एक फूल की चाह का सारांश | Ek Phool ki Chah Summary class 9 Chapter-12 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

एक फूल की चाह का सारांश |  Ek Phool ki Chah Summary class 9 Chapter-12 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

सियारामशरण गुप्त
इनका जन्म झांसी के निकट चिरगांव में सन 1895 में हुआ था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इनके बड़े भाई थे तथा पिता भी कविताएं लिखते थे।  ये महत्मा गांधी और विनोबा भावे के अनुयायी थे जिसका संकेत इनकी रचनाओं में मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं का प्रमुख गुण है कथात्मकता। इन्होंने सामाजिक कुरुतियों पर करारी चोट की है। इनके काव्य की पृष्ठभूमि अतीत हो या वर्तमान , उनमें आधुनिक मानवता की करुणा , यातना और द्‍वंद्‍व समन्वित रूप में उभरा है।

एक फूल की चाह पाठ का सार: Short Summary

प्रस्तुत पाठ ‘एक फूल की चाह’ छुआछूत की समस्या से संबंधित कविता है। महामारी के दौरान एक अछूत बालिका उसकी चपेट में आ जाती है। वह अपने जीवन की अंतिम साँसे ले रही है। वह अपने माता- पिता से कहती है कि वे उसे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दें । पिता असमंजस में है कि वह मंदिर में कैसे जाए। मंदिर के पुजारी उसे अछूत समझते हैं और मंदिर में प्रवेश के योग्य नहीं समझते। फिर भी बच्ची का पिता अपनी बच्ची की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर में जाता है। वह दीप और पुष्प अर्पित करता है और फूल लेकर लौटने लगता है। बच्ची के पास जाने की जल्दी में वह पुजारी से प्रसाद लेना भूल जाता है। इससे लोग उसे पहचान जाते हैं। वे उस पर आरोप लगाते हैं कि उसने वर्षों से बनाई हुई मंदिर की पवित्रता नष्ट कर दी। वह कहता है कि उनकी देवी की महिमा के सामने उनका कलुष कुछ भी नहीं है। परंतु मंदिर के पुजारी तथा अन्य लोग उसे थप्पड़-मुक्कों से पीट-पीटकर बाहर कर देते हैं। इसी मार-पीट में देवी का फूल भी उसके हाथों से छूट जाता है। भक्तजन उसे न्यायालय ले जाते हैं। न्यायालय उसे सात दिन की सज़ा सुनाता है। सात दिन के बाद वह बाहर आता है , तब उसे अपनी बेटी की ज़गह उसकी राख मिलती है।

इस प्रकार वह बेचारा अछूत होने के कारण अपनी मरणासन्न बेटी की अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाता। इस मार्मिक प्रसंग को उठाकर कवि पाठकों को यह कहना चाहता है कि छुआछूत की कुप्रथा मानव-जाति पर कलंक है। यह मानवता के प्रति अपराध है।

एक फूल की चाह पाठ का सार: Detailed  Explanation

एक फूल की चाह पाठ का सार: Detailed Explanation

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर-उधर।
क्षीण-कंठ मृतवत्साओं का
करुण रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।


एक फूल की चाह भावार्थ : कवि ने एक फूल की चाह कविता में उस वक्त फैली हुई महामारी के बारे में बताया है। इस महामारी की चपेट में ना जाने कितने मासूम बच्चे आ चुके थे। जिन माताओं ने अपने बच्चों को इस महामारी के कारण खोया था, उनके आँसू रुक ही नहीं रहे थे। रोते-रोते उनकी आवाज़ कमजोर पड़ चुकी थी, पर उस कमजोर पड़ चुके करुणा से भरे स्वर में भी अपार अशांति सुनाई दे रही थी।

बहुत रोकता था सुखिया को,
‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल-भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।


एक फूल की चाह भावार्थ : प्रस्तुत पंक्ति में एक पिता द्वारा अपने पुत्री को इस महामारी से बचाने के लिए किये जा रहे प्रयासों का वर्णन है। पिता अपनी पुत्री को महामारी से बचाने के लिए, हर बार बाहर खेलने जाने से रोकता था। पर पिता के हर बार मना करने पर भी, पुत्री सुखिया बाहर खेलने चली जाती थी। जब भी पिता सुखिया को बाहर खेलते हुए देखता था, तो डर से उसका हृदय कांप उठता था। वह सोचता था कि किसी भी तरह वह इस बार अपनी पुत्री को इस महामारी से बचा ले।

भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।


एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों मर कवि बता रहे हैं कि आखिरकार पिता को जिस बात का डर था वही हुआ। सुखिया एक दिन बुखार से बुरी तरह तड़प रही थी। उसका शरीर आग की तरह जल रहा था। इस बुखार से विचलित होकर सुखिया बोल रही है कि वह किस बात से डरे और किस बात से नहीं, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा। बुखार से तड़पते हुए स्वर में वह अपने पिता से देवी माँ के प्रसाद का एक फूल उसे लाकर देने के लिए बोलती है।

क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
चिंता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,
कब आई संध्या गहरी।


एक फूल की चाह भावार्थ : तेज बुखार के कारण सुखिया का गला सूख गया था। उसमें कुछ बोलने की शक्ति नहीं बची थी। उसके सारे अंग ढीले पड़ चुके थे। वहीँ दूसरी ओर सुखिया के पिता ने तरह-तरह के उपाय करके देख लिए थे, लेकिन कोई भी काम नहीं आया था। इसी वजह से वह गहरी चिंता में मन मार के बैठा था। वह बेचैनी में हर पल यही सोच रहा था कि कहीं से भी ढूंढ के अपनी बेटी का इलाज ले आए। इसी चिंता में कब सुबह से दोपहर हुई, कब दोपहर ख़त्म हुई और निराशाजनक शाम आयी उसे पता ही नहीं चला। 

सभी ओर दिखलाई दी बस,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।


एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि बता रहे हैं कि ऐसे निराशाजनक माहौल में अंधकार भी मानो डसने चला आ रहा है। पिता को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इतनी छोटी-सी बच्ची के लिए पूरा अंधकार ही दैत्य बनकर चला आया है। पिता इस बात से हताश हो चुका है कि वह अपनी बेटी को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर पाया। इसी निराशा में संध्या के समय आकाश में जगमगाते तारे भी पिता को अंगारों की तरह लग रहे हैं। जिससे उनकी आंखे झुलस-सी गई हैं।

देख रहा था-जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण-भर,
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर-
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!


एक फूल की चाह भावार्थ : पिता को यह देखकर बहुत कष्ट हो रहा है कि उसकी बेटी जो एक पल के लिए भी कभी शांति से नहीं बैठती थी और हमेशा उछलकूद मचाती रहती थी, आज चुपचाप बिना किसी हरकत के लेटी हुई है। वो यहाँ से वहां शोर मचाकार मानो पूरे घर में जान फूंक देती थी, लेकिन अब उसके चुपचाप हो जाने से पूरे घर की ऊर्जा समाप्त हो गई है। पिता उसे बार-बार उकसा कर यही सुनना चाह रहा है कि उसे देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहिए।

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
दीप-धूप से आमोदित था
मंदिर का आँगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।


एक फूल की चाह भावार्थ : दूर किसी पहाड़ी की चोटी पर एक भव्य मंदिर था। जिसके आँगन में खिले कमल के फूल सूर्य की किरणों में ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो सोने के कलश हों। मंदिर पूरी तरह से दीपकों से सजा हुआ था और धूप से महक रहा था। मंदिर में चारों ओर मंत्रो एवं घंटियो की आवाज़ गूँज रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो मंदिर में कोई उत्सव चल रहा हो।

भक्त-वृंद मृदु-मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद -मय,-
‘पतित-तारिणी पाप-हारिणी,
माता, तेरी जय-जय-जय!‘
‘पतित-तारिणी, तेरी जय जय’-
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढिकला!


