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Class 12 Hindi श्रवण एवं वाचन
भाषा का मौखिक प्रयोग ही भाषा का मूल रूप है। इसलिए बोलचाल को ही भाषा का वास्तविक रूप माना जाता है। मानव जीवन में लिखित भाषा की अपेक्षा मौखिक भाषा ही अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि हम अपने दैनिक जीवन के अधिकांश कार्य मौखिक भाषा द्वारा ही संपन्न करते हैं। हास-परिहास, वार्तालाप, विचार-विमर्श, भाषण, प्रवचन आदि कार्यों में मौखिक भाषा का उपयोग स्वयंसिद्ध है। सार्वजनिक जीवन में मौखिक अभिव्यक्ति का विशेष महत्त्व है। जो वक्ता मौखिक अभिव्यक्ति में अधिक कुशल होता है, वह श्रोताओं को अधिक प्रभावित करता है तथा अपना लक्ष्य सिद्ध कर लेता है।
सामाजिक संवाद में कुशल बनने के लिए प्रयोग और अभ्यास भी अनिवार्य है। बिना अभ्यास के आत्म-विश्वास डगमगाने लगता है। यह आवश्यक नहीं है कि अभ्यास के लिए स्थिति सामने लाई जाए क्योंकि शादी, मृत्यु आदि का अवसर कक्षा में नहीं लाया जा सकता। अतः छात्रों को अध्यापक की सहायता से काल्पनिक स्थिति बनाकर अभ्यास करना चाहिए।
(क) मानक उच्चारण के साथ शुद्ध भाषा का प्रयोग।
(ख) व्यावहारिक भाषा का प्रयोग।
(ग) विनीत और स्पष्ट भाषा का प्रयोग।
(घ) विषयानुरूप प्रभावपूर्ण भाषा का प्रयोग।
मौखिक अभिव्यक्ति के अनेक रूप हैं; जैसे-
- कविता पाठ
- कहानी कहना
- भाषण
- समाचार वाचन
- साक्षात्कार लेना व देना
- वर्णन करना
- वाद-विवाद
- परिचर्चा
- उद्घोषणा
- बधाई देना
- धन्यवाद
- संवेदना प्रकट करना
- आस-पड़ोस में संपर्क
- अतिथि का स्वागत।
कुछ महत्त्वपूर्ण रूपों पर यहाँ प्रकाश डाला जा रहा है-
1 कविता सुनाना
कविता सुनाना भी अपने-आप में एक कला है। यह कला कुछ लोगों में जन्म से पाई जाती है तो कुछ इसे अभ्यास द्वारा सीख सकते हैं। कवि सम्मेलनों में जाने तथा कवियों के सान्निध्य से कविता पाठ सुनकर अभ्यास किया जाए तो सीखने का कार्य सरल हो जाता है। कविता पाठ में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-
- सर्वप्रथम ऐसी कविता का चयन करें जो अपनी रुचि के अनुसार हो, जिसे आप अपने हृदय से पसंद करते हों, क्योंकि ऐसी कविता में ही आप उन भावों को भर सकते हैं, जो आपके दिल से निकलते हैं।
- कविता को पूर्णत: कठस्थ कर लें। कंठस्थ कविता से ही लय बनती है।
- उस कविता का बार-बार अभ्यास करें।
- कंठस्थ कविता को नज़दीकी लोगों को सुनायें।
- एकांत कमरे में शीशे के सामने खड़े होकर अपने हाव-भाव को कविता की प्रवृत्ति के अनुसार बनायें।
- जो शब्द या वाक्य आपके प्रवाह में बाधक हों, उन्हें बदल कर उनके स्थान पर पर्यायवाची रख दें।
- शब्द परिवर्तन से कविता के अर्थ में परिवर्तन नहीं आना चाहिए।
- उच्चारण पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
- कविता सुनाते समय मुक्त कंठ से कविता का उच्चारण करें।
- श्रोता की रुचि व आराम का विशेष ध्यान रखें।
- श्रोताओं के हाव-भाव पढ़ने का प्रयत्न करें।
- भावों के अनुसार स्वरों में उतार-चढ़ाव होना भी आवश्यक है। हास्य, व्यंग्य व करुणा के भावों के अनुसार वाणी का उतार चढ़ाव अधिक प्रभावशाली बन जाता है।
- कविता रुक-रुक कर सुनाई जानी चाहिए, ताकि श्रोतागण उसका पूरा आनंद ले सकें।
- श्रोतागण के आनंद को उनके द्वारा दी गई दाद/तालियों से समझा जा सकता है। ऐसे अवसरों पर कविता की उस पंक्ति को दोबारा दोहराया जाना चाहिए।
- जिन पंक्तियों पर आप श्रोता का ध्यान आकर्षित करना चाहते हों, उन पंक्तियों को दोहराना चाहिए।
- कविता को गाकर भी सुनाया जा सकता है।
