Table of Contents
Class 12 Hindi परियोजना
परियोजना कार्य-1
कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिलकुल एकांत और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है, क्योंकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी होता है।
हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरंभ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने के लिए रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप में ढाले-चाहे राक्षस बनाए, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं, क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है।
पर ऐसे लोगों का साथ करना और भी बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं, क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई नियंत्रण रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवकों को प्रायः बहुत कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाए तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरुष प्रायः विवेक से कम काम लेते हैं। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके सौ गुण-दोष को परख कर लेते हैं, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और स्वभाव आदि का कुछ भी विचार और अनुसंधान नहीं करते।
वे उसमें सब बातें अच्छी-ही-अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस – ये ही दो-चार बात किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है, क्या जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है, “विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है।
जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खज़ाना मिल गया।” विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है हमें उत्तमतापूर्वक जीवन-निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे।
सच्ची मित्रता में उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से-अच्छी माता का-सा धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही सहायता करने का प्रयत्न प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। छात्रावस्था में मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ी रहती है। पीछे के जो स्नेह-बंधन होते हैं, उनमें न तो उतनी उमंग रहती है न उतनी खिन्नता। बाल-मैत्री में जो मग्न करनेवाला आनंद होता है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार संवास होता है!
हृदय से कैसे-कैसे उद्गार निकलते हैं! भविष्य के संबंध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं। कितनी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना है। ‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किंतु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के एक की मित्रता से दृढ, शांत और गंभीर होती है, उसी प्रकार हमारी अवस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं जानता हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत-से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना करते होंगे।
पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन में चलता नहीं। सुंदर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति, दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन-संग्राम में साथ चले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहो, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-छोटे काम ही हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर घृणा करते रहें। मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें।
मित्र भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। ऐसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे।। मित्र का कर्तव्य इस प्रकार बताया गया है, “उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी-अपनी सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।” यह कर्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़ चित्त और सत्य-संकल्प का हो।
इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए, जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा। जो बात ऊपर मित्रों के संबंध में कही गई है, वही जान-पहचानवालों के संबंध में भी ठीक है।
जो हमारे जीवन को उत्तम और आनंदमय बनाने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि उतनी नहीं जितनी गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोडा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख और ग हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते हैं, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते हैं, न सहानुभूति द्वारा हमें ढाढ़स बँधा सकते हैं, न हमारे आनंद में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखे।
आजकल जान-पहचान बढाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है, जो उसके साथ थियेटर चले जाएँगे, नाचरंग में जाएँगे, सैर-सपाटे में जाएँगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऐसे जान-पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी, तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है।
किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर प्रगति की ओर उठाती जाएगी। इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत-से लोग इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते।
बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से सद्बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिससे उसकी पवित्रता का नाश होती है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान में चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं।
एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अतः तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें। सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा।
अथवा तुम्हारे चरित्रबल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकने वाले आगे चलकर स्वयं ही सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है।
तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो। एक पुरानी कहावत है-
“काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय।
एक लीक काजल की लागि है पै लागि है।”
प्रश्नः 1.
बाहरी संसार में उतरने पर नौजवानों के समक्ष पहली कठिनाई क्या आती है?
उत्तरः
जब कोई नौजवान अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है तो उसे पहली कठिनाई इस बात की आती है कि वह किसे अपना मित्र बनाए।
प्रश्नः 2.
आजकल कैसे लोगों के साथ सरलता से जान-पहचान हो जाती है?
उत्तरः
आजकल ऐसे लोगों के साथ सरलता से जान-पहचान हो जाती है जो साथ थियेटर देखने जाएँ, नाचरंग में जाएँ, सैर सपाटे में जाएँ, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करें।
प्रश्नः 3.
हमसे अधिक दृढ़ संकल्प वाले लोगों का साथ हमारे लिए क्यों बुरा हो सकता है?
उत्तरः
जब हमारे साथ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प वाले होते हैं तो हमें उनकी हर बात बिना विरोध के माननी पड़ती है।
प्रश्नः 4.
छात्रावास और उसके बाद की मित्रता में क्या अंतर होता है?
उत्तरः
छात्रावास की मित्रता में उमंग और आनंद होता है, मधुरता और अनुरिक्त होती है। उसमें जल्दी रूठने और मान जाने प्रवृत्ति होती है। इसके विपरीत बाद की मित्रता में न उतनी उमंग होती है और न उतनी खिन्नता। युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शांत और गंभीर होती है।
प्रश्नः 5.
अपने से अधिक आत्मबल रखने वाले व्यक्ति को मित्र बनाने से क्या लाभ है?