एक फूल की चाह भावार्थ : भक्तों का एक बड़ा समूह पूरी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ देवी माँ का जाप कर रहा था। सभी एक साथ एक स्वर में बोल रहे थे ‘पतित तारिणी पाप हारिणी, माता तेरी जय जय जय।’ यह सुनकर ना जाने उस अभागे पिता के अंदर भी कहाँ से ऊर्जा आ गई और उसके मुख से भी निकल पड़ा ‘पतित तारिणी, तेरी जय जय’। वह बिना किसी प्रयास के, अपने-आप ही मंदिर के अंदर चला गया, मानो उसे किसी शक्ति ने मंदिर के अंदर धकेल दिया हो।

मेरे दीप-फूल लेकर वे
अंबा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा, -बेटी को माँ के ये
पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।


एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि बताते हैं कि मंदिर में प्रवेश करने पर पिता पुजारी के पास जाकर अपने हाथों से पुष्प और दीप पुजारी को देता है। पुजारी उसे लेकर देवी माँ के चरणों में अर्पित करता है। पुजारी अपने हाथों में देवी माँ के प्रसाद को लेकर उसे देने के लिए हाथ आगे करता है । पिता इस आनंद में प्रसाद लेना भूल ही जाता है कि अब वह अपनी पुत्री को देवी माँ के प्रसाद का फूल दे पायेगा।

सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों के जैसा!


एक फूल की चाह भावार्थ : सुखिया का पिता अभी आँगन तक भी नहीं पहुँच पाया था कि अचानक पीछे से आवाज़ आयी – ‘अरे यह अछूत मंदिर में कैसे घुस गया। पकड़ो इसे कहीं भाग ना जाए। किस तरह इसने मंदिर में घुसकर चालाकी की है। देखो कैसे साफ़ सुथरे कपड़े पहनकर हमारी नक़ल कर रहा है। पकड़ो इस धूर्त को। कहीं भाग ना जाए।’

पापी ने मंदिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कलुषित कर दी है मंदिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।“
ऐं, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा के भी?


एक फूल की चाह भावार्थ : फिर भीड़ से आवाज़ आयी कि इस पापी ने मंदिर में घुस कर बड़ा अनर्थ किया है। मंदिर की सालों-साल की गरिमा, पवित्रता को इसने नष्ट कर दिया। सब मिलकर चिल्लाने लग जाते हैं कि इस पापी ने मंदिर में घुस कर मंदिर को दूषित कर दिया। तब सुखिया का पिता यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या मेरा अछूतपन देवी माँ की महिमा से भी बड़ा है? क्या मेरे इस अछूतपन में देवी माँ से भी ज्यादा शक्ति है, जिसने देवी माँ के रहते हुए भी इस पूरे मंदिर को अशुद्ध कर दिया?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया;
मार मारकर मुक्के घूँसे
धम्म से नीचे गिरा दिया!


एक फूल की चाह भावार्थ :  सुखिया के पिता ने भीड़ से कहा कि तुम माँ के कैसे भक्त हो, जो खुद माँ के गौरव को मेरी तुलना में छोटा कर दे रहे हो। अरे माँ के सामने तो छूत-अछूत सभी एक-समान हैं। परन्तु, सुखिया के पिता की इन बातों को किसी ने नहीं सुना और भीड़ ने उसे पकड़ कर खूब मारा, फिर मारते हुए उसे जमीन पर गिरा दिया।

मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सबका सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।
न्यायालय ले गए मुझे वे,
सात दिवस का दंड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!


एक फूल की चाह भावार्थ : भीड़ के इस तरह सुखिया के पिता को पकड़ के मारने के कारण, उसके हाथों से प्रसाद भी गिर गया। जिसमें देवी माँ के चरणों में चढ़ा हुआ फूल भी था। सुखिया के पिता मार खाते हुए, दर्द सहते हुए भी सिर्फ यही सोच रहे थे कि अब ये देवी माँ के प्रसाद का फूल उसकी बेटी सुखिया तक कैसे पहुँचेगा। भीड़ उसे पकड़ कर न्यायलय ले गयी। जहाँ पर उसे देवी माँ के अपमान जैसे भीषण अपराध के लिए सात दिन कारावास का दंड दिया गया।

मैंने स्वीकृत किया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता, क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविश्रांत बरसा करके भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।


एक फूल की चाह भावार्थ : सुखिया के पिता ने चुपचाप दंड को स्वीकार कर लिया। उसके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसे पूरे सात दिन जेल में बिताने पड़े, जो उसे सात सदियों के बराबर प्रतीत हो रहे थे। पुत्री के वियोग में सदैव बहते आंसू भी रुक नहीं पा रहे थे। वह हर पल अपनी प्यारी पुत्री को याद करके रोता रहता था।

दंड भोगकर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को;
पीछे ठेल रहा था कोई
भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको
नहीं दौड़कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।


एक फूल की चाह भावार्थ : 
जेल से छूट कर वह भय के कारण घर नहीं जा पा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसके शरीर के अस्थि-पंजर को मानो कोई उसके घर की ओर धकेल रहा हो। जब वह घर पहुंचा, तो पहले की तरह उसकी बेटी दौड़ कर उसे लेने नहीं आयी और ना ही वह खेलती हुई बाहर कहीं दिखाई दी।

उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढ़ेरी!


एक फूल की चाह भावार्थ : जब वह घर पर अपनी बेटी को नहीं देख पाता है, तो वह अपनी बेटी को देखने के लिए श्मशान की ओर दौड़ता है। परन्तु जब वह श्मशान पहुँचता है, तो उसके परिचित बंधु आदि संबंधी पहले ही उसकी पुत्री का अंतिम संस्कार कर चुके होते हैं। अब तो उसकी चिता भी बुझ चुकी थी। यह देख कर सुखिया के पिता की छाती धधक उठती है। उसकी फूलों की तरह कोमल-सी बच्ची आज राख का ढेर बन चुकी थी।

अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा!


