधि समाप्त होने के कारण भारत वापस आ गए।

बड़ौदा नरेश ने इनको मिलिट्री सचिव पद । प्रदान किया। बाद में ये जातिगत भेद के कारण मुंबई चले गए। 1923 ई० में बंबई के उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। 1924 ई० तक वे विशेष वर्ग के प्रमुख नेता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। 1924 ई० में इन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। 1935 ई० में आंबडेकर जी की पत्नी का निधन हो गया। 1955 ई० में गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। अंततः ये दिसंबर 1956 में दिल्ली में अपनी महान चेतना और साहित्य छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। रचनाएँ-डॉ० बी० आर० आंबेडकर जी बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न व्यक्ति थे।

हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहेब आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंद कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट, द अनटचेबल्स, हू आर दें?, हू आर दें शूद्राज, बुद्धा एंड हिज धम्मा, थॉट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स, द प्रोब्लम ऑफ द रूपी, द एवोलुशन ऑफ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया, द राइज एंड फॉल ऑफ द हिंदू वीमैन, एनीहिलेशन ऑफ कास्ट, लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी, बुद्धिज्म एंड कम्यूनिज्म, मूक नायक बहिष्कृत भारत, जनता (पत्रिका संपादन)। साहित्यिक विशेषताएँ-डॉ० आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) शोषण का विरोध-बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को बचपन से ही शोषण का शिकार होना पड़ा, इसलिए बचपन से ही उन्होंने शोषण का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था। वे आजीवन भारतीय समाज से शोषण को दूर करने का प्रयास करते रहे।

(ii) जाति-पाँति तथा छुआछूत का विरोध-जाति भारतीय समाज की प्रमुख सामाजिक समस्या रही है। आंबेडकर जी स्वयं दलित संप्रदाय से संबंध रखते थे। स्कूल में पढ़ते हुए वे इस के निरंतर शिकार हुए। अतः उन्होंने स्कूली जीवन में निश्चय कर लिया था कि वे आजीवन इस भयंकर समस्या का विरोध करेंगे। उन्होंने भारतीय समाज में फैली जाति-पाति तथा भेद-भाव का निरंतर विरोध किया। वकालत के बाद वे आजीवन ऐसी समस्याओं को उखाड़ने हेतु लड़ते रहे। उन्होंने जाति-विभक्त समाज की तुलना उस बहुमंजिली ऊँची इमारत से की है, जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है, न दरवाजा। जो जिस मंज़िल में पैदा होता । है, उसे वहीं मरना पड़ता है।

(iii) उद्धार की भावना-आंबेडकर जी के मन में समाज के उद्धार की विराट भावना थी। उन्होंने समाज में विशेष वर्ग के प्रति होने वाले अत्याचारों को बहुत नज़दीक से देखा। उनके मन में उनके प्रति गहन सहानुभूति व संवेदना थी। मुंबई में वकालत करने के बाद लगातार वे समाज के वर्ग विशेष के प्रति लड़ते रहे इसीलिए वे इनके वकील कहलाए। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में उनके प्रति गहन संवेदनाएँ व्यक्त की हैं। स्कूल में पढ़ते हुए एक बार अध्यापक ने पूछा था कि “तुम पढ़-लिखकर क्या बनोगे?” तो बालक भीमराव ने जवाब दिया था, “मैं पढ़-लिखकर वकील बनूंगा। मैं नया कानून बनाऊँगा और भेद-भाव को खत्म करूंगा।” इस प्रकार डॉ. आंबेडकर ने संपूर्ण जीवन इसी संकल्प को पूर्ण करने में लगा दिया।

(iv) समतावादी भावना-डॉ० आंबेडकर एक महान चिंतक थे। उनके जीवन में महात्मा बुद्ध, संत कबीरदास और ज्योतिबा फूले विशेषतः प्रेरणास्रोत रहे हैं। बुद्ध से प्रेरणा ग्रहण कर ही उन्होंने उनके समतावादी दर्शन से आश्वस्त होकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इन्हीं महान चिंतकों के विचारों का प्रतिफल उनके साहित्य में भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने समतावादी समाज की कल्पना की है, जहाँ छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, जाति-पाति आदि कोई संकीर्णताएँ न हों।

