Class 12 Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश
अपठित-बोध क्या है?
‘अपठित’ शब्द ‘पठित’ में ‘अ’ उपसर्ग लगाने से बना है, जिसका अर्थ होता है-जिसे पहले न पढ़ा गया हो। ‘अपठित-बोध’ गद्य अथवा पद्य (काव्य) दोनों ही रूपों में हो सकता है। इन्हीं गद्यांशों या काव्यांशों पर प्रश्न पूछे जाते हैं, जिससे विद्यार्थियों की अर्थग्रहण-क्षमता का आकलन किया जा सके।
अपठित-बोध हल करते समय आने वाली कठिनाइयाँ
अपठित-बोध पहले से न पढ़ा होने के कारण इस पर आधारित प्रश्नों को हल करने में विद्यार्थी परेशानी महसूस करते हैं। कुछ विद्यार्थी अपठित का भाव या अर्थग्रहण किए बिना अनुमान के आधार पर उत्तर लिखना शुरू कर देते हैं। इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। कुछ विद्यार्थी प्रश्नों के उत्तर के रूप में अपठित की कुछ पंक्तियाँ उतार देते हैं। चूँक वे अपठित का अर्थ समझे बिना ऐसा करते हैं, इसलिए न तो उत्तर देने की यह सही विधि है और न उत्तर सही होने की गारंटी। ऐसे में अपठित को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए। अपठित का कोई अंश, वाक्य या शब्द-विशेष समझ में न आए तो भी घबराना या परेशान नहीं होना चाहिए। अपठित के भाव और प्रमुख विचारों को समझ लेने से भी प्रश्नों का उत्तर सरलता से दिया जा सकता है।
अपठित गद्यांश की आवश्यकता क्यों?
अपठित गद्यांश को पढ़ने, समझने और हल करने से अर्थग्रहण की शक्ति का विकास होता है। इससे किसी गद्यांश के विचारों और भावों को अपने शब्दों में बाँधने की दक्षता बढ़ती है। इसके अलावा भाषा पर गहन पकड़ बनती है।
अपठित गव्यांश पर पूछे जाने वाले प्रश्न
अपठित गद्यांश से संबंधित विविध प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनके उत्तर विद्यार्थी को देने होते हैं। इसमें अर्थग्रहण तथा कथ्य से संबंधित प्रश्नों के उत्तर के अलावा गद्यांश में आए कुछ कठिन शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि का अर्थ भी पूछा जाता है। इसके अंतर्गत वाक्य, रचनांतरण, शीर्षक-संबंधी प्रश्नों के अलावा किसी वाक्य या वाक्यांश का आशय स्पष्ट करने के लिए भी कहा जा सकता है।
कैसे हल करें अपठित गद्यांश
अपठित-गद्यांश के अंतर्गत पूछे जाने वाले प्रश्न दिए गए अंशों पर आधारित होते हैं। अत: इनका उत्तर भी हमें गद्यांश के आधार पर देना चाहिए, अपने व्यक्तिगत सोच-विचार पर नहीं। इसके अलावा इन प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान देना चाहिए :
- दिए गए गद्यांश को दो-तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए।
- इस समय जिन प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँ, उन्हें रेखांकित कर लेना चाहिए।
- अब बचे हुए एक-एक प्रश्न का उत्तर सावधानीपूर्वक खोजना चाहिए।
- प्रश्नों के उत्तर सदैव अपनी ही भाषा में लिखना चाहिए।
- भाषा सरल, सुबोध, बोधगम्य तथा व्याकरण-सम्मत होनी चाहिए।
- प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर ही देने चाहिए।
- प्रश्न जिस काल या प्रारूप में दिया हो, उत्तर भी उसी के अनुरूप देना चाहिए। दिए गए अवतरण के अंश को बिलकुल उसी रूप में नहीं उतारना चाहिए।
- कुछ शब्दों के एक से अधिक अर्थ होते हैं। ऐसे में व्याकरणिक प्रश्नों के उत्तर देते समय अवतरण में वर्णित प्रसंग को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए।
- पर्यायवाची, विलोम तथा अर्थ संबंधित उत्तर सावधानी से देना चाहिए।
- प्रश्नों के उत्तर में अनावश्यक विस्तार करने से बचना चाहिए, फिर भी एक अंक और दो अंक के प्रश्नों के उत्तरों में शब्द-सीमा का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
शीर्षक-संबंघी प्रश्न का उत्तर कैसे दें?