एक फूल की चाह भावार्थ : अंत में सुखिया के पिता के मन में बस यही मलाल शेष बचता है कि वह अपनी पुत्री को अंतिम बार गोद में भी नहीं ले पाया। वह इतना अभागा है कि अपनी बेटी की अंतिम इच्छा के रूप में, माँ के प्रसाद का एक फूल भी उसे लाकर नहीं दे पाया।

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आदमी नामा का सारांश | AAdmi nam Summary class 9 Chapter-11 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

नजीर अकबराबादी आदमी नामा  का सारांश |  AAdmi nam Summary class 9 Chapter-11 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

नजीर अकबराबादी

इनका जन्म आगरा शहर में सन 1735 में हुआ। इन्होने आगरा के अरबी-फ़ारसी के मशहूर अदीबों से तालीम हासिल की। नजीर हिन्दू त्योहारों में बहुत दिलचस्पी लेते थे और शामिल होकर दिलोजान से लुत्फ़ उठाते थे। नजीर दुनिया के रंग में रंगे हुए महाकवि थे।

आदमी नामा कविता का अर्थ- Aadmi Nama Poem Short Summary : 

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि नज़ीर अकबराबादी ने आदमी के विभन्न रूपों का वर्णन किया है। उनके अनुसार इस संसार में हर तरह के आदमी बसे हुए हैं, फिर चाहे वो अच्छे हों या ख़राब। उनके अनुसार इन्हीं आदमियों में से कोई ऐसा है, जो दूसरों का भला चाहता है, उनकी सहायता करता है, अगर कोई मदद के लिए पुकारे, तो भाग कर जाता है। इसके ठीक विपरीत कुछ आदमी ऐसे भी हैं, जिनके मन में पाप भरा हुआ है, वे दूसरों से नफरत करते हैं।  दूसरों की चीज़ें चुराते हैं। दूसरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करने में उन्हें मज़ा आता है। इस प्रकार उनका यह कथन पूरी तरह से सत्य है कि इस दुनिया में बुरे तथा भले दोनों किस्म के इंसान हैं

Aadmi Nama Class 9 Summary in Hindi – आदमी नामा भावार्थ

दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफ़लिश-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी
ज़रदार बेनवा है सो है वो भी आदमी
निअमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ :  आदमी नामा कविता में कवि नज़ीर अकबराबादी ने मानव के विविध रूपों के बारे में बताया है। उन्होंने आदमी के हर रूप का वर्णन किया है। दुनिया में विभिन्न प्रकार के आदमी होते हैं, जैसे कुछ धनी व्यक्ति होते हैं, तो कुछ गरीब भी होते हैं। कुछ बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं, तो कुछ मुर्ख भी होते हैं। यहां कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाने वाले व्यक्ति हैं, तो झूठे तथा रूखे-सूखे टुकड़ों को खाकर पलने वाले आदमी भी यहीं मौजूद है।

हर आदमी अलग होता है और उसका अपना अलग काम होता है। इसी कारणवश उनकी जीवन-शैली भी अलग होती है। उनके रहने का तरीका, खान-पान सब कुछ अलग होता है। उनकी जिमेदारियां भी अलग-अलग होती हैं।

इसीलिए कवि अपनी इस कविता में कहता है कि चाहे राजा हो या प्रजा, सब आदमी ही हैं। चाहे ताक़तवर हो या कमजोर, सब आदमी ही हैं।

मसज़िद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्वाँ
पढ़ते हैं आदमी ही कुरआन और नमाज यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियाँ
जो उनको ताड़ता है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने आदमी के विभिन्न रूपों का वर्णन करते हुए, उनके कार्यों के बारे में बताया है। उन्होंने यहाँ हमें मस्जिद का उदाहरण देते हुए कहा है कि जिन्होंने मस्जिद का निर्माण किया है, वे भी आदमी हैं। जो मस्जिद के अंदर नमाज़ या कुरान पढ़ाता है, वह भी आदमी है और जो लोग उस नमाज़ या कुरान को पढ़ने जाते हैं, वे भी आदमी हैं।

यहाँ तक कि उनकी चप्पलों को चुराने वाले भी आदमी एवं उनके ऊपर नजर रखकर पहरा देने वाले भी आदमी ही हैं। इस तरह कवि ने यहाँ आदमी के विभिन्न रूपों एवं कार्यो का वर्णन करते हुए, हमें यह बताया है कि दुनिया में पुण्य करने वाले भी आदमी और पाप करने वाले भी आदमी ही हैं।

यां आदमी पै जान को वारे है आदमी
और आदमी पै तेग को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ : अपनी इन पंक्तियों में कवि ने आदमी के प्रकृति के बारे में बताया है। कोई आदमी दूसरे आदमी की जान ले लेता है, तो कोई आदमी उसकी जान बचाता है। कोई आदमी किसी को बेइज्जत करता है, तो कोई आदमी उसकी इज्जत बचाने की कोशिश करता है। मदद मांगने के लिए जो पुकार लगता है, वह भी आदमी है और जो वह पुकार सुनकर मदद करने के लिए दौड़ता है, वह भी आदमी ही है। इस तरह कवि ने हमें यह शिक्षा दी है कि मनुष्य विभिन्न प्रकृति के होते हैं। कोई भला करके खुश होता है, तो कोई बुरा करके।

अशराफ़ और कमीने से ले शाह ता वज़ीर
ये आदमी ही करते हैं सब कारे दिलपज़ीर
यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए नज़ीर
और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी


आदमी नामा भावार्थ :  इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि शरीफ भी आदमी है और कमीने भी आदमी। जो शाह बनकर गद्दी पे बैठा है, वह भी आदमी और जो उसका वजीर है, वह भी आदमी ही है। किसी को खुश करने के लिए कुछ भी कर देने वाला भी आदमी ही है और उससे खुश होने वाला भी आदमी। किसी को तकलीफ देने वाला भी आदमी और तकलीफ सहने वाला भी आदमी ही है। इस तरह नाजिर अकबराबादी के इस आदमी नामा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि इस संसार में जो अच्छा करता है, वह भी आदमी है और जो बुरा करता है, वह भी आदमी ही है।

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NCERT Solution – आदमी नामा 

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रहीम के दोहे का सारांश | Dohe Summary class 9 Chapter-10 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

रहीम के दोहे का सारांश |  Dohe Summary class 9 Chapter-10 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय


रहीम
इनका जन्म लाहौर में सन 1556 में हुआ। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। रहीम अरबी, फारसी, संस्कृत और अच्छे जानकार थे। अकबर के दरबार में हिंदी कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे।

रहीम के दोहे पाठ का सारांश Summary

प्रस्तुत दोहे के रचयिता कवि रहीम हैं। इसमें रहीम जी के नीति परक दोहे दिए गए हैं। इन दोहों में रहीम जी ने मानव के आस-पास के चीजों को और मानव के आचरण उनके व्यवहार उनके जीवन के बारे में बहुत ही कम शब्दों में अच्छा ज्ञान और शिक्षा दी है। रहीम जी ने अपने दोहों के माध्यम से प्रेम के बंधन, जल का महत्व, छोटे-बड़े का सम्मान, अपना काम निश्चित समय पर और सही तरीके से करने का ज्ञान। रामजी के वनवास के समय उन पर आई विपदा, धन के बिना मनुष्य का महत्व क्या होता है, अपनी बातों को किसी के सामने कैसे बोलना चाहिए, इन सभी बातों को अपने दोहों में बहुत ही सुंदर और सार्थक तरीकों से पाठक को बताने का प्रयास किया है | रहीम जी के दोहे में मानव कल्याण और उनके हित के बातों को बताया गया, इनके दोहे एक बार पढ़ लेने से जीवन भर उसका छाप मन-मस्तिष्क में रह जाता है…|| 

रहीम के दोहे कक्षा 9 का अर्थ व्याख्या

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।।

अर्थ –  रहीम के अनुसार प्रेम रूपी धागा अगर एक बार टूट जाता है तो दोबारा नहीं जुड़ता। अगर इसे जबरदस्ती जोड़ भी दिया जाए तो पहले की तरह सामान्य नही रह जाता, इसमें गांठ पड़ जाती है।

