मानवीय करुणा की दिव्य चमक का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 13 | मानवीय करुणा की दिव्य चमक Summary | Quick revision Notes ch-13 Kshitij | EduGrown
manveya karuna ki divyachmak summary
लेखक परिचय
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
इनक जन्म 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनकी उच्च शिक्षा इलाहबाद विश्वविधयालय से हुई। अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर, दिनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। ये बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। सन 1983 में इनका आकस्मिक निधन हो गया।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi पाठ का सार ( Short Summary )
मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक ‘सर्वेश्वर दयाल सक्सेना’ हैं। यह पाठ एक संस्मरण है। लेखक ने इस पाठ में फ़ादर बुल्के से संबंधित स्मृतियों का वर्णन किया है। फ़ादर बुल्के ने अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल को छोड़कर भारत को अपनी कार्यभूमि बनाया। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष लगाव था।
फ़ादर की मृत्यु जहरबाद से हुई थी। उनके साथ ऐसा होना ईश्वर का अन्याय था। इसका कारण यह था कि वे सारी उम्र दूसरों को अमृत-सी मिठास देते रहे थे। उनका व्यक्तित्व ही नहीं अपितु स्वभाव भी साधुओं जैसा था। लेखक उन्हें पैंतीस सालों से जानता था। वे जहां भी रहे अपने प्रियजनों पर ममता लुटाते रहे थे। फ़ादर को याद करना, देखना और सुनना ये सब कुछ लेखक के मन में अजीब शांत-सी हलचल मचा देते थे। उसे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब वह उनके साथ काम करता था। फ़ादर बड़े भाई की भूमिका में सदैव सहायता के लिए तत्पर रहते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि वह फ़ादर की बात कहां से शुरू करे। फ़ादर जब भी मिलते थे वे जोश में होते थे। उनमें प्यार और ममता कूट-कूट कर भरी हुई थी। किसी ने भी कभी उन्हें क्रोध में नहीं देखा था। फ़ादर बह बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे जब वे संन्यासी होकर भारत आ गए। उनका पूरा परिवार बेल्जियम के रैम्स चैपल में रहता था। भारत में रहते हुए वे अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल और अपनी माँ को प्राय: याद करते थे। वे अपने विषय में बताते थे कि उनकी माँ ने उनके बचपन में ही घोषणा कर दी थी कि यह लड़का हाथ से निकल गया है और उन्होंने अपनी माँ की बात पूरी कर दी। वे संन्यासी बनकर भारत के गिरजाघर में आ गए। आरंभ के दो साल उन्होंने धर्माचार की पढ़ाई की । 9- 10 साल तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। कलकत्ता से उन्होंने बी० ए० की पढ़ाई की। इलाहाबाद से एम०ए० किया था। उन्होंने अपना शोध कार्य प्रयाग विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग से सन् 1950 में पूरा किया था। उनके शोध कार्य का विषय-रामकथा: उत्पत्ति और विकास था। उन्होंने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लूबर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ नाम से रूपांतर किया। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। यहाँ रहकर उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेज़ी हिंदी कोश तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद भी किया। रांची में ही उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था।