शीर्षक-संबंधी प्रश्न का उत्तर देते समय गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए तथा मूल भाव या कथ्य समझने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए :
- शीर्षक कम-से-कम शब्दों में लिखना चाहिए।
- शीर्षक का चुनाव गद्यांश से ही संबंधित होना चाहिए।
- शीर्षक पढ़कर ही गद्यांश के मूलभाव का अनुमान लगाया जाना चाहिए।
अपठित गदूयांश (हल सहित)
निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यान से पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में लिखिए :
1. ‘दाँत’- इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी-सी छोटी-छोटी हड्डियों में भी उस चतुर कारीगर ने वह कौशल दिखलाया है कि किसके मुँह में दाँत हैं जो पूरा वर्णन कर सके। मुख की सारी शोभा और सभी भोज्य पदार्थों का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक, भूर तथा बरौनी आदि की छवि लिखने में बहुत रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछ्छिए तो इन्हीं की शोभा से सबकी शोभा है। जब दाँतों के बिना पोपला-सा मुँह निकल आता है और चियुक एवं नासिक एक में मिल जाती हैं, उस समय सारी सुधराई मिट्टी में मिल जाती है। कवियों ने इनकी उपमा हीरा, मोती, माणिक से दी है, यह बहुत ठीक है।
यह वह अंग है, जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस एवं काव्यशास्त्र के नवों रस का आधार है। खाने का मज़ा इन्ही से है। इस बात का अनुभव यदि आपको न हो तो किसी वृद्ध से पूछ देखिए। केवल सतुआ चाटने के और रोटी को दूध में तथा दाल में भिगोकर गले के नीचे उतारने के सिवाय दुनिया भर की चीजों के लिए वह तरस कर ही रह जाता होगा। सच है दाँत बिना जब किसी काम के न रहें तब पुछे कौन? शंकराचार्य का यह पद महामंत्र है “अंगं गलितं पलितं मुंड दशनविहीन जातं तुंडम्” आदि। एक कहावत भी है –
“दाँत खियाने, खुर घिसे, पीठ बोझ नहिं लेइ,
ऐसे बूढ़े बैल को कौन बाँध भुस देई।”
आपके दाँत हाथी के दाँत तो हैं नहीं कि मरने पर भी किसी के काम आएँगे। आपके दाँत तो यह शिक्षा देते हैं कि जब तक हम अपने स्थान, अपनी जाति (दंतावली) और अपने काम में दृढ़ हैं, तभी तक हमारी प्रतिष्ठा है। यहाँ तक कि बड़े-बड़े कवि हमारी प्रशंसा करते हैं। पर मुख से बाहर होते ही एक अपावन, घृणित और फेंकने वाली हड्डी हो जाते हैं। गाल और होंठ दाँतों का परदा हैं। जिसके परदा न रहा अर्थात् स्वजातित्व की गैरतदारी न रही, उनकी निर्लज्ज जिंदगी व्यर्थ है। ऐसा ही हम उन स्वार्थ के अंधों के हक में मानते हैं जो रहे हमारे साथ, बने हमारे साथ ही, पर सदा हमारे देश-जाति के अहित ही में तत्पर रहते हैं। उनके होने का हमें कौन सुख? दुखती दाढ़ की पीड़ा से मुक्ति उसके उखड़वाने में ही है। हम तो उन्हीं की जै-जै कार करेंगे जो अपने देशवासियों से दाँत काटी रोटी का बत्ताव रखते हैं।
प्रश्न :
(क) कैसे कह सकते हैं कि दाँतों का निर्माण चतुर कारीगर ने किया है और इन्हीं की शोभा से सारी शोभा है? 2
(ख) कवियों ने दाँतों की उपमा किन वस्तुओं से दी है? उपमा का कारण भी स्पष्ट कीजिए।
(ग) भोजन के आनंद में दाँतों का क्या योगदान है? इसे समझने के लिए किसी वृद्ध के पास जाना क्यों जरूरी बताया है?
(घ) दाँतों की प्रतिष्ठा कब तक है? मुँह के बाहर होते ही उनके साथ भिन्न व्यवहार क्यों होता है? 2
(ङ) शंकराचार्य के कथन और एक अन्य कहावत के द्वारा लेखक क्या समझाना चाहता है?
(च) गाल और होंठ दाँतों का परदा कैसे हैं? उस परदे से क्या शिक्षा मिलने की बात कही गई है? 2
(छ) दाँतों की चर्चा में देश का अहित करने वालों का उल्लेख क्यों किया गया है? लेखक के अनुसार उनसे कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए?
(ज) इस गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक सुझाइए। (अधिकतम 5 शब्द)
उत्तर :
(क) दाँतों का निर्माण चतुर कारीगर यानी ईश्वर ने किया है। इसी के कारण हम भोज्य पदार्थों का स्वाद ले पाते हैं तथा हमारे चेहरे का सौंदर्य कायम रहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इन्हीं की शोभा से सारी शोभा है।
(ख) कवियों ने दाँतों की उपमा हीरा, मोती तथा माणिक से दी है, क्योंकि स्वस्थ तथा सुगठित दाँत इन्हीं की तरह शोभित होते हैं। साथ ही इनकी अनुपस्थिति चेहरे का सारा सौंदर्य बिगाड़ देती है।
(ग) दाँतों के कारण ही हम भोजन के छहों रसों का आनंद ले पाते हैं। ये हमें खाने का मज़ा देते हैं। इसे समझने के लिए किसी वृद्ध के पास जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि उसे भोजन करने की दोनों स्थितियों का अनुभव होता है, जो दाँतों के साथ और दाँतों के बिना किया जाता है।
(घ) दाँतों की प्रतिष्ठा तभी तक है, जब तक वे अपने स्थान पर मजबूती के साथ कायम रहते हैं तथा अपना काम बखूबी करते रहते हैं। मुँह से बाहर होते ही उनके साथ भिन्न व्यवहार इसलिए होता है, क्योंकि उस स्थिति में वे अपना काम कर पाने में अक्षम हो जाते हैं।
(ङ) शंकराचार्य के कथन तथा कहावत के द्वारा लेखक यह समझाना चाहता है कि अपने काम में अक्षम हो जाने पर किसी का भी महत्व कम हो जाता है तथा वह भार-सा हो जाता है।
(च) जैसे परदे के पीछे अच्छी – बुरी चीजें छुप जाती हैं तथा उनका शील बना रहता है, उसी तरह गाल और होंठ अपने पीछे दाँतों को छिपाए रखते हैं, उन्हें सहारा देते हैं तथा उनके परदे का काम करते हैं। इससे यही शिक्षा मिलती है कि इनसान को उनका कभी भी अहित नहीं करना चाहिए, जिनके साथ वह बात-व्यवहार रखता है।
(छ) देश का अहित करने वाले हमारे साथ रहते हैं, मगर हमारा भला नहीं सोचते। वैसी ही जैसे तकलीफ़ देने वाला दाढ़ अन्य दाढ़ों के साथ ही होता है, मगर शरीर को तकलीफ़ देता है, अपना उचित काम नहीं करता है। लेखक के अनुसार हमें उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम पीड़ा देने वाले दाढ़ के साथ करते हैं।
(ज) शीर्षक : दाँतों के बहाने।
2. जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तक़ाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता, अर्थात् अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला क्रदम है, इसके बिना मानव-मात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक ख़याल ही बना रह गया है, की ओर क़दम नहीं बढ़ाए जा सकते।
पहले क़दम की कसौटी यह है कि वह दूसरे क़दम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता। बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है, जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रूकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धमों, संप्रदायों और यहाँ तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएँ यहीं से पैदा होती हैं, जिनका आरंभ तो मानवतावादी तक़ाज़ों से होता है और अमल में वे मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं, जिसके हित की चिंता को सर्वोपरि मानकर ये चलते हैं।
सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्वी हितों से होना अवश्यंभावी है। अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और ये पहले से रहे हैं। सांप्रदायिकता ऐसी कि संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय साप्रदायिक संगठनों को पहले कभी जन-समर्थन नहीं मिल।।
प्रश्न :
(क) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) जिन लेखों को हम पढ़ते हैं, वे कैसे लिखे जाते हैं? इसका क्या परिणाम होता है?