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।।


अर्थ – रहीम कहते हैं कि अपने दुःख को मन के भीतर ही रखना चाहिए क्योंकि उस दुःख को कोई बाँटता नही है बल्कि लोग उसका मजाक ही उड़ाते हैं।

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय।।


अर्थ – रहीम के अनुसार अगर हम एक-एक कर कार्यों को पूरा करने का प्रयास करें तो हमारे सारे कार्य पूरे हो जाएंगे, सभी काम एक साथ शुरू कर दियें तो तो कोई भी कार्य पूरा नही हो पायेगा। वैसे ही जैसे सिर्फ जड़ को सींचने से ही पूरा वृक्ष हरा-भरा, फूल-फलों से लदा रहता है।

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस।
जा पर बिपदा परत है, सो आवत यह देश।।


अर्थ – रहीम कहते हैं कि चित्रकूट में अयोध्या के राजा राम आकर रहे थे जब उन्हें 14 वर्षों के वनवास प्राप्त हुआ था। इस स्थान की याद दुःख में ही आती है, जिस पर भी विपत्ति आती है वह शांति पाने के लिए इसी प्रदेश में खिंचा चला आता है।

दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिट कूदि चढिं जाहिं॥

अर्थ – रहीम कहते हैं कि दोहा छंद ऐसा है जिसमें अक्षर थोड़े होते हैं किंतु उनमें बहुत गहरा और दीर्घ अर्थ छिपा रहता है। जिस प्रकार कोई कुशल बाजीगर अपने शरीर को सिकोड़कर तंग मुँह वाली कुंडली के बीच में से कुशलतापूर्वक निकल जाता है उसी प्रकार कुशल दोहाकार दोहे के सीमित शब्दों में बहुत बड़ी और गहरी बातें कह देते हैं ।

धनि रहीम जल पंक को,लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है,जगत पिआसो जाय।।

अर्थ- रहीम कहते हैं कि कीचड़ का जल सागर के जल से महान है क्योंकि कीचड़ के जल से कितने ही लघु जीव प्यास बुझा लेते हैं। सागर का जल अधिक होने पर भी पीने योग्य नहीं है। संसार के लोग उसके किनारे आकर भी प्यासे के प्यासे रह जाते हैं। मतलब यह कि महान वही है जो किसी के काम आए।

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछु न दे।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि संगीत की तान पर रीझकर हिरन शिकार हो जाता है। उसी तरह मनुष्य भी प्रेम के वशीभूत होकर अपना तन, मन और धन न्यौछावर कर देता है लेकिन वह लोग पशु से भी बदतर हैं जो किसी से खुशी तो पाते हैं पर उसे देते कुछ नहीं है।

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि मनुष्य को सोच समझ कर व्यवहार करना चाहिए क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एक बार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथकर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा।

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।।

अर्थ – रहीम के अनुसार हमें बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु अनादर नहीं करना चाहिए, उनकी भी अपना महत्व होता। जैसे छोटी सी सुई का काम बड़ा तलवार नही कर सकता।

रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्‍यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि संकट की स्थिति में मनुष्य की निजी धन-दौलत ही उसकी सहायता करती है।जिस प्रकार पानी का अभाव होने पर सूर्य कमल की कितनी ही रक्षा करने की कोशिश करे, फिर भी उसे बचाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य को बाहरी सहायता कितनी ही क्यों न मिले, किंतु उसकी वास्तविक रक्षक तो निजी संपत्ति ही होती है।

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।

अर्थ – रहीम कहते हैं कि पानी का बहुत महत्त्व है। इसे बनाए रखो। यदि पानी समाप्त हो गया तो न तो मोती का कोई महत्त्व है, न मनुष्य का और न आटे का। पानी अर्थात चमक के बिना मोती बेकार है। पानी अर्थात सम्मान के बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है और जल के बिना रोटी नहीं बन सकती, इसलिए आटा बेकार है।

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NCERT Solution – रहीम के दोहे 

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रैदास का सारांश | Rawdas Summary class 9 Chapter-9 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

रैदास रैदास का सारांश |  Rawdas Summary class 9 Chapter-9 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कवि परिचय

रैदास

इनका जन्म सन 1388 और देहावसान सन 1518 में बनारस में ही हुआ, ऐसा माना जाता है। मध्ययुगीन साधकों में इनका विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के कवियों में गिने जाते हैं। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का ज़रा भी विश्वास न था। वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे।

Raidas Ke Pad Explanation – रैदास के पद का सार : Short Summary

 संत कवि रैदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग है, जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। उनका सच्चे ज्ञान पर विश्वास था। उन्होंने भक्ति के लिए परम वैराग्य को अनिवार्य माना था। उनके अनुसार ईश्वर एक है और वह जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में मौजूद है।

इसी विचारधारा के अनुसार, उन्होनें अपने प्रथम पद “अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी” में हमें यह शिक्षा दी है कि हमें ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं मिलेंगे या किसी मूर्ति में नहीं मिलेंगे। ईश्वर को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय अपने मन के भीतर झाँकना है। कवि ने यहाँ प्रकृति एवं जीवों के विभिन्न रूपों का उपयोग करके यह कहा है कि भक्त और भगवान एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। उनके अनुसार ईश्वर सर्वश्रेष्ठ हैं और हर जन्म में वे ही सर्वश्रेष्ठ रहेंगे।

अपने दूसरे पद “ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।” में रैदास जी ने ईश्वर की महत्ता का वर्णन किया है। उनके अनुसार ईश्वर धनी-गरीब, छुआ-छूत आदि में विश्वास नहीं करते और वे सभी का उद्धार करते हैं। वे चाहें तो नीच को भी महान बना सकते हैं। ईश्वर ने नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैनु जैसे संतों का उद्धार किया था और वे  हमारा भी उद्धार करेंगे। इस तरह, उन्होंने हमें उस समय के समाज में व्याप्त जात-पाँत, छुआ-छूत जैसे अंधविश्वासों का त्याग करने की सलाह दी है।

रैदास के पद अर्थ सहित – Raidas ke Pad in Hindi with Meaning

(1)
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी , जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा , जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती , जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा , जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा , ऐसी भक्ति करै रैदासा।

प्रभु! हमारे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है, वह कैसे छूट सकती है? अब मै आपका परम भक्त हो गया हूँ। जिस तरह चंदन के संपर्क में रहने से पानी में उसकी सुगंध फैल जाती है, उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो गई है । आप आकाश में छाए काले बादल के समान हो, मैं जंगल में नाचने वाला मोर हूँ। जैसे बरसात में घुमडते बादलों को देखकर मोर खुशी से नाचता है, उसी भाँति मैं आपके दर्शन् को पा कर खुशी से भावमुग्ध हो जाता हूँ। जैसे चकोर पक्षी सदा अपने चंद्रामा की ओर ताकता रहता है उसी भाँति मैं भी सदा आपका प्रेम पाने के लिए तरसता रहता हूँ।
हे प्रभु ! आप दीपक हो और मैं उस दिए की बाती जो सदा आपके प्रेम में जलता है। प्रभु आप मोती के समान उज्ज्वल, पवित्र और सुंदर हो और मैं उसमें पिरोया हुआ धागा हूँ। आपका और मेरा मिलन सोने और सुहागे के मिलन के समान पवित्र है । जैसे सुहागे के संपर्क से सोना खरा हो जाता है, उसी तरह मैं आपके संपर्क से शुद्ध हो जाता हूँ। हे प्रभु! आप स्वामी हो मैं आपका दास हूँ।

