मानवीय करुणा की दिव्य चमक का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 13 | मानवीय करुणा की दिव्य चमक Summary | Quick revision Notes ch-13 Kshitij | EduGrown

 

manveya karuna ki divyachmak summary

लेखक परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इनक जन्म 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनकी उच्च शिक्षा इलाहबाद विश्वविधयालय से हुई।  अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर, दिनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। ये बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। सन 1983 में इनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मानवीय करुणा की दिव्य चमक का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 13 | मानवीय करुणा की दिव्य चमक  Summary | Quick revision Notes ch-13 Kshitij | EduGrown

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक ‘सर्वेश्वर दयाल सक्सेना’ हैं। यह पाठ एक संस्मरण है। लेखक ने इस पाठ में फ़ादर बुल्के से संबंधित स्मृतियों का वर्णन किया है। फ़ादर बुल्के ने अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल को छोड़कर भारत को अपनी कार्यभूमि बनाया। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष लगाव था।

फ़ादर की मृत्यु जहरबाद से हुई थी। उनके साथ ऐसा होना ईश्वर का अन्याय था। इसका कारण यह था कि वे सारी उम्र दूसरों को अमृत-सी मिठास देते रहे थे। उनका व्यक्तित्व ही नहीं अपितु स्वभाव भी साधुओं जैसा था। लेखक उन्हें पैंतीस सालों से जानता था। वे जहां भी रहे अपने प्रियजनों पर ममता लुटाते रहे थे। फ़ादर को याद करना, देखना और सुनना ये सब कुछ लेखक के मन में अजीब शांत-सी हलचल मचा देते थे। उसे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब वह उनके साथ काम करता था। फ़ादर बड़े भाई की भूमिका में सदैव सहायता के लिए तत्पर रहते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि वह फ़ादर की बात कहां से शुरू करे। फ़ादर जब भी मिलते थे वे जोश में होते थे। उनमें प्यार और ममता कूट-कूट कर भरी हुई थी। किसी ने भी कभी उन्हें क्रोध में नहीं देखा था। फ़ादर बह बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे जब वे संन्यासी होकर भारत आ गए। उनका पूरा परिवार बेल्जियम के रैम्स चैपल में रहता था। भारत में रहते हुए वे अपनी जन्मभूमि रैम्स चैपल और अपनी माँ को प्राय: याद करते थे। वे अपने विषय में बताते थे कि उनकी माँ ने उनके बचपन में ही घोषणा कर दी थी कि यह लड़का हाथ से निकल गया है और उन्होंने अपनी माँ की बात पूरी कर दी। वे संन्यासी बनकर भारत के गिरजाघर में आ गए। आरंभ के दो साल उन्होंने धर्माचार की पढ़ाई की । 9- 10 साल तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। कलकत्ता से उन्होंने बी० ए० की पढ़ाई की। इलाहाबाद से एम०ए० किया था। उन्होंने अपना शोध कार्य प्रयाग विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग से सन् 1950 में पूरा किया था। उनके शोध कार्य का विषय-रामकथा: उत्पत्ति और विकास था। उन्होंने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लूबर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ नाम से रूपांतर किया। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। यहाँ रहकर उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेज़ी हिंदी कोश तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद भी किया। रांची में ही उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था।

फ़ादर बुल्के मन से नहीं अपितु संकल्प से संन्यासी थे। वे जिससे एक बार रिश्ता जोड़ लेते थे उसे कभी नहीं तोड़ते थे। दिल्ली आकर कभी वे बिना मिले नहीं जाते थे। मिलने के लिए सभी प्रकार की तकलीफों को सहन कर लेते थे। ऐसा कोई भी संन्यासी नहीं करता था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। वे हर सभा में हिंदी को सर्वोच्च भाषा बनाने की बात करते थे। वे उन लोगों पर झुंझलाते थे जो हिंदी भाषा वाले होते हुए भी हिंदी की उपेक्षा करते थे। उनका स्वभाव सभी लोगों की दु:ख-तकलीफों में उनका साथ देना था। उनके मुँह से सांत्वना के दो बोल जीवन में रोशनी भर देते थे। लेखक की जब पत्नी और पुत्र की मृत्यु हुई उस समय फ़ादर ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।’ लेखक को उनकी बीमारी का पता नहीं चला था। वह उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली पहुँचा था। वे चिरशांति की अवस्था में लेटे थे। उनकी मृत्यु 18 अगस्त, सन् 1982 को हुई। उन्हें कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके ताबूत के साथ रघुवंश जी, जैनेंद्र कुमार, डॉ० सत्य प्रकाश, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन, विजयेंद्र स्नातक और रघुवंश जी का बेटा आदि लोग थे। साथ में मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण थे। सभी दुःखी और उदास थे। उनका अंतिम संस्कार मसीही विधि से हुआ था। उनकी अंतिम यात्रा में रोने वालों की कमी नहीं थी। इस तरह एक छायादार, फल-फूल गंध से भरा वृक्ष हम सबसे अलग हो गया उनकी स्मृति जीवन भर यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह सबके मन में बनी रहेगी। लेखक उनकी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धा से नतमस्तक है।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

