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Class 12 Hindi अनुच्छेद लेखन
हिंदी साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधाओं में एक है-अनुच्छेद लेखन। यह अपने मन के भाव-विचार अभिव्यक्त करने की विशिष्ट विधा है जिसके माध्यम से हम संबंधित विचारों को ‘गागर में सागर’ की तरह व्यक्त करते हैं। अनुच्छेद निबंध की तुलना में आकार में छोटा होता है, पर यह अपने में पूर्णता समाहित किए रहता है। इस विधा में बात को घुमा-फिराकर कहने के बजाए सीधे-सीधे मुख्य बिंदु पर आ जाते हैं। इसमें भूमिका और उपसंहार दोनों को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता है। इसी तरह कहावतों, सूक्तियों और अनावश्यक बातों से भी बचने का प्रयास किया जाता है। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनावश्यक बातों को छोड़ते-छोड़ते हम मुख्य अंश को ही न छोड़ जाए और विषय आधा-अधूरा-सा लगने लगे।
अनुच्छेद लेखन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –
- विषय का आरंभ मुख्य विषय से करना चाहिए।
- वाक्य छोटे-छोटे, सरल तथा परस्पर संबद्ध होने चाहिए।
- भाषा में जटिलता नहीं होनी चाहिए।
- पुनरुक्ति दोष से बचने का प्रयास करना चाहिए।
- विषय के संबंध में क्या, क्यों, कैसे प्रश्नों के उत्तर इसी क्रम में देकर लिखने का प्रयास करना चाहिए।
निबंध की भाँति ही अनुच्छेदों को मुख्यतया चार भागों में विभाजित कर सकते हैं –
- वर्णनात्मक अनुच्छेद
- भावात्मक अनुच्छेद
- विचारात्मक अनुच्छेद
- विवरणात्मक अनुच्छेद
उदाहरण
मिट्टी तेरे रूप अनेक
संकेत बिंदु –
- सामान्य धारणा
- कल्याणकारी रूप
- मानव शरीर की रचना के लिए आवश्यक
- बच्चों के लिए मिट्टी।
- जीवन का आधार
प्रायः जब किसी वस्तु को अत्यंत तुच्छ बताना होता है तो लोग कह उठते हैं कि यह तो मिट्टी के भाव मिल जाएगी। लोगों की धारणा मिट्टी के प्रति भले ही ऐसी हो परंतु तनिक-सी गहराई से विचार करने पर यह धारणा गलत साबित हो जाती है। समस्त जीवधारियों यहाँ तक पेड़-पौधों को भी यही मिट्टी शरण देती है। आध्यात्मवादियों का तो यहाँ तक मानना है कि मानव शरीर निर्माण के लिए जिन तत्वों का प्रयोग हुआ है उनमें मिट्टी भी एक है।
जब तक शरीर ज़िंदा रहता है तब तक मिट्टी उसे शांति और चैन देती है और फिर मृत शरीर को अपनी गोद में समाहित कर लेती है। पृथ्वी पर जीवन का आधार यही मिट्टी है, जिसमें नाना प्रकार के फल, फ़सल और अन्य खाद्य वस्तुएँ पैदा होती हैं, जिसे खाकर मनुष्य एवं अन्य प्राणी जीवित एवं हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। यह मिट्टी कीड़े-मकोड़े और छोटे जीवों का घर भी है। यह मिट्टी विविध रूपों में मनुष्य और अन्य जीवों का कल्याण करती है। विभिन्न देवालयों को नवजीवन से भरकर कल्याणकारी रूप दिखाती है। मिट्टी का बच्चों से तो अटूट संबंध है। इसी मिट्टी में लोटकर, खेल-कूदकर वे बड़े होते हैं और बलिष्ठ बनते हैं। मिट्टी के खिलौनों से खेलकर वे अपना मनोरंजन करते हैं। वास्तव में मिट्टी हमारे लिए विविध रूपों में नाना ढंग से उपयोगी है।
आज की आवश्यकता-संयुक्त परिवार
संकेत बिंदु –
- एकल परिवार का बढ़ता चलन
- एकल परिवार और वर्तमान समाज
- संयुक्त परिवार की
- आवश्यकता
- बुजुर्गों की देखभाल
- एकाकीपन को जगह नहीं।
समय सतत परिवर्तनशील है। इसका उदाहरण है-प्राचीनकाल से चली आ रही संयुक्त परिवार की परिपाटी का टूटना और एकल परिवार का चलन बढ़ते जाना। शहरीकरण, बढ़ती महँगाई, नौकरी की चाहत, उच्च शिक्षा, विदेशों में बसने की प्रवृत्ति के कारण एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके अलावा बढ़ती स्वार्थ वृत्ति भी बराबर की जिम्मेदार है। इन एकल परिवारों के कारण आज बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, माता-पिता के लिए दुष्कर होता जाता है। जिस एकल परिवार में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते हों, वहाँ यह और भी दुष्कर बन जाता है। आज समाज में बढ़ते क्रेच और उनमें पलते बच्चे इसका जीता जागता उदाहरण हैं।
प्राचीनकाल में यह काम संयुक्त परिवार में दादा-दादी, चाचा-चाची, ताई-बुआ इतनी सरलता से कर देती थी कि बच्चे कब बड़े हो गए पता ही नहीं चल पाता था। संयुक्त परिवार हर काल में समाज की ज़रूरत थे और रहेंगे। भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार और भी महत्त्वपूर्ण हैं। बच्चों और युवा पीढ़ी को रिश्तों का ज्ञान संयुक्त परिवार में ही हो पाता है। यही सामूहिकता की भावना, मिल-जुलकर काम करने की भावना पनपती और फलती-फूलती है।
एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आने की भावना संयुक्त परिवार में ही पनपती है। संयुक्त परिवार बुजुर्गं सदस्यों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। परिवार के अन्य सदस्य उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं जिससे उन्हें बुढ़ापा कष्टकारी नहीं लगता है। संयुक्त परिवार व्यक्ति को अकेलेपन का शिकार नहीं होने देते हैं। आपसी सुख-दुख बाँटने, हँसी-मजाक करने के साथी संयुक्त परिवार स्वत: उपलब्ध कराते हैं। इससे लोग स्वस्थ, प्रसन्न और हँसमुख रहते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग-मनुष्यता के लिए खतरा
संकेत बिंदु –
- ग्लोबल वार्मिंग क्या है?
- समस्या का समाधान।
- ग्लोबल वार्मिंग के कारण
- ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव
गत एक दशक में जिस समस्या ने मनुष्य का ध्यान अपनी ओर खींचा है, वह है-ग्लोबल वार्मिंग। ग्लोबल वार्मिंग का सीधा-सा अर्थ है है-धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि। यद्यपि यह समस्या विकसित देशों के कारण बढ़ी है परंतु इसका नुकसान सारी धरती को भुगतना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारणों के मूल हैं—मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताएँ और उसकी स्वार्थवृत्ति।
मनुष्य प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में शामिल होकर पर्यावरण को अंधाधुंध क्षति पहँचा रहा है। कल-कारखानों की स्थापना, नई बस्तियों को बसाने, सड़कों को चौड़ा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की गई है। इससे पर्यावरण को दोतरफा नुकसान हुआ है तो इन गैसों को अपनाने वाले पेड़-पौधों की कमी से आक्सीजन, वर्षा की मात्रा और हरियाली में कमी आई है। इस कारण वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक ओर धरती की सुरक्षा कवच ओजोन में छेद हुआ है तो दूसरी ओर पर्यावरण असंतुलित हुआ है। असमय वर्षा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सरदी-गरमी की ऋतुओं में भारी बदलाव आना ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रभाव है। इससे ध्रुवों पर जमी बरफ़ पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है जिससे एक दिन प्राणियों के विनाश का खतरा होगा, अधिकाधिक पौधे लगाकर उनकी देख-भाल करनी चाहिए तथा प्रकृति से छेड़छाड़ बंद कर देना चाहिए। इसके अलावा जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करना होगा। आइए इसे आज से शुरू कर देते हैं, क्योंकि कल तक तो बड़ी देर हो जाएगी।
नर हो न निराश करो मन को
संकेत बिंदु –
- आत्मविश्वास और सफलता
- आशा से संघर्ष में विजय
- कुछ भी असंभव नहीं
- महापुरुषों की सफलता का आधार।
मानव जीवन को संग्राम की संज्ञा से विभूषित किया है। इस जीवन संग्राम में उसे कभी सुख मिलता है तो कभी दुख। सुख मन में आशा एवं प्रसन्नता का संचार करते हैं तो दुख उसे निराशा एवं शोक के सागर में डुबो देते हैं। इसी समय व्यक्ति के आत्मविश्वास की परीक्षा होती है। जो व्यक्ति इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना विश्वास नहीं खोता है और आशावादी बनकर संघर्ष करता है वही सफलता प्राप्त करता है। आत्मविश्वास के बिना सफलता की कामना करना दिवास्वप्न देखने के समान है।
मनुष्य के मन में यदि आशावादिता नहीं है और वह निराश मन से संघर्ष करता भी है तो उसकी सफलता में संदेह बना रहता है। कहा भी गया है कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। मन में जीत के प्रति हमेशा आशावादी बने रहना जीत का आधार बन जाता है। यदि मन में आशा संघर्ष करने की इच्छा और कर्मठता हो तो मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी उसी प्रकार विजय प्राप्त करता है जैसा नेपोलियन बोनापार्ट ने।
इसी प्रकार निराशा, काम में हमें मन नहीं लगाने देती है और आधे-अधूरे मन से किया गया कार्य कभी सफल नहीं होता है। संसार के महापुरुषों ने आत्मविश्वास, दृढनिश्चय, संघर्षशीलता के बल पर आशावादी बनकर सफलता प्राप्त की। अब्राहम लिंकन हों या एडिसन, महात्मा गांधी हों या सरदार पटेल सभी ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशावान रहे और अपना-अपना लक्ष्य पाने में सफल रहे। सैनिकों के मन में यदि एक पल के लिए भी निराशा का भाव आ जाए तो देश को गुलाम बनने में देर न लगेगी। मनुष्य को सफलता पाने के लिए सदैव आशावादी बने रहना चाहिए।
सबको भाए मधुर वाणी
संकेत बिंदु –
- मधुर वाणी सबको प्रिय
- मधुर वाणी एक औषधि
- मधुरवाणी का प्रभाव
- मधुर वाणी की प्रासंगिकता।
मधुर वाणी की महत्ता प्रकट करने वाला एक दोहा है –
कोयल काको दुख हरे, कागा काको देय।
मीठे वचन सुनाए के, जग अपनो करि लेय।।
यूँ तो कोयल और कौआ दोनों ही देखने में एक-से होते हैं परंतु वाणी के कारण दोनों में जमीन आसमान का अंतर हो जाता है। दोनों पक्षी किसी को न कुछ देते हैं और न कुछ लेते हैं परंतु कोयल मधुर वाणी से जग को अपना बना लेती है और कौआ अपनी कर्कश वाणी के कारण भगाया जाता है। कोयल की मधुर वाणी कर्ण प्रिय लगती है और उसे सब सुनने को इच्छुक रहते हैं। यही स्थिति समाज की है। समाज में वे लोग सभी के प्रिय बन जाते हैं जो मधुर बोलते हैं जबकि कटु बोलने वालों से सभी बचकर रहना चाहते हैं।
मधुर वाणी औषधि के समान होती है जो सुनने वालों के तन और मन को शीतलकर देती है। इससे लोगों को सुखानुभूति होती है। इसके विपरीत कटुवाणी उस तीखे तीर की भाँति होती है जो कानों के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश करती है और पूरे शरीर को कष्ट पहुँचाती है। कड़वी बोली जहाँ लोगों को ज़ख्म देती है वहीं मधुर वाणी वर्षों से हुए मन के घाव को भर देती है। मधुर वाणी किसी वरदान के समान होती है जो सुनने वाले को मित्र बना देती है। मधुर वाणी सुनकर शत्रु भी अपनी शत्रुता खो बैठते हैं।
इसके अलावा जो मधुर वाणी बोलते हैं उन्हें खुद को संतुष्टि और सुख की अनुभूति होती है। इससे व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावी एवं आकर्षक बन जाता है। इससे व्यक्ति के बिगड़े काम तक बन जाते हैं। कोई भी काल रहा हो मधुर वाणी का अपना विशेष महत्त्व रहा है। इस भागमभाग की जिंदगी में जब व्यक्ति कार्य के बोझ, दिखावा और भौतिक सुखों को एकत्रकर पाने की होड़ में तनावग्रस्त होता जा रहा है तब मधुर वाणी का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। हमें सदैव मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए।
बच्चों की शिक्षा में माता-पिता की भूमिका
संकेत बिंदु –
- शिक्षा और माता-पिता
- शिक्षा की महत्ता
- उत्तरदायित्व
- शिक्षाविहीन नर पशु समान।
संस्कृत में एक श्लोक है –
माता शत्रु पिता वैरी, येन न बालो पाठिता।
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये वको यथा।।
अर्थात वे माता-पिता बच्चे के लिए शत्रु के समान होते हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं देते। ये बच्चे शिक्षितों की सभा में उसी तरह होते हैं जैसे हंसों के बीच बगुला। एक बच्चे के लिए परिवार प्रथम पाठशाला होती है और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक। माता-पिता यहाँ अभी अपनी भूमिका का उचित निर्वाह तो करते हैं पर जब बच्चा विद्यालय जाने लायक होता है तब कुछ मातापिता उनके शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान नहीं देते हैं और अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। ऐसे में बालक जीवन भर के लिए निरक्षर हो जाता है। मानव जीवन में शिक्षा की विशेष महत्ता एवं उपयोगिता है। शिक्षा के बिना जीवन अंधकारमय हो जाता है।
कभी वह साहूकारों के चंगुल में फँसता है तो कभी लोभी दुकानदारों के। उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। वह समाचार पत्र, पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि का लाभ नहीं उठा पाता है। उसे कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ऐसे में माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ ही उनकी शिक्षा की भली प्रकार व्यवस्था करें। कहा गया है कि विद्याविहीन नर की स्थिति पशुओं जैसी होती है, बस वह घास नहीं खाता है। शिक्षा से ही मानव सभ्य इनसान बनता है। हमें भूलकर भी शिक्षा से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।
जीवन में सरसता लाते त्योहार
संकेत बिंदु –
- त्योहारों का देश भारत
- नीरसता भगाते त्योहार
- त्योहारों के लाभ
- त्योहारों पर महँगाई का असर।
भारतवासी त्योहार प्रिय होते हैं। यहाँ त्योहार ऋतुओं और भारतीय महीनों के आधार पर मनाए जाते हैं। साल के बारह महीनों में शायद ही कोई ऐसा महीना हो जब त्योहार न मनाया जाता हो। चैत महीने में राम नवमी मनाने से त्योहारों का जो सिलसिला शुरू होता है, वह बैसाखी, गंगा दशहरा मनाने के क्रम में नाग पंचमी, तीज, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, दशहरा, दीपावली, क्रिसमस, लोहिड़ी से आगे बढ़कर वसंत पंचमी तथा होली पर ही आकर रुकती है। इसी बीच पोंगल, ईद जैसे त्योहार भी अपने समय पर मनाए जाते हैं।
त्योहार थके हारे मनुष्य के मन में उत्साह का संचार करते हैं और खुशी एवं उल्लास से भर देते हैं। वे लोगों को बँधी-बँधाई जिंदगी को अलग ही ढर्रे पर ले जाते हैं। इससे जीवन की ऊब एवं नीरसता गायब हो जाती है। त्योहार मनुष्य को मेल-मिलाप का अवसर देते हैं। इससे लोगों के बीच की कटुता दूर होती है। त्योहार लोगों में सहयोग और मिल-जुलकर कर रहने की प्रेरणा देते हैं। एकता बढ़ाने में त्योहारों का विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय में त्योहार अपना स्वरूप खोते जा रहे हैं। इनको महँगाई ने बुरी तरह से प्रभावित किया है। इसके अलावा त्योहारों पर बाज़ार का असर पड़ा है। अब प्रायः बाज़ार में बिकने वाले सामानों की मदद से त्योहारों को जैसे-तैसे मना लिया जाता है। इसका कारण लोगों की व्यस्तता और समय की कमी है। त्योहार हमारी संस्कृति के अंग हैं। हमें त्योहारों को मिल-जुलकर हर्षोल्लास से मनाना चाहिए।
जीना मुश्किल करती महँगाई
अथवा
दिनोंदिन बढ़ती महँगाई
संकेत बिंदु –
- महँगाई और आम आदमी पर प्रभाव
- कारण
- महँगाई रोकने के उपाय
- सरकार के कर्तव्य।
महँगाई उस समस्या का नाम है, जो कभी थमने का नाम नहीं लेती है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के साथ ही गरीब वर्ग को जिस समस्या ने सबसे ज़्यादा त्रस्त किया है वह महँगाई ही है। समय बीतने के साथ ही वस्तुओं का मूल्य निरंतर बढ़ते जाना महँगाई कहलाता है। इसके कारण वस्तुएँ आम आदमी की क्रयशक्ति से बाहर होती जाती हैं और ऐसा व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ तक पूरा नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति में कई बार व्यक्ति को भूखे पेट सोना पड़ता है।
महँगाई के कारणों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसे बढ़ाने में मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही कारण जिम्मेदार हैं। मानवीय कारणों में लोगों की स्वार्थवृत्ति, लालच अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति, जमाखोरी और असंतोष की भावना है। इसके अलावा त्याग जैसे मानवीय मूल्यों की कमी भी इसे बढ़ाने में आग में घी का काम करती है। सूखा, बाढ़ असमय वर्षा, आँधी, तूफ़ान, ओलावृष्टि के कारण जब फ़सलें खराब होती हैं तो उसका असर उत्पादन पर पड़ता है।
इससे एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति पैदा होती है और महँगाई बढ़ती है। महँगाई रोकने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों का उदय होना आवश्यक है ताकि वे अपनी आवश्यकतानुसार ही वस्तुएँ खरीदें। इसे रोकने के लिए जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाना आवश्यक है। महँगाई रोकने के लिए सरकारी प्रयास भी अत्यावश्यक है। सरकार को चाहिए कि वह आयात-निर्यात नीति की समीक्षा करे तथा जमाखोरों पर कड़ी कार्यवाही करें और आवश्यक वस्तुओं का वितरण रियायती मूल्य पर सरकारी दुकानों के माध्यम से करें।
समाचार-पत्र एक : लाभ अनेक
अथवा
समाचार-पत्र : ज्ञान और मनोरंजन का साधन
संकेत बिंदु –
- जिज्ञासा पूर्ति का सस्ता एवं सुलभ साधन
- रोज़गार का साधन
- समाचार पत्रों के प्रकार
- जानकारी के साधन।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अपने समाज और आसपास के अलावा देश-दुनिया की जानकारी के लिए जिज्ञासु रहता है। उसकी इस जिज्ञासा की पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है-समाचार-पत्र, जिसमें देश-विदेश तक के समाचार आवश्यक चित्रों के साथ छपे होते हैं। सुबह हुई नहीं कि शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में समाचार पत्र विक्रेता घर-घर तक इनको पहुँचाने में जुट जाते हैं। कुछ लोग तो सोए होते हैं और समाचार-पत्र दरवाज़े पर आ चुका होता है। अब समाचार पत्र अत्यंत सस्ता और सर्वसुलभ बन गया है।
समाचार पत्रों के कारण लाखों लोगों को रोजगार मिला है। इनकी छपाई, ढुलाई, लादने-उतारने में लाखों लगे रहते हैं तो एजेंट, हॉकर और दुकानदार भी इनसे अपनी जीविका चला रहे हैं। इतना ही नहीं पुराने समाचार पत्रों से लिफ़ाफ़े बनाकर एक वर्ग अपनी आजीविका चलाता है। छपने की अवधि पर समाचार पत्र कई प्रकार के होते हैं।
प्रतिदिन छपने वाले समाचार पत्रों को दैनिक, सप्ताह में एक बार छपने वाले समाचार पत्रों को साप्ताहिक, पंद्रह दिन में छपने वाले समाचार पत्र को पाक्षिक तथा माह में एक बार छपने वाले को मासिक समाचार पत्र कहते हैं। अब तो कुछ शहरों में शाम को भी समाचार पत्र छापे जाने लगे हैं। समाचार पत्र हमें देशदुनिया के समाचारों, खेल की जानकारी मौसम तथा बाज़ार संबंधी जानकारियों के अलावा इसमें छपे विज्ञापन भी भाँति-भाँति की जानकारी देते हैं।
सबसे प्यारा देश हमारा
अथवा
विश्व की शान-भारत
संकेत बिंदु –
- भौगोलिक स्थिति
- प्राकृतिक सौंदर्य
- विविधता में एकता की भावना
- अत्यंत प्राचीन संस्कृति।
सौभाग्य से दुनिया के जिस भू-भाग पर मुझे जन्म लेने का अवसर मिला दुनिया उसे भारत के नाम से जानती है। हमारा देश एशिया महाद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित है। यह देश तीन ओर समुद्र से घिरा है। इसके उत्तर में पर्वतराज हिमालय हैं, जिसके चरण सागर पखारता है। इसके पश्चिम में अरब सागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी है। चीन, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि इसके पड़ोसी देश हैं। हमारे देश का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। हिमालय की बरफ़ से ढंकी सफ़ेद चोटियाँ भारत के सिर पर रखे मुकुट में जड़े हीरे-सी प्रतीत होती हैं। यहाँ बहने वाली गंगा-यमुना, घाघरा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ इसके सीने पर धवल हार जैसी लगती हैं।
चारों ओर लहराती हरी-भरी फ़सलें और वृक्ष इसका परिधान प्रतीत होते हैं। यहाँ के जंगलों में हरियाली का साम्राज्य है। भारत में नाना प्रकार की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यहाँ विभिन्न जाति-धर्म के अनेक भाषा-भाषी रहते है। यहाँ के परिधान, त्योहार मनाने के ढंग और खान-पान व रहन-सहन में खूब विविधता मिलती है। यहाँ की जलवायु में भी विविधता का बोलबाला है, फिर भी इस विविधता के मूल में एकता छिपी है। देश पर कोई संकट आते ही सभी भारतीय एकजुट हो जाते हैं।
हमारे देश की संस्कृति अत्यंत प्राचीन और समृद्धिशाली है। परस्पर एकता, प्रेम, सहयोग और सहभाव से रहना भारतीयों की विशेषता रही है। ‘अतिथि देवो भवः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना भारतीय संस्कृति का आधार है। हमारा देश भारत विश्व की शान है जो अपनी अलग पहचान रखता है। हमें अपने देश पर गर्व है।
सुरक्षा का आवरण : ओजोन
अथवा
पृथ्वी का रक्षक : अदृश्य ओजोन
संकेत बिंदु –
- ओजोन परत क्या है?