(ग) किस अर्थ में सांप्रदायिकता को अच्छी बात कहा गया है?
(घ) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव के क्या परिणाम होते हैं?
(ङ) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से क्या तात्पर्य है? इनसे टकराव की स्थिति कब पैदा होती है?
(च) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-समर्थन क्यों नहीं मिला?
(छ) ‘संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय’-इसे स्वयं लेखक ने कैसे समझाया है?
(ज) ‘सांप्रदायिकता’ शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय अलग कीजिए।
(झ) (i) ‘तकाज़ा, दायरा’ तथा (ii) ‘असंतोष, समर्थन’ शब्द उत्पत्ति (स्रोत) की दृष्टि से किन भेदों के अंतर्गत आते हैं?
उत्तर:
(क) शीर्षक : सांप्रदायिकता के खतरे।
(ख) जिन लेखों को हम पढ़े हैं, वे किसी राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लाभ-हानि को सोचकर लिखे जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये लेख निष्पक्ष नही होते। ये किसी पक्ष-विशेष के फायद् के लिए लिखे जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये लेख किसी वर्ग विशेष के लिए हितकर होते हैं, जबकि दूसरे के लिए पूरी तरह व्यर्थ बन जाते हैं।
(ग) सांप्रदायिकता के वशीभूत होकर मनुष्य अपने संप्रदाय का चितन करता है। इससे व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता को त्यागकर आग कदम बढ़ाता है तथा मानव-मात्र की हित-चिता की ओर बढ़ता है, जिसके लिए वह अब तक सिर्फ़ सोचता था।
(घ) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव का परिणाम यह होता है कि इससे एक ऐसी पंगुता जन्म लेती है, जिससे हमारी प्रगति रुकती है और हम जाने-अनजाने दूसरों की प्रगति में बाधक बनते हैं। यहीं से धर्म, संप्रदाय की संकीर्णता पनपने लगती है।
(ङ) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से तात्पर्य ऐसे समुदाय से है, जिसे अवसर की कमी के कारण पिछड़ जाना पड़ा। इस अवसर की कमी के कारण यह अभावग्रस्त वर्ग प्रगति करने के स्थान पर पिछड़ता जाता है। अपने अस्तित्व पर आए खतरे को टालने के लिए वह संघर्ष करता है, जिससे अन्य वर्ग के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(च) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-जन का समर्थन इसलिए नहीं मिला, क्योंकि भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है, जिसमें समाज जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय आदि के आधार पर छिन्न-भिन्न नहीं हो पाया।
(छ) ‘संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय’ को समझाते हुए लेखक कहना चाहता है कि समाज में धार्मिक आधार पर संप्रदाय तो है ही, पर इसके अलावा भी अन्य संप्रदाय भी पनपकर अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। इनका आधार मुख्यतया अर्थ (धन) है, जिससे एक वर्ग बहुत धनी है, तो दूसरा अत्यंत निर्धन। इसके ऊँच-नीच में बँटा – संप्रदाय भी है, जो लोगों की असंतुष्टि का कारण है।
(ज) सांप्रदाघिकता : उपसर्ग-सम्, प्रत्यय-इक, ता।
(झ) (i) तक़ाजा, दायरा-आगत या विदेशी शब्द।
(ii) असंतोष, समर्थन-तत्सम शब्द।
3. आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विद्धध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईष्य्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस-बीस हताहत होते हैं, लाखो-करोड़ो की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।
कबीर हिंदु-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद् नहीं मानते। भेद् केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल, धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हुदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है, जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों-पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावे का विरोध किया।
समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून-से-न्यून हों। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पांति के भेद में विश्वास नहीं रखा। सदाचार ही संतों के लिए महत्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म-निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया।
प्रश्न :
(क) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) क्या कारण है कि कबीर छह सौ साल बाद भी प्रासंगिक लगते हैं?
(ग) किस समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है और क्यों?
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के क्या दुष्परिणाम होते हैं?
(ङ) मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार कैसे बलशाली बनते हैं?
(च) कबीर ने किन माध्यमों का विरोध किया और क्यों?
(ङ) समाज में एकरूपता कैसे लाई जा सकती है?