(2)
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै॥
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥


हे प्रभु ! आपके बिना कौन कृपालु है। आप गरीब तथा दिन – दुखियों पर दया करने वाले हैं। आप ही ऐसे कृपालु स्वामी हैं जो मुझ जैसे अछूत और नीच के माथे पर राजाओं जैसा छत्र रख दिया। आपने मुझे राजाओं जैसा सम्मान प्रदान किया। मैं अभागा हूँ। मुझ पर आपकी असीम कृपा  है। आप मुझ पर द्रवित हो गए । हे स्वामी आपने मुझ जैसे नीच प्राणी को इतना उच्च सम्मान प्रदान किया। आपकी दया से नामदेव , कबीर जैसे जुलाहे , त्रिलोचन जैसे सामान्य , सधना जैसे कसाई और सैन जैसे नाई संसार से तर गए। उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। अंतिम पंक्ति में रैदास कहते हैं – हे संतों, सुनो ! हरि जी सब कुछ करने में समर्थ हैं। वे कुछ भी करने में सक्षम हैं।

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NCERT Solution – रैदास

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धर्म की आड़ पाठ का सारांश | Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-7 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

धर्म की आड़ पाठ का सारांश |  Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-7 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

गणेशशंकर विद्यार्थी

इनका जन्म सन 1891 में मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था। एंट्रेंस पास करने के बाद कानपूर दफ्तर में मुलाजिम हो गए। फिर 1921 में ‘प्रताप’ साप्ताहिक अखबार निकालना शुरू किया। ये आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी को साहित्यिक गुरु मानते थे। इनका ज्यादा समय जेल में बिता। कानपुर में 1931 में मचे सांप्रदायिक दंगों को शांत करवाने के प्रयास में इनकी मृत्यु हो गयी।

धर्म की आड़ पाठ का सार: Summary

प्रस्तुत पाठ ‘धर्म की आड़’ में विद्‍यार्थी जी ने उन लोगों के इरादों और कुटिल चालों को बेनकाब किया है जो धर्म की आड़ लेकर जनसामान्य को आपस में लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्‍ध करने की फ़िराक में रहते हैं। उन्होंने बताया है की कुछ चालाक व्यक्ति साधारण आदमी को अपने स्वार्थ हेतु धर्म के नाम पर लड़ते रहते हैं। साधारण आदमी हमेशा ये सोचता है की धर्म के नाम पर जान तक दे देना वाजिब है।

पाश्चत्य देशों में धन के द्वारा लोगों को वश में किया जाता है, मनमुताबिक काम करवाया जाता है। हमारे देश में बुद्धि पर परदा डालकर कुटिल लोग ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए ले लेते हैं और फिर धर्म, ईमान के नाम पर लोगों को आपस में भिड़ाते रहते हैं और अपना व्यापार चलते रहते हैं। इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए हमें साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग करना चाहिए। यदि किसी धर्म के मनाने वाले जबरदस्ती किसी के धर्म में टांग अड़ाते हैं तो यह कार्य स्वाधीनता के विरुद्ध समझा जाए।
देश की स्वाधीनता आंदोलन में जिस दिन खिलाफत, मुल्ला तथा धर्माचार्यों को स्थान दिया गया वह दिन सबसे बुरा था जिसके पाप का फल हमे आज भी भोगना पड़ रहा है। लेखक के अनुसार शंख बजाना, नाक दबाना और नमाज पढ़ना धर्म नही है। शुद्धाचरण और सदाचरण धर्म के चिन्ह हैं। आप ईश्वर को रिश्वत दे देने के बाद दिन भर बेईमानी करने के लिए स्वतंत्र नही हैं। ऐसे धर्म को कभी माफ़ नही किया जा सकता। इनसे अच्छे वे लोग हैं जो नास्तिक हैं।

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NCERT Solution – धर्म की आड़

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कीचड़ का काव्य पाठ का सारांश | Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-6 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

कीचड़ का काव्य पाठ का सारांश |  Kichad ke kavya Summary class 9 Chapter-6 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय


काका कालेलकर

इनका जन्म महराष्ट्र के सतारा नगर में सन 1885 में हुआ। काका की मातृभाषा मराठी थी, उन्हें गुजराती, हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। गांधीजी के साथ राष्ट्रभाषा प्रचार में जुड़ने के बाद काका हिंदी में लेखन करने लगे। आजादी के बाद काका जिंदगी भर गांधीजी के विचार और साहित्य के प्रचार-प्रसार में जुटे रहे।

कीचड़ का काव्य पाठ का सार : Summary

प्रस्तुत लेख ‘कीचड़ का काव्य’ में लेखक ने कीचड़ का महिमामंडन किया है। उन्होंने बताया है की कोई भी कवि या लेखक अपने कृतियों में कीचड़ का वर्णन नही करते हैं, जबकि लेखक को कीचड़ में कम सौंदर्य नजर नही आता। कीचड़ का रंग बहुत व्यक्तियों को पसंद आता है जैसे पुस्तक के गत्तों पर, घरों की दीवालों पर, मिटटी के बर्तनो के लिए तथा फोटो लेते समय।

कीचड के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लेखक ने कहा है की जब ये नदी के किनारे सुख कर टूट जाते हैं, उनमे दरारे पड़ जाती हैं तब वे सुखाये खोपड़े जैसे दिखाई पड़ते हैं। जब उसपर छोटे-बड़े पक्षी के पदचिन्ह अंकित हो जाते हैं तो हमें उस रास्ते कारवां ले जाने की इच्छा होती है। फिर जब कीचड़ ज्यादा सुखकर जमीन ठोस हो जाती है तथा गाय, भैंस, बैल, बकरे आदि के पदचिन्ह अंकित हो जाते हैं है जिसकी शोभा कुछ और ही है। जब दो पांडे अपने सींगो द्वारा कीचड़ को रौंदकर आपस में लड़ते हैं तो उनके अंकित चिन्ह महिषकुल के युद्ध का वर्णन करते हैं।

अगर हमें कीचड़ के विशाल रूप को देखना है तो गंगा किनारे या सिंधु के किनारे जाना चाहये या फिर सीधे खम्भात पहुंचना चाहिए जहाँ हमारी नजर जहाँ तक जायेगी वहां सर्वत्र कीचड़ ही मिलेगा। लेखक के अनुसार अगर मनुष्य को ये याद रहे की उनका अन्न कीचड़ की ही दें है तो वह इसका तिरस्कार न करे। हमारे कवि मल के द्वारा उत्पन्न शब्द का उपयोग शान से करते हैं परन्तु मल को स्थान नही देते। इस विषय पर चर्चा कवियों से चर्चा न करना ही उत्तम है।

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NCERT Solution –कीचड़ का काव्य

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शुक्र तारे के समान पाठ का सारांश | Shukra Tare Ke Saman Summary class 9 Chapter-8 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

स्वामी आनंद

इनका जन्म गुजरात के कठियावाड़ जिले के किमड़ी गाँव में सन 1887 को हुआ। इनका मूल नाम हिम्मतलाल था। जब ये दस साल के थे तभी कुछ साधु इन्हें अपने साथ हिमालय की ओर ले गए और इनका नामकरण किया – स्वामी आनंद। १९०७ में स्वामी आनंद स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। 1917 में गाँधे जी के संसर्ग में आने के बाद उन्हीं के निदेशन में ‘ नवजीवन’ और ‘ यंग इंडिया ’ के प्रसार व्यवस्था संभाल ली। इसी बहाने उन्हें गाँधी जी और उनके निजी सहयोगी महादेव भाई देसाई और बाद में प्यारेलाल जी को निकट से जानने का अवसर मिला।