- कविता का चयन अवसरानुकूल होना चाहिए।
- कविता को भावपूर्ण हृदय से सुनाकर श्रोतागण को भाव-विभोर करना ही श्रेष्ठ कविता का वाचन होता है।
- अवसरानुकूल कविता की प्रस्तुति से श्रोताओं का भाव-विभोर हो जाना निश्चित है, क्योंकि हृदय से निकली आवाज मन को अवश्य बाँधती है।
अभ्यास प्रश्न
1. निम्नलिखित कविताओं का कक्षा में प्रभावशाली ढंग से वाचन कीजिए-
(1) झाँसी की रानी की समाधि पर
इस समाधि में छिपी हुई है
एक राख की ढेरी।
जलकर जिसने स्वतंत्रता की
दिव्य आरती फेरी॥
यह समाधि, यह लघु समाधि है
झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है
लक्ष्मी मर्दानी की॥
यहीं कहीं पर बिखर गई वह
भग्न विजय-माला-सी।
उसके फूल यहाँ संचित हैं
है यह स्मृति-शाला-सी॥
वार पर वार अंत तक
लड़ी वीर बाला-सी।
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर
चमक उठी ज्वाला-सी॥
बढ़ जाता है मान वीर का
रण में बलि होने से।
मूल्यवती होती सोने की
भस्म यथा सोने से॥
रानी से भी अधिक हमें अब
यह समाधि है प्यारी।
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की
आशा की चिनगारी॥
इससे भी सुंदर समाधियाँ
हम जग में हैं पाते।
उनकी गाथा पर निशीथ में
क्षुद्र जंतु ही गाते॥
पर कवियों की अमर गिरा में
इसकी अमिट कहानी।
स्नेह और श्रद्धा से गाती
है वीरों की बानी॥ सहे
बुंदेले हरबोलों के मुख
हमने सुनी कहानी।
खूब लड़ी मर्दानी वह थी
झाँसी वाली रानी॥
यह समाधि, यह चिर समाधि
है झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है
लक्ष्मी मर्दानी की॥
-सुभद्रा कुमारी चौहान
(2) निज रक्षा का अधिकार रहे जन-जन को,
सबकी सुविधा का भार किंतु शासन को।
मैं आर्यों का आदर्श बताने आया।
जन-सम्मुख धन को तुच्छ जताने आया।
सुख-शांति-हेतु मैं क्रांति मचाने आया,
विश्वासी का विश्वास बचाने आया,
मैं आया उनके हेतु कि जो तापित हैं,
जो विवश, विकल, बल-हीन, दीन शापित हैं।
हो जाएँ अभय वे जिन्हें कि भय भासित हैं,
जो कौणप-कुल से मूक-सदृश शासित हैं।
मैं आया, जिसमें बनी रहे मर्यादा,
बच जाय प्रबल से, मिटे न जीवन सादा।
सुख देने आया, दुःख झेलने आया,
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया
मैं मनुष्यत्व का नाट्य खेलने आया।
मैं यहाँ एक अवलंब छोड़ने आया,
गढ़ने आया हूँ, नहीं तोड़ने आया।
मैं यहाँ जोड़ने नहीं, बाँटने आया,
जगदुपवन में झंखाड़ छाँटने आया।
मैं राज्य भोगने नहीं, भुगाने आया।
हंसों को मुक्ता-मुक्ति चुगाने आया,
भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया।
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।
अथवा आकर्षण पुण्यभूमि का ऐसा,
अवतरित हुआ मैं, आप उच्च फल जैसा।
-मैथिलीशरण गुप्त
2. कहानी कहना
कहानी कहना या सुनाना भी एक कला है। एक अच्छा कहानी लिखने वाला अच्छा कहानी सुनाने वाला भी हो, यह आवश्यक नहीं। यह कला अभ्यास के द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
विद्यार्थियों को यदि इस कला से अवगत कराया जाए तो उनमें इस गुण का विकास किया जा सकता है। एक अच्छे कहानीकार में निम्नलिखित गुणों का होना अत्यंत आवश्यक होता है-
1. जिस कहानी को सुनाना हो उसका सार कहानी सुनाने वाले के दिमाग में बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए।
2. उसे सारी घटनाएँ याद होनी चाहिए जिससे वह कहानी को उलट-पलट कर न सुना दे। क्योंकि ऐसा होने पर कहानी का रस ही समाप्त हो जाता है।
3. कहानी सुनाते समय कहानी के पात्रों, तिथियों, स्थानों का नाम पूर्ण रूपेण याद होना चाहिए। केवल अनुमान लगाकर सुनाई गई कहानी अपनी वास्तविकता खो देती है।