- मनुष्य की प्रगति और ओजोन परत
- ओजोन नष्ट होने का कारण
- ओजोन बचाएँ जीवन बचाएँ।
मनुष्य और प्रकृति का अनादिकाल से रिश्ता है। प्रकृति ने मनुष्य की सुरक्षा के लिए अनेक साधन प्रदान किए हैं। इनमें से एक है-ओजोन की परत। पृथ्वी पर जीवन के लिए जो भी अनुकूल परिस्थितियाँ हैं, उन्हें बनाए और बचाएँ रखने में ओजोन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पृथ्वी पर चारों ओर वायुमंडल का उसी तरह रक्षा करता है जिस तरह बरसात से हमें छाते बचाते हैं। इसे पृथ्वी का रक्षा कवच भी कहा जाता है। मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्य होता गया त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गईं। बढ़ती जनसंख्या की भोजन और आवास संबंधी आवश्यकता के लिए उसने वनों की अंधाधुंध कटाई की जिससे धरती पर कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ी। कुछ और विषाक्त गैसों से मिलकर कार्बन डाईऑक्साइड ने इस परत में छेद कर दिया जिससे सूर्य की पराबैगनी किरणें धरती पर आने लगीं और त्वचा के कैंसर के साथ अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ गया। इन पराबैगनी किरणों को धरती पर आने से ओजोन की परत रोकती है। ओजोन की परत नष्ट करने में विभिन्न प्रशीतक यंत्रों में प्रयोग की जाने वाली क्लोरो प्लोरो कार्बन का भी हाथ है। यदि पृथ्वी पर जीवन बनाए रखना है तो हमें ओजोन परत को बचाना होगा। इसके लिए धरती पर अधिकाधिक पेड़ लगाना होगा तथा कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन कम करना होगा।
भ्रष्टाचार का दानव
अथवा
भ्रष्टाचार से देश को मुक्त बनाएँ
संकेत बिंदु –
- भ्रष्टाचार क्या है?
- देश के लिए घातक
- भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव
- लोगों की भूमिका।
भ्रष्टाचार दो शब्दों ‘भ्रष्ट’ और ‘आचार’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-नैतिक एवं मर्यादापूर्ण आचारण से हटकर आचरण करना। इस तरह का आचरण जब सत्ता में बैठे लोगों या कार्यालयों के अधिकारियों द्वारा किया जाता है तब जन साधारण के लिए समस्या उत्पन्न हो जाती है। पक्षपात करना, भाई-भतीजावाद को प्रश्रय देना, रिश्वत माँगना, समय पर काम न करना, काम करने के बदले अनुचित माँग रख देना, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। भ्रष्टाचार समाज और देश के लिए घातक है।
दुर्भाग्य से आज हमारे समाज में इसकी जड़ें इतनी गहराई से जम चुकी हैं कि इसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं रह गया है। भ्रष्टाचार के कारण देश की मानमर्यादा कलंकित होती है। इसे किसी देश के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। भ्रष्टाचार के कारण ही आज रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी, चोरबाज़ारी, मिलावट, भाई-भतीजावाद, कमीशनखोरी आदि अपने चरम पर हैं। इससे समाज में विषमता बढ़ रही है। लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है और विकास का मार्ग अवरुद्ध होता जा रहा है।
इसके कारण सरकारी व्यवस्था एवं प्रशासन पंगु बन कर रह गए हैं। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों को प्रगाढ़ करना चाहिए। इसके लिए नैतिक शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। लोगों को अपने आप में त्याग एवं संतोष की भावना मज़बूत करनी होगी। यद्यपि सरकारी प्रयास भी इसे रोकने में कारगर सिद्ध होते हैं पर लोगों द्वारा अपनी आदतों में सुधार और लालच पर नियंत्रण करने से यह समस्या स्वतः कम हो जाएगी।
भारतीय नारी की दोहरी भूमिका
अथवा
कामकाजी स्त्रियों की चुनौतियाँ
संकेत बिंदु –
- प्राचीनकाल में नारी की स्थिति
- वर्तमान में नौकरी की आवश्यकता
- दोहरी भूमिका और चुनौतियाँ
- सुरक्षा और सोच में बदलाव की आवश्यकता।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह परिवर्तन समय के साथ स्वतः होता रहता है। मनुष्य भी इस बदलाव से अछूता नहीं है। प्राचीन काल में मनुष्य ने न इतना विकास किया था और न वह इतना सभ्य हो पाया था। तब उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं। ऐसे में पुरुष की कमाई से घर चल जाता था और नारी की भूमिका घर तक सीमित थी। उसे बाहर जाकर काम करने की आवश्यकता न थी। वर्तमान समय में मनुष्य की आवश्यकता इतनी बढ़ी हुई है कि इसे पूरा करने के लिए पुरुष की कमाई अपर्याप्त सिद्ध हो रही है और नारी को नौकरी के लिए घर से बाहर कदम बढ़ाना पड़ा। आज की नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लगभग हर क्षेत्र में काम करती दिखाई देती हैं।
आज की नारी दोहरी भूमिका का निर्वाह कर रही है। घर में उसे खाना पकाने, घर की सफ़ाई, बच्चों की देखभाल और उनकी शिक्षा का दायित्व है तो वह कार्यालयों के अलावा खेल, राजनीति साहित्य और कला आदि क्षेत्रों में उतनी ही कुशलता और तत्परता से कार्य कर रही है। वह दोनों जगह की ज़िम्मेदारियों की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकारती हुई आगे बढ़ रही है और दोहरी भूमिका का निर्वहन कर रही है। वर्तमान में नारी द्वारा घर से बाहर आकर काम करने पर सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होने लगी है। कुछ लोगों की सोच ऐसी बन गई है कि वे ऐसी स्त्रियों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी स्त्रियों को प्रायः कार्यालय में पुरुष सहकर्मियों तथा आते-जाते कुछ लोगों की कुदृष्टि का सामना करना पड़ता है। इसके लिए समाज को अपनी सोच में बदलाव लाने की आवश्यकता है।
बढ़ती जनसंख्या : प्रगति में बाधक
अथवा
समस्याओं की जड़ : बढ़ती जनसंख्या
संकेत बिंदु –
- जनसंख्या वृद्धि बनी समस्या
- संसाधनों पर असर
- वृद्धि के कारण
- जनसंख्या रोकने के उपाय।
किसी राष्ट्र की प्रगति के लिए जनसंख्या एक महत्त्वपूर्ण संसाधन होती है, पर जब यह एक सीमा से अधिक हो जाती है तब यह समस्या का रूप ले लेती है। जनसंख्या वृद्धि एक ओर स्वयं समस्या है तो दूसरी ओर यह अनेक समस्याओं की जननी भी है। यह परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति पर बुरा असर डालती है। जनसंख्या वृद्धि के साथ देश के विकास की स्थिति ‘ढाक के तीन पात वाली’ बनकर रह जाती है।
प्रकृति ने लोगों के लिए भूमि वन आदि जो संसाधन प्रदान किए हैं, जनाधिक्य के कारण वे कम पड़ने लगते हैं तब मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ शुरू कर देता है। वह अपनी बढ़ी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों का विनाश करता है। इससे प्राकृतिक असंतुलन का खतरा पैदा होता है जिससे नाना प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के लिए हम भारतीयों की सोच काफ़ी हद तक जिम्मेदार है। यहाँ की पुरुष प्रधान सोच के कारण घर में पुत्र जन्म आवश्यक माना जाता है।
भले ही एक पुत्र की चाहत में छह, सात लड़कियाँ क्यों न पैदा हो जाएँ पर पुत्र के बिना न तो लोग अपना जन्म सार्थक मानते हैं और न उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती दिखती है। इसके अलावा अशिक्षा, गरीबी और मनोरंजन के साधनों का अभाव भी जनसंख्या वृद्धि में योगदान देता है। जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए लोगों का इसके दुष्परिणामों से अवगत कराकर जन जागरूकता फैलाई जानी चाहिए। सरकार द्वारा परिवार नियोजन के साधनों का मुफ़्त वितरण किया जाना चाहिए तथा ‘जनसंख्या वृद्धि’ को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।
मोबाइल फ़ोन : सुखद व दुखद भी
अथवा
विज्ञान की अद्भुत खोज : मोबाइल फ़ोन
संकेत बिंदु –
- विज्ञान की अद्भुत खोज
- फ़ोनों की बदलती दुनिया में
- संचार क्षेत्र में क्रांति
- सस्ता और सुलभ साधन
- लाभ और हानियाँ।
विज्ञान ने मानव जीवन को विविध रूपों में प्रभावित किया है। शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ विज्ञान ने हस्तक्षेप न किया हो। समय-समय पर हुए आश्चर्यजनक आविष्कारों ने मानव जीवन को बदलकर रख दिया है। विज्ञान की इन्हीं अद्भुत खोजों में एक है मोबाइल फ़ोन जिससे मनुष्य इतना प्रभावित हुआ कि आप हर किशोर ही नहीं हर आयु वर्ग के लोग इसका प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। वास्तव में मोबाइल फ़ोन इतना उपयोगी और सुविधापूर्ण साधन है कि हर व्यक्ति इसे अपने पास रखना चाहता है और इसका विभिन्न रूपों में प्रयोग भी कर रहा है। संचार की दुनिया में फ़ोन का आविष्कार एक क्रांति थी। तारों के माध्यम से जुड़े फ़ोन पर अपने प्रियजनों से बातें करना एक रोमांचक अनुभव था। शुरू में फ़ोन महँगे और कई उपकरणों का मेल हुआ करते थे। इन्हें लाना-ले-जाना संभव न था।
हमें बातें करने के लिए इनके पास जाना पड़ता था पर मोबाइल फ़ोन जेब में रखकर कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है। अब यह सर्वसुलभ भी बन गया है। वास्तव में मोबाइल फ़ोन का आविष्कार संचार के क्षेत्र में क्रांति से कम नहीं है। आज मोबाइल फ़ोन पर बातें करने के अलावा फ़ोटो खींचना, गणनाएँ करना, फाइलें सुरक्षित रखना जैसे बहुत से काम किए जा रहे हैं क्योंकि यह जेब का कंप्यूटर बन गया है। कुछ लोग इसका दुरुपयोग करने से नहीं चूकते हैं। असमय फ़ोन करके दूसरों को परेशान करना, अवांछित फ़ोटो खींचना जैसे कार्य करके इसका दुरुपयोग करते हैं। इसके कारण छात्रों की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ा है। इसका आवश्यकतानुरूप ही प्रयोग करना चाहिए।
सादा जीवन उच्च विचार
अथवा
मर्यादित जीवन का आधार : सादा जीवन उच्च विचार
संकेत बिंदु –
- भारतीय संस्कृति और सादा जीवन उच्च विचार
- महत्ता
- महापुरुषों ने अपना सादा जीवन उच्च विचार
- वर्तमान स्थिति।
भारतीय संस्कृति को समृद्धशाली और लोकप्रिय बनाने में जिन तत्त्वों का योगदान है उनमें एक है-सादा जीवन उच्च विचार। सादा जीवन उच्च विचार रहन-सहन की एक शैली है जिससे भारतीय ही नहीं विदेशी तक प्रभावित हुए हैं। प्राचीनकाल में हमारे देश के ऋषि मुनि भी इसी जीवन शैली को अपनाते थे। भारतीयों को प्राचीनकाल से ही सरल और सादगीपूर्ण जीवन पसंद रहा है। इनके आचरण में त्याग, दया, सहानुभूति, करुणा, स्नेह उदारता, परोपकार की भावना आदि गुण विद्यमान हैं।
मनुष्य के सादगीपूर्ण जीवन के लिए इन गुणों की प्रगाढ़ता आवश्यक है। भारतीयों का जीवन किसी तप से कम नहीं रहा है क्योंकि उनके विचारों में महानता और जीवन में सादगी रही है। प्राचीनकाल से ही यह नियम बना दिया गया था कि जीवन के आरंभिक 25 वर्ष को ब्रह्मचर्य जीवन के रूप में बिताया जाय। इस काल में बालक गुरुकुलों में रहकर सादगी और नियम का पाठ सीख जाता था। इनका जीवन ऐशो-आराम और विलासिता से कोसों दूर हुआ करता था।
यही बाद में भारतीयों के जीवन का आधार बन जाता था। महात्मा गांधी, सरदार पटेल आदि का जीवन सादगी का दूसरा नाम था। वे एक धोती में जिस सादगी से रहते थे वह दूसरों के लिए आदर्श बन गया। वे दूसरों के लिए अनुकरणीय बन गए। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भी सादगीपूर्ण जीवन बिताते थे। दुर्भाग्य से आज लोगों की सोच में बदलाव आ गया है। अब सादा जीवन जीने वालों को गरीबी और पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाने लगा है। अब लोगों की पहचान उनके कपड़ों से की जाने लगी है। लोग उपभोग को ही सुख मान बैठे हैं। सुख एकत्र करने की चाहत में अब जीवन तनावपूर्ण बनता जा रहा है।
सांप्रदायिकता का फैलता जहर
अथवा
मानवता के लिए घातक : सांप्रदायिकता का जहर
संकेत बिंदु –
- सांप्रदायिकता-अर्थ एवं कारण
- सांप्रदायिकता का जहर
- सांप्रदायिकता की रोकथाम
- हमारी भूमिका।
धर्म के बिगड़े एवं कट्टर रूप को सांप्रदायिकता की संज्ञा दी जा सकती है। ‘धारयति इति धर्मः’ अर्थात् जिसे धारण किया जाए वही धर्म है। मनुष्य अपने आचरण और जीवन को मर्यादित रखने के लिए धर्म का सहारा लिया करता था। बाद में धर्म ने एक जीवन पद्धति का रूप ले लिया। धर्म का यह रूप मनुष्य और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता था। धीरे-धीरे लोगों की सोच में बदलाव आया और धर्म का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर दिया। यहीं से धर्म में विकृति आई।
लोगों में अपने धर्म के प्रति कट्टरता आने लगी और सांप्रदायिकता अपना रंग दिखाने लगी। सांप्रदायिकता के वशीभूत होकर मनुष्य वाणी और कर्म से दूसरे धर्मावलंबियों की भावनाएँ भड़काता है जो व्यक्ति समाज और राष्ट्र सभी के लिए हानिकारक होती है। दुर्भाग्य से यह कार्य आज समाज के तथा कथित ठेकेदार और समाज सुधारक कहलाने वाले नेता खुले आम कर रहे हैं जिससे लोगों का आपसी विश्वास घट रहा है। इसके अलावा धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता, भाई-चारा, आपसी सौहार्द्र नष्ट हो रहा है तथा घृणा की भावना प्रगाढ़ हो रही है।
सांप्रदायिकता की रोक थाम के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना बंद किया जाना चाहिए। ऐसा करने वालों को कठोर दंड देना चाहिए। हमारे नेताओं को चाहिए कि वे वोट की राजनीति बंद करें और लोगों को जाति-धर्म के आधार पर न बाँटें। इस स्थिति में हमारा कर्तव्य यह होना चाहिए कि हम किसी के बहकावे में न आएँ और सद्भाव बनाए रखते हुए दूसरों की भावनाएँ और उनके धर्मों का भी आदर करें।
सुविधाओं का भंडार : कंप्यूटर
अथवा
कंप्यूटर : आज की आवश्यकता