(ज) ‘सांप्रदायिकता’ शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय चुनिए।
(झ) ‘कबीर ने समाज में व्याप्त बाहयाडंबरों का कड़ा विरोध किया।’ इस वाक्य को मिश्र वाक्य में बद्लकर लिखिए।
(उ) गद्यांश में से शब्दों के उस जोड़े (शब्द-युग्म) को चुनकर लिखिए, जिसके दोनों शब्द परस्पर विलोम हों।
उत्तर :
(क) शीर्षक : सांप्रदायिकता-एक प्रसुप्त ज्वालामुखी।
(ख) छह सौ साल बाद भी कबीर के प्रासंगिक लगने का कारण यह है कि कबीर ने छह सौ साल पहले ही समाज में व्याप्त जिस सांप्रदायिकता की समस्या की ओर ध्यान खींचा था, वही सांप्रदायिकता आज भी अपना भयंकर रूप दिखाकर देश के सद्भाव को खराब कर जाती है।
(ग) जाति, धर्म, भाषागत ईष्ष्या, द्वेष, बैर आदि के कारण होने वाले दंगों तथा लड़ाई-झगड़े को ज्वालामुखी कहा गया है, क्योंकि सांप्रदायिकता किसी सोए हुए भयंकर ज्वालामुखी की तरह समय-असमय भड़क उठती है और हमारी एकता को तार-तार कर देती है।
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं :
- समाज में अनेक लोग असमय मारे जाते हैं।
- लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट होती है।
- विकास की गति रुक जाती है।
- भय, कष्ट और अशांति का वातावरण बन जाता है।
(ङ) हमारा समाज भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर बँटा हुआ है। इसके अलावा समाज अमीर-गरीब, ऊँच-नीच वर्गों में भी बँटा हुआ है, जिससे आपसी समरसता की जगह ईष्य्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती है। ये दुर्गुण मनुष्य में भेदभाव के विचार बलशाली बनाते हैं।
(च) कबीर ने राम-रहीम तक पहुँचने के लिए प्रयुक्त माध्यमों-पूजा, नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि का विरोध किया है। यह विरोध इसलिए किया जाता है, क्योंकि इससे समाज वर्गों एवं संप्रदायों में बंटता है, जिससे सामाजिक एकता खंडित होती है और समाज में एकरूपता नहीं आ पाती है।
(छ) समाज में एकरूपता लाने के लिए सबसे पहले आवश्यक है कि भाषा, जाति, धर्म जैसे कारक प्रश्न जो भेदभाव – पैदा करते हैं, उनका सही रूप लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए, ताकि ये एकता बढ़ाने का साधन बन सकें। इसके अलावा धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता को हतोत्साहित करने से एकरूपता लाई जा सकती है।
(ज) सांप्रदायिकता : उपसर्ग-सम्, प्रत्यय-इक, ता।
(झ) कबीर ने उन बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया, जो समाज में व्याप्त थे।
(ञ) समय-असमय।
4. हिंदी या उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी रुचि रखने वाला भी मुंशी प्रेमचंद को न जाने – ऐसा हो ही नहीं सकता, यह मेरा दृढ़ विश्वास है। सफलता के उच्च शिखरों को छूने के बावजूद प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे। उनके स्वभाव में दिखावा या अहंकार ढूँढ़ने वालों को निराश ही होना पड़ेगा। प्रेमचंद का जीवन अनुशासित था। मुँह-अँधेरे उठ जाना उनकी आदत थी। करीब एक घंटे की सैर के बाद (जो प्रायः स्कूल परिसर में ही वे लगा लिया करते थे) वे अपने ज़रूरी काम सुबह-सवेरे ही निपटा लेते थे। अपने अधिकांश काम वे स्वयं करते।
उनका मानना था कि जिस आदमी की हथेली पर काम करने के छाले-गट्टे न हों, उसे भोजन का अधिकार कैसे मिल सकता है? प्रेमचंद कर्मठता के प्रतीक थे। घर में झाड़-बुहारी कर देना, पत्नी बीमार हो तो चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोना आदि काम करने में भला कैसी शर्म! लिखने के लिए उन्हें प्रातःकाल प्रिय था, पर दिन में भी जब अवसर मिले, उन्हें मेज़ पर देखा जा सकता था। वे वक्त के बड़े पाबंद थे। वे समय पर स्कूल पहुँचकर बच्चों के सामने अपना आदर्श रखना चाहते थे।
समय की बरबादी को वे सबसे बड़ा गुनाह मानते थे। उनका विचार था कि वक्त की पाबंदी न करने वाला इंसान तरक्की नहीं कर सकता और ऐसे इंसानों की कौम भी पिछड़ी रह जाती है। ‘कौम’ से उनका आशय समाज और देश से था। इतने बड़े लेखक होने के बावजूद घमंड उन्हें छू तक नहीं गया था। उन्होंने अपना सारा जीवन कठिनाइयों से जूझते हुए बिताया।
प्रश्न :
(क) प्रेमचंद कौन थे? लेखक का प्रेमचंद के बारे में क्या दृढ़ विश्वास है?
(ख) आशय स्पष्ट कीजिए-प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे।
(ग) प्रेमचंद की प्रातःकालीन दिनचर्या क्या थी?
(घ) प्रेमचंद के मत में भोजन का अधिकार किसे नहीं है? क्यों?
(ङ) कैसे कह सकते हैं कि प्रेमचंद कर्मठता के प्रतीक थे?