(v) जनकल्याण की भावना-डॉ० आंबेडकर एक महान चिंतक होने के साथ-साथ एक जननायक भी थे। वे आजीवन जनसामान्य के कल्याण हेतु संघर्ष करते रहे। यह विराट चेतना उनके साहित्य में भी प्रकट हुई है।

(vi) समाज का यथार्थ चित्रण-डॉ. आंबेडकर ने समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने समाज में फैली विसंगतियों, विडंबनाओं, जाति-पाँति, छुआ-छूत, धर्म-संप्रदायवाद आदि का यथार्थ वर्णन किया है। उन्होंने अपने साहित्य में वर्ग-विशेष की दीन-हीन अवस्था का भी अंकन किया है। समाज में फैली ग़रीबी, शोषण के प्रति उन्होंने गहन संवेदना व्यक्त की है। भाषा-शैली-डॉ. आंबेडकर एक विशिष्ट साहित्यकार थे। उन्होंने अपने साहित्य लेखन हेतु हिंदी और अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू, फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग मिलता है। इनकी भाषा अत्यंत सरल, सरस एवं भावानुकूल है।

जहाँ-जहाँ इन्होंने गहन संवेदनाओं का चित्रण किया है, वहाँ-वहाँ इनकी भाषा में गंभीरता उत्पन्न हो गई है। इन्होंने विचारात्मक, वर्णनात्मक और चित्रात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। सामाजिक विसंगतियों का विरोध करने हेतु इन्होंने व्यंग्यात्मक शैली को भी अपनाया है। वस्तुतः बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का भारतीय साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान है। वे हिंदी साहित्य के महान चिंतक थे।

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Chapter 17 शिरीष के फूल | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

शिरीष के फूल Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 17

शिरीष के फूल पाठ का सारांश

‘शिरीष के फूल’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित प्रकृति प्रेम से परिपूर्ण निबंध है। इसमें लेखक ने आँधी, लू और गर्मी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल फूलों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की जीने की अजेय इच्छा। और कलह-वंद्व के बीच धैर्यपूर्वक लोक-चिंता में लीन कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित किया है।

लेखक जहाँ बैठकर लेख लिख रहा था उसके आगे-पीछे, दाएं-बाएँ शिरीष के फूल थे। अनेक पेड़ जेठ की जलती दोपहर में भी झूम। रहे थे। वे नीचे से ऊपर तक फूलों से लदे हुए थे। बहुत कम ऐसे पेड़ होते हैं जो प्रचंड गर्मी में भी महीनों तक फूलों से लदे रहते हैं। कनेर और अमलतास भी गर्मी में फूलते हैं लेकिन केवल पंद्रह-बीस दिन के लिए। वसंत ऋतु में पलाश का पेड़ भी केवल कुछ दिनों के लिए फूलता है पर फिर से तूंठ हो जाता है। लेखक का मानना है कि ऐसे कुछ देर फूलने वालों से तो न फूलने वाले अच्छे हैं। शिरीष का

पेड़ वसंत के आते ही फूलों से लद जाता है और आषाढ़ तक निश्चित रूप से फूलों से यूँ ही भरा रहता है। कभी-कभी तो भादों मास तक भी फूलता रहता है। भीषण गर्मी में भी शिरीष का पेड़ कालजयी अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र पढ़ता रहता है। शिरीष के फूल लेखक के हृदय को आनंद प्रदान करते हैं। पुराने समय में कल्याणकारी और शुभ समझे जाने वाले शिरीष के छायादार पेड़ों को लोग अपनी चारदीवारी के पास लगाना पसंद करते थे। अशोक, अरिष्ट, पुन्नाम और शिरीष के छायादार हरे-भरे पेड़ निश्चित रूप से बहुत सुंदर लगते हैं। शिरीष की डालियाँ अवश्य कुछ कमजोर होती हैं पर इतनी कमजोर नहीं होती कि उन पर झूले ही न डाले जा सकें। शिरीष के : फूल बहुत कोमल होते हैं। कालिदास का मानना है कि इसके फूल केवल भौंरों के कोमल पैरों का ही दबाव सहन कर सकते हैं। पक्षियों के भार को तो वे बिल्कुल सहन नहीं कर पाते।