संकेत बिंदु –
- विज्ञान की अद्भुत खोज
- बढ़ता प्रयोग
- ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार
- अधिक प्रयोग हानिकारक।
विज्ञान ने मनुष्य को जो अद्भुत उपकरण प्रदान किए हैं उनमें प्रमुख है-कंप्यूटर। कंप्यूटर ऐसा चमत्कारी उपकरण है जो हमारी कल्पना को साकार रूप दे रहा है। जिन बातों की कल्पना कभी मनुष्य किया करता था, उन्हें कंप्यूटर पूरा कर रहा है। यह बहूपयोगी उपकरण है जिससे मनुष्य की अनेकानेक समस्याएँ हल हुई हैं। कंप्यूटर में लगा उच्च तकनीकि वाला मस्तिष्क मनुष्य की सोच से भी अधिक तेजी से कार्य करता है जिससे मनुष्य का समय और भ्रम दोनों ही बचने लगा है।
आज कंप्यूटर का प्रयोग हर छोटे-बड़े सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों में किया जाने लगा है। इसका प्रयोग इतनी जगह पर किया जा रहा है कि इसे शब्दों में बाँधना कठिन है। पुस्तक प्रकाशन, बैंकों में खाते का रख-रखाव, फाइलों की सुरक्षा, रेल और वायुयान के टिकटों का आरक्षण, रोगियों के आपरेशन, बीमारियों की खोज, विभिन्न परियोजनाओं के निर्माण आदि में इसका प्रयोग अत्यावश्यक हो गया है। अब तो छात्र अपनी पढ़ाई और लोग अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए इसका प्रयोग आवश्यक मानने लगे हैं। कंप्यूटर पर अब पीडीएफ (PDF) फ़ॉर्म में पुस्तकें अपलोड कर दी जाती हैं। अब छात्रों को बस एक बटन दबाने की ज़रूरत है।
ज्ञान का संसार कंप्यूटर की स्क्रीन पर प्रकट हो जाता है। अब उन्हें न भारी भरकम बस्ता उठाने की ज़रूरत है और न मोटी-मोटी पुस्तकें। इसके अलावा कंप्यूटर पर गीत सुनने, फ़िल्में देखने और गेम खेलने की सुविधा भी उपलब्ध रहती है। कंप्यूटर का अत्यधिक प्रयोग हमें आलसी और मोटापे का शिकार बनाता है। इंटरनेट के जुड़ जाने से कुछ लोग इसका दुरुपयोग करते हैं। कंप्यूटर का अधिक प्रयोग हमारी आँखों के लिए हानिकारक है। हमें कंप्यूटर का प्रयोग सोच समझकर करना चाहिए।
मनोरंजन के साधनों की बढ़ती दुनिया
अथवा
मनोरंजन का बदलता स्वरूप
संकेत बिंदु –
- मनोरंजन की आवश्यकता
- मनोरंजन के प्राचीन साधन
- मनोरंजन के साधनों में बदलाव
- आधुनिक साधनों के लाभ-हानियाँ।
मनुष्य श्रमशील प्राणी है। वह आदिकाल से श्रम करता रहा है। इस श्रम के उपरांत थकान उत्पन्न होना स्वाभाविक है। पहले वह भोजन की तलाश एवं जंगली जानवरों से बचने के लिए श्रम करता था। बाद में उसकी आवश्यकता बढ़ीं अब वह मानसिक और शारीरिक श्रम करने लगा। श्रम की थकान उतारने एवं ऊर्जा प्राप्त करने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता महसूस हुई। इसके लिए उसने विभिन्न साधन अपनाए। प्राचीन काल में मनुष्य पशु-पक्षियों के माध्यम से अपना मनोरंजन करता था।
वह पक्षी और जानवर पालता था। उनकी बोलियों और उनकी लड़ाई से वह मनोरंजन करता था। इसके अलावा शिकार करना भी उसके मनोरंजन का साधन था। इसके बाद ज्यों-ज्यों समय में बदलाव आया, उसके मनोरंजन के साधन भी बढ़ते गए। मध्यकाल तक मनुष्य ने नृत्य और गीत का सहारा लेना शुरू किया। नाटक, गायन, वादन, नौटंकी, प्रहसन काव्य पाठ आदि के माध्यम से वह आनंदित होने लगा। खेल तो हर काल में मनोरंजन का साधन रहे हैं। आज मनोरंजन के साधनों में भरपूर वृद्धि हुई है।
अब तो मोबाइल फ़ोन पर गाने सुनना, फ़िल्म देखना, सिनेमा जाना, देशाटन करना, कंप्यूटर का उपयोग करना, चित्रकारी करना, सरकस देखना, पर्यटन स्थलों का भ्रमण करना उसके मनोरंजन में शामिल हो गया है। मनोरंजन के आधुनिक साधन घर बैठे बिठाए व्यक्ति का मनोरंजन तो करते हैं पर व्यक्ति में मोटापा, रक्तचाप की समस्या, आलस्य, एकांतप्रियता और समाज से अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न कर रहे हैं।
दहेज का दानव
अथवा
दहेज प्रथा : एक सामाजिक समस्या
संकेत बिंदु –
- दहेज क्या है?
- दहेज का बदलता स्वरूप
- दहेज प्रथा कितनी घातक
- दहेज प्रथा की रोकथाम।
भारतीय संस्कृति के मूल में छिपी है-कल्याण की भावना। इसी भावना के वशीभूत होकर प्राचीनकाल में कन्या का पिता अपनी बेटी की सुख-सुविधा हेतु कुछ वस्त्र-आभूषण और धन उसकी विदाई के समय स्वेच्छा से दिया करता था। कालांतर में यही रीति विकृत हो गई। इसी विकृति को दहेज नाम दिया गया। धीरे-धीरे लोगों ने इसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ लिया। सभ्यता और भौतिकवाद के कारण लोगों में धन लोलुपता बढ़ी है जिसने इस प्रथा को विकृत करने में वही काम किया जो आग में घी करता है।
वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष से खुलकर दहेज माँगने लगे और समाज की नज़र बचाकर बलपूर्वक दहेज लेने लगे जिससे इस प्रथा ने दानवी रूप ले लिया। आज स्थिति यह है कि समाज में लड़कियों को बोझ समझा जाने लगा है। लोग घर में कन्या का जन्म किसी अपशकुन से कम नहीं समझते हैं। इससे समाज की सोच में विकृति आई है। दहेज प्रथा हमारे समाज के लिए अत्यंत घातक है। इस प्रथा के कारण ही जन्मी-अजन्मी लड़कियों को मारने का चलन शुरू हो गया। आज का समय तो जन्मपूर्व ही कन्या भ्रूण की हत्या करा देता है।
इसमें असफल रहने के बाद वह जन्म के बाद कन्याओं के पालन-पोषण में दोहरा मापदंड अपनाता है। वह लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा, खानपान और अन्य सुविधाओं के साथ ही उनके साथ व्यवहार में हीनता दिखाता है। दहेज प्रथा के कारण ही असमय नव विवाहिताओं को अपनी जान गवानी पड़ती है। मनुष्यता के लिए इससे ज़्यादा कलंक की बात क्या होगी कि अनेक लड़कियाँ बिन ब्याही रह जाती हैं या उन्हें बेमेल विवाह के लिए बाध्य होना पड़ता है। दहेज प्रथा रोकने के लिए केवल सरकारी प्रयास ही काफ़ी नहीं हैं। इसके लिए युवा वर्ग को आगे आना होगा और दहेज रहित-विवाह प्रथा की शुरूआत करके समाज के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।
त्योहारों का बदलता स्वरूप
अथवा
त्योहारों पर हावी भौतिकवाद
संकेत बिंदु –
- मानव जीवन और त्योहार
- भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग
- त्योहार में आते बदलाव
- हमारा दायित्व
- वर्तमान स्वरूप।
मनुष्य और त्योहारों का अटूट संबंध है। मनुष्य अपने थके हारे मन को उत्साहित एवं आनंदित करने के साथ ही ऊर्जान्वित करने के लिए त्योहार मनाने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेता है। कभी महीना बदलने पर, कभी नई ऋतु आने पर और कभी फ़सल पकने की आड़ में मनुष्य प्राचीन समय से त्योहार मनाता आया है। ये त्योहार, मानव के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उल्लास आदि व्यक्त करने का साधन भी होते हैं। त्योहार हमारे संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए हैं। इनके माध्यम से हमारी संस्कृति की झलक मिलती है। त्योहारों के अवसर पर प्रयुक्त परिधान, रहन-सहन का ढंग, नृत्य-गायन की कलात्मकता आदि में संस्कृति के दर्शन होते हैं। ये त्योहार हमारी एकता को मज़बूत बनाते हैं। वर्तमान में भौतिकवाद के कारण बदलाव आया है। लोगों की भागम भरी जिंदगी की व्यस्तता और काम से बचने की प्रवृत्ति के कारण अब त्योहार उस हँसी-खुशी उल्लास से नहीं मनाए जाते हैं, जैसे पहले मनाए जाते थे। आज लोगों के मन में धर्म-जाति भाषा क्षेत्रीयता और संप्रदाय की कट्टरता के कारण दूरियाँ बढ़ी हैं। अब तो त्योहारों के अवसर पर दंगे भड़कने का भय स्पष्ट रूप से लोगों को आतंकित किए रहता है। इस कारण लोग इन त्योहारों को जैसे-तैसे मनाकर इतिश्री कर लेते हैं। त्योहारों को हँसी-खुशी मनाने के लिए धार्मिक कट्टरता त्यागनी चाहिए तथा प्रकृति से निकटता बनाने का प्रयास करना चाहिए। हमें इस तरह त्योहार मनाने का प्रयास करना चाहिए जिससे सभी को खुशी मिल सके।
मानव जीवन पर विज्ञापनों का असर
अथवा
विज्ञापनों की दुनिया कितनी लुभावनी
अथवा
मानव मन को सम्मोहित करते विज्ञापन
संकेत बिंदु –
- विज्ञापन का अर्थ एवं प्रचार-प्रसार
- विज्ञापनों की लुभावनी भाषा
- विज्ञापन का प्रभाव
- विज्ञापन के लाभ-हानि ।
‘ज्ञापन’ में ‘वि’ उपसर्ग लगाने से विज्ञापन शब्द बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-सूचना या जानकारी देना। दुर्भाग्य से आज विज्ञापन का अर्थ सिमट कर वस्तुओं की बिक्री बढ़ाकर लाभ कमाने तक ही सीमित रह गया है। वर्तमान समय में विज्ञापन का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ गया है कि अब तो कहीं भी विज्ञापन देखे जा सकते हैं। इस कारण से वर्तमान समय को विज्ञापनों का युग कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। विज्ञापनों की भाषा अत्यंत लुभावनी और आकर्षक होती है।
इनके माध्यम से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्ति का प्रयास किया जाता है। विज्ञापन की भाषा सरल एवं सटीक होती है, जिसे विशेष रूप से तैयार करके प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। दूरदर्शन और अन्य चलचित्रों के माध्यम से दिखाए जाने वाले विज्ञापनों की भाषा और भी प्रभावी बन जाती है। विज्ञापन मानव मन पर गहरा असर डालते हैं। बच्चे और किशोर इन विज्ञापनों के प्रभाव में आसानी से आ जाते हैं।
विज्ञापनों का प्रस्तुतीकरण, उनमें प्रयुक्त नारी देह का दर्शन, उनके हाव-भाव और अभिनय मानवमन पर जादू-सा असर कर सम्मोहित कर लेते हैं। यह विज्ञापनों का असर है कि हम विज्ञापित वस्तुएँ खरीदने का लाभ संवरण नहीं कर पाते हैं। विज्ञापन उत्पादक और उपभोक ता दोनों के लिए लाभदायी हैं। इसके माध्यम से हमारे सामने चुनाव का विकल्प, सुलभता, तुलनात्मक जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं तो विक्रेताओं को भी भरपूर लाभ होता है। विज्ञापन के कारण वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाता है। इनमें वस्तु के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है। अतः हमें विज्ञापनों से सावधान रहना चाहिए।
मनुष्यता का दूसरा नाम : परोपकार
अथवा
परहित सरसि धर्म नहिं भाई
संकेत बिंदु –
- परोपकार का अर्थ और प्रकृति
- परोपकार मनुष्य का उत्तम गुण
- जीवन की सार्थकता
- परोपकार सच्चे आनंद का स्रोत।
उपकार का अर्थ है-भलाई करना। इसी उपकार में ‘पर’ उपसर्ग लगाने से परोपकार बना है। इसका अर्थ है-दूसरों की भलाई करना। जब मनुष्य निस्स्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई मन, वाणी और कर्म से करता है, तब उसे परोपकार कहा जाता है। परोपकार का सर्वोत्तम उदाहरण हमें प्रकृति के कार्यों से मिलता है। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं, नदियाँ अपना पानी स्वयं नहीं पीती हैं। इसी प्रकार फूल दूसरों के लिए खिलते हैं और बादल जीवों के कल्याण के लिए अपना अस्तित्व तक नष्ट कर देते हैं। परोपकार मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। हमारे ऋषि-मुनि तो अपना जीवन परोपकार में अर्पित कर देते थे।
उनके कार्य हमें परोपकार की प्रेरणा देते हैं। कहा भी गया है कि ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।’ परोपकार से व्यक्ति को सुख-शांति की अनुभूति होती है तथा जिसकी भलाई की जाती है उसे अपनी दीन-हीन स्थिति से मुक्ति मिल जाती है। परोपकार व्यक्ति को आदर्श जीवन की राह दिखाते हैं। इससे व्यक्ति को मनुष्य बनने की पूर्णता प्राप्त होती है। वास्तव में परोपकार में ही जीवन की सार्थकता है। परोपकार से व्यक्ति को सच्चा आनंद प्राप्त होता है। इसी आनंद के वशीभूत होकर व्यक्ति अपना तन-मन और धन देकर भी परोपकार करता है। महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ देकर मानवता का कल्याण किया तो शिवि ने अपने शरीर का मांस देकर कबूतर की जान बचाई। हमें भी परोपकार का अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।
विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत
अथवा
विपत्ति का साथी : मित्र
संकेत बिंदु –
- मित्र की आवश्यकता
- मित्र का स्वभाव
- सन्मार्ग पर ले जाते मित्र
- मित्र के चयन में सावधानियाँ।
मानव जीवन को संग्राम की सभा से विभूषित किया गया है, जिसमें दुख और सुख क्रमशः आते-जाते रहते हैं। सुख का समय जल्दी और सरलता से कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता पर दुख के समय में उसे ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत होती है जो उसके काम आए। अब उसे मित्र की आवश्यकता होती है जो उसे दुख सहने का साहस प्रदान करे। मित्र का स्वभाव उदार, परोपकारी होने के साथ ही विपत्ति में साथ न छोड़ने वाला होना चाहिए। उसे जल की भाँति नहीं होना चाहिए जो जाल पड़ने पर जाल में फँसी मछलियों का साथ छोड़कर दूर हो जाता है और मछलियों को मरने के लिए छोड़ जाता है।
वास्तव में मित्र का स्वभाव श्रीराम और सुग्रीव के स्वभाव की भाँति होना चाहिए जिन्होंने एक-दूसरे की मदद करके अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। एक सच्चा मित्र को बुराइयों से हटाकर सन्मार्ग की ओर ले जाता है। एक सच्चा मित्र अपने मित्र को व्यसन से बचाकर सत्कार्य के लिए प्रेरित करता है और उसके लिए घावों पर लगी उस औषधि के समान साबित होता है जो उसकी पीड़ा हरकर शीतलता पहुँचाती है। व्यक्ति के पास धन देखकर बहुत से लोग नाना प्रकार से मित्र बनने की चेष्टा करते हैं। हमें इन अवसरवादी लोगों से सावधान रहना चाहिए। हमारी जी हुजूरी और चापलूसी करने वाले को भी सच्चा मित्र नहीं कहा जा सकता है। हमारी गलत बातों का विरोधकर उचित मार्गदर्शन कराने वाला ही सच्चा मित्र होता है। हमें मित्र के चयन में सावधान रहना चाहिए ताकि मित्रता चिरकाल तक बनी रहे।