(च) समयपालन के बारे में प्रेमचंद की मान्यताओं पर टिप्पणी कीजिए।
(छ) उक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) वाक्य प्रयोग कीजिए-मुँह-अँधेरे।
(झ) संयुक्त वाक्य में बदलिए-उन्होंने अपना सारा जीवन कठिनाइयों से जूझते हुए बिताया।
(ञ) प्रत्यय अलग कीजिए-पाबंदी, कर्मठता।
उत्तर :
(क) प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के महान एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे, जिन्हें ‘उपन्यास-सम्राट’ भी कहा जाता है। उनके बारे में लेखक का दृढ़ विश्वास यह है कि हिंदी या उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी भी रुचि रखने वाला व्यक्ति प्रेमचंद को ज़रूर जानता है। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य-प्रेमियों तक पहुँच गए थे।
(ख) ‘प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे’-का आशय यह है कि प्रेमचंद ने अपने लेखन से सफलता की अनेक ऊँचाइयों को छुआ था। इतनी सफलता मिलने पर भी प्रेमचंद में ज़रा भी घमंड न आया और न उनके स्वभाव में कोई दिखावा ही आ सका। वे महान साहित्यकार होते हुए भी बनावटीपन से सदैव दूर रहे।
(ग) प्रेमचंद प्रात: तड़के उठ जाते थे। वे स्कूल परिसर में एक घंटा सैर करते थे। वे अपने ज्ररूरी काम तथा लेखन भी सवेरे ही निपटा लेते थे।
(घ) प्रेमचंद के मत में भोजन का अधिकार उसे नहीं है, जिसकी हथेलियों में परिश्रम करने के प्रमाण न मौजूद हों। ऐसा इसलिए कि स्वयं प्रेमचंद बहुत ही परिश्रमी थे जो समय का पल भी नहीं गँवाते थे। वे अत्यंत कर्मठ एवं परिश्रमी व्यक्ति थे। वे चाहते थे कि अपनी रोटी के लिए हर व्यक्ति परिश्रम करे।
(ङ) प्रेमचंद अपने अधिकांश काम स्वयं ही करते थे। वे किसी काम को छोटा समझे बिना करते थे। घर में झाडू-बुहारी कर देना, पत्नी बीमार हो तो चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोने जैसे काम करने में कोई शर्म नहीं महसूस करते थे, जो उनकी कर्मठता का प्रतीक है।
(च) प्रेमचंद समय पर स्कूल पहुँचकर बच्चों के सामने आदर्श रखना चाहते थे। वे समय की बरबादी को गुनाह मानते थे तथा किसी जाति या समाज के पीछे रह जाने का कारण लोगों द्वारा समय की महत्ता जाने बिना समय बरबाद करने को मानते थे। वे समय के एक-एक पल का उपयोग करने के प्रबल पक्षधर थे।}
(छ) शीर्षक : समय के पाबंद-प्रेमचंद।
(ज) मुँह-अँधेरे-प्राचीन काल में ऋषि-मुनि मुँह-अँधेरे नदी की ओर स्नान करने के लिए जाते थे।
(झ) संयुक्त वाक्य-वे कठिनाइयों से जूझते रहे और इस तरह सारा जीवन बिताया।
(ञ) मूल शब्द – प्रत्यय
पाबंद – ई
कर्मठ – ता
5. जब मनुष्य जंगली था, वनमानुष जैसा, उसे नाखून की ज़रूरत थी अपनी जीवन-रक्षा के लिए। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाख़ून के बाद ही उनका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पकड़ना पड़ता था, नाख़न उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा। पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा। उसने हड्डियों के भी हथियार बनाए। इन हड्डियों के हथियारों में सबसे मज़बूत और सबसे ऐतिहासिक था देवताओं के राजा का वज्र जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था।
मनुष्य और आगे बढ़ा, उसने धातु के हथियार बनाए। जिनके पास लोहे के अस्त्र और शस्त्र थे, वे विजयी हुए। इतिहास आगे बढ़ा। पलीते वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बम-वर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा कर और आगे चल पड़ा है, पर प्रकृति मनुष्य को उस भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है। वह लाख वर्ष पहले के ‘नखदंतावलंबी’ जीव को उसकी असलियत बता रही है।
प्रश्न :
(क) प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्य को वनमानुष जैसा क्यों कहा गया है और तब उसे नाखून की ज़रूरत क्यों थी?
(ख) धीरे-धीरे मनुष्य ने पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालों का सहारा क्यों लिया?
(ग) दधीचि की हड्डियों से कौन-सा अस्त्र बना और वह किस उद्देश्य के लिए था?
(घ) किन अस्त्र-शस्त्रों ने किस तरह इतिहास को कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है?
(ङ) हथियारों की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होने पर भी प्रकृति उसके भीतर वाले अस्त्र को आज भी बढ़ाए जा रही है, क्यों?
(च) प्रस्तुत गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(छ) ‘वनमानुष’ समस्तपद का विग्रह कीजिए और समास का भेद भी बताइए।
(ज) ‘ऐतिहासिक’ शब्द से मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए।
(झ) ‘विजय’, ‘आवश्यक’-विलोम शब्द लिखिए।
(ज) ‘नखदंतावलंबी’ जीव किसे कहा गया है?