4. भाषा और संवाद भी कहानी की जान होते हैं। भाषा का स्तर उम्र, बौद्धिक स्तर आदि के अनुकूल होने पर ही कहानी प्रभावशाली बन पाती है। संवादों में बचपना या परिपक्वता सामने बैठे श्रोतागण के अनुसार होने पर ही कहानी में रुचि जाग्रत हो सकती है।
5. कहानी को रोचक बनाने के लिए संवाद व वर्णन-दोनों का उचित मात्रा में प्रयोग किया जाना चाहिए। जिस प्रकार भोजन में उचित मात्रा में तेल, मसाले आदि डाले जाएँ तो भोजन रुचिकर बनता है ठीक उसी प्रकार संवाद और वर्णन का सही मेल ही कहानी में जान डाल सकता है।
6. कहानी सुनाते समय श्रोता के हाव-भाव को पढ़ना भी कहानीकार का मुख्य कार्य होता है, क्योंकि श्रोता की रुचि और अरुचि का पता उनके हाव-भाव से लगाकर अपनी कहानी को अधिक रोचक या सरल बनाकर सुनाने पर ही श्रोता की वाह-वाही लूटी जा सकती है।
7. कहानी सुनाने वाले की आवाज़ में एक विशिष्ट आकर्षण होना भी अत्यंत आवश्यक होता है। कहानीकार की आवाज़ का केवल मधुर होना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि उसका बुलंद होना भी जरूरी होता है। यदि आखिरी पंक्ति में बैठा श्रोता उसकी आवाज़ नहीं सुन पा रहा है तो वह कहानी उसके लिए रुचिकर कैसे हो सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कहानी सुनाने वाला चिल्ला-चिल्लाकर कहानी सुनाए। ऐसा करने पर श्रोतागण के सिर में दर्द भी हो सकता है और अरुचिवश वे वहाँ से उठकर भी जा सकते हैं।
8. कहानी को रोचक बनाने के लिए अच्छे मुहावरों व सूक्तियों के द्वारा भाषा को लच्छेदार बनाना भी आवश्यक होता है। सीधी, सरल भाषा ज्यादा देर तक श्रोताओं को नहीं बाँध सकती है।
9. लच्छेदार भाषा के साथ कहानी कहने वाले की आवाज़ में उतार-चढ़ाव होना भी अत्यंत आवश्यक होता है। आवाज़ का जादू अच्छे-अच्छों के होश उड़ा देता है। एक-सी आवाज़ में कही गई कहानी श्रोता को बाँधने में असफल होती है। लेकिन आवाज़ में उतार-चढ़ाव आवश्यकता के अनुसार ही होना चाहिए अन्यथा अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती। 406
10. जोश और उत्साह की बात बताते समय चेहरे की प्रसन्नता तथा आवाज़ की बुलंदी तथा दुख भरी घटना सुनाते समय भाव-विभोर हो मंद आवाज़ में कही गई बात सीधी श्रोता के दिल में उतर जाती है।
11. भाव-विभोर होकर कहानी सुनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि आपकी आवाज़ सामने बैठे श्रोताओं की आखिरी पंक्ति तक पहुँचनी चाहिए।
12. कहानी की रोचकता को बनाये रखने के लिए जिज्ञासा का बना रहना अत्यंत ज़रूरी है। श्रोता के मन में यदि हर पल यह जिज्ञासा बनी रहे कि अब आगे क्या होगा तो कहानी सुनने का आनंद दुगुना हो जाता है। कहानी सुनाने वाले के द्वारा इस जिज्ञासा को बनाए रखना अति आवश्यक होता है।
13. कहानी बहुत अधिक लंबी नहीं होनी चाहिए अन्यथा श्रोता बोरियत का अनुभव करने लगते हं।
14. कहानी किसी उद्देश्य से परिपूर्ण हो यह भी अति आवश्यक है। निश्चित निष्कर्ष को लेकर सुनाई गई कहानी अधिक रुचिकर होती है।
15. कहानी में हास्य-व्यंग्य का पुट होना चाहिए।
16. कहानी में मार्मिक संवाद अनिवार्य है।
अभ्यास प्रश्न
1. निम्नलिखित कहानियों को कक्षा में रोचक ढंग से सुनाइए
1. एक बार राजा भोज को सपने में व्यक्ति का रूप धारण कर स्वयं ‘सत्य’ ने दर्शन दिए। राजा के पूछने पर सत्य ने बताया “मैं सत्य हूँ जो अंधों की आँखें खोलता हूँ और मृग-तृष्णा में भटके हुओं का भ्रम मिटाता हूँ। यदि तुझमें साहस है तो मेरे साथ चल मैं तेरे भी मन की जाँच कर लूँ।” चूँकि राजा भोज को अपने सत्कर्मों का बहुत अहंकार था इसलिए वह तुरंत ही इसके लिए सहमत हो गया। सत्य उसे अपने साथ मंदिर के उस ऊँचे दरवाजे पर ले गया, जहाँ से एक सुंदर बाग दिखाई देता था।
