yk Kahani yeh bhi class 10 summary
लेखक परिचय
मन्नू भंडारी
इनका जन्म सन 1931 में गाँव भानपुरा, जिला मंदसौर, मध्य प्रदेश में हुआ था। इनकी इंटर तक की शिक्षा शहर में हुई। बाद में इन्होने हिंदी से एम.ए किया। दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्ति के बाद आजकल दिल्ली में ही रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।
एक कहानी यह भी Class 10 Hindi पाठ का सार ( Short Summary )
एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी द्वारा आत्मपरक शैली में लिखी हुई आत्मकथ्य है। इस पाठ में यह बात बड़े ही प्रभावशाली ढंग से दर्शाई गई है कि बालिकाओं को किस तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ता है। अपने पिता से लेखिका के वैचारिक मतभेद का भी चित्रण हुआ है।
‘एक कहानी यह भी’ के संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि मन्नू भंडारी ने पारिभाषिक अर्थ में कोई सिलसिलेवार आत्मकथा नहीं लिखी है। अपनी आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में उल्लेख किया है, जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं।
संकलित अंश में मन्नूजी के किशोर जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के व्यक्तित्व विशेषरूप से उभरकर आया है, जो कि आगे चलकर उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लेखिक ने बड़े रोचकिय ढंग से एक साधारण लड़की के असाधारण बनने की प्रारंभिक पड़ावों का वर्णन किया है। सन् ’46-47′ की आज़ादी की आँधी ने मन्नूजी को भी अछूता नहीं छोड़ा। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आज़ादी की लड़ाई में जिस तरह से भागीदारी की, उसमे उसका उत्साह, ओज, संगठन-क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है। इन सब घटनाओं के साथ हो रहे अपने पिताजी के अंतर्विरोधों को भी लेखिका ने बखूबी उजागर किया है।
एक कहानी यह भी Class 10 Hindi पाठ का सार ( Detailed Summary )
एक कहानी यह भी’ एक आत्मकथ्य है। इसकी लेखिका मन्नू भंडारी हैं। इसमें उन्होंने अपने जीवन की उन घटनाओं का वर्णन किया है जो उन्हें लेखिका बनाने में सहायक हुई हैं; इस पाठ में छोटे शहर की युवा होती लड़की की कहानी है जिसका आज़ादी की लड़ाई में उत्साह, संगठन-क्षमता और विरोध करने का स्वरूप देखते ही बनता था।
लेखिका का जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था, परंतु उसका बचपन अजमेर ब्रह्मपुरी मोहल्ले में गुज़रा था। उनका घर दो मंजिला था। नीचे पूरा परिवार रहता था, ऊपर की मंजिल पर पिताजी का साम्राज्य था। अजमेर से पहले वे लोग इंदौर में रहते थे। इंदौर में उनका परिवार प्रतिष्ठित परिवारों में से एक था। वे शिक्षा को केवल उपदेश की तरह नहीं लेते थे। कमशोर छात्रों को पर लाकर भी पढ़ाषा करते थे उनके पढाए छात्र आज ऊैसे ओहदों पर लगे मे। पिता दरियादिल, कोमल स्वभाव, संवेदनशील के साथ-साथ क्रोधी और अहवादी थे। एक बहुत बड़े आर्थिक हुए टके ने उन्हें अंदर तक हिला दिया था। वे इंदौर छोड़ कर अजमेर आ गए थे यहाँ उन्होंने अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोष तैयार किया। यह अपनी तरह का पहला शब्दकोश था, जिसने उन्हें प्रसिद्धि तो बहुत दी, परंतु धन नहीं, कमजोर आर्थिक स्थिति ने उनके सकारात्मक पहलुओं पर अपना घर बना लिया था। वे अपनी गिरती आर्थिक स्थिति में अपने बच्चों को भागीदार बनाना नहीं चाहते थे। आरंभ से अच्छा देखने वाले पिताजी के लिए यह दिन बड़े कष्टदायक थे। इससे उनका स्वभाव क्रोधी हो गया था। उनके क्रोध का भाजन सदैव माँ बनती थी। जय से उन्होंने अपने लोगों से ही धोखा खाया है उनका स्वभाव शक्की हो गया था। वे हर किसी को शक की नजरों से देखते थे।