शुक्रतारे के समान पाठ का सारांश : Summary

प्रस्तुत पाठ ‘शुक्र तारे के समान’ में लेखक ने गाँधी जी के निजी सचिव महादेव भाई देसाई की बेजोड़ प्रतिभा और व्यस्ततम दिनचर्या को उकेरा है। उन्होंने महादेव भाई की तुलना शुक्र तारे से की है जो सारे आकाश को जगमगा कर, दुनिया को मुग्ध करके अस्त हो जाता है। सन 1917 में में वे गांधीजी से मिले तब गांधीजी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी का पद सौंप दिया। सन 1919 में जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के दिनों में गांधीजी ने गिरफ्तार होते समय महादेव जी को अपना वारिस कहा था। उन दिनों गांधीजी के सामने अंग्रेज़ों द्वारा अत्याचारों और जुल्मो की जो दल कहानियाँ सुनाने आते थे, महादेव भाई उनकी संक्ष्पित टिप्पणियाँ बनाकर उन्हें रु-बू-रु मिलवाते थे।

‘क्रॉनिकल’ के संपादक हार्नीमैन को देश निकाले की सजा मिलने पर ‘यंग इंडिया’ साप्ताहिक में लेखों की कमी पड़ने लगी चूँकि हार्नीमैन ही मुख्य रूप से लेख लिखते थे। इसीलिए ये जिमेदारी गांधीजी ने ले ली, बाद में उनका काम बढ़ने के कारण इस अखबार को सप्ताह में दो बार निकालना पड़ा। कुछ दिन बाद अखबार की जिमेवारी लेखक के हाथों में आ गयी। महादेव भाई और गांधीजी का सारा समय देश-भम्रण में बीतने लगा, परन्तु महादेव जी जहाँ भी होते समय निकालकर लेख लिखते और भेजते। महादेव भाई गांधीजी के यात्राओं और दिन प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में लिखते, साथ ही देश-विदेश के समाचारों को पढ़कर उसपर टिका-टिप्पणियाँ भी लिखते।अपने तीर्व बुद्धि के कारण देसी-विदेशी समाचार पत्र वालों के ये लाड़ले बन गए। गांधीजी के पास आने से पहले ये सरकार के अनुवाद विभाग में नौकरी करते थे। इन्होने कई साहित्यों का अनुवाद किया था।
गांधीजी के पत्रों में महादेव भाई की लिखावट होती थी। उनकी लिखावट लम्बी सी जेट की गति सी लिखी जाती थी, वे शॉर्टहैंड नही जानते थे, परन्तु उनकी लेखनी में कॉमा मात्र की भी गलती नही होती थी इसलिए गांधीजी भी अपने मिलने वालों से बातचीत को उनकी नोटबुक से मिलान करने को कहते थे। वे अपने बड़े-बड़े झोलों में ताजे समाचार पात्र और पुस्तकें रखा करते जिसे वे  रेलगाड़ी, रैलियों तथा सभाओं में पढ़ते थे या फिर ‘नवजीवन’ या ‘यंग इंडिया’ के लिए लेख लिखते रहते। वे इतने वयस्थ समय में अपने लिए कब वक्त निकालते पता नही चलता, एक घंटे में चार घंटो का काम निपटा देते। महादेव भाई गांधीजी के जीवन में इतने रच-बस-गए थे की उनके बिना महदेव भाई की अकेले कल्पना नही की जा सकती।

उन्होंने गांधीजी की पुस्तक ‘सत्य का प्रयोग’ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया। सन 1934-35 में गांधीजी मगनवाड़ी से चलकर सेगांव चले गए परन्तु महादेव जी मगंवादी में ही रहे। वे रोज वहां से पैदल चलकर सेगांव जाते तथा शाम को काम निपटाकर वापस आते, जो की कुल 11 मिल था। इस कारण उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और वे अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। इनके मृत्यु का दुःख गांधीजी को आजीवन रहा।

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NCERT Solution –Shukra Tare Ke Saman

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वैज्ञानिक चेतना के वाहक पाठ का सारांश | Tum Kab Jaoge Atithi Summary class 9 Chapter-5 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

धीरंजन मालवे

लेखक परिचय

धीरंजन मालवे

इनका जन्म बिहार के नालंदा जिले के डुंवरावाँ गाँव में 9 मार्च 1952 को हुआ। ये एम.एससी (सांख्यिकी), एम. बी.ए और एल.एल.बी हैं। वे आज भी वैज्ञानिक जानकारी को आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने में लगे हुए हैं। मालवे ने कई भरतीय वैज्ञानिकों की संक्षिप्त जीवनियाँ लिखी हैं, जो इनकी पुस्तक ‘विश्व-विख्यात भारतीय वैज्ञानिक’ पुस्तक में समाहित हैं।

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन पाठ का सारांश : Very Short Summary

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन्’ प्रस्तुत पाठ भारत के महान वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकट रामन के जीवन पर आधारित है। इसके लेखक धीरंजन मालवे जी ने भारत की इस महान विभूति को यह पाठ समर्पित किया है। रामन जी गुलाम भारत के सफल और प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। उन्होंने पूरे विश्व में अपनी योग्यता का परचम फहराया। वह पहले ऐसे भारतीय नागरिक थे, जिन्हें अपनी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने पूरे विश्व में यह सिद्ध कर दिया की गुलाम देश के नागरिक में भी कुछ कर दिखाने की योग्यता होती है। रामन एक प्रतिभावान छात्र थे। लेखक ने हमारे देश के इस प्रतिभावान छात्र के संघर्षमय जीवन और उपलब्धियों को हमारे सम्मुख रखा है। उन्होंने इस पाठ में रामन जी के जीवन के हर उस क्षण को दिया है, जो हमें उस प्रतिभावान व्यक्ति से परिचित करवा सके। पाठक को उनके विषय में पूरी और सही जानकारी प्राप्त हो सके। 

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन पाठ का सारांश : Detailed Summary

यह लेख वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकट रामन की संघर्षमय जीवन यात्रा तथा उनकी उपलब्धियों की जानकारी बखूबी कराता है। रामन ग्यारह साल की उम्र में मैट्रिक, विशेष योग्यता की साथ इंटरमीडिएट, भौतिकी और अंग्रेज़ी में स्वर्ण पदक के साथ बी. ए. और प्रथम श्रेणी में एम. ए. करके मात्र अठारह साल की उम्र में कोलकाता में भारत सरकार के फाइंनेस डिपार्टमेंट में सहायक जनरल एकाउटेंट नियुक्त कर लिए गए थे। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे। इस दौरान वे बहूबाज़ार स्थित प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करके शोध कार्य करते थे।

फिर उन्होंने अनेक भारतीय वाद्ययंत्रों का अध्ययन किया और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिम देशों की इस भ्रांति को तोड़ने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं। बाद में वे सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद को स्वीकार किया । यहां वे अपना सारा समय अध्ययन, अध्यापन और शोध में बिताने लगे। सन 1921 में जब रामन समुद्री यात्रा पर थे तो समुद्र के नीले रंग को देखकर उसके वज़ह का सवाल हिलोरें मारने लगा। उन्होंने इस दिशा में आगे प्रयोग किए तथा इसका परिणाम ‘रामन प्रभाव’ की खोज के रूप में सामने लाया। रामन की खोज की वजह से पदार्थों मे अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया।