उस बाग में तीन पेड़ लगे हुए थे। सत्य ने राजा से पूछा ‘क्या तुम बता सकते हो कि ये पेड़ किसके हैं?’ राजा ने प्रसन्नता से भरकर उत्तर दिया – “ये तीनों ही पेड़ मेरे पुण्य कर्म का प्रतिफल हैं। लाल-लाल फलों से लदा हुआ पेड़ मेरे दान का है। पीले फल मेरे न्याय और सफ़ेद फल मेरे तप का प्रभाव दिखलाते हैं।” सत्य ने राजा से कहा, “चल, उन पेड़ों के पास चलकर छूकर देखते हैं।” सत्य ने जैसे ही पहले वृक्ष को छुआ तो क्या देखता है कि सारे फल उसी तरह पृथ्वी पर गिरे जिस प्रकार आसमान से ओले गिरते हैं।
दूसरे पेड़ों को भी छूने पर वही हाल हुआ जो प्रथम का हुआ था। राजा की आँखें नीची हो गईं और उसने सत्य से इसका कारण पूछा। सत्य ने कहा “प्रथम पेड़ के फल इसलिए गिर गये क्योंकि तूने जो कुछ भी किया वह ईश्वर की भक्ति या जीवों के प्रेम से वशीभूत होकर नहीं किया। तूने अपने आपको भुलाने और मिथ्या प्रशंसा पाने के लिए यह सब किया था।” पीले फलों से युक्त पेड़ के संदर्भ में सत्य ने कहा, “जिस न्याय की तू बात करता है वह न्याय तूने मात्र अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किया है।
तू अच्छी तरह से जानता है कि न्याय किसी राज्य की जड़ है और जिस राज्य में न्याय नहीं, वह तो बे-नींव का घर है, जो बुढ़िया के दाँतों की तरह हिलता है, अब गिरा, तब गिरा।” सफ़ेद फल जो कि राजा के अनुसार उसके तप के फल थे के बारे में सत्य ने कहा, “ये फल तप ने नहीं, बल्कि अहंकार ने लगा रखे थे। तेरी ईश्वर की भक्ति, जीवों के प्रति दया, वंदना, विनती सभी इसलिए की गई थी – मानों ईश्वर तुम्हारे बहकावे में आकर स्वर्ग का राजा बना दे।
“अंत में, सत्य ने कहा “मनुष्य तो केवल कर्मों के अनुसार दूसरे मनुष्य की भावना का विचार करता है और ईश्वर मनुष्य के मन की भावना के अनुसार उसके कर्मों का हिसाब लेता है। अतः इन पेड़ों के फल उसी व्यक्ति के हिस्से में आते हैं जो शुद्ध हृदय, निष्कपट, निरहंकार होकर अपना कर्तव्य समझते हुए अपना कार्य करता है। ईश्वर. उसी का निवेदन स्वीकार करते हैं जो नम्रता और श्रद्धा के साथ सच्चे मन से प्रार्थना करता है।”
2. एक बार मंथरक नाम के जुलाहे के सब उपकरण, जो कपड़ा बुनने के काम आते थे, टूट गए। उपकरणों को फिर से बनाने के लिए लकड़ी की ज़रूरत थी। लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी लेकर वह समुद्र तट पर स्थित वन की ओर चल दिया। समुद्र के किनारे पहुँचकर उसने एक वृक्ष देखा और सोचा कि इसकी लकड़ी से उसके सब उपकरण बन जाएँगे। यह सोचकर वह वृक्ष के तने में कुल्हाड़ी मारने को ही था कि वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक देव ने उससे कहा – “मैं वृक्ष पर सुख से रहता हूँ और समुद्र की शीतल हवा का आनंद लेता हूँ! तुम्हें वृक्ष को काटना उचित नहीं, दूसरे के सुख को छीनने वाला कभी सुखी नहीं होता
जुलाहे ने कहा – “मैं भी लाचार हूँ। लकड़ी के बिना मेरे उपकरण नहीं बनेंगे, कपड़ा नहीं बुना जाएगा, जिससे मेरे कुटुंबी मर जाएंगे। इसलिए अच्छा यही है कि तुम किसी और वृक्ष का आश्रय लो, मैं इस वृक्ष की शाखाएँ काटने को विवश हूँ।
देव ने कहा – “मंथरक! मैं तुम्हारे उत्तर से प्रसन्न हूँ। तुम कोई भी एक वर माँग लो, मैं उसे पूरा करूँगा। केवल इस वृक्ष को मत काटो।