उत्तर :
(क) प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्य को वनमानुष जैसा इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह वन (जंगल) में रहता था। वह भोजन की तलाश में इधर-उधर भटकता था। उसके सारे कार्य-व्यवहार वनमानुषों जैसे थे। तब उसे आत्मरक्षा के लिए, प्रतिद्वंद्वियों को पकड़ने तथा शिकार फाड़ने के लिए नाख़ की ज़रूरत थी।
(ख) धीरे-धीरे मनुष्य ने पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालों का सहारा इसलिए लिया, क्योंकि वह अपने अंगों के अलावा बाहरी वस्तुओं का सहारा लेना चाहता था। पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालियों से वह दूर स्थित शिकार को मार सकता था।
(ग) द्धीचि की हड्डियों से देवताओं के राजा का वज्र बना। इस वज्र को बनाने का उद्देश्य था-असुरों के राजा वृत्तासुर नामक राक्षस को हराना। उसकी वीरता एवं पराक्रम के कारण देवता दानवों के साथ युद्ध में पराजय की कगार पर पहुँच चुके थे।
(घ) मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर बढ़ता गया, उसने हर क्षेत्र में प्रगति की। आत्मरक्षा के लिए बनाए जाने वाले हथियार भी इससे अछूते न थे। उसने लकड़ी और पत्थर के हथियारों का त्यागकर बंदूक, कारतूस, तोप, बमवर्षक वायुयान आदि बनाए, जो गलत हाथों में पड़ने पर मनुष्यता का विनाश कर सकते हैं। इतिहास में ऐसे उदाहरण हैं। इन अस्त्रों ने इतिहास को कलंकित किया है।
(ङ) हथियारों की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होने पर भी प्रकृति उसके भीतर वाले अस्त्र अर्थात नाख़ून को आज भी बढ़ाए जा रही है, क्योंकि ऐसा करके प्रकृति मनुष्य को यह असलियत बताती रहती है कि तुम वही मनुष्य हो जो लाख वर्ष पहले नाखूनों और दाँतों के सहारे जीवित रहते थे।
(च) शीर्षक : नाख़ून क्यों बढ़ते हैं?
(छ) वनमानुष – विग्रह-वन में रहने वाला मानुष (मनुष्य)।
समास का नाम-अधिकरण तत्पुरुष समास।
(ज) ऐतिहासिक : मूल शब्द-इतिहास, प्रत्यय-इक।
(झ) विजय × पराजय
आवश्यक × अनावश्यक
(ञ) नखदंतावलंबी जीव आदि मानव को कहा गया है, क्योंकि वह जंगल में रहते हुए नाख़ और दौतों को अस्त्र के रूप में प्रयोग करता था।
6. ज्ञान-राशि के संचित कोष ही का नाम साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखने वाली और निर्दोष होने पर भी, यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह, रूपवती भिखारिन की तरह, कदापि आद्रणीय नहीं हो सकती। उसकी शोभा, उसकी श्रीसंपन्नता, उसकी मान-मर्यादा उसके साहित्य पर ही अवलंबित रहती है। जाति-विशेष के उत्कर्षापकर्ष का, उसके उच्च-नीच भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संघटन का, उसके ऐतिहासिक घटना-चक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिबिब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रंथ-साहित्य ही में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सामाजिक सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य है।
जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उसके साहित्य रूपी आईने में ही मिल सकती है। इस आईने के सामने जाते ही हमें यह तत्काल मालूम हो जाता है कि अमुक जाति की जीवनी-शक्ति इस समय कितनी या कैसी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। आप भोजन करना बंद कर दीजिए या कम कर दीजिए, आपका शरीर क्षीण हो जाएगा और भविष्य-अचिरात् नाशोन्मुख होने लगेगा। इसी तरह आप साहित्य के रसास्वाद्न से अपने मस्तिष्क को वंचित कर दीजिए, वह निष्क्रिय होकर धीरे-धीरे किसी काम का न रह जाएगा। शरीर का खाद्य भोजन है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य। यदि हम अपने मस्तिष्क को निष्क्रिय और कालांतर में निर्जीव-सा नहीं कर डालना चाहते, तो हमें साहित्य का सतत सेवन करना चाहिए और उसमें नवीनता और पौष्टिकता लाने के लिए उसका उत्पाद्न भी करते रहना चाहिए।
प्रश्न :
(क) “सब तरह के भावों को प्रकट करने वाली ………… आदरणीय नहीं हो सकती”-कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ख) किसी भी जाति-विशेष का ग्रंथ-साहित्य उसकी किन-किन परिस्थितियों को दर्शाता है और क्यों?
(ग) ‘साहित्य के सतत सेवन और उसके उत्पादन’ से लेखक का क्या तात्पर्य है और यह क्यों ज़रूरी है?
(घ) साहित्य को ‘आईना’ क्यों कहा गया है? विवेचन कीजिए।
(ङ) “शरीर का खाद्य भोजन है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य।” लेखक के इस कथन से क्या तात्पर्य है?