पार्ट-1

‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी हैं। उन्होंने बेल्जियम देश (यूरोप) में जन्मे फादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व और जीवन का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है। फादर बुल्के एक ईसाई संन्यासी थे लेकिन उनका व्यवहार कतई  संन्यासी  जैसा नहीं था। वे संन्यासी होते हुए भी लोगों के साथ मधुर संबंध रखते थे।

          कभी-कभी लेखक को लगता है कि फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। मन से नहीं । क्योंकि वे एक बार जिससे रिश्ता बनाते, तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद भी उनकी गंध महसूस की जा सकती है। वे जब भी दिल्ली आते थे, तो मिलकर ही जाते थे। यह कौन संन्यासी करता है?


पार्ट-2           

भारत को वे अपना देश मानते थे। फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था, जो गिरजों, पादरियों, धर्मगुरूओं और संतों की भूमि कही जाती है। लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि भारत को चुना ।

               फ़ादर का बचपन और स्कूल की पढ़ाई रैम्सचैपल में ही हुई थी । उनके पिता एक बिजनेसमैन थे। उनका एक भाई पादरी था और दूसरा भाई माता-पिता के साथ घर में रहकर काम करता था। उनकी एक बहिन भी थी। जब उनसे पूछा जाता था कि तुमको अपने देश की याद आती है? तब वे कहते थे- अब भारत ही मेरा देश है ।


पार्ट-3       

बुल्के ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर संन्यासी बनने का निर्णय लिया था। उन्होंने संन्यासी बनने पर भारत जाने की शर्त रखी थी और उनकी शर्त मान ली गई थी। फादर बुल्के भारत व भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित थे। इसीलिए उन्होंने यह शर्त रखी थी।

          कामिल बुल्के संन्यासी बनने  के बाद भारत आए। फिर यहीं के हो कर रह गए।


पार्ट-4

फादर बुल्के को अपनी मां से बहुत लगाव था । वे अक्सर उनको याद करते थे। उनकी मां उन्हें पत्र लिखती रहती थी, जिसके बारे में वह अपने मित्र  डॉ. रघुवंश को बताते थे।  भारत में आकर उन्होंने ‘जिसेट संघ’ में दो साल तक पादरियों के साथ  रहकर धर्माचार(धर्म  पालन) की पढ़ाई की। फिर 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। उसके बाद उन्होंने कोलकाता से बी.ए और इलाहाबाद से हिंदी में एम.ए की डिग्री प्राप्त की। और इसी के साथ ही उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950 में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ विषय में शोध (पी.एच.-डी) भी किया।


पार्ट-5         

कामिल बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ के नाम से अनुवाद किया। बाद में वे ‘सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची’ में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष बने। यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश’ भी तैयार किया और बाइबिल का भी हिंदी में अनुवाद किया। इन्हीं कारणों से उनका हिंदी के प्रति गहरा प्रेम दिखाई देता है। और वहीं बीमार पड़े, पटना से दिल्ली गए।

               दिल्ली में जहरबाद (एक तरह का फोड़ा) की बीमारी के कारण 73 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। वे भारत में लगभग 47 वर्षों तक जीवित रहे।  इस बीच वो सिर्फ तीन या चार बार ही बेल्जियम गए थे। फादर बुल्के का लेखक से बहुत गहरा संबंध था। फादर बुल्के लेखक के परिवार के सदस्य जैसे थे। लेखक का परिचय फादर बुल्के से इलाहाबाद में हुआ था, जो जीवन पर्यंत रहा। लेखक फादर के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे।


