Class 12 Hindi आलेख लेखन
प्रश्नः 1.
आलेख के विषय में बताइए।
उत्तरः
आलेख वास्तव में लेख का ही प्रतिरूप होता है। यह आकार में लेख से बड़ा होता है। कई लोग इसे निबंध का रूप भी मानते हैं जो कि उचित भी है। लेख में सामान्यत: किसी एक विषय से संबंधित विचार होते हैं। आलेख में ‘आ’ उपसर्ग लगता है जो कि यह प्रकट करता है कि आलेख सम्यक् और संपूर्ण होना चाहिए। आलेख गद्य की वह विधा है जो किसी एक विषय पर सर्वांगपूर्ण और सम्यक् विचार प्रस्तुत करती है।
प्रश्नः 2.
सार्थक आलेख के गुण बताइए।
उत्तरः
सार्थक आलेख के निम्नलिखित गुण हैं –
- नवीनता एवं ताजगी।
- जिज्ञासाशील।
- विचार स्पष्ट और बेबाकीपूर्ण ।
- भाषा सहज, सरल और प्रभावशाली।
- एक ही बात पुनः न लिखी जाए।
- विश्लेषण शैली का प्रयोग।
- आलेख ज्वलंत मुद्दों, विषयों और महत्त्वपूर्ण चरित्रों पर लिखा जाना चाहिए।
- आलेख का आकार विस्तार पूर्ण नहीं होना चाहिए।
- संबंधित बातों का पूरी तरह से उल्लेख हो।
उदाहरण
1. भारतीय क्रिकेट का सरताज : सचिन तेंदुलकर
पिछले पंद्रह सालों से भारत के लोग जिन-जिन हस्तियों के दीवाने हैं-उनमें एक गौरवशाली नाम है-सचिन तेंदुलकर। जैसे अमिताभ का अभिनय में मुकाबला नहीं, वैसे सचिन का क्रिकेट में कोई सानी नहीं। संसार-भर में एक यही खिलाड़ी है जिसने टेस्ट-क्रिकेट के साथ-साथ वन-डे क्रिकेट में भी सर्वाधिक शतक बनाए हैं। अभी उसके क्रिकेट जीवन के कई वर्ष और बाकी हैं। यदि आगे आने वाला समय भी ऐसा ही गौरवशाली रहा तो उनके रिकार्ड को तोड़ने के लिए भगवान को फिर से नया अवतार लेना पड़ेगा। इसीलिए कुछ क्रिकेट-प्रेमी सचिन को क्रिकेट का भगवान तक कहते हैं। उसके प्रशंसकों ने हनुमान-चालीसा की तर्ज पर सचिन-चालीसा भी लिख दी है।
मुंबई में बांद्रा-स्थित हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाला सचिन इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचने पर भी मासूम और विनयी है। अहंकार तो उसे छू तक नहीं गया है। अब भी उसे अपने बचपन के दोस्तों के साथ वैसा ही लगाव है जैसा पहले था। सचिन अपने परिवार के साथ बिताए हुए क्षणों को सर्वाधिक प्रिय क्षण मानता है। इतना व्यस्त होने पर भी उसे अपने पुत्र का टिफिन स्कूल पहुँचाना अच्छा लगता है।
सचिन ने केवल 15 वर्ष की आयु में पाकिस्तान की धरती पर अपने क्रिकेट-जीवन का पहला शतक जमाया था जो अपने-आप में एक रिकार्ड है। उसके बाद एक-पर-एक रिकार्ड बनते चले गए। अभी वह 21 वर्ष का भी नहीं हुआ था कि उसने टेस्ट क्रिकेट में 7 शतक ठोक दिए थे। उन्हें खेलता देखकर भारतीय लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर कहते थे-सचिन मेरा ही प्रतिरूप है।
2.ग्रामीण संसाधनों के बल पर आर्थिक स्वतंत्रता
समाज में सकारात्मक बदलाव के तीन ही मुख्य सूचक होते हैं। आचरण, आर्थिकी व संगठनात्मक पहल। इन तीनों से ही समाज को असली बल मिलता है और प्रगति के रास्ते भी तैयार होते हैं। इन सबको प्रभाव में लाने के लिए सामूहिक पहल ही सही दिशा दे सकती है।