जीवन में व्यायाम का महत्त्व
अथवा
स्वास्थ्य के लिए हितकारी : व्यायाम
संकेत बिंदु –
- स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन
- उत्तम स्वास्थ्य की औषधि-व्यायाम
- व्यायाम का सर्वोत्तम समय
- व्यायाम एक-लाभ अनेक।
स्वास्थ्य और मानवजीवन का घनिष्ठ संबंध है। यूँ तो स्वास्थ्य की महत्ता हर प्राणी के लिए होती है पर मनुष्य इसके प्रति कुछ अधिक ही सजग रहता है और स्वस्थ रहने के नाना उपाय करता है। मनुष्य जानता है कि धन को तुरंत दुबारा कमाया जा सकता है परंतु स्वास्थ्य इतनी सरलता से नहीं पाया जा सकता है। एक स्वस्थ व्यक्ति ही सांसारिक सुखों का लाभ उठा सकता है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो दुनिया का कोई सुख व्यक्ति को रुचिकर नहीं लगता है, तभी स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन कहा गया है। स्वास्थ्य पाने का एक साधन सात्विक भोजन, स्वस्थ आदतें, उचित दिनचर्या और दवाईयाँ हैं, पर ये सभी स्वस्थ रहने के साधन मात्र हैं।
स्वास्थ्य का अर्थ केवल शारीरिक नहीं बल्कि इस परिधि में मानसिक स्वास्थ्य भी आता है। इसे पाने की मुफ्त की औषधि है-व्यायाम, जिसे पाने के लिए धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती है। व्यायाम करने का सर्वोत्तम समय भोर की बेला है जब वातावरण में शांति, हवा में शीतलता और सुगंध होती है। ऐसे वातावरण में मन व्यायाम में लगता है। व्यायाम से हमारे शरीर का रक्त प्रवाह तेज़ होता है, हड्डियाँ मज़बूत और मांसपेशियाँ लचीली बनती हैं। इससे तन-मन दोनों स्वस्थ होता है। हमें भी समय निकालकर व्यायाम अवश्य करना चाहिए।
विद्यार्थी और अनुशासन
अथवा
अनुशासन का महत्त्व
संकेत बिंद –
- अनुशासन का अर्थ
- अनुशासन की आवश्यकता
- प्रकृति में अनुशासन
- अनुशासन सफलता की कुंजी।
‘शासन’ शब्द में ‘अनु’ उपसर्ग जोड़ने से अनुशासन शब्द बना है, जिसका अर्थ है शासन के पीछे चलना अर्थात् समाज द्वारा बनाए नियमों का पालन करते हुए मर्यादित जीवन जीना। जीवन के हर क्षेत्र और हर काल में अनुशासन की महत्ता होती है पर विद्यार्थी काल जीवन की नींव के समान होता है। इस काल में अनुशासन की आवश्यकता और महत्ता और भी बढ़ जाती है। इस काल में विद्यार्थी जो कुछ सीखता है वही उसके जीवन में काम आता है। इस काल में एक बार अनुशासनबद्ध जीवन की आदत पड़ जाने पर आजीवन यही आदत बनी रहती है। मानव मन अत्यंत चंचल होता है। वह स्वच्छंद आचरण करना चाहता है।
इसके लिए अनुशासन बहुत आवश्यक है। प्रकृति अपने कार्य व्यवहार से मनुष्य तथा अन्य प्राणियों को अनुशासन का पाठ पढ़ाती है। सूर्य समय पर निकलता है। चाँद और तारे रात होने पर चमकना नहीं भूलते हैं। ऋतु आने पर फूल खिलना नहीं भूलते हैं। वर्षा ऋतु में बादल बरसना और समयानुसार वृक्ष फल नहीं भूलते हैं। ऋतुएँ समय पर आती जाती हैं और मुर्गा समय पर बाँग देता है। ये हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं। जीवन में जितने भी लोगों ने सफलता प्राप्त की है उसके मूल में अनुशासन रहा है। गांधी जी, नेहरू जी, टैगोर, तिलक, विवेकानंद आदि की सफलता का मूल मंत्र अनुशासन रहा है। विद्यार्थियों को कदम-कदम पर अनुशासन का पालन करना चाहिए और सफलता के सोपान चढ़ना चाहिए।
समय का महत्त्व
अथवा
समय चूकि वा पुनि पछताने
संकेत बिंदु –
- समय की पहचान
- समय पर काम न करने पर पछताना व्यर्थ
- समय का सदुपयोग-सफलता का सोपान
- आलस्य का त्याग।
एक सूक्ति है – ‘समय और सूक्ति किसी की प्रतीक्षा नहीं करते हैं।’ ये आते और जाते रहते हैं, चाहे कोई इनका लाभ उठाए या नहीं पर गुणवान लोग समय की महत्ता समझकर समय का लाभ उठाते हैं। एक चतुर मछुआरा अपने जाल और नाव के साथ ज्वार की प्रतीक्षा करता है और उसका लाभ उठाता है। जो लोग समय पर काम नहीं करते हैं उनके हाथ पछताने के सिवा कुछ भी नहीं लगता है। समय बीतने पर काम करने से उसकी सफलता का आनंद सूख जाता है। ऐसे ही लोगों के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-‘समय चूकि वा पुनि पछताने।’ का बरखा जब कृषि सुखाने। अर्थात् समय पर काम करने से चूक कर पछताना उसी तरह है जैसा कि फ़सल सूखने के बाद वर्षा होने से वह हरी नहीं हो पाती है।
जो व्यक्ति समय का सदुपयोग करते हैं वे हर काम में सफल होते हैं। शत्रु आक्रमण का जो देश मुकाबला नहीं करता वह गुलाम होकर रह जाता है, समय पर बीज न बोने वाले किसान की फ़सल अच्छी नहीं होती है और समय पर वर्षा न होने से भयानक अकाल पड़ जाता है। इस तरह निस्संदेह समय का उपयोग सफलता का सोपान है। समय पर काम करने के लिए आवश्यक है-आलस्य का त्याग करना। आलस्य भाव बनाए रखकर समय पर काम पूरा करना कठिन है। अतः हमें आलस्य भाव त्यागकर समय का सदुपयोग करना चाहिए।
देशाटन
अथवा
मनोरंजन का साधन : पर्यटन
संकेत बिंदु –
- देशाटन क्या है?
- देशाटन का महत्त्व
- देशाटन के लाभ
- देश की प्रगति में सहायक।
‘देशाटन’ शब्द दो शब्दों ‘देश’ और ‘अटन’ के मेल से बना है जिसका अर्थ है देश का भ्रमण करना अर्थात् ज्ञान और मनोरंजन के उद्देश्य से किया जाने वाला भ्रमण देशाटन कहलाता है। देशाटन करना मनुष्य की स्वाभाविक विशेषता है। वह प्राचीनकाल से ही शिकार और आश्रय के उद्देश्य से भटकता रहा है। मनुष्य आज भी भ्रमण करता है पर उसके भ्रमण की महत्ता आज अधिक है। आज वह ज्ञानार्जन और धनार्जन के लिए भ्रमण करता है जो उसे सामाजिक और आर्थिक रूप से उन्नत बनाता है।
इस प्रकार मनुष्य के जीवन में देशाटन का बहुत महत्त्व है। देशाटन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि मनुष्य विभिन्न वस्तुओं को साक्षात् रूप से देखता है और भिन्न-भिन्न लोगों से मिलता है। वह उस स्थान विशेष की कला, संस्कृति और सभ्यता से परिचित होता है। उसका स्वभाव मिलनसार बनता है। वह भिन्न-भिन्न लोगों की भाषाओं से परिचित होता है। इससे राष्ट्रीय एकता मज़बूत होती है। देशाटन से देश के विकास में सहायता होती है। पर्यटन उद्योग फलता-फूलता है और विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है। लोगों को रोजगार मिलता है। इस प्रकार व्यक्ति और राष्ट्र दोनों की आय बढ़ती है। हमें अवसर मिलते ही देशाटन अवश्य करना चाहिए।
मेरी अविस्मरणीय यात्रा
अथवा
पर्वतीय स्थल की यात्रा का रोमांच
संकेत बिंदु –
- यात्रा की तैयारी
- रास्ते का सौंदर्य
- पर्वतीय सौंदर्य
- यादगार पल।
मनुष्य के मन में यात्रा करने का विचार जोर मारता रहता है। उसे बस मौके की तलाश रहती है। मुझे भी यात्रा करना बहुत अच्छा लगता है। आखिर मुझे अक्टूबर के महीने में यह मौका मिल ही गया जब पिता जी ने बताया कि हम सभी वैष्णो देवी जाएँगे। वैष्णो देवी का नाम सुनते ही मन बल्लियों उछलने लगा और मैं तैयारी में जुट गया। उधर माँ भी आवश्यक तैयारियाँ करने के क्रम में कपड़े, चादर और खाने के लिए नमकीन बिस्कुट आदि पैक करने लगी। आखिर नियत समय पर हम प्रातः तीन बजे नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँचे और स्वराज एक्सप्रेस से जम्मू के लिए चल पड़े। लगभग आधे घंटे बाद हम दिल्ली की सीमा पार करते हुए सोनीपत पहुँचे। अब तक सवेरा हो चुका था। दोनों ओर दूर तक हरे-भरे खेत दिखाई देने लगे। इसी बीच पूरब से भगवान भास्कर का उदय हुआ।
उनका यह रूप मैं दिल्ली में नहीं देख सका था। दस बजे तक तो मैं जागता रहा पर उसके बाद चक्की बैंक पहुँचने पर मेरी नींद खुली। उससे आगे जाने पर हमें एक ओर पहाड़ नज़र आ रहे थे। वहाँ से कटरा जाकर हमने पैदल चढ़ाई की। पर्वतों को इतने निकट से देखने का यह मेरा पहला अवसर था। इनकी ऊँचाई और महानता देखकर अपनी लघुता का अहसास हो रहा था। अब मुझे समझ में आया कि ‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’ मुहावरा क्यों कहा गया होगा। वैष्णो देवी पहुँचकर वहाँ का पर्वतीय सौंदर्य हमारे दिलो-दिमाग पर अंकित हो गया। वहाँ से भैरव मंदिर पहुँचकर जिस सौंदर्य के दर्शन हुए वह आजीवन भुलाए नहीं भूलेगा।
परीक्षा का डर
अथवा
परीक्षा से पहले मेरी मनोदशा
संकेत बिंदु –
- परीक्षा नाम से भय
- पर्याप्त तैयारी
- घबराहट और दिल की धड़कनें हुई तेज़
- प्रश्न-पत्र देखकर भय हुआ दूर।
परीक्षा वह शब्द है जिसे सुनते ही अच्छे अच्छों के माथे पर पसीना आ जाता है। परीक्षा का नाम सुनते ही मेरा भी भयभीत होना स्वाभाविक है। ज्यों-ज्यों परीक्षा की घड़ी निकट आती जा रही थी त्यों-त्यों यह घबराहट और भी बढ़ती जा रही थी। जितना भी पढ़ता था घबराहट में सब भूला-सा महसूस हो रहा था। खाने-पीने में भी अरुचि-सी हो रही थी। इस घबराहट में न जाने कब ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर’-उच्चरित होने लगता था पता नहीं। यद्यपि मैं अपनी तरफ से परीक्षा का भय भूलने और सभी प्रश्नों के उत्तर दोहराने की तैयारी कर रहा था और जिन प्रश्नों पर तनिक भी आशंका होती तो उस पर निशान लगाकर पिता जी से शाम को हल करवा लेता था पर मन में कहीं न कहीं भय तो था ही।
परीक्षा का दिन आखिर आ ही गया। सारी तैयारियों को समेटे मैं परीक्षा भवन में चला गया पर प्रश्न-पत्र हाथ में आने तक मन में तरह-तरह की आशंकाएँ आती जाती रही। मैंने अपनी सीट पर बैठकर आँखें बंद किए प्रश्न-पत्र मिलने का इंतज़ार करने पर घबराहट के साथ-साथ दिल की धड़कने तेज़ हो गई थी। इसी बीच घंटी बजी। कक्ष निरीक्षक ने पहले हमें उत्तर पुस्तिकाएँ दी फिर दस मिनट बाद प्रश्न-पत्र दिया। काँपते हाथों से मैंने प्रश्न पत्र लिया और पढ़ना शुरू किया। शुरू के पेज के चारों प्रश्नों को पढ़कर मेरी घबराहट आधी हो गई क्योंकि उनमें से चारों के जवाब मुझे आते थे। पूरा प्रश्न पत्र पढ़ा। अब मैं प्रसन्न था क्योंकि एक का उत्तर छोड़कर सभी के उत्तर लिख सकता था। मेरी घबराहट छू मंतर हो चुकी थी। अब मैं लिखने में व्यस्त हो गया।
देश-प्रेम
अथवा
प्राणों से प्यारा : देश हमारा
संकेत बिंदु –
- देश से लगाव स्वाभाविक गुण
- देश के लिए सर्वस्व न्योछावर
- मातृभूमि ‘माँ’ के समान
- राष्ट्रीय एकता प्रगाढ़ करने में सहायक।
मनुष्य की स्वाभाविक विशेषता है कि वह जिस व्यक्ति, वस्तु या स्थान के साथ कुछ समय बिता लेता है उससे उसका लगाव हो जाता है। ऐसे में जिस देश में उसने जन्म पाया है, जहाँ का अन्न-जल और वायु ग्रहण कर बड़ा हुआ है, उस स्थान से लगाव होना लाजिमी है। इसी लगाव का नाम है देश-प्रेम। अर्थात् देश के कण-कण से प्रेम होना उसकी सजीव-निर्जीव वस्तुओं के अलावा पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं और मनुष्यों से प्यार करना देश-प्रेम कहलाता है। यह वह पवित्र भावना है जो देश की रक्षा करते हुए अपना तन-मन-धन अर्थात् सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसा व्यक्ति ही सच्चादेश प्रेमी कहलाता है। कहा गया है-‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
आखिर हो भी क्यों न व्यक्ति को स्वर्ग जाने के योग्य जननी और जन्मभूमि ही बनाते हैं। माँ संतान को जन्म देती है पर जन्मभूमि की रज में लोटकर बच्चा बढ़ता है और यहीं का अन्न जलग्रहण कर बड़ा होता है। वास्तव में जन्मभूमि के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हमारे देश के वीरों और देशभक्तों ने जन्मभूमि की रक्षा के लिए सुख-चैन त्याग दिया, जेल की दर्दनाक यातनाएँ भोगी, हँसते-हँसते लाठियाँ और कोडे खाए और हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम गए। देश प्रेम की पवित्र भावना जाति, धर्म, भाषा, वर्ण, वर्ग, प्रांत और दल से ऊपर होती है। यह इन संकीर्णताओं का बंधन नहीं स्वीकारती है। इससे राष्ट्रीय एकता मज़बूत होती है। हमें अपने देश पर गर्व है। मैं इससे असीम प्यार करता हूँ।
हमारे देश के राष्ट्रीय पर्व
अथवा
देश की अखंडता में सहायक राष्ट्रीय पर्व
संकेत बिंदु –
- राष्ट्रीय पर्व का अर्थ एवं उनकी महत्ता
- हमारे राष्ट्रीय पर्व और मनाने का ढंग
- देश की एकता अखंडता बनाने में सहायक
- राष्ट्रीय पर्वो का संदेश।
पर्व मानव जीवन को मनोरंजन और ऊर्जा से भरकर मनुष्य की नीरसता दूर करते हैं। इन पर्वो को सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय पर्यों के रूप में बाँटा जा सकता है। राष्ट्रीय पर्व वे पर्व हैं जिन्हें राष्ट्र के सारे लोग बिना किसी भेदभाव के एकजुट होकर मनाते हैं। इनका सीधा संबंध देश की एकता और अखंडता से होता है। राष्ट्रीय पर्व व्यक्तिगत न होकर राष्ट्रीय होते हैं, इसलिए देशवासियों के अलावा विभिन्न प्रशासनिक और सरकारी कार्यालय, विभिन्न संस्थाएँ मिल-जुलकर मनाती हैं।
इस दिन देश में सरकारी अवकाश रहता है। यहाँ तक कि दुकानें और फैक्ट्रियाँ भी बंद रहती हैं ताकि देशवासी इन्हें मनाने में अपना योगदान दें। हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं-स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त), गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) और गांधी जयंती (02 अक्टूबर)। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रात:काल सरकारी कार्यालयों एवं भवनों पर झंडा फहराया जाता है और रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है।