इसके फूल चाहे बहुत नर्म होते हैं लेकिन इसके फल बहुत सख्त होते हैं। वे तो साल भर बीत जाने पर भी कभी-कभी पेड़ों पर लटक कर खड़खड़ाते रहते हैं। लेखक का मानना है कि वे उन नेताओं की तरह हैं जो जमाने का दुःख नहीं देखते और जब तक नये लोग उन्हें धक्का मार कर निकाल नहीं देते। लेखक को आश्चर्य होता है कि पुराने की यह अधिकारइच्छा समाप्त क्यों नहीं होती। बुढ़ापा और मृत्यु तो सभी को आना है। शिरीष के फूलों को झड़ना ही होता है पर पता नहीं वे अड़े क्यों रहते हैं ?

वे मूर्ख हैं जो सोचते हैं कि उन्हें मरना नहीं है। इस संसार में अमर होकर तो कोई नहीं आया। काल देवता की नजर से तो : कोई भी नहीं बच पाता। शिरीष का पेड़ ऐसा है जो सुख-दुःख में सरलता से हार नहीं मानता। जब धरती सूर्य की तेज गर्मी से दहक रही। होती है तब भी वह पता नहीं उससे रस प्राप्त करके किस प्रकार जीवित रहता है। किसी वनस्पति शास्त्री ने लेखक को बताया है कि वह वायुमंडल से अपना रस प्राप्त कर लेता है।

लेखक की मान्यता है कि कबीर और कालिदास भी शिरीष की तरह बेपरवाह रहे होंगे क्योंकि जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता वह फक्कड़ नहीं बन सकता। शिरीष के फूल भी फक्कड़पन की मस्ती लेकर झूमते हैं। कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम् में महाराज दुष्यंत : ने शकुंतला का एक चित्र बनाया पर उन्हें बार-बार यही लगता था कि इसमें कुछ रह गया है। कोई अधूरापन है। काफ़ी देर के बाद उन्हें समझ आया कि शकुंतला के कानों में वे शिरीष के फूल बनाना तो भूल ही गए थे।

कालिदास की तरह हिंदी के कवि सुमित्रानंदन पंत और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भी कुछ-कुछ अनासक्त थे। शिरीष का पेड़ किसी अवधूत की तरह लेखक के हृदय में तरंगें जगाता है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर रह सकता है। ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं होता। हमारे देश में महात्मा गांधी भी ऐसे ही थे। वह । भी शिरीष की तरह वायुमंडल से रस खींचकर अत्यंत कोमल और अत्यंत कठोर हो गए थे। लेखक जब कभी शिरीष को देखता है उसे ।हृदय से निकलती आवाज सुनाई देती है कि अब वह अवधूत यहाँ नहीं है।

शिरीष के फूल लेखक परिचय

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं। उनका जन्म सन् 1907 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी था, जो संत स्वभाव के व्यक्ति थे। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूलों में हुई। उन्होंने काशी महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात 1930 ई० में ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की। इसी वर्ष ये शांतिनिकेतन में हिंदी अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। इसी पद पर रहते हुए इनका रवींद्रनाथ ठाकुर, क्षितिमोहन सेन, आचार्य नंदलाल बसु आदि महानुभावों से संपर्क हुआ।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 17 Summary शिरीष के फूल

सन् 1950 में ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। सन् 1960 में उनको पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ के हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। तत्पश्चात यहाँ से अवकाश लेकर ये भारत सरकार की हिंदी विषयक समितियों एवं योजनाओं से जुड़े रहे। लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। ‘आलोक पर्व’ पर इनको साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने इनकी साहित्य साधना को परखते हए इनको पद्मभूषण की उपाधि से सुशोभित किया। सन् 1979 में दिल्ली में ये अपना उत्कृष्ट साहित्य सौंपकर चिर निद्रा में लीन हो गए।