लेखिका अपने पिता जी को याद करके यह बताना चाहती है उसमें उसके पिता जी के कितने गुण और अवगुण आए है। उनके व्यवहार ने सदैव लेखिका को हीनता का शिकार बनाया है। लेखिका का रंग काला था। शरीर से भी यह दुबली-पतली थी, परंतु उसके पिता जी को गोरा रंग पसंद था। उससे बड़ी बहन सुशीला गोरे रंग की थी, इसलिए वह पिता जी की चहेती थी। पिता जी हर बात पर उसकी तुलना सुशीला से करते थे, जिससे उसमें हीन भावना घर कर गई। वह हीन भावना उसमें से आज तक नहीं निकली थी। आज भी वह किसी के सामने खुलकर अपनी तारीफ़ सुन नहीं पाती। लेखिका को अपने कानों पर यह विश्वास नहीं होता कि उन्होंने लेखिका के रूप में इतनी उपलब्धियां प्राप्त की हैं; लेखिका पर अपने पिता का पूरा प्रभाव था। उसे अपने व्यवहार में कहीं-न-कहीं अपने पिता का व्यवहार दिखाई देता था। दोनों के विचार सदैव आपस में टकराते रहे थे। समय मनुष्य को अवश्य बदलता है, परंतु कुछ जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि वे अपने स्थान से नहीं हिलती। पिता से विपरीत स्वभाव की लेखिका की माँ थी। वे हर समय सब की सेवा में तैयार रहती थी। पिता जी की हर कमजोरी माँ पर निकलती थी। वे हर बात को अपना कर्त्तव्य मानकर पूरा करती थी। लेखिका और उसके दूसरे भाई-बहिनों का माँ से विशेष लगाव था परंतु लेखिका की माँ उसका आदर्श कभी नहीं बन पाई।
लेखिका पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। उसकी बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। लेखिका को उसकी शादी की धुंधली-सी यादें हैं। घर के आंगन में उसको खेल में साथ उसकी बहन सुशीला ने दिया। दोनों बचपन के वे सभी खेल खेलती थीं जो सभी बच्चे खेलते हैं। दोनों अपने भाइयों के साथ लड़कों वाले खेल भी खेलती थीं, परंतु उनके खेल का दायरा घर का आँगन था। लड़के कहीं भी आ-जा सकते थे उस समय घरों का आँगन अपने घर तक सीमित नहीं था। वे पूरे मोहल्ले के घरों के आँगन तक आ-जा सकती थी। उस समय मोहल्ले के सभी घर एक-दूसरे के परिवारों का हिस्सा होते थे। लेखिका को आज की फ्लैट वाली जिंदगी असहाय लगती है। उसे लगता है कि उसकी दर्जनों कहानियों के पात्र उसी मोहल्ले के हैं जहाँ उसने अपना बचपन और यौवन व्यतीत किया था उस मोहल्ले के लोगों की छाप उसके मन पर इतनी गहरी थी कि वह किसी को भी अपनी कहानी या उपन्यास का पात्र बना लेती थी और उसे पता ही नहीं चलता था। उस समय के समाज में लड़की की शादी के लिए योग्य आयु सोलह वर्ष तथा मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्ति समझी जाती थी। उसकी बहन सुशीला की शादी सन् 1944 में हो गई थी। उसके दोनों बड़े भाई पढ़ाई के लिए बाहर चले गए थे। सबके चले जाने के पश्चात् लेखिका को अपने व्यक्तित्व का अहसास हुआ। उसके पिता जी ने भी उसे कभी घर के कार्यों के लिए प्रेरित नहीं किया। उन्होंने सदा उसे राजनीतिक सभाओं में अपने साथ बैठाया। वे चाहते थे कि उसे देश की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। उस समय देश में घट भी बहुत कुछ रहा था। चारों तरफ आजादी की लहर दौड़ रही थी। लेखिका की आयु काफ़ी कम थी, फिर भी उसे क्रांतिकारियों और देशभक्तों, शहीदों की कुर्वानियाँ रोमांचित कर देती थीं।
दसवीं कक्षा तक तो लेखिका को जो भी साहित्य मिलता उसे पढ़ लेती थी, परंतु जैसे ही दसवीं पास करके कॉलेज में ‘फर्स्ट ईयर’ में गई। वहाँ हिंदी की अध्यापिका शीला अग्रवाल ने उसका वास्तविक रूप में साहित्य से परिचय करवाया। वे स्वयं उसके लिए किताबें चुनती और उसे पढ़ने को देती थी उन विषयों शीला अग्रवाल, लेखिका से लंबी बहस करती थी। इससे उसके साहित्य का दायरा बढ़ा। लेखिका ने उस समय के सभी बड़े-बड़े लेखकों के साहित्यों को पढ़कर समझना आरंभ कर दिया था। अध्यापिका शीला अग्रवाल की संगति ने उसका परिचय मात्र साहित्य से ही नहीं अपितु घर से बाहर की दुनिया से भी करवाया पिता जी के साथ आरंभ से ही राजनीतिक सभाओं में हिस्सा लेती थी, परंतु उन्होंने उसे सक्रिय राजनीति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उस समय सन् 1946-47 में देश का वातावरण इस प्रकार था कि कोई भी व्यक्ति अपने घर में चुप रहकर नहीं बैठ सकता था। अध्यापक शीला अग्रवाल की बातों ने उसकी