इस दिन देशभक्तों और शहीदों के योगदान को याद करते हुए स्वतंत्रता बनाए रखने की प्रतिबद्धता दोहराई जाती है। गांधी जयंती के अवसर पर कृतज्ञ देशवासी गांधी जी के योगदान को याद करते हैं और उनके बताए रास्ते पर चलने की प्रतिज्ञा करते हैं। देश की एकता अखंडता बनाए रखने में राष्ट्रीय त्योहार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री देशवासियों से एकता बनाए रखने का आह्वान करते हैं। ये पर्व हमें एकजुट रहकर देश की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा देश के लिए तन-मन और धन न्योछावर करने का संदेश देते हैं। हमें इस संदेश को सदा याद रखना चाहिए।
गाँवों का देश भारत
अथवा
गाँवों की दयनीय दशा
संकेत बिंदु –
- देश की 70 प्रतिशत जनता गाँवों में
- प्रदूषण रहित वातावरण
- गाँवों में अभाव ग्रस्तता
- गाँवों की दशा में कुछ बदलाव।
है अपना हिंदुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में। अगर हमें अपने देश की सच्ची तसवीर देखनी है तो हमें गाँवों की ओर रुख करना पड़ेगा। हमारे देश की आत्मा इन्हीं गाँवों में निवास करती है। देश की जनसंख्या का 70 प्रतिशत से अधिक भाग इन्हीं गाँवों में बसता है। इनमें से अधिकांश लोगों की आजीविका का साधन कृषि है। यहाँ रहने वाले चाहे खुद भूखे सो जाएँ पर देशवासियों को पेट भरने का दायित्व यही गाँव निभाते हैं। यहाँ के किसानों का श्रम और कार्य देखकर श्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। गाँवों में चारों ओर हरियाली का साम्राज्य होता है। ये पेड़-पौधे ग्रामवासियों को शुद्ध वायु उपलब्ध कराते हैं।
यहाँ कारखाने और औद्योगिक इकाइयों का अभाव है। यहाँ मोटर गाड़ियों का न धुआँ है और न शोर। यहाँ का वातावरण शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक है। गाँवों की धूलभरी गलियाँ, कच्चे घर, घास-फूस की झोपड़ियाँ, नालियों में बहता गंदा पानी, मैले-कुचैले कपड़े पहने बच्चे और अधनंगे बदन वाले किसान की दयनीय दशा देखकर गाँवों की अभाव ग्रस्तता का पता चल जाता है।
यहाँ रहने वालों की कृषि मानसून पर आधारित है। मानसून की कमी होने पर फ़सल अच्छी नहीं होती है जिससे उन्हें साहूकारों से कर्ज लेने पर विवश होना पड़ता है और वे ऋण ग्रस्तता के जाल में फँस जाते हैं। ग्रामवासी आज भी अंधविश्वास और अशिक्षा के शिकार हैं। गाँवों तक पक्की सड़कें बन जाने और बिजली पहुँच जाने के कारण गाँवों की दशा में कुछ सुधार होता है। सरकार द्वारा शिक्षा की व्यवस्था करने तथा ग्रामवासियों के कल्याण हेतु अनेक योजनाएँ चलाने के कारण अब गाँवों के दिन फिरने लगे हैं।
रंग-बिरंगी ऋतुएँ
अथवा
भारत की छह ऋतुएँ
संकेत बिंदु –
- ऋतुएँ-प्रकृति का अनुपम उपहार
- छह ऋतुएँ और उनकी विशेषताएँ
- ऋतुराज वसंत
- ऋतुओं का प्रभाव।
प्रकृति ने भारत को अनेक उपहार प्रदान किए हैं। इन उपहारों में एक है-छह ऋतुओं का उपहार। ये ऋतुएँ एक के बाद एक बारीबारी से आती हैं और मुक्त हाथों से सौंदर्य बिखरा जाती हैं। ऋतुओं के जैसा मनभावन मौसम का समन्वय भारत में बना रहता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। हमारे देश में छह ऋतुएँ पाई जाती हैं। ये छह ऋतुएँ हैं ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत। भारतीय महीनों के अनुसार बैसाख और जेठ ग्रीष्म ऋतु के महीने होते हैं। इस समय छोटी-छोटी वनस्पतियाँ सूख जाती हैं। धरती तवे-सी जलने लगती है। आम, कटहल, फालसा, जामुन आदि फल इस समय प्रचुरता से मिलते हैं। इसके बाद अगले दो महीने वर्षा ऋतु के होते हैं। इस समय वर्षा होती है जो मुरझाई धरती और प्राणियों को नवजीवन देती हैं। अधिक वर्षा बाढ़ के रूप में प्रलय लाती है। वर्षा ऋतु के उपरांत शरद ऋतु का आगमन होता है। यह ऋतु दो महीने तक रहती है। दशहरा और दीपावली इस ऋतु के प्रमुख त्योहार हैं। इस समय सरदी और गरमी बराबर होती है, जिससे मौसम सुहाना रहता है। शिशिर और हेमंत ऋतुओं में कड़ाके की सरदी पड़ती है। हेमंत पतझड़ की ऋतु मानी है। इस समय पेड़-पौधे अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इसके बाद ऋतुराज वसंत का आगमन होता है। इस से मौसम सुहावना होता है। चारों ओर खिले फूल और सुगंधित हवा इस समय को सुहावना बना देते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह सर्वोत्तम ऋतु है। विभिन्न ऋतुओं का अपना अलग-अलग प्रभाव होता है। इस कारण हमारा खान-पान और रहन-सहन प्रभावित होता है। तरह-तरह की फ़सलों के उत्पादन में ऋतुएँ महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। सचमुच ये ऋतुएँ किसी वरदान से कम नहीं हैं।
वन रहेंगे-हम रहेंगे
अथवा
वनों की महत्ता
संकेत बिंदु –
- वन प्रकृति के अनुपम उपहार
- वनों के लाभ
- मनुष्य का स्वार्थपूर्ण व्यवहार
- वन बचाएँ जीवन बचाएँ।
प्रकृति ने मनुष्य को जो नाना प्रकार के उपहार दिए हैं, वन उनमें सबसे अधिक उपयोगी और महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्य और प्रकृति का साथ अनादिकाल से रहा है। पृथ्वी पर जीवन योग्य जो परिस्थितियाँ हैं उन्हें बनाए रखने में वनों का विशेष योगदान है। मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं के साथ इन्हीं वनों में पैदा हुआ, पला, बढ़ा और सभ्य होना सीखा। वनों ने मनुष्य की हर ज़रूरत को पूरा किया है। वन हमें लकड़ी, छाया, फल-फूल, कोयला, गोंद, कागज, नाना प्रकार की औषधियाँ देते हैं। वे पशुओं तथा पशु-पक्षियों के लिए आश्रय-स्थल उपलब्ध करते हैं। इससे जैव विविधता और प्राकृतिक संतुलन बना रहता है।
वन वर्षा लाने में सहायक हैं जिससे प्राणी नवजीवन पाते हैं। वन बाढ़ रोकते हैं और भूक्षरण कम करते हैं तथा धरती का उपजाऊपन बनाए रखते हैं। वास्तव में वन मानवजीवन का संरक्षण करते हैं। वन परोपकारी शिव के समान हैं जो विषाक्त वायु का स्वयं सेवन करते हैं और बदले में प्राणदायी शुद्ध ऑक सीजन देते हैं। दुर्भाग्य से मनुष्य की जब ज़रूरतें बढ़ने लगी तो उसने वनों की अंधाधुंध कटाई शुरू कर दी। नई बस्तियाँ बनाने, कृषि योग्य भूमि पाने, सड़कें बनाने आदि के लिए पेड़ों की कटाई की गई, जिससे पर्यावरण असंतुलन बढ़ा और वैश्विक ऊष्मीकरण में वृद्धि हुई। इससे असमय वर्षा, बाढ़, सूखा आदि का खतरा उत्पन्न हो गया। धरती पर जीवन बचाने के लिए पेड़ों को बचाना आवश्यक है। आओ हम जीवन बचाने के लिए अधिकाधिक पेड़ लगाने और बचाने की प्रतिज्ञा करते हैं।
प्रदूषण की समस्या
अथवा
जीवन खतरे में डालता प्रदूषण
संकेत बिंदु –
- प्रदूषण का अर्थ
- प्रदूषण के कारण
- प्रदूषण के प्रभाव
- प्रदूषण से बचाव के उपाय।
स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक है कि हम जिन वस्तुओं का सेवन करें, जिस वातावरण में रहें वह साफ़-सुथरा हो। जब हमारे पर्यावरण और वायुमंडल में ऐसे तत्व मिल जाते हैं जो उसे दुषित करते हैं तथा इनका स्तर इतना बढ़ जाता है कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाते हैं तब यह स्थिति प्रदूषण कहलाती है। आज सभ्यता और विकास की इस दौड़ में मनुष्य के कार्य व्यवहार ने प्रदूषण को खूब बढ़ाया है। बढ़ती आवश्यकता के कारण एक ओर वनों को काटकर नई बस्तियाँ बसाई गईं तो दूसरी ओर अंधाधुंध कल-कारखानों की स्थापना की गई। इन बस्तियों तक पहुँचने के लिए सड़कें बनाई गईं।
इसके लिए भी वनों की कटाई की गई। सभ्यता की ऊँचाई छूने के लिए मनुष्य ने नित नए आविष्कार किए। मोटर-गाड़ियाँ वातानुकूलित उपकरणों से सजी गाड़ियाँ और मकानों के कार्य आदि के कारण पर्यावरण इतना प्रदूषित हुआ कि आदमी को साँस लेने के लिए शुद्ध हवा मिलना कठिन हो गया है। प्रदूषण के दुष्प्रभाव के कारण प्राकृतिक असंतुलन उत्पन्न हो गया है। वायुमंडल में कार्बनडाई ऑक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ गई है। इससे अम्लीय वर्षा का खतरा पैदा हो गया है।
मोटर-गाड़ियों और फैक्ट्रियों के शोर के कारण स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अति वृष्टि, अनावृष्टि और असमय वर्षा प्रदूषण का ही दुष्परिणाम है। इस प्रदूषण से बचने का सर्वोत्तम उपाय है अधिकाधिक वन लगाना। पेड़ लगाकर प्रकृति में संतुलन लाया जा सकता है। इसके अलावा हमें सादा जीवन उच्च विचार वाली जीवन शैली अपनाते हुए प्रकृति के करीब लौटना चाहिए।
बाल मजदूरी
अथवा
बाल मज़दूरी : समाज के लिए अभिशाप
संकेत बिंदु –
- बाल मजदूर कौन
- बाल मजदूरी क्यों
- बाल मजदूरी के क्षेत्र
- समस्या का समाधान ।
समाज शास्त्रियों ने मानवजीवन को आयु के विभिन्न वर्गों में बाँटा है। इसके अनुसार सामान्यतया 5 से 11 साल के बच्चे को बालक कहा जाता है। इसी उम्र में बालक विद्यालय जाकर पढ़ना-लिखना सीखता है और शिक्षित जीवन की नींव रखता है परंतु परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने के कारण जब बच्चे को पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिलता है और उसे अपना पेट पालने के लिए न चाहते हुए काम करना पड़ता है तो उसे बाल मजदूरी कहते हैं। मजदूर की भाँति काम करने वाले इन बालकों को बाल मज़दूर कहते हैं। बाल मजदूरी के मूल में है-गरीबी।
गरीब माता-पिता जब बच्चे को विद्यालय भेजने की स्थिति में नहीं होते हैं और वे परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते हैं तो वे अपने बच्चों को भी काम पर भेजना शुरू कर देते हैं। इसका एक कारण समाज के कुछ लोगों की शोषण की प्रवृत्ति भी है। वे अपने लाभ के लिए कम मजदूरी देकर इन बच्चों से काम करवाते हैं। बाल मजदूरी के कुछ विशेष क्षेत्र हैं जहाँ बच्चों से काम कराया जाता है। दियासलाई उद्योग, पटाखा उद्योग, अगरबत्तियों के कारखाने, कालीन बुनाई, चूड़ी उद्योग, बीड़ी, गुटखा फैक्ट्रियों में बच्चों से काम लिया जाता है। बाल मजदूरी रोकने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है। बाल मजदूरों को मज़बूरी से मुक्त कराकर उन्हें शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इसके अलावा स्वार्थी लोगों को अपनी स्वार्थवृत्ति त्यागकर इन बच्चों पर दया करना चाहिए और इनसे काम नहीं करवाना चाहिए।
महानगरों की यातायात को सुखद बनाती-मैट्रो रेल
अथवा
यात्रा सुखद बनाती-मैट्रो रेल
संकेत बिंदु –
- महानगरों का भीड़भाड़ युक्त जीवन
- मैट्रो रेल की आवश्यकता
- मैट्रो रेल के लाभ
- सुखद यात्रा का साधन ।
महानगर सुख-सुविधा के केंद्र माने जाते हैं। इसी सुख-सुविधा का आकर्षण लोगों को अपनी ओर खींचता है जिससे लोग महानगरों की ओर पलायन करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि महानगर भीड़भाड़ का केंद्र बनते जा रहे हैं। यहाँ भीड़ के कारण यातायात कठिन हो गया है। यहाँ काम-काज के सिलसिले में लोगों को लंबी यात्राएँ करनी पड़ती हैं जो भीड़ के कारण दुष्कर हो जाती हैं। थोड़ी दूर की यात्रा भी पहाड़ पार करने जैसा हो जाती है। ऐसे में आवागमन को सरल, सुगम और सुखद बनाने के लिए ऐसे साधन की आवश्यकता महसूस होने लगी जो इनका समाधान कर सके। महानगरों में आवागमन की समस्या को हल किया है मैट्रो रेल ने।
आज मैट्रो रेल दिल्ली के अलावा अन्य महानगरों जैसे-मुंबई, जयपुर, लखनऊ, चेन्नई आदि में संचालित करने की योजना है जिन पर जोर-शोर से काम हो रहा है। मैट्रो रेल का संचालन खंभों पर पटरियाँ बिछाकर ज़मीन से काफ़ी ऊँचाई पर किया जाता है। इस कारण जाम की समस्या से मुक्ति तो मिली है तीव्र गति से यात्रा भी संभव हो गई है। इसके अलावा वातानुकूलित मैट्रो रेल की यात्रा लोगों को थकान, चिड़चिड़ेपन और रक्तचाप बढ़ने से बचाती है। इस यात्रा के बाद भी थकान की अनुभूति नहीं होती है। मैट्रो में लोगों की बढ़ती भीड़ इसका स्वयं में प्रमाण है। हमें मैट्रो रेल के नियमों का पालन करते हुए स्टेशन और रेल को साफ़-सुथरा बनाना चाहिए ताकि यह सुखद यात्रा सदा वरदान जैसी बनी रहे।
जल है तो जीवन है
अथवा
जल ही जीवन है
अथवा
जल संरक्षण-आज की आवश्यकता
संकेत बिंदु –
- जीवनदायी जल
- जल प्रदूषण के कारण
- जल संरक्षण कितना ज़रूरी
- जल संरक्षण के उपाय।
पृथ्वी पर प्राणियों के जीवन के लिए हवा के बाद सबसे आवश्यक वस्तु है-जल। यद्यपि भोजन भी आवश्यक है पर इस भोजन को तरल रूप में लाने और सुपाच्य बनाने के लिए जल की आवश्यकता होती है। मानव शरीर में लगभग 70 प्रतिशत जल होता है। कहा भी गया है-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंच तत्व से बना शरीरा। वनस्पतियों में तो 80 प्रतिशत से ज़्यादा जल पाया जाता है। इस जल के बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है। पृथ्वी पर यूँ तो तीन चौथाई भाग जल ही है पर इसमें पीने योग्य जल की मात्रा बहुत कम है। यह पीने योग्य जल कुओं, तालाबों, नदियों और झीलों में पाया जाता है जो मनुष्य की स्वार्थपूर्ण गतिविधियों के कारण दूषित होता जा रहा है।
मनुष्य नदी, तालाबों में खुद नहाता है और जानवरों को नहलाता है। इतना ही नहीं वह फैक्ट्रियों और नालियों का दूषित पानी इसमें मिलने देता है जिससे जल प्रदूषित होता है। पेयजल की मात्रा में आती कमी और गिरते भू-जल स्तर के कारण जल संरक्षण अत्यावश्यक हो गया। पृथ्वी पर जीवन बनाए और बचाए रखने के लिए जल बचाना ज़रूरी है। जल संरक्षण का पहला उपाय है-उपलब्ध जल का दुरुपयोग न किया जाए और हर स्तर पर होने वाली बरबादी को रोका जाए। टपकते नलों की मरम्मत की जाए और अपनी आदतों में सुधार लाया जाए। इसे बचाने का दूसरा उपाय है-वर्षा जल का संरक्षण करना और इसे व्यर्थ बहने से बचाना। ऐसा करके हम आने वाली पीढ़ी को जल का उपहार स्वतः दे जाएँगे।
पराधीनता-एक अभिशाप
संकेत बिंदु –
- पराधीनता का आशय
- पराधीनता-एक अभिशाप
- पराधीनता से मुक्ति का साधन-त्याग एवं बलिदान
‘पराधीनता’ शब्द ‘पर’ और ‘अधीनता’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-दूसरों की अधीनता। अर्थात् हमारा जीवन, व्यवहार, कार्य आदि दूसरों की इच्छा पर निर्भर होना। वास्तव में पराधीनता एक अभिशाप है। पराधीन मनुष्य की ज़िंदगी उसी तरह हो जाती है, जैसे-पिंजरे में बंद पक्षी। ऐसा जीवन जीने वाला मनुष्य सपने में भी सुखी नहीं हो सकता है। उसे दूसरों का गुलाम बनकर अपनी इच्छाएँ और मन मारकर जीना होता है। पराधीन व्यक्ति को कितनी भी सुविधाएँ क्यों न दी जाए वह सुखी नहीं महसूस कर सकता है क्योंकि उसकी मानसिकता गुलामों जैसी हो चुकी होती है।
पराधीन व्यक्ति का मान-सम्मान और स्वाभिमान सभी कुछ नष्ट होकर रह जाता है। पराधीनता से मुक्ति पाने का साधन त्याग एवं बलिदान है। हमारा देश भी अंग्रेजों की पराधीनता झेल रहा था, परंतु क्रांतिकारी एवं देशभक्त युवाओं ने अपना सब कुछ त्याग कर स्वयं को संघर्ष की आग में झोंक दिया। उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार सहे, जेलों में प्राणांतक यातनाएँ सही। हज़ारों-लाखों ने अपनी कुरबानी दी। यह संघर्ष रंग लाया और हमें पराधीनता के अभिशाप से मुक्ति मिली। अब स्वतंत्र रहकर अभावों में भी सुख का अनुभव करते हैं।
जीवन में सत्संग का महत्त्व
संकेत बिंदु –
- सत्संग क्या है
- सत्संग दुर्लभ
- सत्संग के लाभ
सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगों अर्थात् सज्जनों का साथ। सज्जनों के साथ रहना, उनकी बातें सुनना, उन्हें जीवन में उतारना ही सत्संग कहलाता है। सत्संग के कारण हमारे जीवन में परिवर्तन होने लगते हैं। इस संसार में सत्संग दुर्लभ माना जाता है। जिस पर ईश्वर की कृपा होती है, उसी को सत्संग का अवसर मिल पाता है। इससे हमारे मन, बुद्धि और मस्तिष्क का विकास होता है। इससे हमारे सोच-विचार और आचरण में बदलाव आने लगता है। व्यक्ति सत्संग के बिना विवेकवान नहीं हो सकता है।
तभी तो तुलसीदास ने कहा है-बिनु सत्संग विवेक ने होई। मनुष्य को जीने के लिए जिस प्रकार हवा और पानी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीवन में उत्थान विकास और विवेकवान बनने के लिए सत्संग आवश्यक है। सत्संग के विषय में कवि रहीम पहले ही कह चुके हैं-‘जैसी संगति कीजिए, तैसोई फल दीन।’ अर्थात् संगति के अनुसार मनुष्य को फल मिलता है। स्वाति नक्षत्र की एक बूंद केले के पत्ते पर पड़कर कपूर, हाथी के मस्तक पर पड़कर गजमौक्तिक और सीप में पड़कर मोती बन जाती है। अतः हमें भी सत्संग अवश्य करना चाहिए।
विद्यार्थी जीवन
संकेत बिंदु –
- जीवन निर्माण का काल
- विद्यार्थी के लक्षण
- विद्यार्थी के कर्तव्य
हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को चार भागों में बाँट दिया था। इनमें जीवन के जिस आरंभिक पच्चीस वर्ष को ‘ब्रह्मचर्य’ के नाम से जाना था, उसी को आज विदयार्थी जीवन कहने में कोई विसंगति न होगी। इसी काल में बालक तरह-तरह की विद्याएँ, संस्कार और सदाचार की बातें सीखता है, अत: यह जीवन-निर्माण का काल होता है। इस समय बालक जो कुछ भी सीखता है, चाहे अच्छा या बुरा, उसका प्रभाव जीवन भर रहता है।
इन्हीं गुणों पर व्यक्ति का भविष्य निर्भर करता है। विद्यार्थी जीवन विद्यार्जन का काल होता है। इसके लिए नम्रता, जिज्ञासा, सेवा तथा कर्तव्य भावना आवश्यक है। इस समय उसे कौए-सी चेष्टा, बगुले-सा ध्यान, कुत्ते-सी निद्रा, कम भोजन करने वाला तथा घर-परिवार की मोहमाया से दूर रहने वाला होना चाहिए। जो विद्यार्थी आलस्य करते हैं या असंयमित आचरण के शिर हो जाते हैं वे सफलता से दूर रह जाते हैं। अतः विद्यार्थियों को विनम्र, जिज्ञासु, संयमी, परिश्रमी तथा अध्यवसायी बनना चाहिए। उसके जीवन में सादगी और विचारों की महानता होने पर वह उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करता है।
महानगरीय जीवन-एक वरदान या अभिशाप
संकेत बिंदु –
- शहरों की ओर बढ़ते कदम
- दिवास्वप्न
- वरदान रूप
- महानगरीय जीवन-एक अभिशाप
आदिकाल में जंगलों में रहने वाले मनुष्य ने ज्यों-ज्यों सभ्यता की दिशा में कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गईं। उसने इन आवश्यकताओं की पूर्ति का केंद्र शहर प्रतीत हुए और उसने शहरों की ओर कदम बढ़ा दिए। महानगरों का अपना विशेष आकर्षण होता है। यही चमक-दमक गाँवों में या छोटे शहरों में रहने वालों को विशेष रूप से आकर्षित करती है। उसे यहाँ सब कुछ आसानी से मिलता प्रतीत होता है। इसी दिवास्वप्न को देखते हुए उसके कदम महानगरों की ओर बढ़े चले आते हैं। इसके अलावा वह रोज़गार और बेहतर जीवन जीने की लालसा में इधर चला आता है। धनी वर्ग के लिए महानगर किसी वरदान से कम नहीं।
उनके कारोबार यहाँ फलते-फूलते हैं। कार, ए.सी., अच्छी सड़कें, विलासिता की वस्तुएँ, चौबीसों घंटे साथ निभाने वाली बिजली यहाँ जीवन को स्वर्गिक आनंद देती हैं। इसके विपरीत गरीब आदमी का जीवन यहाँ दयनीय है। रहने को मलिन स्थानों पर झुग्गियाँ, चारों ओर फैली गंदगी, मिलावटी वस्तुएँ, दूषित हवा, प्रदूषित पानी यहाँ के जीवन को नारकीय बना देते हैं। ऐसा जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं।
बिना विचारे जो करे
संकेत बिंदु –
- सूक्ति का अर्थ
कवि गिरधर की एक कुंडली की पहली पंक्ति है–’बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए, काम बिगारे आपनो जग में होत हँसाय। अर्थात् बिना सोच-विचार किए जो व्यक्ति काम करता है वह बाद में पछताता है। ऐसा करके वह अपना काम बिगाड़ लेता है जिससे संसार में उसकी हँसी होती है। वास्तव में मानव जीवन में मनुष्य की सोच ही उसके व्यवहार का आईना होती है। बिना सोचे-समझे काम करके मानव वह अपनी समस्या को और भी जटिल बना लेता है। ऐसे में वह दूसरों की सहायता लेने के लिए विवश होता है।
सोच-विचार का अर्थ यह तो बिलकुल नहीं है कि वह हवाई खयालों में डूबा रहे और काम को करने के बजाए दिवास्वप्न में डूबा रहे। ऐसा सोच-विचार किस काम का जिससे वह काम करना तो दूर काम को हाथ भी न लगाए। सोच-विचार का अर्थ है काम करने के लिए सही दिशा में बढ़ना और अपनी सोच को इस स्तर का बनाना जिससे काम सफल हो जाए और किसी को हँसने का अवसर भी न मिले। इस तरह की सोच से मनुष्य की पहचान और व्यवहार दोनों ही अच्छा बन जाता है।
अनुशासन का महत्त्व
संकेत बिंदु –
- अनुशासन का अभिप्राय
- अनुशासन का महत्त्व
- सफलता के लिए अनुशासन आवश्यक
अनुशासन का अभिप्राय है-शासन (नियम) के पीछे चलना। अर्थात् विद्वानों तथा समाज के माननीय लोगों द्वारा बनाए गए नैतिक एवं सामाजिक नियमों का पालन करते हुए जीना। जीवन में अनुशासन का बहुत महत्त्व है। अनुशासन जीने की कला है। यह व्यक्ति का वह मार्गदर्शक है जो व्यक्ति को सुपथ पर चलाते हुए लक्ष्य की ओर ले जाता है। अनुशासन का महत्त्व हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि अंकुश की सहायता से महावत पागल हाथी को भी वश में कर लेता है और मनचाहे काम करवाता है।
यदि महावत के पास अंकुश न हो तो पागल हाथी बेकाबू होकर विध्वंस बन जाता है। वास्तव में अनुशासनहीन जीवन नाविक विहीन नाव के समान होता है। नाविक नाव को मध्य धारा से धीरे-धीरे किनारे लगा लेता है परंतु नाविक विहीन नाव किसी चट्टान या पत्थर से टकराकर चकनाचूर हो जाती है। अनुशासनहीन व्यक्ति न अपना भला कर पाता है और न समाज या राष्ट्र का। अनुशासनहीन व्यक्ति सफलता से कोसों दूर रह जाता है। अतः जीवन को आनंदमय बनाने के लिए अनुशासन में रहना अत्यावश्यक है।
ऋतुराज-वसंत
संकेत बिंदु –
- ऋतुराज क्यों
- जड़-चेतन में नवोल्लास
- स्वास्थ्यवर्धक ऋतु
- वसंत ऋतु के त्योहार
हमारे देश भारत में छह ऋतुएँ पाई जाती हैं। इनमें से वसंत को ऋतुराज कहा जाता है। इस काल में न शीत की अधिकता होती है और न ग्रीष्म का तपन। वर्षा ऋतु का कीचड़ और कीट-पतंगों का आधिक्य भी नहीं होता है। माघ महीने की शुक्ल पंचमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक ही यह ऋतु बहुत-ही सुहावनी होती है। इस समय पेड़-पौधों में नवांकुर फूट पड़ते हैं। लताओं पर कलियाँ और फूल आ जाते हैं। चारों दिशाओं में फूलों की सुगंध, कोयल कूक तथा वासंती हवा की सरसर से वातावरण उल्लासमय दिखता है।
इस ऋतु का असर बच्चों, युवा, प्रौढ़ों और वृद्धों पर दिखता है। उनका तन-मन उल्लास से भर जाता है। यह ऋतु स्वास्थ्यवर्धक मानी गई है। स्वास्थ्य के अनुकूल जलवायु, सुंदर वातावरण तथा प्राणवायु की अधिकता के कारण संचार बढ़ जाता है। इससे मन में एक नया उल्लास एवं उमंग भर उठता है। वसंत पंचमी, होली इस ऋतु के त्योहार हैं। वसंत पंचमी के दिन ज्ञानदायिनी सरस्वती की पूजा-आराधना की जाती है तथा होली के दिन रंगों में सराबोर हम खुशी में डूब जाते हैं।
बदलती दुनिया में पीछे छूटते जीवन मूल्य
संकेत बिंदु –
- संसार परिवर्तनशील
- बदलाव का प्रभाव
- खोते नैतिक मूल्य
यह संसार परिवर्तनशील है। यह पल-पल परिवर्तित हो रहा है। इस परिवर्तन के कारण कल तक जो नया था वह आज पुराना हो जाता है। कुछ ही वर्षों के बाद दुनिया का बदला रूप नज़र आने लगता है। इस परिवर्तन से हमारे जीवन मूल्य भी अछूते नहीं हैं। इन जीवन मूल्यों में बदलाव आता जा रहा है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल रहा है। यह बदलाव व्यक्ति के व्यवहार में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। विज्ञान की खोजों के कारण हर क्षेत्र में बदलाव आ गया है। पैदल और बैलगाड़ी पर सफ़र करने वाला मनुष्य वातानुकूलित रेलगाड़ियों और तीव्रगामी विमानों से सफ़र कर रहा है।
हरकोर और कबूतरों से संदेश भेजने वाला मनुष्य आज टेलीफ़ोन और तार की दुनिया से भी आगे आकर मोबाइल फ़ोन पर आमने-सामने बातें करने लगा है। दुर्भाग्य से हमारे जीवन मूल्य इस प्रगति में पीछे छूटते गए। कल तक दूसरों के लिए त्याग करने वाला, अपना सर्वस्व दान देनेवाला मनुष्य आज दूसरों का माल छीनकर अपना कर लेना चाहता है। परोपकार, उदारदता, मित्रता, परदुखकातरता, सहानुभूति, दया, क्षमा, साहस जैसे मूल्य जाने कहाँ छूटते जा रहे हैं। हम स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं।
देश हमारा सबसे प्यारा
संकेत बिंदु –
- भारत का नामकरण
- प्राकृतिक सौंदर्य
- अनेकता में एकता
- प्राचीन परंपरा
- वर्तमान में भारत
स्वर्ग के समय जिस धरा पर मैं रहता हूँ, दुनिया उसे भारत के नाम से जानती-पहचानती है। प्राचीन काल में यहाँ आर्यों (सभ्य) का निवास था, इस कारण इसे आर्यावर्त कहा जाता था। प्राचीन साहित्य में इसे जंबूद्वीप के नाम से भी जाना जाता था। कहा जाता है कि प्रतापी राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर इसका नाम भारत पड़ा। भारत का प्राकृतिक सौंदर्य अप्रितम है। यहाँ छह ऋतुएँ बारी-बारी से आकर अपना सौंदर्य बिखरा जाती हैं। इसके उत्तर में मुकुट रूप में हिमालय है। दक्षिण में सागर चरण पखारता है। गंगा-यमुना जैसी पावन नदियाँ इसके सीने पर धवल हार की भांति प्रवाहित होती हैं। यहाँ के हरे-भरे वन इस सौंदर्य को और भी बढा देते हैं।
यहाँ विभिन्न भाषा-भाषी, जाति-धर्म के लोग रहते हैं। उनकी वेषभूषा, रहन-सहन, खान-पान और रीति-रिवाजों में पर्याप्त अंतर है फिर भी हम सभी भारतीय हैं और मिल-जुलकर रहते हैं। यहाँ की परंपरा अत्यंत प्राचीन, महान और समृद्धशाली है। भारतीय संस्कृति की गणना प्राचीनतम संस्कृतियों में की जाती है। वर्तमान में भारत को स्वार्थपरता, आतंकवाद, गरीबी, निरक्षरता आदि का सामना करना पड़ रहा है तथा मानवीय मूल्य कहीं खो गए-से लगते हैं। नेताओं की स्वार्थलोलुपता ने रही-सही कसर पूरी कर दी है, फिर भी हमें निराश होने की जरूरत नहीं है। भारत एक-न-एक दिन अपना खोया गौरव अवश्य प्राप्त करेगा।
इंटरनेट का उपयोग
संकेत बिंदु –
- इंटरनेट क्या है
- इंटरनेट के लाभ
- उपयोग में सावधानियाँ
इंटरनेट को विज्ञान की अद्भुत देन कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वास्तव में इंटरनेट सूचनाओं एवं जानकारियों का विस्तृत जाल है। इसमें एक-दो नहीं करोड़ों पन्नों की जानकारी भरी है। इंटरनेट की मदद से हम अपनी इच्छित जानकारी और जिज्ञासा का हल कुछ ही पल में कंप्यूटर की मदद से पा सकते हैं। इसकी सहायता से हम कुछ ही क्षण में दुनिया से जुड़ जाते हैं। अपने विचित्र गुण के कारण इंटरनेट अत्यंत तेज़ी से युवाओं के बीच लोकप्रिय हो रहा है।
यह ऐसा माध्यम है जिसमें संचार के लगभग साधनों के गुण समाए हैं। इंटरनेट अपने आप में विशाल पुस्तकालय भी है जिसमें दुर्लभ जानकारियों से भरी अनेकानेक पुस्तकें समायी हैं। इसकी पहुँच दुनिया के कोने-कोने तक है। इंटरनेट बहु उपयोगी साधन है। इसके माध्यम से मनोवांछित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तो घर बैठे सिनेमा या हवाई जहाज़ के टिकट बुक करवा सकते हैं। यह पढ़ने लिखने वालों तथा शोधकर्ताओं के लिए वरदान है। इंटरनेट का सावधानीपूर्वक उपयोग न करने पर इसके दुरुपयोग की संभावना रहती है। इंटरनेट की अश्लील सामग्री से युवाओं का कोमल मन दिग्भ्रमित हो रहा है। विवेकपूर्वक उपयोग करने पर यह वरदान सरीखा है।
पुस्तकालय कितने उपयोगी
संकेत बिंदु –
- पुस्तकालय क्या है?