मंथरक बोला – “यदि यही बात है तो मुझे कुछ देर का अवकाश दो। मैं अभी घर जाकर अपनी पत्नी से और मित्र से सलाह करके तुमसे वर मागूंगा।
देव ने कहा – “मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।
गाँव पहुँचने के बाद मंथरक की भेंट अपने एक मित्र नाई से हो गई। उसने उससे पूछा – “मित्र! एक देव मुझे वरदान दे रहा है। मैं तुमसे पूछने आया हूँ कि कौन-सा वरदान माँगा जाए?
नाई ने कहा – “यदि ऐसा है तो राज्य माँग ले। मैं तेरा मंत्री बन जाऊँगा, हम सुख से रहेंगे।”
तब मंथरक ने अपनी पत्नी से सलाह लेने के बाद वरदान का निश्चय लेने की बात नाई से कही। नाई ने स्त्रियों के साथ ऐसी मंत्रणा करना नीति विरुद्ध बतलाया। उसने सम्मति दी कि स्त्रियाँ प्रायः स्वार्थ-परायण होती हैं। अपने सुख-साधन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी सूझ नहीं सकता। अपने पुत्र को भी जब वे प्यार करती हैं, तो भविष्य में उसके द्वारा सुख की कामनाओं से ही करती हैं। मंथरक ने फिर भी पत्नी से सलाह लिए बिना कुछ भी न करने का विचार प्रकट किया। घर पहुँचकर वह पत्नी से बोला – “आज मुझे एक देव मिला है वह एक वरदान देने को उद्यत है। नाई की सलाह है कि राज्य माँग लिया जाए। तू बता कि कौन-सी चीज़ माँगी जाए?
पत्नी ने उत्तर दिया – “राज्य-शासन का काम बहुत कष्टप्रद है। संधि-विग्रह आदि से ही राजा को अवकाश नहीं मिलता। राजमुकुट प्रायः कांटों का ताज होता है। ऐसे राज्य से क्या लाभ जो सुख न दे!
मंथरक ने कहा – “प्रिये! तुम्हारी बात सच है। किंतु प्रश्न यह है कि राज्य न माँगा जाए तो क्या माँगा जाए?
मंथरक की पत्नी ने उत्तर दिया – “तुम अकेले दो हाथों से जितना कपड़ा बुनते हो उसमें भी हमारा व्यय पूरा हो जाता है। यदि तुम्हारे हाथ दो की जगह चार हों और सिर भी एक की जगह दो हों तो कितना अच्छा हो। तब हमारे पास आज की अपेक्षा दुगुना कपड़ा हो जाएगा। इससे समाज में हमारा मान बढ़ेगा।”
मंथरक को पत्नी की बात जंच गई। समुद्र-तट पर जाकर वह देव से बोला – “यदि आप वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दें कि मैं चार हाथ और दो सिर वाला हो जाऊँ।”
मंथरक के कहने के साथ ही उसका मनोरथ पूरा हो गया। उसके दो सिर और चार हाथ हो गए, किंतु इस बदली हालत में वह गाँव में आया तो लोगों ने उसे राक्षस समझ लिया और राक्षस-राक्षस कहकर सब उस पर टूट पड़े।
3. भाषण कला
भाषण, भाषा के विभिन्न कौशलों की एक मिश्रित अभिव्यक्ति है। भाषण कौशल की प्रक्रिया में संरचनाओं का सुव्यवस्थित चयन, शब्दों की द्रुतगति से प्रवाहपूर्ण प्रयोग तथा एक निश्चित संख्या में उनको जोड़ना शामिल है। इसमें शब्द समूह और वाक्य साँचों का क्रमबद्ध प्रयोग होता है। भाषण कौशल को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – एक उच्चारण और दूसरा अभिव्यक्ति। उच्चारण के अंतर्गत समस्त ध्वनि व्यवस्था के प्रायोगिक रूप का समावेश रहता है। विद्यार्थियों को चाहिए कि अपने भाषा को तैयार करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें
- भाषण ऐसा हो कि श्रोता उसमें रुचि ले सकें।
- सदैव भाषण देते समय आरोह अवरोह का ध्यान रखा जाना चाहिए।
- भाषण विषयानुकूल तथा भावानुकूल होना चाहिए।
- भाषण देते समय क्रियात्मक अभिनय का समावेश करना चाहिए।
- भाषण में हास्य व्यंग्य का पुट होना भी आवश्यक होता है, जिससे श्रोतागण उसको रुचिपूर्वक सुन सकें।
- विषय का प्रस्तुतीकरण रोचक व नवीन ढंग से होना चाहिए, अर्थात् उसमें कुछ नयापन होना चाहिए।
- भाषण में कठिन शब्दों का प्रयोग न करते हुए आम बोलचाल (हिंदुस्तानी) की भाषा का प्रयोग करना चाहिए ताकि लोग उसे आसानी से समझ सकें।