पार्ट-6        

लेखक के अनुसार फादर वात्सल्य (बड़ों का छोटों के प्रति प्रेम) व प्यार की साक्षात मूर्ति थे। वे हमेशा लोगों को अपने आशीष वचनों  से भर देते थे। उनके हृदय में हर किसी के लिए प्रेम, दया व अपनेपन  का भाव था। वह लोगों के दुख में शामिल होते और उन्हें अपने मधुर वचनों से सांत्वना देते थे। फादर की इच्छा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वह अक्सर हिंदी भाषियों की हिंदी के प्रति उपेक्षा देखकर दुखी हो जाते थे।

          फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। लेखक उस वक्त भी दिल्ली में ही रहते थे। लेकिन उनको फादर की बीमारी का पता समय से न चल पाया, जिस कारण वह मृत्यु से पहले फादर बुल्के के दर्शन नहीं कर सके। इस बात का लेखक को गहरा अफ़सोस था ।


पार्ट-7             

वह 18 अगस्त 1982 की सुबह 10 बजे कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी सी नीली गाड़ी में से कुछ पादरियों, रघुवंशीजी के बेटे, राजेश्वर सिंह द्वारा उतारा गया। फिर उस ताबूत को पेड़ों की घनी छाँव वाली सड़क से कब्र तक ले जाया गया। उसके बाद फादर बुल्के के मृत शरीर को धरती की गोद में सुला दिया। रांची के फादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से उनका अंतिम संस्कार किया और  सबने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।

          उनके अंतिम संस्कार के वक्त वहां हजारों लोग इकट्ठे थे, जिन्होंने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि दी। इसके अलावा वहाँ जैनेन्द्र कुमार, विजेंद्र स्नातक, अजीत कुमार, डॉ निर्मला जैन, मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण, डॉक्टर सत्यप्रकाश और डॉक्टर रघुवंश भी उपस्थित थे।


पार्ट-8         

लेखक कहता है, “मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा ।”  लेकिन उस समय रोने वालों की कोई कमी नहीं थी । उस समय नम आँखों को गिनना स्याही फ़ैलाने जैसा है। लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीवन भर दूसरों को वात्सल्य व प्रेम का अमृत पिलाया। और  जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उसकी मृत्यु जहरबाद से हुई। यह फादर के प्रति ऊपर वाले का घोर अन्याय है।

               लेखक ने फादर की तुलना एक ऐसे छायादार वृक्ष से की है जिसके फल फूल सभी मीठी-मीठी सुगंध से भरे रहते हैं और जो अपनी शरण में आने वाले सभी लोगों को अपनी छाया से शीतलता प्रदान करता है।


पार्ट-9        

ठीक उसी तरह फादर बुल्के भी हम सबके साथ रहते हुए, हम जैसे होकर भी, हम सब से बहुत अलग थे। प्राणी मात्र के लिए उनका प्रेम व वात्सल्य उनके व्यक्तित्व को मानवीय करुणा की दिव्य चमक से प्रकाशमान करता था।

               लेखक के लिए उनकी स्मृति किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह है जो आजीवन बनी रहेगी। लेखक का मानना है कि जबतक राम कथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जायेगा और उन्हें हिंदी भाषा का प्रेमी माना जाएगा। आज फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है ।

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NCERT Solution –लखनवी अंदाज

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लखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

Dलखनवी अंदाज कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 12 | लखनवी अंदाज कविता  Summary | Quick revision Notes ch-12 Kshitij | EduGrown

 

lakhnavi andaaz class 10 summary

लेखक परिचय

यशपाल

इनका जन्म सन 1903 में पंजाब के फिरोजपुर छावनी में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा काँगड़ा में ग्रहण करने के बाद लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी.ए. किया। वहाँ इनका परिचय भगत सिंह और सुखदेव से हुआ। स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी धारा से जुड़ाव के कारण ये जेल भी गए। इनकी मृत्यु सन 1976 में हुई।

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 Lakhnavi Andaaz Short Summary : लखनवी अंदाज पाठ सार

लेखक को पास में ही कहीं जाना था। लेखक ने यह सोचकर सेकंड क्लास का टिकट लिया की उसमे भीड़ कम होती है, वे आराम से खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देखते हुए किसी नए कहानी के बारे में सोच सकेंगे। पैसेंजर ट्रेन खुलने को थी। लेखक दौड़कर एक डिब्बे में चढ़े परन्तु अनुमान के विपरीत उन्हें डिब्बा खाली नही मिला। डिब्बे में पहले से ही लखनऊ की नबाबी नस्ल के एक सज्जन पालथी मारे बैठे थे, उनके सामने दो ताजे चिकने खीरे तौलिये पर रखे थे। लेखक का अचानक चढ़ जाना उस सज्जन को अच्छा नही लगा। उन्होंने लेखक से मिलने में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। लेखक को लगा शायद नबाब ने सेकंड क्लास का टिकट इसलिए लिया है ताकि वे अकेले यात्रा कर सकें परन्तु अब उन्हें ये बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था की कोई सफेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफर करता देखे। उन्होंने शायद खीरा भी अकेले सफर में वक़्त काटने के लिए ख़रीदा होगा परन्तु अब किसी सफेदपोश के सामने खीरा कैसे खायें। नबाब साहब खिड़की से बाहर देख रहे थे परन्तु लगातार कनखियों से लेखक की ओर देख रहे थे।

अचानक ही नबाब साहब ने लेखक को सम्बोधित करते हुए खीरे का लुत्फ़ उठाने को कहा परन्तु लेखक ने शुक्रिया करते हुए मना कर दिया। नबाब ने बहुत ढंग से खीरे को धोकर छिले, काटे और उसमे जीरा, नमक-मिर्च बुरककर तौलिये पर सजाते हुए पुनः लेखक से खाने को कहा किन्तु वे एक बार मना कर चुके थे इसलिए आत्मसम्मान बनाये रखने के लिए दूसरी बार पेट ख़राब होने का बहाना बनाया। लेखक ने मन ही मन सोचा कि मियाँ रईस बनते हैं लेकिन लोगों की नजर से बच सकने के ख्याल में अपनी असलियत पर उतर आयें हैं। नबाब साहब खीरे की एक फाँक को उठाकर होठों तक ले गए, उसको सूँघा। खीरे की स्वाद का आनंद में उनकी पलकें मूँद गयीं। मुंह में आये पानी का घूँट गले से उतर गया, तब नबाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। इसी प्रकार एक-एक करके फाँक को उठाकर सूँघते और फेंकते गए। सारे फाँको को फेकने के बाद उन्होंने तौलिये से हाथ और होठों को पोछा। फिर गर्व से लेखक की ओर देखा और इस नायब इस्तेमाल से थककर लेट गए। लेखक ने सोचा की खीरा इस्तेमाल करने से क्या पेट भर सकता है तभी नबाब साहब ने डकार ले ली और बोले खीरा होता है लजीज पर पेट पर बोझ डाल देता है। यह सुनकर लेखक ने सोचा की जब खीरे के गंध से पेट भर जाने की डकार आ जाती है तो बिना विचार, घटना और पात्रों के इच्छा मात्र से नई कहानी बन सकती है।

 Lakhnavi Andaaz Detailed Summary : लखनवी अंदाज पाठ सार

पार्ट-1

    लखनवी अंदाज़ एक व्यंगात्मक कहानी है। इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है- ट्रेन चलने को तैयार थी। लेखक को कहीं दूर जाना नहीं था। इसलिए भीड़ से बचने और एकांत में बैठना चाहते थे। जिससे नई कहानी के बारे में सोच सकें । और  ट्रेन की खिड़की से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों को भी देख सकें । इसिलए  लोकल ट्रेन के सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया था ।


पार्ट-2

      गाड़ी छूट रही थी। इसीलिए लेखक  सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर थोडा दौड़कर चढ़ गए। जिस डिब्बे को वो खाली समझकर चढ़े थे। वहाँ पहले से ही एक लखनवी नवाब(सफ़ेद पोश) बहुत आराम से पालथी मारकर बैठे हुए थे। उनके सामने तौलिए पर दो ताजे खीरे रखे थे। लेखक के आने से उनको अच्छा नहीं लगा था। उनको देख नवाब साहब बिल्कुल भी खुश नहीं हुए क्योंकि उन्हें अपना एकांत भंग होता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने लेखक से बात करने में भी कोई रूचि नहीं दिखाई। लेखक जाकर उनके सामने वाली सीट पर बैठ जाता है।

पार्ट-3

लेखक का खाली बैठकर कल्पना करने की पुरानी आदत थी। इसलिए वो अपने आने से नवाब साहब को होने वाली असुविधा का अनुमान लगाने लगे। वे सोच रहे थे शायद नवाब साहब ने अकेले आराम से यात्रा करने की इच्छा से सेकंड क्लास का टिकट ले लिया होगा ।


पार्ट-4

      नवाब साहब को यह अच्छा नहीं लग रहा था कि कोई व्यक्ति उन्हें सेकंड क्लास में सफर करते देखे। उन्होंने अकेले सफर में समय काटने के लिए दो खीरे ख़रीदे होंगे। लेकिन अब किसी अंजान  व्यक्ति के सामने खीरा कैसे खाएँ ?

नवाब साहब ने गाड़ी की खिड़की से बाहर गौर से देखा।  और लेखक कनखियों (तिरछी नजरों से) से नवाब साहब की ओर देख रहे थे।


पार्ट-5

      फिर अचानक नवाब साहब ने लेखक से खीरा खाने के लिए पूछा। लेकिन लेखक ने नवाब साहब को शुक्रिया कहकर मना कर दिया। उसके बाद नवाब साहब ने दोनों खीरों को लिया और सीट के नीचे लोटा निकाला। और खिड़की के बाहर धोकर तौलिए से पोंछ लिया। जेब से चाकू निकालकर उनके सिर काट लेते हैं। फिर छील उनकी फाकें बनाकर तौलिए पर सजा लेते हैं। उसके बाद उनपर पिसा जीरा और लाल मिर्च मिला नमक डालते हैं। नमक पड़ते ही खीरों से पानी निकलने लगता है।


पार्ट-6

उसके बाद नवाब साहब एक बार लेखक से फिर खीरा खाने के लिए पूछते हैं। चूँकि वे पहले ही इनकार कर चुके थे। इसीलिए उन्होंने अपना आत्म सम्मान बचाने के लिए इस बार पेट खराब कहकर खीरा खाने से मना कर दिया। वैसे लेखक का खीरा खाने को मन तो कर रहा था।

उसके बाद नवाब साहब ने खीरे के टुकड़ों को देखा। फिर खिड़की के बाहर देख कर एक गहरी सांस ली। और उन्होंने खीरे की फाँकों (टुकड़े) को बारी -बारी से उठाकर होठों तक लाकर सूंघा। स्वाद के आनंद में नवाब साहब की पलकें मुंद गईं। उसके बाद नवाब साहब ने खीरे के उन टुकड़े को खिड़की से बाहर फेंक दिया।


पार्ट-7

     खीरे के सारे टुकड़ों को सूँघकर बाहर फेंकदिया । उसके  बाद उन्होंने आराम से तौलिए से हाथ और होंठों को पोछा।  बाद में  बड़े गर्व से लेखक की ओर गुलाबी आँखों से देखते हैं। और ऐसा लगता है जैसे लेखक से कहना चाह रहे हों-यह है खानदानी रईसों का तरीका!नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थक कर लेट जाते हैं। लेखक गौर कर रहे थे कि क्या ‘सिर्फ खीरे को सूंघकर ही पेट भरा जा सकता है?’ तभी नवाब साहब एक ऊँची डकार लेते हैं और लेखक से कहते हैं- खीरा लजीज होता है लेकिन पेट पर बोझ डाल देता है।


पार्ट-8

यह सुनकर लेखक के ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। उन्होंने सोचा कि जब खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से ही पेट भर कर डकार आ सकती है, तो बिना विचार, घटना और पात्रों के, लेखक की इच्छा मात्र से ‘नई कहानी‘ क्यों नहीं बन सकती अर्थात् लिखी जा सकती है?