(च) साहित्य के रसास्वादन से मस्तिष्क को वंचित करने का क्या परिणाम होने का अंदेशा है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) विलोम शब्द लिखिए :
क्षीण, उत्कर्ष
(इ) एक उपसर्ग या एक प्रत्यय अलग कीजिए :
भोजनीय, अभाव, अवलंबित, प्रतिबिंब
(ञ) ‘वह निष्क्रिय होकर धीरे-धीरे किसी काम का न रह जाएगा।’ इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए।
उत्तर :
(क) “सब तरह के भावों ……….. सकती” का आशय यह है कि भले ही भाषा में भावों को प्रकट करने की योग्यता हो या भाषा एकदम शुद्ध हो, परंतु उसको आदर तभी मिलता है जब उस भाषा का अपना साहित्य हो, नहीं तो उसकी दशा रूपवती भिखारिन-जैसी होती है।
(ख) किसी भी जाति-विशेष का ग्रंथ-साहित्य उस जाति के फलने-फूलने तथा नष्ट होने, उसके अच्छे-बुरे विचारों को, उसके धार्मिक विचारों को, उस समाज की अच्छी-बुरी घटनाओं को तथा राजनैतिक परिस्थितियों को दर्शाता है, क्योंकि साहित्य का समाज से घनिष्ठ संबंध होता है।
(ग) ‘साहित्य के सतत सेवन’ का तात्पर्य है-साहित्य का लगातार अध्ययन करते रहना तथा ‘उसके उत्पादन’ से तात्पर्य है-साहित्यिक रचनाएँ। यह इसलिए आवश्यक है ताकि हमारा मस्तिष्क अपनी जाति या समाज के बारे में चिंतनशील बना रहे और हम उसके उत्थान और विकास के लिए सजग होकर चिंतनशील बने रहें।
(घ) जिस प्रकार आईने के सामने खड़े होने पर अपने चेहरे का यथार्थ पता चल जाता है, उसी प्रकार साहित्य के आईने से हमें पता चल जाता है कि समाज की विभिन्न जातियों की जीवन-शक्ति इस समय कैसी और कितनी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। अतः साहित्य को, आईना कहा गया है।
(ङ) जिस प्रकार शरीर को जीवित रखने, बढ़ने तथा अन्य क्रियाओं के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मस्तिष्क को सक्रिय तथा सोच-विचार करने योग्य बनाए रखने के लिए साहित्य की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में हमारे मस्तिष्क की वही दशा होगी, जो भोजन के अभाव में शरीर की हो जाती है।
(च) साहित्य के रसास्वादन से मस्तिष्क को वंचित रखने से यह अंदेशा होता है कि मस्तिष्क धीरे-धीरे निष्क्रिय होकर अनुपयोगी बन जाएगा।
(छ) शीर्षक : ‘साहित्य की उपयोगिता’ अथवा ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’
(ज) विलोम : क्षीण सुदृढ़ उत्कर्ष अपकर्ष
(झ) भोजनीय : प्रत्यय-ईय
अभाव : उपसर्ग-अ
अवलंबित : उपसर्ग-अव प्रत्यय-इत
प्रतिबिंब : उपसर्ग-प्रति।
(ज) वह निष्क्रिय होगा और किसी काम का नहीं रह जाएगा।
7. मधुर वचन वह रसायन है जो पारस की भाँति लोहे को भी सोना बना देता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी उसके वश में हो, उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करने लगते हैं। व्यक्ति का मधुर व्यवहार पाषाण-हृदयों को भी पिघला देता है। कहा भी गया है-“तुलसी मीठे वचन ते, जग अपनो करि लेत।”
निस्संदेह मीठे वचन औषधि की भाँति श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा व वेदना को हर लेते हैं। मीठे वचन सभी को प्रिय लगते हैं। कभी-कभी किसी मृदुभाषी के मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखा उसे उबार लेते हैं, उसमें जीवन-संचार कर देते हैं; उसे सांत्वना और सहयोग देकर यह आश्वासन देते हैं कि वह व्यक्ति अकेला व असहाय नहीं, अपितु सारा समाज उसका अपना है, उसके सुख-दुख का साथी है। किसी ने सच कहा है”मधुर वचन है औषधि, कटुक वचन है तीर।”
मधुर वचन श्रोता को ही नहीं, बोलने वाले को भी शांति और सुख देते हैं। बोलने वाले के मन का अहंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है। उसका मन स्वच्छ और निर्मल बन जाता है। वह अपनी विनम्रता, शिष्टता एवं सदाचार से समाज में यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान प्राप्त करता है। उसके कार्यों से उसे ही नहीं, समाज को भी गौरव और यश प्राप्त होता है और समाज का अभ्युत्थान होता है। इसके अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईर्ष्या-द्व्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। जिस समाज में सौहार्द्र नहीं, सहानुभूति नहीं, किसी दुखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं, वह समाज कैसा? वह तो नरक है।
प्रश्न :
(क) मधुर वचन निराशा में डूबे व्यक्ति की सहायता कैसे करते हैं?
(ख) मधुर वचन को ‘औषधि’ की संज्ञा क्यों दी गई है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) मधुर वचन बोलने वाले को क्या लाभ देते हैं?
(घ) समाज के अभ्युत्थान में मधुर वचन अपनी भूमिका कैसे निभाते हैं?
(ङ) मधुर वचन की तुलना पारस से क्यों की गई है?