- वक्ता को भाषा के विभिन्न प्रकार के नवीन शब्दों और भाषा के अन्य नवीन तथ्यों का सहज रूप से अभ्यास होना चाहिए।
- वक्ता चित्रात्मक तथा प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग कर भाषण को और भी अधिक प्रभावशाली बना सकता है।
- विषय से संबंधित कोई विशिष्ट उक्ति या प्रसिद्ध कवि की कविताओं को यदि वक्ता अपने भाषण में जोड़ लेता है तो उसके भाषण में चार चाँद लग जाते हैं।
- भाषण देते समय वक्ता को शब्दों के उच्चारण पर विशेष ध्यान देना चाहिए वरना अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है।
- छोटे वाक्यों का प्रयोग करना वक्ता के लिए अधिक प्रभावशाली हो सकता है।
- भाषण को तैयार कर यदि वक्ता उसे टेप पर पुनः सुनता है तो वह स्वयं अपनी गलतियों को पहचानकर उन्हें ठीक कर सकता है।
- भाषण जोश और उत्साह से भरा होना चाहिए।
- भाषण में संबोधन का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। श्रोतागण को किया गया संबोधन अत्यंत सहज व आत्मीय होना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रहे कि केवल सभापति या निर्णायक गण ही वहाँ उपस्थित नहीं हैं।
- भाषण की शुरुआत पर वक्ता को विशेष ध्यान देना चाहिए। जितनी अधिक प्रभावशाली शुरुआत होगी उतनी ही अधिक श्रोताओंकी प्रशंसा व एकाग्रता वक्ता को मिलेगी।
- भाषण का अंत कभी भी अधूरा नहीं रहना चाहिए। अर्थात् भाषण में पूर्णता होनी चाहिए। श्रोताओं को यह न लगे कि आप अपनी बात को स्पष्ट करने में असफल रहे हैं।
- भाषण में परिपक्वता अवश्य होनी चाहिए अर्थात् उसमें विषय से हटकर कुछ भी न कहा गया हो तथा कम-से-कम शब्दों में अपनी बात को स्पष्ट किया गया हो।
4. साक्षात्कार लेना व देना
साक्षात्कार लेना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति अभ्यर्थियों की योग्यता की पूर्ण जाँच करता है। वह अभ्यर्थी की हर क्रिया व प्रतिक्रिया को ध्यान से देखता व सुनता है। साक्षात्कार का कार्य शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ स्वभाव को भी जानना होता है।
साक्षात्कार लेते वक्त ध्यान रखने योग्य बातें-
- अभ्यर्थी का आत्मविश्वास बनाए रखना चाहिए।
- बातचीत का आरंभ परिचयात्मक होना चाहिए।
- प्रश्नों की शुरुआत व्यक्तिगत जीवन से संबंधित सामान्य प्रश्नों से करनी चाहिए।
- साक्षात्कार-कर्ता के प्रश्न संक्षिप्त व स्पष्ट होने चाहिए।
- अभ्यर्थी द्वारा दिए गए उत्तरों को अनसुना न कर ध्यान से सुनना चाहिए।
- अभ्यर्थी द्वारा गलत या भ्रामक उत्तर देने पर एकाध स्पष्टीकरण लेना ही पर्याप्त है।
- यदि अभ्यर्थी किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देता है तो उससे अगला प्रश्न पूछ लेना चाहिए।
- साक्षात्कार को अधिक लंबा नहीं खींचना चाहिए।
- यदि अभ्यर्थी उत्तर को लंबा खींच रहा हो तो आप बीच में यह कहकर अगला प्रश्न पूछ सकते हैं – ‘आपकी बात ठीक है। आप कृपया यह बताएँ कि ……।’
- जिस पद हेतु साक्षात्कार लिया जा रहा है, उससे संबंधित एक-दो प्रश्न अवश्य करें।
- अभ्यर्थी से आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
उदाहरण
उत्तर प्रदेश राज्य की प्रतिष्ठित न्यायिक सेवा परीक्षा में सिविल जज पद पर सातवें स्थान पर पहले प्रयास में ही चयनित होकर श्री कृष्ण चंद्र पांडेय ने एक महत्त्वपूर्ण सफलता अर्जित की है, प्रशांत दविवेदी ने उनका साक्षात्कार लिया, जो इस प्रकार है-
प्रशांत द्विवेदी – आपकी इस सफलता के लिए बधाई।
कृष्ण चंद्र – जी, धन्यवाद।
प्रशांत द्विवेदी – आपको अपने चयन की सूचना कैसे मिली?