उत्तरः
अपने से अधिक आत्मबल रखने वाले व्यक्ति को मित्र बनाने से यह लाभ है कि वह उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देगा कि तुम अपनी सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।
प्रश्नः 6.
राजदरबार में जगह न मिलने पर इंग्लैंड का एक विद्वान अपने भाग्य को क्यों सराहता रहा?
उत्तरः
जब इंग्लैंड के एक विद्वान को राजदरबार में जगह नहीं मिली तो वह अपने भाग्य को सराहता रहा क्योंकि वह जानता था कि राजदरबार में उसे बुरे लोगों की संगति में पड़ना पड़ता, जिससे उसके आध्यात्मिक विकास में बाधा पड़ती।
प्रश्नः 7.
सच्ची मित्रता में वैद्य की-सी निपुणता और परख और माता का-सा धैर्य और कोमलता होती है-स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
एक निपुण वैद्य की पारखी दृष्टि से कोई भी रोग छिप नहीं पाता और वह उसका उचित उपचार करके रोगी को स्वस्थ कर देता है। अच्छा मित्र भी अपने मित्र की कमियों को बड़ी आसानी से परख लेता है और उन्हें दूर करने का प्रयास करता है। माता भी अपने बच्चे की भलाई का ध्यान रखती है और धैर्य एवं कोमलता के साथ वह बालक को सही मार्ग पर चलाती है। अच्छा मित्र भी वैसे ही करता है।
प्रश्नः 8.
मित्र का चुनाव करते समय हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तरः
मित्र बनाते समय हमें निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए
- मित्र बनाते समय खूब सोच-विचार लेना चाहिए।
- सुंदर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति के लोगों को मित्र नहीं बनाना चाहिए।
- परस्पर सच्ची सहानुभूति प्रकट करने वालों को मित्र बनाना चाहिए।
- विश्वासपात्र होना चाहिए।
- हमें ऐसे मित्र कभी नहीं बनाने चाहिए जो हमारी झूठी प्रशंसा करता हो और मन से घृणा करता हो।
- हमें ऐसे मित्रों का परित्याग कर देना चाहिए जो हमें कुमार्ग की ओर ले जाएँ और हमारे दोषों को दूर न करें।
- सभी प्रकार के अवगुणों को छिपाने वाले और गुणों को प्रकट करने वाले को मित्र बनाना चाहिए।
परियोजना कार्य-2
आज से करीब डेढ हज़ार साल पहले पाटलिपुत्र नगर नंद, मौर्य और गुप्त सम्राटों की राजधानी था। दूर-दूर तक इस नगर की कीर्ति फैली हुई थी। राजधानी होने के कारण देशभर के प्रतिष्ठित पंडित यहाँ एकत्र होते थे। प्रख्यात नालंदा विश्वविद्यालय में दूसरे देशों के विद्यार्थी भी विशेष अध्ययन के लिए पहुँचते थे। उस समय पाटलिपुत्र नगर ज्योतिष के अध्ययन के लिए मशहूर था। एक दिन सवेरे से ही गंगा, सोन और गंडक नदियों के संगम की ओर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। उस दिन अपराह्न में सूर्य को ग्रहण लगने वाला था।
लोगों में यह प्रचारित था कि “राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है, तब ग्रहण लगता है। ग्रहण के समय उपवास रखना चाहिए, खूब दान-पुण्य करना चाहिए। तभी इस राक्षस के चंगुल से सूर्य-देवता को जल्दी-से-जल्दी मुक्ति मिलती है।” मगर पाटलिपुत्र नगर से थोड़ी दूर के आश्रम में कुछ दूसरा ही माहौल था। टीले पर बसे उस आश्रम के लंबे-चौड़े आँगन में ताँबे, पीतल और लकड़ी के तरह-तरह के यंत्र रखे हुए थे। उनमें से कुछ यंत्र गोल थे, कुछ कटोरे-जैसे, कुछ वर्तुलाकार और कुछ शंकु की तरह के।
वस्तुतः वह एक वेधशाला थी। वहाँ के ज्योतिषियों ने हिसाब लगाकर पहले से ही भविष्यवाणी की थी कि ठीक किस समय ग्रहण लगेगा, कहाँ-कहाँ दिखाई देगा और कितने समय तक रहेगा। आज उन्हें देखना था कि उनका हिसाब ठीक निकलता है या नहीं। इसलिए सभी उत्सुकता से ग्रहण के क्षण का इंतज़ार कर रहे थे। मगर वहाँ पर एक तरुण विद्यार्थी जो अपने साथियों को समझा रहा था, “पृथ्वी की बड़ी छाया जब चंद्र पर पड़ती है, तो चंद्र ग्रहण होता है।
इसी प्रकार चंद्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीच में आता है और वह सूर्य को ढक लेता है, तब सूर्य ग्रहण होता है। आज भी ऐसा ही होने वाला है, कोई राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है—यह कथन पुराण की कथा है।” ग्रहणों की वैज्ञानिक व्याख्या करने वाले उस तरुण पंडित का नाम था—आर्यभट। ‘भट’ का मतलब है-योद्धा। सचमुच आर्यभट अज्ञान के विरुद्ध ज्ञान का युद्ध जीवन भर लड़ते रहे। आर्यभट दक्षिणापथ में गोदावरी तट क्षेत्र के अश्मक जनपद में पैदा हुए थे। इसलिए बाद में वे आश्मकाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
