लेखिका परिचय
महादेवी वर्मा
इनका जन्म सन 1907 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद सहर में हुआ था। इनकी शिक्षा दीक्षा प्रयाग में हुई। ये एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्य के गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में अद्वितीय सफलता प्राप्त की है। प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्राचर्या पद पर रहते हुए इन्होने लड़कियों की शिक्षा के लिए काफी प्रयत्न कियें। सन 1987 में इनका देहांत हो गया।
मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश ( Very Short Summary)
प्रस्तुत संस्मरण में महादेवी जी ने अपने बचपन के उन दिनों को स्मृति के सहारे लिखा है जब वे विद्यालय में पढ़ रही थीं। इस अंश में लड़कियों के प्रति सामाजिक रवैये, विद्यालय की सहपाठिनों, छात्रावास के जीवन और स्वतंत्रता आंदोलन के प्रसंगों का बहुत ही सजीव वर्णन है। लेखिका अपने बचपन के दिनों को याद कर कहती है कि वे परिवार में पहली लड़की पैदा हुईं थीं। घर में हिन्दी का कोई वातावरण नहीं था लेकिन माँ ने उसे संस्कृत, हिन्दी,अंगेरज़ी आदि की शिक्षा दी।
फिर मिशन स्कूल में जाने पर उनकी मुलाकात सुभद्रा कुमारी चौहान से हुई। उनके छात्रावास में विभिन्न स्थानों से आए बच्चों में एकता एवं सहानुभुति की भावना थी। वे कविता भी लिखती थी। कविता –पाठ में उन्हें हमेशा प्रथम पुरस्कार ही मिलता था। एक बार उन्होंने पुरस्कार में मिले चाँदी के कटोरे को दानस्वरूप गाँधी जी को दे दिया। उनके घर के पास रहने वाले नवाब साहब के परिवार से उनके बड़े अच्छे संबंध थे। नवाब साहब ने ही उनके छोटे भाई का नामकरण किया था। उस समय लोगों में जैसी एकता और भाईचारा दिखता था , आजकल वह सपना –सा लगता हैl
मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश ( Detailed Summary)
लेखिका के परिवार में पहले लड़कियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। इसीलिए उनके कुल में 200 वर्षों तक कोई लडक़ी नहीं हुई। 200 वर्षों के बाद लेखिका का जन्म हुआ। लेखिका के दादा जी ने दर्गुा.पूजा करके लड़की माँगी थी। इसलिए उन्हकं अपने बचपन में कोई दुख नहीं हुआ। लेखिका को उर्दूए फारसीए अंग्रेजी तथा संस्कृत भाषाओं को पढ़ने की सुविध प्राप्त थी। हिंदी पढ़ने के लिए तो उन्हें उनकी माँ ने ही प्रेरित किया था। लेखिका को हिंदीए संस्कृत पढ़ने में तो बहुत ही आनंद आया किंतु उर्दू8फारसी पढ़ने में उनकी रुचि नहीं जागी। मिशन स्कूल दिनचर्या भी उन्हें अपनी ओर आकषिर्त न कर सकी। इसीलिए उन्हें क्राॅस्थवेट गल्र्स काॅलेज में भर्ती कराया गया था। वहाँ उन्हें हिंदू व ईसाई लड़कियों के साथ रहने का अवसर मिला।