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बालगोबिन भगतकविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 11 | बालगोबिन भगत कविता Summary | Quick revision Notes ch-11 Kshitij | EduGrown

बालगोबिन भगतकविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 11 | बालगोबिन भगत कविता  Summary | Quick revision Notes ch-11 Kshitij | EduGrown

लेखक परिचय

रामवृक्ष बेनीपुरी

इनका जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन 1889 में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण , आरम्भिक वर्ष अभावों-कठिनाइयों और संघर्षों में बीते। दसवीं तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रीय रूप से जुड़ गए। कई बार जेल भी गए।इनकी मृत्यु सन 1968 में हुई।

रामवृक्ष बेनीपुरी  | बालगोबिन भगतकविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 11 | बालगोबिन भगत कविता  Summary | Quick revision Notes ch-11 Kshitij | EduGrown

बालगोबिन भगत Balgobin Summary Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

बालगोबिन भगत मंझोले कद के गोर-चिट्टे आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से उपर थी और बाल पक गए थे। वे लम्बी ढाढ़ी नही रखते थे और कपडे बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों की सी कनफटी टोपी। सर्दियों में ऊपर से कम्बल ओढ़ लेते। वे गृहस्थ होते हुई भी सही मायनों में साधू थे। माथे पर रामानंदी चन्दन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहने रहते। उनका एक बेटा और पतोहू थे। वे कबीर को साहब मानते थे। किसी दूसरे की चीज़ नही छूटे और न बिना वजह झगड़ा करते। उनके पास खेती बाड़ी थी तथा साफ़-सुथरा मकान था। खेत से जो भी उपज होती, उसे पहले सिर पर लादकर कबीरपंथी मठ ले जाते और प्रसाद स्वरुप जो भी मिलता उसी से गुजर बसर करते।


वे कबीर के पद का बहुत मधुर गायन करते। आषाढ़ के दिनों में जब समूचा गाँव खेतों में काम कर रहा होता तब बालगोबिन पूरा शरीर कीचड़ में लपेटे खेत में रोपनी करते हुए अपने मधुर गानों को गाते। भादो की अंधियारी में उनकी खँजरी बजती थी, जब सारा संसार सोया होता तब उनका संगीत जागता था। कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जातीं। वे अहले सुबह नदी-स्नान को जाते और लौटकर पोखर के ऊँचे भिंडे पर अपनी खँजरी लेकर बैठ जाते और अपना गाना शुरू कर देते। गर्मियों में अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। उनकी संगीत साधना का चरमोत्कर्ष तब देखा गया जिस दिन उनका इकलौता बेटा मरा। बड़े शौक से उन्होंने अपने बेटे कि शादी करवाई थी, बहू भी बड़ी सुशील थी। उन्होंने मरे हुए बेटे को आँगन में चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढक रखा था तथा उसपर कुछ फूल बिखरा पड़ा था। सामने बालगोबिन ज़मीन पर आसन जमाये गीत गाये जा रहे थे और बहू को रोने के बजाये उत्सव मनाने को कह रहे थे चूँकि उनके अनुसार आत्मा परमात्मा पास चली गयी है, ये आनंद की बात है। उन्होंने बेटे की चिता को आग भी बहू से दिलवाई। जैसे ही श्राद्ध की अवधि पूरी हुई, बहू के भाई को बुलाकर उसके दूसरा विवाह करने का आदेश दिया। बहू जाना नही चाहती थी, साथ रह उनकी सेवा करना चाहती थी परन्तु बालगोबिन के आगे उनकी एक ना चली उन्होंने दलील अगर वो नही गयी तो वे घर छोड़कर चले जायेंगे।

बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनके अनुरूप ही हुई। वे हर वर्ष गंगा स्नान को जाते। गंगा तीस कोस दूर पड़ती थी फिर भी वे पैदल ही जाते। घर से खाकर निकलते तथा वापस आकर खाते थे, बाकी दिन उपवास पर। किन्तु अब उनका शरीर बूढ़ा हो चूका था। इस बार लौटे तो तबीयत ख़राब हो चुकी थी किन्तु वी नेम-व्रत छोड़ने वाले ना थे, वही पुरानी दिनचर्या शुरू कर दी, लोगों ने मन किया परन्तु वे टस से मस ना हुए। एक दिन अंध्या में गाना गया परन्तु भोर में किसी ने गीत नही सुना, जाकर देखा तो पता चला बालगोबिन भगत नही रहे।

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NCERT Solution –बालगोबिन भगत

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नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

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लेखक परिचय

स्वंय प्रकाश

इनका जन्म सन 1947 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढाई कर एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वंय प्रकाश का बचपन और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बिता। फिलहाल वे स्वैछिक सेवानिवृत के बाद भोपाल में रहते हैं और वसुधा सम्पादन से जुड़े हैं।