नार …आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि अनेक विधाओं पर लेखनी चलाकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
निबंध-संग्रह-अशोक के फूल, कल्पलता, विचार और वितर्क, कुटज,
विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद।
उपन्यास-बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा।
आलोचना साहित्येतिहास-हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्य का आदिकाल, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, सूर साहित्य,कबीर, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, नाथ संप्रदाय, कालिदास की लालित्य योजना।
ग्रंथ संपादन-संदेश-रासक, पृथ्वीराज रासो, नाथ-सिदधों की बानियाँ।
पत्रिका-संपादन-विश्वभारती, शांतिनिकेतन। आता माविका पता

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक श्रेष्ठ आलोचक होने के साथ-साथ प्रसिद्ध निबंधकार भी थे। उनका साहित्य कर्म भारत के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है। वे एक श्रेष्ठ ललित निबंधकार थे। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ। निम्नलिखित हैं-

(i) देश-प्रेम की भावना-द्विवेदी जी का साहित्य देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत है। उनकी मान्यता है कि जिस देश में हम पैदा होते हैं उसके प्रति प्रेम करना हमारा परम धर्म है। उस देश का कण-कण हमारा आत्मीय है। उस मिट्टी के प्रति हमारा अटूट संबंध है। इसलिए इनके साहित्य में अपने देश के प्रति मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जब तक हम अपनी आँखों से अपने देश को देख लेना नहीं सीख लेते तब तक इसके प्रति हमारे मन में सच्चा और स्थायी प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। ‘मेरी जन्मभूमि’ निबंध में उन्होंने लिखा है कि “यह बात अगर छिपाई भी तो कैसे छिप सकेगी कि मैं अपनी जन्मभूमि को प्यार करता हूँ।”

(ii) प्रकृति-प्रेम का चित्रण-द्विवेदी जी के हृदय में प्रकृति के प्रति अपार प्रेम था। उनके निबंध साहित्य में उनका प्रकृति से अनन्य्रेम प्रकट होता है। उन्होंने अपने अनेक निबंधों में प्रकृति के मनोरम और भावपूर्ण चित्र अंकित किए हैं। अशोक के फूल, वसंत आ गया है, नया वर्ष आ गया, शिरीष के फूल आदि में प्रकृति के अनूठे रूप का चित्रण हुआ है। कहीं-कहीं इन्होंने प्रकृति के चेतन रूप का भी अंकन किया है। इनके अनुसार प्रकृति चेतन और भावों से भरी हुई है। इन्होंने प्रकृति के माध्यम से भारतीय
संस्कृति के भी दर्शन किए हैं।

(iii) मानवतावादी दृष्टिकोण-मानवतावादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। अनादिकाल से ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भारतीय संस्कृति का आदर्श रहा है। द्विवेदी जी के निबंधों में मानवतावादी विचारधारा का अनूठा चित्रण मिलता है। इन्होंने अपने निबंधों में मानव कल्याण को प्रमुख स्थान दिया है। इन्होंने मानव-मात्र के कल्याण की कामना की है। इन्होंने मानव को परमात्मा की सर्वोत्तम कृति माना है। उनके अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु का प्रयोजन मानव कल्याण है। वह मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य मानते हैं।

(iv) समाज का यथार्थ चित्रण-द्विवेदी जी ने समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने अपने कथा-साहित्य में जाति-पाँति, मजहब के नाम पर बँटे समाज की समस्याओं का वर्णन किया है। वर्षों से पीड़ित नारी संकट को पहचानकर इन्होंने उसका समाधान खोजने का उपाय किया है। इन्होंने स्त्री को सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा शिकार माना है तथा उसकी पीड़ा का गहन विश्लेषण करके उसके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त की है।

(v) भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था-द्विवेदी जी की भारतीय संस्कृति के प्रति गहन आस्था थी। उन्होंने भारत देश को महामानव समुद्र की संज्ञा दी है। अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की सनातन परंपरा है। इसे द्विवेदी जी ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। इनके निबंधों में भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण तथा भारतीय संस्कृति की महानता इनके निबंध साहित्य का आधार है। इन्हें संसार के सभी लोगों में मानव संस्कृति के दर्शन होते हैं।

(vi) प्राचीन और नवीन का अद्भुत समन्वय-द्विवेदी जी के निबंध-साहित्य में प्राचीनता और नवीनता का अद्भुत समन्वय है। . उन्होंने प्राचीन ज्ञान, जीवन दर्शन और साहित्य सिद्धांत को नवीन अनुभवों से मिलाकर प्रस्तुत किया है।