कृष्ण चंद्र – मेरे मित्र हरि प्रकाश शुक्ल APO इलाहाबाद में कार्यरत, द्वारा मुरादाबाद ट्रेनिंग सेंटर पर फ़ोन द्वारा प्राप्त हुई।
प्रशांत द्विवेदी – चयन होने पर आपको कैसा लगा?
कृष्ण चंद्र – मुझे गलत सूचना मिली कि मैं असफल हो गया हूँ, लगभग आधे घंटे पश्चात् मुझे इस सफलता की सूचना प्राप्त हुई, इस प्रकार मैंने असफलता का दंश और सफलता की प्रसन्नता-दोनों का अनुभव किया।
प्रशांत द्विवेदी – आपको न्यायिक सेवा में जाने की प्रेरणा कैसे मिली?
कृष्ण चंद्र – बड़े बहनोई श्री नलिनीश शुक्ला, एडवोकेट ने मुझे प्रेरित किया कि मैं इसे अपना कैरियर बनाऊँ। उन्होंने मुझे सदैव इसके लिए प्रेरित किया, इसके अतिरिक्त मुझे विधि विभाग गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्ण विभागाध्यक्ष प्रो. उदय राज राय ने भी प्रेरित किया।
प्रशांत द्विवेदी – यह सफलता आपने कितने प्रयासों में अर्जित की?
कृष्ण चंद्र – यह मेरा पहला प्रयास था।
प्रशांत द्विवेदी – आपने इस परीक्षा के लिए तैयारी किस प्रकार की?
कृष्ण चंद्र – कुछ चुनिंदा बिंदुओं पर प्रामाणिक पुस्तकों से नोट्स बनाए; Bare Acts का सूक्ष्म अवलोकन किया, L-L.M में Interpretation of Statue एक विषय होने के कारण Bare Acts के सूक्ष्म निर्वचन पर ध्यान केंद्रित किया, विभिन्न धाराओं को Co-relate करके अध्ययन किया। मूलतः नोट्स की अपेक्षा किताबें मेरे अध्ययन का केंद्र-बिंदु रहीं। प्रो. रमेश चंद्र श्रीवास्तव जी के निर्देशन में एल-एल.एम. (फाइनल) में ‘हितग्राही में अनुयोजन का अधिकार’ विषय पर डिजर्टेशन लिखने के कारण मेरी लेखनी परिष्कृत हुई, इसका भी लाभ मुझे इस परीक्षा में मिला।
प्रशांत द्विवेदी – आपकी सफलता का मूल मंत्र क्या रहा?
कृष्ण चंद्र – आत्मविश्वास, दृढ़ निश्चय, कठिन परिश्रम, एकाग्रता एवं कभी न हार मानने वाली अदम्य जिजीविषा। इसके अलावा गुरुजनों का आशीर्वाद, मित्रों का प्रेम, प्रोत्साहन, पारिवारिक सहयोग भी इसमें सहायक हुए। प्रशांत द्विवेदी-साक्षात्कार में पूछे गए प्रश्न क्या थे?