(च) लेखक ने कैसे समाज को नरक कहा है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज ) विलोम शब्द लिखिए : श्रोता, सम्मान।
(झ) उपसर्ग या प्रत्यय अलग कीजिए : विनम्र, सदाचारी।
(ञ) मिश्र वाक्य में बदलिए-बोलने वाले के मन का अंकार और दंभ सहज ही विनिष्ट हो जाता है।
उत्तर :
(क) मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखाते हैं। ऐसे वचन उसे निराशा से बचा लेते हैं तथा सांत्वना एवं सहयोग देते हैं। ये वचन उस व्यक्ति में जीवन-संचार करके यह बताते हैं कि वह अकेला एवं असहाय नहीं है। समाज उसकी मदद के लिए तैयार खड़ा है।
(ख) मधुर वचन हर किसी को सुनने में अच्छे लगते हैं और व्यक्ति की वेदना, व्यथा एवं उसकी पीड़ा हर लेते हैं तथा उसे आराम पहुँचाते हैं। मधुर वचन सुनकर व्यक्ति अपना दुख-दर्द भूल जाता है, इसलिए इसे औषधि की संज्ञा दी गई है।
(ग) जो मधुर वचन बोलते हैं, मधुर वचन उन्हें –
- सुख और शांति देते हैं।
- सहज ही दंभ और अहंकार विहीन बना देते हैं।
- यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान दिलाते हैं।
- मन से निर्मल और स्वच्छ बनाते हैं।
(घ) मधुर वचनों से विनम्रता, शिष्टता, सदाचार आदि मानव-मूल्य पुष्पित-पल्लवित होते हैं। इन मूल्यों के अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईष्प्या-द्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। इस प्रकार मधुर वचन समाज के अभ्युत्थान में अपनी भूमिका निभाते हैं।
(ङ) जिस प्रकार पारस पत्थर का स्पर्श पाकर हर तरह का लोहा सोना बन जाता है और उसकी उपयोगिता एवं मूल्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार मधुर वचन के प्रभाव से अन्य मनुष्यों की निकटता एवं मित्रता मिलती है तथा पशु-पक्षी भी मित्र बन जाते हैं। मधुर वचन बोलने वाले सम्मान पाने के साथ ही सबके प्रिय बन जाते हैं। इसलिए मधुर वचन की तुलना पारस से की गई
(च) लेखक ने उस समाज को नरक कहा है, जहाँ पारस्परिक कलह, ईष्प्या-द्वेष, वैमनस्य का बोलबाला होता है तथा सौहार्द्र, सहानुभूति तथा किसी दुखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं होता है एवं मधुर वचन न बोलकर अंकारी बने रहते हैं।
(छ) शीर्षक : मधुर वचन है औषधि।
(ज) विलोम शब्द :
श्रोता × वक्ता।
सम्मान × अपमान।
(झ) विनम्र : उपसर्ग – वि, मूल शब्द – नम्र
सदाचारी : मूल शब्द – सदाचार, प्रत्यय – ई
(ब) मिश्र वाक्य : जो मधुर वचन बोलते हैं, उनके मन का अहंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है।
8. आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़ूरी हो गया है कि लोग दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें; उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है, क्योंक यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।
स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे। उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के बीच संबाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज और स्वाभाविक मानते थे। स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुदुध थे। वे कहा करते थे-यदि सभी मानव एक ही धर्म मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।
प्रश्न :
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) टापू किसे कहते हैं? ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
(ग) “भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़र्वरी है।” क्या ज़रूरी है और क्यों?
(घ) स्वामी विवेकानंद को ‘अपने समय से बहुत आगे’ क्यों कहा गया है?
(ङ) स्वामी जी के मतानुसार सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी और क्यों?
(च) भारत में साथ-साथ रह रहे किन्हीं चार धर्मों और मतों के नाम लिखिए।
(ङ) गद्यांश से ‘अनु-‘ और ‘सम्-‘ उपसर्ग वाले दो-द्रो शब्द चुनकर लिखिए।
(ज) मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए-स्थापित, नैतिक।
(इ) ‘यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।’ इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए।
(उ) समास का नाम लिखिए-पूजा-पद्धति, मत-मतांतर।
(ट) अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-प्राणघातक, अनुष्ठान।
उत्तर :
(क) शीर्षक : भारत में विविध धर्मों की महत्ता।
(ख) ‘टापू’ समुद्र के बीच कहीं भी उभरा हुआ वह भू-भाग होता है जो ज़मीन जैसा होता है, परंतु चारों ओर से जल से घिरे होने के कारण उसका संपर्क अन्य स्थानों से कटा होता है। टापू की तरह जीने का आशय है-समाज से अलग-थलग रहकर जीना तथा अन्य पंथों-मतों के बारे में जानने-समझने का प्रयास न करना।
(ग) भारत जैसे देश में यह और भी ज़रूरी है कि लोग परस्पर संबंध बनाकर रखें। वे एक-दूसरे को जानें-समझें, उनकी आवश्यकताओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं को समझकर महत्व दें तथा लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले विधिन्न धर्मों का सम्मान करें। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंक भारत एक धर्म, मत या विचारधारा का देश नही है।
(घ) स्वामी विवेकानंद् को अपने समय से बहुत आगे इसलिए कहा गया है, क्योंकि उन्होंने अपनी बुद्धि और विवेक से यह बात बहुत पहले समझ लिया था कि भारत में एक धर्म, मत या एक विचारधारा का चल पाना कठिन है। वे सभी के बीच मेलजोल की आवश्यकता समझ गए थे।
(ङ) स्वामी विवेकानंद् के मतानुसार सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब होगी कि जब सभी मनुष्य एक ही धर्म मानने लगें, एक जैसी पूजा-पद्धति अपना लें और एक समान नैतिकता का पालन करने लगें। इससे हमारा धार्मिक और आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा जो हमारी संस्कृति के लिए घातक होगा।
(च) भारत में साथ-साथ रह रहे चार धर्म हैं – (i) हिंदू धर्म, (ii) मुस्लिम धर्म, (iii) सिख धर्म और (iv) इसाई धर्म। चार मत हैं – (i) वैष्णव मत, (ii) शैव मत, (iii) आर्यसमाजी मत और (iv) निंबार्क मत।
(छ) ‘अनु’ उपसर्ग वाले शब्द -अनुष्ठान, अनुपालन।
‘सम्’ उपसर्ग वाले शब्द-संभव, संप्रदाय, संवाद, सम्मान (कोई दो)।
(ज) स्थापित : मूल शब्द-स्थापन, प्रत्यय-इत।
नैतिक : मूल शब्द-नीति, प्रत्यय-इक।
(झ) संयुक्त वाक्य : यह देश न किसी एक धर्म का है और न किसी एक मत या विचारधारा का।
(ज) पूजा-पद्धति : विग्रह-पूजा की पद्धति, समास-तत्पुरुष समास।
मत-मतांतर : विग्रह-मत और मतांतर, समास-द्वंद्व समास।
(ञ) वाक्य-प्रयोग : प्राणघातक-नक्सलवादियों ने सैनिकों पर प्राणघातक हमला कर दिया।
अनुष्ठान-वर्षा होने की संभावना न देख ग्रामीणों ने धार्मिक अनुष्ठान करने का मन बनाया।
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