स्वंय प्रकाश नेताजी का चश्मा कविता का सार | Kshitij Hindi Class 10th | पाठ 10 | नेताजी का चश्मा कविता  Summary | Quick revision Notes ch-10 Kshitij | EduGrown

नेताजी का चश्मा Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Short Summary )

एक कंपनी में कार्यरत एक साहब अक्सर अपनी कंपनी के काम से बाहर जाते थे | हालदार साहब एक कस्बे से होकर गुजरते थे | वह क़स्बा बहुत ही छोटा था| कहने भर के लिए बाज़ार और पक्के मकान थे| लड़कों और लड़कियों का अलग अलग स्कूल था | मुख्य बाज़ार के मुख्य चौराहे पर नेताजी की मूर्ति थी | मूर्ति कामचलाऊ थी पर कोशिश सराहनीय थी | संगमरमर की मूर्ति थी पर उसपर चश्मा असली था | चौकोर और चौड़ा सा काला रंग का चश्मा | फिर एक बार गुजरते हुए देखा तो पतले तार का गोल चश्मा था | जब भी हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते तो मुख्य चौराहे पर रूककर पान जरुर खाते और नेताजी की मूर्ति पर बदलते चश्मे को देखते | एक बार पानवाले से पूछा की ऐसा क्यों होता है तो पानवाले ने बताया की ऐसा कैप्टेन चश्मे वाला करता है | जब भी कोई ग्राहक आटा और उसे वही चश्मा चाहिए तो वो मूर्ति से निकलकर बेच देता और उसकी जगह दूसरा फ्रेम लगा देता | पानवाले ने बताया की जुगाड़ पर कस्बे के मास्टर साहब से बनवाया वह मूर्ति, मास्टर साहब चश्मा बनाना भूल गए थे | और पूछने पर पता चला की चश्मे वाले का कोई दूकान नहीं था बल्कि वो बस एक मरियल सा बूढा था जो बांस पर चश्मे की फेरी लगाता था | जिस मजाक से पानवाले ने उसके बारे में बताया हालदार साहब को अच्छा न लगा और उन्होंने फैसला किया दो साल तक साहब वहां से गुजरते रहे और नेताजी के बदलते चश्मे को देखते रहे | कभी काला कभी लाल, कभी गोल कभी चौकोर, कभी धूप वाला कभी कांच वाला | एक बार हालदार साहब ने देखा की नेताजी की मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं है |  पान वाले ने उदास होकर नम आँखों से बताया की कैप्टन मर गया | वो पहले ही समझ चुके थे की वह चश्मे वाला एक फ़ौजी था और नेताजी को उनके चश्मे के बगैर देख कर आहत हो जाता होगा | अपने जी चश्मों में से एक चश्मा उन्हें पहना देता और जब भी कोई ग्राहक उसकी मांग करते तो उन्हें वह नेताजी से माफ़ी मांग कर ले जाता और उसकी जगह दूसरा सबसे बढ़िया चश्मा उन्हें पहना जाता होगा | और  उन्हें याद आया की पानवाले से हस्ते हुए उसे लंगड़ा पागल बताया था | उसके मरने की बात उनके दिल पर चोट कर गयी और उन्होंने फिर कभी वहां से गुजरते वक़्त न रुकने का फैसला किया | पर हर बार नज़र नेताजी की मूर्ति पर जरुर पड़ जाती थी | एक बार वो यह देख कर दंग रह गये की नेताजी की मूर्ति पर चश्मा चढ़ा है | जाकर ध्यान से देखा तो बच्चो द्वारा बनाया एक चश्मा उनकी आँखों पर चढ़ा था | इस कहानी से यह बताने की कोशिश की गयी है की हम देश के लिए कुर्बानी देने वाले जवानों की कोई इज्जत नहीं करते| उनके भावनाओं की खिल्ली उड़ा देते और न ही हमारे स्वतंत्रता के लिए जान लगाने वाले महान लोगों की इज्ज़त करते हैं | पर बच्चों ने कैप्टन की भावनाओं को समझा और नेताजी की आँखों को सुना न होने दिया |

नेताजी का चश्मा Class 10 Hindi  पाठ का सार ( Detailed Summary )