उन्हें ‘भारत रत्न’ तथा ‘नोबल पुरस्कारों’ सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारतीय संस्कृति से रामन को हमेशा ही लगाव रहा। उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा बनाए रखा। वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे। उन्होंने बैंगलोर में एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान ‘रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। रामन वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमुर्त्ति थे।उन्होंने हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टि से करने का संदेश दिया।

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NCERT Solution -वैज्ञानिक चेतना के वाहक

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तुम कब जाओगे पाठ का सारांश | Tum Kab Jaoge Atithi Summary class 9 Chapter-4 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

तुम कब जाओगे पाठ का सारांश |  Tum Kab Jaoge Atithi Summary class 9 Chapter-4 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

लेखक परिचय

शरद जोशी
इनका जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में 21 मई 1931 को हुआ। इनका बचपन कई शहरों में बिता। कुछ समय तक यह सरकारी नौकरी में रहे फिर इन्होने लेखन को ही आजीविका के रूप में अपना लिया। इन्होंने व्यंग्य लेख , व्यंग्य उपन्यास , व्यंग्य कॉलम के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे। सन  1991 में इनका देहांत हो गया।

तुम कब जाओगे अतिथि पाठ का सारांश : Very Short Summary

लेखक के घर पर एक अतिथि चार दिनों से रह रहा है जिसे देखते हुए वे कहते हैं कि हे अतिथि ! तुम्हें देखते ही मेरा बटुआ काँप गया था। फिर भी हमने भरसक मुस्कान के साथ तुम्हारा स्वागत किया था। रात के भोजन को मध्यम- वर्गीय डिनर जैसा भारी-भरकम बना दिया था। सोचा था कि तुम सुबह चले जाओगे। पर ऐसा नहीं हुआ। तुम यहाँ आराम से सिगरेट के छल्ले उड़ा रहे हो। उधर मैं तुम्हारे सामने कैलेण्डर की तारीखें बदल-बदलकर तुम्हें जाने का संकेत दे रहा हूँ। तीसरे दिन तुमने कपड़े धुलवाने की फ़रमाइश की। कपड़े धुलकर आ गए लेकिन तुम नहीं गए। पत्नी ने सुना तो वह भी आँखें तरेरने लगी। चौथे दिन कपड़े धुलकर आ गए , फिर भी तुम डटे हुए हो। बातचीत के सभी विषय समाप्त हो गए हैं। दोनों अपने अपने में मग्न होकर पढ़ रहे हैं, सौहार्द समाप्त हो चला है। भावनाएँ गालियाँ बनती जा रही हैं। सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो चुकी है, अब भोजन में खिचड़ी बनने लगी है। घर को स्वीट होम कहा गया है , पर तुम्हारे होने से घर का स्वीटनेस खत्म हो गया है। अब तुम चले जाओ वर्ना मुझे ‘ गेट आउट ’ कहना पड़ेगा।यदि तुम अपने आप कल सुबह चले न गए तो मेरी सहनशीलता जवाब दे जाएगी। माना तुम देवता हो किंतु मैं तो आदमी हूँ। मनुष्य और देवता ज़्यादा देर साथ नहीं रह सकते। इसलिए अपना देवत्व सुरक्षित रखना चाहते हो तो अपने आप विदा हो जाओ। तुम कब जाओगे , अतिथि ?

तुम कब जाओगे अतिथि पाठ का सारांश : Detailed Summary

प्रस्तुत पाठ तुम कब जाओगे, अतिथि लेखक शरद जोशी जी के द्वारा लिखित है | इस पाठ में लेखक ने ऐसे व्यक्तियों की व्यंग्यात्मक ढंग से ख़बर ली है, जो अपने किसी परिचित या रिश्तेदार के घर बिना कोई पूर्व सूचना दिए चले आते हैं और फिर जाने का नाम ही नहीं लेते | भले ही उनका ज्यादा समय तक टिके रहना मेज़बान के लिए तकलीफ़ देय ही क्यूँ न हो | 

प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक अतिथि सत्कार से ऊबकर उसे अपने मन की भावना से संबोधित करते हुए कहते हैं कि आज तुम्हारे आगमन के चतुर्थ दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में घुमड़ रहा है — तुम कब जाओगे, अतिथि ? तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है, तुम्हारे सतत् आतिथ्य का चौथा भारी दिन ! पर तुम्हारे जाने की कोई सम्भावना प्रतीत नहीं होती | अब तुम लौट जाओ, अतिथि ! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय है | क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वी नहीं पुकारती ? 

आगे प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक कहते हैं कि अतिथि ! तुम्हें देखते ही मेरा बटुआ काँप गया था | फिर भी हमने मुस्कुराहट के साथ तुम्हारा स्वागत किया था | मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते किया था | रात के भोजन को मध्यम-वर्गीय डिनर में बदल दिया था | सोचा था कि तुम दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमाननवाज़ी की छाप अपने हृदय में बसाकर एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाओगे |परन्तु, ऐसा नहीं हुआ | तुम यहाँ आराम से सिगरेट के छल्ले उड़ा रहे | उधर मैं तुम्हारे सामने कैलेण्डर की तारीखें बदल-बदलकर तुम्हें जाने का संकेत दे देता रहा हूँ | 

आगे प्रस्तुत पाठ के अनुसार, लेखक कहते हैं कि तीसरे दिन तो तुमने कपड़े धुलवाने की फ़रमाइश कर दी | पत्नी ने सुना तो वह भी आँखें तरेरने लगी | जब चौथे दिन कपड़े धुलकर आ गए, तो फिर भी तुम डटे रहे | अतिथि ! तुम्हें देखकर फूट पड़ने वाली मुस्कुराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त होने लगी है | ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब नज़र नहीं आते | बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है — तुम कब जाओगे, अतिथि ? 

आगे प्रस्तुत पाठ के अनुसार, बातचीत के सभी विषय समाप्त हो गए हैं | दोनों खुद में मग्न होकर पढ़ रहे हैं | आपसी सौहार्द समाप्ति के कगार पर है | सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो चुकी है | अब भोजन में खिचड़ी बनने लगी है | लेखक कहते हैं कि घर को स्वीट होम कहा गया है, परन्तु तुम्हारे होने से घर का स्वीटनेस खत्म हो गया है | अब तुम चले जाओ वर्ना मुझे मजबूरन ‘गेट आउट’ कहना पड़ेगा | माना कि तुम देवता हो, किंतु मैं तो आदमी हूँ | मनुष्य और देवता अधिक देर तक साथ नहीं रह सकते | तुम लौट जाओ अतिथि ! इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा | उफ ! तुम कब जाओगे, अतिथि…? 