(vi) विषय की विविधता-दविवेदी जी ने अनेक विषयों को लेकर अपने निबंधों की रचना की है। उन्होंने ज्योतिष, संस्कृति, प्रकृति, नैतिक, समीक्षात्मक आदि अनेक विषयों को अपनाकर निबंधों की रचना की है।

(viii) ईश्वर में विश्वास-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखते थे। वे एक आस्तिक पुरुष थे। यही भाव उनके निबंधों में भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने स्वीकार किया है कि ऐसी कोई परम शक्ति अवश्य है जो इसके पीछे कर्म करती है। उन्होंने माना है कि ईश्वर अनादि, अनंत, अजन्मा, निर्गुण होकर भी अपने प्रभाव को प्रकट करता है। वह इस संसार का जन्मदाता है। लेखक के शब्दों में “इस दृश्यमान सौंदर्य के उस पार इस असमान जगत के अंतराल में कोई एक शाश्वत सत्ता है जो इसे मंगल की ओर ले जाने के लिए कृत निश्चय है।

(ix) भाषा-शैली-द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ निबंधकार थे। उनकी भाषा तत्सम-प्रधान साहित्यिक है। इन्होंने पांडित्य प्रदर्शन को कहीं भी अपने साहित्य में स्थान नहीं दिया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में सरल, साधारण, सुबोध और सार्थक शब्दावली का प्रयोग किया है। वे कठिन को भी सरल बनाने में सिद्धहस्त थे। तत्सम शब्दावली के साथ-साथ उन्होंने तद्भव देशज, उर्दू-फ़ारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। हिंदी की गद्य शैली को जो रूप उन्होंने दिया वह हिंदी के लिए वह वरदान है। उन्होंने अपने निबंधों में विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक आदि शैलियों को अपनाया है। वस्तुतः आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी-साहित्य के श्रेष्ठ निबंधकार थे। उनका निबंध हिंदी साहित्य में ही नहीं बल्कि समस्त साहित्य में अपूर्व स्थान है।

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Chapter 16 नमक | class 12th | quick revision summary notes hindi Aroh

नमक Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 16

नमक पाठ का सारांश

नमक’ कहानी रजिया सज्जाद जहीर द्वारा रचित एक उत्कृष्ट कहानी है। यह भारत-पाक विभाजन के बाद सरहद के दोनों तरफ के विस्थापित लोगों के दिलों को टटोलती एक मार्मिक कहानी है। दिलों को टटोलने की इस कोशिश में उन्होंने अपने-पराए देश-परदेश की।

कई प्रचलित धारणाओं पर सवाल खड़े किए हैं। विस्थापित होकर आई सिख बीबी आज भी लाहौर को ही अपना वतन मानती हैं और ॥ सौगात के तौर पर वहाँ का लाहौरी नमक ले आने की फरमाइश करती हैं। सफ़िया का बड़ा भाई पाकिस्तान में एक बहुत बड़ा पुलिस अफसर है। सफ़िया के नमक को ले जाने पर वह उसे गैर-कानूनी बताता है। लेकिन सफ़िया वहाँ से नमक ले जाने की जिद्द करती है। वह नमक को एक फलों की टोकरी में डालकर कस्टम अधिकारियों से। बचना चाहती है।

सफ़िया को विस्थापित सिख बीबी याद आती हैं, जो अभी भी लाहौर को ही अपना वतन मानती है। अब भी उनके हृदय में अपने लाहौर का सौंदर्य समाया हुआ है। सफ़िया भारत आने के लिए फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में बैठी थी। वह मन-ही-मन में सोच रही थी कि उसके किन्नुओं की टोकरी में नमक है, यह बात केवल वही जानती है, लेकिन वह मन-ही-मन कस्टम वालों से डरी। हुई थी। कस्टम अधिकारी सफ़िया को नमक ले जाने की इजाजत देता है तथा देहली को अपना वतन बताता है, तथा सफ़िया को कहता।