पाठ का सार पार्ट-1 

कहानी कुछ इस प्रकार है कि हालदार साहब हर पन्द्रहवें दिन कंपनी के काम से एक छोटे से कस्बे से निकलते थे। उस कस्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का कारखाना, दो ओपन सिनेमा तथा एक नगरपालिका थी। नगरपालिका थी तो कुछ ना कुछ करती रहती थी, कभी सड़के पक्की करवाने का काम तो कभी शौचालय तो कभी कवि सम्मलेन करवा दिया।


पाठ का सार पार्ट-2

  एक बार नगरपालिका के एक उत्साही अधिकारी ने मुख्य बाजार के चौराहे पर सुभाषचंद्र बोस की संगमरमर की मूर्ति लगवा दी। चूँकि बजट अधिक नहीं था इसलिए मूर्ति बनाने का काम कस्बे के एक ड्राइंग मास्टर को दे दिया जाता है। मूर्ति सुंदर बनी थी। लेकिन उसमें एक कमी थी। नेताजी की आँखों में चश्मा नहीं था। किसी ने मूर्ति को रियल का एक काला चश्मा पहना दिया था। जब हालदार साहब आए तो वे देखकर बोले, वाह भई ! क्या आइडिया है। मूर्ति पत्थर का और चश्मा रियल का। दूसरी बार जब हालदार साहब आए तो उन्होंने मूर्ति पर तार से बना गोल फ्रेम वाला चश्मा लगा देखा।


पाठ का सार पार्ट-3 

          तीसरी बार फिर उन्होंने नया चश्मा देखा। इस बार उन्होंने पानवाले से पूछ लिया कि नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है? उसने बताया- यह काम कैप्टन चाश्मेंवाला करता है। हालदार तुरंत समझ गए कि बिना चश्में वाली मूर्ति कैप्टन को अच्छी नहीं लगती होगी इसलिए वह अपनी ओर से चश्मा लगा देता होगा है। जब कोई ग्राहक वैसे ही फ्रेम वाले चश्में की माँग करता होगा जैसा मूर्ति पर लगा है तो वह मूर्ति से उतारकर दे देता होगा और मूर्ति पर फिर से नया फ्रेमवाला चश्मा लगा देता होगा।


पाठ का सार पार्ट-4 

  हालदार साहब ने पानवाले से यह भी पूछा कि कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है क्या? या आजाद हिन्द फ़ौज का कोई भूतपूर्व सिपाहीपानवाला बोला कि वह लंगड़ा क्या फ़ौज में जाएगावह तो पागल हैपागल! हालदार साहब को एक  देशभक्त का इस तरह से मजाक उड़ाना  अच्छा नहीं लगा। जब उन्होंने कैप्टन को देखा तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि कैप्टन एक बूढ़ामरियल तथा लंगड़ा (दिव्यांग) सा आदमी था। उसके सिर पर गाँधी टोपी और गोला चश्मा था। वह एक हाथ में छोटी – सी संदूकची और दूसरे हाथ में चश्मों वाला बांस लिए था। 


पाठ का सार पार्ट-5 

         दो साल के भीतर हालदार साहब ने नेताजी की मूर्ति पर कई चश्मे बदलते हुए देखे। एक बार जब हालदार साहब पुनः कस्बे से गुजरे तो उनको मूर्ति पर किसी प्रकार का चश्मा नहीं दिखाई दिया। कारण पूछने पर पानवाले ने बताया कि कैप्टन मर चुका है। जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ। पंद्रह दिन बाद जब वे कस्बे से गुजरे तो उन्होंने ड्राइवर से कहा पान कहीं आगे खा लेंगे। मूर्ति की ओर भी नहीं देखेंगे।


पाठ का सार पार्ट-6 

       परन्तु आदत से मजबूर हालदार साहब की नजर चौराहे पर आते ही आँखे मूर्ति की ओर उठ जाती हैं। वे गाड़ी से उतर कर मूर्ति के सामने सावधानी से खड़े हो जाते हैं। मूर्ति पर बच्चों द्वारा बना एक सरकंडे का छोटा-सा चश्मा लगा हुआ था। सरकंडे का चश्मा देखकर उनकी आखें नम हो जाती हैं। वे भावुक हो गए।

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NCERT Solution –नेताजी का चश्मा

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