गणित एवं ज्योतिष के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि थी। आर्यभट अपने विचार बेहिचक प्रस्तुत कर देते थे। ग्रहणों के बारे में ही नहीं, आकाश की दूसरी अनेक घटनाओं के बारे में भी उनके अपने स्वतंत्र विचार थे। उस ज़माने के लोग समझते थे कि हमारी पृथ्वी आकाश में स्थिर है और तारामंडल एवं सूर्य गतिशील। आर्यभट हमारे देश के पहले ज्योतिषी थे जिन्होंने साफ़ शब्दों में कहा है कि पृथ्वी स्थिर नहीं है। यह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है।
तो फिर आकाश के तारे हमें चक्कर लगाते क्यों दिखाई देते हैं? पृथ्वी के चक्कर लगाने का पता हमें क्यों नहीं चलता? आर्यभट का उत्तर था- “समझ लो कि नदी में एक नाव है और वह धारा के साथ तेजी से आगे बढ़ रही है। तब उसमें बैठा हुआ आदमी किनारे की स्थिर वस्तुओं को उलटी दिशा में जाता हुआ अनुभव करता है। उसी तरह आकाश के तारों की बात है। पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है और इसके साथ हम भी घूमते रहते हैं, इसलिए आकाश में स्थित तारामंडल हमें पूर्व से पश्चिम की ओर जाता जान पड़ता है।
वस्तुतः तारामंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है। कोई भी ज्योतिषी इस मत को मानने के लिए तैयार नहीं होता था। यही कारण था कि आर्यभट का मत सही होने पर भी आगे की सदियों तक हमारे देश के बड़े-बड़े ज्योतिषी भी यही मानते रहे कि पृथ्वी स्थिर है। वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त जैसे महान ज्योतिषी भी ऐसे ही थे। आर्यभट की पुस्तक का नाम है – आर्यभटीय। पुस्तक पद्य में है। भाषा संस्कृत है। प्राचीन भारत में गणित और ज्योतिष का अध्ययन साथ-साथ होता था, इसलिए इन दोनों विषयों का विवेचन प्रायः एक ही ग्रंथ में कर दिया जाता था।
पुस्तक के चार भाग हैं-दशगीतिका, गणित, कालक्रिया और गोल। आर्यभटीय में कुल 121 श्लोक हैं। प्रत्येक श्लोक में दो पंक्तियाँ हैं। उस समय तक भारत में गणित और ज्योतिष से संबंधित जितनी महत्त्वपूर्ण बातें खोजी गई थीं, उन सबको आर्यभट ने अत्यंत संक्षेप में अपनी पुस्तक में प्रस्तुत कर दिया है। पुराना ज्ञान ही नहीं, उन्होंने अपनी नई खोजी हुई बातें भी पुस्तक में रखी हैं। आर्यभटीय भारतीय गणित-ज्योतिष का पहला ग्रंथ है जिसमें इसके रचनाकार और रचनाकाल के बारे में स्पष्ट सूचना मिलती है।
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में संसार को प्राचीन भारत की सबसे बड़ी देन है-शून्य सहित केवल दस अंक संकेतों से ही संख्याओं को व्यक्त करना। इस दाशमिक स्थानमान अंक-पद्धति की खोज आर्यभट से तीन-चार सदियों पहले हो चुकी थी। आर्यभट इस नई अंक पद्धति से परिचित थे। उन्होंने अपने ग्रंथ के आरंभ में वृंद (1000000000) अर्थात अरब तक ही दशगुणोत्तर संख्या-संज्ञाएँ देकर लिखा है कि इनमें प्रत्येक स्थान पिछले स्थान से दस गुणा है।
प्राचीन भारत में गणित-ज्योतिष के ग्रंथ भी पद्य में लिखे जाते थे, इसलिए उनमें ख (0), पृथ्वी (1), (2), ऋतु (6) जैसे शब्दों से संख्याओं को व्यक्त किया जाता था। इन शब्दांकों को उनके क्रम में लिखने का नियम था; जैसे खचतुष्ट-रदअर्णव (चार शून्यदाँत-सागर) का अर्थ होता था-4320000. आर्यभट अपने ग्रंथ को बहुत छोटा बनाना चाहते थे, वे अपने विचारों को कम-से-कम शब्दों में प्रस्तुत करना चाहते थे।
आर्यभट ने अक्षरों को संख्यामान प्रदान किए। जैसे-क् = 1, ख् = 2, ग् = 3 इत्यादि। अ, इ, उ आदि स्वरों को उन्होंने एक, सौ, दस हज़ार जैसे शतगुणोत्तर मान दिए। इस तरह उन्होंने व्यंजनों और स्वरों के मेलजोल से बड़ी से बड़ी संख्या को संक्षेप में लिखने का एक नया तरीका खोज निकाला। इस नई अक्षरांक पद्धति को अपनाकर आर्यभट बड़ी-बड़ी संख्याओं को छोटे-छोटे शब्दों में प्रस्तुत करने में समर्थ हुए, जैसे-उपर्युक्त संख्या
प्रश्नः 1.