रगों में जोश भर दिया था। वह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़कों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी, परंतु उसके पिता जी को यह बातें अच्छी नहीं लगती थीं। वे दोहरे व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे आधुनिकता के समर्थक होते हुए भी दकियानूसी विचारों के थे एक ओर तो वे मन्नू को घर में हो रही राजनीतिक सभाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित करते दूसरी ओर उन्हें उसका घर से बाहर की राजनीतिक उथल-पुथल में भाग लेना अच्छा नहीं लगता था। यहीं पर दोनों पिता-बेटी के विचारों में टकराहट होने लगी थी दोनों के मध्य विचारों की टकराहट राजेंद्र से शादी होने तक चलती रही थी।
लेखिका के पिता जी की सबसे बड़ी कमजोरी यश की चाहत थी उनके अनुसार कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि जिससे समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान हो। उनकी इसी चाहत ने लेखिका को उनके क्रोध का भाजन बनने से बचाया था। एक बार कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र पिता जी के नाम आया। उन्होंने उन्हें उसके बारे में बातचीत करने के लिए बुलाया था। पिता जी को बहुत क्रोध आया था, परंतु जब वे कॉलेज से लौटे तो बहुत खुश थे उन्होंने बताया कि ठसका कॉलेज में बहुत दबदबा है, सारा कॉलेज उसके एक इशारे पर खाली हो जाता है। वे तीन लड़कियाँ हैं, जिन्होंने कॉलेज चलाना मुश्किल कर रखा था। पिता जी को प्रिंसिपल की बातें सुनकर गर्व हुआ कि उनके घर भी एक ऐसा नेता है जो सभी को एक आवाज़ में अपने साथ चलने के लिए प्रेरित कर सकता है। पिता जी के मुँह से अपने लिए प्रशंसा सुनकर उसे अपने कानों और आँखों पर विश्वास नहीं हुआ था। ऐसी ही एक घटना और थी। उन दिनों आजाद हिंद फौज का मुकद्दमा चल रहा था। सभी स्कूल, कॉलेजों में हड़ताल चल रही थी। सारा युवा वर्ग अजमेर के मुख्य बाजार के चौराहे पर एकत्रित हुआ। वहाँ सभी ने अपने विचार रखे। लेखिका ने भी अपने विचार उपस्थित भीड़ के सामने रखे। उसके विचार सुनकर उसके पिता जी के मित्र ने आकर पिता जी को उसके बारे में उल्टी-सीधी बातें कह दी जिसे सुनकर पिता जी आग-बबूला हो गए। वे सारा दिन माँ पर कुछ-न-कुछ बोलते रहे। रात के समय जब वह घर लौटी तो उसके पिता के पास उनके एक अभिन्न मित्र अंबा लाल जी बैठे थे डॉ० अंबा लाल जी ने मन्नू को देखते ही उसकी प्रशंसा करनी आरंभ कर दी। वे उसके पिता जी से बोले कि उन्होंने मन्नू का भाषण न सुनकर अच्छा नहीं किया। मन्नू ने बड़ा ही अच्छा और जोरदार भाषण दिया। पिता जी यह सब सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनके चेहरे पर गर्व के भाव थे। बाद में उसे उसकी माँ ने दोपहर में पिता जी के क्रोध वाली बात बताई तो उसकी साँस में साँस आई।
लेखिका आज अपने अतीत में देखती है कि उसे यह समझ नहीं आता कि क्या वास्तव में उसका भाषण जोरदार था या फिर उस समय के समाज में किसी लड़की द्वारा उपस्थित भीड़ के सामने नि:संकोच से धुआँधार बोलना ही सब पर अपना प्रभाव छोड़ गया था। परंतु लेखिका के पिता जी कई प्रकार के अंतर्विरोधों में जी रहे थे। वे आधुनिकता और पुराने विचारों दोनों के समर्थक थे। उनके यही विचार कई प्रकार के विचारों के विरोध का कारण बनते थे मई 1947 में अध्यापक शीला अग्रवाल को कॉलेज से निकाल दिया गया था उन पर यह आरोप था कि वे कॉलेज की लड़कियों में अनुशासनहीनता फैला रही थी। लेखिका के साथ दो और लड़कियों को ‘धर्ड इयर’ में दाखिला नहीं दिया गया। कॉलेज में इस बात को लेकर खूब शोर-शराबा हुआ। जीत लड़कियों की हुई, परंतु इस जीत की खुशी से भी ज्यादा एक और खुशी प्रतीक्षा में थी। वह उस शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उस समय भारत 15 अगस्त, सन् 1947 को आजाद हुआ था।
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NCERT Solution –एक कहानी यह भी
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