फ़ादर बुल्के मन से नहीं अपितु संकल्प से संन्यासी थे। वे जिससे एक बार रिश्ता जोड़ लेते थे उसे कभी नहीं तोड़ते थे। दिल्ली आकर कभी वे बिना मिले नहीं जाते थे। मिलने के लिए सभी प्रकार की तकलीफों को सहन कर लेते थे। ऐसा कोई भी संन्यासी नहीं करता था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। वे हर सभा में हिंदी को सर्वोच्च भाषा बनाने की बात करते थे। वे उन लोगों पर झुंझलाते थे जो हिंदी भाषा वाले होते हुए भी हिंदी की उपेक्षा करते थे। उनका स्वभाव सभी लोगों की दु:ख-तकलीफों में उनका साथ देना था। उनके मुँह से सांत्वना के दो बोल जीवन में रोशनी भर देते थे। लेखक की जब पत्नी और पुत्र की मृत्यु हुई उस समय फ़ादर ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।’ लेखक को उनकी बीमारी का पता नहीं चला था। वह उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली पहुँचा था। वे चिरशांति की अवस्था में लेटे थे। उनकी मृत्यु 18 अगस्त, सन् 1982 को हुई। उन्हें कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके ताबूत के साथ रघुवंश जी, जैनेंद्र कुमार, डॉ० सत्य प्रकाश, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन, विजयेंद्र स्नातक और रघुवंश जी का बेटा आदि लोग थे। साथ में मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण थे। सभी दुःखी और उदास थे। उनका अंतिम संस्कार मसीही विधि से हुआ था। उनकी अंतिम यात्रा में रोने वालों की कमी नहीं थी। इस तरह एक छायादार, फल-फूल गंध से भरा वृक्ष हम सबसे अलग हो गया उनकी स्मृति जीवन भर यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह सबके मन में बनी रहेगी। लेखक उनकी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धा से नतमस्तक है।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi पाठ का सार ( Detailed Summary )
पार्ट-1
‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी हैं। उन्होंने बेल्जियम देश (यूरोप) में जन्मे फादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व और जीवन का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है। फादर बुल्के एक ईसाई संन्यासी थे लेकिन उनका व्यवहार कतई संन्यासी जैसा नहीं था। वे संन्यासी होते हुए भी लोगों के साथ मधुर संबंध रखते थे।
कभी-कभी लेखक को लगता है कि फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। मन से नहीं । क्योंकि वे एक बार जिससे रिश्ता बनाते, तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद भी उनकी गंध महसूस की जा सकती है। वे जब भी दिल्ली आते थे, तो मिलकर ही जाते थे। यह कौन संन्यासी करता है?
पार्ट-2
भारत को वे अपना देश मानते थे। फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था, जो गिरजों, पादरियों, धर्मगुरूओं और संतों की भूमि कही जाती है। लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि भारत को चुना ।
फ़ादर का बचपन और स्कूल की पढ़ाई रैम्सचैपल में ही हुई थी । उनके पिता एक बिजनेसमैन थे। उनका एक भाई पादरी था और दूसरा भाई माता-पिता के साथ घर में रहकर काम करता था। उनकी एक बहिन भी थी। जब उनसे पूछा जाता था कि तुमको अपने देश की याद आती है? तब वे कहते थे- अब भारत ही मेरा देश है ।
पार्ट-3
बुल्के ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर संन्यासी बनने का निर्णय लिया था। उन्होंने संन्यासी बनने पर भारत जाने की शर्त रखी थी और उनकी शर्त मान ली गई थी। फादर बुल्के भारत व भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित थे। इसीलिए उन्होंने यह शर्त रखी थी।
कामिल बुल्के संन्यासी बनने के बाद भारत आए। फिर यहीं के हो कर रह गए।
पार्ट-4
फादर बुल्के को अपनी मां से बहुत लगाव था । वे अक्सर उनको याद करते थे। उनकी मां उन्हें पत्र लिखती रहती थी, जिसके बारे में वह अपने मित्र डॉ. रघुवंश को बताते थे। भारत में आकर उन्होंने ‘जिसेट संघ’ में दो साल तक पादरियों के साथ रहकर धर्माचार(धर्म पालन) की पढ़ाई की। फिर 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। उसके बाद उन्होंने कोलकाता से बी.ए और इलाहाबाद से हिंदी में एम.ए की डिग्री प्राप्त की। और इसी के साथ ही उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950 में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ विषय में शोध (पी.एच.-डी) भी किया।
पार्ट-5