है कि “जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहिएगा और उन खातून को यह नमक देते वक्त मेरी तरफ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा।” रेल में सवार होकर सफ़िया पाकिस्तान से अमृतसर पहुँची। वहाँ भी उसका सामान कस्टम वालों ने चेक किया। भारतीय कस्टम अधिकारी सुनील दासगुप्त ने सफ़िया को कहा कि “मेरा वतन ढाका है।” और उसने यह भी बताया कि जब भारत-पाक विभाजन हुआ था, तभी वे भारत में आए थे।

इन्होंने भी सफ़िया को नमक अपने हाथ से सौंपा। इसे देखकर सफ़िया सोचती रही कि किसका वतन कहाँ है? इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि राष्ट्र-राज्यों की नई सीमा रेखाएँ खींची जा चुकी हैं और मजहबी आधार पर लोग : । इन रेखाओं के इधर-उधर अपनी जगहें मुकर्रर कर चुके हैं, इसके बावजूद ज़मीन पर खींची गई रेखाएँ उनके अंतर्मन तक नहीं पहुंच पाई हैं।

नमक लेखक परिचय

लेखिका परिचय जीवन-परिचय-रज़िया सज्जाद जहीर आधुनिक उर्दू कथा-साहित्य की प्रमुख लेखिका मानी जाती हैं। उनका जन्म 15 फरवरी, सन् 1917 ई० में राजस्थान के अजमेर में हुआ था। उन्होंने बी०ए० तक की शिक्षा घर पर रहकर ही प्राप्त की। विवाह के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए० उर्दू की परीक्षा पास की। सन् 1947 ई० में वे अजमेर से लखनऊ आकर करामत हुसैन गर्ल्स कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगीं।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 16 Summary नमक

सन् 1965 ई० में उनकी नियुक्ति सोवियत सूचना विभाग में हुई। उन्हें सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ। उत्तर प्रदेश से उन्हें उर्दू अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें अखिल भारतीय लेखिका संघ अवार्ड से अलंकृत किया गया। अंततः 18 दिसंबर, सन् 1979 ई० को उनकी मृत्यु हो गई। प्रमुख रचनाएँ-रजिया सज्जाद जहीर मूलत: उर्दू की कहानी लेखिका हैं। उनका उर्दू कहानियों का संग्रह ‘जर्द गुलाब’ प्रमुख है। साहित्यिक विशेषताएँ-श्रीमती रजिया सज्जाद जहीर जी का आधुनिक उर्दू कथा-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने कहानी और उपन्यास दोनों लिखे हैं। उन्होंने उर्दू में बाल-साहित्य की रचना भी की है।

अपनी रचनाओं में लेखिका ने बालमनोविज्ञान के अनेक सुंदर चित्र अंकित किए हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक सद्भाव, धार्मिक सहिष्णुता और आधुनिक संदर्भो में बदलते हुए पारिवारिक मूल्यों को उभारने का सफल प्रयास मिलता है। उन्होंने अपनी अनेक कहानियों में समकालीन, सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक आदि विसंगतियों और विडंबनाओं का अनूठा चित्रण किया है।

सामाजिक यथार्थ और मानवीय गुणों का सहज सामंजस्य उनकी कहानियों की महत्वपूर्ण विशेषता है। उनकी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत हैं। प्रस्तुत कहानी ‘नमक’ में लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के पश्चात सरहद के दोनों ओर विस्थापित पुनर्वासित लोगों के दिलों को टटोलते हुए उनका मार्मिक वर्णन किया है। इसी प्रकार उनकी अनेक कहानियाँ मानवीय पीड़ाओं का सजीव और मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती हैं। भाषा-शैली-रज़िया जी की भाषा सहज, सरल और मुहावरेदार है।

वे उर्दू भाषा की श्रेष्ठ लेखिका हैं। उनका साहित्य उर्दू भाषा में रचित है। उनकी कुछ कहानियाँ देवनागरी लिपि में भी लिखी जा चुकी हैं। उनकी कहानियों में उर्दू के साथ-साथ अरबी-फारसी आदि अनेक भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। मुहावरों के प्रयोग से उनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हुई है। वस्तुतः श्रीमती रज़िया सज्जाद जहीर उर्दू कथा-साहित्य की एक महान लेखिका हैं। उनका उर्दू कथा-साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

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