कृष्ण चंद्र – साक्षात्कार 3 अगस्त, 20XX दिन शुक्रवार के दिन श्री के.बी. पांडेय (चेयरमैन, उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग) के बोर्ड में, बोर्ड के अन्य सदस्य
न्यायमूर्ति वी. के. राव एवं प्रोफेसर खान (अलीगढ़ विश्वविद्यालय) थे, साक्षात्कार लगभग 30 मिनट चला। बोर्ड का रवैया सहयोगात्मक था। साक्षात्कार का आरंभ प्रो. पांडेय ने किया एवं समापन प्रो० खान द्वारा हुआ। सामान्य परिचयात्मक प्रश्नों के अलावा मुझसे कई प्रश्न पूछे गए।
प्रशांत द्विवेदी – प्रतियोगिता दर्पण पत्रिका के विषय में आपके क्या विचार हैं?
कृष्ण चंद्र – यह पत्रिका सिविल सर्विस के परीक्षार्थियों के लिए रामबाण है। संविधान पर इसका अतिरिक्तांक न्यायिक परीक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी है। यदि पत्रिका में कुछ विधिक लेख भी नियमित रूप से प्रकाशित होने लगे तो यह न्यायिक परीक्षा के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो जाएगी।
प्रशांत द्विवेदी – आगामी प्रतियोगियों के लिए आप क्या परामर्श देंगे?
कृष्ण चंद्र – दृढ़ आत्मविश्वास के साथ गंभीर परिश्रमयुक्त सतत् एवं सुव्यवस्थित अध्ययन ही सफलता की सीढ़ी है। Revision is a must पढ़ें, पर स्वयं को Confuse होने से बचाए रखें, बस अर्जुन की तरह लक्ष्य पर एकाग्रचित रहें, अंतत: सफलता वरण करेगी ही।
साक्षात्कार देना
छात्रों को अनेक कार्यों के लिए साक्षात्कार देना होता है। कुछ में इसका डर बैठ जाता है। वस्तुतः साक्षात्कार परीक्षा जैसा होता है। इसमें अल्प समय में बहुत कुछ कहना होता है। अभ्यर्थी को दो कार्य करने होते हैं – स्वयं को परिचित कराना तथा साक्षात्कार मंडल को प्रभावित करना।
साक्षात्कार देने में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होता है
- साक्षात्कार देते वक्त सहज रहें।
- अपनी बात को सरल ढंग से कहें।
- साक्षात्कार में जाते समय वेशभूषा संतुलित होनी चाहिए।
- साक्षात्कार पर जाने से पहले वरिष्ठ छात्रों से अभ्यास करें।
- साक्षात्कार-कक्ष में प्रवेश करने से पहले मुख्य साक्षात्कार कर्ता की ओर मुख करके अंदर आने की अनुमति लें – “क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?”
- अंदर आने की अनुमति मिलने के बाद आप संतुलित कदमों से उस कुरसी की ओर बढ़ें जहाँ अभ्यर्थी को बिठाया जाता है। इस क्रिया में आप अपना मुख साक्षात्कार मंडल की ओर रखें। मुसकराते हुए प्रमुख साक्षात्कार कर्ता और अन्य सभी को हाथ जोड़कर नमस्कार कहें। नमस्कार करते समय चेहरे पर विनय का भाव रखें। सम्मान प्रकट करने के लिए सिर तथा शरीर को हल्का-सा झुकाएँ।
- आपके हाथ में फाइल या कुछ कागजात होंगे। इसलिए फाइल सहित नमस्कार करने का ढंग सीख लें।
- साक्षात्कार के दौरान आप जिन प्रमाण-पत्रों, उपलब्धियों या कागज़ों-पुस्तकों को साक्षात्कार-मंडल को दिखाना चाहते हैं, उन्हें पहले से ही सुव्यवस्थित और ऊपर-ऊपर तैयार रखें। 9. जब तक कुरसी पर बैठने के लिए नहीं कहा जाए, तब तक खड़े रहें।
- साक्षात्कार के दौरान स्वयं को चुस्त व तत्पर रखें।
- प्रश्न को आराम व ध्यान से समझें।
- पूछे गए प्रश्न का उत्तर एकदम न देकर समझकर देना चाहिए।
- प्रश्न की प्रवृत्ति के अनुसार उत्तर देने में समय लगाना चाहिए।
- आप किसी मुद्दे पर कितने ही विश्वासपूर्ण हों, परंतु अपनी बात पर अड़ना नहीं चाहिए।
- यदि साक्षात्कार-कर्ता आपकी बात से असहमत हो तो आप अपनी बात कहते हुए उनके मत को भी सम्मान दें।
- प्रश्न का उत्तर न देने पर स्पष्ट कहें – क्षमा कीजिए, मुझे इसका ज्ञान नहीं है।
- सारी बातचीत में चेहरे पर घबराहट व तनाव नहीं आना चाहिए।
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