कामिल बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ के नाम से अनुवाद किया। बाद में वे ‘सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची’ में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष बने। यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश’ भी तैयार किया और बाइबिल का भी हिंदी में अनुवाद किया। इन्हीं कारणों से उनका हिंदी के प्रति गहरा प्रेम दिखाई देता है। और वहीं बीमार पड़े, पटना से दिल्ली गए।
दिल्ली में जहरबाद (एक तरह का फोड़ा) की बीमारी के कारण 73 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। वे भारत में लगभग 47 वर्षों तक जीवित रहे। इस बीच वो सिर्फ तीन या चार बार ही बेल्जियम गए थे। फादर बुल्के का लेखक से बहुत गहरा संबंध था। फादर बुल्के लेखक के परिवार के सदस्य जैसे थे। लेखक का परिचय फादर बुल्के से इलाहाबाद में हुआ था, जो जीवन पर्यंत रहा। लेखक फादर के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे।
पार्ट-6
लेखक के अनुसार फादर वात्सल्य (बड़ों का छोटों के प्रति प्रेम) व प्यार की साक्षात मूर्ति थे। वे हमेशा लोगों को अपने आशीष वचनों से भर देते थे। उनके हृदय में हर किसी के लिए प्रेम, दया व अपनेपन का भाव था। वह लोगों के दुख में शामिल होते और उन्हें अपने मधुर वचनों से सांत्वना देते थे। फादर की इच्छा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वह अक्सर हिंदी भाषियों की हिंदी के प्रति उपेक्षा देखकर दुखी हो जाते थे।
फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। लेखक उस वक्त भी दिल्ली में ही रहते थे। लेकिन उनको फादर की बीमारी का पता समय से न चल पाया, जिस कारण वह मृत्यु से पहले फादर बुल्के के दर्शन नहीं कर सके। इस बात का लेखक को गहरा अफ़सोस था ।
पार्ट-7
वह 18 अगस्त 1982 की सुबह 10 बजे कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी सी नीली गाड़ी में से कुछ पादरियों, रघुवंशीजी के बेटे, राजेश्वर सिंह द्वारा उतारा गया। फिर उस ताबूत को पेड़ों की घनी छाँव वाली सड़क से कब्र तक ले जाया गया। उसके बाद फादर बुल्के के मृत शरीर को धरती की गोद में सुला दिया। रांची के फादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से उनका अंतिम संस्कार किया और सबने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
उनके अंतिम संस्कार के वक्त वहां हजारों लोग इकट्ठे थे, जिन्होंने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि दी। इसके अलावा वहाँ जैनेन्द्र कुमार, विजेंद्र स्नातक, अजीत कुमार, डॉ निर्मला जैन, मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण, डॉक्टर सत्यप्रकाश और डॉक्टर रघुवंश भी उपस्थित थे।
पार्ट-8
लेखक कहता है, “मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा ।” लेकिन उस समय रोने वालों की कोई कमी नहीं थी । उस समय नम आँखों को गिनना स्याही फ़ैलाने जैसा है। लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीवन भर दूसरों को वात्सल्य व प्रेम का अमृत पिलाया। और जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उसकी मृत्यु जहरबाद से हुई। यह फादर के प्रति ऊपर वाले का घोर अन्याय है।
लेखक ने फादर की तुलना एक ऐसे छायादार वृक्ष से की है जिसके फल फूल सभी मीठी-मीठी सुगंध से भरे रहते हैं और जो अपनी शरण में आने वाले सभी लोगों को अपनी छाया से शीतलता प्रदान करता है।
पार्ट-9
ठीक उसी तरह फादर बुल्के भी हम सबके साथ रहते हुए, हम जैसे होकर भी, हम सब से बहुत अलग थे। प्राणी मात्र के लिए उनका प्रेम व वात्सल्य उनके व्यक्तित्व को मानवीय करुणा की दिव्य चमक से प्रकाशमान करता था।
लेखक के लिए उनकी स्मृति किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह है जो आजीवन बनी रहेगी। लेखक का मानना है कि जबतक राम कथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जायेगा और उन्हें हिंदी भाषा का प्रेमी माना जाएगा। आज फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है ।