हेस्को (हिमालयन एन्वायर्नमेंटल स्टडीज कन्जर्वेशन ऑर्गेनाइजेशन) ने अपनी कार्यशैली में ये तीन मुद्दे केंद्र में रखकर सामाजिक यात्रा शुरू की। कुछ बातें स्पष्ट रूप से तय थीं कि किसी भी प्रयोग को स्थायी परिणाम तक पहुँचाना है तो स्थानीय भागीदारी, संसाधन और बाज़ार की सही समझ के बिना यह संभव नहीं होगा। वजह यह है कि बेहतर आर्थिकी गाँव समाज की पहली चिंता है और उसका स्थायी हल स्थानीय उत्पादों तथा संसाधनों से ही संभव है। सही, सरल व सस्ती तकनीक आर्थिक क्रांति का सबसे बड़ा माध्यम है। स्थानीय उत्पादों पर आधारित ब्रांडिंग गाँवों के उत्पादों पर उनका एकाधिकार भी तय कर सकती है और ये उत्पाद गुणवत्ता व पोषकता के लिए हमेशा पहचान बना सकते हैं, इसलिए बाज़ार के अवसर भी बढ़ जाते हैं।
गाँवों की बदलती आर्थिकी की दो बड़ी आवश्यकताएँ होती हैं। संगठनात्मक पहल, बराबरी व साझेदारी तय करती है। किसी • भी आर्थिक-सामाजिक पहल की बहुत-सी चुनौतियाँ संगठन के दम पर निपटाई जाती हैं। सामूहिक सामाजिक पहलुओं का अपना एक चरित्र व आचरण बन जाता है, जो आंदोलन को भटकने नहीं देता। हेस्को की इसी शैली ने हिमालय के घराटों में पनबिजली व पन उद्योगों की बड़ी क्रांति पैदा की। जहाँ ये घराट (पन चक्कियाँ) मृतप्राय हो गई थीं, अब एक बड़े आंदोलन के रूप में आटा पिसाई, धान कुटाई ही नहीं बल्कि पनबिजली पैदा कर घराटी नए सम्मान के साथ समाज में जगह बना चुके हैं।
इनके संगठन और आचरण ने मिलकर केंद्र व राज्यों में राष्ट्रीय घराट योजना के लिए सरकारों को बाध्य कर दिया। एक घराट की मासिक आय पहले 1,000 रुपए तक थी, आज वह 8,000 से 10,000 रुपए कमाता है। आज हज़ारों घराट नए अवतार में स्थानीय बिजली व डीजल चक्कियों को सीधे टक्कर दे रहे हैं। इन्होंने बाज़ार में अपना घराट आटा उतार दिया है, जो ज़्यादा पौष्टिक है।
फल-अनाज उत्पाद गाँवों को बहुत देकर नहीं जाते। विडंबना यह है कि उत्पादक या उपभोक्ता की बजाय सारा लाभ इनके बाजार या प्रसंस्करण में जुटा बीच का वर्ग ले जाता है। 1990 के दौरान हेस्को ने स्थानीय फल-फूलों को बेहतर मूल्य देने के लिए पहली प्रसंस्करण इकाई डाली और जैम-जेली जूस बनाने की शुरुआत की। देखते-देखते युवाओं-महिलाओं ने ऐसी इकाइयाँ डालनी शुरू की और आज उत्तराखंड में सैकड़ों प्रोसेसिंग इकाइयाँ काम कर रही हैं। एक-दूसरे के उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए संगठन भी खड़े कर दिए।
उत्तराखंड फ्रूट प्रोसेसिंग एसोसिएशन इसी का परिणाम है। ये जहाँ, अपने आपसी मुद्दों के प्रति सजग रहते हैं वहीं, सरकार को भी टोक-टोक कर रास्ता दिखाने की कोशिश करते हैं। ऐसे बहुत से प्रयोगों ने आज बड़ी जगह बना ली है। उत्तराखंड में मिस्त्री, लोहार, कारपेंटर आज नए विज्ञान व तकनीक के सहारे बेहतर आय कमाने लगे हैं। पहले पत्थरों का काम, स्थानीय कृषि उपकरण व कुर्सी-मेज के काम शहरों के नए उत्पादनों के आगे फीके पड़ जाते थे। आज ये नए विज्ञान व तकनीक से लैस हैं। इनके संगठन ने इन्हें अपने हकों के लिए लड़ना भी सिखाया है।
हेस्को पिछले 30 वर्षों में ऐसे आंदोलन के रूप में खड़ा हुआ, जिसमें हिमालय के ही नहीं बल्कि देश के कई संगठनों को भी दिशा दी है और ये आंदोलन मात्र आर्थिक ही नहीं था बल्कि समाज में संगठनात्मक व आचरण की मज़बूत पहल बनकर खड़ा हो गया। गाँवों की आर्थिकी का यह नया रास्ता अब राज्यों के बाद राष्ट्रीय आंदोलन होगा। जहाँ ग्रामीण संसाधनों पर आधारित गाँवों की अधिक स्वतंत्रता की पहल होगी।
3.कूड़े के ढेर हैं दुनिया की अगली चुनौती
शिक्षाविदों और पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित जानकारी के आधार पर विश्व में अपशिष्ट के पचास महाकाय क्षेत्र हैं : 18 अफ्रीका में, 17 एशिया में, आठ दक्षिण अमेरिका में, पाँच मध्य अमेरिका और कैरिबियन में तथा दो यूरोप में। कूड़े की विशाल बस्तियाँ चीन में भी हैं, पर उनकी सही गिनती और ब्योरा पाना असंभव है। विश्व की आधी आबादी को बेसिक वेस्ट मैनेजमेंट