- पुस्तकालय के प्रकार
- ज्ञान के भंडार
- आवश्यकता एवं महत्त्व
पुस्तकालय शब्द दो शब्दों ‘पुस्तक’ और ‘आलय’ के मेल से बना है। इसमें आलय का अर्थ है-घर। अर्थात् वह स्थान जहाँ बहुत सारी पुस्तकें सुरक्षित एवं व्यवस्थित ढंग से रखी जाती हैं, उसे पुस्तकालय कहते हैं। प्राचीन काल में कुछ राजा-महाराजा अपना शौक पूरा करने के लिए पुस्तकालय बनवाया करते थे। पुस्तकालय मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं-निजी पुस्तकालय और सार्वजनिक पुस्तकालय। निजी पुस्तकालय व्यक्ति अपने सामर्थ्य, रुचि और आवश्यकता के अनुसार बनवाता है तथा स्वयं उसका उपयोग करता है।
इसके विपरीत सार्वजनिक पुस्तकालय प्रायः सरकार द्वारा बनवाए एवं संचालित किए जाते हैं, जिनके दरवाज़े हर एक के लिए खुले रहते हैं। यहाँ कोई भी जाकर उनका लाभ उठा सकता है। यहाँ विविध विषयों पर बहुत सारी उपयोगी एवं दुर्लभ पुस्तकें मिल जाती हैं। यहाँ धर्म, अर्थ, ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा राजनीतिक विषयों के अलावा पौराणिक पुस्तकें मिलती हैं। इस प्रकार पुस्तकालय ज्ञान के भंडार हैं। इस युग में प्रत्येक व्यक्ति पुस्तकें नहीं खरीद सकता है तथा उनका रख-रखाव नहीं करता है। ज्ञान की उपयोगिता तो सर्वविदित है। ऐसे में पुस्तकालय की आवश्यकता एवं महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
आत्मनिर्भरता
संकेत बिंदु –
- आत्मनिर्भरता क्या है
- आत्मनिर्भरता के लाभ
- आत्मनिर्भरता से जुड़ी सावधानियाँ
आत्मनिर्भरता दो शब्दों ‘आत्म’ और निर्भरता से बना है, जिसका अर्थ है-स्वयं पर निर्भर रहना। अर्थात् अपने कार्यों और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरे का मुँह न ताकना। आत्मनिर्भरता उत्तम कोटि का मानवीय गुण है। इससे व्यक्ति कर्म करने लिए स्वतः प्रेरित होता है। व्यक्ति को अपनी शक्ति, योग्यता और कार्यक्षमता पर पूरा विश्वास होता है। इसी बल पर व्यक्ति उत्साहित होकर पूरी लगन से काम करता है और सफलता का वरण करता है। आत्मनिर्भरता व्यक्ति के लिए स्वतः प्रेरणा का कार्य करती है।
यह प्रेरणा व्यक्ति को निरंतर आगे ही आगे ले जाती है। इससे व्यक्ति में निराशा या हीनता नहीं आने पाती है। आगे बढ़ते रहने से हम दसरों के लिए आदर्श और अनुकरणीय बन जाते हैं। यहाँ एक बात यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि हम अति उत्साहित होकर अति आत्मविश्वासी न बन जाएँ क्योंकि इससे हमारे कदम गलत दिशा में उठ सकते हैं। अच्छा हो कि कोई कदम उठाने से पूर्व हम अपनी कार्य क्षमता का आँकलन कर लें, इससे हम असफलता का शिकार होने से बच जाएँगे, पर हमें हर परिस्थिति में आत्म निर्भर बनना चाहिए।
नारी तेरे रूप अनेक
संकेत बिंदु –
- नारी के विविध रूप
- शिक्षा में प्रगति
- विभिन्न पदों पर नारी
- सुरक्षा की आवश्यकता
समाज में नारी के अनेक रूप हैं। वह विविध भूमिकाएं निभाकर परिवार एवं समाज के विकास में अपना योगदान देती है। वह परिवार में माँ, दादी, पत्नी, बहन, भाभी, चाची, मामी आदि भूमिकाओं में नज़र आती है। अब उसके इस कल्याणी रूप के अलावा नौकरी करने वाला रूप भी दिखने लगा है। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के लिए उठाए गए कदमों से नारी शिक्षा में प्रगति हुई है। साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, जिसमें स्त्री शिक्षा का भी योगदान है। शिक्षा के कारण उसके उत्तरदायित्वों में निरंतर वृद्धि होती गई।
आज नारी घर की चारदीवारी को लाँघकर नौकरी-पेशा करने लगी है। शायद ही कोई क्षेत्र हो जहाँ नारी नौकरी न कर रही हो। डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका, नर्स, प्रशासनिक अधिकारी, क्लर्क, विमान परिचारिका के रूप में उसे सेवा देते देखा जा सकता है। उसे सरकारी, गैरसरकारी, सार्वजनिक संस्थानों में काम करते देखा जा सकता है। आज लोगों की सोच में बदलाव आने के कारण नारी को छेड़छाड़, अश्लीलता, छींटाकसी, हिंसात्मक घटनाओं का शिकार होना पड़ रहा है। ऐसे में नारी के प्रति सम्मानजनक सोच, आदर की भावना एवं सुरक्षा देने के लिए तत्परता की आवश्यकता है।
मैंने ग्रीष्मावकाश कैसे बिताया
अथवा
मेरी अविस्मरणीय यात्रा
संकेत बिंदु –
- पर्वतों का आकर्षण
- यात्रा की तैयारी एवं प्रस्थान
- मनभावन स्थल
- अविस्मरणीय स्मृतियाँ
न जाने क्यों पर्वत मुझे सदा से ही आकर्षित करते हैं। आकाश छूते उनके उन्नत शीश, विशालकाय शरीर, शरीर पर रोएँ के समान उगी वनस्पतियाँ और पेड और इनसे भी अधिक उनके पैरों के पास खड़े होकर उनकी विशालता तथा अपने छोटेपन की अनुभूति मुझे रोमांचित कर देती है। इसी बीते ग्रीष्मावकाश में हम चार-पाँच मित्रों ने परीक्षा से पूर्व ही देहरादून की यात्रा कार्यक्रम घरवालों की अनुमति से बनाया और ‘देहरादून एक्सप्रेस’ से आरक्षण करा लिया। यात्रा की सारी तैयारी करके 02 जून को हम दिल्ली से शाम को चलकर प्रात: देहरादून पहुँच गए। वहाँ होटल में रुके और नित्यकर्म से निवृत्त होकर सहस्रधारा स्नान का मन बनाया।
वहाँ की पतली-सी शीतल धारा में नहाते ही हमारी थकान छूमंतर हो गई। हमने स्वास्थ्य के लिए उपयोगी गंधक का पानी भी पिया। अगले दिन हम बस द्वारा मंसूरी गए। यहाँ की सीली पहाड़ी सड़क की यात्रा बड़ी रोमांचक थी। यहाँ हम चार दिन रुककर कैंपटीफाल समेत अनेक स्थानों को देखा। यहाँ का सौंदर्य रात्रि में और भी निखर उठता था। ‘लाल टिब्बा’ नामक स्थान देखकर हम देहरादून आए और यहाँ सप्ताह भर रुककर गंगा स्नान किया। मंसा देवी मंदिर पैदल जाना एक विचित्र अनुभव था। यहाँ बिताए ग्रीष्मावकाश की स्मृतियाँ आज भी ताज़ी हैं।
मेरे जीवन का लक्ष्य
संकेत बिंदु –
- लक्ष्य निर्धारण
- लक्ष्य के प्रति समर्पण, यही लक्ष्य क्यों?
- विकास में योगदान
लक्ष्यहीन जीवन भटकाव से भरा रहता है। ऐसा जीवन लोगों की दृष्टि में अच्छा नहीं माना जाता है। निरुद्देश्य घूमते रहने से अच्छा है कि हम अपने जीवन का एक लक्ष्य बना लें। बचपन से ही मैं एक अच्छा इंजीनियर बनने के लिए सोचा करता था। अब यही मेरा जीवन लक्ष्य है। इसे मैं पूरा करके ही रहूँगा। इसके लिए मैंने आठवीं कक्षा से ही विज्ञान, गणित, अंग्रेज़ी जैसे विषयों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। मैंने दसवीं में ‘ए’ ग्रेड लाने का फैसला किया है, ताकि ग्यारहवीं में विज्ञान पढ़ने में कोई परेशानी न आए।
यह लक्ष्य मैंने इसलिए चुना क्योंकि समाज में इंजीनियर का स्थान ऊँचा माना जाता है। वह समाज और प्रकृति को सुंदर बनाने में अपना सहयोग देता है। इसमें नौकरी और स्वतंत्र व्यवसाय दोनों के रास्ते खुले रहते हैं। यह आय और सम्मान दोनों ही पाने का साधन है। एक इंजीनियर बनकर औद्योगिक विकास में अपना योगदान देना चाहता हूँ। अपने परिश्रम और नई खोज द्वारा देश के विकास में तनमन से प्रयास करूंगा। मैं प्रसिद्ध भारतीय इंजीनियर सर गंगा राम के कार्यों की तरह समाज के लिए हितकारी काम करना चाहता हूँ।
भ्रष्टाचार की समस्या एवं समाधान
संकेत बिंदु –
- भूमिका
- भ्रष्टाचार की परिभाषा
- भ्रष्टाचार फैलने के कारण
- समाधान
वर्तमान समय में समाज को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भ्रष्टाचार की समस्या उनमें सर्वोपरि है, जिससे किसीन-किसी मोड़ पर दो-चार होना पड़ता है। भ्रष्टाचार का अर्थ है-भ्रष्ट आचरण करना अर्थात् स्वार्थ के वशीभूत होकर नैतिक मापदंडों के विरुद्ध आचरण करना ही भ्रष्टाचार है। आज यह समाज में अपनी जड़ें जमा चुका है। बेईमानी, चोरबाज़ारी, रिश्वतखोरी, मिलावट, जमाखोरी, जैसी बुराइयाँ भ्रष्टाचार की ही देन है। सरकारी एवं राजनैतिक अधिकारों का दुरुपयोग कर लोग भ्रष्टाचार में आकर डूबकर अपने भले में लग जाते हैं और दूसरों के हित से उनका कोई लेना-देना नहीं रह जाता है।
भौतिकवाद के प्रभावस्वरूप लोगों की सोच में बदलाव आया है और वे येन-केन प्रकारेण अधिकाधिक धन कमाना अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठे हैं। रही-सही कसर उपभोक्तावादी संस्कृति ने पूरी कर दी है, जिसके लोभ में फँसकर व्यक्ति बिना परिश्रम किए अधिकाधिक सुख-सुविधाओं का उपभोग कर लेना चाहता है। भ्रष्टाचार के समाधान के लिए सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए। भ्रष्टाचारियों द्वारा अर्जित संपत्ति जब्त कर उन्हें पदों से हटा देना चाहिए। भ्रष्ट नेताओं की सदस्यता समाप्त कर उनके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इसके अलावा लोगों को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा तथा युवाओं को आगे आना चाहिए।
मेरी प्रिय पुस्तक
संकेत बिंदु –
- प्रिय पुस्तक
- प्रिय होने का कारण
- मर्मस्पर्शी कथ्य
- पथ-प्रदर्शक
अब तक मैंने कहानी, नाटक के अलावा कविताओं की अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं, पर जिस पुस्तक ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया, वह है-गोस्वामी तुलसीदास की अमरकृति रामचरित मानस। इस महाकवि ने रामचरित मानस की रचना चार सौ वर्ष से भी अधिक समय पूर्व की थी परंतु इस पुस्तक की प्रासंगिकता में कोई कमी नहीं आई है। वर्तमान परिस्थितियों में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। इसमें पिता-पुत्र, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य, स्वामी-सेवक, भाई-भाई और मित्र आदि के संबंधों का सुंदर निरूपण करते हुए उन्हें कर्तव्यबोध भी कराती है। यह सब व्यावहारिक धरातल पर किया गया है। इसमें भारतीय संस्कृति की मूल भावना ‘एकता’ और समन्वय का घनीभूत रूप है। इसका कथ्य भगवान राम की पावन जीवनगाथा है जो जनमानस को कदम-कदम पर प्रेरित करती है और कर्तव्यबोध एवं उत्तरदायित्व की भावना जगाती है। इसकी भाषा-शैली अत्यंत सहज-सरल है, जिसे आसानी से समझा जा सकता है। यह पुस्तक मानव को आजीवन सदाचार की राह दिखाती है।
जीवनमूल्यों की बढ़ती आवश्यकता
संकेत बिंदु –
- जीवन मूल्यों का अर्थ
जीवन मूल्यों का अर्थ उन आदर्शों और मान्यताओं से है जिन्हें हमारे ऋषि-मुनियों ने जीवन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए बनाया था। ये जीवन मूल्य ही हैं जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखते हैं अन्यथा मनुष्य तथा पशुओं में भेद करना मुश्किल हो जाएगा। किसी तरह छीन-झपटकर अपना पेट भरना, घूमने, सोने जैसे काम तो पशु भी कर लेते हैं, पर जीवन मूल्यों के कारण ही व्यक्ति अपने आगे की थाली किसी भूखे के आगे सरका देता है। कार्ल मार्क्स ने अपनी मेज़ की दराज़ में रखी ब्रेड को दूसरों को खिला दिया। लेनिन ने दूसरों के हक के लिए संघर्ष किया। कर्ण और राजा हरिश्चंद की दानशीलता उनके जीवन मूल्यों के कारण ही थी।
गांधी जी ने दूसरों को अधनंगा देखकर एक धोती से काम चलाया तो, राजा शिवि ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर का मांस काटकर बाज को दिया। दुर्भाग्य से पाश्चात्य सभ्यता के कारण लोग इन जीवन-मूल्यों की उपेक्षा करते हैं। त्याग, परोपकार, उदारता पर दुख कातरता इतिहास की बातें होती जा रही हैं, इससे व्यक्ति एवं समाज में असंतोष एवं तृष्णा बढ़ रही है।
दूरदर्शन की उपयोगिता
संकेत बिंदु –
- दूरदर्शन की आवश्यकता
- दूरदर्शन का महत्त्व
- शिक्षा और दूरदर्शन
- सांस्कृतिक प्रदूषण
जे.एल. बेयर्ड ने जब दूरदर्शन की खोज की थी तो यह बिलकुल भी नहीं सोचा था कि उनकी खोज एक दिन हर घर की आवश्यकता बन जाएगी। सचमुच आज दूरदर्शन हर परिवार, क्या हर व्यक्ति के लिए आवश्यक बनता जा रहा है। यह लोगों के थके-हारे मन एवं शरीर को मनोरंजन प्रदान कर नवीन उत्साह से भर देता है। दूरदर्शन केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि नित नई-नई जानकारियों का साधन भी है। इससे अपने देश की घटनाओं के अलावा विदेश की जानकारी भी प्राप्त की जाती है और घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है।
वर्तमान में यह बच्चे, बूढ़े और युवाओं सभी का चेहता बन गया है। छात्रों के लिए एन.सी.ई.आर. टी. द्वारा शैक्षिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। इनमें विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान जैसे विषय मुख्य हैं। विद्यार्थियों को इन कार्यक्रमों का लाभ उठाना चाहिए। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों में फूहड़ता, अश्लीलता, हिंसा, मारकाट, लूट आदि के दृश्य होते हैं, जो युवा मन पर कुभाव डालते हैं। इससे सांस्कृतिक प्रदूषण में वृद्धि हुई है परंतु क्या देखना है, कितना देखना है, यह तो मनुष्य के ही हाथ में है।
समय का सदुपयोग
संकेत बिंदु –
- समय सदुपयोग का महत्त्व
- आलस्य का महान शत्रु
- विद्यार्थी जीवन में समय की महत्ता
- सफलता का रहस्य
समय निरंतर चलने वाली गतिशील शक्ति है। बुद्धिमान इसका महत्त्व समझकर सदुपयोग करते हैं जबकि अज्ञानी इसे व्यर्थ में गँवा देते हैं। समय का सदुपयोग करने वाले लोग ही समय पर अपना काम पूरा कर पाते हैं। जो समय की महत्ता समझता है, समय उसे महत्त्वपूर्ण बना देता है। परिश्रमी एवं कर्मशील व्यक्ति समय का एक-एक पल नियोजित कर सदुपयोग करते हैं। आलसी व्यक्ति आलस करते हुए समय गंवाते हैं और काम अपूर्ण रह जाने पर समय की कमी का रोना रोते हैं। उनका आलस्य उन्हें समय पर काम करने में अवरोध उत्पन्न करता है। आलस्य व्यक्ति का महान शत्रु है। विद्यार्थी जीवन में समय के सदुपयोग की महत्ता और भी बढ़ जाती है। उसे प्रत्येक विषय के लिए समय नियोजन करना पड़ता है। इस काल में विद्यार्थी में जो आदतें पड़ जाती हैं वे आजीवन साथ रहती हैं। ऐसे समय के सदुपयोग की आदत और भी महत्त्वपूर्ण बन जाती है। संसार में जितने भी लोगों ने सफलता का शिखर छुआ, उसके पीछे समय का सदुपयोग करने का रहस्य छिपा था। गांधी, नेहरू, टैगोर, तिलक, नेपोलियन बोनापार्ट आदि की सफलता का मूलमंत्र समय का सदुपयोग ही था।
बच्चों के कंधों पर बढ़ता बोझ
संकेत बिंदु –
- प्रतियोगिता का दौर
- बच्चों पर प्रभाव
- स्वार्थी प्रवृत्ति
वर्तमान समय में प्रतियोगिता का दौर है। इस दौर में हर माता-पिता की यह इच्छा रहती है कि उसका बच्चा सबसे आगे निकल जाए। इसी सोच के कारण आज स्कूल जाने वाले बच्चों के कंधे पर बस्ते का बोझ बढ़ता जा रहा है। कमज़ोर शरीर वाले बच्चे तो अपना बस्ता भी नहीं उठा पाते हैं। जो उठा भी पाते हैं वे कमर झुकाए चल रहे हैं पर माता-पिता देखकर भी इसे अनदेखा कर रहे हैं। शिक्षाविद् तथा विद्वानों ने समय-समय पर सुझाव दिया है कि बस्ते का बोझ कम किया जाए, पर माता-पिता की सोच स्कूल तथा पब्लिशर की लालच के कारण उनके सुझाव कागजों तक ही सीमित रह जाते हैं।
माता-पिता अपने बच्चे को अल्पकाल में सबसे होशियार बना देना चाहते हैं तो स्कूल के प्रधानाचार्य और प्रबंधक पुस्तकें बेचकर लाभ कमाना चाहते हैं। जब ज़्यादा पुस्तकें चाहिए तो प्रकाशक संस्थानों (Publishers) को काम मिलेगा और उन्हें भी दो का चार बनाने का मौका मिलेगा। अब इसी लोभ में बच्चे की कमर टूटे या वह बस्ता उठाए झुककर चले, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं रह जाता है। अब समय आ गया है कि बच्चों के बस्ते का बोझ अविलंब कम किया जाए।
अतिथि देवो भवः
संकेत बिंदु –
- अतिथि भगवान का रूप
- अतिथि कौन
- पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव
भारतीय संस्कृति की ऐसी अनेक विशेषताएँ हैं जो इसे अन्य संस्कृतियों से विशिष्ट बनाती है। इनमें एक है अतिथि को देवता मानने की सोच। इस धारणा के कारण लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार अतिथि का स्वागत करते हैं और उसे संतुष्ट रखने का प्रयास करते हैं। अतिथि कौन होता है? अतिथि वह व्यक्ति होता है जिसके आने की कोई तिथि नहीं होती है। वह अचानक आ धमकता है, बिना किसी पूर्व सूचना के। इस स्थिति में जब हम अतिथि का भरपूर स्वागत सत्कार करते हैं तो अतिथि पर ही नहीं समाज पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
भारतीय संस्कृति की परंपरानुसार अतिथि का स्वागत-सत्कार करना हर भारतीय का दायित्व बनता है। हमें इस परंपरा का निर्वाह करना ही चाहिए। आजकल टूटते परिवार, बढ़ती, महँगाई, समयाभाव काम-काज की अधिकता और भागमभाग की जिंदगी के बीच अतिथि का सत्कार करना मुश्किल होता जा रहा है। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण हम इसे भूलते जा रहे हैं। कुछ भी हो पर हमें अतिथि सत्कार की परंपरा को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
ट्रैफिक जाम की समस्या
संकेत बिंदु –
- ट्रैफिक जाम की वर्तमान स्थिति
- जाम से निपटने के उपाय
- ‘आड-इवेन’ योजना
दिल्ली को देश का दिल कहा जाता है। जो यहाँ आता है वह यहीं का होकर रह जाता है। इस कारण इस महानगर में सरकारी और व्यक्तिगत वाहनों की संख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही है। इससे यहाँ हर चौराहे पर लगभग जाम की स्थिति देखने को मिलती है। सुबह-शाम के समय मुख्य मार्गों पर कई-कई किलोमीटर लंबी वाहनों की कतारें देखने को मिलती हैं।
ट्रैफिक जाम से निपटने के लिए सरकार और पुलिस द्वारा समय-समय पर कदम उठाए जाते हैं। दिल्ली में मेट्रो रेल की शुरुआत इसी दिशा में उठाया एक कदम था। जाम से बचाने के लिए व्यस्त चौराहों पर फ़्लाई ओवर बनाए जाते हैं। इसके अलावा दिल्ली सरकार ने ‘ऑड और इवेन’ योजना शुरू की थी। इससे शुरू में लोगों को परेशानी तो हुई, पर जाम की समस्या में कमी आई थी। इससे निपटने के लिए सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग, कार पूलिंग तथा व्यक्तिगत वाहनों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए।
पाश्चात्य सभ्यता की गिरफ्त में आते युवा ।
संकेत बिंदु –
- पाश्चात्य संस्कृति का अर्थ
- पाश्चात्य संस्कृति का आकर्षण
- मानवीय मूल्यों पर बुरा असर
पाश्चात्य संस्कृति को पश्चिमी देशों की संस्कृति भी कहा जाता है। अर्थात् पश्चिमी देशों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, आधुनिक जीवन शैली आदि का मिला-जुला नाम पाश्चात्य संस्कृति है। पश्चात्य संस्कृति से युवा वर्ग सम्मोहित हो गया है। वह पाश्चात्य संस्कृति को ललचाई नज़रों से देख रहा है। वह अपना सोच-विचार रहन-सहन, आचार-विचार आदि पश्चिमी देशों जैसा करता जा रहा है। युवाओं के लिए धोती-कुरता या कुरता-पजामा पिछड़ी पोशाकों का प्रतीक है। वे जींस और टी-शर्ट पहनने लगे हैं।
‘प्रणाम’ और ‘चरण-स्पर्श’ की जगह हाय हैलो लेता जा रहा है। भारतीय पकवानों की जगह बर्गर, पीज्जा, चाउमीन, नूडलस, समोसा, मोमोज़, पेटीज आदि रुचिकर लगते हैं। पाश्चात्य संस्कृति का सबसे बुरा असर हमारे जीवन मूल्यों पर पड़ रहा है। त्याग, प्रेम, सद्भाव, भाईचारा, उदारता परोपकार आदि की जगह स्वार्थपरता, आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता लेती जा रही है। समाज के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।
पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र
संकेत बिंदु –
- पुस्तकों का महत्त्व
- ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार
- सच्चा मनुष्य बनने में सहायक
मनुष्य ज्ञान पिपासु एवं जिज्ञासु प्राणी है। उसकी ज्ञान पियासा और जिज्ञासा को शांत करने का सर्वोत्तम साधन पुस्तकें हैं। पुस्तकों में विविध प्रकार का ज्ञान भरा होता है जिससे मनुष्य अच्छा इनसान बनता है तथा उन्नति करता है। इस प्रकार पुस्तकों का बहुत महत्त्व है। पुस्तकें दुविधाग्रस्त व्यक्ति का मार्गदर्शन करती हैं। इससे दुविधाओं से मुक्ति मिलती है। पुस्तकें ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार होती हैं। इनसे व्यक्ति ज्ञानवान बनता है। जब वह कामकाज से थक जाता है तो पुस्तकों से अपना मनोरंजन करता है और थकानमुक्त महसूस करता है।
पुस्तकें हमारे सच्चे विवेकशील मित्र की तरह होती हैं। वे हमें सही-गलत, नैतिक-अनैतिक, ज्ञान-अज्ञान तथा न्याय-अन्याय में अंतर करना सिखाती हैं। पुस्तकें मानसिक शांति प्रदान करती हैं तथा कर्म का संदेश देती हैं। रामचरितमानस, महाभारत श्रीमद् भागवत गीता, कामायनी, निर्मला, साकेत आदि ऐसी ही पुस्तकें हैं। पुस्तकें हमें धर्म की ओर मोड़कर नैतिकता का पाठ पढ़ाती हैं। हमें पुस्तकें पढ़कर फेंकने के बजाय किसी व्यक्ति या पुस्तकालय को दे देनी चाहिए।
औद्योगीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव
संकेत बिंदु –
- औद्योगीकरण एक आवश्यकता
- वनों को क्षति
- पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि
हमारा देश विकासशील राष्ट्र है। विकास के पथ पर बढ़ते हुए यहाँ अनेक औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की गईं। स्वतंत्रता के बाद औद्योगीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया गया। इससे हमारे देश में ही सुई से हवाई जहाज़ तक का निर्माण किया जाने लगा। इससे एक ओर लोगों को रोजगार मिला तो दूसरी ओर अर्थव्यवस्था मज़बूत हुई। इसके लिए पर्याप्त भूमि की आवश्यकता हुई जिसकी पूर्ति के लिए वनों को काटा गया।
इतना ही नहीं इन इकाइयों तक पहुँचने के लिए और इनमें बना माल लाने ले जाने के लिए सड़कें बनाईं गई जिससे हरे-भरे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की गई। इसके अलावा इन औद्योगिक इकाइयों से निकले धुएँ से हवा में प्रदूषक तत्व मिले जिससे हवा जहरीली होती है। इनसे निकला अपशिष्ट पदार्थ और दूषित जल ने आस-पास के जल स्रोतों को प्रदूषित किया। इससे पानी ही नहीं मृदा प्रदूषण भी बढ़ा। इन इकाइयों में लगे उच्च क्षमता के मोटरों ने ध्वनि प्रदूषण को बढ़ावा दिया। औद्योगीकरण एक आवश्यकता है परंतु पर्यावरण का ध्यान रखकर इनकी स्थापना की जानी चाहिए।
संतोष-सबसे बड़ा धन
संकेत बिंदु –
- भौतिकवाद का असर
मनुष्य की प्रवृत्ति ही है कि वह अधिक से अधिक सुख-सुविधाएँ पा लेना चाहता है। वह दूसरों के हिस्से की सुविधाएँ अपना बनाता जा रहा है। भौतिकवाद ने उसकी तृष्णा और भी बढ़ा दिया है। इससे व्यथित होकर वह सुख के पीछे भागता जा रहा है। वह मृगतृष्णा का शिकार हो रहा है। इसके बाद भी वह सुखी नहीं है, क्योंकि मनुष्य के मन में संतोष नामकी चीज़ ही नहीं बची है। कहा भी गया है- ‘गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान। जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान।।
अर्थात् संतोष रूपी धन के सामने सभी धन तुच्छ हैं। जो व्यक्ति संतोषी होता है वही सच्चा सुख पाता है। धन का लालच व्यक्ति को चैन से बैठने नहीं देता है। लालच के कारण व्यक्ति भूखे पशु की भाँति यहाँ-वहाँ घूमता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति के मन में संतोष की भावना आ गई तो वह प्रसन्नता की अनुभूति करता है। वह उतने ही पैसों की आवश्यकता महसूस करता है जितना कि उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ज़रूरी होती है। ऐसे ही लोग कहते हैं-‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।’
संयुक्त परिवार के प्रति बदलती अवधारणा
संकेत बिंदु –
- संयुक्त परिवार के लाभ
- संयुक्त परिवार टूटने के कारण
- हानियाँ
भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार को महत्ता दी गई है। ऐसे परिवार में माता-पिता और बच्चों के अलावा दादा-दादी चाचा-चाची तथा ताऊ-ताई और उनके बच्चे साथ रहते हैं, खाते-पीते हैं और एक ही छत के नीचे रहते हैं। संयुक्त परिवार उस बड़े-बूढ़े बरगद के वृक्ष की भाँति होते हैं जो धूप-सरदी और वर्षा स्वयं सहकर दूसरों को सुख देते हैं। यही स्थिति घर के बुजुर्गों की होती है जो परिवार के अन्य सदस्यों को परेशानी से बचाते हैं। वे छोटे बच्चों को ज्ञानपूर्ण बातों एवं कहानियों से शिक्षा ही नहीं देते बल्कि उनका चरित्र निर्माण भी करते हैं। संयुक्त परिवार टूटने से अब दादी-नानी की कहानियाँ कागजों की बातें बनती जा रही हैं। संयुक्त परिवार टूटने का मुख्य कारण भौतिकवाद बढ़ती स्वार्थी प्रवृत्ति तथा पश्चिमी सभ्यता का असर है। इसके अलावा शिक्षित होकर नौकरी करने अन्य शहर में जाना वहीं बस जाना भी है। संयुक्त परिवार टूटने से अब बच्चों में नैतिक ज्ञान एवं संस्कार की कमी होती जा रही हैं। उन्हें अपनों का संरक्षण न मिल पाने से वे असुरक्षा तथा हीनता से ग्रसित रहते हैं। माता-पिता दोनों के काम पर जाने से बच्चों को केच में अपना बचपन बिताने को विवश होना पड़ रहा है। प्यार तथा अपनेपन की कमी में यही बच्चे वृद्ध माता की उपेक्षा करते हैं जिससे उन्हें वृद्धाश्रम की शरण लेनी पड़ती है।
सादा जीवन उच्च विचार
संकेत बिंदु –
- सादा जीवन उच्च विचार का आशय
- उपभोक्तावाद का प्रभाव
- महापुरुषों के उदाहरण
मनुष्य का व्यवहार, उसका रहन-सहन और कार्यकलाप उसकी अपनी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है। कुछ लोग फ़ैशन और चमक-दमक से पूर्ण जीवन को ही आधुनिकता का पर्याय मानते हैं, पर कुछ लोग साधारण किंतु साफ़-सुथरे पहनावे का वरीयता देते हुए अपने आचरण में सरलता पवित्रता, उदारता, त्याग, करुणा आदि उच्च मानवीय गुणों को व्यवहार में बनाए रखते हैं। ऐसा जीवन किसी तपस्या से कम नहीं है। कुछ वर्षों से समाज में उपभोक्तावाद का प्रभाव जोरों पर है। लोग सुख-सुविधाओं का अधिकाधिक प्रयोग करके शारीरिक और भौतिक सुख पाना चाहते हैं। इसके लिए वे तड़क-भड़क और दिखावायुक्त आडंबरपूर्ण जीवन जीते हैं। इससे व्यक्ति की मानसिक शांति छिन जाती है तथा जीवन में रिक्तता एवं व्यग्रता बढ़ती जाती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सादा जीवन जीते हुए विचारों की श्रेष्ठता बनाए रखी। उन्होंने मानवता की भलाई को अपना परम लक्ष्य समझा। गांधी जी ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का आदर्श अपनाते थे और संपूर्ण विश्व में पूजनीय बने।
आतंकवाद-एक विश्वव्यापी समस्या
संकेत बिंदु –
- संपूर्ण विश्व की समस्या
- आतंकवाद के दुष्प्रभाव
- समाधान के प्रयास
हर देश की अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं, परंतु जिस समस्या के कारण आज पूरा विश्व परेशान है वह है-आतंकवाद। अपनी हिंसक शक्ति से जनता में भय का वातावरण बनाकर उसे आतंकित करना और अपनी अनुचित माँगे मँगवाने के लिए हिंसा का सहारा लेना ही आतंकवाद है। आज भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, ईराक ही नहीं बल्कि अमेरिका और इंग्लैंड भी इसकी गिरफ़्त में आ गए हैं। 02 अक्टूबर 2017 को अमेरिका के लास वेगास के एक कंसर्ट में अंधाधुंध गोलीबारी से साठ से अधिक लोगों की हत्या इसका ताज़ा उदाहरण है। ऐसी घटनाओं से दुनिया की नींद उड़ी है। कब कहाँ कौन-सी आतंकी घटना हो जाए, इसकी आशंका बनी रहती है।
आतंकवाद से समाज और राष्ट्र को अपूर्ण क्षति होती है। अनेक बच्चे जवान और बूढ़े असमय काल-कवलित हो जाते हैं। आतंकवाद से निपटने में जो धन खर्च होता है, उसे विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। आतंकवाद से निपटने के लिए दुनिया के सभी देशों को मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। पकड़े गए आतंकियों का सिर कुचलकर आतंकवाद को मुँह तोड़ जवाब देना चाहिए ताकि इस पर नियंत्रण किया जा सके।
मनोरंजन के आधुनिक साधन
संकेत बिंदु –
- मनोरंजन की आवश्यकता
- मनोरंजन के प्राचीन और आधुनिकतम साधन
- मनोरंजन से किसी को दुख नहीं
श्रम से थके तन-मन और मनोरंजन का अत्यंत गहरा नाता है। मनुष्य दिनभर मानसिक और शारीरिक श्रम से थककर चूर हो जाता है तो वह मनोरंजन करना चाहता है ताकि वह थकान से मुक्त और नई ऊर्जा से भर जाए। प्राचीन काल में मनुष्य पशु-पक्षियों से अपना मनोरंजन करता था। वह मुरगे, भेड़ें तथा भैसों-बैलों की लड़ाई देखकर प्रसन्न होता था। कालांतर में वह साहित्य संगीत, कला आदि से अपना मनोरंजन करने लगा। समय के साथ-साथ वह मनोरंजन के उत्तम साधनों की खोज करता रहा।
विज्ञान का साथ पाकर उसने नए-नए साधन बनाए। ग्रामोफोन, टेलीविजन, वी.सी.आर. फ़िल्मों के अलावा रिकॉर्डेड गीत-संगीत से अपना मनोरंजन करने लगा। कंप्यूटर और मोबाइल फ़ोन भी उसका पसंदीदा साधन बन गया है। अपना मनोरंजन करते समय हमें दूसरों के दुख का भी ध्यान रखना चाहिए। ऊँची आवाज़ में गीत संगीत बजाना, देर रात तक डीजे पर नाचने से किसी को परेशानी हो रही होगी, इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
क्रिकेट का लोकप्रिय प्रारूप – टी-ट्वेंटी
संकेत बिंदु –
- नए प्रारूप की विशेषता
- लोकप्रियता का कारण
- टी-ट्वेंटी में भारत की स्थिति
क्रिकेट हमारे देश का अत्यंत लोकप्रिय खेल है। कुछ समय तक दो प्रारूपों टेस्ट मैच और एक दिवसीय रूप में ही खेला जाता था पर इधर करीब एक दशक से इसे टी-20 क्रिकेट के प्रारूप में खेला जाने लगा है। इसका नाम फटाफट क्रिकेट भी है क्योंकि इसे 20-20 ओवरों तक ही खेला जाता है। लगभग चार घंटे में समाप्त हो जाने से इस मैच में रोमांच अपने चरम पर पहँच जाता है। इस प्रारूप में परिणाम का निकलना तय रहता है। कम समय में क्रिकेट का भरपूर आनंद देने के कारण आजकल इसकी लोकप्रियता चरम पर है। आजकल यह क्रिकेट की प्रतिभा परखने का अच्छा साधन मिल गया है। इस प्रारूप में कई बार तो 50 ओवरों तक खेले जाने वाले क्रिकेट मैच से भी अधिक रन बन जाते हैं। रनों की बारिस देखने का मज़ा टी-20 प्रारूप में ही है। भारत ने सन् 2007 में पाकिस्तान को हराकर टी-20 क्रिकेट का विश्वकप जीता था। इस खेल में भारत आज भी विशिष्ट स्थान रखता है। इसी खेल के माध्यम से एक दिवसीय एवं टेस्ट में भारतीय खिलाड़ी विश्व में क्रिकेट प्रेमियों के दिलों पर राज कर रहे हैं।
मधुर वाणी की महत्ता
संकेत बिंदु –
- वाणी एक अनमोल वरदान
- मीठी वाणी का प्रभाव
- कटुभाषा की हानियाँ
मनुष्य को ईश्वर से एक विशिष्ट वरदान मिला है, वह है-वाणी का अनमोल वरदान। इसी अनमोल वाणी के कारण व्यक्ति दूसरों को भी अपना बना लेता है। कहा भी गया है कि ‘कागा काको लेत है कोयल काको देय। मीठे वचन सुनाय के जग अपनो करि लेय। अर्थात् कौआ अपनी कर्कश वाणी के कारण हर जगह से भगाया जाता है जबकि कोयल अपनी वाणी से सबका मन हर लेती है। मीठी वाणी का प्रभाव अत्यंत व्यापक होता है। मीठी बोली बोलने वाले को सुख देती है तो यह सुनने वाले को प्रसन्न कर देती है। मीठी वाणी से बिगड़े काम भी बन जाते हैं। मृदुभाषी को सर्वत्र आदर मिलता है। कवि तुलसी ने कहा है-“तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँओर, वशीकरण एक मंत्र है तजि दे वचन कठोर।” कटुभाषी व्यक्ति की स्थिति कौए जैसी होती है। उसे कहीं भी आदर नहीं मिलता है। अपनी कटुभाषा के कारण उसे हानि उठानी पड़ती है। कटुभाषियों के लिए ही रहीम ने कहा है-“खीरा सिर ते काटिए मलियत नमक मिलाय। रहिमन कडुवे मुखन को चहिए यही सजाय।”
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