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NCERT Solution -Tum Kab Jaoge Atithi

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एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश | Everest Meri Shikhar Yatra Summary class 9 Chapter-3 | Sparsh Hindi class 9 | EduGrown

बचेंद्री पाल

लेखक परिचय

बचेंद्री पाल

इनका जन्म सन 24 मई, 1954 को उत्तरांचल के चमोली जिले के बमपा गाँव में हुआ। पिता पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते थे। अत: बचेंद्री को आठवीं से आगे की पढ़ाई का खर्च सिलाई-कढ़ाई करके जुटाना पड़ा। विषम परिस्थितियों के बावज़ूद बचेंद्री ने संस्कृत में एम.ए. और फिर बी. एड. की शिक्षा हासिल की। बचेंद्री को पहाद़्ओं पर चढ़ने शौक़ बचपन से था। पढ़ाई पूरी करके वह एवरेस्ट अभियान – दल में शामिल हो गईं। कई महीनों के अभ्यास के बाद आखिर वह दिन आ ही गया , जब उन्होंने एवरेस्ट विजय के लिए प्रयाण किया।

Everest Meri Shikhar Yatra Summary | एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश : Short Summary

प्रस्तुत लेख में बचेंद्री पाल ने अपने अभियान का रोमांचकारी वर्णन किया है कि 7 मार्च को एवरेस्ट अभियान दल दिल्ली से काठमांडू के लिए चला। नमचे बाज़ार से लेखिका ने एवरेस्ट को निहारा। लेखिका ने एवरेस्ट पर एक बड़ा भारी बर्फ़ का फूल देखा। यह तेज़ हवा के कारण बनता है। 26 मार्च को अभियान दल पैरिच पहुँचा तो पता चला कि खुंभु हिमपात पर जाने वाले शेरपा कुलियों में से बर्फ़ खिसकने के कारन एक कुली की मॄत्यु हो गई और चार लोग घायल हो गए। बेस कैंप पहुँचकर पता चला कि प्रतिकूल जलवायु के कारण एक रसोई सहायक की मृत्यु हो गई है। फिर दल को ज़रुरी प्रशिक्षण दिया गया। 29 अप्रैल को वे 7900 मीटर ऊँचाई पर स्थित बेस कैंप पहुँचे जहाँ तेनजिंग ने लेखिका का हौसला बढ़ाया। 15-16 मई, 1984 को अचानक रात 12:30 बजे कैंप पर ग्लेशियर टूट पड़ा जिससे कैंप तहस-नहस हो गया , हर व्यक्‍ति चोट-ग्रस्त हुआ। लेखिका बर्फ़ में दब गई थी। उन्हें बर्फ़ से निकाला गया। फिर कुछ दिनों बाद लेखिका साउथकोल कैंप पहुँची। वहाँ उन्होंने पीछे आने वाले साथियों की मदद करके सबको खुश कर दिया। अगले दिन वह प्रात: ही अंगदोरज़ी के साथ शिखर – यात्रा पर निकली। अथक परिश्रम के बाद वे शिखर – कैंप पहुँचे। एक और साथी ल्हाटू के आ जाने से और ऑक्सीजन आपूर्ति बढ़ जाने से चढ़ाई आसान हो गई। 23 मई , 1984 को दोपहर 1:07 बजे लेखिका एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी। वह एवरेस्त पर चढ़ने वाली पहली भारतीय  महिला थी। चोटी पर दो व्यक्तियों के साथ खड़े होने की ज़गह नहीं थी, उन्होंने बर्फ के फावड़े से बर्फ की खुदाई कर अपने आप को सुरक्षित किया। लेखिका ने घुटनों के बल बैठकर ‘सागरमाथे’ के ताज को चूमा। फिर दुर्गा माँ तथा हनुमान चालीसा को कपडे में लपेटकर बर्फ़ में दबा दिया। अंगदोरज़ी ने उन्हें गले से लगकर बधाई दी। कर्नल खुल्लर ने उन्हें बधाई देते हुए कहा – मैं तुम्हरे मात-पिता को बधाई देना चाहूँगा। देश को तुम पर गर्व है। अब तुम जो नीचे आओगी , तो तुम्हें एक नया संसार देखने को मिलेगा।

Everest Meri Shikhar Yatra Summary | एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश : Detailed Summary

Everest Meri Shikhar Yatra Summary | एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा पाठ का सारांश : Detailed Summary

लेखिका बचेंद्री पाल एवरेस्ट विजय के जिस अभियान दल में एक सदस्य थीं, लेखिका उस अभियान दल के साथ 7 मार्च, 1984 को दिल्ली से काठमांडू के लिए हवाई जहाज़ से गयी। एक मजबूत अग्रिम दल  हमारे पहुचने से पहले ‘बेस कैम्प’ पहुँच गया जो उस उबड-खाबड़ हिमपात के रास्ते को साफ कर सके,लेखिका एक स्थान का जिक्र किया जिसका नाम नमचे बाज़ार है और वहाँ से एवरेस्ट की प्राकृतिक छटा का बहुत सुंदर निरीक्षण किया जा सकता है। लेखिका ने बहुत भारी बड़ा सा बर्फ का फूल (प्लूम) देखा जो उन्हें आश्चर्य में डाल दिया। लेखिका केअनुसार वह बर्फ़ का फूल 10 कि.मी. तक लंबा हो सकता था।

          इस अभियान दल के सदस्य पैरिच नामक स्थान पर 26 मार्च को पहुँचे, जहाँ से आरोहियों और काफ़िलों के दल पर प्राकृतिक आपदा मँडराने लगी। यह संयोग की बात था कि 26 मार्च को अग्रिम दल में शामिल प्रेमचंद पैरिच लौट आए थे। उनसे खबर मिली कि 6000 मी. की ऊँचाई पर कैंप-1 तक जाने का रास्ता पुरी तरह से साफ़ कर दिया गया है। दूसरे-तीसरे दिन पार कर चौथे दिन दल के सदस्य अंगदोरजी, गगन बिस्सा और लोपसांग साउथ कोल पहुंच गए। 29 अप्रैल को 7900 मीटर की ऊँचाई पर उन लोगों ने कैंप-4 लगाया। लेखिका 15-16 मई, 1984 को बुद्ध पूर्णिमा के दिन ल्होत्से की बर्फीली सीधी ढलान पर लगाए गए सुंदर रंग के नाइलोन के बने टेंट के कैंप-3 में थी। कैंप में 10 और व्यक्ति थे। साउथ कोल कैंप पहुँचने पर लेखिका ने अपनी महत्वपूर्ण चढ़ाई की तैयारी शुरू कर दी। सारी तैयारिओं के बीच अभियान चल रही थी , पर्वतारोही दल आगे बढ़ता रहा और 23 मई, 1984 दोपहर के एक बजकर सात मिनट पर लेखिका एवरेस्ट की चोटी पर पहुँच गई।

        एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी होकर लेखिका ने अद्भुत अनुभव किया। लेखिका ने उन छोटी-छोटी भावों को भी लिपिबद्ध किया, जिन भावों को अभिव्यक्त कर पाना बहुत कठिन है। इस सफलता के बाद लेखिका को बहुत सारी बधाईयाँ मिली। लेखिका ने उस स्थान को फरसे से काटकर चौड़ा किया, जिस पर वह खड़ी हो सके। उन्होंने वहा राष्ट्रध्वज फहराया, और कुछ संक्षिप्त पूजा-अर्चना भी किया । विजय दल का वर्णन किया ,लेखिका ने वर्णनात्मक शैली को एकरूप बनाए रखा कि पाठक को इन घटनाओं का वर्णन आँखों देखा दृश्य जैसा लगने लगा।

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NCERT Solution -एवरेस्ट मेरी शिखर यात्रा

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