सुविधा उपलब्ध न होने के कारण अनुमानतः दुनिया का लगभग चालीस फीसदी कूड़ा खुले में सड़ता है, जो निकट बस्तियों में रहनेवालों के स्वास्थ्य के लिए घातक है। समृद्ध देशों में कूड़े की रीसाइकिलिंग महँगी पड़ती है। गरीब देशों के लिए कूड़ा अतिरिक्त आय का साधन बनता है, भले म अपशिष्ट को योजनाबद्ध और सुरक्षित तरीके से ठिकाने लगाने के लिए उनके पास धन व संसाधन का घोर अभाव हो। कारखानों, अस्पतालों से निकला विषाक्त मल ढोने वालों और उसकी री-साइकिलिंग करनेवालों के प्रशिक्षण या स्वास्थ्य सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं। वयस्क और युवा कूड़ा कर्मी नंगे हाथों काम करते हुए जख्मी होते हैं, उसमें से खाद्य सामग्री टटोलते और खाते फिरते हैं।
भीषण गरमी में बिना ढका-समेटा और सड़ता अपशिष्ट खतरनाक कीटाणु और जहरीली गैस पैदा करता है। बारिश में इसमें से रिसता पानी भूमिगत जल में समाता है और आसपास के नदी, नालों, जलाशयों को प्रदूषित करता है। जलते कूड़े की जहरीली गैस और घोर प्रदूषण के बीच जीविका कमाने वालों और निकटवर्ती बस्तियों में रहनेवाले लोगों के स्वास्थ्य को दीर्घावधि में जो हानि निश्चित है, उनका जीवन काल कितना घटा है, उसके प्रति विश्व स्वास्थ्य संगठन कितना चिंतित है? यह ऐसा टाइम बम है, जो फटने पर विश्व जन स्वास्थ्य में प्रलय ला सकता है। संयुक्त राष्ट्र को ब्रिटेन की लीड्स यूनिवर्सिटी में संसाधन प्रयोग कुशलता के लेक्चरार कॉस्टस वेलिस की चेतावनी है कि खुले कूड़े के विशालकाय ढेर मलेरिया, टाइफाइड, कैंसर और पेट, त्वचा, सांस, आँख तथा जानलेवा जेनेटिक और संक्रामक रोगों के जनक हैं।
विकसित देशों की कई ज़रूरतें पिछड़े देशों से पूरी होती हैं। ज़रूरतमंद देशों की ‘स्वेटशॉप्स’ में बना सामान लागत से कई गुनी अधिक कीमत पर पश्चिमी देशों की दुकानों में सजता है। बड़ी बात नहीं कि कूड़े से ऊर्जा उत्पादन में अग्रणी जर्मनी का अनुसरण करने वाले अन्य यूरोपीय देश अफ्रीका जैसे पिछड़े देशों से कूड़ा आयात करने लगें। वह कूड़ा, जो सर्वव्यापी उपभोक्तावाद के रूप में पश्चिम की देन का ही अंजाम है। यह भी निश्चित है कि तब संपूर्ण अपशिष्ट के बाकायदा ‘वेस्ट मैनेजमेंट’ के कड़े से कड़े नियम लागू किए जाने के लिए शोर भी उन्हीं की तरफ से उठेगा कि आयातित कडा पूर्ण रूप से प्रदूषण रहित और आरोग्यकर हो।
मुंबई की देओनार कचरा बस्ती को ऐकरा (घाना), इबादान (नाइजीरिया), नैरोबी (केन्या), बेकैसी (इंडोनेशिया) जैसी अन्य विशाल कूड़ा बस्तियों की दादी-नानी कहा गया है। 1927 से अब तक इसमें 170 लाख टन कूड़े की आमद आंकी गई है। इससे लगभग छह मील की परिधि में रहने वाली पचास लाख आबादी के विरोध पर इसे धीरे-धीरे बंद किया जा रहा है, पर अब भी 1,500 लोग यहाँ कूड़ा बीनने, छाँटने के काम से रोजी कमाते हैं। विश्व के समृद्ध देशों को भारतोन्मुख करने का सबसे सार्थक प्रयास ऊर्जा उत्पादन में हो सकता है। कूड़े से ऊर्जा उत्पादन में अग्रणी यूरोपीय देशों की तकनीक भारत की कूड़ा बस्तियों को अभिशाप से वरदान में बदल सकती है।
Discover more from EduGrown School
Subscribe to get the latest posts sent to your email.