पटना शहर के प्राचीन नाम क्या-क्या थे?
उत्तरः
पटना शहर को पहले पाटलिपुत्र कहा जाता था। यहाँ फूल बहुत अधिक होते थे, अतः इसका नाम कुसुमपुर भी था।
प्रश्नः 2.
प्राचीन काल में पाटलिपुत्र नगर की प्रसिद्धि के क्या कारण थे?
उत्तरः
प्राचीन काल में पाटलिपुत्र नगर नंद, मौर्य और गुप्त सम्राटों की राजधानी रहा था। वह बहुत बड़ा नगर था। राजधानी होने के कारण देशभर के प्रतिष्ठित पंडित यहाँ एकत्र होते थे। प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय भी पटना के समीप ही था।
प्रश्नः 3.
गंगा, सोन और गंडक नदियों के संगम पर लोग क्यों इकट्ठे हुए थे?
उत्तरः
उस दिन अपराहन में सूर्यग्रहण पड़ने वाला था। ग्रहण के अवसर पर नदियों के संगम और ऐसे ही स्थानों पर स्नान करने की मान्यता रही है। इसलिए लोग उन नदियों के संगम पर इकट्ठे हो रहे थे, ताकि ग्रहण के अवसर पर वे वहाँ स्नान कर सकें।
प्रश्नः 4.
लोगों में सूर्यग्रहण के बारे में क्या धारणा थी?
उत्तरः
लोगों में सूर्यग्रहण के बारे यह धारणा थी कि राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है, तब ग्रहण लगता है। ग्रहण के समय उपवास रखना चाहिए, खूब दान-पुण्य करना चाहिए, तभी इस राक्षस के चंगुल से सूर्य देवता को जल्दी-से-जल्दी मुक्ति मिलती है।
प्रश्नः 5.
पाटलिपुत्र नगर से दूर टीले पर स्थित आश्रम की क्या विशेषता थी?
उत्तरः
पाटलिपुत्र नगर से थोड़ी दूर टीले पर स्थित आश्रम में भी बड़ी चहल-पहल थी। लेकिन वह चहल-पहल कुछ दूसरे प्रकार की थी। यह आश्रम एक वेधशाला थी। टीले पर बसे उस आश्रम के लंबे-चौड़े आँगन में ताँबे, पीतल और लकड़ी के तरह-तरह के यंत्र रखे हुए थे। उनमें से कुछ यंत्र गोल थे, कुछ कटोरे जैसे, कुछ वर्तुलाकार और कुछ शंकु की तरह के थे। यहाँ ज्योतिष अपना अनुमान लगाते हैं।
प्रश्नः 6.
आश्रम की वेधशाला में ज्योतिषी और विद्यार्थी क्यों एकत्र हुए थे?
उत्तरः
आश्रम की वेधशाला में उस दिन यंत्रों के इर्द-गिर्द कई प्रसिद्ध ज्योतिषी और बहुत-से विद्यार्थी एकत्र हुए थे। वहाँ के ज्योतिषियों ने हिसाब लगाकर पहले ही भविष्यवाणी की थी कि ठीक किस समय ग्रहण लगेगा, कहाँ-कहाँ दिखाई देगा और कितने समय तक रहेगा। आज उन्हें देखना था कि उनका हिसाब ठीक निकलता है या नहीं। इसीलिए वहाँ ज्योतिषी और विद्यार्थी एकत्र हुए थे।
प्रश्नः 7.
आर्यभट ने सूर्य और चंद्रग्रहण की क्या वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की?
उत्तरः
आर्यभट ने अपनी वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा, “पृथ्वी की बड़ी छाया जब चंद्र पर पड़ती है, तो चंद्र ग्रहण होता है। इसी प्रकार चंद्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीच में आता है और वह सूर्य को ढक लेता है, तब सूर्यग्रहण होता है। कोई राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है-यह कथन पुराण की कथा है।”
Discover more from EduGrown School
Subscribe to get the latest posts sent to your email.