लेखिका जिस छात्रावास में रहती थींए वहाँ हर कमरे में चार-चार छात्राएँ रहती थीं। लेखिका के कमरे में सुभद्रा कुमारी चाहैान भी थीं जो वहाँ की सीनियर छात्रा थीं। वे कविता लिखती थीं। इध्र लेखिका की माँ भी भजन लिखती और गाती थीं। अतः उन्हें भी लिखने की इच्छा हुई। उन्होंने कविता लिखनी प्रारंभ की और लिखती ही चली गईं। एक दिन महादेवी के द्वारा छिप.छिप कर कविता लिखने की भनक सुभद्रा वुफमारी के कानों में पड़ी तो उन्होंने लेखिका की काॅपियों में से कविताएँ ढूँढ़कर उनके विषय में सारे छात्रावास को बता दिया। उस दिन से उन दोनों के बीच मित्राता हो गई। फिर दोनों ही खेल के समय साथ ही बैठकर कविता लिखने लगीं। उनकी तुकबंदी कर लिखी गई कविता ‘स्त्राी दर्पण’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई।
सन 1917 के आस.पास हिंदी के प्रचार का समय था। अतः उन दिनों कवि सम्मेलन खूब होने लगे थे। लेखिका भी कवि सम्मेलनों में जाने लगीं। उनके साथ क्राॅस्थवेट की एक शिक्षिका उनके साथ जाया करती थीं। उन कवि सम्मेलनों के अध्यक्ष प्रायः हरिऔधए श्रीधर पाठक जैसे महान कवि होते थे। अतः लेखिका अपनी बारी का घबराहट के साथ इंतशार करती थीं आरै अपने नाम की उदघोषणां सुनने के लिए बचे नै रहती थीं। किंतु उन्हों हमशा ही प्रथम परु स्कार ही मिलता था।
उन्हीं दिनों गांधी जी आनदं भवन आए। लेिखका भी अन्य छात्राआ के साथ उनसे भेंट करके जेबखर्च से बचाकर कुछ पैसे देने उनके पास गईं। उन्होंने कवि सम्मेलन में पुरस्कार स्वरूप मिला एक चाँदी का कटोरा गांधी जी को दिखाया तथा गांधी जी के माँगने पर देश-हित के लिए उन्हें दे दिया। वे गांधी जी को वह कीमती तथा स्मृति-चिह्न रूपी कटोरा भेंट करके बहुत खुश हुईं।
छात्रावास का जीवन जाति-पाँति के भदे-भाव से दूर आपसी प्रेम भरा हुआ एक परिवार जैसा था। अतः जे़बुन नाम की एक मराठी लडक़ीए लेखिका का सारा काम कर देती थी। वह हिंदी तथा मराठी भाषा का मिलाजुला रूप बाेला करती थी। वह अच्छी हिदीं नहीं जानती थी। वहाँ एक बेगम थीं जिनको मराठी बालेने पर चिढ़ हातेी थी। ‘हम मराठी हैं तो मराठी हीे बोलगें। ’ उन दिनाें देश में सर्वत्र पारस्परिक प्रेम एवं सद्भाव का वातावरण था। अतः अवध की छात्राएँ अवधी, बुंदेलखडं की छात्राएँ बुदेंली बोला करती थीं। इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी। मेस में सभी एक साथ खाना खाती थीं तथा एक ही इशवर प्रार्थना एवं भाजे न मंत्रा बाले ती थीं। इसमें र्काइे झगडा़ नहीं होता था।
लेखिका का परिवार जहाँ रहता था वहाँ एक जवारा की बेगम साहिबा का परिवार भी रहता था। उनके परिवारों में बहुत घनिष्ठता थी। उनके बीच कोई जाति एवं र्धम-संबंधी भेदभाव नहीं था। वे एक-दूसरे के जन्मदिन पर परिवार जैसे मिलते-जुलते थे। बेगम के बच्चे लेखिका की माँ को चचीजान तथा लेखिका बेगम साहिबा को ताई कहती थीं। लेखिका राखी के दिन बेगम साहिबा के बच्चों को राखी अवश्य बाँधती थीं तथा मोहर्रम के दिन बेगम साहिबा लेखिका के लिए कपड़े अवश्य बनवाती थीं।
लेखिका के घर जब छोटे भाई का जन्म हुआ तो बेगम साहिबा ने माँगकर नेग लिया था। उसका नाम ‘मनमोहन’ भी उन्हीं ने रखा था।
वही मनमोहन वर्मा पढ़.लिखकर प्रोफेसर बने तथा बाद में जम्मू विश्वविद्यालय तथा गोरखपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने।